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वर्ष २०१३ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मैं समझ गया उसका आशय!
मसानी महात्रि!
कन्या-रूप में होती है!
इस से ऐसी दुर्गन्ध आती है,
कि मृत-भोजी पशु और पक्षी भी जीवित नहीं रह पाते!
और तभी आई वो भयानक दुर्गन्ध!
उसके मारे हमारे कपड़े भी पसीज से उठे!
चिपक से गए!
शर्मा जी को तो, उलटी ही आने लगी!
मैंने फौरन, उर्रुवाकि का संधान किया!
उठाई मिट्टी!
शर्मा जी के मुंह में रखी,
और अपने भी,
थूक के संग, गटक गए!
हमने मिट्टी गटक ली थी अंदर!
उसने महात्रि का आह्वान किया था!
जब कोई प्रेत, ऐसा प्रेत, इस धीमणा जैसा,
आह्वान करता है, तो मात्र एक क्षण में ही,
सवा लक्ष से अधिक जाप कर सकता है!
ये है उनकी विलक्षणता!
वो विलक्षण था, मुझे मानना ही था, और माना भी,
वो सौ से अधिक वर्षों तक,
उस सुप्तावस्था से लौटा था अपने सिद्धि-बल पर!
ऐसा अक्सर बहुत कम होता है!
न सिर्फ वो लौटा था,
बल्कि अपने संगी-साथियों को भी लौटा लाया था!
इस बात से मैं उसका क़ायल हो जाऊॅं, कोई बड़ी बात नहीं!
पर कहते हैं न!
प्रवृति नहीं बदलती!
वही हुआ था उसके साथ!
वो तो सिद्धत्व के करीब होते हुए भी,
जैसे लौट आया था उस सर्वोच्च शीर्ष से!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अभी आशाएं, अभिलाषाएं शेष थीं उसके मन में!
मुझे ये भी मानना पड़ा कि,
वो जहां कुशल था,
वहाँ प्रखर भी था!
प्रबल भी था!
वो चाहता तो अच्छे से अच्छे साधक का मान-मर्दन कर,
उसकी इहलीला का अंत कर देता!
उसने अब महात्रि का आह्वान किया था,
अब तो शायद बहुत ही कम होंगे ऐसे,
जो इस शक्ति को साध पाते होंगे!
महात्रि संहारक शक्ति है!
आज भी कई, खजाने उसके सरंक्षण में हैं!
राजस्थान के एक स्थान पर, ये बीकानेर के पास पड़ता है,
कुछ पहाड़ी से क्षेत्र में,
मैंने रात के समय, ऐसा ही एक वाकया देखा था होते हुए,
पेश आया था हमारे साथ!
मुझे बताया गया था कि वहाँ कुछ न कुछ तो है!
हम शाम के समय वहाँ गए थे,
एक स्थान पर,
शर्मा जी और मैंने,
सोने के जेवरों के भंडार देखे थे!
सिक्के, अशर्फियाँ! मुग़लों के ज़माने के!
वो इतना था कि, कम से कम, सौ ट्रक भर जाएँ!
जब मैंने देख लड़ाई, 
तो पता चला, ये स्थान महात्रि के सरंक्षण में है!
महात्रि के साथ, अरूता महापिशाच भी है!
उसकी स्थान पर, मैंने अपने दो जानकारों को,
पहाड़ की एक दरार में झाँकने को कहा था,
अंदर कक्ष था, ऊपर से धूप पड़ रही थी उसमे,
वहां दो बड़े बड़े थाल रखे थे,
थालों में, हीरे भरे पड़े थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सांप रेंग रहे थे उन पर!
और एक जगह,
उसी पहाड़ी में,
एक थाल आता था बाहर, मंत्रों से खिंच कर,
उसमे हीरे ही हीरे रखे थे!
उस थाल में,
खप्परवाली की मूर्ति थी,
सोने की, लेकि जैसे ही हाथ लगाओगे,
बदन का सारा रक्त उस थाल में आ जायेगा मुंह से निकल कर!
तो ये महात्रि, आज भी रक्षक है ऐसे धन की!
प्रकाश कौंधा!
सफेद रंग का!
और रक्त से नहायी हुई,
वो नग्न-कन्या, प्रकट हो गयी!
उस धीमणा ने, नमन किया उसे,
मैंने अपने आप को, शर्मा जी को,
ऐसी महा-विद्या से बाँधा था कि, ये महात्रि,
भंग करने से पहले उस विद्या को, आन तोड़ती श्री घंटाकर्ण-महावीर की!
और ऐसा करना,
उसके बस में नहीं था!
उद्देश्य जान,
वो आई हमारे पास, प्रकट होकर,
ऐसी भयानक दुर्गन्ध,
कि शर्मा जी ने तो उलटी ही कर दी,
बैठ गए थे वो, मैंने उनका हाथ पकड़ रखा था!
उस महात्रि ने हमारे चक्कर काटे!
और जैसे ही अंदर आने का प्रयास किया,
पीछे हटी!
हमें घूरा!
खून के फव्वारे से छोड़े मुंह से!
लेकिन हम तक नहीं आये वो!
अब तक शर्मा जी का हाल खराब हो चुका था!
उलटी में निकल कुछ नहीं रहा था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बस मितली उठ रही थी!
मैंने तब, महाकंटक का महामंत्र पढ़ा!
निकाली भस्म!
और हाथ पर रख,
मार दी फूंक!
अभीस्ट हुआ!
महात्रि, हवा में उड़, लोप हो गयी!
जैसे ही लोप हुई, दुर्गन्ध हटी!
और शर्मा जी के पास मैं बैठा!
"ठीक हो?" पूछा मैंने,
"हाँ" कहा उन्होंने,
और हुए खड़े,
नाक पोंछी अपनी, और पानी पिया!
वो धीमणा, लोप हो गया था!
हम उस घेरे से बाहर निकले,
और मैंने दूसरा घेरा खींच लिया!
अब उसमे शर्मा जी को ले आया अंदर!
अबकी बार बड़ा बनाया था,
झनाक की सी आवाज़ हुई!
और एक बेहद ही स्थूल सा प्रेत प्रकट हुआ!
उसने भी वैसा ही लबादा पहना था!
"क्या तू ही है वो?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या चाहता है?" बोला वो,
"बता चुका हूँ!" कहा मैंने,
"क्या चाहिए?" पूछा उसने,
"ये भी बता चुका हूँ!" कहा मैंने,
"धन चाहिए?" बोला वो,
"नहीं!" बोला मैं,
"ये देख?" बोला वो!
उसने बोला,
और धन की वर्षा हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पांच फ़ीट तक की एक बड़ी सी ढेरी बन गयी!
"बता? कहाँ भेजना है?" बोला वो,
"कहीं नहीं! नहीं चाहिए!" कहा मैंने,
"बाँसू चाहिए?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
उसने हाथ किया आगे,
और सुरदूल-कन्या प्रकट हुईं!
सुन्दरियां!
दैदीप्यमान!
परन्तु,
आपका रक्तपान करने वाली!
सेवा, काम, धन सब मिलेगा,
लेकिन रोज आपका रक्तपान करेंगी!
रक्त कम न होगा!
निरोगी हो जाएगा शरीर!
"नहीं!" कहा मैंने,
और सब लोप!
"फिर क्या" बोला वो,
"तुम कौन हो?" पूछा मैंने,
"मैं, शम्भा!" बोला वो,
अच्छा! तो शम्भा आया था!
अच्छा हुआ!
इस से भी मिल लिया!
और तभी प्रकट हुआ धीमणा!
इस बार, अलग ही वेश में,
सफेद थे उसके वस्त्र!
"सुन?" बोला वो,
मैंने सुना!
"कोई नहीं आएगा! चल!" बोला वो!
"अच्छा!" कहा मैंने,
''अब लौट जा!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं?" बोला हैरानी से!
"हाँ, नहीं!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" बोला वो,
"वो कुमारगढ़ी के लोग!" कहा मैंने,
"गुलाम हैं मेरे!" बोला वो,
"थे! अब नहीं!" बोला मैं,
"वो हैं!" चीखा वो!
"थे!" बोला मैं,
"मैं धीमणा हूँ! तुझे पता नहीं! अब तक तो खेल खिलाता रहा तुझे! दया दिखाई! तू नहीं माना!" बोला वो,
"हाँ धीमणा! चाहता तो तू अभी क़ैद हो जाता!" कहा मैंने,
"तेरा मुंह सी दूंगा मैं!" बोला वो,
और उठा हवा में,
और तभी!!
और वो दोनों लोप हो गए! अब न जाने क्या हथकंडा अपनाने वाला था वो! खैर, मैं तैयार था! कोई पांच मिनट बीते होंगे, कि ठीक हमारे सामने, एक लूट प्रकट हुई, कोई पंद्रह फ़ीट ऊपर, जैसे कोई अदृश्य दीया हो! और मात्र उसकी लौ ही नज़र आ रही हो! वो एक ही जगह रुकी हुई थी! हिल भी नहीं रही थी! जबकि हवा भी चल रही थी! ऐसा दृश्य अक्सर मणिपुर के जंगलों में दीख जाता है, वहाँ नाग ऐसा ही किया करते हैं! हवा में ही ऐसी लौ प्रकट होती है, और आवागमन किया करती है! लेकिन वो हवा के साथ हिलती भी है, लेकिन ये तो स्थिर थी! और अचानक से ही वो बड़ी हो गयी! एक वलय सा बन गया उसमे! जैसे एक बड़ा सा छल्ला! अब हिला वो, और हिलते हिलते ज़मीन पर आ गया! अब वो किसी पहिये समान घूमने लगा था एक ही जगह! ऐसा मैंने पहली बार देखा था, ये क्या कर सकता है, क्या नहीं, समझ नहीं आ रहा था! धीमणा, दिखा गया था अपनी कारीगिरी! मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा था, और अगर मालूम न हो तो ये बहुत भयंकर सिद्ध हो सकता है! वो छल्ला हवा में उठा, चौड़ा हुआ, और उसमे से, एक स्त्री ने झाँका! स्त्री वृद्ध थी, आयु में को अस्सी वर्ष की सी, सफेद धोती पहनी थी, और वो उतर आई उसमे से! एक ही धोती से सारा बदन ढका था उसका, गोदने हो रखे थे चेहरे पर, तभी, एक वृद्ध पुरुष भी कूद गया बाहर, सिर्फ लंगोट में था वो, हाथों में एक छड़ी पकड़ी हुई थी उसने, वे जैसे दम्पत्ति हों, ऐसा लगता था! उस पुरुष ने, तभी उस छल्ले से, एक मृत शरीर को खींचा, वो छोटा शरीर था, अंदर से ही एक चापड़ भी निकाल लिया! उसने हमको देखा, और उस शरीर से उसका एक हाथ काट डाला! जैसे ही कटा, मेरे बाएं हाथ में वैसा ही दर्द हुआ! बैग छूट गया हाथों से, मैं तड़प उठा! शर्मा


   
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श्रीशः उपदंडक
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जी हैरान रह गए! उन्होंने बैग उठाया और मुझे पकड़ा, मैं अपने उस हाथ को पकड़ कर, पेट में घुसेड़ रहा था जिसे, भयानक दर्द हो रहा था! अब समझ गया था मैं! वो धीरे धीरे उस शरीर को काटेगा और मेरा वही हाल होता जाएगा इधर! अभी तो हाथ था, यदि हृदय पर वार किया तो समझो मौत निश्चित है!
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ, बोलिए?" बोले वो,
"डोमाक्ष-कंठिका निकालो जल्दी, और मेरे गले में डालो!" मैंने टूट टूट के कहा ये!
उन्होंने फौरन वो कंठिका निकाली,
और मेरे गले में डाल दी!
मैंने स्मरण किया श्री डोमाक्ष जी का,
और उस कंठिका को माथे से लगाया!
लगाते ही उस वृद्ध-दम्पत्ति की सारी विद्या कट गयी!
उस वृद्धा ने वो चापड़ उठाया,
और उस मृत शरीर का एक और हाथ काट डाला!
अब कुछ न हुआ मुझे!
उसने पाँव, काटे,
पेट फाड़ा! आंतें उछल कर बाहर आयीं!
उसने आंतें काट डालीं!
फिर दिल की जगह काटा!
चीरा अपने हाथों से पसलियों को!
और खींच लिया दिल बाहर!
धमनियां, काट दी थीं उसने,
दिल चीरा, और आधा स्वयं ने खाया,
और आधा उस वृद्ध को दे दिया!
वे चबा चबा के खा गए!
और फिर हुए खड़े!
उस शरीर को उठाया उसने,
और फेंक दिया अंदर! वलय में!
वो वृद्ध हंसा!
"कजोड़!" बोला वो,
और उस चापड़ से, 
उस स्त्री के सर पर वार किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सर फट पड़ा!
रक्त का फव्वारा छूट पड़ा!
लेकिन वो हंसती रही!
उस पुरुष ने, अब उसको आधा चीर दिया!
दो फाड़ कर दिए!
और अचानक से ही, वो दो फाड़,
उठ खड़े हुए!
क्षण में ही, दो नव-यौवनाएं बन गयीं!

अनुभव क्र. ९३ भाग ८
नग्न देह और कामुक रूप में!
ये सब पता नहीं क्या हो रहा था!
कजोड़ शब्द ही समझ आया था मेरी तो!
हमारे सामने ही, उस वृद्ध ने, उन दो नव-यौवनाओं में से एक के साथ,
संसर्ग करना आरम्भ कर दिया!
अब आया समझ मुझे!
हुआ स्मरण मुझे!
बाबा डार की याद आई मुझे!
और तब मैंने बाबा डार की दी हुई विद्या का संधान किया!
ये बेहद ही अजीब क्रिया थी उस बंजारे की!
इसको खोकण कहा जाता है!
इसमें वही सब होता है जो अभी हो रहा था!
संसर्ग होगा, और तदोपरांत ही वो गर्भवती हो जाएगी,
उधर शिशु जन्म लेगा, और इधर मेरा प्राणांत होगा!
हम दो थे, इसीलिए दो नव-यौवनाएं बनी थीं!
वो भी गर्भवती होती और शर्मा जी गिरते!
मैंने निकाली भस्म!
लिया बाबा डार का नाम!
और चला ज़रा उनके पास,
वो दूसरी चिल्लाई मुझे!
और तभी मैंने, वो भस्म उस संसर्ग करते वृद्ध पर छिड़क दी!
भक्क से आग लगी!
वृद्ध लोप!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो दोनों भी लोप!
और वो वलय, फिर से ऊपर उठ, लौ बना, और लोप!
बहुत कुशल कारीगर था ये धीमणा!
एक बार फिर से लोहा मानना पद मुझे उसका!
मैं हुआ पीछे, और आया वापिस घेरे में!
कुछ ही क्षणों में,
आँखें फाड़े हुए,
क्रोध में भरा हुआ,
वो धीमणा प्रकट हुआ!
उसने हवा में ही हमारा एक चक्कर लगाया!
हम उसी को देखते रहे!
वो दायें जा,
खड़ा हो गया!
घूरे जाए हमने!
जेब से, निकाला कुछ,
और फेंका हमारी तरफ!
ये हड्डी का टुकड़ा था!
उठा धुआं!
फैला ज़मीन पर! और हमारे चारों ओर,
फिर से एक वलय बना लिया उसने!
आया बेहद करीब वो धीमणा!
और बोले तीन शब्द!
तेफास, युक्क और अहींड!
इनका अर्थ समझा दिया था उसने मुझे बोलकर!
वो धुंआ हटा पीछे,
और बना एक आकृति,
एकदम धीमणा जैसा ही बन गया वो!
धीमणा ही लोप!
और अब जैसे उसकी प्रतिकृति, प्रकट हुई थी!
बैठ गया वो सामने!
मारा भूमि पर तीन बार हाथ!
महाप्रेत प्रकट होने लगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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यून्ड महाप्रेत! इनके हाथ-पाँव नहीं दिखाई देते!
बस धुंआ सा, और मध्य में चेहरा!
प्रत्यक्ष मारण में राम-बाण होते हैं!
आज भी इनकी साधना की जाती है!
उन्होंने हमारे भीतर से गुजरना था,
और प्राण वायु ले जाते अपने संग!
हम हो जाते निढाल वहीँ!
सबसे बड़ी बात, ये घेरा भेदने में माहिर हुआ करते हैं!
अब मेरे पास, मात्र देह-रक्षण और प्राण-रक्षण करने का ही विकल्प शेष था!
मैं बैठ गया, शर्मा जी को भी बिठा लिया!
पढ़ा त्रिपुर-भैरवी का महाभाक्ष जामिका!
उठायी मिट्टी, की अभिमंत्रित,
और अपने दोनों कंधों पर डाल ली मिट्टी!
ऐसे ही शर्मा जी के भी किया!
यून्ड चक्कर लगा रहे थे!
वो चीखा!
और भेज दिया उन्हें हमारे पास!
वे आये,
गुजरे,
कई बार!
कुछ न हुआ!
वे चीखे!
फिर से गुजरे!
और कुछ न हुआ!
वो खड़ा हुआ!
मारी एक ताली!
यून्ड लोप!
अब हम खड़े हुए!
मैंने तमक्ष-विद्या का संधान किया!
दी थाप भूमि पर एक,
और थूक दिया!
भूमि से सर्र की सी आवाज़ हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उस कृति को,
ले उड़ी!
हाथ-पाँव चलाता रहा वो!
और जाकर, एक शीशम के पेड़ से टकराई!
पेड़ का तना चटका!
और ले गयी खींच भूमि में!
मैंने फिर से थाप दी!
और धीमणा हुआ प्रकट!
जैसे ही थाप दी!
सर्र की सी आवाज़ करती हुई तमक्ष चल पड़ी!
टकराई धीमणा से!
उसने गरदन टेढ़ी-मेढ़ी की!
और अपन ताम्र-दंड,
सर से लगा लिया!
तमक्ष का नाश किया उसने!
झेल गया था वो!
रक्षण तो उसका भी बेहद प्रबल था!
"धीमणा?" बोला मैं,
और वो, ठीक सामने प्रकट हुआ!
वो सामने ही खड़ा था हमारे! त्यौरियां चढ़ी हुई थीं!!
उस कनपटी अंदर-बाहर हो रही थी,
स्पष्ट था, वो बहुत क्रोध में था!
"धीमणा?" बोला मैं,
उसने सर हिला, मुझे बोलने को कहा,
"तू मेरा शत्रु नहीं है! तेरी विद्या, सच में प्रशंसनीय है! मैं चाहता हूँ, कि अब ये सब बंद हो! बस और किसी को न भेजो वहाँ, बस!" कहा मैंने,
"शत्रु? है तू मेरा शत्रु! यहाँ माल है! अब तुझे भी दफन करना होगा!" बोला वो,
वो यही समझ रहा था!
उसने अब मुझे शत्रु बना लिया था!
लेकिन मैं अभी भी उसका अहित नहीं करना चाहता था!
"मैं वचन देता हूँ, कभी नहीं आऊंगा यहां!" कहा मैंने,
"मैं नहीं मानता!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"न किसी को बताऊंगा!" कहा मैंने,
"नहीं मानता मैं!" बोला वो,
"मान जा धीमणा!" कहा मैंने,
"नहीं! तेरा मस्तक कट के ही रहेगा अब!" बोला वो,
और बोलते ही लोप हुआ!
अब मुझे कुछ कर दिखाना था इसको!
कुछ ऐसा, जिस से शायद वो डर जाए,
न भी डरे, तो प्रश्न उत्पन्न हो जाए मन में!
वो फिर से प्रकट हुआ, और फेंका अस्थि का टुकड़ा!
और हुआ लोप!
उस टुकड़े में लगी आग!
काला धुँआ उठने लगा फौरन ही!
अग्नि ने ली आकृति एक स्त्री की!
मैं समझ गया, कालबेला!
एक प्राचीन बंजारा शक्ति है!
आज भी इसके द्वारा सुरक्षित धन,
धारु-हेड़ा, हरियाणा में, पूर्वी राजस्थान में, बहुतायत से हैं!
जो लोग निकालते हैं, ये आग लगा देती है उनमे!
मशीन जल जाती हैं,
घर तक फूंक देती है ये!
उसने कालबेला को प्रकट किया था,
शक्ति ये, भयानक है, डटकर सामना करती है!
मैंने तभी अरिताक्ष-महाविद्या का संधान किया,
इसके लिए मुझे अपनी कलाई का रक्त लेना था,
मैंने खंजर से चीरा लगाया,
रक्त लिया, और पी लिया, चाट लिया,
और तब किया विद्या-संधान!
विद्या जागृत हुई!
मैंने शर्मा जी के सर पर हाथ फेरा,
और अपने भी,
मुंह में मधु-मक्खी के मोम का सा स्वाद आ गया!
आँखें लाल हो गयीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गुदा-मार्ग में पीड़ा होने लगी, अपान-वायु संचार होने लगा हम दोनों को ही,
अंडकोषों में सूजन आ गयी,
पेट में शूल सा उठ गया!
छाती में जैसे धुआं भर गया!
श्वास लेने में दिक्कत होने लगी!
और जब, इस महामूल पढ़ा,
तो सब ठीक हो गया!
विद्या रम गयी अब शरीर में!
उधर, कालबेला ने जैसे नृत्य सा किया,
और फट कर चार स्त्रियां बन गयीं!
अब आग नहीं जल रही थी,
वे अत्यंत ही कामुक स्त्रियां बन गयी थीं!
वे चली अब हमारी तरफ, घेरा लांघ लिया!
और दो मुझसे आ लिपटीं!
और दो शर्मा जी से!
वे भस्म करना चाहती थीं हमें!
दबा रही थीं हमारे बदन को!
लेकिन अरिताक्ष का वो आवरण भेदना इस कालबेला के लिए सम्भव न था!
वो चूमे जाएँ, महक उठे उनकी प्रत्येक सांस!
हम जस के तस खड़े रहे!
आखिर में, वे हटीं, और फिर से एक हो गयीं!
अग्नि बनी! और झम्म से लोप हुई!
ये वार भी खाली गया था!
अरिताक्ष का उद्देश्य पूर्ण हुआ था,
जब लौटी, तो बदन से जैसे सारी जान ही निचोड़ दी! 
प्रकट हुआ वो!
क्रोध में काँपता हुआ!
कभी इधर प्रकट हो,
कभी उधर प्रकट हो!
गुस्से में फ़ुफ़कारें!
पाँव पटके!
हाथ चलाये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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छाती पर मुक्के मारे!
"धीमणा! क्यों अपनी दुर्दशा को आमंत्रण दे रहा है तू!" बोला वो,
"तेरी मौत को आमंत्रण दिया है मैंने!" बोला वो,
"धीमणा! तू अभी तक नहीं समझ पाया!" बोला मैं,
"समझ गया हूँ, जाड़ल!" बोला वो,
जाड़ल, मायने नया नया कारीगर!
"चल धीमणा! चल! तेरी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
वो उठा हवा में,
हाथ जोड़े,
उल्टा हुआ,
सर नीचे और पाँव ऊपर!
और हुआ लोप उसी क्षण!
जैसे ही लोप हुआ,
वैसे ही फिर से एक लौ प्रकट हुई!
ये भी प्राचीन ही विद्या थी!
लौ फिर से बड़ी हुई!
फिर से वलय बना!
ये भी खोकण ही थी!
और तब, एक त्रिकोण बना!
त्रिकोण के मध्य,
एक यौवना बैठी थी!
काले कपड़ों में,
जैसे किसी पालकी में बैठी हो!
गहने पहने थे उसने!
रूप-रंग ऐसा था, जैसे कि कोई राज-कन्या!
वो जैसे ही उतरी नीचे,
उस त्रिकोण में से,
फूल बरसने लगे!
और तब, उस त्रिकोण में से, उसकी बांदियां भी उतर पड़ीं, दो!
वे नीचे उतर आयीं!
बड़ा ही अजीब सा नज़ारा था वो!
वो राज-कन्या,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नीचे हुई खड़ी! फूलों पर,
और उन बांदियों ने अब, उसके वस्त्र उतारने आरम्भ किये,
वस्त्र उतरते, और लोप हो जाते,
वो नग्न हो गयी,
अब गहने भी उतार लिए गए उसके!
अब उसका पुनः श्रृंगार होने लगा!
उसकी योनि, नाभि, और दोनों स्तनों पर,
कोई उबटन सा मला गया!
ऐसी विद्या,
न कभी सुनी!
बस आज ही देखी!
जब उबटन मल दिया गया तो,
अब उसको वस्त्र पहनाये गए,
उस त्रिकोण से वस्त्र निकाले जा रहे थे,
अब पीले रंग के वस्त्र पहनाये जा रहे थे उसे!
पहना दिए गए,
गहने भी पहना दिए गए,
अब उस राज-कन्या ने,
पहली बार मुझे देखा!
बड़ी अजीब सी निगाह थी उसकी!
सम्मोहिनी से भरी हुई निगाह!
जैसे, स्व-समर्पण जाग जाए अपने आप मन में!
वो मुस्कुराये जा रही थी,
जब श्रृंगार हो गया,
तो वो अब चली हमारे पास आने के लिए!
मैं मुस्तैद खड़ा रहा!
शर्मा जी को पकड़ लिया था मैंने,
वो आई हाथ पीछे करके,
और ठीक हमारे सामने आ गयी,
उसने शर्मा जी को देखा,
और जैसे ही देखा,
शर्मा जी कांपे!


   
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