आया वो बड़ा चबूतरा!
लोग बैठे थे नीचे,
दरी बिछी थी वहां!
और हम, वहीँ पीछे बैठ गए,
पानी मिला पीने को,
अफीम का घोटा आया, मना किया!
वो ज़रूरी था, क्या करते, पीना पड़ा!
मुंह हुआ कड़वा फिर से!
फिर से पानी पिया हमने,
और तब दो घुड़सवार आये वहाँ,
सामान था उनके पास बहुत सारा!
दूसरे लोगों ने मदद की उनको उतारने में!
ये शायद, लूट का माल था, बहुत सारा था वो माल!
खाने पीने का सामान बांटा जा रहा था! मशालें बदली जा रही थीं!
हंसी-ख़ुशी क माहौल था हर तरफ!
लोगबाग बातें कर रहे थे एक दूसरे से!
कोई किस विषय में और कोई किस विषय में!
"बड़ी भीड़ है!" बोले वो,
"ये महीने में एक बार लगने वाली ठावणी है!" बोला मैंने,
"तभी इतनी भीड़-भाड़ है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी एक चढ़ा उस चबूतरे पर,
और क़बीलों के नाम लेने लगा,
लोग उठने लगे थे, जो भी इस नाम के क़बीले थे!
छह क़बीले थे वो, कुल मिलाकर,
हम किसी क़बीले से नहीं थे, इसीलिए बैठे रहे!
रात के करीब अब बारह बज रहे थे,
तभी चार घुड़सवार आये वहां!
कुछ और सामान लाये थे,
और ये मुनादी की गयी कि धीमणा बस आने को है!
सरदार था उनका वो धीमणा!
आज धीमणा से ही मिलना था!
यही था असली बीज का भुट्टा!
इसी के कारण ये सभी प्रेत यहां लौट आये थे!
धीमणा सभी को जगा लाया था,
लेकिन इस समय तक ये धीमणा था कहाँ?
अगर लौटा था, तो ये सच में एक बहुत ही प्रबल कारीगर रहा होगा!
क्योंकि ऐसा करना,बहुत हिकुशल होने का परिचायक था!
वो तो लौटा ही,
साथ में इन्हें भी जगा लाया!
यही देखना था मुझे कि कैसे!
कुछ देर में!
और कुछ ही देर में, घोड़ों के दौड़ने की आई आवाज़!
उस धीमणा के साथ चिल्लाते आ रहे थे!
सब खड़े हो गए!
हम भी खड़े हो गए!
गड़ा दी नज़र उस रास्ते पर,
घोड़ों के टापों की आवाज़ आने लगी थी!
घोड़े हिनहिना रहे थे तेज तेज!
"आ गया धीमणा!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, आ गया है!" कहा मैंने,
चार घुड़सवार आये पहले! उनके घोड़े थाम लिए गए!
वे आते ही रुक गए!
फिर चार आये,
उनके भी घोड़े थाम लिए गए!
वे भी वहीँ खड़े हो गए!
सभी वहीँ देख रहे थे!
और फिर आये छह लोग!
उनके बाच था वो कद्दावर, दाढ़ी रखे हुए, मजबूत पहलवान जैसा,
काला लबादा पहने हुए! मालाएं धारण किये हुए,
हाथ में, एक ताम्र-दंड था उसके!
सात फ़ीट का रहा होगा!
उम्र कोई चालीस बरस के आसपास!
गोरा-चिट्टा था वो!
कमर में कौड़ियों की माला धारण कर रखी थी!
जूतियां पहने हुए था!
सभी झुक गए!
और उसका जयनाद सा होने लगा!
लोग सर झुकाते हुए, चल पड़े उसकी तरफ!
उस से दूर ही, नीचे ज़मीन पर सर झुका, उसका स्वागत किया जा रहा था!
"ये है धीमणा!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसा बिजार सा है ये!" बोले वो,
"हाँ, कद-काठी बहुत मजबूत है इसकी!" बोला मैं,
"लगभग सभी से!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सरदार होने लायक है वैसे!" बोले वो.
"हाँ! ये सही कहा आपने!" बोला मैंने,
और तब वो उस चबूतरे की तरफ चला!
वहां उसके लिए दरी और मसनद लगा दिए गए थे,
हुक्का भी भर दिया गया था!
वो आया चबूतरे पर,
उसको घोटा दिया गया!
और वो बैठ गया, किसी राजा की तरह!
अब आवाज़ लगाने वाले ने सभी को बुलाया!
लोग आते गए, और सामान के विषय में बताते गए,
आते वे, और बैठ जाते!
ये सिलसिल करीब दो घंटे तक चला,
फिर लोग, उसको सर झुकाते हुए, जाते रहे वापिस!
वो किसी को न देखता,
बस अपने लोगों से ही बात करता जाता!
और फिर लोगों की तादाद घटती चली गयी,
अब मुश्किल से बीस ही रह गए थे!
हम भी आगे चले अब,
इंतज़ार कर रहे थे सभी के जाने का!
और फिर जब चले गए,
तो हम आगे चले!
आये चबूतरे के पास!
उसने पहले एक नज़र डाली हम पर,
फिर झटके से देखा हमें!
उठ बैठा वो फिर!
"कौन हो तुम?" पूछा उसने,
बड़ी ही रौबदार आवाज़ थी उसकी!
भारी-भरकम!
चीखे तो बहुत दूर तक सुनाई दे,
ऐसी आवाज़!
मैंने अपना परिचय दिया उसको फिर!
उसने ध्यान से सुना!
बिना हिले!
उसके साथी भी हमें ही देखने लगे!
"किसलिए आया यहां?" बोला वो,
"सरजू-बिरजू ने कुछ लोगों को पीटा था!" बोला मैं,
"अच्छा! तो?" बोला वो,
"मैं कहने आया हूँ कि अब वहां कोई न आये!" कहा मैंने,
"माल क्या हराम का है?" बोला वो,
"माल तेरा भी नहीं है!" कहा मैंने,
उसके साथी हुए तैयार! हमसे भिड़ने को!
उसने रोका उन्हें! एवंग और तवांग जानता था वो!
"माल लाया है?" बोला वो,
"नहीं!" बोला मैं,
"तो तुझे धीमणा से डर नहीं लगा!" बोला वो,
"तेरे से की डर?" पूछा मैंने,
हंसने लगा वो! सभी हंसने लगे!
"धीमणा! मैं चाहता हूँ सब भलमनसाहत से निबट जाए! कोई न आये वहाँ!"
अनुभव क्र.९३ भाग ७
कहा मैंने,
"आएगा! ज़रूर आएगा!" बोला वो,
मारा ठहाका!
"सुन ले धीमणा! अबकी बार कोई आया, तो कोई नहीं बचेगा!" कहा मैंने,
वो फिर से हंसा!
और किया हाथ आगे!
मैं और शर्मा जी, संतुलन खो बैठे अचानक से!
और नीचे बैठते गए!
उठने की कोशिश की, लेकिन उठा ही न जाए!
सभी हंसने लगे!
वो अब खड़ा हो गया था!
उतरने लगा था नीचे!
मैंने तभी कृत्रिका-विद्या का मूलांश पढ़ा!
उसकी विद्या कटी,
और हम झट से खड़े हो गए!
वो हुआ पीछे!
नहीं उतरा फिर!
"जा! चला जा! ले आ माल!" बोला वो,
अब मैंने उठायी मिट्टी!
तामसी-विद्या से संचरित किया उसे!
वो हटा पीछे!
और जैसे ही मिट्टी मैंने मारी सामने,
वे सभी लोप हुए वहां से!
और दायें प्रकट हुए!
मैं चला उस तरफ,
उठायी मिट्टी,
की संचरित!
और मारी भूमि पर फेंक कर!
वे सभी हवा में उठे!
और रुक गए!
जानता था धीमणा!
वो हंसा!
"तू कुछ नहीं कर पायेगा!" बोला वो,
और आये बिलकुल हमारे करीब!
"जा! लौट जा!" बोला वो,
मैंने फिर से उठाई मिटटी!
पढ़ा इस बार दूसरे मंत्र से!
उछाली ऊपर!
वे झट से लोप!
शर्मा जी आये मेरे पास दौड़ कर,
"कहाँ गए?" पूछा उन्होंने,
"यहीं हैं!" कहा मैंने,
और मैं देखने लगा आसपास!
मेरे दायें मिट्टी उठी अपने आप!
हम हटे वहां से,
दौड़े चबूतरे की तरफ!
और चढ़ गए उस पर!
सामने देखा,
मिट्टी उठी हुई थी!
कंकड़-पत्थर सब उमे तैर रहे थे!
करुक्ष मंत्र पढ़ा,
थूका अपने हाथ पर,
और मल लिया सर से,
ऐसा ही, शर्मा जी के लिए किया!
अब हम सुरक्षित थे!
वो मिट्टी, उड़ी अचानक से! और चली हमारी तरफ!
बवंडर सा बनाते हुए!
वो मिट्टी झम्म से हमारी तरफ बढ़ी!
लेकिन हम, विद्या की एक अभेद्य-दीवार के पीछे थे!
वो उस कवच से टकराई, और झड़झड़ टकरा, वहीँ इकट्ठी हो गयी!
छा गया सन्नाटा!
अब कोई नहीं था वहां!
"शर्मा जी, बैग खोलो, अरिच निकालो जल्दी!" बोला मैं,
उन्होंने तभी बैग खोला, अरिच निकाली,
मुझे दी, मैंने अभिमंत्रण किया उसका, और थोड़ी शर्मा जी को,
और थोड़ी मैंने, मुंह में रख ली, चबाने लगे उसे,
ये प्राण-रक्षणी कंद होती है,
शकरगंदी से छोटी, और काले रंग की,
तांत्रिक-वस्तु है,
शीघ्र ही अभिमंत्रण हो जाती है ये!
उसके बाद इसको चबा लिया जाता है,
कई औघड़ इसको, माला बनाकर, अपने गले में पहनते हैं!
उद्देश्य यही होता है! स्वाद में मीठी होती है!
अब अरिच का स्वाद मुंह में बन गया था!
तभी सामने से अँधेरे में से, कुछ लोग आ रहे थे हमारे पास,
जब सामने आये,
वे मेरे और शर्मा जी के परिवारजन थे,
सभी रट पीटते हुए!
सभी के हाथ काट दिए गए थे!
खून बह रहा था!
ये प्रेत-माया थी!
वो धमका रहा था मुझे कि ऐसा हल करेगा ये उनके साथ!
वो वहां कुछ भेज भी नहीं सकता था!
वहाँ दोनों ही जगह कीलन है मेरा!
स्वयं श्री मणिभद्र-क्षेत्र पाल के रक्षण में हैं!
तो उसकी ये सोच, निराधार थी!
वे रोते पीटते आ गए थे चबूतरे तक!
ठीक वैसे ही वस्त्र थे, जैसे मैं उन्हें आखिरी समय देख कर आया था!
शर्मा जी भी सब समझ रहे थे!
वे, हमें हमारे नाम लेकर पुकार रहे थे!
दर्द से छटपटा रहे थे!
मैंने तभी डोमाक्षी-विद्या का संधान किया!
तभी उस धीमणा के हंसने के स्वर आये!
विद्या का संधान होते ही,
मैंने एक चुटकी मिट्टी उठाई,
और फेंकी सामने, क्षण में ही माया का नाश हुआ!
हंसने के स्वर बंद हुए!
और ठीक सामने,
हवा में वो प्रकट हुआ!
अकेला ही!
"तू अभी बालक है मेरे सामने!" बोला वो,
"धीमणा! तू भले कुछ भी सही! लेकिन तू है एक प्रेत! इंसान नहीं!" कहा मैंने,
उसने मारा ठहाका!
और चबूतरा धसका!
दरारें पड़ने लगीं उसमे!
हम भागे नीचे फौरन!
और वो चबूतरा, खाड़ की सी आवाज़ करता हुआ,
धसक गया नीचे!
मिट्टी उड़ गयी!
हम हट गए थे!
वो फिर से हंसा!
लोप होता!
और फिर प्रकट होता!
कभी एकदम पास!
और कभी बहुत दूर!
मैं अभी बचाव-मुद्रा में था, कोई वार नहीं कर रहा था,
उसे ही आजमाने दे रहा था उसकी शक्तियां!
और तभी अचानक से,
ज़मीन में आग लग गयी!
तेजी से चली हमारी तरफ!
हम खड़े रहे, विद्या संचरित थी,
जैसे ही टकराई,
भक्क से शांत हुई!
अब मैं हंसा!
धीमणा फिर से प्रकट हुआ!
एकदम करीब!
"ये सब मेरा है! समझा?" बोला वो,
"तेरा था, रहा होगा! अब नहीं है!" कहा मैंने,
वो हंसा!
बनायी, केवाक-मुद्रा, और कर दिया प्रहार!
खंजर की तरह से तेज धार वाली वायु चलने लगी!
हमारे मात्र केश उड़े! और आँखें बंद हुईं!
और गुजर गयी वायु!
विद्या के पोषण में न होते, तो मांस उड़ जाता हमारा, क़तरा क़तरा!
सिर्फ कंकाल ही शेष रह जाता!
ये, वायविक्ष विद्या होती है!
अब हुआ दूर हमसे!
"कृत्रिका पर झेल रहा है!" बोला वो,'जान गया था वो!
"अब कैसे बचेगा?" बोला वो, और हंस पड़ा!
मैंने तभी लौहपर्ण-विद्या का मूलांश पढ़ा,
एक चुटकी मिट्टी ली,
उसमे थूका,
और अपना टीका कर लिया,
शर्मा जी के भी टीका लगा दिया!
अब हम लौहपर्ण से सुरक्षित हो गए थे!
वो हुआ लोप!
और फिर हुआ प्रकट!
अपनी माला में से कुछ तोडा,
पढ़ा मंत्र!
और फेंक दिया भूमि पर!
हम पीछे हट गए!
ये जावरी थी!
बंजारा-महाविद्या!
उसने मनका फेंका था,
मनका जैसे ही रुका,
दीमक जैसे सफ़ेद कीड़े निकलने लगे मनके में से!
हज़ारों, लाखों!
बढ़े हमारी तरफ!
और जैसे ही चढ़े हमारे ऊपर, वे फूल जाते, और फट जाते!
जावरी कट गयी थी!
मनका फट गया!
मैं हंस पड़ा!
वो फिर से लोप हुआ!
मैं जानता था, कि वो फिर से कोई चाल लड़ायेगा!
इसीलिए तैयार था मैं,
मैंने बैग लिया,
खोला और उसमे से,
भस्म निकाल ली,
अभिमंत्रण किया,
और अब अपने माथे से लगा ली,
शर्मा जी के भी लगा दी!
वो फिर से प्रकट हुआ!
लेकिन इस बार एक स्त्री के साथ!
वो स्त्री, ठीक वैसे ही वस्त्र पहने हुए थी,
जैसे कि वो धीमणा!
वो आई हमारी तरफ,
चार फ़ीट पर रुकी!
उसके हाथ में कपाल था एक,
और टांग की एक हड्डी!
हंसी हमें देख कर,
वो धीमणा भी हंसा!
उस स्त्री ने, मंत्र पढ़ा एक,
और वो हड्डी, मारी उस कपाल की खोपड़ी पर!
सैंकड़ों चीखें गूँज पड़ीं!
अरंगी-विद्या थी ये!
जब सामान की रक्षा की जाती है, तो इसी विद्या से बाँधा जाता है!
उसने फिर से हड्डी मारी उस पर,
फिर से चीखें गूँज पड़ीं!
उसने फिर से हड्डी टकराई!
और चारों तरफ से,
स्त्रियां प्रकट हुईं!
कम से कम पचास!
नृत्य करती हुईं!
हाथों में मांस के टुकड़े थे!
उनको चबातीं और आगे आती जातीं!
मैंने भस्म निकाली,
और एक डोमाक्षी-विद्या से उसको संचरित भी कर लिया!
उस स्त्री ने भी अब नृत्य करना आरम्भ कर दिया था!
ये बंजारे,
अक्सर मृत-देह के साथ ऐसा ही करते हैं!
"हिलना नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
और मैंने भस्म ले, मुट्ठी में बंद कर ली!
वे स्त्रियां,
आयीं हमारे पास!
बेहद कुरूप थीं वो!
मानव-मांस का भक्षण किया करती हैं,
इनको, रहादि या ढाडी कहा जाता है!
ये इसी धरा पर वास करती हैं!
सब की सब, एक जैसी ही होती हैं!
अचानक से ही, वो उड़कर,
कूद पड़ीं हमारे ऊपर!
वे जैसे ही झपटीं, मैंने भस्म की मुट्ठी खोल दी थी! मारी चीखें उन्होंने!
और जैसे आयीं थीं, वैसे ही उड़ पड़ीं! और हुईं अँधेरे में लोप!
हम सुरक्षित थे पूर्ण तरह से!
एक पल को तो लगा था कि जैसे किसी स्याह अँधेरे ने लील लिया हो हमें!
लेकिन एक सरवट न पड़ी थी!
डोमाक्षी-विद्या ने काट दिया था शक्ति-प्रयोग!
वो स्त्री दंग रह गयी!
उसको ऐसा कुछ न भान था!
उसका वो कपाली-प्रयोग, व्यर्थ चला गया था!
उसने झट से देखा उस धीमणा को!
धीमणा भी हैरान था!
वो औरत चिल्लाई गुस्से से!
और वहीँ बैठ गयी!
अपने वस्त्र में से, निकाले अस्थियों के टुकड़े!
मंत्र पढ़े,
और बिखेर दिए वो टुकड़े!
वो टुकड़े, हवा में उठी!
कांपने लगे!
वो हंसी! हुई खड़ी!
और थूका ज़मीन पर!
हामुंड क्रिया थी ये!
हामुंड में, डाकिनियों का आह्वान होता है!
वे स्वयं तो नहीं आतीं,
पर उनकी सेविकाएं अवश्य ही आती हैं!
ये बंजारे कारीगर, पूजन करते हैं उनका!
मैंने जान गया था!
मैंने भी अस्थि के दो टुकड़े निकाले,
और भींचे मुट्ठी में.
लगाये माथे से,
मैंने भी आह्वान किया,
अपने महाप्रेत डिंबक का!
वो अकेला ही पर्याप्त था इन सभी सेविकाओं के लिए!
वो टुकड़े जो हवा में उठ, काँप रहे थे, गिरे नीचे!
ख़ुशी से चीखी वो!
और उधर डिंबक का अट्ठहास हुआ!
वो स्त्री, चौंक पड़ी!
डिंबक प्रकट हुआ तत्क्षण!
डिंबक, अस्थियां धारण करता है!
गले में, अस्थिमाल पहनता है!
कानों में टुकड़े पहनता है!
नेत्र पीले हैं उसके!
देह भयानक है बहुत!
स्थूल देह है उसकी!
वो हो गया था प्रकट! अट्ठहास मारे जा रहा था!
ऐसा लग रहा था जैसे बड़े बड़े पत्थर टकरा रहे हों!
तभी टंकार सी हुई!
और ठीक सामने ही, वो सेविकाएं प्रकट हो गयीं!
वो आगे बढ़तीं,
डिंबक स्वयं ही आगे बढ़ गया!
उसको देख,
वो कृशकाय से सेविकाएं झम्म से लोप हुईं!
कपाल फेंक के मार दिया उस स्त्री ने!
और झट से लोप हुए दोनों ही!
कपाल भी लोप हो गया!
डिंबक आया वापिस,
डिंबक के पांवों में, घुटनों तक,
धुंआ छाया रहता है! काले रंग का!
वो लोप होते समय, इसी धुंए में लोप हो जाता है!
फिर से प्रकट हुआ वो धीमणा!
लेकिन वो स्त्री नहीं!
वो लौट गयी थी!
आया ज़मीन पर! उस चबूतरे के पास प्रकट हुआ!
"अडंग विहिरा ताम्कू!" बोला वो,
उसने डामरी में कहा था!
कहा था कि मैं मान गया तुझे!
"तडंग मखिली यालुकि!" बोला मैं भी,
अर्थ था कि,
सब समाप्त क्या?
वो ठहाका लगा हँसता रहा!
और अपने पाँव मोड़,
वहीँ बैठ गया!
रखा ताम्र-दंड उसने नीचे,
और अपने दोनों हाथ अपनी छाती से लगाये!
थूकता रहा एक एक पंक्ति पढ़!
ये नहीं समझ आया मुझे!
मैं देखता रहा उसको!
वो हुआ खड़ा, ताम्र-दंड उठा लिया था उसने!
चीखा!
एक शब्द बोला,
"गारू!" ये बोला वो!
अब मैं समझ गया! गारू वीर!
मसानी वीर! कालू वीर!
उसको जगा रहा था वो!
मैंने बैग खोला, जल्द से एक अस्थि निकाली!
बैठा नीचे, उस अस्थि से मंत्र पढ़ते हुए, एक घेरा खींच दिया मैंने,
हम दोनों के चारों तरफ!
और गाड़ दी, ज़मीन में!
अब हम सुरक्षित थे!
ये गारू वीर नहीं भेद सकता था!
अचानक ही, आग का एक गोल सा प्रकट हुआ!
मानव-आकृति में बदला!
कम से कम आठ फ़ीट की!
बढ़ा हमारी तरफ!
मैंने मंत्र पढ़े जा रहा था!
रक्षण मंत्र!
वो जैसे ही बढ़ा, झटका खाया,
भर्र की आवाज़ हुई!
हवा में उछला और फिर से नीचे आ गया!
चारों तरफ से, पत्थर आने लगे उछल उछल कर!
आते, घेरे से टकराते और फिंक जाते पीछे ही!
उसने हवा के बवंडर उठाये!
आग लगायी!
पत्थर फेंके!
और तब मैंने,
उसका खेल रोकने के लिए,
रुद्रधानिका का संधान किया!
संचरण किया,
और जब संधानित हुई,
तब ली भस्म!
और हाथ पर रख, मार दी फूंक!
गारू वीर हवा में उड़ता चला गया!
आकाश की तरफ!
और हुआ लोप!
मैंने भूमि को थाप दी!
और धीमणा को चेताया,
जब तक होता लोप, रुद्रधानिका की चपेट में आया!
उड़ चला वो भी!
कभी हवा में उठता,
कभी ज़मीन से रगड़ खाता!
ताम्र-दंड गिर गया था!
वो फिर से लौटा!
ज़मीन पर रगड़ता हुआ!
मंत्र पढ़ा रहा था!
और एक झटके के साथ,
रुद्रधानिका से मुक्त हो गया!
भाग कर आया,
और उठाया ताम्र-दंड अपना!
कुण्ड-मालिनि जागृत हो गयी थी तब तक!
मैंने थाप दी भूमि पर,
नाम लिया धीमणा का!
जैस एही उसने देखा,
वो तब तक घुटनों तक, ज़मीन में घुस चुका था!
भूमि-कुण्ड में खींच रही थी वो विद्या उसे!
और अचानक से,
वो उठा हवा में!
हो गया था मुक्त!
गुस्से से काँप उठा वो,
बैठा वहां!
ताम्र-दंड गाड़ा भूमि में,
और पढ़े मंत्र!
कपाल ही कपाल गिरने लगे उसके पास!
ढेर इकठ्ठा हो गया!
"महात्रि!" चिल्लाया!
