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वर्ष २०१३ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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एक पोटली पकड़े था वो, हाथ में,
"थावणी जा रहा है?" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"ले, ये रख ले" बोला वो,
"क्या है ये?" पूछा मैं,
"ठावणी में खाली नहीं जाते!" बोला वो,

अनुभव क्र.९३ भाग ५
और दे दी पोटली, बड़ी भारी थी, हाथ से टटोल के देखा, तो गहने से लगे!
"ये दे देना उसे!" बोला वो,
और पीछे मुड़, लोप हो गया!
हम देखते ही रह गए!
पोटली खोलने की सोची मैंने,
और खोलने लगा,
जैसे ही खोली!!!!
पोटली में सोने के जेवर बंधे थे, कम से कम डेढ़ किलो के आसपास, ठावणी में ऐसा सामान देना पड़ता था, मुझे अभी उस वृद्ध ने बताया था, अब ये कोई होगी रीत उनकी, अधिक कुछ नहीं बोला था वो, बस इतना ही और पोटली दे, लोप हो गया था, पाँव से लंगड़ाता था, चलते समय, टेढ़ा चलता था, शायद अपंगता का शिकार था, मैंने पोटली को दुबारा से बाँधा, और शर्मा जी को दे दिया, और फिर से चल पड़े हम आगे, न जाने और कितनी दूर थे हम उस ठावणी से, उस अट्कन से, हमें चलना था, और हम चले जा रहे थे, अँधेरा ही अँधेरा था वहाँ, पूरी जगह ऐसी ही थी, बंजर ज़मीन थी, और दूर तलक, कोई भी रौशनी नज़र नहीं आ रही थी!
"पता नही और कितनी दूर?" बोले वो,
"अभी तो और कुछ नहीं दीख रहा?" बोला मैं,
"चलते ही रहो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम आगे चलते रहे,
कीकर के पेड़ पड़े रास्ते में,
और उन पेड़ों पर, कुछ प्रेत दिखे,
शाखों पर बैठे हुए, हमें आते देख, एकदम आगे तक आ जाते थे वो!
वो तो पूरा रास्ता ही भुतहा था!
जब आगे चले, तो एक उजाड़ सा गाँव दिखा, कच्चे मकान बने थे वहां,


   
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श्रीशः उपदंडक
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छत तो थी ही नहीं, बस दीवारें शेष थी, मिट्टी के मकान थे वो सब,
"ये है कुमारगढ़ी!" बोला मैं,
"हाँ, यही है वो गाँव!" कहा उन्होंने,
"कभी हँसता-खेलता होगा ये गाँव! आज तो नामोनिशान के नाम पर, बस ये मिट्टी बची है!" कहा मैंने,
"हाँ, अब सिर्फ नाम ही बचा है" बोले वो,
तभी उस रास्ते के बीचोंबीच कुछ वृद्ध स्त्रियां दिखाई दीं,
वे लाठी टेकते हुए आ जा रही थीं, हमें देख, रुक गयी थीं,
हम भी उनको देखते हुए, आगे जा रहे थे,
एक ने पास आते हुए, मेरी बाजू पकड़ ली,
मैं रुक गया,
"ठावणी माईं, लल्ला?" बोली वो वृद्धा,
"हाँ अम्मा!" कहा मैंने,
उसने माथे पर हाथ फेरा मेरे, और चूम लिया हाथ अपना,
अपने घाघरे में से, एक पोटली सी निकाली, खोली, और एक सिक्का पकड़ा दिया मुझे, ये चांदी का सिक्का था, मैंने रख लिया, और हाथ जोड़, आगे चल दिया!
"बेचारे, श्राप सा भोग रहे हैं" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ये श्राप ही है" कहा मैंने,
हम आगे चलते रहे, मकानो से, उन दीवारों से, इक्का-दुक्का से लोग, दिख जाया करते थे, हमें देख, आ जाते थे बाहर तक,
आखिर में, वो गाँव पार कर लिया हमने,
और तब दूर जाकर, कुछ प्रकाश सा नज़र आया,
"यही है शायद ठावणी!" कहा मैंने,
"हाँ, यही है" वो बोले,
अब हम तेज हुए, घड़ी देखी, सवा दो बज चुके थे!
हम तेजी से चलते हुए, उस रास्ते पर चल निकले,
और ठीक सामने, मशालों से प्रकाशित, एक जगह दिखाई थी,
पेड़ो से घिरी हुई,
करीब चालीस लोग रहे होंगे वहाँ,
हम अब तेज चल पड़े,
वहां पहुंचे, तो सभी हमें देखें!
तभी दो पहलवान से आगे आये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक कपड़ा था एक के हाथ में, फैला दिया उसने,
मुझे उस पोटली का ध्यान आ गया, मैंने वो पोटली,
उसके उस कपड़े में रख दी, उसने वो लपेट ली,
और चला एक तरफ, और दूसरा, हमें ले चला साथ में,
वो सारे लट्ठबाज थे, पूरे लठैत! सभी के पास लट्ठ थे!
सारे मर्द थे वहाँ, औरत कोई न थी,
एक तरफ सारे मर्द बैठे थे,
चबूतरे पर कोई न था,
हमें एक जगह बिठा दिया गया, हम बैठ गए,
चालीस से पचास रहे होंगे वे सब, सभी के सभी पहलवान!
कसा हुआ शरीर! गठाव वाला, जैसे अभी पहलवान हों!
पानी दिया गया, घड़े में पानी आया था,
हमने ओख से पिया पानी, पानी ठंडा था, कुँए का पानी रहा होगा वो!
मुंह और हाथ पोंछे रुमाल से हमने,
और बैठे रहे, करीब एक घंटा हो गया, और कोई नहीं आया!
कुछ ही देर बाद, एक घुड़सवार आया वहाँ,
वो न तो हलकारा था और न ही वो जाजू,
उसने उस जगह के मुअज़्ज़िज़ इंसान से कुछ बातें कीं,
तब एक ने चबूतरे पर खड़े हो, कुछ संदेश सुनाया,
आज के ठावणी यही खत्म हुई, अब परसों लगेगी ठावणी,
धीमणा परसों आएगा इधर, ऐसा संदेशा सुना दिया गया!
धीमणा उस कलां से ही नहीं लौटा था अभी, यही बताया गया,
सभी उठ गए, और चलने लगे वापिस,
हम भी उठे, और उस चबूतरे तक गए,
वहां और भी सामान रखा था, उठाया जा रहा था वहाँ से,
"अब कल?" पूछा एक से,
"परसों" बोला वो,
"यहीं?" पूछा,
"हाँ" बोला वो,
"कहाँ है धीमणा?" पूछा,
"कलां" बोला वो,
"शम्भा के यहां?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ" बोला वो,
"ठीक" कहा मैंने,
और हम , अब निकले वहां से,
कोई और चारा न था,
फिर से इतना लम्बा रास्ता पार करना था,
अब तो शायद सुबह ही हो जाती,
चले वापिस हम, क्या करते,
बस ठावणी की जगह पता लग गयी थी,
ये ही फायदा हुआ था एक,
"कोई फायदा न हुआ" बोले वो,
"क्या करें अब?" बोला मैं,
"चलो परसों सही" बोले वो,
हम बातें करते रहे, और चलते रहे,
तभी एक लड़की आई भागती भागती आगे!
हमने पहचान लिया था उसको,
वो मन्नी थी! अब नहीं घबराई थी हमसे,
"क्या हुआ मन्नी?" बोला मैं,
उसने एक तरफ इशारा किया,
"वहां चलना है?" पूछा मैंने,
उसने हाँ में सर हिलाया,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े साथ साथ,
वो हमें ले चली एक ढलान की तरफ,
हम चलते रहे, उस जगह एक झोंपड़ी पड़ी थी,
वहीँ ले जा रही थी हमें,
"ये तेरा मकान है?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
कमाल इस बात का, की वो झोंपड़ी सलामत ही थी,
कच्ची मिट्टी से बनी दीवारें थीं उसकी,
छत, फूस से बनी थी, छान थी वो, एक दिया जल रहा था उसमे,
कड़वा तेल था, उसकी महक ही ऐसी आ रही थी!
वो बाहर भागी, हम भी दरवाज़े तक आये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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चौखट तक, दरवाज़ा नहीं था उसमे,
और जब आई, तो साथ में सरजू और बिरजू थे,
उनकी औरतें भी,
सरजू और बिरजू हमे देख, चौंक पड़े थे!
फिर भी, डरे नहीं हमसे, लिवा लायी थी उनको वो,
"ये तुम्हारा घर है सरजू?" पूछा मैंने,
"जी" बोला वो,
"अच्छा, और ये मन्नी तुम्हारी बहन है!" कहा मैंने,
"जी" बोला वो,
"ठावणी गए थे लेकिन..." कहा मैंने,
"परसों होएगी ठावणी" बोला वो,
"हाँ, यही बताया गया हमें" बोला मैं,
"परसों आना आप" बोला वो,
"हाँ, आऊंगा पक्का!" बोला मैं,
कुछ और बातें हुईं,
वो मन्नी, अब हमें ले चली संग,
हम चलते रहे, रास्ता तो साफ़ था वो,
और जब हम आये उधर, तो वो वही बरगद का पेड़ था!
बीच में से ले आई थी हमें!
"अरे वाह मन्नी!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी वो छरहरी सी लड़की!
अब उस से विदा ले,
हम चल पड़े वापिस,
टोर्च की रौशनी मारी,
तो सतीश ने गाड़ी की बेटियां जला दीं अपनी!
हम जा पहुंचे उनके पास!
घुसे गाड़ी में, पानी पिया,
"कोई आया था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, आज तो कोई नहीं!" बोले सतीश,
अब सारी बातें मैंने बता दीं उन्हें,
वे अपलक सब सुनते रहे,
प्रेतों का ज़िक़्र आता, तो सिकुड़ जाते थे किशन जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाड़ी मोड़ी फिर,
और हम हुए वापिस,
रास्ते में, ये सारी घटना याद आती रही,
वो मन्नी, वो वृद्धा,
जेब से सिक्का निकाला चांदी का,
गढ़ा हुए सिक्का था वो,
किशन जी ने भी देखा,
और बताया कि जो सामान उन्हें मिला था,
वो सिक्के ठीक ऐसे ही थे,
साढ़े अठारह ग्राम का एक सिक्का था वो!
मैंने सिक्के को जेब में रख लिया तब,
आज भी है वो सिक्का मेरे पास,
उस वृद्धा की याद दिलाता रहता है मुझे!
डेढ़ घंटे में हम, पहुँच गए खेतों तक,
चार से ज़्यादा बज चुके थे, बस, जाते ही बिस्तर पकड़ा, और सो गये.
हम लौट आये थे, और सो गए आराम से, सुबह नींद खुली ही नहीं, नींद खुली साढ़े बारह बजे जाकर, वहीँ जंगल घूम आये, और स्नानादि से भी फारिग हो गए, चाय आ गयी थी, साथ में परांठे बना दिए थे मोहन की पत्नी ने, देसी घी में, वहीँ खींच मारे! उसके बाद घर चले आये थे, कपड़े बदले, और फिर भोजन किया, आज तो कढ़ी बनी थी, चूल्हे की! बरसों बीत गए थे ऐसी कढ़ी खाए हुए! साथ में चावल और रोटियां! जम कर खाया हमने तो वहां! अगर एक महीना रुक जाते तो तोंद बढ़ ही जाती हमारी तो! खाना खा, आराम किया, और उसके बाद कोई एक बजे करीब, मैंने सतीश को उस पोखर तक चलने के लिए कहा, किशन जी खेत पर थे, उनको वहीँ से ले लेना था! तो हम निकले, उनको वहीँ से लिया, दिन का समय था तो कोई डर की बात नहीं थी!
हम वहाँ जा पहुंचे, गाड़ी रोकी गयी, पानी की बोतल ली, और हम चल पड़े उसी रास्ते से, जिस रास्ते से कल आये थे, ये रास्ता छोटा था, हमने पार किया वो रास्ता, और चले आगे, रास्ते में एक पीपल का पेड़ पड़ा, इसी के सामने वो कल वाली झोंपड़ी थी, आज कुछ न था वहां, निशाँ भी नहीं, समतल हो गया था, झाड़ियाँ उग आई थीं!
"यहीं था न वो झोंपड़ी?" बोले वो,
"हाँ, यहीं थी" कहा मैंने,
"आज एक निशान भी नहीं!" कहा मैंने,
"सब वक़्त लील गया है!" कहा उन्होंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, सब इतिहास में हाँ अब!" कहा मैंने,
और हम आगे चले,
उस जगह आ गए, जहां वो गाँव था कल,
कही कहीं बस टूटी हुई दीवारें थीं,
और कुछ नहीं, आसपास के देहाती लोग,
यहां तक कि वहाँ से पत्थर भी ले जा चुके थे!
"ये है वो गाँव!" कहा मैंने,
"हाँ, कुमारगढ़ी!" कहा उन्होंने,
"हाँ, आज मात्र खंडहर है!" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"ज़्यादा बड़ा गाँव नहीं लगता?" बोला मैं,
"हाँ, कोई सौ के करीब ही घर होंगे!" कहा उन्होंने,
"और यहां मिली थी वो अम्मा!" कहा मैंने,
सिक्का निकाला जेब से, और देखा, चमक रहा था इस समय!
"ये सिक्का अपने अंदर इतिहास समेटे हैं!" बोले शर्मा जी, वो सिक्का लेते हुए,
"हाँ, इसने देखा है वो समय!" बोला मैं,
तभी मुझे कुछ ध्यान आया,
मैंने तब कलुष-मंत्र लड़ाया,
एर पोषित किये अपने और उनके,
नेत्र खोले, दृश्य स्पष्ट हुआ तब,
कई घरो के अंदर अभी भी दीवारों के नीचे घड़े दबे हुए थे!
उन सभी के अंदर वो सामान होगा, सोना और चांदी,
कम से कम पंद्रह जगह तो था ऐसा,
लेकिन वो सामान मेरा नहीं था, और जो मेरा नहीं, वो कभी नहीं छूता मैं,
वो धन, किसी पोते के लिए, बेटी-नातिन के ब्याह के लिए,
अपने दूर गए पुत्रों के लिए, किसी माँ और किसी बाप ने,
संभाल के रखा होगा, ये उन्ही की अमानत थी!
हम आगे चले, तो एक दीवार से, एक घड़ा झाँक रहा था,
तो राह चलता भी हाथ साफ़ कर जाता उस पर,
"आओ ज़रा" कहा मैंने,
"चलिए" बोले वो,
और हम उस खंडहर में चल पड़े,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ज़रा सा खींचा, और वो घड़ा चला आया बाहर,
उसका ढक्कन खोला, उस सिक्के से, खुल गया,
अंदर दो पोटलियाँ थीं, हरे रंग के कपड़े में बंधी हुईं,
एक शर्मा जी को दी, एक मैंने ली,
और खोली, मेरी पोटली में, कोई चार किलो के करीब चांदी के सिक्के थे!
चमचमाते हुए सिक्के, कुछ अंग्रेजी सिक्के भी थे,
सन अठारह सौ तेतीस के, और कुछ गढ़े हुए थे,
शर्मा जी ने जो पोटली खोली, उसमे सोना था, सोने की गिन्नियां!
कम से कम ढाई किलो! एक करोड़ का सामान हमारे हाथों में था,
चांदी भी करीब लाख, सवा लाख की होगी!
"रख दो" बोले शर्मा जी,
पोटलियाँ बाँध लीं, और घड़े में रख दीं,
उसमे फिर ऊपर से मिट्टी भर दी,
वहीँ गड्ढे थे, उस गड्ढे में रख दिया, ढक दिया मैंने उसको,
और कील दिया, जिसका होगा, उसको ही मिलेगा, अपने आप ऊपर आ जाएगा!
मित्रगण!
वहाँ ऐसे काम से काम सौ से अधिक घड़े हैं आज भी!
जिसके होंगे, अवश्य ही मिल जाएंगे! हमारे नहीं हैं! नहीं ले सकते!
चोरी होगी ये, और इसका पाप चढ़ेगा, भुगतना मेरी संतति को होगा!
इसीलिए नहीं ले सकता था मैं! न ही शर्मा जी!
"आओ, आगे चलें!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम चल दिए,
एक जगह, पथरीला सा स्थान मिला!
उस स्थान पर, एक चौकोर से हौदी है, आज भी!
वो हौदी चार फ़ीट चौड़ी और आठ फ़ीट लम्बी है,
उसमे सोना ही सोना भरा पड़ा है!
हीरे, बहुमूल्य रत्न, सोने की मूर्तियां, एक मूर्ति दिख रही थी साफ़,
ये बंसीधर की मूर्ति थी, करीब चार फ़ीट लम्बी! रत्न जड़े हैं उसमे!
सोने के बर्तन हैं, मणियाँ हैं! सोने के छड़ें, और जेवर हैं! अन्य मूर्तियां भी हैं!
"अरे रे!" बोले वो!
"देख लो!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये कम से कम एक टन तो होगा!" बोले वो,
"हाँ, कहीं ज़्यादा, हौदी आठ फ़ीट गहरी है!" कहा मैंने,
उसकी दीवारों पर, नाग बने हैं,
स्पष्ट है, वो रखित है!
ऐसे नहीं निकलेगा वो सामान बाहर!
उस ताक़त को हटाना पड़ेगा पहले, या मनाना पड़ेगा,
तब जाकर वो हौदी टूटेगी!
"आओ!" कहा मैंने,
"ये लूट का माल होगा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो ये बंजारों का है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आगे चले,
तो एक चबूतरे के अंदर,
कम से कम अस्सी बर्तन रखे थे!
पीतल के,
कलुष पीतल को नहीं भेद पाता!
"इनमे भी सामान होगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बताओ, बीहड़ में धन जमा है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सोचो कितना धन होगा हिन्दुस्तान में!" बोले वो,
"हाँ! बहुत!" कहा मैंने,
और चले वहाँ से आगे,
एक पेड़ दिखा,
इमली का!
उसके नीचे दो चबूतरे बने थे,
अब धसक रहे थे नीचे,
वहां कम से कम चालीस बड़े बड़े घड़े थे!
सभी के अंदर सोना-चांदी!
"ये देखो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गाँव समृद्ध होगा ये तो!" बोले वो,
"रहा होगा!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और हम आगे चले,
एक बड़ा सा चबूतरा पड़ा,
उसके आसपास खंडहर थे,
जैसे कभी कोई इमारत रही हो वहां कभी!
गए उधर ही,
एक गोल चबूतरा था वो!
उसके अंदर, 
ढाई ढाई फ़ीट के कुंडली मारे सोने के सांप दफन थे!
एक एक सांप का वजन,
पांच सात किलो तो था ही!
"ये मुसलमानी माल है!" कहा मैंने,
"कैसे पता?" बोले वो,
"इनके सर पर देखो" कहा मैंने,
वो बैठे,
ध्यान से देखा!
"हाँ, तराजू बना है!" बोले वो,
"ये मुग़लों का माल है!" कहा मैंने,
"शाही खजाने की लूट!" बोले वो,
"हाँ, जब अलग अलग सूबों से धन जाया करता था, राजधानी, तब लूट हो जाती थी!" बताया मैंने,
"अब सोचो, कितना खून-खच्चर हुआ होगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पीछे देखो!" बोले वो,
मैंने पीछे देखा,
सोने के बड़े बड़े थाल थे! बर्तन!
सोने के गिलास, कटोरियाँ!
"वो देखो!" कहा मैंने,
वो मूर्ति थी,
ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बड़ी भारी रही होगी!
कम से कम सौ किलो की तो अवश्य ही!
रत्न जड़े थे!
आँखें रत्नों से बनी थीं,
मालाएं, सब रत्नों की थीं!
उनका मूषक ही कोई,
दस-पंद्रह किलो का रहा होगा!
वे थाल में बैठे थे!
लड्डू भी सोने के बने थे!
"ये है ज़बरदस्त!" बोले वो,
और हाथ जोड़ लिए उनका नाम लेकर!
अब उठे हम,
और चल पड़े आगे,
सामने ही जैसे चले,
वही कीकर के पेड़ पड़े!
"आओ उधर" बोला मैं,
"चलो" बोले वो,
और हम आगे चले पड़े, उन कीकर के पेड़ों के पास, 
आज तो कोई नहीं था वहाँ, दूर तलक कीकर ही कीकर थे,
हम अंदर गए, और एक पेड़ के नीचे मुझे कुछ सिक्के दिखे,
ये सोने के सिक्के थे, कुल थे अठारह, साढ़े बारह ग्राम का एक सिक्का था वो,
आज भी हैं मेरे पास, वो मुझे ऊपर ही मिले थे, इसीलिए रख लिए,
और आगे चले, तो चाँदी की एक छड़ मिली, एक ठूंठ से बाहर झांकती हुई!
उसको निकला बाहर, ये कोई दो फ़ीट की थी,
लहरदार सांप बने थे उसके ऊपर,
हाथ का काम था सारा, आज मशीन भी नहीं कर सकती ऐसा काम!
"कितनी बेहतरीन है!" बोले वो,
"हाँ! बहुत सुंदर!" कहा मैंने,
"बनाने वाले ने क्या खूब बनाये हैं ये सांप!" बोले वो,
"हाँ! इसका मूठ देखो ज़रा!" कहा मैंने,
वो बहुत शानदार था! ज्योमितीय आकृति बनी थी,
देखने में अष्टभुज सा लगता था, चांदी पर उकेरा गया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इसको रख लो आप!" कहा मैंने,
"मैं क्या करूँगा?" बोले वो,
"रख लो! निशानी ही सही!" कहा मैंने,
उन्होंने रख ली, आज भी है उनके पास वो, लेकिन रखी बहुत हिफाज़त से है!
कोई दो किलो की होगी, ठूंठ में रखी थी, लेते हुए कह दिया था उन्होंने, कि,
जिसकी हो, ले जाये भाई आकर! यूँ समझ लो, मैं चौकदारी कर रहा हूँ इसकी!
लेकिन आज तक कोई नहीं आया!
मित्रगण, एक छोटा सा वाक़या लिख रहा हूँ, दृष्टांत समझ लीजिये,
मेरे पास हर वर्ष, ज्येष्ठ पूर्णिमा को एक मुल्तानी सेठ आते हैं,
जीते-जी नहीं, प्रेत के रूप में! एक सौ बावन वर्ष से वे प्रेत-योनि में हैं!
नाम है, चुन्नी लाल मुल्तानी!
मुलाक़ात कुछ यूँ हुई उनसे, कि एक जानकार हैं अबोहर-फाजिल्का में मेरे,
ब्याह था उनके पुत्र का, तो एक खजूर के पेड़ पर वास था सेठ साहब का!
धोती पहने हुए, ऊपर बंडी पहने हुए, जूतियां, और सर पर टोपी!
आज भी वहीँ हैं वो, वहीँ वास है उनका,
तो जी उनसे जब बातचीत हुई, तो मुझे पसंद करने लगे!
कभी भी आ धमकते! आखिर में तय हुआ कि माह में एक बार आएंगे!
ऐसा ही हुआ, पूर्णिमा को वो आते, मिलते और चले जाते,
कभी-कभार मीठे खजूर और मिठाई भी लाते!
तो एक बार उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने,
देहली में ही एक जगह ज़मीन खरीदी थी,
वो जगह आज भी खाली है, सरकारी ज़मीन है अब वो,
उस ज़मीन में, उन्होंने, दस मन सोना यानि कि चार सौ किलो,
आठ मन चांदी, और किलो भर करीब हीरे रखे हैं, दफना कर,
किसी मौलवी साहब से बंधवा दिया था वो सामान उन्होंने!
मौलवी साहब उनके मित्र थे पुराने, और बेहद ही उम्दा आलिम थे वो,
नाम था उनका मियां रहबर कुरैशी! आज उनके पोते आदि देहली में ही हैं!
सेठ जी के दो पुत्र थे, एक कश्मीर में था, और एक मुल्तान, आज के पाकिस्तान में,
उनके कोई संतान न थी, न कोई कन्या ही, न पुत्र ही,
सेठ जी ने वो सामान अपने पोते के लिए ही रखवाया था!
तो कुछ न हुआ, किसी को न बताया उन्होंने,
आखिर सेठ जी पूर्ण हो गए, ये राज, राज ही रह गया, लेकिन उस आशा ने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सेठ जी को प्रेत-योनि में ला खड़ा किया!
वे अब रोज अपने सामान की रक्षा करते और देखते रहते!
उन्होंने मुझे कहा कि, वो सामान मैं ले लूँ!
मैं उनके पोते के समान ही हूँ!
ऐसा प्रेम करते हैं मुझ से वो आज भी!
वो स्वेच्छा से दे रहे थे, मुझे ले लेना चाहिए था, लेकिन,
मुझे आदेश हुआ गुरु श्री का कि नहीं, वो मेरा अर्जित नहीं, न बाप-दादा का है,
इसीलिए, कोई नहीं लेना! मैंने मना कर दिया!
बहुत ही आवश्यकता हो, तो थोड़ा लिया जा सकता है, लेकिन वो भी अपने ऊपर,
नहीं खर्चा जा सकता! सेठ जी ने कैसे कमाया होगा, ये समझ सकते हैं हम!
सेठ जी ने मुझसे बहुत कहा!
पीछे पड़े रहे, रोते तो मैं समझाता उन्हें!
वे गुस्सा हो गए! और कोई छह महीने नहीं आये!
एक दिन, उनको खिंचवा लिया मैंने, उन्होंने फिर से ज़िद पकड़ी!
मैंने मना किया फिर से, और गिले-शिकवे दूर कर लिए हमने!
हाँ ही नहीं की मैंने!
मेरा एक और जानकार था, बेहद गरीब था, था नहीं अभी भी है,
जानकार का नाम है पाले खान,
चार बहनें बड़ी थीं, अनब्याहता, पांचवां खुद,
पिता जी इंतकाल फरमा गए, बढ़ई थे, दिहाड़ी किया करते थे,
अब बोझ पड़ा पाले पर, पाले बहुत सच्चा और ईमानदार था!
मुझे पसंद था वो, मैं उसको वस्त्र आदि, राशन आदि सब में मदद करता!
माता जी की हारी-बीमारी का भी ख्याल करता!
पाले ने एक दिन मुझे बताया कि, उसको एक पीर सिद्ध हो गए हैं!
बड़ी ख़ुशी की बात थी! लेकिन वो पीर धन नहीं दे सकते! मदद करते रहेंगे!
एक दिन पाले आया मेरे पास,
उसकी बड़ी बहन के लिए रिश्ता आया था,
रिश्ता अच्छा था, लेकिन पैसे से पाले टूटा हुआ था,
मेरे पास भी इतना पैसा नहीं था, कि मैं मदद करता उसकी,
आखिर रिश्ते के लिए मैंने हाँ कर दी! पाले से कह दिया, हाँ कर दे वो!
अब याद आये मुझे सेठ जी!
कुछ मिल जाए तो बढ़िया रहे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे मान गए,
लेकिन एक शर्त रखी उन्होंने,
एक बार में जितना ले जा सकता है, ले जाए!
अगर लालच आया,
तो नहीं मिलेगा,
और मौलवी साहब का वो इल्म,
काम कर देगा वो अपना!
ये मैंने पाले को बता दिया!
दिन रखा गया वीरवार!
उस दिन वो पीर साहब उसकी मदद अवश्य करते!
आ गया वीरवार!
और मैं उसको ले,
सेठ जी की उस ज़मीन पर ले गया!
दीवार पर चढ़ना था,
अंदर कूदना था,
गड्ढा खोदना था हाथों से,
आधा फुट पर ही सामान आ जाता!
मैं वहाँ से हट गया था,
ताकि शक न हो किसी को भी!
ये बात कोई आठ साल पहले की है!
वो अंदर घुसा,
कूदा, और एक जगह, खोदना शुरू किया,
जैसे ही खोदा, सोने के सिक्के निकले!
उसने जेब से थैला निकाला,
थैले में डाले, तो निकल गए नीचे से!
ये इल्म की करामात थी!
जेब में डाला, तो आ गया माल अंदर!
अब उसने जेब में भरना शुरू किया!
सारी जेबें भर लीं!
अब आया लालच!
कमीज को पैन्ट के अंदर डाला,
और भरने लगा अंदर! कमीज में,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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जैसे ही डाला, वो काले बिच्छू बन गए!
नीचे गड्ढे से काले बिच्छू निकले, और काट लिया उसे हर जगह!
उसने कमीज खोली!
बिच्छू हटाये, और भाग लिया!
उसके पीर साहब जी दीवार पर बैठे थे, भाग गए थे!
दरअसल वो पीर का भेस बनाये एक प्रेत था!
वो भाग वहां से, चप्पल वहीँ छोड़ आया,
मैं दूर खड़ा था, जैसे ही वो कूदा नीचे,
सारा माल, गायब! हाथ, छाती, बाजुएँ काली पड़ गयीं!
उसका विष तो हर दिया मैंने,
लेकिन आज तक वो कालापन नहीं गया शरीर से!
उसको बुखार आ गया! हुआ बीमार! लालच ले डूबा!
इलाज करवाया, ठीक हुआ, और एक दिन,
वो सेठ जी, आये मेरे पास, सवा किलो सोना लेकर,
ये पाले के लिए था!
उसकी बहनों की शादी हो गयी, काम करने लायक बचा नहीं था वो अब,
बाकी का पैसा, बैंक में जमा करा दिया,
अब ब्याज पर, घर चलता है उनका!
ज़िंदा है, यही बहुत है, शादी हो गयी है, 
एक अपाहिज लड़की से, अच्छा हुआ, उसका भी घर बना!
तो वो सेठ जी, आज तक आ रहे हैं मेरे पास,
अब साल में एक बार बस!
वही ज़िद! और मेरी वही न!
अब ये एक दृष्टांत है!
कि मैंने क्यों मना किया?
कोई तो कारण था!
आप समझ सकते हैं!
ऐसा धन, किसी काम का नहीं!
सेठ जी मुक्त नहीं होना चाहते!
सरकारी निर्माण होने नहीं देंगे!
अभी तो खैर वो जगह, बंजर ही है,
निकट भविष्य में भी,


   
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