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वर्ष २०१३ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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लोग सोने को सिक्कों में गढ़ लिया करते थे!
ये सिक्का वजन में साढ़े बारह ग्राम का है,
आज भी है मेरे पास,
खैर,
वे चले गए थे,
दूर से, फिर से घोड़े की हिनहिनाहट आ रही थी!
ये सतभान ही होगा!
उसी से डर रहे थे ये लोग!
अजीब सी पहेली थी यहां ये! मैं ये सोच कर नहीं आया था यहां!
तो अब हम चले वापिस, आये उधर गाड़ी के पास, वे दोनों, गाड़ी की बत्तियां बंद किये, पीछे की सीट पर बैठे थे, जैसे ही हमको देखा, वो शब्द बुलवाये, तीन बार! और हम तब अंदर बैठे!
"यहाँ तो बहुत बुरा हाल है जी!" बोले उनके भांजे, सतीश,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कोई भाग रहा था, कोई रो रहा था, कोई चिल्ला रहा था..हम तो डर के मारे नीचे दुबक जाते थे.." बोले वो,
"कोई आया तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले किशन जी,
अब मैंने वो वस्तु हटा ली वहाँ से, और रख ली जेब में,
"कोई नज़र आ रहा था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी! आवाज़ें आ रही थीं!" बोले सतीश!
गाड़ी हुई स्टार्ट, की पीछे, हाथ जोड़े किशन जी ने, उस बरगद के पेड़ के,
गाड़ी मोड़ी, और हम चले वापिस,
"घर चलें?" बोले वो,
"नहीं, खेत पर" कहा मैंने,
और रास्ते में सारी हुई बात बता दी मैंने उन्हें, उन्हें तो सांप सूंघ गया!
"ये सारी मुसीबत हम पर ही टूटनी थी? हमारे बाप दादा चले गए, हमारी क्या गलती थी?" बोले वो, माथा पीटते हुए!
"हो जायेगी हल! चिंता न करो!" बोले वो,
"अच्छा धन लिया हमने तो, कब्र में पाँव घुसेड़ लिए!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! कोस रहे थे अपने आपको!
"अरे हमने सोची थी, खेती बढ़ जायेगी, तो घर की छोरिन, अच्छी जगह ब्याह जाएंगी, यहां


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हमारे ही गोडे टूटते दीखै" बोले वो,
अब शर्मा जी ने समझाया उन्हें!
और हम, पहुँच गए खेत पर!
उतरे गाड़ी से, तब आवाज़ दी उन्होंने मोहन को, उनका मज़दूर था वो,
आया मोहन दौड़ा दौड़ा, उस से पानी लाने की कही, और हम कोठरे में चले फिर,
आया मोहन, पानी पिलाया, फिर बिस्तर लगा दिया उसने,
"कोई आयो तो न?" पूछा उन्होंने मोहन से,
"न! कोई न आयो!" बोला मोहन!
अब लग गया था बिस्तर, लेकिन मुझे अभी कुछ काम था,
मैंने शर्मा जी को लिया साथ में, 
और उस खेत के बीच में पहुंचा, एक मुट्ठी मिट्टी ली,
और उसको अभिमंत्रित किया, उसके बाद, उस खेत में ही गाड़ दिया उसको,
अब सुबह देखना था वहां कि हुआ क्या रात में!
उसके बाद, हम आराम से लेट गए, ओढ़ी चादर और सो गए!
सुबह हुई,
उठे हम, आये बाहर, हाथ-मुंह धोये, दातुन कर ली नीम की,
मोहन चाय ले आया था, चाय पी हमने फिर,
देहाती चाय! कागज़ में रखी चाय-पत्ती, अदरक, सिल पर फोड़ा हुआ!
पानी कम और दूध ज़्यादा! चाय पर जब तक मलाई न चढ़े, घी के बुलबुले न बनें, तो कैसी चाय भला! ऐसी चाय! ऐसी ही पसंद करते हैं हमारे देहाती लोग! पत्ती नाम की! यूँ कहो कि दूध में चुटकी भर पत्ती!
तो हमने वही चाय पी, लोटा भर के ले आया था,
मैंने तो आधा गिलास ही पी, शर्मा जी ने गिलास भरवा लिया था!
उसके बाद, पास वाले एक खेत से, गन्ने तुड़वा लिए थे, फोके फोके!
वो रख लिए, फिर किया खेत का मुआयना, आज कोई कटा अंग न गिरा था,
कल के अभिमंत्रण ने रोक दी थी वो क्रिया! 
उसके बाद हम घर चले गए, नहाये-धोये, और फिर आराम किया,
दोपहर में भोजन किया, शाम को फिर से खेत पर आ गए,
बिशन जी खाना ले आये थे, खाना खाया, रात को चैन से सोये,
सुबह भी सबकुछ ठीक था, कोई कटा अंग आदि नहीं आया था वहाँ!
मैंने खेत का मुआयना किया, पूरा खेत छान मारा, कुछ गड़बड़ न मिली,
उस दिन शाम को, कोई छह बजे, हम वापिस चल पड़े थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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किशन जी ने फिर से सामान बाँध दिया था,
अब यहां सत्रह दिन के बाद आना था वापिस!
हम आ गए थे अपने स्थान पर,
कुछ और काम निबटाए,
मिले-मिलाये लोगों से,
और इस तरह पंद्रह दिन बीत गए,
किशन जी के यहां अब कोई समस्या नहीं थी!
अब सभी भाई हंसी-ख़ुशी रह रहे थे!
लेकिन ये समस्या का स्थायी निदान न था,
इसके लिए, पुनः जाना था मुझे,
ठावणी के रोज!
उसके लिए मैंने कुछ विद्याएँ जागृत की थीं,
कुछ मंत्रादि भी, जागृत किये थे!
अब अपने तन्त्राभूषण भी अभिमंत्रित कर लिए थे.
शर्मा जी के लिए मैंने,
बाबा डार की एक विद्या से पोषित,
डोरा बना दिया था, और उन्हें पहना भी दिया था!
और ठीक सत्रहवें दिन, हम चल पड़े गाँव के लिए,
गाड़ी आ गयी थी,
मैंने रखा सामान अपना उसमे,
और हम चल पड़े फिर,
चार बजे हम गाँव में थे,
दूध पिलाया गया,
और फिर आराम किया!
शाम को खेत जा पहुंचे,
घर में बहू-बेटियां होती हैं,
उनको भी परेशानी होती है,
और हमको भी, इसिलए ऐसी जगह हम नहीं ठहरा करते!
कुंवारी कन्या हों, तो रुकना नियम के विरुद्ध होता है!
इसीलिए, हम शाम को खेत में चले जाते थे,
चौड़ के खाओ, चौड़ के रहो! कोई दिक्कत नहीं!
किशन जी से बातें हुईं हमारी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिलहाल में तो कोई दिक्कत नहीं हुई थी!
वो शाम, ठावणी की शाम थी, कि मोहन आया भागता भागता!
सांस बनाई और बताया कि उन पपीतों के पेड़ों के पास कोई है!
मैं और शर्मा जी निकले बाहर तब,
वहाँ सच में ही कोई था!
उन पेड़ों के पीछे!
उसका आधा शरीर दीख रहा था,
मैंने कलुष पढ़ा,
नेत्र पोषित किये,
अपने और शर्मा जी के भी,
तवांग मंत्र से देह पोषित की,
अकृत्र-मंत्र से मुंह में श्वास खींची,
इस मंत्र से ऊर्जा का क्षय नहीं हुआ करता!
मैंने ये पहले क्यों नहीं किया?
पहले आवश्यकता नहीं थी!
आज थी, आज ठावणी की रात थी!
आज वो कारीगर धीमणा मिल जाना था, इसीलिए!
वो कारीगर था!
विद्याओं का ज्ञाता था!
कब क्या कर जाए, पटना है!
क्या कब, कौन सी चाल चल जाए!
इसीलिए अकृत्र-मंत्र का जाप किया था!
हम चले उन पेड़ों की तरफ,
और रुके,
वे दो औरतें थीं,
हमें देख, हाथ जोड़ लिए उन्होंने,
आंसू निकालने लगीं आँखों से,
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
कुछ न बोले,
मुंह में घूंघट दबाये,
"बताओ?" बोला मैं,
"वो माल दे दो" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कौन सा माल?" पूछा मैंने,
"वो, धीमणा का" बोली वो,
"तुम हो कौन?" पूछा मैंने,
"माल?" बोली वो,
सीधी थी बेचारी वो,
बात करने में डर रही थी,
हाथ जोड़ कर, बोलती थी,
मुझे दया आई उस पर!
"आज धीमणा आएगा न?" बोला मैं,
वो चकित!
साथ वाली को देखे!
कंधे पर हाथ रखे उसके!
वो मुश्किल से अठारह या उन्नीस की रही होगी,
बहुत सुंदर लड़की थी वो,
छरहरी सी,
उसका मुखड़ा बेहद आकर्षक था!
कजरारी सी आँखें, और गोरा रंग,
भूरी सी भौंहें और पलकें!
"नाम क्या है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"मन्नी" बोली, डरते डरते!
"मन्नी? डर रही हो उस धीमणा से?" पूछा मैंने,
वो कुछ न बोली,
पेड़ से ओट ले, बाहर झाँका,
फिर पीछे देखा,
"बताओ?" बोला मैं,
"वो माल" बोली वो,
"पहले डरो नहीं" कहा मैंने,
"धीमणा, आएगा" बोली वो,
"जानता हूँ मन्नी!" कहा मैंने,
पीछे आवाज़ हुई,
मैंने फौरन पीछे झाँका,
वे दोनों लफ्कियां, भाग लीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम उनके पीछे भागे!
एक जगह जा, रुक गयी वो,
हम आ गए उन तक,
वे नीचे बैठ गयीं दोनों,
ऐसे डरने लगीं जैसे, हम उन्हें अभी पीटने वाले हों,
"डरो नहीं! खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने,
वो लेट गयीं नीचे!
आँखें ढक लीं घूंघट से उन्होंने!
"मन्नी?" बोला मैं,
वो न सुने!
"सुन! भाई मान मुझे! चल उठ जा!" कहा मैंने,
उन्होंने घूंघट उठाया,
लेकिन मुझे बहुत कुछ समझा दिया!
उनके साथ अवश्य ही बदसलूकी हुई होगी,
वे बेचारी आँखें ढक, नीचे लेट गयी थीं!
"उठ जाओ! उठो अब!" कहा मैंने,
वे, उठ गयी, देखने लगीं अब हमारी पोशाकें!
"मन्नी, अब डरना नहीं, जाओ अब!" कहा मैंने,
वो पतली-दुबली सी लड़की,
अपनी सखी का हाथ थामे,
चलती गयी वापिस, हमें देखते हुए,
और हुई ओझल, इस वक़्त से, उस वक़्त में!
"बेचारी" बोला मैं,
"हाँ, बेचारी ही है" बोले वो,
"इसकी हालत देखी? कैसे डरी हुई थी?" बोला मैं,
"हाँ, ये धीमणा कोई हैवान लगता है" बोले वो,
"आज देख लेते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और हुए हम वापिस, तभी मोर की आवाज़ आई,
अच्छी लगती है मोर की आवाज़ सुनसान में!
हम आ गए कोठरे पर वापिस,
किशन साहब ने सवाल पूछने किये शुरू तब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उनको जवाब देते गए हम!
आज हम सामान लेते आये थे साथ में अपना,
सलाद कटवा लिया था मोहन से उन्होंने,
हौदी से ठंडा पानी लाया गया,
और हमने की शुरू ज़रा अपनी हुड़क मिटानी!
किशन साहब ने भी आज दो मोटे मोटे पटियाला खींच मारे!
सलाद ऐसे खाएं जैसे नमकीन!
सलाड बहुत बढ़िया था, सबकुछ ताज़ा!
कच्चे प्याज थे, चटनी बनी थी साथ में,
बहुत बढ़िया स्वाद था उस चटनी का!
मोहन ने मुर्गियां पाली हुई थीं,
ले आया देसी अण्डों की भुजिया बना कर, वो भी बेहतरीन!
हमने करीब आठ बजे तक, अपना कार्यक्रम निबटा दिया था!
बिशन जी और उनके वो भांजे खाना ले आये थे,
तो फिर खाना खाया हमने,
बथुए का रायता, धुंगार वाला, उड़द की दाल, साबुत वाली,
आलू-गोभी की सब्जी! बस यूँ कहो, लील गए हम!
बड़ी बड़ी डकारें आ आयीं बाद में!
फिर कुछ देर आराम किया,
रात ग्यारह बजे निकलना था, और अभी कोई सवा घंटा था,
आराम किया हमने, सामान आदि ले ही आये थे हम!
ठीक ग्यारह बजे,
मैंने अपने तंत्राभूषण धारण किये,
शर्मा जी को भी धारण करवाये,
एक माल बाँध दिया था कलाई पर उनके,
देह-पुष्टि की,
अकृत्र-मंत्र से पुष्टि की,
कलुष-लड़ा लिया था!
भस्म का टीका किया,
शर्मा जी को भी,
गर्दन के पीछे भस्म मल ली,
ताकि सुरक्षित रहें हम!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और ग्यारह बजे से कोई थोड़ा देर में,
हम निकल पड़े उस ठावणी के लिए!
रास्ता खराब हो गया था आज तो,
कोई ट्रेक्टर गुजरा था वहाँ से,
उसके दांतों ने, गड्ढे से बना दिए थे उधर,
खैर, हम करीब डेढ़ घंटे में वहां पहुंचे,
घुप्प अँधेरा था वहां!
सन्नाटा!
गाड़ी के रौशनी पड़ी,
तो नील गायों की टुकड़ी भागी!
एक जगह गाड़ी लगा ली,
किशन जी बाहर नहीं निकले डर के मारे!
उनकी कार में हमने, वो वस्तु रख दी,
और भस्म से टीका कर दिया उन दोनों का भी,
फिर अपना छोटा बैग कंधे पर डाल,
टोर्च ले,
हम कल पड़े आगे के लिए!
"पोखर पर चलें या बरगद तक?" पूछा मैंने,
"आप देख लो?" बोले वो,
"पोखर पर चलते हैं!" कहा मैंने,
हम चले पोखर की तरफ,
पहुंचे वहाँ,
तभी शर्मा जी ने मेरी बाजू पकड़ी!
"क्या हुआ?" बोला मैं!
"वो देखो ज़रा!" बोले वो,
और जो देखा!
वो कोई साधारण व्यक्ति देख ले,
तो वहीँ ये चोला छोड़ दे!
बेहोश हो जाये!
चीखे-चिल्लाये!
पोखर के उस पानी में,
कई सारे लोग,


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे सफेद चादर में लिपट,
पीठ के बल लेटे थे! क्या औरत और क्या मर्द!
पानी की सतह के नीचे!
आँखों की जगह गोल गोल काले गड्ढे थे!
नाक के दो छिद्र,
और मुंह का एक बड़ा सा छिद्र!
जैसे सारे हमें ही देख रहे हों!
वे असंख्य थे! पानी में दूर दूर तक!
पानी में लगे बेगम के पौधे हिल रहे थे!
कुमुदनी के फूल भी हिल रहे थे!
ये तो भूतिया-तालाब था! बड़ा ही खौफनाक दृश्य था!
कोई कोई तो,
आगे तक चला आता था, किनारे तक,
और पानी की लहरों के साथ ही कांपने लगता था!
हम चलते रहे आगे,
पानी में आवाज़ें होती रहीं!
और हम आगे चले फिर,
पानी में जैसे कोई कूद रहा हो,
ऐसी तेज आवाज़ें आती रहीं!
हम अब उस बंजर ज़मीन पर चले आये!
आगे चले,
उन टीलों तक आये,
उन मरे हुए मवेशियों तक पहुंचे,
फिर पिण्डियों तक,
और अचानक सामने,
मानव अंगों की जैसे नुमाइश लगी थी!
हर तरफ बिखरे पड़े थे वे सब!
हमारे पांवों के नीचे भी आ जाते थे वो,
दुर्गन्ध फैली हुई थी!
"ये कैसा भयानक है!" बोले वो,
"हाँ, शायद गाँव वाले हैं" कहा मैंने,
"हो सकता है" बोला मैं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पीछे आवाज़ हुई हमारे!
था तो कुछ नहीं उधर!
शायद जंगली जानवर होंगे,
सियार या बिज्जू आदि,
वे ही रात्रिचर जीव हैं यहां,
हम आगे बढ़े,
एक टीला आया,
उस पर चढ़ कर ही जाना था आगे,
उस पर चढ़े,
जैसे ही चढ़े,
वो जैसे धंसका नीचे को!
मेरा जूता जैसे ही धंसा,
मैंने पाँव हटाया,
वो एक सर था,
उसकी आँखों पर मेरा पाँव रख गया था,
कोई स्त्री थी वो,
आँख अंदर धंस गयी थी उसकी एक,
जीव-द्रव्य बाहर आने लगा था उस से,
उस टीले में, ऐसे ही टुकड़े थे मानवों के!
"रुको!" कहा मैंने,
वे रुके,
"इस से नहीं जा सकते" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"ये देखो" कहा मैंने,
"ओह."बोले वो,
अब आपसपास देखा मैंने, कोई जगह मिले जाने की,
मैं जगह ढूंढ रहा था कि कहाँ से पार किया जाये ये टीला, दूर दूर तक बहुत अँधेरा था,
आकाश में बदली थी, और चन्द्र बार बार घूंघट ओढ़ लेते थे उन बदलियों का,
एक टोर्च का ही सहारा था, उसने धोखा दिया होता, तो फिर हो जाती मुसीबत!
"अरे पीछे हटो" चीखे वो,
मैं हटा, नीचे देखा, खून बह रहा था उस टीले में दबे मानव अंगों से,
हम दोनों ही पीछे हटे, गाढ़ा गाढ़ा खून रिसने लगा था, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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खून पर पलने वाले कीड़े आने लगे थे उसकी गंध से,
हमें हटना पड़ा, कुछ उड़ने वाले भी थी, वे भी झपटने लगे थे,
हम पीछे हटे, एक जगह कुछ पेड़ लगे थे, वहाँ टोर्च की रौशनी मारी,
"वहाँ चलें ज़रा" कहा मैंने,
"चलिए" बोले वो,
और हम चल पड़े उधर,
पहुंचे, पेड़ तो थे ही थे, लम्बी-लम्बी भूड़ लगी थी वहाँ,
उस से छू जाएँ तो उस्तरे की तरह से चीर देती है वो मांस को,
ऐसे कि टाँके भी न लग पाएं उस पर,
चिकित्सक, खींच खींच कर टांके लगाते हैं उस घाव पर,
"ओहो! यहां तो भूड़ है!" बोले वो,
"हाँ, और अब कटनी भी नहीं है!" कहा मैंने,
"क्या करें अब?" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
और तब रौशनी मारी वहाँ, एक जगह और दिखी,
"वो, देखो" कहा मैंने,
"हाँ, चलो" बोले वो,
वहाँ बेरी का पेड़ लगा था, उस पर, बया पक्षी के घोंसले टंगे थे,
उनको नुकसान नहीं होना चाहिए थे, वो सो रहे थे,
कई में अंडे भी होंगे और कई में उनके बच्चे भी,
बाय इसीलिए ऐसे ऊँचे और कांटेदार पेड़ों पर घोंसला बनाती है,
ताकि सांप से बचा जा सके! 
हम झुक झुक के चले उसके नीचे से,
कपड़ों में कांटे घुसने लगे, कमीज़ अटक जाती थी उनमे,
खैर पार कर लिया वो पेड़ हमने,
और अब सीधे चले, कंकड़ पड़े थे रास्ते में,
उनसे बच के चले, अब सीधे हाथ पर था वो टीला,
हम चलते रहे, और आ गया एक समतल मैदान!
रुके एक जगह,
दूर तक तो कुछ दीख ही नहीं रहा था,
दिशा-भ्रम भी होने लगा था,
मैंने ध्रुव तारे को देख कर, उत्तर दिशा देख ली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हम चले पूरब की और,
यहां इसी के समानंतर में, वो बरगद का पेड़ था!
तभी घोड़े की टाप सुनाई दी हमको,
कोई आ रहा था घोड़े पर,
हम रुक गए, सामने टोर्च मारी,
आ रहा था एक सफेद घोड़ा, हिनहिनाया, रुका,
उतरा नीचे एक घुड़सवार, काले रंग के कपड़े पहने थे उसने,
बुक्कल मारी थी,
लम्बा-चौड़ा जवान था वो!
कमर में तलवार खोंसे था, 
हाथ में, एक रस्सी थामे थे वो, बड़ी, मोटी सी,
"कौन हो तुम?" बोला वो,
मैंने परिचय दिया उसको,
"तुम कौन हो?" पूछा मैंने,
"जाजू" बोला वो,
"कौन जाजू?" पूछा मैंने,
"नहीं जानते?" बोला वो,
"नहीं जानते": कहा मैंने,
"परदेसी हो?" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"भटक गए हो?" बोला वो,
"नहीं" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उसने,
"हम धीमणा से मिलने आये हैं!" कहा मैंने,
"धीमणा से?" बोला वो,
आश्चर्य से पूछा था उसने, जैसे कुछ अप्रत्याशित कह दिया हो मैंने,
"आज ठावणी है न?" पूछा मैंने,
"हाँ! तुम्हें कैसे पता?" बोला वो,
"सतभान ने बताया था!" कहा मैंने,
"कहाँ है सतभान?" बोला वो,
तलवार निकाल ली बाहर,
ढूंढने लगा उसको चारों ओर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तुम किस क़बीले के हो?" पूछा मैंने,
"गूला का" बोला वो,
"सरजू-बिरजू को जानते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, इसी गाँव के हैं" बोला वो,
"कुमारगढ़ी के?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"धीमणा के आदमी हो?" बोला मैं,
"नहीं" बोला वो,
नहीं?
तो फिर कौन?
फिर से उलझा ये मामला!
"इस गाँव के हो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"तो न धीमणा के, न शम्भा के, तो फिर किस के?" पूछा मैंने,
"बंथला की जोगना का कौथा हूँ" बोला वो,
कौथा, मायने सामान की हिफाज़त करने वाला,
ये कोई भी हो सकता था,
कोई बंजारा भी,
कोई पेशेवर डाकू भी,
या कोई भी, जो एवज में धन लेता था!
बस, जिगर वाला हो, मरने-मारने वाला!
अब एक नया मोड़!
बंथला!
जोगना!
ये तीसरा नाम था!
"जाजू?" बोला मैं,
उसने तलवार अंदर म्यान में खोंसते हुए कहा, "हाँ?"
"ये धीमणा कौन है?" पूछा मैंने,
"कारीगर है, शम्भा का!" बोला वो,
क्या?
शम्भा का कारीगर?
तो क्या इसका मतलब, ये कि,


   
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श्रीशः उपदंडक
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शम्भा और धीमणा, ये साथी हैं?
ये क्या खिचड़ी है?
ये कैसा जाल है?
और अब ये जोगना?
ये कौन है?
"ये बंथला कहाँ है?" पूछा मैंने,
"है कोई साठ कोस पर" बोला वो,
"क्या ले चलोगे धीमणा के पास?" पूछा मैंने,
"क्या काम है?" बोला वो,
"उस से मिलना है" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"कुछ ज़रूरी काम है" बोला मैं,
"उसके लिए शम्भा से आज्ञा लो" बोला वो,
"आज्ञा?" पूछा मैंने,
"हाँ, नहीं तो मार डालेगा तुम्हें वो" बोला वो,
"उसकी चिंता न करो" कहा मैंने,
"तुम जानते नहीं उसे" बोला वो,
"क्या है वो?" पूछा मैंने,
"बहुत बड़ा कारीगर है वो" बोला,
"कोई बात नहीं, ले चलो" कहा मैंने,
अब चुप हुआ वो,
"तुम भी तो वहीँ जा रहे हो?" कहा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"सतभान के लिए!" बोला ज़रा मुस्कुरा कर!
"कोई दुश्मनी?" पूछा मैंने,
"बहुत पुरानी!" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"गद्दार है सुल्हण वो!" बोला गुस्से से!
सुल्हण मायने हरामजादा!
"ले चलो! जाजू!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वो हमारे साथ अब, पैदल पैदल चलने लगा!
हम करीब दो सौ मीटर आगे चले होंगे, कि कोई द्रुत गति से दौड़ता हुआ गया घोड़े पर!
"सतभान? चिल्लाया वो, फौरन से चढ़ा घोड़े पर!
"सामने जाओ, अट्कन बनी है, वही है!" बोला वो,
अट्कन मायने एक ऐसी जगह, जहां सीढ़ीदार चबूतरा होता है,
लोग उसके तीन तरफ बैठते हैं,
सरदार के गुर्गे, सरदार के पीछे रहते हैं!
सरदार उस अट्कन पर बैठा करता है!
भागता चला गया वो! तलवार निकाल ली थी उसने अपनी!
"ये हो क्या रहा है?" बोले वो,
"समझ नहीं आ रहा बिलकुल भी!" कहा मैंने,
"रोज एक नया नाम?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"अब ये जोगना, जाजू!" कहा उन्होंने,
"खुलेगा राज!" कहा मैंने,
"अब ये भी पता चला गया, चलो!" बोले वो,
"क्या?" बोले वो,
"कि शम्भा का कारीगर है ये धीमणा!" बोले वो,
"हाँ! ये नयी बात पता चली!" कहा मैंने,
"ठहर जा!" आई आवाज़ एक!
ठहरा मैं,
एक लम्ब-तड़ंग आदमी खड़ा था!
लबादा सा पहना था लाल से रंग का, टोर्च की रौशनी में दिखा वो,
"कौन है?" बोला मैं,
और चला उसके पास,
"ठहर जा!" बोला वो,
"पास आ?" कहा मैंने,
वो आने लगा, लंगड़ा रहा था,
शायद पाँव में कोई दिक्कत थी उसके,
आया पास हमारे,
वृद्ध था लगता था वो,
हालत बड़ी ही खराब थी उसकी,


   
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