शर्मा जी की भी!
और खोला दरवाज़ा!
बाहर कोई चार लोग थे!
हाथों में तलवार लिए! जैसे ही,
हमें देखा, आये भागते हुए!
अर्राते हुए पड़े!
और तभी, चारों एक साथ रुके!
तवांग की गंध आई थी उन्हें!
छू जाते, तो हो जाते लोप! चले जाते अँधेरे में वापिस!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"धीमणा के आदमी हैं" बोला एक,
"किसलिए आये हो?" पूछा मैंने,
"तू जानता है!" बोला एक,
वे बेहद गुस्से में थे! बस चलता तो टुकड़े कर देते हम सबके वही पर!
लेकिन मंत्रों के कारण वे कुछ नहीं कर पा रहे थे!
"जाओ, भला चाहते हो तो!" कहा मैंने,
"क्या कर लेगा?" बोला एक, गर्रा कर!
फिर वे हमारे चारों ओर चक्कर काटने लगे!
"जाओ, फौरन चले जाओ! भेजो उस धीमणा को!" कहा मैंने,
"तेरे टुकड़े कर देंगे हम!" बोला वो,
"नहीं बाज आओगे?" बोला मैं,
"क्या कर लेगा? तू खुद ही आया यही न मरने?" बोला वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
वो समझ ही नहीं रहे थे! उनको काफी समझाया था मैंने!
अब कोई प्रेत न समझे, तो अपना सिपहसलार, बिन बोले ही समझा देता है!
मैंने पढ़ा इबु का रुक्का!
और हुआ इबु हाज़िर!
हड़कम्प मच गया वहां तो! वो हाज़िर होते ही सब समझ गया था!
वे चारों, उसे देख, अँधेरे में कूद गए थे!
इबु से कहाँ बचने वाले थे वे!
ले आया बाल पकड़ के सभी के, जैसे सब्जी पकड़ी हों हाथ में!
निकल गयी सभी की हेकड़ी!
ऐसे कांपें जैसे सूखे पत्ते!
"हाँ! करवा दूँ सेवा? कर दूँ क़ैद?" बोला मैं,
अब हाथ जोड़ें वो! चिल्लाने लगे! एक तो रो ही पड़ा!
"छोड़ दो इनको!" कहा मैंने,
मारा फेंक कर नीचे!
"अब जाओ! बता देना धीमणा को!" कहा मैंने,
इबु मुस्कुराया! और फिर लोप हुआ!
अब कई मित्र पूछेंगे कि क्या शर्मा जी ने इबु को देखा?
उत्तर है नहीं! क्योंकि कलुष नहीं लड़ाया था!
वे प्रेत उन्हें हवा में लटके, और गिड़गिड़ाते ही लग रहे थे!
लेकिन वो समझ गए थे कि, सिपहसलार आ गया था!
वे स्वेच्छा से दीख रहे थे अन्यथा, हमें भी कलुष ही प्रयोग करना पड़ता!
अब हम हुए वापिस, आये कोठरे में,
जूते उतारे और लेट गए, हाँ, किशन जी, बीड़ी खींचते रहे!
उसके बाद कुछ नहीं हुआ, कोई नहीं आया,
सुबह हुई, और हम तब चले गाँव!
दोपहर में, आ गए थे खेत पर, बैठे एक पेड़ के नीचे,
चारपाई बिछवा ली थी, आराम से बैठे हम!
फिर हुई शाम, और हम चले कोठरे में,
खाना बिशन जी ले आये थे,
खाना खाया हमने, पानी पिया, और सोने से पहले, दूध पी लिया था,
उस रात आराम से सोये हम!
कोई नहीं आया, न कोई अन्य प्रेत, न वो धीमणा!
इस तरह तीन दिन बीत गए!
लगता था कि समस्या अब समाप्त हो चली है!
शायद, इबु के हाज़िर होने से, उन प्रेतों ने बता दिया होगा धीमणा को!
तीसरे दिन ही, शाम से थोड़ा पहले, कोई साढ़े पांच बजे,
हम वापिस हो लिए थे अपने स्थान के लिए!
अब रुकना संभव ही न था, बहुत से काम रोक कर आया था मैं,
रात हुए, हम पहुँच गए थे दिल्ली,
बीच में एक जगह खाने-पीने के लिए रुक गए थे!
एम महीना बीत गया, कुछ न हुआ,
किशन जी और बिशन जी, सब संतुष्ट थे!
खेतों में काम चालू था ही,
तो सभी भाई और घर में, अब ख़ुशी लौट आई थी,
किशन जी ने, दो दो किलो ऐसी घी दिया था हमें!
वही जीमा जा रहा था उन दिनों!
कुछ दलिया और डालें भी दी थीं, बहुत स्वादिष्ट बनती थीं!
पंद्रह दिन और बीते!
और शर्मा जी के पास फ़ोन आया बिशन जी का,
फ़ोन पर सही से बात न हो सकी, तो उनको बुला लिया दिल्ली ही,
अगले दिन दोनों भाई आ गए थे मिलने एक जगह,
जहां शर्मा जी ने बुलाया था,
उन्होंने जो बताया, वो सच में खतरनाक था!
उनके खेतों में, कटे हाथ और पाँव मिल रहे थे,
जगह जगह, गड़े हुए, जैसे कोई गाड़ रहा हो उन्हें,
उनको तो जैसे पागलपन सा चढ़ गया था ऐसा देख कर,
"क्या करते हो उन अंगों का?" पूछा मैंने,
"उठा कर, नहर में फेंक देते हैं जी" बोले वो,
अब ये समस्या तो बहुत गंभीर थी!
मजदूर तो भाग ही गए थे, कहीं किसी और ने देख लिया होता,
तो कचहरी-थाना और हो जाता,
कुछ न कुछ अवश्य ही करना था अब!
अगले दिन ही मैंने चलने का फैंसला किया!
सुबह हम निकल जाने वाले थे उनके साथ,
जानकार भी साथ चलने वाले थे अपनी गाड़ी लेकर,
उसी रात को मैंने कुछ ज़रूरी विद्याएँ साध लीं,
और अगले ही दिन, हम चल दिए गाँव,
पहले सीधे खेत में गए,
उसी खेत के साथ वाले खेत में,
कटा हुआ एक हाथ पड़ा था, उस हाथ को, बड़ी सफाई से काटा गया था,
अस्थि सुरक्षित थी, उस पर निशान नहीं थे,
हाथ किसी जवान व्यक्ति का था,
हाथ में, एक चांदी का छल्ला पड़ा था,
तर्जनी ऊँगली में,
उस हाथ को उठाया मैंने एक पन्नी से,
डाला एक कागज़ में, और नहर में फेंकने चल पड़े थे हम,
फेंक दिया वो, हाथ आदि साफ़ कर लिए अपने!
धीमणा बहुत कुशल खेल, खेल रहा था अब!
ऐसा सिर्फ वही कर सकता था!
मलिक्ष विद्या करती है ऐसा,
वही कर रहा था वो!
बंजारे इस विद्या को थोड्न-जार कहते हैं!
इसमें हाथ और पाँव ही आते हैं ऐसे स्थानों पर,
यदि रोका न गया,
तो कटे सर भी आ सकते थे!
अब एक ही काम था!
उस कुमारगढ़ी जाना था, उस धीमणा के कबीले की जगह!
जहाँ वो ठहरा करता होगा!
वहां रात को जाना उचित था,
कोई होता भी नहीं,
और कोई टोकता भी नहीं!
दिन में ज़रा मुश्किल हो जाता है ऐसे काम करना!
खाना खा कर,
हम चल पड़े थे उस कुमारगढ़ी के लिए,
टोर्च ले ली थीं हमने,
अब उस धीमणा की मांद में जा रहे थे हम!
हम करीब एक घंटे में पहुंचे वहाँ!
हम उतरे गाड़ी से,
दिशा मुझे बता दी थी किशन जी ने,
टोर्च जला ही ली थी हमने,
तब मैंने कलुष लड़ाया,
दोनों के ही नेत्र पोधित कर लिए,
किशन जी और उनके भांजे को गाड़ी में रहने को कह दिया,
बता दिया कि, जब हम आएं तो हमसे तीन बार एक शब्द बोलें,
तब पहचान लें हमें!
नहीं तो कोई भी प्रेत,
हमारा रूप धर आ सकता था उनके पास!
हमारे जैसे ही वस्त्र!
आवाज़ हमारे जैसी,
अंदाज़ आदि आदि!
फिर मैंने, गाड़ी में एक तांत्रिक-वस्तु रख दी थी,
गाड़ी अब सुरक्षित थी,
खिड़की बंद ही रखनी थी!
और हम चले फिर,
आसपास देखा,
कोई नहीं था, दूर दूर तक अँधेरा ही अँधेरा!
सियार रो रहे थे!
आकाश में बदली थी,
चन्द्रमा उनके बीच छिपे हुए थे,
हम जहां आये, वहां एक बड़ा सा पेड़ था बरगद का!
एक मंदिर बना था नीचे उसके,
और कुछ पिंडियां!
पेड़ ऐसा विशाल था कि पता ही नहीं चलता था आकार का!
तभी मेरी नज़र, उस पोखर पर पड़ी!
चन्द्रमा निकल आये थे बदली से बाहर,
उनकी परछाईं जब जल पर पड़ी, तो मुझे दिखा,
ये तालाब सा बड़ा था!
आसपास झाड़ियाँ उगी थीं,
कुछ सरकंडे लगे थे,
"आओ" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
और हम उस पोखर पर चल पड़े!
उस पोखर के पास पहुंचे,
और दूर तक नज़र डाली!
एक जगह नज़र रुकी!
मैंने बैठ कर देखा,
"नीचे बैठो तो?" कहा मैंने,
वो बैठे नीचे,
"वो क्या है सामने?" पूछा मैंने,
"कुछ है, हिल रहा है!" बोले वो,
"कोई जानवर तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं तो!" बोले वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े उधर!
वो जानवर नहीं था! वो तो........................
वो जानवर नहीं था! हम ठिठक के खड़े हो गए थे! हमसे कोई तीस फ़ीट दूर, एक औरत बैठी थी, एक पत्थर पर, पानी ने दोनों हाथ घुमा रही थी, जैसे कोई वस्त्र साफ़ कर रही हो! उसने भी हमें देख लिया था, वो उस वस्त्र को ले, अब खड़ी हो गयी थी! हम आगे बढ़े, नाक पर पसीना छलक आया था! उसने वो वस्त्र जैसी पोटली, उठा ली थी, और जब मैंने उस पोटली पर रौशनी डाली, वो वो एक मृत-शरीर था! उसने सीने से लगा लिया था उसे, उस मृत-शरीर की गर्दन बार बार ढुलक जाती थी! हम धीरे से आगे बढ़े, आहिस्ता आहिस्ता!
"नहीं! नहीं!" बोली वो,
हम रुक गए, उसका विश्वास चाहते थे बनाना, इसलिए!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
उसने झट से वो मृत-शरीर अपने पीछे कर लिया!
"डरो नहीं, कोई नुकसान नहीं करेंगे हम!" कहा मैंने,
वो आँखें फाड़े हमें देखती रही!
अब हम आगे बढ़े!
"रुक जाओ!" बोली वो,
हम फिर से रुक गए!
"सुनो, डरो नहीं, विश्वास करो!" कहा मैंने,
समझाया उसको, साधारण से शब्दों में,
उम्र में कोई बाइस या तेईस बरस की रही होगी,
कद काफी लम्बा था उसका,
उसके कपड़े, फट कर चीथड़े बन चुके थे,
कोई गहना न था, कन्धों से वस्त्र फट चुका था,
बस छाती ही ढकी थी उसकी,
पेट खुला था, जाँघों पर वस्त्र फट चुके थे,
बहुत दया आई उस बेचारी की इस हालत पर!
अनुभव क्र. ९३ भाग ३
"कौन हो तुम? डरो नहीं, अपना बड़ा भाई ही समझो मुझे! बताओ, कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
मैंने बड़ा भाई कहा था, उसे कुछ यक़ीन हुआ तब,
कुछ भय सा कम हुआ उसका, उसने उस शरीर को आगे किया,
मैंने रौशनी मारी उस पर,
कोई ज़ख्म आदि नहीं था, शायद प्राकृतिक-मौत ही वजह रही हो,
"इधर आओ?" कहा मैंने,
वो नहीं हिली, शरीर को सीने से लगा लिया,
"सुनो?" बोला मैं,
वो चुप खड़ी रही,
अब मैं आगे बढ़ा, इस बार, नहीं घबराई वो,
मैं उसके करीब तक पहुँच गया था, करीब तीन फ़ीट दूर रही हो मुझसे,
सड़े मांस की गंध आ रही थी,
जैसे को मृत जानवर सड़ रहा हो वहां,
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"सज्जो" बोली वो,
"सज्जो, इसी गाँव की हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, उधर, उधर की" बोली वो,
उस दूर खड़े बरगद के पेड़ की तरफ इशारा करते हुए बोली वो,
"सज्जो? कोई और भी है तुम्हारे साथ?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"यहां क्या कर रही हो?" पूछा मैंने,
"उखाड़ने आई थी, इसको" बोली वो,
उस शरीर को आगे करते हुए,
समझ गया था, भूमि में से उखाड़ने आई थी,
उखाड़ लिया था उसने, माँ थी वो एक,
पीड़ा समझ सकता था मैं उसकी,
मुझे अब तरस आ गया उस पर, जी किया,
इसको अभी पकड़ लूँ, क़ैद कर लूँ और फिर मुक्त!
लेकिन नहीं,
अभी कुछ और जानकारी चाहिए थे, दे सकती थी वो,
"सज्जो? वो धीमणा कहाँ है?" पूछा मैंने,
"ढापन में" बोली वो,
ढापन, मायने एकांत में है, जैसे कोई स्थान हो उसका,
"मुझे ले जाओगी?" पूछा मैंने,
"मार डालेगा" बोली वो,
"तुम्हारा सरदार है न वो?" पूछा मैंने,
"नहीं, दुश्मन!" बोली वो,
अच्छा, इसका मतलब, ये वहाँ की नहीं थी, शायद स्थानीय रही हो!
"और कौन है यहां?" पूछा मैंने,
"बहुत है, वहाँ जाओ" बोली वो,
और उसके बाद, पोखर में उतर गयी वो,
मैं देखता रह गया, पोखर में धीरे धीरे उसका सर डूबता चला गया, पानी शांत हो गया एकदम से फिर!
अब आये शर्मा जी दौड़े दौड़े!
"पानी में उतर गयी?" बोले वो,
"हाँ! इस पानी में कोई राज छिपा है शर्मा जी!" कहा मैंने,
तभी, दूर से, कुछ स्त्रियों के रोने की आवाज़ आई,
ये ऐसा था, जैसे शोक-विलाप हो रहा हो!
ध्यान से सुना,
और फिर चले एक तरफ,
झाड़ियाँ पार कीं हमने,
ये बीहड़ था, ज़मीन उजाड़ थी, बंजर जैसे,
भट-कटेरी और झड़-कटेरी की कांटेदार झाड़ियाँ लगी थीं,
जंगली सैंथली के पौधे लगे थे,
हम आगे बढ़े,
उस बियाबान में,
हवा ऐसे चल रही थी कि जैसे,
तीर चल रहे हों!
अचानक से, वो शोर बंद हुआ,
हम रुक गए,
कुछ देर खड़े रहे,
फिर से आया शोर वही,
हम चले दायीं तरफ,
यहां टीले थे मिट्टी के, अधिक बड़े तो नहीं,
लेकिन कोई छिप सकता था आराम से वहां!
ये आवाज़ वहीँ से आ रही थी!
हम चलते रहे, वो झाड़िया, हमें चुभ जाया करती थीं बार बार,
हम एक दूसरे के कपड़ों में से कांटे निकाल देते थे!
चलते रहे हम,
और एक जगह, थोड़ा दूर,
दो स्त्रियां बैठी थीं!
हमारी टोर्च की रौशनी देख,
खड़ी हो गयी थीं!
हम चले आगे,
रुके,
वे पीछे हटीं!
"रुको!" कहा मैंने,
एक ने आवाज़ लगा दी ज़ोर ज़ोर से!
"लहुला! लहुला!" चीखी एक!
और कोई भागता सा आया वहां फौरन!
एक पहलवान सा, हाथ में लट्ठ था उसके!
लम्बा-चौड़ा नौजवान था वो!
मूंछें बड़ी रौबदार थीं उसकी!
हम चले आगे!
"रुक जा!" बोला वो,
और खुद आया आगे!
रुका, हमें देखा,
"कौन हो?" बोला वो,
"धीमणा से मिलना है!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"कुछ बात करनी है" कहा मैंने,
"कहाँ से आया है?" बोला वो,
"पास से ही" बोला मैं,
"क्या काम है?" बोला वो,
"काम है कुछ" बोला मैं,
"जा, लौट जा" बोला लट्ठ पटक के!
"ले चलो मुझे!" कहा मैंने,
"लौट जा!" बोला वो,
"मिला दे?" कहा मैंने,
"नहीं मानेगा?" बोला वो,
"नहीं" कहा मैंने,
उसने उठाया लट्ठ!
और चला आगे हमारे पास आने के लिए!
छह फ़ीट पर ही रुका!
जान गया था!
"कौन है तू?" बोला वो,
"इस से कोई फायदा नहीं!" कहा मैंने,
"किसने पता दिया तुझे?" बोला वो,
"सरजू ने!" कहा मैंने,
"सरजू? कौन सरजू?" बोला वो,
"तू नहीं जानता?" बोला मैं,
न बोला कुछ!
"बिरजू का भाई?" कहा मैंने,
"यहां कोई नहीं है" बोला वो,
कोई नहीं है?
ये नहीं जानता उसे?
तो फिर, ये कौन है?
उसने पहचाना नहीं था सरजू और उसके भाई को! यहां मामला ज़रा सा गड़बड़ा गया था! या तो कोई ये दो क़बीले थे अलग अलग, या फिर कोई अलग ही मसला था! वो बार बार हमें लौट जाने को कहता था! धमका तो नहीं रहा था लेकिन मान भी नहीं रहा था, चाहता था कि बस हम निकल जाएँ वहाँ से!
"जाओ?" बोला वो,
मैं कुछ न बोला,
उन दोनों स्त्रियों को देखता रहा,
उनके हाथों में, थैले से लटक रहे थे,
कुछ भरा था उन थैलों में, लेकिन ये तो बात करने को तैयार ही न था!
और तभी, दूर से घोड़े की हिनहिनाहट गूंजी!
जैसे कोई घोड़ा दौड़ा आ रहा हो!
उन्होंने जैसे ही टाप सुनी उस घोड़े की, वे लपके अँधेरे में, और हुए गायब!
एक घुड़सवार गुजरा वहां से, तेज गति से! मिट्टी फेंकता हुआ गया उसका घोड़ा अपने खुरों से!
मेरी टोर्च की रौशनी उसके घड़े से टकराई थी,
लाल रंग का घोड़ा था वो, बड़ा मज़बूत सा,
लेकिन हुड़सवार रुका नहीं, दौड़े ही चला गया!
घोड़े की हिनहिनाहट गूंजती रही काफी देर तक!
न तो घुड़सवार ही लौटा और न ही वे तीनों ही लौटे!
हम इंतज़ार करते रहे उनका, कोई नहीं आया वहाँ!
"आगे चलो" कहा मैंने,
"चलिए" बोले वो,
और हम आगे चल पड़े,
आगे गए, तो मवेशियों के कंकाल मिलने लगे,
शायद वो बदबू यहीं से आ रही थी,
हवा का झोंका ले आता उस बदबू को अपने साथ!
शायद गाँव वाले, यहीं फेंक आते होंगे अपने मृत मवेशी,
कुछ सियार मुंह मार रहे थे उन मृत मवेशियों में,
हम निकल चले उनके पास से ही, उनका भोजन तो छीन नहीं रहे थे हम,
इसीलिए नहीं गुर्राए हम पर वो, हाँ, देख ज़रूर लेते थे वो!
आगे गए, तो फिर से वहां पिंडियां नज़र आयीं,
करीब बीस तो रही होंगी वो, पत्थरों के छोटे छोटे चबूतरे बने थे वहाँ!
"ये क्या हैं?" बोले वो,
"पिंडियां है" कहा मैंने,
"इस जंगल में?" बोले वो,
"हाँ, उस समय जंगल न होगा" कहा मैंने,
और पीछे से वही हिनहिनाहट सुनाई दी, घोड़ा सरपट दौड़े आ रहा था हमारी तरफ ही!
जैसे ही नज़र आया, धीरे हुआ, घुड़सवार ने बुक्कल मार रखी थी!
आया घोड़ा हमारे पास, रुका,
वो घुड़सवार उतरा नीचे, बुक्कल हटाई उसने,
चेहरा बेहद सख्त था उसका, कोई हाक़िम सा लगता था वो,
भौंहें भारी भारी थीं उसकी!
आँखें चमकदार और कानों में बालियां पहने था
कान के ऊपरी हिस्से में छल्ला पड़ा था, दोनों कानों में,
छाती ज़बरदस्त चौड़ी थी उसकी!
जैसे पहलवान हो वो!
पुराने लोग ऐसे ही दीखते हैं, श्रम किया करते थे,
मोटा अनाज होता था, कसरत अपने आप हो जाती थी,
कसरत करते थे भी, तो देसी कसरत! दंड-बैठक, मुग्दर-बाजी!
आजकल की तरह जिम नहीं, मशीनों से पेशियाँ बनाई जाती यहीं!
दवाइयाँ ली जाती हैं, पेशियां बन तो जाती हैं, पर अस्थियों को भारी नुकसान होता है,
भंगुर हो जाती हैं, मांस की कोशिकाएं इकट्ठी हो, मृत हो जाती हैं, फलस्वरूप, कैंसर हो जाता है!
दिखेगा तो वो पहलवान सा ही, लेकिन कोई देसी पहलवान, दंगल में उतर जाए उसके साथ,
तो एक ही बार में धूल चाट जाए मशीनी-पहलवान!
छाती में एक घूँसा जड़ दे, तो चार दिन बाद आई.सी.यू. में ही होश आये!
पसलियां और चटकवा बैठे वो मशीनी पहलवान!
स्टेरॉयड्स से, नपुंसकता भी आती है, वीर्य-दोष उत्पन्न होता है!
'तनाव' भी मात्र दवा से ही हो, तो ऐसा क्या फायदा!
लेकिन ये लोग, ऐसे मज़बूत थे, कि घोड़े की लगाम पकड़ लें,
तो हिलने ही न दें उसे! आजकल की तरह नहीं, कि घोड़ा घसीटता ही ले जाए संग अपने!
वो घूर के देख रहा था हमको!
"कौन हो तुम?" बोला आहिस्ता से,
मैंने अपना परिचय दिया उसे,
"यहां क्या कर रहे हो?" बोल वो,
"धीमणा से मिलने आये हैं" बोला मैं,
"धीमणा से?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तुम जानते हो उसे?" बोला वो,
"हाँ, सरजू और बिरजू ने बताया था कि वो सरदार है!" कहा मैंने,
"वो तो है! कारीगर भी है!" बोला वो,
"जानता हूँ" कहा मैंने,
"वापिस चले जाओ, भला होगा!" बोल वो,
"वापिस नहीं जाना!" कहा मैंने,
"सही कह रहा हूँ!" बोला वो,
"जाऊँगा तो नहीं! वैसे तुम कौन हो?" बोला मैं,
"मैं सतभान हूँ, बैजला!" बोला वो,
"किसके बैजला?" पूछा मैंने,
बैजला माने, हलकारा!
"इधर कोई बीस कोस पर, एक क़बीले की ठहर है, ***** कलां!" बोला वो, (मैं गाँव का नाम नहीं लिख रहा हूँ)
"वहाँ कौन है?" पूछा मैंने,
"शम्भा, कारीगर है वो भी!" बोला वो,
तो सतभान उस शम्भा का हलकारा था!
"ये धीमणा कहाँ मिलेगा?" बोला मैं,
"नहीं मिलेगा!" बोला वो,
"क्यों?" बोला मैं,
"ठावणी आने में, देर है अभी!" बोला वो,
"अच्छा!" बोला मैं,
"अब चले जाओ! बाद में आना!" बोल वो,
हुआ पीछे, रखा पाँव जीन पर, और चढ़ गया घोड़े पर,
घोड़े ने आगे के दोनों पाँव उठाये,
लगाई एड़ उसने,
और घोड़ा सरपट भागा उसका!
जहां से आया था, वहीँ चला गया!
"ये ठावणी क्या है?" बोले वो,
"बंजारों की माह-बैठक! ये अक्सर माह की अंतिम दशमी को होती हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
मैंने हिसाब लगाया, अभी तो अठारह दिन शेष थे!
तब तक कोई फायदा नहीं था यहां आने का,
"अब?" बोले वो,
"वापिस जाना होगा!" कहा मैंने,
"चलें?" बोले वो,
"चलो" कहा मैंने,
और हम वापिस चले वहाँ से,
जैसे ही आये हम वापिस,
उस पोखर में, कतार लगाये,
वे प्रेत खड़े थे! कम से कम पच्चीस रहे होंगे!
सभी हमें ही घूर रहे थे, बड़ यही भयावह सा नज़ारा था!
"अरे बाप रे!" बोले वो,
"मेरे पीछे रहो!" कहा मैंने,
हम चलते जा रहे थे पोखर के साथ साथ,
कि एक औरत छिटक कर बाहर आई,
बहुत गुस्से में लग रही थी वो!
आँखें चौड़ी कर रखी थीं उसने!
उसने अपने भीगे बाल हटाये,
पानी पड़ा हम पर भी उसके बालों का!
दांत भींचे हुए थे उसने अपने, नथुने चौड़े कर रखे थे!
"शम्भा का आदमी है तू?" चीख के बोली वो,
मैं चुप!
बेवजह गुस्सा कर रही थी!
तभी दो और आ गयीं वहां!
वो भी गुस्से में! दांत भींचे हुए!
वे चिल्लाईं! ऐसे तेज कि कान हो फोड़ दें!
"सुनो?" मैं चीख के बोला,
वे चुप तब!
"मैं शम्भा का आदमी नहीं हूँ!" कहा मैंने,
एक औरत ने कुछ फेंक के मारा ज़मीन पर!
ठीक मेरे सामने, मैं झुका, उठाया उसे,
ये एक सिक्का था, एक अशर्फी जैसा सिक्का,
"ये क्या है?" बोला मैं,
"ये चाहिए शम्भा को?" बोली वो,
"मुझे नहीं समझ आ रहा कि क्या कह रही हो तुम?" बोला मैं,
"सबकुछ तो ले लिया, अब क्या चाहिए?" बोली वो,
"क्या ले लिया?" बोला मैं,
"लूट लिया सबकुछ!" चिल्ला के बोली वो,
मैंने सिक्का गिरा दिया नीचे,
एक ने उठाया, और फेंक के मारा मुझे वापिस,
मैंने फिर उठा लिया सिक्का,
"तुम गलत समझ रही हो!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोली वो, अपने बाल खींचते हुए,
अनुभव क्र. ९३ भाग ४
"मैं न शम्भा का आदमी हूँ, न धीमणा का! मैं धीमणा से मिलने आया था!" बोला मैं,
अब उन्हें यक़ीन न आये!
कई बार बताया मैंने उन्हें!
जब सरजू-बिरजू की कहानी बतायी, तो सहज हो गयीं!
"अब समझीं तुम?" बोला मैं,
"सतभान आया था न?" बोली वो,
"हाँ, आया था" कहा मैंने,
"वो है शम्भा का आदमी!" बोली वो,
"और तुम?" बोला मैं,
"हम कुमारगढ़ी के वासी हैं" बोली वो,
"तुम्हारा मतलब, न शम्भा के, न धीमणा के?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
अब आया समझ!
वो औरत, जो पहले मिली थी,
मृत-शरीर वाली,
और ये सब,
ये सब कुमारगढ़ी के असली वासी हैं!
"हुआ क्या था?" पूछा मैंने,
अभी मैंने पूछा ही था,
कि छिटक के सभी उस पोखर में जा, ओझल हुए!
वो सिक्का मेरे हाथ में रह गया!
टोर्च मार, अच्छे से देखा,
ये एक हिन्दू-सिक्का था,
एक स्वास्तिक और ॐ बना था उस पर,
और कुछ नहीं,
शायद गढ़ा गया था उसे,
पहले ऐसा ही होता था,
