मरने के बाद भी न छोड़ें!
कैसा जुलम भयो!
कैसी बुद्धि फिरी!
चबूतरा तोड़, माल ही निकला लाये!
वहीँ जो पड़े रहन देते?
कहीं भाग रौ था?
बाद में निकाल लेते?
पर न जी न!
होनी बड़ी बलवान!
ऐसा होना था, सो हुआ,
चारों ही अब लपेटे में थे!
रास्ता कोई नहीं!
फौजी साहब जब भी आते,
दो-चार कहानी और सुना देते!
डर, एक से दो,
दो से चार और चार से सोलह हो जाता!
पसीने ऐसे छूटते, कि आना ही बंद कर देते!
लघु-शंका की संख्या में वृद्धि हुई थी!
जब भी फौजी साहब आते,
लघु-शंका की धार बस, छूटने को ही होती!
सर पीट लिया करते!
बीड़ी सूंतते,
हुक्का गुड़गुड़ाते,
और ऊपरवाले का नाम ले,
दिया जलाते उसके नाम का!
तो मित्रगण!
गांव का ही एक भगत मिल गया उन्हें!
नंदू भगत! दूर दूर से आते थे लोग उसके पास, भगताई में माहिर बताया जाता था!
मालाएं ऐसे पहनता था, जैसे किसी शक्तिपीठ का पीठाधीश हो!
उसके ज़रा तलवे मले गए!
लोहा गरम था, मार दिया नंदू भगत ने हथौड़ा!
माँगा कुछ पैसा, दे दिया गया, और हो गया तैयार!
तो ऐसे ही करते करते, वो दिन भी आ ही लिया!
उस दिन, वे चारों, दो मजदूर, वो नंदू भगत और फौजी साहब,
जेब में चालीसा रखे, जा पहुंचे खेत में!
आज आना था उनको शाम को,
समय के पक्के तो थे ही, आज कुछ न कुछ हिसाब हो ही जाना था!
या तो आज इधर, या फिर उधर!
उन देहातियों में तो आज कसम भी खा ली थी,
पांच महीनों से, रोटी के नमक में भी स्वाद नहीं आ रहा था,
सब्जी-भाजी, दाल तो छोड़ ही दो!
तो जी, बजे साढ़े पांच,
और वो दोनों ही लठैत आ पहुंचे वहाँ!
नंदू भगत हुआ पीछे, ये पुराने दमदार प्रेत थे!
औ वो उसे ही ठोकते सबसे पहले, तो वो तो हुआ पीछे,
जा छिपा पुआल के पीछे, कनखियों से देखे!
उसकी पार न लगती उनसे!
बेकार में ही हड्डियों का चूरमा बना देते दोनों ही लट्ठ बजा बजा!
जब नंदू भगत हुआ दूर, तो फौजी साहब का चश्मा हुआ ढीला!
चालीसा पढ़ें मन ही मन!
इतने बरस गाँव में रहे, एक भूत भी न देखा,
और अब यहां दो दो लठैत प्रेत!
तोप फुस्स हो चली उनकी!
बारूद में पानी जा घुसा!
बंदूक का घोडा जाम हो गया!
अब तो बस कैसे ही जान बचे!
वे दोनों आ बैठे खटिया पर,
फौजी साहब के बस उड़ने की देर थी, तेज हवा चलती,
तो पत्ते के तरह कलाबाजी खाते हुए, उड़ जाते, खेतों में ही!
"हाँ जी! लाओ हमारा सामान!" बोला एक,
अब मुंह झांकें एक दूसरे का!
फौजी साहब को देखें!
फौजी साहब चालीस पढ़ें मन ही मन!
कुछ न बोलें, हाथ-पाँव सिकोड़, खटिया में घुसे जाएँ!
"क्या बात है?" बोला एक,
"जी, सामान न मिला" बोले किशन जी,
"देखो भाई, ऐसा कब तक चलेगा, वो हमारा सामान था, तुमने ले लिया, अब वापिस कर दो" बोला वो,
"कहाँ से वापिस कर दें? है ही नहीं अब तो?" बोले किशन जी,
"करना तो पड़ेगा!" बोला वो,
"कैसे?" बोले वो,
"वो हम वसूल लेंगे" बोला वो,
थूक गटका!
फौजी साहब के पसीने सूखे!
चक्कर कब आ जाएँ, पता नहीं!
"तुम बताओ, कब तक दे दोगे?" बोला एक,
"बाबू जी, कहाँ से दें? है ही नहीं?" बोले वो,
"ऐसा नहीं होता" बोला वो,
"फिर?" बोले किशन जी,
"तुम्हारी बंदर-बाट उड़ जायेगी!" बोले वो,
"क्या कह रहे हो?" बोले किशन जी,
"अभी तो कह ही रहा हूँ" बोला वो,
"देखो, तुमसे गलत हुई, मान लिया! अब बताओ क्या हल हो?" बोला वो,
"जैसा आप ठीक समझो?" बोले किशन जी,
"हल तो ये ही है, हमें माल दे दो अपना" कहा उसने,
"माल तो है नहीं" बोले वो,
"तो कैसे बनेगी बात?" बोला वो,
"देख लो जी" बोले किशन जी,
"ये भगत लाये तुम? छिपा पड़ा है पुआल के पीछे!" बोला वो,
"अरे ओ! इधर आ!" बोला एक,
अब भगत कांपे!
कहाँ भागे?
कहाँ फंसा!
"आ जा!" बोला वो,
आया डरते डरते!
"देख, इन्हें समझा दे! भली?" बोला वो,
"जी" कहा नंदू ने,
"जब तुम्हारे पास माल हो जाए, तो उस चबूतरे पर रोटी रख देना चार, अगले दिन आ जाएंगे हम! एवेर न करना, नहीं तो अगले महीने फिर आएंगे हम!" बोला वो,
और फिर चले वो, बुक्कल मारते हुए!
फौजी साहब, लेट गए फ़ौरन!
जेब में रखे चालीसा को रगड़ने लगे!
नंदू वहीँ बैठ गया ज़मीन पर!
अब किशन जी देखें उसे!
"रे, तुझसे तो कुछ हुई न?" बोले वो, गुस्से से,
चुप नंदू!
कैसे समझाये!
"बेटी के **! छुप और गौ पुआल के पीछै?" बोले बिशन जी, लताड़ मारते हुए,
अनुभव क्र. ९३ भाग २
"चाचा, समझो, ताक़तवारे हैं ये, मेरी न चलै!" बोला नंदू!
"धी के **! उतार यू मारा-फारा! कटोरा ले लै, मांग भीख गली गली!" बोले किशन जी, और तोड़ डाली मालाएं!
नंदू चुप!
धुन ही देते उसे अगर कुछ बोलता तो!
"रे फौजी? तू कैसे चुप बैठो है?" बोले किशन जी,
फौजी साहब उठे!
"बोरती बंद है गयी? एक हर्फ़ भी न फुटौ?" बोले गुस्से से!
फौजी साहब की बंदूक का जहां घोड़ा जाम हो गया था,
अब नाल भी झुक गयी!
चला लो गोली!
"कुछ न हो सकै! अब तो मरना ही पड़ैगौ! कोई न दै साथ!" बोले बिशन जी,
खोपड़ी खुजाते हुए!
"इसकी सास का **! यहीं गाड़नौ हौ धन? हमारी ** लेगौ अब?" बोले किशन जी,
बीड़ी सुलगाते हुए!
"चल रे भगत? डिगर यहां तै?" बोले गुस्से से किशन जी!
जान में जान आई नंदू के!
पीछे मुड़के भी न देखा!
ये जा और वो जा!
"चल भाई फौजी! भोंक दियो ऊंटनी की ** में भाला तूने तौ! फ़ौज में कहीं चपरासी तो न रहौ तू?" बोले किशन जी!
बेचारे फौजी साहब!
न बोलते बने!
न चुप रहते!
खांसी उठने लगी थी!
कहीं मधुमेह का अटैक ही न पड़ जाए!
उठ लिए चुपचाप!
और सभी चल पड़े वापिस घर!
अब किया क्या जाए?
कहाँ जाया जाए?
किसको लाया जाए?
कौन सुलह करवाएगा?
कैसे फंसे!
जान आफत में आ गयी!
ऐसा तो कभी न हुआ!
कैसा धन मिला?
देह फाड़ के निकलेगा शायद!
खोपड़ी खुआ खुजा सभी परेशान!
इस कशमकश में, बीस दिन गुजर गए,
फौजी साहब चले गए थे वापिस!
नंदू अब नज़र न आया था!
पैसा ले ही लिया था वापिस!
फंस गए प्रेतों में!
कसाई के माल को कटरा कैसे खा जाएगा?
बहुत बुरी बीती!
किस से कहें!
अब कुछ न कुछ तो करना ही था!
तो साहब, किशन और बिशन,
गए अपने भांजे के पास शहर,
भांजा वकील था उनका,
उसको आपबीती सुनाई!
अब वकील साहब के होश उड़े!
इंसान हो तो फौजदारी का मुक़द्दमा दायर करें!
इन प्रेतों से कौन छुड़ाए?
उन्होंने भी मारे हाथ-पैर!
और उन्होंने,
अपने साले साहब से की बात!
साले साहब रहते थे दिल्ली में!
मेरे थे जानकार!
उन्होंने झट से मेरे बारे में बता दिया!
अब क्या था!
आया शर्मा जी के पास फ़ोन,
उन साले साहब का!
मिलने का समय माँगा,
दिया कोई एक हफ्ते बाद का,
और एक हफ्ते के बाद,
हुई उनसे मुलाक़ात!
उस रोज,
किशन और बिशन भी आये थे,
चेहरे पर, हवाइयां उडी हुईं थीं!
सारा मामला सुनाया उन्होंने मुझे!
अब तक का, जो मैंने लिखा!
जब वो आये थे, जहां शर्मा जी ने बुलाया था, तो देखने में बड़े ही सीधे-सादे लगे मुझे वो! उन्होंने कुछ भी न छिपाया था, सबकुछ बता दिया था! बस किसी तरह से छुटकारा चाहते थे वो, वो तो बेचारे फसल कटने के बाद, उनको पैसे देने को भी तैयार थे! ऐसे सीधे थे! कुल रकम पांच-सात लाख हो जाती, लेकिन वो जो समय दे रहे थे, वो बहुत कम था, फसल अभी शुरुआत में थी, तीन महीने लग जाते! मुझे उनका सीधापन भा गया था! गिलास से पानी पिया तो ओख लगा कर! चाय पीते नहीं थे, पीते भी थे, तो कभी-कभार जाड़े में! वो प्रेत बार बार आ रहे थे, अपना माल लेने! बात उनकी भी जायज़ थी, वो माल उन्हीं का था! लेकिन इतने सालों के बाद कैसे याद आ गयी एकदम? अब तक कहाँ थे? पहले क्यों नहीं आये? ले जाते अपना सामान! अब इनको क्यों धमका रहे थे वो! पूरी बात सुनी थी मैंने उनकी! और जब मैंने हाँ की, तो मेरे हाथ ही पकड़ लिए! किशन जी ने, बिशन को मारी कोहनी, बिशन जी ने, अंटी में से, निकाली एक कपड़े की थैली, खोली, और मुझे पैसे पकड़ा
दिए! मुझे हैरानी हुई! मैंने नहीं लिए पैसे! नहीं मान रहे थे, लेकिन नहीं लिए, वो वैसे ही मुसीबत में थे! ये पैसे उनके ही काम आते तो अच्छा था! उन्होंने बाद में कह के, रख लिए पैसे! और फिर मैंने बताई उनको तारीख, वहाँ पहुँचने की, ये तीन दिन बाद की थी, वे हुए खुश! मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि अब न घबराएं, अब नहीं आएंगे वो कभी! अब आराम से रहें वे! बहुत बहुत धन्यवाद किया उन्होंने मेरा!
तीन दिन के बाद, मेरे जानकार ले आये गाड़ी, और हम चल पड़े उनके गाँव, फ़ोन कर ही दिया था उन्हें, उनके लड़के के पास फ़ोन था, उसी से बात हुई थी हमारी! और इस तरह, कोई तीन घंटे में, हम उनके गाँव पहुँच लिए! उनका वकील भांजा भी आ गया था! हम वहाँ पहुंचे, हाथ मुंह धोये, और चारपाई पर बैठ गए! देहाती माहौल था बिलकुल! चूल्हा, जलाने का जलावन, उपले सब वहीँ रखे थे, दूर एक जगह पेड़ के नीचे, मवेशी बंधे थे! चारों भाई एक साथ ही रहते थे, तो जगह भी बड़ी थी, बरोसी में दोष औट रहा था, निकाला गया जग में! और दिए गए गिलास हमें! दूध ऐसा मीठा कि मजा आ गया! औटा हुआ दूध था, मोटी-मोटी मलाई चढ़ी थी! और फिर, धुंए का स्वाद! एक गिलास खींच मारा! अब शहर में कहाँ मिलता है ऐसा दूध! ऐसा दूध तो अब इतिहास हो गया है! शहरों में अब लोग चर्बी चढ़ाये जा रहे हैं, जान गंवाए जा रहे हैं! रोग-प्रतिरोधी क्षमता का ह्रास होता जा रहा है! मधुमेह, उच्च-रक्तचाप, थाइरोइड और पता नहीं क्या क्या रोग हो रहे हैं नयी पीढ़ी को! ये सब इसी यूरिया मिले भोजन की देन है! ऊपर से, संकर शाक-सब्जियां और आ गयी हैं! इनमे जान है नहीं, बस खतरनाक रसायन हैं!
और फिर आया भोजन! ताज़ा घर पर लगीं तोरई की सब्जी थी! ख़ुश्बू ऐसी कि उठा के खा ही जाएँ उसे! देसी घी से चिपड़ी हुईं, चूल्हे की पानी वाली रोटिया! दही-मट्ठा! धुंगार वाली, हींग-ज़ीरे के छौंक वाली छाछ! साथ में राई में पड़ा आम का अचार! हरी मिर्च और प्याज! जम कर खाया हमने तो खाना! शहरों में ऐसा खाना अब दुर्लभ है! और उसके बाद किया आराम हमने!
शाम को कोई पांच बजे, हम खेत के लिए निकले! चार रोटियां ले ली थीं! रखनी थीं वहां! खेत में पहुंचे हम! दूर दूर तक खेत ही खेत! पपीते और बेलपत्थर के पेड़ लगे थे आसपास! आ भी रहे थे फल उनमें!
"मुझे वो चबूतरा दिखाओ" कहा मैंने,
"आओ जी" बोले वो,
और चल पड़े उनके साथ हम,
"ये रहा जी" बोले वो,
मैं बैठा, उसको देखा,
ये दो गुणा दो फ़ीट का था,
पत्थरों की पटिया से बनाया गया था,
"इसी में थे वो घड़े?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"घड़े हैं क्या?" पूछा मैंने,
नहीं जी, नहर में सैला दिए" बोले वो,
"कोई बात नहीं" कहा मैंने,
"वो रोटियां यहां रख दो" कहा मैंने,
उन्होंने रोटियां रख दी वहाँ,
"बिशन जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"वो आपको कहाँ मिला था घड़ा?" पूछा मैंने,
"आओ जी" बोले वो,
"चलो" कहा मैंने,
और ले चले हमको वो वहाँ के लिए,
एक जगह पहुंचे,
यहां मेंड थी,
"यहां था जी" बोले वो,
मैं बैठा, हाथ लगाया,
जांच की, वहाँ अभी भी था सामान,
ज़मीन के नीचे करीब चार फ़ीट पर!
लेकिन मैंने बताया नहीं उनको!
उसके बाद हम लौट आये वापिस!
शाम को दावत हुई साहब!
मजा आ गया! बेहतरीन दावत हुई थी!
सुबह हुई, जंगल में जा, निवृत हुए,
घर आ, स्नान किया, परांठे बना दिए थे मूली के,
साथ में दूध! जीम गए जी हम!
दोपहर में भोजन किया हमने,
स्वादिष्ट भोजन! कोई जवाब नहीं उसका!
घीया-चने की दाल! साथ में मूली और मूंग की दाल की भुजिया,
धुंगार वाला रायता! हरी मिर्च और अचार!
गले तक पेट भर लिया हमने तो!
और फिर किया आराम हमने!
ठीक साढ़े चार बजे, चल पड़े खेतों के लिए!
पहुंचे वहाँ, पानी पिया, और बैठे चारपाई पर,
मैंने वहाँ कलुष साध लिया था, नेत्र भी पोषित कर लिए थे,
अपने और शर्मा जी के,
कलुष से नेत्र पोषित हुए, तो उस खेत के आसपास,
चार और चबूतरे दिखे!
मैं और शर्मा जी चुप अब! न बताया किसी को कुछ भी!
और फिर बजे, साढ़े पांच,
हम चार लोग थे उस समय, भांजे को हटा दिया था मैंने,
दो चारपाइयों पर बैठे थे हम!
"वहां से आएंगे जी!" बोले किशन जी,
"आने दो!" कहा मैंने,
और सही समय पर, वो दोनों दिखाई दिए!
मेंड पर ही खड़े हो गए थे, अंदर नहीं आ रहे थे!
"अबके तो रुक गए?" बोले बिशन जी,
"यही हैं न?" पूछा मैंने,
"हाँ, ये है हैं!" बोले वो,
"आवाज़ दो इन्हें!" कहा मैंने,
किशन जी हुए खड़े!
"रे इल्लंगु आओ?" बोले वो, ज़ोर से!
नहीं आये!
भांप गए थे!
"आप रुको यहीं!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"आओ शर्मा जी" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
और हम चल पड़े, उन्होंने लट्ठ उठा लिए अपने!
और हम जा पहुंचे!
साढ़े छह फ़ीट से ऊंचे थे वो दोनों!
कानों में सोने की बालियां पहनीं थीं!
देह पहलवानों जैसी थी उनकी!
कुरता, छोटे वाला, कमर तक का पहना था,
और धोती पहनी थी सफेद रंग की,
पांवों में जूतियां, तावदार!
उनके मोटे लट्ठों पर, पीतल खंचा था, हर गाँठ पर!
मूंछें रौबदार!
साफे पहने थे उन्होंने!
लाल रंग के!
हम कोई चार फ़ीट दूर खड़े थे,
खेत के अंदर!
"कौन है तू?" पूछा एक से,
"सरजू" बोला वो,
"और तू?" पूछा मैंने,
"बिरजू" बोला वो,
"कैसे तंग कर रहे हो तुम इन्हें?" पूछा मैंने,
"हमारा सामान है इनके पास" बोला वो,
"कैसा सामान?" पूछा मैंने,
"माल" बोला वो,
"कैसा माल?" पूछा मैंने,
"सोना" बोला वो,
"तो?" कहा मैंने,
"इनसे दिला दो" बोला वो,
"तेरा है वो?" पूछा मैंने,
"धीमणा का है" बोला वो,
"कौन धीमणा?" पूछा मैंने,
"सरदार है" बोला वो,
"तुम हो कौन?" पूछा मैंने,
"हम बंजारे हैं" बोला वो,
"अब तक कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"सरदार लाया है अब" बोला वो,
"कहाँ से?" पूछा मैंने,
किसी गाँव का नाम लिया उसने!
"अब कोई सामान नहीं है तुम्हारा" कहा मैंने,
"है कैसे नहीं?" बोला वो,
"कैसे है?" पूछा मैंने,
"हमने रखा था" बोला वो,
"तो?" कहा मैंने,
"अब याद आई है?" कहा मैंने,
"माल दिला दो" बोला वो,
"कोई माल नहीं है" कहा मैंने,
"है, उनके पास" बोला इशारे से,
"तब होगा, अब नहीं है" बोला मैं,
"तुम हट जाओ" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"धीमणा को नहीं जानते?" बोला वो,
"तू बता दे?" कहा मैंने,
"पछताना पड़ेगा" बोला वो,
"धमकी है ये?" बोला मैं,
"सलाह" बोला वो,
"अब निकल ले यहां से, समझा?" बोला मैं,
"सोच लो" बोला वो,
"क्या करेगा?" पूछा मैंने,
"धीमणा करेगा" बोला वो,
"तेरा बाप है धीमणा? जा बोल दे उसे, बुला ला यहीं बैठा हूँ!" कहा मैंने,
"धीमणा आया तो बहुत बुरा होगा, कहे देता हूँ!" बोला अब दूसरा,
"देख! तूने उसका हुक्म बजा दिया, मैंने सुन लिया, अब जा वापिस! कह दे, मैंने मना कर दिया, नहीं दे रहे माल उसका! खुद आजा, और आकर, लेजा!" कहा मैंने,
"जाता हूँ, यही कहूँगा" बोला वो,
और लौट पड़े वे दोनों!
किशन और बिशन हमें देख रहे थे! उनको जाते देख, आये भागे भागे!
पाँव पड़ने लगे हमारे! बड़ी मुश्किल से रोका हमने उनको!
आ गए हम उधर से, बैठे चारपाई पर,
अब उन्होंने बौछार की सवालों की,
और उनके जवाब देता गया मैं उन्हें!
जितना समझे वो, उतने में ही खुश हो गए थे!
लेकिन अब डर ये था कि, वो सरदार धीमणा आएगा तो क्या होगा!
"वो आया तो?" बोले किशन जी,
"आने दो!" कहा मैंने,
और हम तो लेट गए वहां!
करीब घंटा बीत गया, कोई नहीं आया,
और तभी बिशन जी आये दौड़े दौड़े!
"वो देखो! वो देखो!" बोले वो,
मैं उठा, देखा सामने, तो तीन औरतें खड़ी थीं वहाँ!
"आप यहीं बैठो" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"आओ शर्मा जी" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
और हम चल दिए!
वो बंजारन थीं, तीनों औरतें!
शरीर भरा-भरा था उनका, श्रम करती हों, ऐसा लगता था,
कद-काठी बड़ी मज़बूत थी उनकी,
मेरे कद बराबर ही थीं वो,
काले कपड़े पहने थे, और चांदी के भारी भारी जेवर पहने थे,
कमीज़ और घाघरा पहना था,
पांवों में, हंसलियाँ पहन रखी थीं, भारी भारी!
चेहरे पर, ठुड्डी पर गोदना था,
तीनों की ठुड्डियों पर, एक जैसा ही था,
जैसे ही हम उन तक पहुंचे,
वे तीनों झुकीं और हमारे सामने, लेट गयीं,
हाथ आगे कर, जैसे पाँव छू रही हों!
हम हटे पीछे! ये क्या कर रही थीं ये?
"खड़ी हो जाओ?" कहा मैंने,
झट से तीनों खड़ी हो गयीं!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"बिरजू की जोरू" बोली वो,
बिरजू, जो अभी आया था, वही,
"और ये भी जोरू है उसकी, और ये सरजू की" बोली वो,
"बिरजू और सरजू? जो आये थे अभी?" पूछा मैंने,
"हाँ, भाई भाई हैं वो" बोली वो,
अच्छा! समझ गया, ये दौरानी-जेठानी थीं तीनों आपस में!
"मेरे पास क्यों आई हो?" पूछा मैंने,
"वो माल दे दो, नहीं तो धीमणा बुरा हाल करेगा" बोली रुंधे गले से,
"तुम डर रही हो उस से?" पूछा मैंने,
"सब डरते हैं" बोली वो,
"कौन है ये धीमणा?" पूछा मैंने,
"सरदार है, हम गूला हैं, हमारा सरदार है" बोली वो,
हाथ जोड़ते हुए!
ये तो बेचारे भले प्रेत थे!
मैं तो बेवजह इनसे रूखी बात कर रहा था!
ये तो डरे हुए थे उस धीमणा से!
"सरजू और बिरजू कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"उधर हैं" बोली वो,
और वो दोनों दिखे मुझे,
"बुलाओ उन्हें" कहा मैंने,
आवाज़ दी, तो वो आये उधर,
थोड़ा फांसला बना, खड़े हो गए!
"तुम दोनों भाई हो?" पूछा मैंने,
"जी" बोला सलीके से!
"तुम इतना क्यों डरते हो उस धीमणा से?" पूछा मैंने,
"वो सरदार है और कारीगर भी" बोला वो,
कारीगर!
अब समझा मैं!
बंजारों का तिलिस्मी तांत्रिक!
बेजोड़ कारीगर हुआ करते थे वो!
उनकी की हुई बंदिश आज तक क़ायम है!
तोड़ी नहीं जाती!
इसीलिए डर रहे थे ये सब!
"कहाँ है धीमणा?" पूछा मैंने,
"कुमारगढ़ी में" बोला वो,
"तुम भी वहीँ रहते हो सब?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"ठीक है, जाओ अब! मैं आऊंगा कुमारगढ़ी!" कहा मैंने,
अब वो मुंह देखें एक दूसरे को!
वो औरतें, फिर से पाँव पड़ गयीं!
सरजू और बिरजू, हाथ जोड़ खड़े हो गए,
"इनको उठाओ" कहा मैंने,
वे उठ गयीं,
"माल दे दो" बोली वो,
"माल तो खर्च हो गया!" कहा मैंने,
ये सुन, घबरा गयी वो!
"धीमणा नहीं छोड़ेगा!" बोली वो,
"उसको देख लूँगा मैं!" कहा मैंने,
"वो नहीं मानेगा" बोली वो,
"मान जाएगा!" कहा मैंने,
अब रोने लगीं वो!
फिर से लेट गयीं!
ये क्या मुसीबत गले पड़ गयी थी!
"जाओ अब!" कहा मैंने,
"देख लो जी" बोला सरजू,
"जाओ! कह देना, एक है, वो नहीं दे रहा माल, कहना कि कारीगर है वो!" बोला मैंने,
वे खड़े रहे,
देखते रहे मुझे!
फिर पलटे,
और लौट चले!
वो औरतें, हमें ही देखे जाएँ जाते जाते!
और फिर लोप हुए वो!
"ये क्या चक्कर है?" बोले वो,
"धीमणा कारीगर है!" कहा मैंने,
"वो तो है" बोले वो,
"उस से डरते हैं ये" बोला मैं,
"हाँ, ये औरतें कैसे पाँव पड़ रही थीं!" बोले वो,
"हाँ, डर रही थी अपने आदमियों के लिए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"आज रात यहीं लगवाओ खटिया!" कहा मैंने,
"ठीक है" बोले वो,
अब सारी बात बतायी मैंने उन दोनों को!
वे बेचारे फि से डर गए थे!
हिम्मत बंधाई उनकी मैंने,
तो उस रात खटिया वहीँ एक कोठरे में लगवायी,
खाना ले आये थे बंधवा कर बिशन जी,
तो खाना भी खा लिया हमने!
रात ग्यारह तक कोई नहीं आया,
हमने चारपाई पकड़ी तब,
ओढ़ी चादर, और सो गए!
किशन हमारे साथ ही रुक गए थे!
बत्ती जलती रही, ताकि अँधेरा न हो,
कोई रात तीन बजे,
बाहर आवाज़ें आयीं अजीब सी,
हम तीनों ही उठ गए थे,
"मजदूर तो नहीं हैं?" पूछा मैंने,
"देखता हूँ" बोले किशन जी,
टोर्च उठायी, और दरवाज़ा खोला,
जैसे ही खोला,
घबरा के बंद कर दिया उन्होंने!
टोर्च छूटते छूटते बची उनसे!
पल भर में ही हांफने लगे!
मैं हुआ खड़ा, पहने जूते,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"बाहर देखो!" बोले डरते हुए,
मैंने पढ़ा कलुष!
नेत्र किये पोषित!
तवांग मंत्र साधा,
देह पुष्ट की उस से,
