बस वो सामान ही बचा था!
को था किसी और का,
हड़पा किसी और ने,
खून-खच्चर हुआ,
मासूम हलाक़ हुए,
गाँव खत्म हो गया,
लेकिन वो धन, जस का तस पड़ा रहा गया!
मैंने उस स्थान पर, श्री मणिभद्र-क्षेत्रपाल का डोरा खींच दिया!
शेष पूजन, मैं अपने स्थान पर करता!
अब हम वापिस हुए,
भोर हो गयी थी!
अब आये तालाब पर,
अब तालाब का पानी स्वच्छ था!
जल-पक्षी आ गए थे उसमे अब!
मित्रगण!
हम वापिस हुए वहाँ से,
और सीधा खेत पर आये,
खेत वाले स्थानों को कीलित किया,
और उसी शाम हम वापिस हुए दिल्ली के लिए!
हालांकि मुझे रोका सभी भाइयों ने,
रुक नहीं सकते थे हम, आ गए वापिस!
दो माह बाद मुझे फुर्सत मिली,
मैंने उन ग्यारह को मुक्त किया,
शम्भा ने मुझे दो जगह और बतायीं,
जहां वो सामान है, अकूत धन,
भविष्य में, ये भी कीलना था!
डोरा खींचना था!
रहा धीमणा,
उस से मेरी बहुत बातें हुईं!
और आखिर में,
उसने प्रायश्चित किया,
और गले लगा! खूब रोया!
और मैंने उसको भी मुक्त किया!
वो पहलवानन संग ही आ गयी मेरे!
रखा है उसको कहीं और,
सोचता हूँ, उसे भी मुक्त कर दूँ,
फिलहाल में उसका कोई इरादा तो है नहीं ऐसा!
मित्रगण!
मैं चाहता तो वो अपार धन ले आता!
लेकिन नहीं,
जो मेरा नहीं, वो मेरा है ही नहीं!
जिसका होगा, डोरा स्वयं टूटेगा उसके लिए!
अब वर्षों लगें,
दशक लगें या सदियाँ!
मेरा जो काम था, कर दिया!
वो बंजारा धीमणा,
मुझे याद आ जाता है कभी कभी!
कुमार्ग पर न चलता तो आज महासिद्ध हो, पूजा जा रहा होता!
लालच!
ले आया था उसे वापिस!
लालच के कारण, भटक रहा था!
भटकाव समाप्त हुआ अब!
----------------------------------साधुवाद---------------------------------
