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वर्ष २०१३ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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आग थमी!
और हम भागे,
बैग से अस्थि निकाली,
और खींचा एक घेरा!
और आ गए उसके बीच!
अब हम निचिंत थे!
ज़मीन में फिर से कम्पन्न हुआ!
खड़-खड़ की आवाज़ हुई!
ज़मीन में जैसे,
अंदर पत्थर टूट रहे थे!
हमारे घेरे के पास ही,
ज़मीन धसकी!
एक गड्ढा हुआ बड़ा सा!
गड्ढा भी ऐसा जैसे,
रसातल का रास्ता हो!
बहुत गहरा था वो,
फिर दूसरी जगह गड्ढा हुआ!
ठीक वैसा ही!
और फिर ठीक पीछे की तरफ!
और फिर सामने!
हमको गड्ढों से घेर दिया गया था!
हम सोच ही रहे थे कि,
कैसे निकला जाए यहां से,
कि सामने वही स्त्री नज़र आई!
अब तो कुछ खेल दिखाना ही था!
आ चला था वक़्त!
मैंने अब क्रुत्र-आह्वान किया!
आह्वान, नटी-व्यूति, नटी-सखी, अहौना का!
इसके आह्वान में अलख नहीं चाहिए होती!
ये धरावासिनी है!
जैसे ही आह्वान किया,
वहाँ के ज़मीन में कम्पन्न शुरू हो गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसे कम्पन्न,
कि खड़ा होना मुश्किल हो आये!
घंटियाँ से बज उठीं!
जैसे समीप में कहीं,
किसी मंदिर में पूजन चल रहा हो!
और स्त्री,
हवा में उठी,
और बीच में रुक,
वहीँ देखने लगी!
तेजी से घूमती हुई,
हमारे पास से गुजरी!
घंटे बजने लगे अब!
वहां जैसे,
भभूत उड़ने लगी!
हवा में धुंआ छाने लगा!
वो वो स्त्री,
उन टूटे हुए मकानों में घुस गयी!
एक अट्ठहास हुआ!
ये अहौना का अट्ठहास था!
बरसीं अस्थियां वहाँ!
जो प्रेत वहां होंगे,
सभी मैदान छोड़ गए होंगे!
सभी भाग लिए होंगे!
अहौना का भय था ये!
फिर से अट्ठहास!
और अगले ही क्षण,
भभूत से बनी आकृति प्रकट हो गयी!
यही है अहौना!
नटी-सखी!
रूप में अत्यंत ही सुंदर होती है,
देह, स्निग्ध होती है,
आभूषण और लाल-पुष्प से लदी होती है,


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रबल तामसिक है!
लाल-पुष्प और लाल-चंदन,
लाल वस्त्र पर रख कर,
इक्कीस दिन इसका नित्य इक्कीस बार मंत्र-जाप होने से,
ऐच्छिक इच्छा पूर्ण हो जाती है!
पूर्ण होते ही,
मांस और शराब का भोग चढ़ाया जाता है!
लाल-पुष्प और रक्त-चंदन,
किसी बरगद के वृक्ष के नीचे रख दिए जाते हैं!
ये इच्छापूर्णि है!
रक्षिका है!
प्रबल तामसिक है, प्रयोग बीच में न छोड़ें!
अन्यथा, बड़ी बाधा का सामना करना पड़ सकता है!
वो नाटी स्त्री उन मकानो में कहीं जा छिपी थी!
अहौना की खबर हो चली थी उसे!
ये बंजार-विद्या थी, और ये विद्या,
औघड़ी-विद्या के समक्ष कहीं नहीं ठहरती!
वो मकान, ऐसे उड़ने लगे जैसे कागज़ के घर हों!
सब के सब समतल हो गए थे!
फिर से अट्ठहास हुआ,
और वो नाटी औरत,
आग की एक लहर सी बन, लोप हो गयी!
अहौना का उद्देश्य पूर्ण हो गया था,
अतः महाभाक्ष पढ़, उसका धन्यवाद कर, उसको सर झुकाया,
और वो, अट्ठहास करती हुई लोप हो गयी!
"धीमणा?" चिल्लाया मैं!
प्रकट हुआ धीमणा!
किसी महासिद्ध औघड़ की तरह!
मुस्कुराता हुआ!
"दम है तुझमे! अभुण्ड, दम है!" बोला वो,
"धीमणा, अभी भी समय है!" कहा मैंने,
"समय तो बीत चुका है!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तू वापिस लौटा! किसलिए धीमणा?" पूछा मैंने,
"बहुत काम बाकी है अभी!" बोला वो,
"कैसा काम धीमणा?" बोला मैं,
"है अभुण्ड!" बोला वो,
न जाने कौन सा काम था!
"अभी और जगाना है! और!" बोला वो,
"अब और नहीं धीमणा!" कहा मैंने,
"तू रोकेगा?" बोला वो,
और हंसा बहुत तेज!
"हाँ धीमणा!" कहा मैंने,
अब उसने मेरे दादा श्री का नाम लिया!
मेरे अन्य गुरुओं का नाम लिया!
मेरे पिता, व अन्य दो, जीवित गुरु जनों का नाम लिया!
"अफ़सोस! आज सिलसिला खत्म हुआ!" बोला वो,
"धीमणा! तू इतिहास में था! अफ़सोस, अब वहां भी नहीं रहेगा!" कहा मैंने,
उसने अट्ठहास किया!
और फेंक मारा अपना त्रिशूल सामने!
त्रिशूल गिरा!
और निकल, बाहर हुआ!
और फिर, सीधा गड़ा!
"ले अभुण्ड! सम्भल!" बोला वो,
और हुआ लोप!
त्रिशूल के पास प्रकट हुआ,
और अट्ठहास करता हुआ, फिर से लोप हुआ!
खनकती हुई हंसी गूंजी!
मैंने आसपास देखा,
मेरे घेरे के पास, अलौठ के जंगली, खुशबूदार फूल गिरे!
फिर नेहजि के जंगली पत्ते गिरे!
उसके बाद, खुशबूदार फूल, काशेठा के!
ये वनस्पति यहां नहीं हुआ करतीं!
ये हिमांचल की वनस्पतियाँ हैं!
अलौठ के फूल, ऐसे खुशबूदार होते हैं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कि आपकी आँखें बंद हो जाएंगी सूंघते ही!
नेहजि के पत्ते, चबाने में, खट्टे होते हैं,
और उसके बाद, मुंह से, चंदन की सी महक आती है!
काशेठा के फूल, सफेद और नीले होते हैं,
फिर से खनकती हुई हंसी गूंजी!
और सफेद प्रकाश से नहायी हुई,
एक नव-यौवना प्रकट हुई!
आभूषण ही आभूषण,
जैसे किरात स्त्रियां धारण किये रहती हैं!
उसके अंग-प्रत्यंग ऐसे आकर्षण पैदा करने वाले थे कि,
एक बार नज़र चिपक जाए,
तो लौट के ही न आये!
पतली कमर, और सुडौल अंग,
गौर-वर्ण, काम-सुगंध!
सबकुछ ऐसा, कि कोई भी आसानी से गच्चा खा जाए,
फिसल जाए, यही अंतिम उद्देश्य सा लगे उसे!
अब वो चली हमारी तरफ!
चाल ऐसी मदमाती,
के देखने वाला सबकुछ भूले!
वो आई घेरे के पास,
देखा हमें,
और एक पुष्प मारा फेंक कर,
घेरे से टकराया, और जल गया!
कमाल था!
तो वो पहलवानन कैसे आ धमकी थी अंदर?
अब उसने फिर से फूल फेंका!
और इस बार!
फूल आ गिरा अंदर घेरे में!
स्पष्ट था,
कि घेरा भेद दिया गया था!
अब तो विद्या ही संचरण करनी थी!
अतः. डोमाक्षी-विद्या, करुताक्षिका का संधान किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुंह में कड़वापन आ गया! 
मैंने फौरन ही अपना थूक, शर्मा जी के माथे से मल दिया!
अब वो आगे आई,
सच कहता हूँ!
वो अनुपम सौंदर्य-धारिणी थी!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"रन्या!" बोली वो, मुस्कुराकर!
दिमाग में एक किताब खुली!
उसके पृष्ठ, टटोले गए!
वर्ष दो हज़ार आठ! याद आ गया!
रन्या! मरु-वासिनी!
काम-वासिनी!
कामोत्तोलिका!
काम-ज्वालिनी!
बंजार-महाविद्या!
इसको ये बजारे कारीगर,
रखड़ा कहते हैं!
अर्थात रखैल!
अब इसको दांव पर लगाया था धीमणा ने!
उसने मेरा कंधा स्पर्श किया!
और अगले ही पल मित्रगण!
मैं किसी मरु-भूमि में जा पहुंंचा!
किसी नख़लिस्तान में!
फूलों से बना एक पलंग जैसा रखा था वहाँ,
स्वर्ण के डंडे से गड़े थे वहाँ!
आसपास, फूल और पौधे थे,
सामने ही,
एक स्वच्छ सा तालाब था!
पीले रंग के पक्षी खेल रहे थे उसमे!
मैंने ऐसे पीले पक्षी कभी न देखे थे!
स्वर्ण के थाल थे वहां,
थालों में, फल रखे थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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स्वर्ण से बने, बड़े बड़े स्तम्भ बने थे वहां,
मैं अकेला था वहाँ!
हवा चल रही थी,
मैं चला आगे तालाब तक,

अनुभव क्र.९३ भाग १० (अंतीम)
तालाब में, कमल खिले थे,
नीले रंग के!
उनकी बड़ी बड़ी पत्तियों पर,
पीले रंग के पक्षी बैठे थे!
फिर वहां,
लाल रंग के पक्षी आये,
जिनकी चोंच पीली थी,
और पाँव सफेद!
उनका स्वर ऐसा था,
जैसे वीणा का स्वर होता है,
तीसरा स्वर, 'गा' के जैसा!
पहले दो स्वर में,
दीर्घता नहीं होती,
इस तीसरे 'गा' स्वर में,
दीर्घता और लघुता,
दोनों का ही समावेश हुआ करता है!
वही था उनका स्वर!
पीले पक्षियों का स्वर,
ऐसा था कि जैसे,
मोर का स्वर,
जब टूटता है, तो जो शेष-ध्वनि गूंजा करती है!
ऐसा स्वर था!
पानी में,
बयार चले से, 
हल्की सी तरंगें बनती थीं,
वे पक्षी,
अपने फर हिला देते थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लाल वाले, शरीर में,
बड़े थे, वे अधिक तो न थे, लेकिन,
स्वर उन्हीं का गूंजता था वहां,
पास में ही,
जल-कुम्भिका लगी थी,
जामुनी रंग के फूल लगे थे उसमे!
जैसे उस जगह,
कालीन रख दिया गया हो, जामुनी रंग का!
खजूर के पेड़ लगे थे वहां, ऐसा लगता था,
किस जैसे तराशा जाता हो उनको रोज ही!
फूलों की सुगंध फैली थी!
मदमाती सुगंध!
वो तालाब काफी बड़ा था,
उसका जल एकदम निर्मल था!
अंदर तक की रेत नज़र आ रही थी!
मैंने पानी में हाथ डाला,
पानी बेहद ठंडा था उसका!
दूर सामने एक छोटा सा,
रेतीला अजगर, सफेद, पीला और हरा, धीरे धीरे चला जा रहा था!
उसकी चाल, बेहद सुंदर थी!
पहले सर को खींचता था आगे,
और फिर अपने धड़ को खींच लेता था!
मैं उसको ही देखे जा रहा था!
मेरे बाएं ही,
एक पेड़ लगा था,
पट्टियां अनार के समान थी उसकी,
लेकिन उस पर जो फूल आ रहे थे,
वे मजीठ रंग के थे!
मैं उठा,
और चला पेड़ तक,
एक फूल पकड़ा,
सूंघा, मदमस्त ख़ुश्बू!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसा तो मैंने कभी पहले नहीं सूंघा था!
वो पेड़ कौन सा था, आज तक नहीं जान पाया!
हाँ, सुगंध उसके फूलों की,
हरसिंगार के फूलों जैसी ही थी!
तभी वहाँ एक सफेद मोर उतरा!
उसके पंख भी सफेद थे,
सिक्के की जगह, सुनहरे वृत्त बने थे!
बहुत सुंदर मोर था वो!
उसकी कलगी, पीले रंग की थी!
वो जल की तरफ चला,
और तभी एक मोरनी भी उतरी वहाँ,
वो भी जल की तरफ बढ़ी!
उनको देख, मैं मुस्कुरा गया!
तभी किसी ने पीछे से,
मेरी गरदन में हाथ डाले,
मैंने गरदन छुड़ाने की कोशिश की,
उसने छोड़ी मेरी गरदन, और आई सामने,
ये रन्या ही थी, उसी वेश में, ठीक वैसी ही कामुक!
मैं उसे देख,
मुस्कुरा पड़ा!
मैं उसके सम्मोहन में क़ैद हो चुका था,
मुझे सबकुछ, असली ही लग रहा था!
जैसे यही वास्तविकता हो!
वो मुझे ले चली अपने संग,
ले आई मुझे,
उस फूलों से बने बिस्तर तक,
बिठाया मुझे,
और स्वयं भी बैठ गयी!
अब उसने मुझे लिटा दिया उस बिस्तर पर,
और स्वयं भी ऊपर आ गयी,
बैठी, और मेरे ऊपर बैठ गयी!
मुझे उसका वजन महसूस हुआ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन, सब सच था ये, मैं उसके सम्मोहन में जकड़ा था!
अब उसने अपने वस्त्र उतारने शुरू किये,
श्रृंगार, गहने उतारे,
और तब, वो मेरी छाती पर लेट गयी!
मैंने भी उसको उसकी कमर से पकड़ कर,
और सटा लिया था,
मुझे आनंद की अनुभूति हो रही थी!
तभी मेरे ज़हन में,
अचानक से ही,
किसी का चेहरा देखा!
मैं जान गया! मेरा सम्मोहन टूट गया!
मैंने उस रन्या को अपने ऊपर से हटा दिया!
और हो गया खड़ा!
अब समझ गया था!
ये मिथ्या है!
"नहीं ये मिथ्या नहीं!" बोली रन्या!
"नहीं! ये सब, सत्य नहीं!" कहा मैंने,
"ये सत्य है!" बोली वो,
मैंने आँखें बंद कीं,
त्रिलोचिनी-महाविद्या का जाप किया!
नेत्र खोले,
मेरे कंधे पर हाथ रखे,
रन्या खड़ी थी!
स्थान वही था, उसी धीमणा का स्थान!
मैंने हटा दिया उसका हाथ!
शर्मा जी को देखा,
वे खड़े खड़े लहरा रहे थे,
जैसे सो रहे हों खड़े खड़े!
मैं बैठा नीचे,
उठायी मिट्टी,
रन्या हुई पीछे,
पढ़ा मैंने, उज्राल-मंत्र!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जैसे ही फेंकता मैं,
वो रन्या, अपने नख़लिस्तान के लिए कूच कर गयी!
शर्मा जी का हाथ पकड़ा!
वे जैसे नींद से जागे,
मेरा हाथ पकड़ा,
"ठीक हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, हुआ क्या था?" बोले वो,
"कुछ नहीं! अब बस, बहुत हुआ!" कहा मैंने,
और निकला मैं बाहर उस घेरे से,
"धीमणा?" चिल्लाया मैं!
धीमणा सामने ही प्रकट हुआ!
"बस धीमणा?" कहा मैंने,
"नहीं!" और हंस पड़ा वो, गाल बजाता रहा!
"धीमणा, मैंने बहुत अवसर दिए तुझे!" कहा मैंने,
वो हंसा!
मेरे ही शब्द दोहरा दिए,
मैंने तभी,
अरुचिका-विद्या का मूलांश पढ़ा,
दी भूमि पर थाप!
और धीमणा ने पछाड़ खायी!
घिसटता चला गया वो!
धुआँ उड़ने लगा उसके अंदर से!
ये प्रेत-दाह, महाविद्या है!
गिरा नीचे!
त्रिशूल छूट गया उसका!
और तभी, उसके संगी साथी सभी इकट्ठे प्रकट हुए!
हथियार लेकर!
सभी के सभी!
मैं अब जाने वाला था धीमणा के पास!
कि अट्ठहास हुआ!
अट्ठहास होते ही!
शम्भा प्रकट हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने आवाज़ दी उस धीमणा को!
और धीमणा उठ खड़ा हुआ!
अब वे सारे हँसे!
आया शम्भा मेरे पास,
रुका कोई चार फ़ीट पर,
मैं भभक गया था उस समय!
मैंने फिर से मूलांश पढ़ा,
और दी थाप!
थाप देते ही,
मैंने पछाड़ खायी!
शम्भा ने फौरन ही काट कर दी थी उसकी!
मैं झट से खड़ा हुआ,
और फिर से,
कुरंग-विद्या जागृत करने लगा,
जैसे ही पढ़ा,
आँखों के सामने अँधेरा छाया!
और मैं, गिरते गिरते बचा!
ली तलवार उसने एक से,
और चामुण्डा का मंत्र पढ़ते हुए,
आगे बढ़ा!
अब उसका एक ही मक़सद था!
मेरा सर क़लम कर देना बस!
लेकिन मैंने भी कच्ची गोटियां नहीं फोड़ी थीं!
मैंने तभी,
महाविराक्ष-विद्या का संधान कर डाला!
पीछे हटा वो शम्भा!
एक एक कण हिल उठा वहां का!
मैंने उठायी मिट्टी,
यमत्रण्ड-मंत्र पढ़ा!
उनके हाथों से तलवारें छूट पड़ीं!
प्रेत की नैसर्गिक शक्ति का ह्रास करने वाला ये मंत्र,
अब उनका काल बनने वाला था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं आया आगे,
और फेंक दी मिट्टी!
मिट्टी जैसे ही भूमि पर गिरी!
भूमि में कम्पन्न हुआ!
अब नहीं लोप हो सकते थे वो!
अब मात्र प्रेत थे!
साधारण से प्रेत!
"शर्मा जी? आ जाओ!" कहा मैंने,
वे दौड़े आये मेरे पास!
और अब चला मैं उस धीमणा के पास!
पलकें पीटे!
मुझे देखे!
नैसर्गिक शक्ति का ह्रास हो गया था!
"धीमणा!" कहा मैंने,
न बोला कुछ,
बस देखता ही रहा!
"सब धरा का धरा रह गया!" बोला मैं,
और तब बढ़ा आगे! उसी की तरफ!
पहुंचा शम्भा के पास!
शम्भा झुकाये गरदन!
"हाँ शम्भा!" कहा मैंने,
शम्भा चुप!
"मैं जानता था शम्भा! तू ज़रूर आएगा! तेरी ही प्रतीक्षा थी मुझे!" कहा मैंने,
उसे सर उठाया!
वो देखा मुझे,
"शम्भा! इस धीमणा को मैंने बहुत समझाया! नहीं समझा!" कहा मैंने,
चुपचाप सुने!
"और तू! तूने भी नही समझाया इसे! इसीलिए तू भी दंड का भागी है!" बोला मैं,
चुप रहे, चुपचाप सुने!
"तूने और धीमणा ने, इस गाँव के मासूमों को काट डाला! फेंक दिया उस कुमारगढ़ी के तालाब में!" कहा मैंने,
अब चला धीमणा के पास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"धीमणा? तू कितना प्रबल था! लेकिन सब बेकार! इच्छाओं का गुलाम! मैं जानता था कि तेरा हश्र यही होगा! सबकुछ गंवा बैठा तू! अब बता, क्या करूँ मैं तेरा?" पूछा मैंने,
"मैं सामान दे देता हूँ तुझे, मुझे मुक्त कर इस दशा से!" बोला वो,
मैं हंसा!
"अब भी लालच धीमणा! माल का लालच! मुक्ति का नहीं! प्रेत ही रहना चाहता है! वाह धीमणा! तेरे जैसा निकृष्ट प्रेत, अनंत तक बंधा ही रहे, तो ही उचित है! मैंने निर्णय ले लिया! तेरा ये ही हाल करूंगा! और माल? ये माल रक्त से सींचा हुआ है! मेरे किसी काम का नहीं, नमक का एक कण भी नहीं खा सकता मैं इसका!" कहा मैंने,
ले लिया था निर्णय!
धीमणा, अब क़ैद ही रहेगा! अनंत तक!
आया अब शम्भा के पास!
शम्भा ने जोड़े हाथ!
"हाँ शम्भा?" बोला मैं,
वो रो पड़ा!
अपने कर्म सामने आ गए!
प्रायश्चित होने लगा उसे!
मेरे हाथ पकड़ने लगा वो,
मैंने उसके हाथ पकड़े,
कंधे पर रखा उसके हाथ!
"शम्भा! प्रायश्चित से बड़ा कोई तप नहीं! मैं प्रसन्न हूँ! तू मुक्त हो जाएगा! बढ़ जाएगा आगे!" कहा मैंने,
उसकी रुलाई फूट चली थी!
अब वो कारीगर,
कारीगर नहीं था!
दोनों ही अब सुप्तावस्था में चले गए थे!
वे कुल बारह थे उधर!
मैं गया एक तरफ,
और पढ़ा रुक्का अपने सिपहसलार का!
भड़भड़ाता हुआ इबु हुआ हाज़िर!
हाज़िर होते ही, उसकी निगाह, सीधे ही उन प्रेतों पर पड़ गयी!
मैंने बताया उद्देश्य उसे अपना!
और एक ही क्षण में,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उल्टा लटका दिया सभी को हवा में उसने,
और हुआ लोप,
ले गया था अपने साथ!
कुटाई तो करता ही उनकी वो!
चिढ़ता है बहुत इन प्रेतों से!
और प्रेत तो उसे देख,
ऐसे कांपते हैं,
जैसे सूखे पत्ते!
जैसे ही वे क़ैद हुए,
अब वहां भीड़ इकट्ठी होने लगी!
वे सभी प्रेत, इकठ्ठा होने लगे थे वहाँ!
चीख-पुकार मचने लगी थी!
क्या वृद्ध, और क्या किशोर, सभी के सभी!
वे कम से कम दो सौ होंगे!
सरजू-बिरजू, मन्नी सब आ गए थे!
अब आगे मैं जानता था कि करना क्या था!
मैंने उसी समय, मुक्ति-क्रिया करने का निर्णय लिया!
लकड़ियाँ इकट्ठी कीं,
सामग्री बैग में थी ही,
और आधे घंटे में ही,
वो मुक्ति-रेखा खींच दी!
और तब, एक एक करके वे सभी पार होते चले गए!
पांच बज गए थे हमें!
अंत में, मात्र एक वृद्धा बची,
जाते हुए, एक थैली दे गयी थी,
जब वो वृद्धा मुक्त हुई,
मैंने वो थैली खोली,
चांदी के दो सिक्के,
और एक सोने की गिन्नी थी,
साथ में, एक दांत था किसी बालक का!
अब ये स्थान, सुनसान हुआ था!
सब खत्म था यहां!


   
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