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वर्ष २०१३ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश! उसका एक जिला बुलंदशहर! और इस जिले में अनगिनत गाँव! ऐसा ही एक गाँव है उधर! मैं नाम नहीं लिखूंगा! इसी गाँव के पास से एक नहर हो कर बहती है! कुछ पुरानी टूटी-फूटी इमारतें भी हैं इस नहर किनारे, वहां अंग्रेजी समय में नील की पैदावार हुआ करती थी! वो कुण्ड आज भी हैं टूटे फूटे! और जो भी काम की चीज़ थी, गाँव वाले अपनी बुग्घी में भर भर ले गए! अब सुनसान और बियाबान हैं वो! छत में लगे कुन्दे भी न छोड़े! कई गाँवों में बिजली है, लेकिन बिजली की हालत न होने जैसी ही है! आज भी हाथों के पंखे प्रयोग किया जाते हैं! ऐसे ही एक गाँव के पास एक तालाब है, इसको पोखर कहा जाता है, लेकिन मैं इसको तालाब ही कहूँगा! इसी पोखर को कुमारगढ़ या कुमारगढ़ी का पोखर कहा जाता है! कहते हैं, यहां कभी बंजारों का गाँव हुआ करता था! वे ठहरते थे यहां आकर, आज भी वहाँ के खेतों में, मिट्टी के छोटे छोटे घड़ों में, सिक्के मिल जाते हैं सोने के, चांदी के, कभी जेवर आदि भी! मैंने भी देखा था एक ऐसा ही घड़ा, काले रंग का था, और उसके अंदर तीन सौ सोने की गिन्नियां मिली थीं! कभी कभार, कोई पुराना ठूंठ पेड़ गिरता है तो वहाँ भी उसके नीचे सिक्के आदि मिल जाया करते हैं! ऐसे ही, एक व्यक्ति हैं, किशन लाल, पुश्तैनी खेती है, चार भाई हैं, चारों ने खेत बाँट रखे हैं अपने! अब जब संतति बढ़ती है, तो ज़मीन कम पड़ने लगती है! आय इतनी होती नहीं थी, कि कुछ बच जाए, और जोड़-जाड़ कर, और खेत खरीद लिए जाएँ! एक शाम की बात होगी, किशन लाल खेत से वापिस आ रहे थे, कि तभी खेत में, उन्हें एक मेंड़ पर, कुछ चमकता सा दिखा, सोचा कांच होगा, खेत में कांच होना ठीक नहीं, सो चले उठाने उसको! जब वहां पहुंचे, तो वो एक सिक्का था सोने का! एक और आधा ज़मीन में था और आधा बाहर! उन्होंने की खुदाई शुरू! जब की तो एक छोटा सा चबूतरा सा निकला, उस चबूतरे पर, ये सिक्के रखे थे, कुल अट्ठाईस थे! उन्होंने वो चबूतरा भी अपनी कुदाल से तोड़ डाला! अब उसमे से निकले दो घड़े! काले रंग की! पत्थर से ही ढक्कन बना था उसका! तोड़ डाले वो घड़े! उसमे से निकले सोने और चांदी के सिक्के! चांदी करीब डेढ़ किलो, और सोना करीब एक किलो से ऊपर! अब तो जी वो, उन्हें दाल बोरी में, चल पड़े घर की ओर! हाँफते हाँफते घर पहुंचे! तीनों भाइयों को बुला लिया, एक कोठरे में! और बता दिया सबकुछ!
भाइयों को बड़ी ख़ुशी! ईमानदार हैं किशन लाल जी! तो वो धन, बराबर बराबर बाँट लिया गया! किसी से बात की, और चुपके से वो धन, ठिकाने भी लगा दिया था! आया धन, तो खेत खरीदे! ज़मीन बढ़ी, तो आदमी कम पड़ें! तो जी, मजदूर लिए गए! वे मजदूर, खेतों में कुछ कमरे से डाल दिए गए थे, उनमे ही रहने लगे! अब काम बढ़ा, तो आय भी बढ़ी! आय बढ़ी तो मेंहनत अधिक हो! मेहनती तो थे ही सब, जुट गए काम में! दो माह बाद, उसी खेत में, बिशन लाल को, एक घड़ा और मिला! इसमें साढ़े सात सौ ग्राम सोने के सिक्के मिले, वो भी


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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बाँट लिए गए! और कुछ ज़मीन और खरीद ली गयी! परिवार में अब मौज ही मौज!
एक साल बाद!
उस दिन दशहरा था! काम खत्म हो चुका था! बिशन लाल खटिया पर बैठ, हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे! मज़दूर, दूर मेला देखने गए थे, कुछ औरतें ज़रूर थीं, बिशन लाल भी बस जाने ही वाले थे, कि तभी, अचानक, उनकी निगाह खेत के आखिर में पड़ी, वहाँ दो आदमी खड़े थे, टेक लिए! वेश-भूषा से तो परदेसी लगते थे! और उन दोनों के हाथों में, लट्ठ भी थे! हाथ वाला हुक्का था, सो उठा उसे, चल पड़े उन आदमियों की तरफ! वो आदमी अब सतर्क हो गए! वे भी खेत में उतर आये! बिशन लाल जी पहुंचे वहाँ,
"राम राम जी!" बोले बिशन लाल!
"राम राम!" बोले वो,
"क्या बात हुई?" पूछा बिशन ने,
"रुक जाओ भाई!" बोला एक,
वे नज़र मार रहे थे खेत पर,
वे एक ने दूसरे का हाथ पकड़ा,
और चल पड़ा आगे,
"अरे सुनो तो सही?" बोले बिशन लाल,
वो न रुके, और तेज चलते रहे!
जा रुके एक जगह फिर!
ये जगह वही थी, जहां किशन लाल को वो घड़े मिले थे!
"यहां चबूतरा था धीमणा का, कहाँ है?" बोला एक गुस्से से!
"कैसा चबूतरा?" बोले बिशन,
"ज़्यादा चालाक मत बन!" बोला एक,
अब घबराये बिशन लाल!
वहां कोई मजदूर भी न था, जो आवाज़ दे देते!
उनका हुक्का पकड़ कर, फेंक मारा नीचे!
और पकड़ लिया गिरेबान उनका!
पहलवान से लगते थे वो!
"कहाँ है?" बोला वो!
छोड़ा गला! खुली सांस!
"मुझे नहीं पता!" बोले वो,
"हमारा सामान था उसमे! दो घड़े!" बोला वो,
अब आया चक्कर! दिमाग में लगी टक्कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आ गया सबकुछ याद उन्हें!
"आया याद?" बोला एक,
"हाँ! आ गया!" बोले वो,
"हफ्ते बाद आएंगे, सामान वापिस दे देना, नहीं तो यहीं गाड़ दूंगा ज़िंदा!" बोला धमका कर उन्हें!
और चल दिए वापिस!
उठाया अपना हुक्का!
और लगाई दौड़ घर के लिए!
हालत खराब!
कै का मन करे!
न बैठे बने!
न उठे बने!
और न ही लेटे बने!
आये भाई उनके, बताया सारा हाल उन्हें!
अब सभी के पांवों में मोम जमा!
पसीने छूटें! क्या करें?
पुलिस के पास जा नहीं सकते!
पुलिस वैसे धर लेगी!
बड़ी फजीहत हुई!
कैसे पीछा छूटे!
तब जाकर ये मंत्रणा हुई, कि,
हफ्ते के बाद, वो आठ-दस इकट्ठे होंगे!
माने तो ठीक,
न माने तो कै घूँसा, कै लात! कै लट्ठ! जूतमपट्ट!
बस यही हो सकता था अब तो!
तो मित्रगण!
हफ्ता बीत गया!
खेत पर, दोपहर से ही,
आठ दस नहीं, अठारह बीस हो गए इकट्ठे!
सभी ने लट्ठ पैना लिए थे अपने!
छह छह के गुट में बंट, हो गए तैयार!
आज या तो वो नहीं, या आज ये नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई शाम के छह बजे, वही दो पहलवान आये वहां, पीछे से!
सीधा बिशन के पास! किसी का कोई डर नहीं!
"ला भी ला!" बोला वो,
"तू है कौन रे?" बोला एक पट्ठा किशन जी का!
"चुप कर!" बोला एक पहलवान!
"कैसे घुसा यहां?" बोला वो,
"चुप कर!" बोला वो,
"हमारी ज़मीन में, हमें ही धमकाता है?" बोला वो पट्ठा!
"ला भी, ला!" बोला वो बिशन से!
अब बिशन साहब झांकें बगलें!
"लाता है या नहीं?" बोला वो,
"तू है कौन?" बोला एक और पट्ठा!
"कुमारगढ़ से आये हैं!" बोला वो,
"कौन सा कुमारगढ़?" पूछा उसने!
"चुप लगा अब!" बोला वो,
और तभी एक पट्ठे ने,
मारा लट्ठ उठा के उस पहलवान पर!
उसे असर ही न हुआ!
जैसे सरकंडा मारा हो उसको!
फोका सा!
"देख भाई! झगड़ा करेगा, तो मारा जाएगा!" बोला वो,
"तू मारेगा?" झपटे उस पर तीन चार!
अब क्या था!
उन पहलवानों ने ऐसी फेंट चढ़ाई कि,
कोई खेत में वहाँ,
कोई परले खेत में,
कोई साथ वाली नाली में,
कोई खटिया के ऊपर,
कोई हवा में उड़ता नीचे गिरे!
और कोई भाग ही लिया!
चौदह-पंद्रह हुए धराशायी खेत में!
बिशन के भाई, ये देख बड़े हैरान!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खड़े खड़े कांपें अब!
"देख भाई! हमारा सामान दे दे!" बोला वो,
"समान नहीं है अब" बोले किशन जी,
"कहाँ गया?" बोला वो,
"खर्च कर दिया" बोले वो,
"तो इकठ्ठा करो! एक महीने बाद आएंगे!" बोला वो,
और चलते बने!
अब जो घायल थे,
वे कराहे!
उनको उठाया उन्होंने!
किसी का हाथ टूटा,
किसी का पाँव!
किसी का सर फूटा,
और किसी का जबड़ा टूटा!
दो पहलवान ढेर कर गए किशन जी की टुकड़ी को!
बहुत बुरी गुजरी जी सब पर!
आखिर ये हैं कौन?
कौन सा कुमारगढ़?
नाम भी नहीं सुना?
आखिर ये हैं कौन?
इन्हें कैसे पता चला धन का?
और एक साल बाद?
अब क्या हो गया?
चिंता के बादल गहरा गए!
नहर की आवाज़ बहुत तेज सुनाई दे!
चले जी घर!
एक बुज़ुर्ग थे वहां,
करीब सौ बरस से ऊपर के,
उनके पास पहुंचे,
पूछा कुमारगढ़ के बारे में.
बस पता चला तो इतना कि,
कोई बंजारे ठहरा करते थे वहाँ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंग्रेजी राज में!
लेकिन बंजारे यहां क्यों आएंगे?
किसलिए?
इतने सालों बाद?
उन्हें कैसे पता?
ये मामला है क्या?
दिमाग उलझ गया!
सीटी बजने लगी!
उनकी फेंट नज़र आने लगी!
साँसें उखड़ने लगीं!
न खाना ही खाया जाए,
न मदिरा ही नशा करे!
बसी फजीहत हुई!
इलाज और कराना पड़ गया पट्ठों का!
अब कैसे होगी?
कहाँ से लाएं धन?
किस घड़ी में मिला था?
किसकी नज़र लग गयी?
करें तो क्या करें अब?
ऐसे सवाल सर पर, मच्छर की तरह भिनभिनायें!
तो एक एक करके दिन खिसके जा रहे थे पीछे!
और चिंता के मारे चारों भाई, अपनी चर्बी बहाये जा रहे थे!
बीस दिन हुए और कोई रास्ता नहीं निकला!
किस से बात करें? किस से न करें!
और इस तरह वो दिन भी आ लिया! जिस दिन उन्होंने आना था,
चारों भी, जा पहुंचे खेत पर,
पैसे थे नहीं, ज़मीन में लगा दिए था, ज़मीन में फसल खड़ी थी,
पूरी फसल भी अछि खासी बिक जाए,
तो भी इतना धन नहीं मिल सकता था उन्हें!
सारी दिक्कत थी यहां!
तो बस अब एक ही काम था, कि हाथ जोड़ लिए जाएँ!
आगे उनकी मर्ज़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हुई शाम,
और वो दोनों लठैत आये खेत में, पीछे से!
राम राम हुई उनसे!
खटिया बिछवाई गयी उनके लिए,
पानी पिलवाया गया, दूध-खांड की पूछी गयी!
उन्होंने न पानी ही पिया और न ही दूध-खांड की हाँ भरी!
"लाओ भाई, सामान निकालो!" बोला एक,
"भाई साहब, सामान तो है नहीं" बोले किशन जी,
"अब ये क्या बात हुई?" बोला एक,
"सच में नहीं है, घर में तीन जवान लड़कियां हैं, उनके भी हाथ पीले करने हैं" बोले वो,
"वो तो हो ही जाएंगे, देखो वो धीमणा का सामान है, धीमणा आया इधर, तो क़त्ल कर देगा सभी का" बोला वो,
"ऐसा मत कहो जी, गरीब हैं हम लोग" बोले बिशन जी,
"जब माल लिया था तब न सोची ये बात?" बोला एक,
"अब बाबा दादाओं के खेत हैं जी, निकला तो रख लिया" बोले किशन जी,
"बाप दादाओं का होता तो रख लेटे, सामान तो हमारा था न?" बोला वो,
"हाँ जी, बात तो सही है" बोले वो,
"अब दो भी, जाना भी है" बोला वो,
"है नहीं जी" बोले वो,
"देखो, गुस्सा तो दिलाओ मत" बोला वो,
अब कांपे वे सब!
कहीं फेंटा न चढ़ा दें!
हाड़ टूट गए तो हो गयी खेती!
"सच कह रहे हैं" बोले वो,
वे खड़े हो गए!
"देखो, फिर से एक महीना दे रहा हूँ, मान जाओ, हम फिर आएंगे" बोला वो,
और चले वे दोनों वहाँ से, मारी बुक्कल जाते हुए!
अब एक महीना मिल गया!
लेकिन मुसीबत न टली!
फिर से यूँ कहो कि तिल तिल मरना था!
अब हुई हालत खराब!
बैंकों का हिसाब लगाया गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुल रकम निकली ढाई लाख,
यही दे देते हैं, कुछ तो बोझ हल्का होगा,
फिर पाँव पड़ लेंगे, हो सकता है मान ही जाएँ,
लगते तो भले हैं,
अब गलती हो गयी सो हो गयी,
भाई, सामान भी तो औना-पौना बिका था,
बीस का माल सोलह में बिका था,
अब ऐसा थोड़े ही पता था?
और मित्रगण!
वो महीना भी उधेड़बुन में बीत गया!
हुए चारों इकट्ठे,
बगल में दबाया झोला,
झोले में रखे थे रूपये!
और सही समय पर, दोनों पहलवान आ गए वहां!
राम राम हुई,
पानी पूछा गया,
दूध-खांड की पूछी गयी,
मना कर दी!
"लाओ जी" बोला एक,
अब झोला आगे बढ़ा दिया,
खोला झोला,
ये तो कागज़ थे उनके लिए?
"माल कहाँ है?" पूछा उसने,
कागज़ों को मुट्ठी से भरते हुए झोले में!
"यही है जी" बोले वो,
"अरे वो सामान चाहिए?" बोला वो,
"अब सामान कहाँ से लाएं?" बोले वो,
"क्यों?" बोला वो,
"वो तो बेक दिया जी" बोले वो,
"बेक दिया?" बोला गुस्से से,
हुआ खड़ा, उठाया लट्ठ!
दूसरा भी खड़ा हुआ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कहाँ बेका?" पूछा उसने,
अब सब बता दिया!
अब कहाँ मिलता वो!
अब तो गलगला कर, सब बंदोबस्त ही गया होगा उसका!
"देखो, तुम आदमी शरीफ हो, इंतज़ाम कर लो, तीन महीने बाद आएंगे हम!" बोला वो,
और चल पड़े वापिस!
तीन महीने?
कैसे कटेंगे?
अब कहाँ से हो इंतज़ाम माल का?
कैसी मुसीबत टूटी!
क्या देखना पड़ गया!
इस से मिलता ही नहीं!
धन क्या मिला,
मौत खोद ली!
सर पकड़, वहीँ बैठ गए चारों!
"अब क्या करें?" बोले बिशन,
"कुछ समझ न आ रहा" बोले वो,
"कैसी बला आन पड़ी" बोले बिशन,
"यू न मानें भैय्या!" बोले किशन,
"हाँ जी" खोपड़ी खुजाते हुए बोले बिशन,
"अब या तो जान दो, या धन दो!" बोले किशन,
"ये ही बात है" बोले बिशन,
"वाने तो पईसा भी न लिए?" अब बोले रामधनी, सबसे छोटे भाई उनके,
"हाँ" बोले बिशन,
"अब करें क्या?" बोले वो,
"कल इस कुमारगढ़ को देखो" बोले बिशन.
और बात तय हो गयी!
कल तड़के ही, सभी,
चलने वाले थे कुमारगढ़!
पूछते-पाछते पहुँच ही जाते!
रात भर,
किशन और बिशन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन घड़ो में ही खोये रहे!
न दीखते और न ही ये बला आती!
नींद ही भाग गयी थी!
हाड़ टूटे दीखते थे उनको तो!
टूटे हाथ,
टूटे पाँव!
सर ही फाड़ दें तो भी क्या कहने!
कोस रहे थे उस दिन को!
जब वो घड़े मिले थे!
जब वो चबूतरा तोडा था!
माँ-बहन कर दी उन घड़ों और चबूतरों की!
दोनों भाइयों ने मिलकर!
और फिर हुई सुबह!
अपन जंगल घूम, दिशा-मैदान हो,
स्नान-ध्यान कर,
नए कपड़े, कुरता-धोती पहन,
बालों में तेल लगा सरसों का,
पहन कर,
जूतियां,
चारों भाई, चल पड़े, अपनी बुग्घी लेकर!
भैंसा भी नया ही लिया था!
खूब चराई होती थी उसकी!
दोपहर के लिए,
खाना बंधवा ही लिया था!
देहाती थे बेचारे,
शहर आना-जाना होता न था!
खबरें जो रेडियो में आ गयीं,
बस वही सुनते थे,
नहीं तो वही लख्मी चंद के भात!
नरसी का भात, आल्हा उदल!
चाहे सौ बार सुनवा लो, एक ही भात!
ऐसे सरल थे सभी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाँव की चौपाल पर,
सैल मंगवा, एक मटरू के घर से,
एक छिद्दा के घर से,
आदि आदि, रेडियो बजाया जाता था!
ठाठ थी जी हुक्के की!
गुड़गुड़ाते रहते हुक्का सब!
तो वे चले,
दो गाँव पार कर लिए थे,
अब आई नहर,
अब नहर पार करनी थी!
तो जी आराम आराम से नहर पार की,
लखौरी ईंटों से बना पुल था,
पुल में कोटर बने थे बहुत सारे!
पक्षियों में घरौंदे बना लिए थे!
उनका ही शोर मच रहा था!
पुल से पहले नहर में एक टक्कर थी,
पानी की टक्कर,
बहाव तेज हो जाए,
इसीलिए बनाई जाती है ये!
अब उनका भैंसा उस शोर से डरे!
किशन दें गालियां उसे!
न हिले!
खींच चारों भाइयों ने!
और वो दौड़ पड़ा!
खूब 'हओ हओ' कहते रहे!
न माना, ले भागा उन्हें रास्ते में!
अब सर फूटें उनके, टकराएं एक दूसरे से!
भैंसे पर अर्रायें!
गाली दें! भली-बुरी कहें!
और भैंसा, सरपट भागे! गड्ढों में से, बुग्घी गुजरे तो, चर्रम-चर की आवाज़ आये!
और जब भैंसा संभला, टक्कर की वो आवाज़ हुई बंद, तो बुग्घी सम्भली! लेकिन तब तक चारों के गोडे गरम हो चुके थे बुग्घी से टकरा टकरा कर! कूल्हे की हड्डियों में गुदगुदी मची थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सांटा था तो बुग्घी में ही, लेकिन उन टाट के बोरों में ही सरक गया था कहीं, ढुंढेर मची थी, आखिर में, रामधनी ने निकाला एक बोर के नीचे से! और दिया बिशन को!
सभी ने, गाली दे दे उस बेज़ुबान भैंसे को, 'दारी के, मेरी सास के' न जाने कितने तमगे पहना ही दिए थे! अब भैंसा संयत था, चला रहा था आराम से, उसको अब टक्कर के पानी की आवाज़ नहीं आ रही थी, इसीलिए! रास्ते में एक जगह रुकवाया किशन जी ने, ज़रा लघु-शंका समाधान करना था, वो चले, तो तीनों भी समाधान करने चल पड़े! जब आये, तो बैठे, फिर से चल पड़े!
एक जगह, खेत में कुछ औरतें काम कर रही थीं, आलू खोदे जा रहे थे, पास ही एक बिटोरे के पास, कुछ मर्द भी बैठे थे, अब बिशन को कहा किशन ने कि पता करके आएं ज़रा वो, बिशन जी, सांटा रख, चल पड़े, उतरे मेंड पर, और चले, एक आदमी से बात हुई, और फिर वापिस आये,
"क्या रही?" बोले किशन जी,
"गाँव तो कोई न है ऐसो, पोखर तो है" बोले वो,
"पोखर धोरे ही होगो, चलो" बोले किशन जी,
चल पड़े जी चारों देहाती,
बीड़ी सूतें जाए, वो भी फौहारे की!
धुआं निकले ऐसा, जैसे भाप का इंजन!
कोई दो कोस चले होंगे, कि एक बड़ा सा पोखर दिखा,
एक मंदिर सा बना था वहाँ, छोटा सा, सफेद रंग का,
बरगद का एक बड़ा सा पेड़ लगा था वहाँ, उसके नीचे,
वहाँ कुछ पिंडियां भी बनी थीं,
"यू ही दीखै है" बोले वो,
"कहा? पोखर?" पूछा रामधनी ने,
"हाँ, चलो उतरो" बोले वो,
और जी, अब चारों उतर लिए,
गए मंदिर, कोई न था वहाँ,
हाथ जोड़े, पिण्डियों को हाथ जोड़े,
एक कुआं भी था वहां, अब शायद चलता न था,
लखौरी ईंटों से बना था, मुंडेर में अब छेद हुए पड़े थे!
"पुरानो दीखै!" बोले वो,
"हाँ जी, पुरानो ही है" बोले बिशन जी,
कुँए में झाँका, पानी न था, बरगद की दाढ़ी और जड़ों ने ढक लिया था अब उसको!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"यहां तो कोई है भी न?" बोले बिशन जी,
"ढूंढ़न दो मोय!" बोले वो,
तो जी, एक खेत में, पीछे की तरफ, एक आदमी दिखा, कस्सी चलाता हुआ, बिशन जी चले वहाँ, उस आदमी से बात की, आदमी ने सुनी, कोई पांच मिनट बात हुई, और आये वापिस फिर बिशन,
"कहा कहे है?" पूछा किशन जी ने,
"कह रौ है, ऐसा गाँव न है कोई भी!" बोले वो, उत्तर दिया,
"गाँव न है?" बोले किशन जी,
"हाँ जी" बोले वो,
"ऐसा कैसे हो सकै है?" बोले वो,
"कहा पतों? या पोखर कौ नाम ही बतावे है कुमारगढ़ी कौ पोखर!" बोले बिशन जी,
तो साहब, खूब छानबीन हुई!
जिसने बताया था उस पोखर के बारे में, उस आदमी ने,
चारों की गालियों का हुआ शिकार!
बुग्घी ने बैठ, उस आदमी पर ही जैसे लट्ठ तोड़ डाला!
गाँव का पता न चला!
खीझ गए सारे के सारे!
वापिस होने के सिवाय अब कोई रास्ता न था,
हुए जी वापिस,
और जब पल पार करने लगे नहर का,
तो भैंसा आगे न बढ़े,
खूब सांटा बरसाया, खूब चोबा चुभाया उसके ओलों-गोलों पर!
और जब न बनी बात, तो खींचा उसको फिर!
और जो भैंसा छूटा, तो ये जा और वो जा!
भग्गी मच गयी! रामधनी और रामचरण, भागे निकले बुग्घी के पीछे!
किशन और बिशन, अपने आराम से चलते रहे!
बुग्घी पकड़ ली गयी आखिर!
रोक दी गयी, बैठे अब किशन और बिशन,
और चल पड़े घर की ओर!
सारा दिन कुआँ खोदा, पानी नाम का नहीं!
ऐसी हालत उन सभी की,
घर पहुंचे, नहाये धोये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर खाना खाया चारों ने!
रास्ता कुछ निकल नहीं रहा था,
चिंता ऐसी लगी थी कि जैसे ही,
उन लठैतों की फेंट याद आती,
रोंगटे खड़े हो जाते चारों के!
दो महीने बीत गए साहब! कोई हल न निकला!
और फिर हुआ ऐसा, कि किशन जी के एक मित्र,
जो शहर जा बस गए थे, 
फ़ौज से सेवानिवृत थे, तो अभी भी फौजी अंदाज था उनका,
वे आये गाँव में! छुट्टी मनाने, अपने पोते-पोती के साथ!
किशन साहब से भी मिले,
शहरी ढर्रे पर चल निकले थे तो सीना तान के चलते थे!
नाम था बलवान सिंह उनका!
उनका पुत्र भी शहर में किसी, एक पुलिस अधिकारी था,
तो कुछ गुमान ये भी था उन्हें!
अब जब मुलाक़ात हुई, तो सारी बात कह दी अपने मित्र से किशन साहब ने,
मित्र ने ध्यान से सुना, फौजी दिमाग चला,
मन में दो बातें आयीं,
या तो वो आदमी कोई जालसाज हैं,
नहीं तो भैया फिर तो प्रेत हैं वो!
अब प्रेत का नाम सुना, तो कद छोटा हुआ चारों का!
बलवान सिंह ने, समझाया कि, वो सामान तो,
कोई सौ साल पहले गाड़ा गया होगा,
अब कैसे याद आई उन्हें अचानक?
और वो वारिस हैं, ये कैसे मान लें?
देहाती उज्जड खोपड़ियों में अब बात घुसी!
जालसाज हैं तो कोई बात नहीं,
अगर प्रेत हैं तो, फिर तो बड़ी मुसीबत है!
तो क्या करें?
फौजी मित्र से खूब बातें हुईं!
और मना ही लिया उन्हें कि वो भी आएं जब वो आएंगे!
लेकिन प्रेत की बात सुन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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फौजी साहब के मन की बंदूक की नाल से,
पहले ही धुंआ उठने लगा था!
चोक हो चली थी वो जैसे,
इंसान हो तो चलो दो-चार हाथ आजमा भी लो,
और जो प्रेत हुआ,
तो साहब क्या दो-चार हाथ!
फिर तो देह टूटै ही टूटै!
अब चारों को समझ आए लगा कि हो न हो,
वे हैं तो प्रेत ही!
कैसा फेंटा चढ़ाया था उन्होंने पंद्रह-सोलह आदमियों को!
कैसे पछाड़ खा खा गिरे थे वो,
कैसे लट्ठ असर नहीं कर रहा था!
अब तो पक्का था कि,
वो लठैत अवश्य ही प्रेत हैं!
अजी फिर क्या था!
चारों के घरों में, उनकी घरवालियों ने,
दीये जलाने कर दिए शुरू!
फौजी साहब ने एक और सलाह दी,
किस ओझा, गुनिया को ढूँढा जाए,
कहीं कोई तेईस-चौबीस हुई, तो सभाल तो लेगा?
नहीं तो वहीँ हुआ काम पैंतीस!
दो बार तो छोड़ भी गए!
अब कि न बख्शें वो!
इस बार तो बस, देह तोड़ें ही तोड़ें!
पाँव तो वैसे ही काँप रहे थे उनके!
फौजी साहब ने अब,
ऐसा कुछ सुनाया कि,
पूरी देह में कंपकंपी छूटने लगी!
बताओ जी!
प्रेतों का माल हड़प लिया!
अब कैसे होगी?
वो न छोड़ें!


   
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