वर्ष २०१३ नजीबाबाद ...
 
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वर्ष २०१३ नजीबाबाद के पास की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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उसी रात, करीब एक बजे, मैं अपने क्रिया-स्थल में गया, सामान-सामग्री आदि पहले ही लगा दी थी, अलख उठायी मैंने, अलखनाद किया! भोग सम्मुख रखा! फिर जा बैठा मैं अपने आसन पर! आज तातार को पेश करना था! तातार, क्रूर, हिंसक एवं क्रोधी ख़बीस है! ये इल्मात का जानने वाला और जुझारू है! ऐसे बहुत से ख़बीस, आज भी स्वतंत्र रूप से विचरण करते हैं! मूल रूप से , ये रूसी क्षेत्रों के हैं! जैसे कज़ाकिस्तान, किरग़िस्तान आदि आदि के! इफरित और मरीद ये दो भी यहां हैं! तातार आयु में, मनुष्य की मानें तो, मात्र बाइस-तेईस बरसों का है! मैं इसको शाही कहता हूँ!
मैंने तब, तातार का शाही-रुक्का पढ़ा! और पढ़ते ही, वो प्रकट हो गया! मुस्कुराना तो जैसे कभी जानता ही नहीं! भारी, सुडौल, पेशियों वाली देह है इसकी! सफेद और पीली सी आभा है! गले, छाती, और पांवों में आभूषण धारण करता है! चिंघाड़ सी आवाज़ है इसकी! जब जब ये हाज़िर होता है, तब श्वान समीप नहीं रुका करते! वे रोते रहते हैं! इसकी देह से, तेज तलीमा के फूलों की गंध आया करती है! तलीमा, मानें तो चमेली की ख़ुश्बू जैसी!
तो वो हाज़िर हुआ, और मैंने उसको उसका उद्देश्य बताया! उद्देश्य जाना उसने, गर्दन को नीचे किया और झम्म से लोप हुआ! चला गया था तातार! उसके सामने जिन्न, प्रेत, महाप्रेत, शुम्भरा, खसखेड़िया जैसे भी नहीं ठहर सकते! अच्छे से अच्छे खिलाड़ी को तोड़ डाले बीच में से! इस तातार को, लगातार नज़रों में बांधे रहना पड़ता है! कोई भी माहिर खिलाड़ी, उसे पकड़ने को लालायित हो सकता है! इसीलिए उसको देखना पड़ता है!
और फिर वो लम्हा भी आया, जब सब काला हो गया! इसका मतलब था, वो अपने उद्देश्य के लिए, अब तैयार था! अब मेरे दिल की धड़कनें बढ़ीं! ये तातार, बिगड़ैल तातार, मेरे दादा श्री का 'बच्चा; था! एक बिगड़ैल बच्चा! डर लगता है, कहीं कोई मुसीबत न आन टूटे उस पर! इसीलिए, डटे रहना पड़ता है!
मैं शांत बैठ था! सोचता, तदबीरें लड़ाता! और अचानक से ही, तातार हाज़िर हुआ! हाज़िर होते ही, वो मुस्कुराया! मेरी बांछें खिलीं! मैं गया उसके करीब! उसने मेरे सर पर हाथ रखा, और दूसरा हाथ खोला, ये मिट्टी थी, लाल से रंग की मिट्टी! उसे लगा था कि उसका उद्देश्य पूर्ण हुआ, लेकिन ये मेरे किसी काम की नहीं थी! मैंने भोग अर्पित किया उसे, और वो, उसके बाद, लौट गया! वो मिट्टी, मैंने अपने  पास रख ली, उसको टटोल के देखा, उसमे, कुछ नहीं था, साधारण सी मिट्टी थी वो! अचानक से, मैंने कुछ देखा उसमे!
देखा, कुछ काले ज़ीरे के दाने! ये दाने, पूर्णावस्था के थे! काला-ज़ीरा, हर जगह नहीं होता! ये कहीं कहीं ही होता है! हर जगह नहीं! इसको, नमी चाहिए होती है! शुष्क मौसम नहीं! अब इसका क्या अर्थ था?
जो भी अर्थ था, बड़ा ही वजनी था! अब, जाँच करनी थी! जांच, कि ये काला-ज़ीरा है कहाँ, वहाँ? क्या उस रास्ते में?
अब तातार लाया था, तो कोई न कोई बात तो थी! तातार, आगे की चाल खेलता है! खैर, मैं खड़ा हुआ! ली वो मिट्टी! और चला शर्मा जी के पास, पहुंचा, और सारा हवाल कह सुनाया! वे भी हैरान! तातार ने तो सीधा ही उन्नीस का पहाड़ा सुना दिया था!
"अब आप समझे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब है न ये वो ही बात?" बोले वो,
"कौन सी?" पूछा मैंने,
"चाल!" बोले वो,
"चाल?" मैंने हैरानी से पूछा,
"वो चला कहाँ से था!" बोले वो,
ओह! अब समझा मैं भी!
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"तो समझ लो, अब आया सिरा हमारे हाथ में!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक है, कल करते हैं बात!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
कल का दिन, यानि आज का!
सुबह कोई सात का वक़्त!
शर्मा जी ने, फ़ुरक़ान साहब से बात की, तो यही तय हुआ कि नदीम मिलेगा, कोई दिक्कत ही ना है! ऊपर से, नदीम का और फ़ोन आ गया!
तो साहब,
हम करीब, चार दिन के बाद, गाँव के लिए, निकल पड़े!
पहुंचे वहाँ!
उसी रोज़...
'अरे नदीम?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोला वो,
"काला-ज़ीरा जानो हो?" पूछा,
"ना!" बोला वो,
"चल, हम दिखाएँ!" बोले वो,
"अच्छा जी!" बोला वो,
मित्रगण!
शाम, पांच बजे,
हम निकल पड़े, लेकिन अब, एक और समस्या!
अब, कहाँ कहाँ ढूंढें!
खैर साहब! जब उठाया बीड़ा! तो कैसी पीड़ा!
उस हम, एक एक झाडी देखी जी! एक भी न मिला वो काला-ज़ीरा! वापिस हुए, अगले दिन देखी! न मिला!
"अब?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, समझ गया!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
और तब, मैंने कुछ सामान निकाला!
"इसको रखो?" बोला मैं,
"लाइए!" बोले वो,
और.........


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब वो काला-ज़ीरा कहाँ था, ये घूम-घाम कर नहीं पता चल सकता था! वहाँ भी हो सकता था, लेकिन कहाँ, ये नहीं मालूम था! और वो जगह तो बहुत बड़ी थी! पूरा महीना  लग जाता अगर हम चप्पा-चप्पा भी छान मारते तो! इसके लिए, अब कुछ आवश्यकता थी! इसके लिए अब सियाली का प्रयोग करना उचित था! मैंने जो शर्मा जी को दिया था, वो सियाली ही थी! मंत्रों से अभिमंत्रित सियाली! सियाली एक जड़ी हुआ करती है, सफेद और बादामी से रंग की, जैसे ब्रह्मदण्डी हुआ करती है, कुछ कुछ वैसी! पाकिस्तान का शहर सियालकोट, इसी के नाम से मशहूर है! यहां पर बहुतायत हुआ करती थी किसी समय! शाबर मंत्रों में सियाली का प्रयोग अक्सर हुआ करता है! मंत्रों से अभिमंत्रित कर, सियाली एक खोजी-उपकरण सा बन जाता है! ये किसी भी खोयी हुई वस्तु अथवा स्थान की तरफ, इशारा कर दिया करती है! सियाली दो तरह से काम करती है, या तो रात को अपना प्रश्न पूछ कर, इस सियाली को सिरहाने रख कर सोया जाए, लेकिन इसमें कुछ नियम हैं, वे आवश्यक हैं! एक भी चूक हो जाए तो सियाली काम नहीं करेगी! और दूसरा है, कि ये आपको, चलते चलते ही, बैठे बैठे ही, उस जगह की कोई झलक दिखा दे! जैसे आपने देखा होगा, हम मनुष्यों में ही, जब हम स्वप्न देखा करते हैं, तब, हम अक्सर अपने जानकार, या अपरिचित लोग भी देखा करते हैं, कुछ एक ऐसे स्थान, जिन्हें हमने कभी नहीं देखा आँखों से, वे भी देखते हैं! कुछ झरने, मंदिर, बाग़, रास्ते, पहाड़, मस्जिद, खंडहर आदि आदि हम देखते हैं! और इसी कारण से, हमें अक्सर ऐसा लगता है, कि ये क्षण, जो अभी गया है, गुज़रा है, ये पहले भी घट चुका है! या आपने पहले भी इसका अनुभव किया है, और अधिक कहूँ तो, आप निकट भविष्य में भी झाँकने लगते हाँ, कि अब ये होगा, अब ये होगा! और ऐसा हो भी जाता है! तो ये तो स्वाभाविक है, परन्तु, यही कार्य, ये सियाली, कृत्रिम रूप से कर देती है! परन्तु, ये एक क्षण, अथवा आधा क्षण, अथवा चौथाई क्षण में भी घट सकता है, एक क्षण को आप यहां, एक सांस के आने और जाने में लगे समय की गणना कर जान सकते हैं! तुतलाते व्यक्ति, हकलाते व्यक्ति, बीमार, विस्मृति-दोष एवं, दौरे पड़ने वाले व्यक्ति को ये सियाली नहीं आजमानी चाहिए! ये स्थिति को और बिगाड़ सकती है!
"आप तैयार है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"नदीम?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"ज़रा आगे चले जाओगे?" पूछा मैंने,
"हाँ हाँ!" बोला वो,
और आगे चलता चला गया वो, काफी आगे एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया! अब ये दूरी ठीक थी!
मैंने तब मंत्र पढ़ा एक, ताली मारी एक बार!
"आँखें बंद करो!" कहा मैंने,
कीं उन्होंने आँखें बंद अपनी तब!
और मैंने वो सियाली उनसे ली, माथे से लगाई, श्री गोरख नाथ जी से, अभीष्ट का अनुनय किया!
"ये लो, आखों से लगाइये!" कहा मैंने,
उन्होंने वैसा ही किया!
और हो गए चुप खड़े!
मैंने तब, मंत्र पढ़ा, माथे पर रखा हाथ! खाया एक हल्का सा झटका! और खुल गयी आँखें उनकी तब!
"कुछ दिखा?" पूछा मैंने,
"हाँ! हाँ!" बोले वो,
"क्या?" मैंने अब उत्सुकता से पूछा!
"ये तो एक गाँव के बाहर का सा दृश्य था!" बोले वो,
"एक रास्ता, शीशम के पेड़ लगे हैं, गाँव पीछे है!" बोले वो,
"गाँव कैसा है?" पूछा मैंने,
"ऊंचाई सी पर बसा है!" बोले वो,
"कैसी ऊंचाई?" पूछा मैंने,
"जैसे कोई टीला!" बोले वो,
"आसपास?'' पूछा मैंने,
"हाँ, मिट्टी के टीले से हैं, जिनमें छेद बने हैं खोखर से!" बोले वो,
"परिंदों के?" पूछा मैंने,
"हाँ, वैसे ही!" बोले वो,
"रास्ते के साथ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"रास्ते से कितना दूर?" पूछा मैंने,
"करीब, दो सौ मीटर!" बोले वो,
"या कुछ कम, वो छेद दिख रहे हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, या कुछ कम! हाँ, दिख रहे हैं!" बोले वो,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो, आँखें बंद करते हुए,
"क्या?" पूछा मैंने,
"साथ में ही रास्ते के, एक नाला सा है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"शीशम के पेड़ कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"रास्ते के दोनों तरफ!" बोले वो,
"कोई दिखा?" पूछा मैंने,
"कोई इंसान?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं!" बोले वो,
"तो गाँव पीछे है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कितना पीछे?" पूछा मैंने,
"करीब ढाई-तीन सौ मीटर दूर!" बोले वो,
"मकान बने हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं कह सकता!" बोले वो,
"क्या हैं फिर?" पूछा मैंने,
"कुछ कुछ वैसे ही!" बोले वो,
समझ गया मैं! दूर से देखो, तो डिब्बे से ही दिखाई देंगे अगर ऊंचाई पर बने हैं तो!
"एक बात और!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"क्या अन्दाज़ा है वक़्त का?" पूछा मैंने,
"शायद चार या पांच का वक़्त है!" बोले वो,
अन्दाज़ा तो लगभग सही सा ही था!
"कुछ और ख़ास?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बिटोरे पड़े हैं!" बोले वो,
"उपल वाले?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"किधर?" पूछा मैंने,
"रास्ते के पास में, कहीं कहीं!" बोले वो,
"खेत भी हैं?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और ले ली वो सियाली उनसे, माथे से लगाई और रख दी बैग में!
"अब नदीम से पूछते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम चल पड़े थे नदीम के पास, नदीम, हमें देख, आगे आने लगा था, और हम मिले फिर एक दूसरे से, नदीम ने शर्मा जी को ही देखा सबसे पहले! और तब, शर्मा जी ने, नदीम से सवाल किया,
नदीम को पहले तो सबकुछ बता दिया कि किस तरह का, कैसा, और क्या है आसपास वहां, और कौन सा गाँव है आदि आदि, और तब पूछा,
"क्या ऐसा कोई गाँव है?" पूछा शर्मा जी ने,
"सोच लूँ!" बोला वो,
"सोच लो!" कहा उन्होंने,
उसने, याद करने की कोशिश की, कुछ बोलता भी था!
"हाँ!" बोला वो,
उसने हाँ बोला, और हम जैसे उछले हवा में! ऐसी हाँ सुनी हमने!
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"जी ऐसे, दो गांव हैं!" बोला वो,
'दो? कहाँ कहाँ?" पूछा मैंने,
"एक तो होगा कोई नौ या दस किलोमीटर पर, दूसरा थोड़ा दूर है! लेकिन हैं दोनों ऐसे ही, जैसा आपने पूछा!" बोला नदीम!
"कब दिखाओगे?" पूछा मैंने,
"जब आप कहें?" बोला वो,
"आज ही चलें?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"क्यों शर्मा जी?" पूछा मैंने,
"सही बात है, शुभ कार्य में देरी क्यों?" पूछा उन्होंने,
"तो ठीक है!" कहा मैंने,
"नदीम, चल यार! चल, ले चल और दिखा!" बोले शर्मा जी,
"हाँ चलो, खाना खा लें आप, और मैं ले चलता हूँ!" बोला वो,
"हाँ ठीक!" बोले शर्मा जी!
तो हम, घर चले गए, थोड़ा बहुत खाया और उसके बाद, दो मोटरसाइकिल का किया प्रबंध, और निकल पड़े वे दोनों गाँव देखने! दोनों ही गाँव, पूरब में पड़ते थे, इस से पुष्टि होती थी, कि हाशिम, शिनि और भाल चन्द्र, पूरब से ही आये होंगे! अगर एक बार, उस हाशिम केरास्ते का पता चल जाता, तो फिर उस से मिलना मुश्किल काम नहीं था!
खैर, हम नदीम के साथ साथ चल पड़े! गाँव-देहात के रास्ते, हमेशा ही खुशगवार हुए करते हैं! पेड़ों के बीच से गुजरते हुए, खेत-खलिहान! ट्यूब-वैल चलने की वो आवाज़ें, परिंदे, घुग्घी की अपनी आवाज़, तीतरों की आवाज़ें! सब गाँव-देहात की पहचान है! शहर तो रीते हो चले हैं इनसे!
एक जगह जाकर, एक रास्ता मुड़ा बाएं, नदीम उधर चला, तो हम भी चल पड़े! करीब चार-पांच किलोमीटर दूर चले, तो सामने एक गाँव दिखने लगा! गाँव, ऊंचाई पर था, अब शर्मा जी गौर से देखने लगे आसपास!
"नदीम, ओ नदीम?" बोले शर्मा जी,
नदीम ने रोक ली मोटरसाइकिल, पीछे देखा,
"रुक जा!" बोले वो,
हम पहुंचे वहाँ, उतरे और देखा, आसपास!
"शर्मा जी?" पूछा मैंने,
"हाँ?"
"क्या वैसा ही है ये?" पूछा मैंने,
"देख तो रहा हूँ!" बोले वो,
"देख लो!" कहा मैंने,
उन्होंने कुछ निशानियाँ परखीं, करीब दस मिनट तक, फिर ना में सर हिला दिया!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"नहीं! ये नहीं है वो!" बोले वो,
"अच्छा, क्या कमी है?" पूछा मैंने,
"नदीम?" बोले वो,
"जी?" कहा उसने,
"क्या इस गाँव का कोई और रास्ता भी है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"तब तो ये नहीं है वो!" बोले वो, सर , ना में हिलाते हुए!
"क्या कमी है?" पूछा मैंने,
"यहां वो खोखर वाले टीले नहीं हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"नदीम, क्या ऐसे कोई टीले हैं यहां?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं, लेकिन यहां तो नहीं हैं!" बोला वो,
"तब ये नहीं है वो!" बोले वो,
"आओ नदीम!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
और हम, लौट चले वापिस, अब वो दूसरा गाँव देखना था, अब वही होगा, ऐसा लगने लगा था! ये तो जैसे कोई सपना पूर्ण हुआ, ऐसा महसूस होने जैसा था!
नदीम ने दौड़ाई अपनी गाड़ी और हम उसके पीछे पीछे!
"वैसे?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"गाँव तो वैसा ही लगा मुझे!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"लेकिन वो टीले नहीं हैं यहां!" बोले वो,
"हो सकता है, यहां हों?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"वही हो तो काम बन जाए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"वो गाँव होगा किसका?" पूछा मैंने,
"मतलब?" पूछा उन्होंने,
"किसका?" पूछा मैंने,
"समझा! शिनि का!" बोले वो,
"जैसा मैं समझ रहा हूँ?" पूछा मैंने,
"ठीक वैसा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आगे जाकर, नदीम रुक गया! हम भी जा रुके पास उसके! नदीम अपनी मोटरसाइकिल के पहिये को देख रहा था!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"लगा पंक्चर है!" बोला वो,
"ना! गीली मिट्टी से लगा होगा!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोला वो,
की स्टार्ट उसने, और चला आगे!
"चलो!" बोले वो,
'हाँ!" कहा मैंने,
हमारे पास, बुलेट मोटरसाइकिल थी, चल तो बढ़िया रही थी, लेकिन उसके शॉकर में समस्या थी कुछ, झटका सा मार देती थी बार बार!
"शॉकर खत्म है इसका!" बोले वो,
"हाँ, यही बात है!" कहा मैंने,
"दूधिया-गाड़ी बना रखी है ना!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा!
"दूध लादते हैं इस पर ये लोग!" बोले वो,
"हाँ, वो भी न जाने कितना कितना!" बोला मैं,
तभी नदीम रुका आगे जाकर, हम भी रुके,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, ये है रास्ता!" बोला वो,
रास्ता देखा हमने!
खस्ताहाल! आज देह का बनना था हलवा!
नदीम तो चल पड़ा आगे!
"चलो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने, और हम, हिचकोले खाते खाते आगे बढ़ने लगे!
"मार दिया!!" बोले शर्मा जी!
मैं हंसने लगा!
"रास्ता है या दर्रा!" कहा उन्होंने,
"पत्थर पड़े हैं यार!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम उस रास्ते पर आगे बढ़ते चले गए थे, रास्ता था तो जानलेवा ही! लेकिन जाना भी था सो चलते चले गए! करीब चालीस मिनट के बाद, हमें सामने नज़र आने लगा वो गाँव! हम आगे चले, और तब कोई एक किलोमीटर चलने के बाद, नदीम वहां रुक गया, हम भी जा रुके! गाँव सामने ही था, लेकिन ये इतनी ऊंचाई पर न था जितनी मैंने सोचा था, नदीम गाड़ी से उतरा और हम भी! अब शर्मा जी ने सामने देखा, आसपास देखा, और फिर दायें, बाएं!
"क्या यही है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"ये नहीं है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"वो इससे कहीं ज़्यादा ऊँचा है, और ऐसा छितराया हुआ नहीं है!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहाँ टीले भी नहीं हैं जबकि जो देखा था, वहां पास में ही टीले थे, यहां नहीं हैं!" बोले वो,
"हाँ, टीले तो नहीं है!" कहा मैंने,
"तो ये वो गाँव नहीं है!" बोले वो,
अ वो कह रहे थे, तो मानना ही था, कुल मिलाकर, मेहनत खराब ही हुई थी, कोई लाभ नहीं हुआ था, शायद सियाली ने, बदला हुआ स्वरुप नहीं दिखाया था, शायद अब गाँव बदल चुके थे, अपना रूप भी बदल चुके हे, ये एक लम्बा अरसा था, कुछ भी सम्भव था! निराशा हाथ लगी बहुत! और हारे हुए से, वापिस लौट पड़े हम!
मित्रगण!
ऐसी निराशाएं तो इस क्षेत्र में होती है हैं! ऐसा लगता है कभी कभी, कि बस, अभी हुआ और अभी हुआ, लेकिन इसमें भी कई कई माह और साल भी लग जाते हैं! ऐसा किसी कमी के कारण, चूक के कारण हो जाता है, या कोई अन्य तथ्य इस को प्रभावित करता है, जो नज़रों में नहीं आ पाता, यहां भी कुछ ऐसा ही था, कुछ चूक थी या कुछ छूट रहा था हमसे! सियाली ने तो सच ही दिखाया था, लेकिन उसको हम ही नहीं पहचान रहे थे!
तो, अगले ही दिन, हम फिर से वापिस लौट आये, अब ये मामला मुझे मुंह चिढ़ाता हुआ सा लगा, लेकिन वो चूक क्या थी?
इस बारे में ही बात कर रहे थे मैं और शर्मा जी, वे अपनी बात कहते थे और मैं अपनी! शायद वो चूक या गुंजाइश, आ जाए सामने?
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"एक बात तो तय है कि शिनि को वो भाल चन्द्र, हाशिम की सहायता से कहीं दूर ले जा रहा था, इसके लिए उन्होंने योजना बनाई होगी!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है?" बोले वो,
"इसके लिए जोखिम उठाया गया होगा बहुत बड़ा!" कहा मैंने,
"सही बात है!" कहा उन्होंने,
"हाशिम को पता होगा कि अगर, शिनि के घर वालों के यहां से कोई आता है, या कोई विरोध होता है, हिंसात्मक, तो वो उसके लिए भी तैयार ही होगा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और हाशिम, ऐसे ही किसी विरोध में अपने प्राण गंवा बैठा!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" बोले वो,
"अब जहां तक शिनि और भाल का सवाल है, उन्हें अब इस कहानी से निकाल देते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"रहा हाशिम!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"हमें नहीं पता कि गाँव कौन सा है उसका, या सही का गाँव कौन सा है, है न?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"और कुछ भी पुख्ता नहीं हमारे पास, अभी तक!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"अगर कुछ है, तो बस वो हवेली!" कहा मैंने,
"और वहीँ से ही कुछ सुराग मिलेगा!" बोले वो,
"हाँ, मेरे कहने का यही मक़सद है!" कहा मैंने,
'तो कुछ ऐसा किया जाए, आपके अनुसार, कि उस से हाशिम का पता चले!" बोले वो,
'हाँ, सही कहा!" कहा मैंने,
"ऐसा क्या करना है?" पूछा उन्होंने,
"तैनाती वहां सम्भव नहीं!" बोला मैं,
''हाँ!" बोले वो,
"प्रत्यक्ष हम कर नहीं सकते!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो सवाल ये, कि क्या किया जाए?" कहा मैंने,
"एक बात कहूँ?" पूछा उन्होंने,
"क्या?" पूछा मैंने,
''आप क्यों नहीं शाह साहब की मदद लेते?" बोले वो,
मैं चौंक पड़ा! उछल सा गया! अरे हाँ! ये मुझे पहले क्यों नहीं आया समझ? शाह साहब, ज़रूर ही मदद कर देते! शाह साहब, वो भिश्ती वाले! उनके कारिंदे हैं इतने क़ाबिल कि फौरन ही बता दें और तो और, वो रूह को भी पकड़ लाएं! अगर शाह साहब, मदद करें या हुक्म करें ऐसा!
"वाह शर्मा जी!" कहा मैंने,
"मैं कहने तो वाला था ये, लेकिन सोचा कुछ न कुछ रास्ता तो मिलेगा ही!" बोले वो,
"हमें सिर्फ ये पता करना ही कि हाशिम, अब कब आएगा!" पूछा मैंने,
"हाँ, तो ये तो बता ही सकतेहैं वो!" बोले वो,
"उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं!" बोला मैं,
"तो फिर देरी कैसी?" पूछा उन्होंने,
"मैं दरअसल,अभी बंधा हूँ डोर में, मैं पेशी नहीं लगा सकता, हाँ, अशरफ़ साहब से वक़्त मांगो आप, देखो, कब का वक़्त देते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ! अभी पता करता हूँ!" बोले वो,
अशरफ़ साहब, वज़ीराबाद में रहते हैं, वहीँ जाना था उनसे मिलने अगर उन्होंने वक़्त दिया तो, वो पेशी बजा सकते थे!
तो शर्मा जी ने बातें कीं उनसे, बातें हुईं और इस तरह दो दिन के बाद का वक़्त मिल गया, दोपहर बाद का! अब कुछ तसल्ली सी हुई!
तो, दो दिन बाद............
हम दोपहर बाद, जा पहुंचे वहाँ! मिले! चाय आदि ली, और तब अशरफ़ साहब को सारा वाक़या बताया! उन्होंने एक एक अलफ़ाज़ गौर से सुना! पूरा वाक़या सुनने के बाद, वे भी हैरत में पड़े, कि अभी भी एक इंसान, दोस्ती की खातिर, प्रेत बन, अपनी दोस्ती निभाये जा रहा है! वे ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए!
एक सफेद कपड़ा मंगवाया गया, सफेद, नया और शफ़्फ़ाफ़! ग्यारह गुलाब के एक जैसे फूल! कुछ मिठाइयां और मीठी खील! बिछा दिया गया कपड़ा एक साफ़ जगह! हम, उस जगह पर, जहां, अगरबत्तियां जल रही थीं, माहौल पवित्र था, खड़े थे, एकटक देखते हुए! उन्होंने, एक तख़्ती ली, रौशनाई से, बीच में काला किया उसे, और रख दी कपड़े पर!
फिर कुछ अमल पढ़े! और करीब पंद्रह ही मिनट में, वो तख़्ती में काली की हुई जगह, सफेद हो गयी! तख़्ती के रंग से मिलती हुई, मुल्तानी मिट्टी के रंग सी! ये सब ऐसा ही होता है जैसे, किसी छोटी सी खड़की से आप बाहर का नज़ारा झाँक रहे हों! आप तो सब देख रहे हों, लेकिन आपको कोई न देख रहा हो!
और कुछ देर बाद!
उस जगह पर कुछ उभरा!
एक बुहारी करने वाला आया! एक जगह आकर, जिसके पीछे एक चबूतरा बना था, उसी जगह पर बुहारी करने लगा! सफेद कपड़े थे उसके! फिर उसने उस चबूतरे को भी साफ़ किया! औरवो, लौट गया!
उसके बाद, एक भिश्ती आया! कंधे पर मुश्क़ टांगें, बड़ी सी! वो मुश्क़ खोल उस जगह पर, पानी छिड़कने लगा! जब पानी छिड़क लिया, तो वो भी लौट गया वापिस!
अब, दो लोग आये, कुछ कपड़े से लेकर, उस चबूतरे पर, कपड़े बिछा दिए गए, एकदम सफेद! मसनद, एक बड़ी सी, जिसका रंग लाल था, बिछा दी गयी! और वो लौट गए!
उसके बाद, एक और आया, उसने सर परर कुछ सामान उठाया हुआ था, वो नीचे रखा, और कुछ फूल की पत्तियां वहां बिछा दीं, बिखेर दीं! फिर, एक चांदी के बर्तन में, लोहबान सुलगा गया, रख गया, दायें कोने पर, उस जगह जो इसी के लिए नई थी
अब चार लोग आये! काले कपड़े पहने! कमर में सफेद रंग का कपा बांदा हुआ था, काली दाढ़ी, करीने से रखी हुई, टोपियां, मिर्ज़ा जैसी, पहने! गुलाबी और सुनहरे रंग की! उनमे से एक ने, हाथ से इशारा किया, और तब, दो लोग आये वहां!
उन्होंने, आते ही, कालीन, जो काफी पतला सा था, नीचे तक बिछा दिया! और फिर लौट गए! अब उन चारों में से, दो भी वापिस लौट गए!
अचानक से एक तेज गंध वहां फ़ैल गयी!
ये आमद की निशानी थी!
आमद शाह साहब की!
उन दोनों आदमियों ने, सर झुका लिए, और तब, एक बज़ुर्गवार आये वहां! कुरता पहने, नीचे पाजामा पहने, ढीला-ढाला, सफेद रंग के कपड़े, और हरी टोपी पहने! दाढ़ी सफेद और भरी हुई! सर पर, टोपी चमक रही थी! वे आये, और जा बैठे उस जगह! कोहनी टिका ली उस मसनद से! ये ही शाह साहब हैं!
हमने, अशरफ़ साहब को, कहते सुना, "अस्सलाम आलेकुम!"
वहां से क्या आवाज़ आई, हम नहीं सुन सके, क्योंकि पेशी, हमने नहीं बजवाई थी, वो सिर्फ, अशरफ़ साहब ही सुन सकते थे!
"पेशकार!" बोले अशरफ़ साहब,
तब एक, मुलाज़िम सा सामने आये, हाथ बांधे हो गया खड़ा!
"नज़र करो!" उसने शायद यही बोला होगा!
और तब, अशरफ़ साहब, बोलते चले गए अपना सवाल और सवाल! वो मुलाज़िम पीछे जाता, शाह साहब से सर झुका कर, बाते करता, लौटता और आकर बताये जाता! हम सिर्फ सवाल ही सुन पा रहे थे, तख़्ती से आती आवाज़ें नहीं! बस, देख पा रहे थे सबकुछ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और कुछ ही देर बाद, वो तख्ती फिर से काली पड़ने लगी! और धीरे धीरे काली पड़ती चली गयी! पेशी पूरी हुई! अब वो मिठाई और मीठी खील, बाँट देनी थीं बालकों में! अशरफ़ साहब खड़े हुए, एक आयत पढ़ी! और आवाज़ दी किसी को, एक लड़का आया, उसको सामान उठाने को कहा और ये भी कि ये सब सामान छोटे बच्चों बाँट देना था! कोई श्वान आये, तो उसको दूध भी पिलाना था! यही नेग होता है शाह साहब का!
अब हम, बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे कि क्या हांसिल हुआ इस पेशी से!
"आइये!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
और वे हमें, ले चले बाहर, हम बाहर आये, तो कुर्सियां पड़ी थीं, बिठाल दिया हमें वहां उन्होंने, और फिर से किसी को आवाज़ दी, एक और लड़का आया, उस से पानी लाने को कहा और फिर चाय! लड़का, सर हिलाकर, चला गया!
"हाँ! वो आता रहा है!" बोले वो,
"जी! यही तो मैंने कहा था!" बोला मैं,
"लेकिन जुम्मे के रोज नहीं!" बोले वो,
हम चौंके! जुम्मे के रोज नहीं? लेकिन नदीम और जावेद ने तो यही बताया था हमें कि उस रोज जुम्मा ही था? नमाज़ थी उस दिन जुम्मे की?
"लेकिन नदीम और जावेद?" पूछा मैंने,
"हो जाता है मुग़ालता कभी कभी! लड़कों को भी हुआ होगा!" बोले वो,
अब ये भी हो सकता है! हो सकता है कि कोई मुग़ालता ही हुआ हो! इसमें कोई बड़ी बात नहीं है! और वैसे भी, आजकल इतना कोई ध्यान नहीं रखता!
तभी लड़का पानी ले आया, हमने अपने अपने गिलास उठाये और पानी पिया फिर, अशरफ़ साहब, कुल्ला करने, मुंह धोने चले गए थे, आये वापिस, हाथ पोंछते हुए फिर से बैठ गए!
"हाँ हो सकता है, मुग़ालता ही हुआ हो!" कहा मैंने,
"हाँ, तो मैं कह रहा था कि वो जुम्मे का रोज नहीं था, बल्कि पीरवार था! और है, जिस रोज वो आता है वहां, अपने फ़ाज़िल दोस्त की मदद-ओ-इमदाद के लिए!" बोले वो,
ओह! कैसी राहत! कैसा सुकून! ऐसा पहले सोच लिया होता तो अब तक ये क़िस्सा ही ख़त्म हो लिया होता! न दिमाग़ में ही आया और न ज़हन ही में! सच पूछें तो मुग़ालता उन लड़कों से नहीं, मुझ से ही हुआ था!
"आपका एहसानमंद हुआ मैं अशरफ़ साहब!" कहा मैंने,
"क्या कहते हैं आप! ऐसा तो न कहें!" बोले वो,
"ये आपका बड़प्पन है साहब!" कहा मैंने,
"देखिये, इल्म कभी फ़र्क़ नहीं किया करता! फ़र्क़ सिर्फ और फ़क़त इंसानी सोच है! आज मैं आपके किसी काम आया तो कल, आप भी मेरे काम आएंगे! हाथ को हाथ है!" बोले वो,
"हाँ! मुझे इंतहाई ख़ुशी होगी अशरफ़ साहब!" कहा मैंने,
तभी वो लड़का चाय ले आया, साथ में मिठाई, रख दी वहीँ!
"लीजिये!" बोले वो,
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
और ले लिया चाय का कप, शर्मा जी को दिया और फिर मैंने लिया, एक बर्फी का टुकड़ा भी ले लिया हाल ही हाल!
"आप, जाएँ वहां, पीरवार की दोपहरी पहुंचें!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
पीरवार, यानि, वीरवार, गुरूवार अथवा बृहस्पतिवार!
"वैसे इस हाशिम का दोस्ती का जज़्बा बेमिसाल है!" बोले वो,
"जी, कोई सानी नहीं!" कहा मैंने,
"ये ही होती है सच्ची दोस्ती! फ़र्ज़मंद दोस्ती के मायने ये ही हैं!" बोले वो,
"जी हाँ!" कहा मैंने,
तो हमने चाय पी, और फिर रुख़सत हुए वहाँ से, अशरफ़ साहब तो खाने की भी ज़िद कर रहे थे, लेकिन काम तो अब शुरू करना था असली! इसीलिए हम रुके नहीं, न ही रुक सकते थे!
और इस तरह, हम लौट आये! बहुत बड़ा काँटा निकल गया था! अब राहत की सांस आई थी! वो फांस जो बार बार चुभन पैदा करती थी, निकाल फेंकी थी अशरफ़ साहब ने!
"हमें ही देरी हुई!" बोला मैं,
"हाँ, पूरे चौबीस घंटे!" बोले वो,
"हाँ! कह सकते हैं!" बोला मैं,
"अब तो कोई मुश्क़िलात नहीं, जहां तक मैं समझ रहा हूँ?" बोले वो,
"नहीं, जहां तक मुझे समझ आ रहा है!" कहा मैंने,
"तो आज हुआ मंगल?" बोले वो,
"हाँ, परसों हैं पीरवार!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो मैं फ़ुरक़ान साहब से बात करके, नदीम को इत्तिला दे देता हूँ!" बोले वो,
"हाँ, ये वाजिब रहेगा!" कहा मैंने,
"चलो, पौन तो पकड़ा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तो, फ़ुरक़ान साहब से बातें हो गयीं, नदीम को भी इत्तिला कर दी, अब पीरवार को, निकल जाना था हमें वहाँ के लिए!
इस बीच, मैंने और तैयारियां कर ली थीं! कोई कसर न छोड़ी थी!
आया पीरवार!
और हम निकल पड़े! करीब दो बजे, वहां जा पहुंचे, नहाये-धोये, भोजन किया और फिर कुछ देर आराम! नदीम को सब बता दिया था हमने, कि क्या करना है, उसने हमारे साथ नहीं चलना था, उसको ही हम इत्तिला करते तब वो, वहां आता!
मित्रगण!
करीब पांच बजे, हम निकल लिए वहां के लिए! एक सवा घंटे में वहाँ जा पहुंचे! सामान रखा एक जगह, एक जगह मोटरसाइकिल लगा ली थी! और बैठने की जगह भी ढूंढ ही ली थी! यहां छाँव थी और खुला भी था, सामने देख रहा था मैं, वही रास्ता! जिस पर एक दोस्त का फ़र्ज़ अदा करता, वो इंसान हाशिम, आज आने को था! दिल में बहुत बड़ी आरजू थी कि हम उसे देख सकें! कैसा था हाशिम! यही देखने की जैसे बेहद बड़ी ही चाह थी!
"पानी!" कहा मैंने,
"लीजिये!" बोले वो,
"लाओ!" कहा मैंने,
पानी पिया, बोतल वापिस की,
और फिर से, नज़रें टिक गयीं सामने!
"आज इंतज़ार खत्म!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और उसका सफ़र भी!" कहा मैंने,
"हाँ, बेहद ही लम्बा रहा उसका सफ़र!" बोले वो,
"हाँ, बेहद लम्बा!" कहा मैंने,
"आज खत्म हो!" बोले वो,
"हाँ, ज़रूरी है!" कहा मैंने,
छह बजे.............
अब कुछ संजीदा से हो चले थे हम!
"रास्ता तो यही है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आ जा हाशिम!" बोले वो,
"आएगा!" कहा मैंने,
"बेचारा भाल, और वो शिनि!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कभी न मिल पाये उस से!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ज़िंदगी कैसे काटी होगी भला?" पूछा शर्मा जी ने,
"सोच के ही पसीना चू जाता है!" कहा मैंने,
"जी फटने लगता है!" बोले वो,
"सच में!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
मैं सुनता ही रहा!
''आज, कम से कम हाशिम से, हम तो मिल लेंगे!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने!
साढ़े छह बजे..........
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"आओ तो?" बोला मैं,
"चलिए!" बोले वो,
उठा ली बोतल, पोंछा पसीना अपना उन्होंने!
मैं रास्ते तक गया, और रुका वहीँ!
"यहीं से आएगा न?" पूछा उन्होंने,
"हाँ आगे वो जाने!" बोले वो,
"रास्ता तो यही है, हवेली तक का!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यहीं रुकें?" बोले वो,
"हाँ, देखते हैं!" कहा मैंने,
पौने सात बजे.........
"एक काम करें?" पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"उस तरफ खड़े हों?" पूछा मैंने,
"चलिए!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सात बजे.............
और अब हम, और मुस्तैद! चौकस और निगाहें सामने ही रखते हुए! अब वो किसी भी पल आ सकता था! और हमसे कोई चूक न हो इसके लिए हम पूरी तरह से तैयार थे! अँधेरा अभी तो फिलहाल नहीं छाया था, लेकिन जल्दी में ही वो घिर जाता, आसार बनने लगे थे! सन्नाटा पसर गया था, हालांकि गर्मी उतनी तो नहीं थी, लेकिन उमस जैसा हाल बनने लगा था! हम उस रास्ते के दायें खड़े हुए, इंतज़ार कर रहे थे!
तभी कुछ आवाज़ सी हुई! हमने देखा सामने, गौर से, लेकिन कोई नज़र नहीं आया! कुछ देर बाद, एक वाहन निकला दूर वाले रास्ते से, ये उसकी ही आवाज़ थी! उसकी आवाज़ गूँज रही थी उस सन्नाटे में और उसकी ही आवाज़ हमें सुनाई दी थी!
सवा सात बजे.....
साँसें बांधे हुए, नज़रें बांधे हुए, सामने की ओर देखते हुए, हम खड़े हुए थे, इंतज़ार बड़ा ही जानलेवा लग रहा था! अब समझ में आ रहा था कि भाल चन्द्र और शिनि पर क्या गुजरी होगी! कैसे पूरी रात काट दी थी उन्होंने, हाशिम के इंतज़ार में! यहां तो एक एक पल काटे में नहीं कट रहा था, और उन्होंने तो तमाम रात इंतज़ार और उम्मीद में ही काटी थी! वाक़ई, अब समझ आया था कि इंतज़ार का दर्द कितना बड़ा रहा होगा उनके लिए!
इसी बीच, मैं कलुष का संधान किया, पुनः, ये अब आवश्यक था, कहीं कोई गुंजाइश न रह जाए, कोई चूक न हो जाए, कहीं हम ये मौक़ा भी न गंवा बैठें, इसीलिए! नेत्र पोषित कर लिए गए थे, अब वो हमें, नज़र आता ही आता! चाहे उसकी इच्छा होती, या नहीं! उसके बाद, फिर से इंतज़ार! इंतज़ार के जाले में, फंसे हम, कभी इधर, कभी उधर और कभी मध्य में झूले खाते!
"शर्मा जी?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"कैसा इंतज़ार रहा होगा उन दोनों का?" पूछा मैंने,
"अरे रे! जानलेवा! तसव्वुर करना भी मुश्किल है!" बोले वो,
"सच में!" कहा मैंने,
तभी! अचानक, आवाज़ आनी शुरू हुई! ठीक सामने से! लगा कि जैसे कोई दौड़ा आ रहा है अपने घोड़े पर! घोड़े के खुरों की टाप, सुनाई देने लगी थी! हमारा तो दम आधा रह गया! साँसें, ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे! बेचैनी अब सर पर नाच नाचे! आँखें गड़ाए हम, वहीँ देखते रहे!
"आ रहा है शायद!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
आवाज़ें, और साफ़ होती चली गयीं! उस सन्नाटे में, कोई भी  जैसे, उन आवाज़ों को, आराम से सुन सकता हो, ऐसी साफ़ आवाज़ें थीं वो!
हम, पेड़ों के उस झुरमुटे के साथ ही खड़े थे, उसका घोड़ा, टापों से ताल बांधे, दौड़ा चला आ रहा था! और तब! तब नज़र आया वो घुड़सवार! दौड़ता आता हुआ! घोड़े को एड़  लगाता हुआ! वो आता गया! आता गया! और कुछ ही पलों में, गुजर गया सामने से! वो एक कद्दावर इंसान सा लगता था! भारी-भरकम देह वाला! पहलवान सरीखा! लम्बा-चौड़ा! कोई सैनिक जैसा! उसने, मुंह पर, बुक्कल मारी थी! घोड़े पर, कुछ पोटलियाँ भी लटकी थीं, और मुश्कें भी, पानी रहा होगा उनमे! वो गुजरा और उसके घोड़े के खुरों से वापिस फिंकती हुई मिट्टी उड़ती सी चली गयी!
"चलो चलो!" कहा मैंने,
"हाँ! चलो!" बोले वो,
और हम उस झुरमुटे में से निकल कर, आ गए रास्ते पर! वो ठीक सामने चलता हुआ, उस हवेली की जानिब मुड़ता चला गया!
"आओ, जल्दी!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
और हम दौड़ते चले गए!
आये उस जगह! आनन-फानन में देखा आसपास!
"कहाँ है?" पूछा उन्होंने,
"यही होगा, आओ!" कहा मैंने,
और हम, बदहवास से, आसपास ढूंढने लगे उसे!
"शायद अंदर है! हवेली में!" कहा उन्होंने,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
हम, बिना कोई आहट किये, उस खंडहर के अंदर की तरफ चलने लगे! वो अंदर ही था, ऐसा लग रहा था, अंदर, शायद, ढूंढ रहा था उन दोनों को!
"भाल?" आई एक आवाज़!
जैसे ही आवाज़ आई, हम चौंके! वो आवाज़ दे रहा था अपने दोस्त को! कहीं देख नहीं पा रहा था उन्हने, ढूंढ नहीं पा रहा था, इसीलिए आवाज़ दे रहा था! हम वहीँ के वहीँ ठिठक कर रह गए! खड़े हो गए थे!
"भाल?" फिर से आई आवाज़!
"उधर!" कहा मैंने,
"हाँ, चलें?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम चले उस तरफ!
"भाल??" अब दो बार आवाज़ आई!
अपने दोस्त को, आवाज़ लगा रहा था वो! यही तो उसका हवाल था! इतने सालों से, वो ऐसा ही करता आ रहा था! एक डोर में बंधा हुआ! जिस डोर का न कोई छोर ही था न कोई अंत ही! वो उस डोर में ही पिरोया हुआ, भटक रहा था! लेकिन ये, दोस्ती की एक बे-नज़ीर और बे-मिसाल, मिसाल थी! इस दोस्ती ने, हमारे दिल पर, एक अमित छाप अंकन कर दी थी! कैसे दोस्ती निभा रहा था ये हाशिम! लोग तो जीते जी नहीं निभाते, और ये मर कर भी दोस्ती के फ़र्ज़ में बंधा था!
"भाल?" वो फिर से चीख कर बोला!
उसके घोड़े की आवाज़ आई!
'श्ह्ह!" कहा मैंने,
और रुक गए हम! वहीं के वही!
'वो, वहां!" बोले वो,
तब मैंने देखा उसे! बुक्कल खोल ली थी उसने, अभी तक घोड़े को पकड़े हुए था वो उसकी लग़ाम से! आसपास देखता हुआ, वो कभी रुक जाता, कभी आगे-पीछे देखता! कभी सामने और कभी दायें बाएं!
"भाल?" वो फिर से चीखा!
अचानक से तेज हुआ वो, जैसे दौड़ा हो! और दायें की ओर लपका! हमने उसे नज़रों में रखा हुआ था, उसकी एक एक हरकत पर नज़र रखे हुए थे हम!
वो एक जगह जाकर रुक गया! थोड़ा पीछे हुआ!
"भाल?" फिर से चीखा!
और जैसे बेचैन हो, आसपास देखने लगा!
अचानक से, अपना घोड़ा छोड़ा उसने, और चला, अंदर, एक पत्थर के पीछे से, जाने के लिए! अब नहीं दिख रहा था हमें वो!
'आओ, जल्दी!" कहा मैंने,
शर्मा जी का हाथ पकड़, मैं चल पड़ा आगे!
"रुको!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
वो हाशिम लौटा! और रुका एक जगह! अब फांसला, उसके और हमारे बीच, ज़्यादा नहीं था, अब उसे हम साफ़ साफ़ देख सकते थे!
वो तो मुझ सभी आधा हाथ ऊपर था! बादामी से रंग का चुस्त कुरता सा पहन रखा था, चौड़ा सीना था उसका, मज़बूत जिस्म! ताक़तवर भुजाएं और पहलवानी जिस्म! रंग निखरा हुआ! ख़त लगा था दाढ़ी में, दाढ़ी भारी और करीने से रखी हुई थी उसने!
"भाल?" चीखा वो!
आसपास देखा फिर से!
और फिर से अंदर चला गया वो!
"आओ, आओ!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
अब हम, पत्थर तक आ गए थे, अगर अब वो, अब पलट कर आता, तो शर्तिया हमें देख ही लेता! वो हथियारबंद था, कमर में, उसने तलवार लटकायी हुई थी, चौड़ी तलवार, जिसकी म्यान, भूरे रंग की थी, और मूठ शायद पीतल से ढला और बना था!
"भाल?"" बोला वो फिर वो!
"चलो!" कहा मैंने,
और चले हम आगे! यूँ कहें, कि उसके पीछे पीछे!
''रुको!" बोला मैं,
वो अब शायद, लौट रहा था, हम अब उसके रास्ते के बीचोंबीच खड़े थे! बस! अब किसी भी पल, हम और वो, आपस में भिड़ ही जाते!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पता नहीं आगे क्या होने वाला था! कहीं हमें कोई दुश्मन ही न समझ ले वो! वे दोनों वहां उसे नहीं मिले थे, कहीं ऐसा न हो कि वो हमें साजिश रचने वाला ही न समझ बैठे, कहीं आक्रामक ही न हो जाए! कहीं कोई मुसीबत ही पेश न आ जाए, ऐसे ऐसे ख़याल हमारे दिलों में आते जाते रहे थे! मैंने फ़ौरन ही देह-रक्षा मंत्र का संधान किया और अपने व शर्मा जी के कंधे, पोषित कर दिए थपथपा कर! अब हमें कोई भय तो नहीं था, बस इतना, कि कहीं वो हाशिम ही न इसकी गंध पा, नदारद हो जाए! तब बड़ी मुश्किल पेश आती! और अगर ऐसा हो जाता, तो सच में ये सबसे बड़ी निराशा होनी थी हमारे लिए! इसीलिए, एक एक क़दम, फूंक फूंक कर आगे बढ़ाना था!
तभी उसके दौड़ने की आवाज़ आई! वो भाल-भाल चिल्लाता हुआ, इधर-उधर देखता हुआ, अब लौट रहा था! अब हम भी तैयार ही थे! अब कोई देरी सही नहीं थी! हाशिम को समझाना था कि हम किस मंसूबे के तहत यहां तक आये हैं! क्या मंशा है हमारी और वो सच्चाई, जो उसकी इस क़ैद की चाबी थी! ये चाबी ही उसकी क़ैद के ताले को खोल देती, और वो, आज़ाद हो जाता! लेकिन ये सोचने में जितना आसान लगता है, उतना आसान था नहीं! उसको समझाना, सच्चाई बतलाना और उसका उस सच्चाई को क़ुबूल करना, ये इतना आसान नहीं होने वाला था! ये मैं अच्छी तरह से जानता था! अब बस इंतज़ार था तो उसके आने का, उसके सामने आने का, उस से भिड़ जाने का!
पत्थर के पीछे आ गया था वो, हम देख पा रहे थे उसे, उसके हाथ में कुछ सामान था, वो उसने, अपनी बगल में घुसाया हुआ था, शायद, उन दोनों के लिए ही कुछ लाया था वो! वो वहीँ रुका था, और जब कोई जवाब नहीं मिला उसे, तो अब वो आगे बढ़ा!
वो तेजी से चलते हुए आया, और तभी उसकी नज़र हम पर पड़ी! वो ठिठका! हमें गौर से देखा, हमारे अजीब से परिधानों पर नज़र डाली उसने, थोड़ा पीछे हुआ, चेहरे के भाव बदल गए, गुस्सा झलक आया, सीधा हाथ उसका, उस तलवार की मूठ तक धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा!
"रुको हाशिम!" कहा मैंने,
उसने अपना नाम सुन कर, अपनी आँखें सिकोड़ीं! उसे हैरत हुई थी, वो हैरतज़दा था! कई अजीब से ख़याल, किसी बिजली की चमक के मानिंद, उसके ज़हन में सनसना से गए थे!
"कौन हो तुम लोग?" उसने अपनी तलवार की मूठ पर, अपनी मुट्ठी कसते हुए पूछा!
"तुम नहीं जानते हाशिम!" कहा मैंने,
"मेरा नाम कैसे पता तुम्हें?" उसने हैरत से पूछा!
"मैं तो ये ही जानता हूँ कि तुम ढूंढ किसे रहे हो हाशिम!" कहा मैंने,
एक और झटका! उसके चेहरे पर, अब शिकन पड़ने लगीं!
"ढूंढ रहे हो न किसी को?" पूछा मैंने,
"किसको?" पूछा उसने,
"भाल चन्द्र और शिनि को! है न हाशिम?" पूछा मैंने,
उसकी आँखें चौडीं हो चलीं! वो उलझ गया था! उसे हैरत थी, कि हम ऐसा, कैसे जानते हैं? कैसे पता हमें उन दोनों के बारे में?
"है न?" पूछा मैंने,
"कहाँ हैं वो?" पूछा उसने,
ओहो! अब इस सवाल का मैं क्या जवाब देता! मेरे पास कोई जवाब नहीं था इस सवाल का! जो मैं बताता उसे, असलियत भी, तो वो उस से अनजान ही रहता! वो उसे मालूम नहीं थी! उसे यक़ीन ही नहीं आता! मैं चुप ही रहा था, बस हल्की सी मुस्कान से, उसके उस संजीदगी से भरे चेहरे को देख रहा था!
"क्या किया है तुमने उनके साथ? बताओ?" बोला वो चीख कर!
जैसा मुझे अंदेशा था! वही पूछा था उसने!
"नहीं हाशिम! हमने कुछ नहीं किया! कुछ भी नहीं!" कहा मैंने,
"तो फिर, कहाँ हैं वो?" बोला वो गुस्से से!
"अब जहाँ हैं, सुकून से हैं!" कहा मैंने,
"यहां नहीं हैं?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोला मैं,
"लेकिन?" बोलते बोलते रुका वो!
"यहीं मिलना था न?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"मुझे बताओ, कहाँ हैं वो?" बोला वो,
उसने गौर किया था, हमारे पास, कोई हथियार नहीं था, न खंजर, न तलवार, न ही कोई कटार, न कोई बंदूक ही! इसीलिए, थोड़ा मुतमईन सा हो कर पेश आया था वो! और सबसे बड़ी बात, वो ये जान कर हैरान था, कि जो बातें सिर्फ वे तीनों ही जानते थे, हमें कैसे मालूम थीं! कैसे मालूम थीं! ये ही तो बताया था पेशकार साहब ने, शाह साहब भिश्ती वालों के, ने!
"वो अब यहां नहीं हैं हाशिम!" बोला मैं,
"तो कहाँ हैं?" पूछा उसने,
"क्या करोगे जानकर?" पूछा मैंने,
"मुझे बताओगे या नहीं? उनको इस वक़्त मदद की ज़रूरत है, मेरे पास, सामान है उनके लिए, उनका सफर लम्बा है आगे, खाना है, मुझे बता दो, मैं एहसानमंद रहूंगा तुम्हारा!" बोला वो,
नेकदिल हाशिम! अज़ीम दोस्ती की मिसाल हाशिम!
एहसान लेने को तैयार वो हाशिम! दोस्ती के मायनों को, असली मायने देता वो हाशिम!
"हाशिम! अब भाल चन्द्र और शिनि को, न सामान की ही ज़रूरत है, न खाने की ही, उनका सफर भी अब नहीं बचा, तय कर लिया है उन्होंने अपना अपना सफर! और सफ़र? सफ़र तो तुम्हारा बाकी है!" कहा मैंने,
"मैं समझा नहीं?" बोला वो,
"जानना चाहोगे?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं?" बोला वो,
मुझे ये यक़ीन था! यक़ीन, कि हाशिम जैसा, ज़हीन और ज़हनी, ये ज़रूर जानना चाहेगा! आप इसको यूँ समझें, कि जैसे, दूसरे का पूरा दरपेश-वाक़या सुन लें एक बार और फिर खुद ही फैंसला करें, कि करना क्या है! वो नाटक कर रहा था जानने का, पता नहीं! क्या सच में जानना चाहता था, शायद! या सच में ही वो मुंतज़िर था? इसका खुलासा, बस अभी होने को था!
"हाशिम?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"जो कुछ भी पूछूंगा, उम्मीद करता हूँ पुख्ता, उसका जवाब मुझे साफ़गोई से मिलेगा! ऐसी उम्मीद कर सकता हूँ?" पूछा मैंने,
"ज़रूर! क्यों नहीं!" बोला वो,
"जो भी पूछूंगा, सच ही होगा, ऐसा मेरा पुख्ता यक़ीन है तुम पर!" कहा मैंने,
"उम्मीद न दरकेगी!" बोला वो,
मैं थोड़ा आगे गया, उसके करीब! वो जस का तस खड़ा रहा! दरअसल, वो अभी भी हैरतज़दा था! उसके उस आदताना-सफ़र में आज कुछ नया ही वाक़या शुमार हुआ था, इसीलिए, ज़ाहिर ही था कि वो, जानने को ज़हनी तौर से और मुक़म्मल तौर से तैयार था! और देखा जाए, तो जैसा मैंने सोचा था, ठीक वैसा हो भी रहा था!
"क्या भाल, शिनि को, उसके गाँव से लाया था?" पूछा मैंने,
वो चौंका! थोड़ा सा बहक सा गया मेरे, इस सीधे से सवाल से!
"जवाब दो हाशिम?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही है!" बोला वो,
"उसके गाँव से ही?" पूछा मैंने,
"हाँ, गाँव से ही!" कहा मैंने,
"क्या यही मंसूबा तय हुआ था?" पूछा मैंने,
"हाँ, हालिया तौर पर!" बोला वो,
"इस मंसूबे में, हालिया तौर पर ही सही, तुम तीनों ही शामिल थे या और कोई?" पूछा मैंने,
"हम तीन ही!" बोला वो,
"ग़लत!" कहा मैंने,
वो जैसे उछला! न समझा, क्या ग़लत इसमें?
"ग़लत? वो कैसे?" पूछा उसने,
"क्या शिनि के यहां, कोई और, न जानता था?" पूछा मैंने,
उसने अब ज़ोर लगाया अपनी याद पर! और जैसे, एक झटका सा खाया!
"हाँ, उसकी रिश्ते की बहन! लक्ष्मी!" बोला वो,
"क्या वो ये जानती थी?" पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"ये, आपका, मंसूबा?" पूछा मैंने,
"शायद, जानती हो, शिनि ने वाक़िफ़ करवाया हो?" बोला वो,
उसे जानना था सबकुछ! जानना था कि, ये सब आखिर हो क्या रहा है! दो अनजान इंसान, अंदर तक की बात, कैसे जानते हैं! इसीलिए, वो तैयार हुआ था! उसका क्या मंसूबा था, क्या वजूहात थे, ये तो सिर्फ वही जानता था! हाँ, वो बतला सबकुछ सही ही रहा था!


   
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"शायद!" बोला वो,
"उस रोज क्या वक़्त मुक़र्रर किया था आप तीनों ने, क्या मंसूबा था?" पूछा मैंने,
"उस रोज? दिन का वक़्त रखा गया था, दोपहर का" बोला वो,
"और कहाँ जाना था वहाँ से?'' पूछा मैंने,
"नजीबाबाद" बोला वो,
"और कौन ले जाता उन दोनों को?" पूछा मैंने,
"मैं" बोला वो,
"साथ में अपने?" पूछा मैंने,
"हाँ, सारे इंतज़ामात मैंने ही किये थे, इसीलिए मेरा साथ जाना बेहद ज़रूरी था" बोला वो,
"समझ गया मैं, तो उसके बाद, यानि दोपहर बाद, तुम तीनों यहां से निकल लिए थे?" पूछा मैंने,
"हाँ, निकल लिए थे" बोला वो,
"एक बात और?" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उसने,
"यही कि शिनि, अपने गाँव से, अकेली ही आई थी, या कोई और संग में था उसके?" पूछा मैंने,
"अकेले" बोला वो,
"लक्ष्मी नहीं आयी थी?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
बड़ी अजीब सी बात थी, लक्ष्मी नहीं आई थी साथ, वो क्यों? जब लक्ष्मी को सबकुछ मालूम था, तो किसी को शुबह न हो, उसे भी आना चाहिए था साथ में, लेकिन वो आई न थी, दिमाग में, कुछ आवाज़ सी होने लगी, कुछ अजीब सी आवाज़ें, कुछ शक़ उनभरने लगा, कि कहीं लक्ष्मी ने ही तो, मुखबरी नहीं कर दी थी? कहीं उसने ही तो नहीं बता दिया था? कहीं उसने ही तो खबर नहीं कर दी थी? खैर, इसका भी पता अभी चल ही जाना था, पता, यही हाशिम करने वाला था!
"तो हाशिम?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"तो तुम तीनों वहां से, दोपहर बाद, निकल गए थे, है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, हम तीनों!" बोला वो,
"तो क्या उसी रोज, नजीबाबाद पहुँचने का तय रखा था?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो!
नहीं? ओह! अब सारी गुत्थी सुलझने को थी! अब दिखने लगा था वो खोया हुआ सिरा! वो जिस रोज, निकले थे वहां से, उस रोज बुधवार था! और बुधवार की शाम, रात शिनि और भाल, कहीं और ठहराए गए थे! वहां से, हाशिम, अलग चला गया होगा, या फिर साथ में भी रहा हो, हो सकता है, लेकिन अब एक बात तय थी, कि जब, भाल उस शिनि को लेकर निकला था, तब ज़रूर ही कुछ न कुछ हुआ था! कुछ अफरा-तफरी! कुछ ऐसा, जिसकी वजह से, हाशिम, उन दोनों के साथ, न चल सका था! हुआ ही था कुछ ऐसा! नहीं तो हाशिम, उन दोनों के साथ ही रहता!
"तो उस शाम, कहां ठहरे थे तुम लोग हाशिम?" पूछा मैंने,
"इंतज़ाम, सराय में किया गया था ठहरने का" बोला वो,
"सराय में! अच्छा, तो आप लोग सारी रात सराय में ही ठहरे?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"क्या सोचा था कि सुबह निकल लेंगे वहां से?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"तो सुबह निकले?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"खबर मिली थी, कि उन दोनों की तलाश शुरू हो गयी है, साथ में मेरी भी" बोला वो,
"खबर किसी खबरी ने ही दी होगी?" पूछा मैंने,
"हाँ, कोई टूटा था" बोला वो,
"कोई यानि वो लक्ष्मी?" पूछा मैंने,
"यही लगता है, बेचारी को, मज़बूर कर दिया गया हो?'' बोला वो,
"सही कहा!" कहा मैंने,
"यही मैंने सोचा था" बोला वो,
"तो हाशिम?" पूछा मैंने, सवाल आगे बढ़ाये,
"हाँ?" बोला वो,
"उस सुबह तुम नहीं निकल पाये, कब निकले थे फिर?" पूछा मैंने,
"दोपहर के बाद" बोला वो,
"क्या उस दोपहर के बाद, तुम उनके साथ थे?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"मैं हाज़िरी भरने गया था, क़ाज़ी साहब के पास"" बोला वो,
"समझ गया, ताकि किसी को शक़-शुबह न हो कोई! है न?" पूछा मैंने,
"यही बात है!" बोला वो,
"तो सुबह के बाद, जब तुम निकले वहां से, तो तुम उनसे, मेरा मतलब उन दोनों से, दोपहर बाद ही मिले होंगे?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तुम क़ाज़ी साहब के पास गए थे, हाज़िरी भरी और फिर लौटे होंगे?" पूछा मैंने,
"नहीं, मैं सामान खरीदने गया था फिर" बोला वो,
"और खबरी ने खबर कब दी थी?" पूछा मैंने,
"रात को ही!" बोला वो,
"और तुमने, ये सब, उन दोनों को नहीं बताया, है न?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"ताकि वो घबराएं नहीं?" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उसने,
''और अगर, एक बार तुम तीनों, नजीबाबाद पहुंच जाते, तो फिर कोई डर नहीं था, क्यों हाशिम?" पूछा मैंने,
"पहुँच जाते?" पूछा उसने,
"हाँ?" कहा मैंने,
"मैं नहीं समझा!!" बोला वो,
"अभी समझ जाओगे!" कहा मैंने,
उसे, ज़रूर लगा होगा कि मैं पहेलिया बुझ रहा हूँ उसके साथ! मेरे सवाल, ऐसे ही थे, मैं उसको धीरे धीरे, उस मुक़ाम की तरफ ला धकेल रहा था, जहाँ वो बोले, कि पता नहीं!
"तो तुमने सामान खरीदा!" कहा मैंने,
"हाँ, ज़रूरी!" बोला वो,
"और मदद के लिए, किसी को बुलाया नहीं?" पूछा मैंने,
"बुलाना क्या था? क्यों?" बोला वो,
"काश कि बुला लेते!" कहा मैंने,
"काश?" बोला धीरे से,
"खैर, तो तुमने सामान खरीदा, और फिर लौटे होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"दोपहर से पहले?'' पूछा मैंने,
"हाँ, लगभग" बोला वो,
"अब एक बात!" बोला मैं,
''वो क्या?" पूछा मैंने,
"ये ज़र्रु कौन है?" पूछा मैंने,
"एक इनामी डकैत है" बोला वो,
"कभी देखा है उसे?" पूछा मैंने,
"दो मर्तबा" बोला वो,
"यानि तुम जानते थे उसे!" कहा मैंने,
"हाँ, सिर्फ पहचानता था!" बोला वो,
"क्या ज़र्रु से मुक़ाबला हुआ? उस रोज?" पूछा मैंने!
मित्रगण!
जैसे तेज हवा चली!
उड़ा ले गयी ज़र्रा ज़र्रा ज़मीन से! ज़र्रा ज़र्रा! कुछ यादों का, ज़मीन वो तारीख़(इतिहास) की! तेज हवा, हैरानी और परेशानी!
"बताओ?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण!
ज़र्रु का अब इस वाक़ये में आना, इस बात का इशारा करता था कि अब, कुछ ही गिनती की साँसें बची हैं हाशिम के पास! या, थोड़ी ज़्यादा! ज़र्रु, इस वाक़ये में कैसे आया, अब ये आपको बताता हूँ! ज़र्रु इस वक़्त का एक इनामी डकैत था! लेकिन उस ज़र्रु के कुछ संबंध भी थे, शिनि के पिता से, संबंध, जैसे अक्सर ऊंचे लोगों के, दोयमपेशा लोगों से हुआ करते हैं! ये उगाही या हिफाज़त वग़ैरह में, ऐसे ही सेठों को दिया करते थे! बदले में, उनको रक़म मिल जाया करती थी! जिस रोज, शिनि ने घर छोड़ा, तो मची ढुंढेर! और इस ढुंढेर में, शक़ में आई वो लक्ष्मी, बेचारी ने भय के आगे, सब बतला दिया! घर में तो अफरा-तफरी मच गयी! ये तो, इज़्ज़त का मामला था, और इज़्ज़त बचाने के लिए, उसके पिता ने मुलाक़ात की, उस ज़र्रु से! जिस से, वो जल्दी ही, उसी दिन, मिल रहे थे! वो मिले और सारी कहानी कह सुनाई ज़र्रु को! कुछ तय हुआ, और ज़र्रु के आदमी, अपनी अपनी खोज में, जा निकले! रात तक, ये पता चल गया था कि वे तीनों एक ही जगह हैं! लें वो जगह कहाँ है, इसकी जांच अभी चल रही थी! उसी रात, ये खबर, हाशिम को भी लगी! हाशिम ने, ये बात, भाल को नहीं बताई! वो नहीं चाहता था कि भाल और शिनि, टूट जाएँ ये सुन कर, या फिर, डर जाएं, भाल को तो समझा-बुझा लेता हाशिम, लेकिन शिनि को नहीं!
उस तमाम रात! जागता रहा हाशिम! मंसूबे कसता रहा कि कैसे वो उन दोनों को निकालेगा वहां से! बाहर आहट होती, तो झनक कर देख लेता बाहर! कुल मिलाकर, वो अब हिफाज़त करने में मुस्तैद था उन दोनों की! कई मंसूबे बने, कुछ ठहरे, कुछ ढह गए, कुछ में मरम्मत हुई, कुछ हाशिये पर टिका दिए गए! और इसी उहापोह में, सुबह चली आई! सुबह सुबह ही, भाल मिलने आया था हाशिम से, बातें हुईं, हाशिम ने, उसको यही समझाया कि सही वक़्त पर, वे, निकल लेंगे वहां से! बस वे दोनों वहीँ रहें! उसके बाद की कहानी, बता दी थी सारी हाशिम ने अभी तक, वो क़ाज़ी साहब के पास गया, वहां हाज़िरी भरी, और सामान खरीद लिया!
वो दोपहर बाद का वक़्त था! जब हाशिम ने उन्हें निकाला वहां से, और ले चला अपने साथ, हाशिम आगे आगे और वे दोनों पीछे पीछे!
यकायक, एक जगह, जा रुका हाशिम! उसके दिमाग में, कुछ उछला था, कोई सलाह, कोई डर या फिर से कोई और मंसूबा! और यही से, हाशिम और वे दोनों अलग हो गए थे! शाम तक, शाम को, हाशिम ने आना था, उस हवेली के पास, जहाँ से वे रात रात में सफर कर, नजीबाबाद पहुँच जाते! शिनि और भाल को उसने यही समझाया कि, चाहे ज़मीन फट जाए, आसमान नीचे आ जाए, चाहे उसे, मौत ही क्यों न आ जाए, वो उस शाम, ज़रूर मिलने आएगा उनसे! और इसी वायदे पर, भाल चन्द्र, शिनि को लेकर, चल दिया था उसी हवेली की ओर!
देखता रहा था हाशिम! उन दोनों को जाते हुए! और जब वे ओझल हो लिए, तो लौट पड़ा! लौट पड़ा, अपने  कुछ साथियों की तलाश करने में, जो, उसको हिफाज़त के दायरे में रखते! अफ़सोस, ऐसा न हो सका! शिनि और भाल चन्द्र के जाने के ठीक डेढ़ घंटे बाद, उसका रास्ता रोक दिया गया! रोकने वाला था ज़र्रु!
"हाशिम?" बोला मैं,
"हाँ?" बोला वो,
"तुम क्यों नहीं चले गए उनके साथ ही?' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो, सर हिलाते हुए!
"क्योंकि तुम जानते थे!" कहा मैंने,
वो चौंका! मुझे देखा, आँखें मींचते हुए!
"क्या?" पूछा उसने,
"एक पहलवान हाशिम! मज़बूत जज़्बे वाला हाशिम! उस लम्हा, डर गया था!" कहा मैंने,
उसके जबड़े भिंच उठे! होंठ बंद हो गए थे उसके!
"कैसा डर?" पूछा उसने,
"अपनी दोस्त और उसकी महबूबा की जान का डर! है न?'' पूछा मैंने,
चुप वो! मैंने भेद डाला था उसका मन! टटोल दिया था उसके मन को! खोद दिया था और निकाल दिया था बाहर वो डर!
"तुम जानते थे हाशिम! कि वो ज़र्रु और उसके आदमी, तुम्हें तो पहचानते होंगे, थे, लेकिन उन दोनों को नहीं! तुमने यही चाल खेली, तुमने उन्हें भेज दिया उस हवेली तक! ताकि उन तक कोई न पहुंचे! और तुम, उनकी हिफाज़त करने के लिए, अपने कुछ साथियों की तलाश में निकल पड़े!" कहा मैंने,
वो जैसे कांपने लगा!
तार से तार जुड़ने लगा था! अलग अलग धाराओं में बहता पानी, अब एक हो, दरिया बनने लगा था! और यही दरिया, अब सच क़ुबूलने वाला था! कम से कम, मुझे तो यही उम्मीद थी!
"है न हाशिम?" पूछा मैंने,
"हाँ! यही बात है" बोला वो,
''वाह हाशिम! वाह!" कहा मैंने,
उसने सर उठाकर, देखा मुझे, ये ना-यक़ीनी से जज़्बात, चेहरे से झलकाते हुए!
"तुम्हारी जैसी दोस्ती! दोस्ती का कॉल, दोस्ती का पास रखने वाला, मैंने नहीं देखा हाशिम! मैंने नहीं देखा! तुम जानते थे, कि तुम उस वक़्त अकेले थे! और तुम्हारे संग कोई भी हादसा पेश हो सकता था! लेकिन, तुम न घबराये! जानते थे, कि कम से कम, तुम्हारा वो दोस्त भाल चन्द्र और उसकी वो महबूबा, हिफाज़त से तो रहेंगे! यही सोचा था न हाशिम!" कहा मैंने,
वो नहीं बोला कुछ!
सर घुमा लिया एक तरफ!
नीचे कर लिया था सर अपना!
बगल में खुँसा वो सामान, ढर्र से नीचे सरक आया!
"बोलो हाशिम?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो धीरे से!
मैं उस वक़्त के हालात की संजीदगी को महसूस कर रहा था, इसीलिए मैंने, जल्द ही, इस मामले को, दरकिनार कर दिया, उठाकर, अलहैदा रख दिया! कुछ वक़्त के लिए! और एक नया सवाल पूछा!
"हाशिम?" कहा मैंने,
सर उठाया उसने अपना! नीचे गिरे सामान को देखा, फिर मुझे!
"ज़र्रु ने क्या पूछा था?" कहा मैंने,
"वो दोनों कहाँ हैं?" बोला वो,
"क्या बताया?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोला वो,
"फिर क्या बोला ज़र्रु?" पूछा मैंने,
"तुझे सब मालूम है! तुझे आज यही दफन कर दिया जाएगा, जान प्यारी है, तो बता दे, नहीं तो हम से कोई बच नहीं सकता, तू भी नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पोछा मैंने,
"गहमागहमी हो गयी थी बहुत, मुझे घेर लिया गया था!" बोला वो,
"कितने रहे होंगे वो लोग?" पूछा मैंने,
"नौ या दस!" बोला वो,
"फिर?" मैंने पूछा,
वो मुस्कुराया! अपना हाथ अपनी तलवार पर ले गया! और मूठ से पकड़ कर, तलवार खींच ली उसने, निकाल ली बाहर! खून के दाग़ अभी तक नुमाया था उस तलवार पर! बीच की लक़ीर में, खून जम भी चुका था!
"मेरी तलवार चली! तीन मैंने वहीँ काट डाले थे!" बोला वो,
तीन! कोई बड़ी बात नहीं! उसके हाथ में अगर तलवार हो, तो कोई उसके सामने टिक नहीं सकता था, उसकी बाजूओं में ताक़त थी! एक ही वार में, सर तो सर, कमर भी अलग हो जाती देह से! और उसकी तलवार! चौड़े फाल वाली, दुधारी थी!
''फिर?" पूछा मैंने,
"तलवार से तलवार टकरा गयीं! मैंने दो और काट डाले, उनके कटे धड़, नीचे गिरने लगे!" बोला वो, अपनी तलवार को नचाते हुए!
"फिर?" पूछा मैंने,
"खून-खराबा हुआ था!" बोला वो,
"और ज़र्रु?" पूछा मैंने,
"वो थोड़ा दूर खिसक गया था, अपने साथियों को आवाज़ दे रहा था लगातार!" बोला वो,
"और फिर?" पूछा मैंने,
''और तभी.........." बोलते बोलते रुका वो!
"क्या तभी हाशिम? बताओ? बताओ?" पूछा मैंने,
मैं ले आया था उसको!
खींच लाया था उस लम्हे तक!
यही तो मैं चाहता था! और यही हुआ था!
"हाँ हाशिम? फिर? तब? तब क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
उसका तना हुआ हाथ, नीचे हुआ, तलवार नीचे हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तभी मेरी कुछ चुभा, बहुत तेज, मेरी आँखें मुंद गयीं तभी..और मैं गिर गया नीचे, जैसे ही गिरा, अँधेरा छा गया, लेकिन! मैं उठ खड़ा हुआ! जैसे ही उठा, वहां कोई नहीं था! शायद, मुझे मरा समझ, चले गए थे वो सब! मैं उठा, घोड़े पर बैठा और दौड़ लिया, अब वक़्त काफी हो चुका था, मुझे, अब पहुंचना था भाल चन्द्र के पास, कुछ ही देर बाद अँधेरा हो जाता, और तब मुश्किल पड़ती, इसीलिए, मैं दौड़ पड़ा उनकी तरफ!" बोला वो!
मैं उठ गया! सब साफ़ हो गया! सब साफ़! उसने सब बता दिया था! लेकिन! बेचारा हाशिम! बेचारा! न जान सका था, कि वो जब गिरा , तब ज़िंदा था, और जब उठा, तब ये दुनिया, बहुत पीछे छूट चुकी थी! उसने एक वायदा किया था, एक वायदा, जो निभाना था उसे! अपने दोस्त से मिलने का वायदा! वो दौड़ पड़ा था, लेकिन रास्ता, बहुत लम्बा था उसके लिए! उसका भटकाव, शुरू हो गया! वो हवेली, उस रात, न पहुँच सका! क्यों? क्योंकि वो उस जाल में फंसा था, जिसमे वो जितना चढ़ता, फिसल कर वापिस वहीँ आ जाता था! जहाँ से वो चला था! उसे याद आता, और वो फिर दौड़ पड़ता! याद आता, और दौड़ पड़ता! इसी तरह, उसका सफर, शुरू हो गया था! इसी को, सुप्तावस्था कहा जाता है एक प्रेत के! जब, वो उस जगह से वाक़िफ़ हुआ, तब वो हवेली पहुंचा! और इस तरह, वो अक्सर आता वहां, ढूंढता उन्हें, पौ फटने तक! और लौट जाता वापिस फिर! उसे, पीरवार याद रहता! और तब से, अब तक, उस पीरवार तक, न जाने, कितने पीरवार, गुज़र चुके थे! न जाने कितने!
और अब, ये आखिरी ही पीरवार हो उसका, ये मैंने उम्मीद की थी! अब, कुछ करना था, तो इतना, कि उसको यक़ीन दिला सकूँ, कि अब, उसके लौट जाने का वक़्त है! अब, आगे बढ़ जाने का वक़्त है! वो मान ले, तो मुझे इंतहाई ख़ुशी मिले!
"हाशिम?" बोला मैं,
"हाँ?" कहा उसने,
"एक बात कौन?" पूछा मैंने,
"कहिये?" बोला वो,
"क्या तुम जानते हो? कितना वक़्त हुआ, तुम्हारे इस दोस्त भाल चन्द्र और उसकी उस महबूबा को, जो उसकी बीवी बन गयी थी बाद में, इस दुनिया से रुख़सत हुए हुए?" पूछा मैंने.
"रुख़सत? इस दुनिया से? क्या कह रहे हो तुम?" वो चीख कर बोला!
"हाँ! रुख़सत!" कहा मैंने,
"नहीं! नहीं! वो यहीं छिपे हैं! मैं ढूंढ लूँगा उन्हें! ढूंढ लूँगा उन्हें, यहीं छिपे हैं वो! भाल? भाल? मैं हाशिम? आ जाओ? मैं यहां हूँ! कोई खतरा नहीं है! आ जाओ! मैं आ चुका हूँ!" बोला वो चिल्लाते हुए!
रहम! शदीद रहम! एक एक अलफ़ाज़ पर रहम! बेहद रहम आया मुझे उस पर!
"नहीं हाशिम! यहां कोई नहीं है!" कहा मैंने,
"नहीं! ये देखो! ये देखो, कपड़े लाया हूँ उनके लिए! बस, एक एक जोड़ी कपड़ा है उनके पास! भूखे हैं दोनों! ये देखो! ये देखो, खाना, पानी लाया हूँ उनके लिए!" बोला वो, अपने घोड़े से कुछ सामान उतारते हुए!
उसने जिस तेजी से कपड़े, खाना उतारा था, उसे देख कर, जी फट कर रह गया! कलेजा मुंह को आ गया! कैसा अजीब दोस्त था वो! पागल! मैं उसे पागल ही कह रहा था अपने मन ही मन!
"भाल? सुन रहे हो? मैं यहां हूँ?" चीखा वो!
"हाशिम! वे दोनों ही, इंतकाल फरमा चुके हैं! और...तुम भी!" कहा दी मैंने कड़वी हक़ीक़त, शीरी लहजे से लबरेज़ कर!
वो ये सुनते ही, पत्थर सा बन गया! पत्थर! एकदम पत्थर जैसा! न हिले, न डुले! बस, मुझे ही देखे! जैसे मेरे शब्द, उसको बिखेर गए हों टुकड़ों में!
आहिस्ता से, वो आगे आया, मुझे देखा, मेरे सामने खड़ा हुआ......सर ना में हिलाया उसने......
"मैं ज़िंदा हूँ.....मेरा दोस्त भाल भी.....वो दोनों यहीं हैं.....यहीं" बोला धीरे से,
"नहीं हाशिम! नहीं!" बोला वो,
"नहीं!" गुस्से में चीखा वो!
"हक़ीक़त को मानो! यक़ीन करो! एक लम्बा अरसा बीत चुका है हाशिम! एक लम्बा अरसा! तुम, ज़िंदा नहीं हो, एक रूह हो! रूह, उस हाशिम की!" कहा मैंने,
"मैं हाशिम हूँ! ज़िंदा!" बोला वो,
"यक़ीन नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"अभी करोगे!" कहा मैंने,
मैंने अपना कंठ-माल पकड़ा, और पढ़ा एक मंत्र! मारी फूंक सामने, और वो चीखा! बुरी तरह से! उसके वो ज़ख्म खुल गए! वो ज़ख्म, जो उसको जीते जी लगे थे! अब न वो भाग ही सकता था, न लोप ही हो सकता था! वो अब एक तरह से मेरे चंगुल में था! वो नीचे बैठता चला गया! मैंने तभी कंठ-माल छोड़ दिया! और वो, एक झटके से उठ खड़ा हुआ! अपने हाथ देखे, कोई ज़ख्म नहीं, कोई खून के दाग़ नहीं! अपनी बगल देखी, कोई दाग़ नहीं, कोई ज़ख्म नहीं!
मित्रगण!
इसके बाद, मैंने उसको, उस सारी, तमाम हक़ीक़त से वाक़िफ़ करवा दिया! वो बहुत रोया, बहुत झीका! अपने दोस्त के बारे में जान, बहुत रोया! दिल भारी हो आया मेरा! शर्मा जी का भी! उसको बहुत समझाया! समझदार था, समझ गया! भाल ही भाल बोलता रहा, अपने भाई-बहन को याद किया उसने, अपनी अम्मी और अब्बू से जैसे वो, उनके सामने ही खड़े हो बातें कीं उसने! मैंने ढांढस बंधाया उसे! वो हाशिम पहलवान, तिनके के समान हल्का हो गया था! हवे से भी हल्का! उसको अफ़सोस था, वो उस रात न आ सका! मौत ने  उसका रास्ता ज़रूर रोक लिया था, लेकिन कब तक? वो लौटा! अपने कॉल के मुताबिक़, अपनी दोस्ती का पास रखने! अपने दोस्त के लिए! उसी रात, मैंने उसके लिए प्रार्थना की, और, उसके मुक्ति-मार्ग पर उसको, चढ़ा दिया! वो जाते जाते भी, याद करता रहा! और माफ़ी मांगता रहा अपने दोस्त से, कि वो, सही वक़्त पर ना आ सका था! हाँ, जाते जाते, उसके चेहरे पर एक सुकून था, एक गहरा सुकून! कि कम से कम, उसके उस आखिरी लम्हों में, दो तो थे, जिन्होंने उसे याद रखा था! उसकी दोस्ती में कोई खोट नहीं था, ये सबसे बड़ा सुकून था उसके लिए! वो, चला गया था! लौट गया था हमेशा, हमेशा के लिए!
दुनिया, उस हाशिम को भूल गयी! हमेशा हमेशा के लिए! वो हवेली, उस रात, अपने आखिरी वजूद से भी गयी! असल मायने में, भाल चन्द्र और शिनि की उस रात की पनाहगार वो हवेली, दम तोड़ गयी!
मैं और शर्मा जी, कुछ बात न कर सके! धम्म से वहीँ बैठ गए थे! कब तलक बैठे, कुछ याद नहीं! कुछ याद था, तो एक प्रेम-कथा, एक सच्ची दोस्ती की कहानी! और एक हाशिम!
मित्रगण!
अभी भी, न जाने कितने ही हाशिम, भटक रहे हैं! कितने ही हाशिम! दोस्ती के मायनों पर सौ फी सदी खरे उतरते हाशिम! अफ़सोस! गहरे अँधेरे में क़ैद हैं! हाँ, इतना है, कि दोस्ती न, जात-पात  की मोहताज है, न मज़हब की ही! ये मैंने, इस हाशिम और उस भाल चन्द्र की दोस्ती से जान लिया था! सलाम ऐसी दोस्ती को! और सलाम, हाशिम और भाल चद्र जैसे दोस्तों को!
हाशिम, भूले जाने वाला किरदार नहीं है!
ख़ुशी है, आप सभी को भी, उसके बारे में बताकर!
लगता है, कि जैसे, मैंने भी कुछ उधार, उनकी दोस्ती का चुकता कर दिया!
साधुवाद!

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