साँझ से थोड़ा पहले का वक़्त रहा होगा वो! एक टूटी सी इमारत थी वहां बनी हुई! टूटी मतलब, छोड़ी हुई, शायद, भूकम्प आदि में ढह चुकी थी, ये गाँव से थोड़ा ही बाहर, करीब दो किलोमीटर के करीब ही बनी थी, यहाँ, नीम के असंख्य पेड़ लगे थे! दो बड़े से टीले थे मिट्टी के! इन्हीं टीलों के बीच में से एक रास्ता गुजरा करता था उस वक़्त! उस वक़्त, शांत पड़ा था सबकुछ वहां! हवा चल नहीं रही थी, पेड़, शांत खड़े थे! चिरचिटे के पौधे, बड़े बड़े से, उस रास्ते के दोनों ओर, ऐसे खड़े थे जैसे पहरेदारी कर रहे हों उस रास्ते की! इन्हीं चिरचिटे के पौधों के कुनबे के लोगों ने, अब धीरे धीरे पैठ बना ली थी, उन दोनों ही मिट्टी के टीलों पर! हाँ, कुछ परिंदे ज़रूर आ बैठते थे उन पेड़ों पर, कुछ जामुन के पेड़ भी थे, लेकिन सूरज की आती तपिश को, रोक नहीं पा रहे थे उनके कोमल पत्ते! बल्कि, कुम्हला और गए थे! सीत-गिलोय की बेलें, सर उठा कर, आसपास के पेड़ों को अब धमकाने लगी थीं! कुछ के पुंगक(बेलों में जो स्प्रिंग की तरह से एक तार सा होता है, जो बेल को सहारा दिया करता है, कुछ थामने को) तो, पेड़ों की तरफ भी हो चले थे! जैसे, किसी के नाख़ून, खरोंचने को आगे बढ़ रहे हों! कुछ दूरी पर, पीपल और शीशम के पेड़ों पर चढ़ी वो अमर-बेल, सब देखे जा रही थी! नीम पर चढ़ नहीं सकती थी, क्यूंकि नीम के पेड़ काफी बड़े और वैसे भी बे-स्वाद थे! कड़गे(देहाती भाषा, असल कड़वे) थे! अमर-बेल सूख जाती बेचारी! ग्रास-द्रव्य न मिलता उसे! कुछ और भी पौधे लगे थे बेचारे! बे-नाम और बे-पहचान! कोई कैसा लगता और कोई कैसा! लेकिन एक बात तो थी, सभी एक दूसरे पर नज़रें रखे हुए थे! ऐसा, उन्हें देख कर, लगता था! पास में ही, एक बड़ी सी झाड़ी लगी थी, ये पपोटन के झाड़ी थी, अब पपोटन नहीं थीं उस पर, जो थीं, वो या तो आने-जाने वालों ने हथिया ली थीं उस से या फिर, परिंदे ही धावा बोल, ले उड़े थे! साँझ ढलने में अभी कुछ लम्हात बाकी थे, आसमान में, अलसाये से सूरज, जैसे दिन भर के थके हों, जम्हाइयां सी ले रहे थे! और वो रास्ता, न कोई राहगीर, न कोई पासबां! कोई नहीं! खाली ही पड़ा था वो रास्ता! उस रास्ते का क्या! दिन में भी वैसा और रात में भी वैसा! लोग, दिन में दूरियां पार करते उसे पर चल कर, और वो, जस का तस, रोज गिना करता आने जाने वालों को! चुपचाप! खामोश! हना, उस तरफ, थोड़ा दूर, एक बड़ा सा पत्थर रखा था! पत्थर, इन सबसे अलग था, ऐसा लगता था! लगता था, साथ वाले चट्टान से बिछड़ गया था बेचारा! अब कौन ढोए उसे वहां तक! अब तो, आंसू भी सूख चले थे उसके! बस, रफ़्ता-रफ़्ता, भुलाने में लगा था, उस चट्टान से जुड़े होने की कुछ तल्ख़ सी यादें! अब तो वो बस, छिपाएं एके काम आता था, किसी नेवले को, किसी खरगोश को! बस, इस से ज़्यादा अब उसकी अहमियत बाकी न रही थी! दूर क्षितिज में, अब बादल भी लाल होने लगे थे! अस्तांचल की सुंदरियाँ, जैसे रात की रंगीनियों की सोच सोच कर, अपने चेहरे, हया से लाल कर बैठी थीं! लगता था, कि घूंघट कुछ ऐसे ओढ़ा गया था उनसे, कि छिपाए भी न बने और ढलकाये भी न बने! और सूरज, अब तो इस ज़मीन से रुख़सती लेने वाले ही थे, अपना सर, फेर लिया था उन्होंने उन सुंदरियों की तरफ! जहाँ से, वो अस्तांचल में प्रवेश कर जाते!
तभी, पूर्व दिशा से, कुछ आवाज़ें आनी शुरू हुईं! लगा, जैसे कि, पल भर पहले की शांत पड़ी वो ज़मीन, सर के नीचे से कोहनी निकाल, कंधे का सहारा लिए, गरदन उठाये, देखने लगी हो उस तरफ! वो आवाज़ें पहले हल्की थीं, फिर तेज होने लगीं! कुछ और तेज! और तब, जैसे उन तमाम, पेड़ पौधों की निगाहें उस आवाज़ की तरफ ही लग गयीं!
वो आवाज़े बढ़ती गयीं! ये तो, किसी घोड़े के खुरों से निकलती हुई आवाज़ें थीं! कोई आ रहा था, दौड़ा दौड़ा! तेज! बहुत तेज! आ तो रहा था, लेकिन कौन? नज़र भी तो न आ रहा था? आवाज़ें बढ़ीं, टीला पार किया और घोडा थमा! धीरे धीरे चल अब आगे!
धम्म!
कोई कूदा घोड़े से! ये कौन था? कौन था वो? और कौन वो रूपसी, जो उसके संग बैठी थी उस घोड़े पर? उसको भी उतार लिया था उसने! पांवों में गरम मिट्टी जैसे ही छुई, अपना पाँव बदल लिया उस रूपसी ने! और तब, उस जवान ने, फौरन ही, रकाब से एक कपड़ा खींच कर, नीचे रख दिया, ये खाकी से रंग का एक मोटा सा कपड़ा था! तब उस रूपसी ने, अपने पाँव रखे उस पर! हाँ, अब पहुंची राहत! अब नहीं चुभी वो गर्मी से तपती हुई मिट्टी!
उस जवान ने, मुश्क़ निकाली घोड़े से, बंधी हुई थी, ढकना खोला उसका, सुतली से बंधा था, खोल दिया, बढ़ा दिया उस रूपसी की तरफ, उस रूपसी ने, ओख बनाई हाथों की, और पानी की धार, उसके हाथ पर आ गिरी! उसने कुछ घूँट पानी पिया, फिर, उस जवान ने, मुश्क़ को ऊँचा उठा, अपने मुंह में पानी भरा! पिया, चेहरे पर डाला, ढकना बंद किया, सुतली से, दुबारा बाँधा और लटका दी वो मुश्क़, घोड़े से! घोड़े की पसलियों पर हाथ फेरा उसने, और तब, साथ आ खड़ा हुआ उस रूपसी के! अब, दोनों की निगाहें, जा लगीं उस रास्ते पर, जहां से वो खुद आये थे!
"इतनी अवेर क्यों?" बुदबुदाया वो जवान!
उस रूपसी ने, कंधे पर हाथ रखा उसके, उसको देखा, और उसके सुर्ख होंठ, फ़ैल गए, साफ़ था, ये हौंसला-अफ़ज़ाई थी! ढांढस-बंधाई थी! इस से ज़्यादा और कुछ नहीं!
उस जवान में, म्यान से तलवार खींची, और फिर घुसेड़ दी, फिर से खींची, और फिर घुसेड़ दी! वक़्त जैसे, काटे नहीं कट रहा था उस से!
"ऐसी अवेर?" बोला वो,
"इंतज़ार करना ही होगा!" बोली वो रूपसी!
"इतना?" बोला वो,
"हाँ!" बोली वो,
"कहीं...........?" बोलते बोलते रुका वो,
"ना! ऐसा न सोचो!" बोली वो,
आँखें फिर से जा लगीं सामने उनकी!
पीछे पलट के देखा उस जवान ने, ढलता सूरज! लालिमा वाला आसमान! वक़्त का घोड़ा, दौड़े चला जा रहा था,
वो जवान, आगे बढ़ा, और देखा गौर से! सामने! कोई नहीं! कोई भी नहीं था! न आता हुआ, और न जाता हुआ! वो रूपसी, वहीँ खड़े खड़े, कभी सामने देखती और कभी उस जवान की बेसब्री को! जवान लौटा, खड़ा हुआ पास उसके!
"जी में बुरे ख्याल आ रहे हैं!" बोला वो जवान! बोलते बोलते, जबड़े की मांस-पेशियाँ कस गयी थीं! उसको कोई फ़िक़्र लगी थी! कोई बड़ी ही फ़िक़्र!
"आ जाएगा!" बोली वो, फिर से हौंसला-अफ़ज़ाई!
"आ जाए!" बोला वो,
अपने हाथ आगे कर, जोड़ते हुए, जैसे, माँगा हो कुछ उसने, भगवान से! आगे गया थोड़ा, अब अँधेरा कुछ ही वक़्त दूर था!
और फिर, अचानक से.............
फिर अचानक से उसमे फुर्ती दौड़ पड़ी! लौटा पीछे! आया उस रूपसी तक, देखा उसे गौर से, चेहरे पर जहां बेचैनी थी, वहीँ एक घबराहट सी भी उभरने लगी थी उसके! वो पीछे देहता, और फिर, पछां(पश्चिम) में डूबते सूरज को! अब तलक, सूरज, अपने अस्तांचल में प्रवेश कर चुके थे, ये उनका तेज ही था, जो अब बिखरा हुआ था उस क्षितिज पर!
"मैं आऊं देख कर?" बोला वो,
झट से हाथ पकड़ लिया उस रूपसी ने उसका! घबरा गयी थी यकबायक! चेहरे से, रंगत उड़ चली थी! फीका पड़ गया था चेहरा!
"नहीं....मैं? अकेली?" बोली वो, धीमे से,
वो पलटा, और फिर से आगे गया, फिर से नज़रें टिका दीं सामने, लेकिन, सन्नाटा! अथाह बियाबान! सन्नाटा! अब तो पेड़ और पौधों की परछाइयाँ भी ख़त्म हो गयी थीं! वे सब, शांत, चुप और खामोश खड़े थे, उस पल में, जा घुसे थे, जिस पल में, ये दोनों जुड़े पड़े थे!
वो फिर से लौटा, आया उस रूपसी के पास, देखा उसे गौर से, फिर, एक हल्की सी मुस्कुराहट, होंठों पर आई, मूंछो में हरकत हुई, वो ऊपर हुईं, वो हंसा हल्का सा, और वो रूपसी, उसको देख, खिल उठी, जैसे, कुमुदनी अपने प्रेमी चंदा को देख, साज-श्रृंगार किये, अपनी दोनों बाहें फैला, स्वागत सा करने लगती है! ठीक वैसे ही!
"रात घिर जायेगी शिनि!" बोला वो,
"हूँ!" बोली धीरे से, कुछ बोलना नहीं चाहती थी, जैसे, कोई जवाब नहीं था उसके पास, बस ये हूँ, जैसे, औपचारिकता सी निभा, रिक्त-स्थान भर दिया हो बस!
"अभी तक नहीं आया हाशिम!" बोला वो!
"घबराओ मत! आ जाएगा!" बोली वो,
"इतनी अवेर?" पूछा उसने, हालांकि, आशंकाएं उसकी थीं, प्रश्न उसके थे, और उत्तर भी उसी के पास थे, फिर भी, उसने, न जाने क्यों पूछ था! शायद, हिम्मत सी बंधाई थी उसने शिनि की!
अब कुछ न बोली वो! वो, शिनि! कुछ न बोली, बस, नज़रें टिका दीं, दूर सामने, अब अँधेरा छाने लगा था, पेड़ पौधे अब डरावने से लगने लगे थे, वे भी बेचारे, रतौंधी से पीड़ित थे, रात में क्या दीखता उन्हें, बस, सुन ही रहे थे उनकी बातचीत!
वक़्त न ठहरता है, और न ठहरा! कोई रिश्तेदार नहीं उसका, न वो किसी का, कोई दोस्त नहीं उसका, न वो किसी का! वो तो अपनी निर्बाध गति से आगे बढ़ता चला जाता है! कोई मरे, जिए उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता! तब भी नहीं पड़ा, साँझ ढल चुकी थी, और साँझ अब दिन का दामन छोड़, रात के हाथ में सौंप कर दामन, दिन का, लौट चली थी अपने स्थान को! और रात! अब रात होने को ही थी! बस, अंतिम साज-श्रृंगार बाकी था, उसके बाद, बस, उसकी ही सत्ता थी! केवल उसकी सत्ता! उधर, शिनि, छाती से सर लगाये, आँखें बंद किये, चिपकी हुई थी उस जवान से! वो जवान, सहारा दिए, उसको अपनी भुजा में जकड़े, खड़ा था, लेकिन नज़रें अभी तक, उसी सुनसान रास्ते पर लगी थीं! अब आँखों का काम बाकी नहीं था, काम अब, कानों का शुरू हुआ था, कान, किसी भी आहट पर हरक़त करने लग जाते!
"शिनि?" बोला वो,
"हाँ?" बोली धीरे से, छाती से लगे लगे!
"यहां खुले में, ठीक नहीं ठहरना!" बोली वो,
"फिर?" पूछा उसने,
"वो जगह है न, चलो, वहां चलते हैं!" बोला वो,
चाँद अब शबाब पर थे! रात के स्याह वस्त्र पर, किसी बड़े से चमकदार शीशे की तरह से टंके हुए थे चाँद! वे भी, खूब चांदनी बिखेर रहे थे, शायद, जानते थे, इस प्रेमी जोड़े की कुछ मज़बूरियां! कुछ लाचारियां! कितनी गांठें खोल कर, इस अंजाम तक पहुंचे थे ये दोनों! क्या क्या नहीं किया था, कैसे कैसे नहीं किया था!
"आओ शिनि!" बोला वो,
वो, नीचे पड़ा कपड़ा उठाया, लादा घोड़े पर, रक़ाब ठीक की घोड़े की, काले रंग का घोड़ा था, बस, चांदनी में, उसकी परछाईं तो दीख जाती थी, वो खुद, बहुत ही कम! सुनाई देती थी, तो उसके नथुनों के फड़कने की आवाज़! और वो घोड़ा, सब से अनजान, बस, घास चरे जा रहा था, उसको जो काम दिया गया था, उसने तो बखूबी किया था! घोड़े को पकड़ एक हाथ से, और, दूसरे हतः से, उस शिनि का हाथ थामे, चल पड़े थे, उस इमारत की ओर, शायद, सर छिपाने की कोई जगह मिले, हो सकता है, तब तलक, हाशिम भी आ ही जाए!
हाशिम! हाशिम दोस्त था इस जवान का, जवान, जिसका नाम, भालचंद्र था! भाल और हाशिम, बचपन के दोस्त थे, दांत काटे की दोस्ती थी उनमे! लंगोटिया थे दोनों ही! ऐसा कुछ न था, जो छिपा था उनसे एक दूसरे का! आगा-पीछा सब! अंदर-बाहर, सब! इसीलिए भाल, परेशान था, की उसका दोस्त आखिर, अपने वायदे के मुताबिक़ अभी तक पहुंचा क्यों नहीं? पहुँच जाता, तो यहां से, अभी कूच कर जाते वो नजीबाबाद के लिए! और एक बार नजीबाबाद पहुँच जाते तो फिर कोई भय नहीं था, फिर कोई डर नहीं था! नजीबाबाद में, हाशिम ने ही सारा इंतज़ाम करना था, वो तो पहले से ही कर चुका था! चाहता भाल, तो चला भी जाता! लेकिन, दोस्ती के उसूल ने क़दम बाँध दिए थे उसके! दोस्ती के फ़र्ज़ ने, रोक लिया था उसे! और वो, अपनी ही नहीं, इस शिनि की जाना को भी दांव पर लगा कर, इंतज़ार कर रहा था अपने दोस्त हाशिम का! हाशिम के अब्बू हक़ीम साहब थे, और हाशिम खुद एक मुलाज़िम था, मुलाज़िम, क़ाज़ी साहब के यहां! और ये भाल, भाल एक व्यवसायी का बड़ा बेटा था! और शिनि, शिनि भी एक ऐसे ही व्यवसायी की बेटी थी, बड़ी बेटी! एक नज़र के खेल में, खेल खेला गया, खेल खेल में, खेल आगे बढ़ता चला गया, खेल में, नया खेल शुरू हुआ, और उस खेल में, खेल कुछ ऐसा हुआ, कि भाल और शिनि, खेलते चले गए, और आज, आखिरी खेल खेला गया था!
लेकिन, इस खेल का, अहम खिलाड़ी, वो हाशिम, वो कहाँ था? वो क्यों नहीं आया था अभी तक? हाशिम के इंतज़ार से बड़ा, और कोई इंतज़ार नहीं लग रहा था भाल को! वो शिनि को साथ बिठाए, एक पोटली खोल, भुनी हुई ज्वार और जई के दाने चबा रहा था, खुद खाता, और शिनि को, मुट्ठी भर के दे देता! बीच बीच में, जबड़ा रुक जाता उसके, उठता, पीछे देखता, अँधेरे को जैसे उसकी आँखें चीर देतीं! तसल्ली ही सही, उस वक़्त, तसल्ली से बड़ा कुछ नहीं था, कम से कम, बेचैनी से राहत तो मिल जाती थी! वो खड़ा होता, और टहलता, रुक जाता, और फिर से देखता, कान लगाता, अपना साफ़ा ठीक करता, तलवार, पकड़ लेता, घोड़ा उसका, थोड़ा दूर बंधा था, अब वो भी लेट गया था! आराम कर रहा था!
उस वक़्त रात के ग्यारह बजे होंगे, वे दोनों बैठे थे, संग संग, कुछ पलों में खोये हुए, कुछ पल, उनके अपने अपने!
"अब कल?" बोली शिनि, उसके घुटनों पर सर रखते हुए, उसने पूछा था, पूछा था, एक आशंका को, स्वीकार करते हुए, कि अगर हाशिम न आया तो?
"कल?" बोला भाल,
"हूँ?" बोली वो,
"कल, नजीबाबाद!" बोला वो,
अपने हाथों से, पिंडली कस्ते हुए उसने खड़े होने की कोशिश की, शिनि ने सर हटाया तो खड़ा हुआ, फिर से कुछ दाने, मुंह में फांके, और फिर से देखने लगा बाहर,
"वहीँ?" पूछा शिनि ने,
"हाँ!" बोला वो,
"उसके बाद?" बोली वो,
"हाशिम, मेरा दोस्त!" बोला वो, छाती सहलाते हुए अपनी!
मुस्कुरा पड़ी वो! जानती थी, हाशिम उसके जी का ठीक वैसे ही टुकड़ा है, जैसे कि वो खुद! यूँ कहा जाए, कि हाशिम और भाल को, अलग कर के, देखा ही नहीं जा सकता! एक जैसा खाना, एक जैसा रहन-सहन! एक जैसी सोच और एक जैसा ही अदम्य साहस! दोस्ती की एक अटूट मिसाल!
"वो ज़रूर आएगा!" बोली शिनि!
वो जानती थी! उसे मालूम था! अगर वायदा किया है हाशिम ने अपने दोस्त से, तो फिर उसे कोई नहीं रोक सकता! कोई नहीं है उसे रोकने वाला फिर! अपने दोस्त की खातिर तो वो, मौत से भिड़ जाये! और मौत को भी, एक बार को गच्चा दे दे! इसीलिए, उसे यक़ीन था, वो ज़रूर आएगा! वो आएगा, और ले चलेगा साथ उन दोनों को, जहां उसने, इंतज़ाम कर रखा है उन दोनों के लिए!
"हाँ! वो ज़रूर आएगा!" बोला भाल!
"आओ, बैठ जाओ!" बोली वो,
उस भाल की, घबराहट में, सेंध लगाते हुए!
"नींद आई हो, तो सो जाओ शिनि!" बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
भाल, फिर से देखने लगा सामने! कितना देखता और कितना दीखता! उस, दिल की तसल्ली के लिए, वो, वो सब करे जा रहा था जो उसके उस वक़्त ज़रा सी भी राहत की हवा देता! भाल के मन में, बेचैनी और गाढ़ी हुए जा रही थी, आशंकाओं के टीले अब पहाड़ बने जा रहे थे, लेकिन भाल, अभी तक, देख पा रहा था उनके पार! बार बार!
"सो जाओ शिनि!" बोला भाल,
"नींद नहीं आ रही!" बोली वो,
"सो जाओ, दिन भर की थकी हो!" बोला वो,
"आप नहीं थके?" पूछा उसने,
वो उठ खड़ा हुआ! हाँ! थका है! थका तो है, थका है उसका बदन! लेकिन उसकी आँखें, उसके कान, वो नहीं थके! वो अभी भी राह तक थे हैं, कान अभी तक, कुछ आहट सुन ने को जैसे तरस रहे हैं! लेकिन आहट हो कहाँ से? रात के पहरेदार, ये झींगुर, ये मंझीरे, कैसी ताल छेड़े हुए हैं! कुछ नहीं सुनाई दे पा रहा! ऐसा शोर कर रहे हैं! लेकिन फिर भी, आँखें, अभी तक लगी हैं, ठीक सामने! ठीक, जहाँ से, उसका दोस्त, उसका अज़ीज़ दोस्त, हाशिम आना है! कान, बिना थके, फ़र्क़ किये जा रहे हैं उन आवाज़ों में, जो चारों तरफ से आती हैं, कभी-कभार! लेकिन वो आवाज़, अभी तलक नहीं आई, जिसका उसे इंतज़ार है! कहा रहा गया हाशिम? घंटों होने को आये? क्या बात हुई? क्या हुआ उसके दोस्त के साथ? लम्हा, दर लम्हा, आशंकाओं के टीले, पहाड़ बनते जा रहे थे! लकेँ अभी तक, उनके पार, देख पा रहा था भाल!
एक मुट्ठी में बंधे, हुए वो दाने, ज्वार और जई के, मुंह में फांके उसने, दांतों ने पीसना शुरू किया उन्हें! कभी हाथ उसका, तलवार की मूठ पर जाता, कभी, नज़र उसकी, घुटनों पर सर रखे, शिनि की तरफ जाती!
शिनि की ये रात!
कैसी बीती है!
कैसी बीती है इस सुनसान में! इस उजाड़ में, इस टूटी सी हवेली में! यहां कुछ आता है, तो चांदनी, जो, अलग अलग झरोखों से, अंदर आ रही थी! कुछ आवाज़ें, ये जताने को, कि यही ज़िंदा हैं वो यहां!
"सुनिए?" बोली शिनि,
"हाँ?" आते हुए बोला वो,
"यहां बैठो?" बोली वो,
वो बैठ गया, देखा शिनि का चेहरा,
"हाँ?" बोला वो,
"आ जाएगा! हाशिम नहीं रुकने वाला!" बोली वो,
"जानता हूँ, उसे कोई नहीं रोक सकता!" बोला वो,
"तो फिर, ऐसी चिंता क्यों?" बोली वो, माथे से पसीना पोंछते हुए उस भाल के, अपने हाथ से!
चिंता!
हाँ! चिंता ही तो लगी है उसे! क्या हुआ उसके दोस्त के साथ? कहाँ रह गया? कैसे अकेला छोड़ दिया उसने उसे? कहाँ रह गया उसका वो अज़ीज़ दोस्त? क्या कीमत चुकानी पड़ेगी? कौन सी कीमत? ऐ इश्क़! मत ले मेरा इम्तिहान! मत ले! मैं टूट जाऊँगा! बिखर जाऊँगा! एक बात तो बता? तू, सभी का ऐसा इम्तिहान लिया करता है, या मेरे साथ ही कुछ ऐसा है? या मेरे नसीब में यही लिखा है? मेरी क्या हैसियत? क्या हैसियत कि कोई कीमत चुकाऊं?
खड़ा हो गया वो!
गले में दर्द सा हुआ!
वो चबे हुए दाने, मुश्किल से हलक़ में उतरे! नज़रें, फिर से कुछ टटोलने लगीं! दूर! सामने! कुछ नहीं दीख रहा था! कुछ भी नहीं! फिर भी, तसल्ली बहुत बड़ी चीज़ है! आज पता चल रहा था उसे! नज़रें कुछ देखें या न देखें, कान तो चौकस थे! कोई तो आहट हो? उसका वो दोस्त, हाशिम, कहाँ रह गया?
"सुनिए?" बोली शिनि,
"हाँ?" बोला, बिन पीछे देखे,
"प्यास लगी है!" बोली वो,
"हाँ, अभी!" बोला वो,
मुट्ठी में बचे दाने, फिर से मुंह में फांके! चला सामने, घोड़े की उतारी हुई रक़ाब तक, घोड़े ने पूंछ फटकारी अपनी! नथुने भी, उसे भी प्यास लगी थी! लेकिन सुबह से पहले, उसे न मिल सकता था पानी! उठायी उसने मुश्क़, सुतली खोली, खोला ढकना, और चला शिनि की तरफ! बैठा नीचे, उकडू, और बढ़ाया हाथ आगे!
"लो!" बोला वो,
हाथ आगे बढ़ाया शिनि ने, बनाई ओख, और पिलाता गया उसे वो, पानी! पी लिया उसने, तब दो घूँट, अपने हलक़ में उतार लिए! और पानी, रहने दिया, शिनि के लिए! पूरी रात बाकी थी अभी! उसे तो जागना ही था! हर हाल में! ऐसे नहीं, तो वैसे ही!
"सुनिए?" फिर से बोली शिनि,
"हाँ?" पलटा भाल,
"कल?'; बोली वो,
"कल?" पूछा उसने,
"हाँ, कल, कहाँ?" पूछा उसने,
"नजीबाबाद!" बोला वो,
"वहीँ?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोला वो,
"और, हाशिम?" पूछा उसने,
"हाशिम! वो आएगा, सुबह से पहले!" बोला वो,
"जानती हूँ!" बोली शिनि!
फिर से, हिम्मत बंधाई थी शिनि ने उसकी!
उठा वो, और मुश्क़, रख दी वापिस,
आया गया वहीँ, शिनि को देखा, मुस्कुराया!
"लेट जाओ शिनि!" बोला वो,
"अभी नहीं!" बोली वो,
"थक जाओगी!" बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
मुस्कुराया वो, नीचे बैठा, माथे पर हाथ फिराया शिनि के! शिनि ने, उलझन से भरी, एक नज़र डाली भाल पर! और हटा लीं नज़रें!
उठा भाल, और जा खड़ा हुआ, फिर से, वहीँ, बाहर, दूर, देखते हुए!
बारह का समय होगा, आज सुबह से ही, जैसे धर-पकड़ सी मची थी! यहां जा, वहां जा, ये कर और वो कर, इसे से बात कर, और उस से बात न कर, ये ऐसे, और वो वैसे, ये यहां और वो कहाँ! आदि आदि! पूरे बारह घंटे बीत चुके थे! लेकिन, इस सब में, इस सब खिचड़ी में, हाशिम, उसका दोस्त, एक साये की तरह से मौजूद था! हर लम्हे, हर जगह! भाल के साये से अपने साये को जोड़े रखा था हाशिम ने! और अब! पूरे बारह घंटे! पूरे बारह घंटे हो चुके थे इस तमाम लप्प-झप्प को बीते! हाँ, करीब दोपहर बाद से ही, हाशिम अलग हुआ था उस से! हाशिम न एही कहा था उन दोनों को वहां से जाने को! और ये ही, कि वो आकर, मिलेगा उन दोनों से, शाम के बाद! और तब, वो, कुछ सामान ले कर, चल पड़ेगा उनको लिए, अपने साथ, नजीबाबद के लिए! एक एक बात याद आने लगी भाल को! गलती तो कहीं नहीं की थी! कोई चूक भी न हुई थी? फिर? कहाँ रह गया उसका दोस्त, वो हाशिम?
"कहाँ है हाशिम तू?" पूछा मन ही मन!
हल्की सी खांसी उठी शिनि को, पलट के देखा भाल ने, जा पहुंचा उसके पास, बैठा, कंधे पर हाथ रखा शिनि के,
"क्या बात है?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" बोली वो, गला साफ़ करते हुए,
"बताओ?'' पूछा उसने,
"कुछ नहीं, शायद, धूल का धसका था!" बोली वो,
वो उठने को हुआ, तो घुटने पर हाथ रख, रोक दिया शिनि ने! तभी देखा शिनि को उसने! उस मद्धम रौशनी में, चमक रही थीं आँखें, वो सुंदर, गहरी सी आँखें!
"अब आराम कर लो!" बोली वो,
"आराम?" बोला वो,
"हाँ!" कहा उसने,
"तुम लेट जाओ, आओ, मैं कर लूंगा आराम फिर!" बोला वो,
और हाथ पकड़, उसने लिटा दिया शिनि को, वही, कपड़ा बिछा कर, सिरहाने, अपना साफ़ा रख दिया, सर को टेक देने के लिए उसके, उतार कर!
उठा, और जा खड़ा हुआ फिर से उधर ही, एक बड़े से पत्थर पर, बैठ गया, देखने लगा बाहर! घुप्प अँधेरा! और कुछ नहीं, बस, वो खिलती चांदनी!
कुछ गूंजने लगा कानो में उसके! कुछ आवाज़ें! शून्य को चीरती हुईं, केंद्र की तलाश में, आँखों से नज़र, चल पड़ी अंदर! और अंदर! और अंदर!
"पकड़! पकड़!" आई एक आवाज़ उसे!
"हट! हट!" एक और आवाज़!
तालियों की आवाज़!
देखने लगी थीं उसकी आँखें कुछ!
उस शून्य के बीच!
ताज़ा हो चला था वो दृश्य!
दंगल का मैदान!
लोगबाग! भीड़भाड़! हुजूम! दोनों ही पक्षों के प्रशंसक! एक दूसरे को, कुछ भला-बुरा कहते हुए! उछलते हुए! हाथ-पाँव चलाते हुए! शोर-शराबा मचा था! अलग अलग गाँव के लोग आये हुए थे! रंग-बिरंगे साफे पहने! साफ़ कपड़े पहने!
और तभी, किसी ने किसी को जकड़ा! एक पहलवान ने, दूसरे को जकड़ा! दी अड़ंगी! और दूसरा पहलवान चित्त! शोर आधा हो गया! लेकिन तेज भी! वाह-वाही गूँज उठी, लेकिन कुछ भद्दे शब्द भी! लोग छितर-बितर होने लगे, और कुछ उस मैदान में आ घुसे! आ घुसे तो मचाएं शोर! उस जीते हुए पहलवान को, अपनी बाजूओं में उठा लिया गया था! उठाने वाला, भाल चन्द्र और उठाये जाने वाला वो हाशिम! ये दंगल जीत लिया था हाशिम ने! लम्बा-चौड़ा जवान था हाशिम! चौड़े कंधे, चौड़ा सीना, चौड़ा चेहरा और पहलवानी जिस्म! अकेला ही चार-पांच पर तो भारी था ही! चल पड़ा था, भाल के संग हाशिम! बहुत खुश थे दोनों! हाशिम के और भी कई संगी-साथी, साथ चल पड़े थे उसके! वो नहाया-धोया, कपड़े पहने, और चल पड़ा था भाल चन्द्र के साथ! दोनों ने, उसी शाम बहुत मिठाई खायी थी! छक कर दूध भी पिया था दोनों ने!
सब याद आ गया था उसे!
और जैसे आहिस्ता से याद आया था, आहिस्ता से ही गायब भी होता चला गया! फिर से वही आलम! वही सन्नाटा! वही स्याह अँधेरा! वही टूटी हवेली! वही सब का सब! वो तस्सव्वुर था, ये हक़ीक़त थी! दोनों में बेहद बड़ा फ़र्क़ होता है!
एक लम्बी सांस!
जबड़े की पेशियाँ कस गयीं! आसमान को देखा! खुला आसमान! तारे, छितरे हुए बादल, वो चाँद, खिलता हुआ, और सन्नाटा चारों ओर बिखरा हुआ!
"सुनिए?" आई आवाज़,
वो हुआ खड़ा, पलटा, और चला शिनि के पास, बैठा,
"हाँ?" बोला वो,
"आराम कर लीजिये?" बोली वो,
सर हिला कर, हाँ कही उसने!
जूतियां उतार दीं अपनी, और बैठ गया संग उसके!
"क्यों बेचैन हो?" पूछा शिनि ने, हाथ पकड़ते हुए उसका,
"मेरा दोस्त............." बोला वो,
''आ जाएगा वो!" बोली वो,
फिर से, हिम्मत बंधाई!
फिर से उसने, हाँ में सर हिलाया,
"कब?" बोला वो,
"सुबह से पहले तक!" बोली वो,
"सच?" पूछा उसने,
"हाँ!" मुस्कुरा कर बोली वो,
एक लम्बी सांस छोड़ी उसने! पाँव, सीधे कर लिए!
"आ जा हाशिम!" बोला वो, आँखें मूंदते हुए!
''आ जाएगा!" बोली वो,
"हाँ, आएगा तो ज़रूर!" बोला वो!
"लेट जाओ!" बोली वो,
"अभी नहीं!" बोला वो,
"रात आधी ढल चुकी है!" बोली वो,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"तो, आराम कर लो!" बोली वो,
अब कुछ न बोला भाल! कुछ न बोला!
आराम? क्या होता है आराम? किसे कहते हैं आराम? कैसे हो ये आराम? वो बाहर है अभी, कहाँ है? क्या आराम से है? कहाँ है हाशिम? क्या कर रहा होगा? किसके साथ होगा? क्या मक़बूल के साथ? मक़बूल के बाग़ में? नहीं, वहां क्यों होगा वो? वहाँ, भला, क्या करेगा वो? नहीं नहीं! वो वहां नहीं जाएगा!
हाँ! वो बाग़! मक़बूल का बाग़! मक़बूल! जो हकलाता है बोलते हुए! उसको हकलू बोलते हैं वो सारे! सिर्फ वही! वही चार दोस्त! और कोई नहीं! चार, एक हाशिम, एक वो खुद भाल चन्द्र, एक वो गोविन्द और एक तौफ़ीक़! अब तौफ़ीक़ तो, जा ही बसा था मुरादाबाद में! हाँ, जब आता था तो उसी दिन ईद और उसी दिन दीपावली! ऐसे दोस्त हैं वो सारे!
वो बाग़!
मंजर, जवान होने लगा!
वक़्त की धुंध से बाहर आने लगा वो मंजर!
उस रोज, तौफ़ीक़ आया हुआ था! वे सभी, कोई ग्यारह बजे दिन में, मक़बूल के बाग़ में बनी कोठरी में बैठे थे! छाछ-मट्ठा छका जा रहा था! और गोविन्द! गोविन्द बेचारा खीझ पड़ा था!
"एक बार में ही बोल दो? एक बार में ही बतला दो कि फलां ले आ, ले आऊंगा! घुटने टिकने नहीं देते कि ये ले आ, वो ले आ, ये रह गया और वो रह गया!" बोला गोविन्द खीझ कर!
क्या ठट्ठे मार कर हसने थे वे सारे तब!
चला गया था गोविन्द! कुछ लाने के लिए बाहर! और वे चारों, उस गोविन्द का गिलास, छाछ से भर, एक तरफ रख दिया था, दोस्त था, छाछ नहीं मिलती तो वसूल ही लेता फिर अपने ही तरीके से! इसीलिए!
"और सुना तौफ़ीक़?" पूछा भाल ने,
"सब खैरियत! फ़ज़ल है अल्लाह का!" बोला तौफ़ीक़!
"और अम्मी-अब्बू, और वो, अरशी बहन और अमान छोटू, कैसे हैं सब?" पूछा भाल ने!
"मजे से हैं! तू सुना? अम्मा कैसी हैं? पिता जी? और बड़े भाई कहाँ हैं आजकल?" पूछा तौफ़ीक़ ने!
"सब बढ़िया हैं, बड़े है तो बनारस चले गए हैं, कभी-कभार ही आते हैं! बाकी सब बढ़िया है!" बोला भाल!
"भाभी जी, बच्चे उनके, यहीं हैं या बनारस?" पूछा तौफ़ीक़ ने,
"वहीँ है सब! ले गए संग!" बोला भाल!
"चल ठीक है! अपना होली-दीवाली आ जाओ, और क्या!" बोला तौफ़ीक़!
"हाँ, सही है यही!" बोला भाल!
"अरशी के ब्याह की क्या तैयारी है?" पूछा हाशिम ने,
"चल रही है!" बोला वो,
"ओये हकलू?'' बोला भाल, मक़बूल से!
"हाँ?" बोला वो,
"अबे कुछ मंगा ले, फल वग़ैरह!" बोला भाल!
"अबे हाँ! बाग़ में खाली बिठा रखा है ओ हकलू!" बोला हाशिम!
हकलू चला दांत दिखाता हुआ बाहर! और गोविन्द आया अंदर! रख दिया कुछ सामान उसने नीचे! तौफ़ीक़ ने, वो छाछ का बड़ा सा गिलास, उठा कर दे दिया गोविन्द को! गोविन्द ने पकड़ा और बैठ गया संग ही उनके!
"गोविन्द?" बोला तौफ़ीक़!
गिलास हटाया मुंह से, आँखें बड़ी करते हुए देखा तौफ़ीक़ को!
"हूँ?" बोला गोविन्द!
"थका तो ना है?" पूछा तौफ़ीक़ ने,
"अब नहीं जाऊं कहीं!!" बोला गोविन्द हाथ हिलाते हुए!
वो सभी, बुक्का फाड़ हँसे!
"कहीं ना भेज रहे यार!" बोला तौफ़ीक़!
"भेज के तो देख?" बोला गोविन्द!
फिर से हंस पड़े तीनों ही!
"तू तो यार शेर है हमारा!" बोला हाशिम, कंधे पर हाथ मारते हुए उस गोविन्द के!
"शेर भी थकै है भाई हाशिम!" बोला गोविन्द!
"ऐसा? ले फिर, आने दे हकलू को!" बोला हाशिम!
गिलास ख़त्म कर लिया था गोविन्द ने अपना! मुंह पोंछा अपने कुर्ते से ही!
"और सुना? तेरे ब्याह की क्या रही?" पूछा तौफ़ीक़ ने!
"इसका न हो ब्याह!" बोला हाशिम!
"क्यों जी?" पूछा तौफ़ीक़ ने, गोविन्द से ही!
"पता ना!" बोला अनजान सा गोविन्द!
"क्यों हाशिम, क्यों न हो ब्याह हमारे शेर का?" पूछा तौफ़ीक़ ने!
"अभी बताया तो?" बोला भाल!
"कब?" पूछा तौफ़ीक़ ने!
"अभी!" बोला भाल!
"साफ़ साफ़ बोल यार!" बोला तौफ़ीक़!
"शेर भी तो थकै! बोला न ये!" बोला भाल!
इतना कहना था कि हंसी का ठट्ठा गूँज पड़ा! तौफ़ीक़ तो हँसते हँसते खड़ा हो गया! हाशिम, ने हाथ पकड़ लिया भाल का! भाल ने टेक ली चारपाई की! और वो गोविन्द! वो भी हंस पड़ा!
"तुम्हारी ****! मज़ाक तो सही किया करो!" बोला गोविन्द! हँसते हुए!
"है या ना! तौफ़ीक़?" पूछा भाल ने!
"सच्ची बात है!" बोला तौफ़ीक़!
"तुझे देख लेंगे!" बोला गोविन्द!
"मुझे?" पूछा तौफ़ीक़ ने,
"हाँ, तू थकै है या ना!" बोला गोविन्द!
"ऐसी बात?" बोला भाल!
"अरे ना यार!" बोला तौफ़ीक़!
तभी आ गया हकलू अंदर! फल ले आया था बाँध कर! सभी को हँसता देख, वो भी हंसने ही लगा!
"अबे करा दो कोई बारात! छड़े-छाड़ ही रहोगे क्या? मेरी तरह!!" बोला तौफ़ीक़!
"हकलू?" बोला हाशिम,
"हूँ?" बोला वो,
"ब्याह करेगा?" पूछा हाशिम ने!
हकलू मुस्कुरा पड़ा! दांत दिखा दिए फिर से!
"तौफ़ीक़?" बोला भाल!
"हाँ?" बोला वो,
अब तक, केले खा चुके थे वो कई, और खा रहे थे!
"कोई ढूंढ यार, वहीँ मुरादाबाद में?" बोला भाल,
"इसके लिए?" पूछा हकलू की तरफ इशारा करते हुए,
"हाँ! कोई हकली ढूंढ यार!" बोला भाल!
फिर से हंसी छूट पड़ी सभी की! हकलू भी हंस पड़ा!
और वो हंसी, वो हंसी, अभी तक गूँज रही थी, कानों में! गूँज पड़ी थी! वो सभी दोस्त! वो मंजर! वो वक़्त! सब जैसे किसी पर्दे की मानिंद बार बार आ, लहरा जाता था आँखों के सामने! वो हंसी, फिर धीरे धीरे, गर्द खाने लगी! वक़्त की गर्द! फिर से, गर्द के कोहरे से, ढकती चली गयी! और, भाल की नज़रें, दूर, किसी का इंतज़ार करती हुईं, सामने देखने लगी थीं!
अपनी उन्हीं यादो ने बसा हुआ, भाल चन्द्र, मुस्कुराहट के सतह, देखे जा रहा था, उस अनंतता की ओर जहाँ पूर्वी क्षितिज था! वहीँ था उसका वो दोस्त हाशिम! यही तो वो, खंडहर सी हवेली थी? यहां, कोई और तो है नहीं? आसपास, नज़रें घुमा कर देखा, ना! कुछ नहीं! बस वही एक टूटी सी हवेली थी यहाँ! आसपास, दूर दूर तक, और कुछ नहीं, हाँ, कुछ एक गाँव थे, लेकिन वो तो दूर थे, और नजीबाबाद का रास्ता तो यहीं से हो कर गुजरता था, यही वो हवेली है तो फिर, उसका वो दोस्त हाशिम कहाँ है? सबकछ तो सही था? जैसा सोचा-समझा गया था, ठीक वैसा ही तो किया गया था? चूक की तो कहीं कोई गुंजाइश थी ही नहीं? ये अजीब सी हलचल क्यों मची है दिल में? क्यों आँखें, आज ज़्यादा ही चौकस हैं? क्यों साँसें, आज बेकाबू सी हैं? क्यों आज, ऐसे बद-ख़यालात, घेरे हुए हैं दिमाग को? क्या वजह है? क्यों सुकून नहीं है आज उसे? उसे, मिल तो गया वो, जिसकी उसको तमन्ना थी! वो, वहां लेटी तो है? सबकुछ किया था उसने, शिनि के लिए! संग हमेशा था वो, हाशिम, उसका अज़ीज़ दोस्त! उसके जी का टुकड़ा! उसके ईमान का साझीदार! उसका वो, क़ाबिल-ओ-फ़ाज़िल यार! तो फिर क्यों, वो कंकड़, आज चट्टान सरीखे लग रहे हैं? क्यों, फ़िक़्र के वो मुलायम से टीले, आज ना छेदे जाने वाले पहाड़ जैसे लगने लगे हैं? क्यों ये रात, इतनी लम्बी हो गयी है? क्यों शर, इतनी दूर खड़ी है? क्यों? क्या वजह है इसकी!
"सुनिए?" आई आवाज़,
वो उठा, और चला उस तरफ! बैठा नीचे, उकडू!
"हाँ?' बोला वो,
"जाग रहे हो?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोला वो, धीमे से!
"अभी तक?" पूछा उसने,
"हूँ!" बोला वो,
"सो जाओ अब?" बोली वो,
"नींद नहीं आ रही!" बोला वो,
"लेटोगे तो आ जायेगी!" बोली वो!
"नहीं लेटा जा रहा!" बोला वो,
कुछ देर चुप्पी!
न वो कुछ बोली,
और न वो कुछ बोला!
उठने को हुआ, तो रोका उसे,
"हाशिम?" पूछा उसने,
'ह...हाँ!" बोला वो,
"आ जाएगा!" बोली वो,
फिर से ढांढस!
फिर से, हौंसला-अफ़ज़ाई!
"पानी पियोगी?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोली वो,
वो थोड़ा पीछे खिसकी, थोड़ी जगह बनी, हाथ रखा अपना उधर! जैसे, साफ़ किया हो, हाथों से अपने, वो बिछा हुआ कपड़ा!
"आओ! लेट जाओ!" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"थक ना जाओगे?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोला वो,
अब वो उठी, बैठ गयी, आगे आई थोड़ा, रखा एक हाथ, उस भाल चन्द्र के चेहरे पर, चेहरे, तपा हुआ था! ये फ़िक़्र का ताप था! रगों में दौड़ता लहू, गरम हो चला था उसका!
"इतनी चिंता क्यों?" पूछा उसने,
"मेरा दोस्त........हाशिम..........!" बस, इतना ही बोल सका वो!
इस से आगे नहीं, आँखें डबडबा गयीं उसकी! आवाज़, गले में क़ैद हो गयी, नज़रें नीचे हो गयीं, शिनि सब भांप गयी! और तब ही, उसका चेहरा लगा लिया अपने कंधे से! तब! तब सब्र टूट चला! आशंकाओं के टीले ढह चले! सैलाब बह चला! बुक्का फाड़ फाड़ रोने लगा भाल चन्द्र!
"मेरा दोस्त! मेरा दोस्त हाशिम!" रोये जाए, और बोले जाए!
"कुछ नहीं होगा उसे!" अपनी, टूटी सी आवाज़ में, शिनि, उसकी हिम्मत बढ़ाये!
"उसे कुछ हो गया है, हो गया है शिनि!" बोले जाए! बार बार!
"नहीं! नहीं! उसे कुछ नहीं हो सकता! देखा नहीं, वो तो अकेला ही दस दस पर भारी है, और जब तलवार हाथ में हो, तो एक टुकड़ी साफ़ कर दे वो! देखा नहीं?" बोली शिनि, हिम्मत बंधाते हुए!
शिनि!
कब तक!
कब तक बँधायेगी तू हिम्मत! कब तक! जानती तो तू भी है! आशंकाओं में तो तू भी घिरी है! तू क्यों नहीं सोयी अभी तक? कब तक, शिनि! कब तक!
"उसे कुछ होना नहीं चाहिए! नहीं होना चाहिए!" बोला सुबकते हुए वो!
"नहीं होगा! कुछ नहीं होगा!" बोली शिनि!
"नहीं छोड़ूंगा! किसी को नहीं छोड़ूंगा! खून पी जाऊँगा एक एक का! शिनि, खून पी जाऊँगा मैं एक एक का! मेरे दोस्त को एक खरोंच भी आई, तो खून बहा दूंगा! एक एक का खून बहा दूंगा शिनि! मेरा दोस्त! हाशिम! हाशिम!" इस बार गुस्से से बोला था वो! फड़कते हुए! देह कस गयी थी उसकी!
"कुछ नहीं होगा उसे! देख लेना!" बोली शिनि!
हटा वो,
हटाया चेहरा, पोंछे शिनि ने आंसू उसके! और फिर, अपने भी!
"आ जा हाशिम! आ जा!" बोला वो! फिर से रो कर!
"मत जी भारी करो! मत करो! आ जाएगा वो!" बोली वो,
उठा वो!
पोंछे, आस्तीन से अपने आंसू!
म्यान से निकाली तलवार! और जाँची उसकी धार! दुधारी थी, भारी! एक ही बार में, कमर, उतार दे देह से! जाँची, और वापिस रख ली म्यान में! जा खड़ा हुआ! वहीँ! अँधेरे में तकता हुआ!
"आ जाएगा वो!" बोली शिनि!
अब कुछ न बोला वो!
"सुनिए?" बोली वो,
एक बार! दो बार! तीन बार!
देखा भी नहीं उसने! बस, बाहर देखता रहा!
उठना पड़ा शिनि को! उठी, और गयी उसके पास! सटा लिया अपना सर, उसको बाजू से! नहीं देखा भाल ने! वो तो, एक मूरत सी बन, किसी उधेड़बुन में लगा था!
"आधी रात घिर आई, है न?" बोली वो,
"हाँ!" अब बोला वो,
"आधी बाकी है!" बोली वो,
"हाँ!" कहा उसने,
"सुबह, हाशिम के आते ही, निकलना होगा, है न?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोला वो,
"क्या कहा था हाशिम ने?" पूछा उसने,
"तू ले जा, वहां, उस हवेली तक, इंतज़ार करना, मैं आऊंगा, तेरे पीछे पीछे! घबराना नहीं, मैं हूँ तेरे पीछे! जा! इंतज़ार करना मेरा! मैं, ज़्यादा वक़्त नहीं लूँगा! फौरन आऊंगा!" बोला वो, अब देख कर, शिनि को!
"तब तो ज़रूर आएगा वो!" बोली शिनि!
"हाँ!" बोला वो,
"तो घबराते क्यों हो?" पूछा शिनि ने,
अब कोई जवाब नहीं था उसके पास! क्यों घबरा रहा है, नहीं जानता था वो! क्यों डर रहा है? नहीं पता था उसे!
वो घबरा रहा है, क्यों घबरा जाता है इसका कोई जवाब नहीं था उसके पास! जवाब था, तो दूर कहीं! जवाब, जो अभी तक भी नहीं पहुंचा था उसके पास! आँखों आँखों में ही, रात कटे जा रही थी, फ़िक़्र की तूती बोल रही थी, चिंताओं का डंका बजे जा रहा था, लेकिन सामने! सामने घुप्प अँधेरा! बियाबान! बंजर सी ज़मीन! बस, चाँद, वही संग थे, अपनी चांदनी से अटोल-टटोल लेते थे उन दोनों को! जो उस, टूटी हवेली में, उस रात, पनाह लिए हुए थे! भाल चन्द्र! फ़िक़्र उसे, सुबह की नहीं थी, फ़िक़्र थी, तो अपने दोस्त की! उसने तो वायदा किया था! और हाशिम, हाशिम तो अपने वायदे का पक्का है! ज़ुबान का पक्का है! और फिर, हाशिम, हाशिम का तो, सबसे गहरा दोस्त है भाल चन्द्र! ऐसा क्या है, जो छिपा था उनके बीच? नहीं तो, कुछ भी नहीं! भाल के घर खूब आना-जाना था उसका, वो संग ही घर में खाते-पीते, एक दूसरे को सुनते-सुनाते! और भाल, भाल भी तो उसके यहां जाता ही रहता था, ईद वग़ैरह पर तो फ़ुरसत ही न मिलती उसे! सारा दिन सर पर तक़िया ओढ़े, वहीँ रहता! मेहमान-नवाजी में मशग़ूल रहता! पेट भर के खाता! छक कर दूध पीता! हंसी-ठट्ठा करता! हाशिम के अब्बू-अम्मी से देर तलक बातें करता! उनके घर का सदस्य ही तो था वो! और फिर, सभी दोस्त आ धमकते! गोविन्द, तौफ़ीक़ वग़ैरह सब! ऐसे ही तो मनाये जाते तीज-त्यौहार! क्या होली और क्या दीपावली! भाल का घर भरा रहता! कई कई बार पकवान बनाये जाते! गोविन्द हो हड़काया जाता, वही थालियां भर भर, पकवान सजाता और लाता! फिर गोविन्द के घर! खीर बढ़िया बनाती थीं गोविन्द की माँ! सभी टूट पड़ते! हाशिम तो लड़-लड़ कर खाता! वे सभी, अलग अलग मनके थे, अलग अलग! लेकिन माला एक ही थी! एक दूसरे से जुदा नहीं थे! एक भी न दिखे, तो सभी बेचैन हो जाते थे! दौड़ लगा देते थे उसके घर के लिए! क्या वक़्त था वो! क्या वक़्त!
और एक ये! ये सुनसान! बीहड़! कोई नहीं यहां! बस वो दो! और कोई नहीं! वो रास्ता, वो भी सुनसान! बैठा हुआ, यही सब सोचे जा रहा था भाल!
"जाओ, लेट जाओ शिनि!" बोला वो,
"आप भी आराम कर लो?" बोली वो,
"कर लूंगा! जाओ!" बोला वो,
ना गयी! तब, वो, पकड़ कर उसे, ले गया वहां तक, बिठाया और लिटा भी दिया! लेकिन शिनि, आँखें नहीं बंद कीं उसने! कैसे करती! भाल जो जागा था अभी तक! भाल में तो ही प्राण बसा करते थे शिनि के!
और फिर, शिनि को याद आया वो दिन!
वो बाज़ार! बाज़ार में, वो बड़ा सा पीपल का पेड़! पीपल के पेड़ के नीचे खड़ा वो तांगा! लोगों की आवाजाही! साँझ से पहले का वक़्त था वो! अपने गाँव जा रही थी शिनि! सतह में, एक चचेरी बड़ी बहन और उसके बाल-बच्चे थे, और उसकी माँ! तांगा भी गाँव का ही था, गाँव के ही ग़फ़्फ़ार मियाँ का! वही लिए जा रहे गाँव उन्हें! कुछ सामान-सट्टा खरीदा गया था, कुछ घरेलू सामान भी! अब बाज़ार में आये ही थे, तो सभी कुछ न कुछ ले ही रहे थे, बालकों को फल मिल गए थे!
और इस तरह, ग़फ़्फ़ार मियाँ ने, बढ़ा दिया था तांगा आगे! भीड़ में से रास्ता बनाते हुए, उनका तांगा आगे बढ़ता चला जा रहा था! ग़फ़्फ़ार म्यान के मुंह से, 'हओ-हओ, हट्ट, एह!' की आवाज़ें निकल रही थीं! ऐसा लग रहा था कि जैसे घोड़ों की ज़ुबान सीख ली हो उन्होंने! थोड़ी ही देर में, टांग, आबादी से दूर होता हुआ, चल पड़ा था आगे आगे! टाँगे से, चर्र-चर्र की आवाज़ें आती रहीं! हिचकोले खाते हुए, सभी बढ़ते चले जा रहे थे आगे! गाँव तो अभी दूर था! शिनि, सर ओढ़े, कनखियों से, बाहर देखे जा रही थी! खूबसूरत नज़ारा था वहां का! दूर-दराज! कायनाती हरा रंग! छोटे छोटे से बने, खेतों में झोंपड़े, दूर सर उठाये हुए, मस्जिदों के मीनारी-मस्तक! मंदिरों के गुंबद! तांगे आते, गुज़रते साथ से और चले जाते! कहीं कहीं रास्ते को, बड़े बड़े पेड़ घेर लेते! ताल-तलैय्या में लेटे हुए, मवेशी और पास ही बैठे उनके चरवाहे! फिर और आगे चले, एक पुराना सा पुल आया, वो पार किया, संकरा सा पुल था वो, तांगा, आराम से चलता रहा, पुल पार हुआ, और ढलान पर, घोडा दौड़ पड़ा! हिचकोले बढ़ते चले गए! बालक खुश! लेकिन शिनि, तांगे की लकड़ी से बनी उस दीवार को थामे, अपने आप को संभाले रही! ढलान खत्म हुई तो घोड़ा फिरसे अपनी मस्तानी चाल में लौट आया!
घंटा बीता, और तांगा चलता रहा, एक जगह, सड़क किनारे, तांगे ने थोड़ी सी करवट ली, तांगा झुका, गफार मिया ने घोड़े से मेहनत-मशक़्क़त की! और इस तरह, तांगे के एक पहिया, कीचड़ में, जा घुसा! सभी आनन-फानन में उत्तर गए! बालकों को उतार लिया, ग़फ़्फ़ार मियाँ ने एड़ी-छोटी का ज़ोर लगा दिया! घोड़े ने खूब खींचा पहिया, पहिया, निकले, फिर से धंस जाए! मियाँ ग़फ़्फ़ार अकेले! आसपास कोई ना! किसको बुलाएं! अब तो कोई गुजरे, तो ही मदद करे! वक़्त बीता जाए! बार बार कोशिश करें वो! लेकिन पहिया, जैसे ज़मीन ने पकड़ लिया था अंदर ही अंदर!
आसपास देखा! कोई नहीं! पीछे देखा, कोई आ रहा था, कोई, दो घुड़सवार से दीख रहे थे, वही बढ़े चले आ रहे थे! मियाँ ग़फ़्फ़ार, रास्ते के बीचोंबीच जा खड़े हुए! और वे घुड़सवार, धीरे धीरे चलते चले आये उधर तक, तांगे का पहिया फंसा था, ये तो समझ ही गए थे! घोड़े एक तरफ किया, और कूद आये नीचे! लगामें, घोड़ों पर ही टांग दीं, आये ग़फ़्फ़ार मियाँ की तरफ!
"पहिया फंस गया है!" बोले ग़फ़्फ़ार मियां!
"अभी देखते हैं!" बोला एक, ये ही हाशिम था!
चले तांगे की तरफ! देखा उस! किया मुआयना!
"भाल?" बोला हाशिम,
"हाँ?" पूछा भाल ने,
"ज़रा धक्का लगा यहां से?" बोला हाशिम!
"अच्छा!" बोला भाल,
और हाशिम ने तब, पहिये की डंडियां पकड़ीं! धक्का लगाया भाल ने! थोड़ी सी मेहनत और, घोड़े ने फिर रहा-सहा काम भी कर दिया! निकल गया पहिया बाहर!
"लो चचा!" बोला भाल!
"जीते रहो बेटे!" बोले चचा!
"कोई बात नहीं चचा! बालक हैं छोटे छोटे, वक़्त से घर पहुँच जाएँ, और क्या!" बोला हाशिम!
"हाँ, हम तो पहुंच लिए होते अब तक! यहीं अटक गए!" बोले चचा!
"यहीं है गाँव आपका?" पूछा भाल ने,
"हाँ, पास में ही!" बोले वो,
"अच्छा! फिर तो, ये गाँव कहाँ पड़ेगा, ज़रा बताओ?" पूछा भाल ने,
नाम बताया चचा को भाल ने, और चचा मुस्कुराये!
"यही तो गाँव है अपना!" बोले वो,
''अच्छा?" बोला हाशिम,
"हाँ! यहीं जाओगे?" पूछा चचा ने,
"हां, यहीं जाना है!" बोला भाल!
"तो आ जाओ पीछे पीछे!" बोले चचा!
और चढ़ने लगे सब तांगे में! और जैसे ही शिनि चढ़ने लगी, उसकी कोहनी लगी, छाती में भाल के! भाल को कुछ न हुआ, लेकिन, एक पल में, पल! उस पल में, आँखें जा मिलीं भाल से शिनि की! भाल ने उसको देखा था! पल्लू ओढ़े, माथे और भौंहों पर छलछलाई हुई पसीनों की बूँदें! कजरारी, बड़ी सी आँखें! जा मिली थीं भाल से! उस नज़र ने, पेश-ए-नज़र कर दिया था कुछ! क्या? ये तो बस, आँखों की ही भाषा है! आँखें ही जानें! लिखा जा सकता नहीं, बताया जा सकता नहीं! आँखें ही पढ़ें और आँखें ही बताएं! उस पल में ही, भाल के अंदर, एक लहर सी दौड़ आई! उसने, नज़रें हटा ली थीं, लेकिन वो, वो पल नहीं भूल पा रहा था!
"आ जाओ!" आई आवाज़ चचा की!
शिनि भी बैठ चुकी थी, तांगा चल पड़ा आगे आगे! आगे चला तांगा, तो वे दोनों भी सवार हुए! उनके घोड़े, उचकते हुए बढ़ने लगे आगे! तांगा आगे आगे, और वे पीछे पीछे! फांसला कम हुए जा रहा था, टांगें और उन दो घोड़ों के बीच! सर झुकाये, शिनि, हाथों से पल्लू पकड़े, बैठी थी! और भाल, चोरी चोरी, नज़र भर लेता था शिनि की जानिब! कभी कभी!
तांगा अपनी गति से आगे बढ़ता चला जाता, और पीछे पीछे, उनके घोड़े, अपनी ही चाल में, आगे बढ़ते चले जाते! दोनों अपने अपने घोड़ों पर सवार हुए, आसपास के नज़ारों पर नज़र डालते! लेकिन हाल, उसकी तो हर नज़र जैसे, उस शिनि पर ही ख़त्म होती थी! और शिनि, सच पूछो तो, सब जान रही थी, कि कौन उसको अपनी नज़रों में समाये हुए है! कौन खेल रहा है उसके चौकस बदन से! उस पल्लू की आड़ में से, कभी कभी, नज़र जा भिड़ती भाल से, भाल और उसकी नज़रें लड़ बैठतीं आपस में! उलझ जाया करतीं, उलझ जातीं, तो अपनी अपनी नज़रों में खींचाकशी होती! ये सब बस, एक पल के सौंवें हिस्से में ही हो जाता! कोई एक होता चित! और अब तक तो, कई बार चित हो चुकी थी शिनि! नज़रें जो ना थामे ठहर सकती थी! या तो सर घुमा लेती, या नज़र बचा लेती, या कोई धचकी, इसमें मदद करती उसकी!
और इस तरह, करीब चालीस मिनट गुजर गए! सामने, गाँव अब दिखने लगा था, बाग़ लगे थे आसपास, खेतों में फसल लगी थी! कुछ लड़कियां और औरतें, चारा आदि इकट्ठा कर रही थीं, जिस किसी की भी नज़र, उन दोनों पर पड़ती, ठिठक कर रह जाता वो! या तो कोई रसूखदार ही हो वो, या फिर कोई सरकारी मुलाज़िम या कारिंदा! और गाँव में सरकारी मुलाज़िम आये, तो ये उस वक़्त बड़ी, एक बड़ी बात थी! गाँव की तरफ आते और जाते लोग, उनको देखते थे नज़रें बचा बचा के! खैर, तांगा रुका, और आगे बढ़े वे दोनों, एक दाए से, और एक बाएं से!
"बदरी प्रसाद का गहरा कौन सा है?" पूछा हाशिम ने,
बद्री प्रसाद अपने ज़माने में, एक सेठ की हैसियत रखता था, बड़ी अच्छी बिसात थी उसकी उस वक़्त! अमूमन, वहां का तो हर निवासी तो जानता ही था, दूसरे गाँवों वाले भी जानते थे उसको! तो टाँगे वाले ने सब बता दिया उन्हें, चचा ने! बल्कि उन्होंने तो खुद चलने को कही साथ में, वे दोनों भी राजी हो गए! तांगा आगे बढ़ चला, और तब घर आया उस शिनि का, वो, उतरने लगी टाँगे से, अपनी बहन का हाथ पकड़, पीछे खड़े थे वो दोनों! भाल की निगाहें, झटपट में, टटोल रही थीं शिनि को!शिनि, उतर चल, चल पड़ी अपने घर में जाने के लिए, वो एक बड़ा सा फाटक था, उसको जैसे ही पार किया, पीछे देखा, और तब! भाल से मिली नज़रें! भाल, बिन मुस्कुराये न रह सका, एक हल्की सी मुस्कान ने, फैला लिए थे उसके होंठ! और वो शिनि, चोट खायी बटेर से, दौड़ पड़ी अंदर!
तब चचा के साथ, वे दोनों ही बढ़ चले आगे! चचा ने छोड़ा उन्हें सेठ के घर तक, वे गए वहां, बातें हुईं, और इसी में, करीब डेढ़ घंटा लग गया, और ठीक डेढ़ घंटे के बाद, वे लौट पड़े वापिस! वापिस चल रहे थे, धीरे धीरे! आये उसी रास्ते पर, जहाँ, शिनि का घर था! नज़र, दौड़ कर, जा पहुंची उस घर तक! रुक गयी!
"भाल?" बोला हाशिम,
"हाँ?" बोला भाल, चौंक पड़ा था, खोया हुआ था, नज़रों के खेल में!
"सामने देख?" बोला हाशिम,
"कहाँ?" पूछा भाल ने,
"वो घर!" बोला हाशिम, मुस्कुराते हुए!
समझ गया भाल! पकड़ी गयी थी चोरी उसकी! पकड़ लिया था हाशिम ने उसे! मुस्कुरा पड़ा भाल भी, हाशिम को देखते हुए! लेकिन उस घर का फाटक बंद पड़ा था! आसपास था ही नहीं कोई! खूब टटोला भाल ने, और इस तरह, घरके सामने से, पार होते चले गए वो!
"हूँ?" बोला हाशिम,
"हाँ?" देखा भाल ने,
"रुक!" बोला हाशिम!
रुक गया भाल!
"आगे चल!" बोला वो,
"आगे?" बोला भाल,
"हाँ, चल तो सही!" बोला हाशिम, मुस्कुराते हुए!
आगे निकला भाल, पता नहीं, क्या देखा था हाशिम ने! चल पड़ा आगे,
"सीधा चल!" बोला हाशिम,
और अब, करीब आ गया था भाल के!
"हुआ क्या था?" पूछा भाल ने,
"रुक!" रुक गया वो,
"वो देख, वहां!" बोला हाशिम,
ये तो शिनि थी! अपनी किसी सखी के साथ, एक अनार की सी बगिया थी वो, वहीँ खड़ी थी, लेकिन देख नहीं रही थी उधर!
"वही है न?" पूछा हाशिम ने,
"हाँ!" बोल गया, खोया हुआ था भाल!
"आ फिर!" बोला वो,
"अरे?" चौंक कर बोला भाल!
"आ तो सही?" बोला हाशिम,
और चल पड़ा आगे आगे अब, धीरे धीरे! पीछे देखा, इशारा किया भाल को आगे आने के लिए, अब लगाई एड़ भाल ने, और चल पड़ा आगे, धड़कते दिल से! हाशिम आगे आगे, पीछे पीछे वो, भाल! वो लड़कियां, वहीँ खड़ी थी, जैसे ही घोड़ों के खुरों की आवाज़ें सुनीं, चौंक पड़ी, झट से पल्लू संभाल लिए अपने अपने! आसपास, और भी कई महिलायें थीं वहां, अपने अपने कामों में लगी हुईं!
रुका हाशिम!
रुका भाल भी!
"सुनिए?" बोला हाशिम!
भाल, चौंके!
लड़कियां, न सुनें!
ज़मीन को ही देखें!
"सुनिए? ये हकीमपुर के लिए कौन सा रास्ता जाएगा?" पूछा हाशिम ने,
एक ने इशारा किया, एक रास्ते की तरफ!
"वो वाला?" पूछा हाशिम ने,
सर हिला कार, हाँ कह दी लड़की ने!
और शिनि, कमर दिखाए, आगे ही देखती रही! देखा ही नहीं पलट कर! भाल, इस इंतज़ार में, की का पलटे और कुछ हांसिल कर, लौट पढ़ें वो फिर वापिस, अब तो दिन भी ढलने को ही था!
"वही जाएगा न?" पूछा हाशिम ने,
फिर से सर हिलाकर, हाँ कही!
"आओ!" बोला हाशिम!
और भाल, नज़र बांधे उस शिनि पर.....इंतज़ार में.......
"सुनिए?" आई आवाज़!
उस मंजर से वापिस लौटा भाल!
पहली बार, शिनि को देख, मुस्कुराया वो! मंजर में अभी भी, झाँक रहा था वो, उस वक़्त के! हौले से, पलटा, और चला शिनि की तरफ!
"हाँ?" बोला वो,
"पानी!" बोली वो,
बैठ गयी थी उठ कर,
"हाँ, देता हूँ!" बोला वो,
चला मुश्क़ लेने! खोला उसे, और ले आया वापिस शिनि के पास! बैठा, और पिलाने लगा पानी, उसे ओख से, पिला दिया पानी, दो घूँट उसने भी पिए! बाँध दी मुश्क़ उसने!
"सुबह होने को है?" पूछा शिनि ने,
"हाँ, ज़्यादा देर नहीं!" बोला वो,
"हाशिम आने वाला होगा?" बोली शिनि!
"हाँ, आएगा वो!" बोला वो,
"हाँ!" बोली शिनि,
तब, शिनि के माथे से, बाल ठीक किये उसने! हाथ फेरा माथे पर! उठा, वो चल पड़ा, रखने मुश्क़ को!
"फिर तो सीधा वहीँ?" बोली शिनि,
"हाँ, फिर यहां क्या करना?" बोला भाल!
चुप फिर शिनि!
तमाम रात! उस सजती गरमी में ही कट चली थी! इंतज़ार एम, हाशिम के इंतज़ार में! सुबह होती, तो कुछ खबर मिलती, उम्मीद ही नहीं यक़ीन था दोनों को, कि हाशिम, ज़रूर ही आएगा सुबह तक!
सारी रात, आँखों में ही कट गयी, इतनी फिक्र, इतनी चिंताएं, ऐसी आशंकाएं, आज तलक कभी न झेली थीं, तमाम, गुजरी ज़िंदगी में भी, सारी रात, डर, डराता रहा, सारी रात, दिमाग पत्थर बना रहा, सारी रात, रात ही घिरी रही जी में! सारी रात, स्याह ही रखी ख्यालों में! क्या हाउ? क्या हुआ हाशिम को? उसका जीदार, दिलदार, क़ौल का पक्का, उसका वो दोस्त, हाशिम, कहाँ रह गया था? एक पल को भी, चैन नहीं मिला था! एक पल को भी, कमर नहीं टिकाई थी! और एक पल को भी, उस स्याह अँधेरे से, नज़रें भी नहीं हट पायी थीं! कभी शिनी को देखा भाल, और कभी दूर, पूर्वी क्षितिज पर! अँधेरा! दोनों तरफ ही अँधेरा! शिनि, लेके उसको जाए, तो कहाँ जाए? किस से मिले? ये सब तो, हाशिम ने अपने ऊपर लिया हुआ था? उसने ही ये तय किया हुआ था कि भाल और शिनि, कहाँ जाएंगे! उनका ठिकाना, सब हाशिम ने ही तय किया हुआ था, हाँ, कुछ बताया तो था! हाँ, कुछ, जाने से पहले हाशिम ने! कि उसे नजीबाबाद जाकर, सिराजुद्दीन से मिलना है! अगर हाशिम न आ पाया तो, तो वो सिराज से मिले! उसने सिराज से तमाम बातें कर रखी थीं, सारा मसौदा तैयार किया हुआ था! बस देर थी, तो सिराज से मिलने की! वो चला तो जाएगा, लेकिन हाशिम संग होता, तो उसे कोई चिंता ही नहीं थी! हाशिम के रहते, भला उसे चिंता! ना! कभी नहीं! और फिर, हाशिम, साल भर बड़ा भी था उस से! एक बड़े भाई की तरह से, उसके फैंसले किये करता था, ये अलग बात है कि फैंसलों में, हमेशा, ऊंचा हाथ, भाल का ही होता!
मित्रगण!
पौ फ़टी! और सुबह की सुगबुगाहट शुरू हुई! अाकाश, पूर्वी क्षितिज पर, लाल हो उठा था, कुछ ही देर में, सूर्य आने वाले थे अपने कर्म-क्षेत्र में! फिर उनकी वही दिन-चर्या! लेकिन आज, आज बहुत काम था भाल को! सबसे पहले तो, हाशिम से मिलना था, हाशिम से बातें करनी थी, डाँट खानी और खिलानी थी! बहुत उल्टा-सीधा कहना था भाल ने उस से! और वो जानता था, कि हाशिम, मुस्कुरा कर, सारी हिकारतें, सारी शिकायतें, लम्हे भर में ही दूर कर देगा! यही तो किया करता था उसका वो दोस्त हाशिम! हाशिम की मुस्कुराहट याद आई, तो खुद भी मुस्कुरा पड़ा था भाल!
उसने शिनि को देखा, अपनी कोहनी पर, सर टिकाये, आँखें बंद किये, बेसुध सी, लेटी हुई थी शिनि! उसके होंठों पर, मुस्कुराहट दौड़ पड़ी! शिनि! हाँ, शिनि के लिए ही तो ये सब किया गया था! हाशिम ने ही सारा इंतज़ाम किया था! नहीं तो भाल, क-ख मालूम नहीं था उसे! कहाँ जानता था वो किसी को! गाँव से शहर और शहर से गाँव! ये तो हाशिम ही था, जो संग ले जाता था उसे अपने!
पक्षी चहचहाने लगे! उनका गीत-गान आरंम्भ हो गया था! सुबह तो उनकी अपनी ही हुआ करती है! अपने छोटे छोटे गलों से, छोटी छोटी चोंचों में से, आवाज़ निकाला करते हैं! मिल कर तो, पूरा, समूचा आसमान ही उठा लें! अब, पेड़ भी जाग गए थे, जागे तो थे ही रात भर, बस, अलसाये से, ऊँघ रहे थे! पौधों ने भी, सर उठा कर, अब उनको देखना शुरू कर ही दिया था! ऊपर, पेड़ों में लटकी, अमर-बेल, टुकर-टुकर, निहारे जा रही थी उन्हें ही! कुछ पक्षी, जो वहीँ बैठे थे, उनको मौजूदगी को भांप गए थे, और लगातार नज़र रखे हुए थे! इसी शोर-शराबे से, शिनि की आँख खुल गयी, वो एक ही झटके से, उठ बैठी, पसीना पोंछा अपने चेहरे से, ढूँढा भाल को, भाल, उस झरोखे के पास खड़ा था, संजीदा, बाहर ही झांकता हुआ! उठी शिनि, देखा आसपास, सुबह हो गयी थी! लपक कर, चली भाल के पास! देखा बाहर, अब सबकुछ साफ़ होने लगा था, दिखने लगा था बाहर, वो रास्ता भी, जहाँ कुछ ग्यारह या बारह घंटे पहले, वे आये थे उसी रास्ते से! रखा कंधे पर हाथ भाल के, भाल ने न देखा शिनि को! बस, बेसब्री और बेचैनी से बाहर की तरफ ही देखता रहा वो!
"अभी नहीं पहुंचा ना?" पूछा शिनि ने,
"नहीं!" बोला भाल,
"अब आने को ही होगा!" बोली वो,
"यही उम्मीद है!" बोली वो,
"आ जाएगा अब वो!" बोली शिनि!
अब देखा शिनि को उसने! शिनि ने उसको! गले से लग गयी शिनि उसके! शिनि को, भर लिया बाजूओं में भाल ने! टिका दिया सर अपना उसके सर से!
"सुनो?" बोली शिनि,
''हूँ?" बोला वो,
"हाशिम के आते ही चल पड़ेंगे न?'' पूछा शिनि ने,
"हाँ, उसी वक़्त!" बोला वो,
सिमट गयी उसी वक़्त भाल के अंदर शिनि!
"उसी वक़्त शिनि!" बोला भाल!
मित्रगण!
उजाला बढ़ा!
सूरज, अब पूर्वी क्षितिज को छोड़ चले थे, उनका रंग अब बदलने लगा था, लालिमा का जामा उतार फेंका था उन्होंने, और तेज, चमकता जामा, ओढ़ लिया था अब!
हवा भी अब चलने लगी थी! उन दोनों से टकराती, तो बड़ा ही सुकून पहुंचाती थी उन्हें! रात भर की उसीजती देहें, कुछ आराम महसूस करने लगती!
छह बज गए थे.........
उस वक़्त, छह बजने का मतलब, दिन का चढ़ना था, लोगबाग, पूजा आदि में लगा जाया करते हैं, अजान का वक़्त हो चलता है, इंसानी चहल-पहल, अपने ढर्रे पर आ पहुँचती है! कोई कुछ करे और कोई कुछ! कोई रात का ठहरा गाँव लौटता और कोई गाँव में ठहरा, अब शहर लौट जाता! लेकिन नहीं ठहरा था तो चैन! चैन, उन दोनों का! वो टूटी सी हवेली, उनको, अभी भी पनाह सी दिए हुए थी! हालांकि, छाँव का आँचल, अब छोटा हो चला था, वो लम्हा दर लम्हा, पीछे खिसकने लगा था! लेकिन उनका इंतज़ार! इंतज़ार, आगे बढ़ने लगा था!
"कहाँ है हाशिम तू?" निकला मुंह से भाल के!
शिनि ने सर हटा कर, बाहर झाँका!
सुनसान रास्ता! बियाबान! और कुछ नहीं!
"आ ही रहा होगा!" बोली वो,
"हाँ!" बोला भाल!
चला मुश्क़ की तरफ, ले आया, खोला उसे, पानी से, हाथ -मुंह धोये अपने, शिनि के धुलवाए, पानी पिया दोनों ने, और मुश्क़ खाली हुई! अब पानी भी न बचा था, और यहां पानी का मिलना, उतना ही मुश्किल था, जितना मुश्किल था, अब उस हाशिम का आना!
साढ़े छह! और फिर सात! इतने ही बजे होंगे! हाशिम ने न आना था और न आया ही! शायद, हाशिम किसी हादसे का शिकार हो गया था! कमाल था, वे दोनों, ये बात बखूबी जानते थे, बस मान नहीं रहे थे, इक़रार नहीं कर रहे थे! अब ये सब साफ़ हो चुका था! क्या शिनि और क्या भाल! दोनों के ही हलक़ सूख चले थे, एक तो वक़्त, वो दौड़े जा रहा था, कहीं किसी को उनका सुराग मिल जाता तो, दीगर था कि वे भी हलक़ान हो ही जाते! सबसे पहले उनको यहां से निकलना था! हर हाल में, हर सूरत में! कैसे भी करके! कुछ नहीं बोला भाल! उठा, और चला घोड़े तक, रक़ाब डाली उस पर, वो बड़ा सा कपड़ा उठाया, और खोंस लिया घोड़े पर ही, कुछ बिछा लिया था, मुश्क़ को बाँधा, और इस तरह, करीब साढ़े सात बजे, वो टूटी हवेली, वो उनकी पनाहगाह, पीछे छोड़ दी उन्होंने! घोड़े ने हवा से बातें करनी शुरू कीं! अब मंजिल थी, नजीबाद! उसके मुताबिक़, वो शिनि को कहीं हिफाज़त से रखता, इंतज़ाम करता उसके लिए, और खुद, लौट पड़ता हाशिम के बारे में जानने के लिए! ये उसके लिए, किसी सदमे से कम नहीं था! वो घोड़े को ऐसे भगा रहा था जैसे किसी दौड़ में शामिल हो! घोड़ा भी, जैसे रात भर, उनकी बातें सुन रहा था, उसके खुरों में जैसे बिजली भर गयी थी! कुलांचें भर, दौड़े चला जा रहा था! भूखा भी था रात से, तो एक जगह, बीच में, पानी पिलाया उसे, और चरने को भी छोड़ दिया, घोड़े ने चारा चरा, और इस तरह, भाल फिर से आगे बढ़ चला!
आज से एक सौ तीस साल पहले का नजीबाबाद!
नजीब-उद-दौला का बसाया हुआ शानदार शहर!
जा पहुंचा था भाल लेकर शिनि को! सीधा एक जगह पहुंचा, सिराजुद्दीन को ढूँढा, सिराज मिला उन्हने, और ले चला अपने संग, अपने घर, खाना आदि खिलाया, हाशिम के बारे में बातें हुईं, हाशिम का कोई पता नहीं था सिराज को भी, आठवें दिन, तयशुदा मसौदे के मुताबिक़, सिराजुद्दीन ने, उन्हें हिफाज़त से कोटद्वार पहुंचा दिया, दो दिन, वो हाफ़िज़ मियाँ के मेहमान रहे, वहां से, तौफ़ीक़ उन्हें, अपने संग मुरादाबाद ले गया! मुरादाबाद में, तीन दिन रहे वो, और फिर तौफ़ीक़ ने, उन्हने, देहली के लिए रवाना कर दिया! देहली पहुंचा भाल, देहली में, उस्मान से मिला, उस्मान, तौफ़ीक़ का रिश्तेदार था! इन दिनों में, हाशिम का ख्याल, दिल से न निकला उन दोनों के! हाशिम कहाँ रह गया था, कुछ नहीं पता था, करीब दो हफ्तों के बाद, तौफ़ीक़ आ कर मिला भाल से! और सारी हक़ीक़त, लफ्ज़ दर लफ्ज़, पेश करता चला गया! भाल के कानों में पिघलता हुआ सीसा सा पड़ गया था ये सुनकर, कि हाशिम, उसी शाम, ज़र्रु शाह का शिकार हो गया था, ज़र्रु, एक इनामी डकैत था! दोयमपेशा था ज़र्रु! ज़र्रु के बीस आदमियों ने, हलक़ान किया था बीच रास्ते में उस हाशिम को!
कैसा ज़ार ज़ार रोया था वो भाल!
कैसे, बिन आंसुओं के ही, जज़्ब की थी वो कड़वी हक़ीक़त शिनि ने!
कैसे, भाल की रूह, जैसे फ़ना हो गयी थी!
कैसे वो शिनि, पत्थर सी बन चली थी!
कैसे, कई दिनों तक, कुछ न सुनाई दिया था उन्हें, और न कुछ बोल ही पाये थे दोनों!
फट पड़ा था उस रोज भाल! आसमान सर पर उठा लिया था उसने, तलवार में धार लगा ली थी उसी रोज! लेकिन! ये वक़्त है! वक़्त अपने हिसाब से चलता है, किसी का मोहताज नहीं है! वक़्त ने ही उसे सलाहें दिलवाईं! मशविरे सुनवाई! हाशिम ने अपनी जान दे दी थी अपने दोस्त और उसकी प्रेमिका के लिए! उसने तो दोस्ती का पास रखा था, मर कर! हाशिम क्या चाहता था? चाहता था कि वे दोनों विवाह करें, बंधन में बस जाएँ, परिवार बने! अरे, वो नहीं है तो क्या! कम से कम, वही किया जाए जिसके लिए जान दी उसने! और इस तरह, उनका विवाह हुआ, भाल और शिनि, विवाह-बंधन में बंध गए! गाँव से नाता टूट गया था भाल का! हाँ, तौफ़ीक़ ने बताया था, कि उसके बड़े भाई, गाँव से सभी को, बनारस ले गए थे! गाँव में अब कुछ न बचा था! तौफ़ीक़ ने ही, अपनी जानकारी के मातहत, नौकरी दिलवा दी थी भाल को, ज़िंदगी, फिर से नयी राह पर, दौड़ चली!
मित्रगण!
भाल और शिनि की एक पीढ़ी, आज भी देहली के बेगमपुर गाँव में बसती है! आज भी, भाल दीखते हैं उनमे! आज भी, शिनि को देख लो उनमे!
लेकिन?
उस शाम, हुआ क्या था?
ये ज़र्रु कौन था? किसने खबर की थी उसे?
आखिर, उस शाम हुआ क्या था?
और वो, भाल का अज़ीज़ दोस्त, हाशिम!
क्या वो, लौटा था? लौटा था वो हाशिम?
हाँ मित्रगण!
वो लौटा था!
वो आता है! आता है आज भी! अपने दोस्त को ढूंढने! अपने दोस्त की मदद करने! उनके लिए कपड़े-लत्ते, पानी लेकर, खाना लेकर! आज भी आता है वो!
किसने देखा?
कई लोगों ने देखा! वो तेज गति से, घोड़ा हांकता हुआ निकल जाता है करीब से! कभी दीख पड़ता है, कभी नहीं! जब दीखता है, तो 'हटो!' बोलता है! और जब नहीं दीखता, तो उसके घोड़े के खुरों से उठती मिट्टी कपड़ों पर आ गिरती है!
मुझे तो जैसे, यक़ीन ही नहीं हुआ! नहीं हुआ यक़ीन, फ़ुरक़ान साहब पर! ये क्या कह रहे थे वो? शायद, ज़ौफ़ का असर दीगर है! शायद, दिमाग फ़ुरक़ान मियां जी का, अपनी बुनियाद छोड़ चला है! यही लगा था मुझे तो!
"मालिक, दोजख में भी न भेजे जो झूठ कहूँ तो!" बोले वो!
"एक बात तो बताइये?" बोले शर्मा जी,
"क्या साहब?" बोले वो,
"आपने देखा है?" पूछा शर्मा जी ने,
"मेरे लड़के ने देखा है!" बोले वो,
"कौन से ने?" पूछा मैंने,
"बीच वाले, जावेद ने!" बोले वो,
"कहाँ है जावेद?" पूछा मैंने,
"आने वाला होगा!" बोले वो,
"गाँव जाओ हो आप?" पूछा शर्मा जी ने,
"है शर्मा जी! घर-कुनबा न है?" बोले वो,
"अच्छा!" बोले शर्मा जी,
"और क्या!" बोले वो,
फ़ुरक़ान मियाँ, कारीगर हैं, कोट में अस्तर लगाने का, बेहतरीन काम किया करते हैं! बड़े बड़े लोग जान-पहचान में हैं उनके! चाहे कोट पहनें ही न वे, लेकिन सिलवाएंगे फ़ुरक़ान मियां से ही! चाहे, तीन-चारा महीने के बाद की फ़ुरसत हो उनके पास! ढेर सारा काम रहता है उनके पास! हाथों से ही अस्तर लगाते हैं वो! हाथों की ही सिलाई! एक बार को, मशीन धोखा दे दे, लेकिन उनके मंझे हुए हाथ, कमाल ही कर देते हैं! उनके दो बेटे साथ में ही काम करते हैं उनके, अच्छी-खासी दुकान हैं उनकी! बड़ा बेटा सरकारी नौकरीपेशा है, वो दूर ही रहता है, अपने परिवार के साथ! शर्मा जी और मुझ से, बेहद पुरानी जान-पहचान है उनकी! शर्मा जी ने ही करवाई थी जान-पहचान!
"जावेद ने कब देखा?" पूछा शर्मा जी ने,
"अभी, हाल में ही!" बोले वो,
"कब, फिर भी?" पूछा उन्होंने,
"एक महीना भी ना हुआ!" बोले वो,
"अच्छा जी?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले वो,
तभी, दही-बड़े वाला लड़का एक, ले आया दो प्लेट दही-बड़े, हमने अपनी अपनी प्लेट पकड़ ली, और हो गए शुरू! फ़ुरक़ान मियां का फ़ोन बजा था, सो फ़ोन पर बातें करने में मशग़ूल हो गए थे वो!
तो जी दही-बड़े खा लिए, पानी पी लिया, हाथ और मुंह भी साफ़ कर लिए! हम निबटे तो फ़ुरक़ान मियाँ भी निबट गए थे बातों से!
"अरे? और मंगवाऊँ?" पूछा उन्होंने,
"ना! मजा आ गया! मसाला शानदार था!" बोले शर्मा जी!
ऐसा तीखा था मसाला कि अभी तक जीभ पर, मिर्चों का आतंक मचा था! अभी तरह की मिर्चें इस्तेमाल में लायी गयीं थीं शायद! काली, दखनी, लाल, ततैया और शायद कश्मीरी भी! धुआं निकलने की ही देर थी बस! नाक तो खुल ही चली थी!
तभी बाहर, रुकी मोटरसाइकिल एक, अपना हेलमेट उतारा उसने, ये जावेद था, मोटरसाइकिल को ताला लगा, चढ़ रहा था सीढ़ियां, दुकान में आने के लिए!
"अस्सलाम आलेकुम!" बोला जावेद!
"वालेकुम सलाम जावेद मियां! अमा कैसे मिज़ाज हैं!" पूछा शर्मा जी ने,
"खैरियत है जी! आप सुनाएँ!" बोला वो,
"हम भी बढ़िया!" बोले शर्मा जी,
"अच्छे ही होने चाहियें बस!" बोला वो,
अंदर जाने लगा जावेद, तभी, फ़ुरक़ान मियां न रोक लिया,
"हाँ जी?" पूछा जावेद ने,
"कुछ काम तो ना है?" पूछा फ़ुरक़ान साहब ने,
"बस ये कैश रख दूँ!" बोला जावेद,
"रख दे!" बोले वो,
उसने कैश रखा, और आ गया हमारे पास, आ बैठ वहीं, एक कुर्सी पर ही!
"हाँ जी?" बोला वो,
अब उन्होंने जावेद को को बताया कि कैसे एक घुड़सवार, हाशिम नाम है जिसका, आज तलक दौड़ता चला आता है, वहां गाँव के बाहर, पुराने रास्ते पर! उसने भी हाँ कही!
"जावेद?" पूछा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"तुमने देखा है उसे?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"नहीं?" फ़ुरक़ान मियां चौंके!
"हाँ, नहीं! बस आवाज़ सुनी थी, घोड़े की और उसके खुरों से फींकी हुई मिट्टी, जो हम पर आ पड़ी थी!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"घोड़ा तेज दौड़ता है?" पूछा शर्मा जी ने,
"आवाज़ आती है, बड़ी तेज! तगड़-तगड़ कोई दौड़ा चला जाता है!" बोला वो,
"रोज आता है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"एक बात और, ये कैसे पता कि वो हाशिम ही है?" पूछा शर्मा जी ने,
"एक बार, कई बरस पहले, एक मौलवी साहब ने रोक लिया था उसे, तब उसने बताया था कि उसका नाम हाशिम है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये कब की बात होगी?" पूछा मैंने,
"ये भी नहीं पता जी!" बोला वो,
तभी चाय आ गयी, अब चाय पीने लगे हम! मामला, बड़ा ही अजीबोगरीब था! एक घुड़सवार! रोका गया एक मौलवी साहब द्वारा, नाम बताया और फिर, कुछ नहीं! कमाल है! कहाँ जा रहा है, ये भी नहीं पता! कब आता है, ये भी नहीं पता! ये तो भूसे के ढेर में से सुईं ढूंढने जैसा हो गया था! तब जावेद भी उठ चला था, चला गया था बाहर!
"सुन लिया शर्मा जी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"अमा यार, इस बुढ़ापे का तो यक़ीन करो!" बोले वो, हँसते हुए!
"है? यक़ीन न होता, तो रुकते हम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ये बात भी सही है!" बोले वो!
"गाँव जाओ हो?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ!" बोले वो,
"अब कब जाओगे?" पूछा शर्मा जी ने,
"चलना है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो जब मर्ज़ी चलो!" बोले वो,
"कोई मौक़ा बने, तो बताओ फिर?" बोले शर्मा जी,
"ज़रूर!" बोले वो,
"नूनी मक्खन खाए भी दिन बीत गए!" बोले शर्मा जी!
"कमाल कर दिया! खाओ भी और लाओ भी!" बोले वो,
"भई वाह!" बोले शर्मा जी,
"अल्लाह के फ़ज़ल से कोई कमी ना है!" बोले वो,
"बहुत खूब!" बोले वो,
"बासमती और रखवा दूंगा!" बोले वो,
"अरे वाह!" बोले शर्मा जी,
"दाल-दूल तो आएगी ही!" बोले वो,
"मजा आ गया साहब!" बोले शर्मा जी!
उसके बाद, हमने रुख़सती डाली वहां से! आ गए अपने स्थान पर सीधा, आराम किया यहां, लेटे थोड़ा बहुत, दो-चार, इधर-उधर की बातें हुईं!
"बेचारा!" अचानक से बोले शर्मा जी,
"कौन?" मैंने चौंक के पूछा,
"वो हाशिम!" बोले वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"इसे भी निजात दिलवाइए आप!" बोले वो,
"कोशिश तो है!" कहा मैंने,
"मना लो इसे भी!" बोले वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
"कैसे दोस्ती निभायी उसने!" बोले वो,
"हाँ, बेमिसाल!" कहा मैंने,
"और वो बेचारा भाल!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जब तक जिया होगा, कैसे कलेजे पर पत्थर बाँध कर रखा होगा उसने!" बोले वो,
"इसमें कोई शक़ नहीं!" कहा मैंने,
"देख लो, मिल जाए इसे भी छूट यहां से!" बोले वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
पंद्रह-बीस दिन बीत गए होंगे, एक दिन फ़ुरक़ान साहब का फ़ोन आया शर्मा जी के पास, उनकी बातें हुईं उनसे, फ़ुरक़ान साहब को, गाँव की ज़मीन से संबंधित कोई काम था, तहसील में, तो उनको गाँव जाना था, इसीलिए उन्होंने पूछा था कि अगर वक़्त और फ़ुरसत मिले, तो चला जाया जाए गाँव! अब हम तो जैसे झोली फैलाये हुए ही बैठे थे, कि कब फल टपके और झोली भरे! तो फल टपक गया था, उस दिन से, कोई चार रोज बाद, उनके गाँव के लिए निकल जाना था!
तो जी, हमने मुक़म्मल तैयारी कर ली! जो भी ज़रूरत थी, सब की सब! अब गाँव-देहात का मामला हुआ करता है, सबके सामने कर नहीं सकते कुछ भी जतन, इसीलिए पहले से ही तैयारी कर ली थी हमने! कुछ ज़रूरी सामान भी रख लिया था!
आया वो दिन, और हम उनके साथ ही हो लिए, बड़ी गाड़ी लाये थे फ़ुरक़ान साहब, सामान रखा और चल दिए थे, दिल्ली से करीब दो सौ किलोमीटर पड़ता है नजीबाबाद, तो वही थी अब मंजिल! अब तो काफी बड़ा शहर हो गया है ये! बसावट होने लगी है आसपास! इतिहास को आज भी समेटे हुए है अपने आग़ोश में ये शहर! चप्पा चप्पा बोलता है उसका, आज भी! नजीब-उद-दौला ने, अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया था, मराठों को इस से बड़ी क्षति आज तक नहीं पहुंची थी, भयानक विनाश हुआ था इस पानीपत की तीसरी लड़ाई में! मराठे, जो लाहौर तक राज कर रहे थे, सीमित हो कर रह गए थे! ये उसी नजीब-उद-दौला का शहर है!
शहर से, उन्होंने कुछ सामान आदि खरीदा, हमने चाय भी पी, कुछ हल्का-फुल्का खाया भी, करीब एक घंटे के बाद, फि आगे गाँव जाने के लिए निकल पड़े! और फिर, गाँव भी जा पहुंचे उनके! सुंदर और शानदार गाँव है उनका! गाँव-देहातों की बात ही अलग है! देहाती जीवन-शैली और देहाती खाना-पीना! हालांकि, अब के युग में, मोबाइल-फ़ोन, टी.वी., इंटरनेट हर जगह जा पहुंचे हैं, बड़े गाँवों में, फिर भी, देहाती जीवन की झलक, मिल जाती है! मिश्रित आबादी है गाँव की उनके! लेकिन सभी, एक दूसरे को जानते पहचानते हैं! नाम लो बस और पूरा पता सामने आपके!
गाँव पहुंचे, पानी पिया, खूब मेहमान-नवाजी हुई जी! एक खुले स्थान पर बैठक बनी थी, निवाड़ वाले पलंग थे वहां, लगा दिए गए थे, तब हमने आराम किया वहां! खुली जगह, तोरई, घीये और सीताफल की बेलें लगी थीं वहां! कुछ भिन्डी के पौधे भी थे! सब्जियां वो भी ताज़ा! और क्या चाहिए! पीछे की तरफ, करेले लटक रहे थे, मन प्रसन्न हो गया हरियाली देख कर!
शाम का वक़्त था, हम टहल कर आ चुके थे घर! जावेद के एक, रिश्ते के भाई, नदीम से भी बात हुई थी, दरअसल, उस दिन नदीम भी साथ था जावेद के, जब उन्होंने आवाज़ सुनी थी वो! तो नदीम से भी बातें हुईं, और फिर तय ये हुआ कि कल वो ले जाने वाले थे हमें उस रास्ते पर जहाँ उन्होंने वो आवाज़ सुनी थी! वहां से, उस खंडहर हवेली तक, जहाँ का ये सारा वाक़या था! उस रात खाना खा, आराम से फन्ना के सो गए थे हम!
सुबह हुई, नहाये-धोये, चाय-नाश्ता किया, खीर बनी थी, बेहतरीन! पेट भर के खायी! फिर दोपहर में, खाना खाया, और करीब पांच बजे, हम निकल पड़े थे वहां के लिए! अब वो पुराना रास्ता, कोई इस्तेमाल नहीं किया करता, वो जस का तस पड़ा है, गड्ढे तो नहीं हैं, लेकिन झाड़-झंखाड़ हैं, थोड़ा दूर दूर! बड़ी गाड़ी तो आराम से चलायी जा सकती है उस पर! गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता चलती रही, और हम आसपास देखते हुए चलते रहे! बिजली के खम्भों के सहारे जाती हुई तारें, जैसे पीछा कर रही थीं हमारा! करीब आधा घंटे के बाद, हम वहां आये, यहां रास्ता थोड़ा सही सा लगा, मिट्टी ही मिट्टी थी यहां! आसपास कुछ नहीं, हाँ, दूर थे, खेत, जिनमे, फसल खड़ी थी! ये शायद भूड़ का क्षेत्र था! यहां न कोई आता, न कोई जाता था, मवेशी ही कोई भटक कर आ गया हो, तो एक अलग बात है! पेड़ लगे थे, बड़े बड़े पेड़! झाड़ियाँ तो बेहिसाब लगी थीं! कंटीली झाड़ियाँ! जी पर, मकड़ियों ने जाले बन रखे थे, पेड़ों पर, कुछ एक घोंसले भी नज़र आये परिंदों के!
एक जगह, गाड़ी रोक दी गयी, रास्ते से हट कर, बाएं, इंजिन बंद कर दिया गया, और हम उतर आये नीचे!
"ये है वो जगह!" बोला जावेद,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"उस दिन यहां खड़े थे हम!" बोला जावेद,
"यहां नहीं, वहां!" बोला नदीम!
"अच्छा, वहां!" बोला जावेद!
"फिर?" पूछा मैंने,
"यहां हम, इधर खड़े हुए थे, कि लगा, कोई दौड़ा आ रहा है घोड़े पर!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हमने तो हर जगह ढूंढ लिया, कोई नहीं था!" बोला जावेद,
"फिर?" पूछा मैंने,
"नदीम ने एक तरफ हटने को कहा!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"इन्होने बताई तो होगी?" बोला नदीम,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो जी, एक घुड़सवार है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाशिम नाम है उसका!" बोला वो,
"ये कैसे पता?" मैंने उसी से जानने के लिए पूछा,
"एक मौलवी साहब थे!" बोला वो,
"थे? अब नहीं हैं?" पूछा शर्मा जी ने, उसकी बात काट कर,
"ना जी!" बोला वो,
"कितना अरसा हुआ?" पूछा उन्होंने,
"हमारे बचपन की बात होगी?" बोला वो,
"यानि कि बीस-पच्चीस बरस पहले?" बोले शर्मा जी,
"इतना तो मान लो!" बोला वो,
"अच्छा! फिर?" पूछा मैंने,
"उन्होंने रोक लिया था उसे!" बोला वो,
'फिर?" पूछा मैंने,
"तब नाम पता चला जी!" बोला वो,
"हाशिम!" कहा मैंने,
"हाँ जी, हाशिम!" बोला वो,
"हूँ!" बोले शर्मा जी,
"नदीम?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोला वो,
"वो कब आता है?" पूछा उन्होंने,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
अब यहीं थी मुसीबत!
कैसे पता चले! कहाँ से पता चले!
"उस दिन कुछ याद है?" पूछा शर्मा जी ने,
"किस दिन?" बोला नदीम!
"जिस दिन वो आवाज़ सुनी थी?" पूछा उन्होंने,
"उस दिन.....??" बोला वो,
सोचने लगा, कोई घटना या कोई बात!
"उस दिन जुम्मा था जी!" बोला वो,
"हाँ, जुम्मे का दिन था वो!" बोला जावेद भी!
जावेद ने भी तस्दीक़ कर दी थी! ये बढ़िया था!
"अच्छा! और वक़्त क्या था?" पूछा उन्होंने,
"शाम का होगा, कोई छह बजे का?" बोला नदीम,
"सर्दी या गर्मी?" पूछा शर्मा जी ने,
"बीच का सा मौसम था जी!" बोला वो!
जुम्मे का रोज! इस से भी बड़ी ही मदद मिली! कम से कम ये तो पता चल गया और एक आस भी साथ की साथ बंध गयी कि वो घुड़सवार, हाशिम, उस भाल का दोस्त, जुम्मे वाले रोज गुजरता है यहां से! जुम्मे का दिन! आइए भी, जुम्मा ख़ास ही हुआ करता है! इसी दिन आदम को बनाया गया था! और इसी दिन के आखिरी एक घंटे में, क़यामत टूटेगी! हिसाब होगा! यही है वो दिन! जुम्मा! तो जुम्मा था परसों! अब कल का दिन बीच में था, कल का दिन या तो गाँव में ही गुजारो, या फिर कोटद्वार चला जाए! वह एक जानकार हैं, काफी वक़्त हुआ था उनसे मिले! तो सोचा, वहीँ कल चला जाए! दावत का लुत्फ़ उड़ाया जाए! लूटी जावे दावत!
"अच्छा, वो टूटी हवेली कहाँ है?" पूछा शर्मा जी ने,
"वो आगे है जी!" बोला नदीम,
"चलें?" पूछा शर्मा जी ने,
"चलिए!" बोला नदीम!
"चलो फिर!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" जावेद बोला!
हम सब, चढ़ गए गाड़ी में, जावेद ने की स्टार्ट गाड़ी और चल दिए आगे, एक जगह से गाड़ी काट ली, नए रास्ते के लिए, बीच में से, रास्ता बना लिया था जावेद ने! साफ़ रास्ते पर आये, तो अब भगा दी गाड़ी तेज! करीब चालीस मिनट में, हम आ गए थे उस जगह! वो जगह, बेहद ही खूबसूरत थी! ऊंचे से दो टीले! बीच में खाली जगह! झाड़ियाँ और बड़े बड़े पेड़! और बाएं, एक कच्चे रास्ते से जाते हुए, कुछ खंडहर के पत्थर! आज वो बस खंडहर ही बची थी!
"आना शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
हम, ख़रामा ख़रामा, आगे बढ़ते चले गए! छोटे बड़े पत्थर पड़े थे यहां वहां! आज ये जगह सुनसान पड़ी थी! अपनी ज़ुबान सिये हुए! लेकिन, ये गवाह थी! गवाह, उस प्रेमी-युगल की पनाहगाह की! हम आ गए थे वहाँ! अब तो जैसे पिंजर ही बचा था उस हवेली का! ये हवेली तो, शिनि और भाल चन्द्र के वक़्त में ही दम तोड़ चली थी, और आवासन की तरफ बढ़ रही थी, और अब, अवसान का भी अवसान समीप ही था! कुछ और बरसों में, इसका नामोनिशान हमेशा के लिए, खतम हो जाने वाला था!
"यही है वो जगह!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"इसने देखा है उन्हें!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"ये जगह, ये ही है वो जगह जहां वो, आज भी आता रहा है! अपने दोस्त की तलाश में! उसकी मदद करने को!" कहा मैंने,
"हाँ! पता नहीं, कैसा लगता होगा उसे!" बोले वो,
"हाँ, उन्हें ना पाकर, कैसी हैरत में पड़ जाता होगा वो!" बोला मैं,
"हाँ, न जाने, जी पर, क्या गुजरती होगी उसके!" बोले वो,
"हाँ, बेचारा!" कहा मैंने,
"ये तो है!" बोले वो,
"ज़रा आगे चलें?" पूछा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम थोड़ा आगे चले! हर जगह बस वो पत्थर! कहीं कहीं, बुनियाद ज़रूर बची थी उस हवेली की, लेकिन वो भी आखिरी साँसें गिनती हुई!
हमने आसपास देखा, कुछ नहीं था, वो जगह, नहीं बदली थी अभी ही! एकांत में पड़ती थी, और बंजर भी थी, इसीलिए, छेक दिया गया था इंसानों ने! इंसान तो, वहीँ बसता है, जहां से उसे कुछ प्राप्त होता है! नदी के किनारे, खेती लायक ज़मीन के पास! यहां तो ऐसा कुछ नहीं था! इसीलिए, खाली पड़ी थी जगह वो!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम लौट चले!
अचानक से, रुके!
"ये रास्ता होगा वो?" पूछा मैंने,
"मुझे तो हर तरफ से ही रास्ते दीख रहे हैं!" बोले वो,
"वो देखो न?'' कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"अब है या नहीं?" पूछा मैंने,
"कैसे पता रास्ता ही है?" बोले वो,
"पेड़ों को देखो!" कहा मैंने,
"वो तो हर तरफ हैं?" बोले वो,
"बड़े वाले देखो?" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"है या नहीं?' पूछा मैंने,
"मुझे अभी भी लगता नहीं!" बोले वो,
''आओ फिर!" कहा मैंने,
हम चल दिए वापिस फिर, आये गाड़ी तक!
"कुछ दिखा?" पूछा नदीम ने!
"ऐसे ना दीखता कुछ भी यार!" बोले शर्मा जी,
"अच्छा जी!" बोला नदीम!
"ऐसे दीखता तो कोई भी न देख लेता?" बोले वो,
"अरे हाँ!" बोला वो,
"और वो यहां थोड़े ही रहवे है?" बोले शर्मा जी!
"हाँ जी!" कहा उसने,
"चलो अब!" बोले वो,
"चलो!" बोला जावेद!
हम सब, बैठ गए गाड़ी में, और गाड़ी मोड़, चल पड़े वापिस! पहुंचे गाँव, फिर आराम किया! रात में खा-पी कर, सो गए! सुबह, फ़ुरक़ान साहब से कह दिया था कि हम, कोटद्वार जाएंगे, मिलने किसी से, जावेद को संग भेज दिया उन्होंने तब हमारे! ये अच्छा हुआ था!
तो हम, जा पहुंचे कोटद्वार! मिले अपने जानकारों से! तबीयत प्रसन्न हो उठी! काफी लम्बे अरसे के बाद बात हुई थी, इसीलिए गर्मजोशी थी दोनों ही तरफ! दावत लूटी गयी! घर गए! और भी ने लोगों से मिलना हुआ! ज़िद कृ उन्होंने कि रात को ठहरो, लेकिन निकलना था तो, निकलना पड़ा! रात होने से पहले हम वापिस गाँव आ पहुंचे थे! भूख थी नहीं, तो हल्का-फुल्का ही लिया! और स्नान आदि से निबट कर, बिस्तर पर जा चढ़े!
"कल मिल जायजा?" पूछा शर्मा जी ने,
"उम्मीद तो है!" बोला मैं,
"कहीं फिर से अगला जुम्मा!" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"बस, यहीं दौड़ लगने लगती है!" बोले वो,
"क्या करें फिर!" बोला मैं,
"हाँ, सही बात है!" बोले वो,
थोड़ी ही डियर में, नदीम दूध ले आया था, दूध और मावा साथ में! फिर से लार टपक गयी हमारी तो! अब, दरअसल, शहरों में ऐसा दूध और मावा, अब मिलता कहाँ है! घर का बना था, तो साहब, दो दो गिलास दूध, और मावा लील गए हम तो! नदीम ने और पूछी! लेकिन अब जगह न बची थी पेट में! तब आराम करने के लिए, सोने के लिए लेट गए थे! डकारें आती रहीं दूध की, मावे की!
"चलो जी!" बोले वो,
"हाँ, कल देखते हैं!" कहा मैंने,
"मिल जाए तो बढ़िया!" बोले वो,
"और क्या!" कहा मैंने,
आँखें हुईं भारी, और हम सो गए फिर!
अगली सुबह....!
अगली सुबह का आग़ाज़! देहातों में तो सुबह का आग़ाज़ बेहतरीन ही हुआ करता है! हमारी तरह नहीं, कि कहीं इंजिन चालू हुआ तो कहीं कोई चिल्ला चिल्ला के बोल रहा हो! यहां तो परिंदे जगाते हैं सभी को! अपनी अपनी अजीब अजीब बोली में! और शोर तो इतना मचा देते हैं कि आप फिर सो नहीं सकते! वही हुआ था, हम उठ गए थे, और उसके बाद, नहा-धो भी लिए थे! तब, चाय-नाश्ता आया, वो निबटाया! कुछ न कुछ पेश किया ही जाता रहता था! खान-पान बढ़िया है फ़ुरक़ान साहब का!
खैर, आज जुम्मे का दिन था, और आज ही हमको वहाँ जाना था! इस बारे में और बातचीत करने के लिए, मैंने शर्मा जी से ही बात की!
"वो रास्ता तो लम्बा है, और पता नहीं, वो कब आये?" कहा मैंने,
"हाँ, तो कैसे किया जाए?" पूछा उन्होंने,
"सोचता हूँ कि, उसी हवेली के खंडहरों के पास ही जो न जाया जाए?" दिया सुझाव मैंने,
"हाँ, यही ठीक रहेगा!" बोले वो,
"क्यों अगर रास्ता ही नापा, तो कम से कम, ढाई-तीन घंटे लग जाएंगे, धूप वैसे ही आजकल चूमा-चाटी में ज़्यादा लगी है, है या नहीं?" कहा मैंने,
"हाँ! ये तो है! और रास्ता इतना आसान भी तो नहीं है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो अच्छा यही रहेगा कि वहीँ चला जाए, बिछाया जाए जाल!" कहा मैंने,
"हाँ, यही ठीक है!" बोले वो,
तो ये पक्का हो गया, कि हम, शाम से पहले, वहां पहुँच जाएंगे, वहां, देखते हैं कि कैसे बनती है बात!
दोपहर में, भोजन किया, और फिर आराम, शाम करीब चार बजे, मैं और शर्मा जी, नदीम की मोटरसाइकिल ले कर, चल पड़े वहां के लिए, वे आना तो चाह रहे थे, लेकिन जुम्मे की नमाज होनी थी, तो हम ही निकल गए थे वहां के लिए! रास्ता तो बढ़िया था, कहीं कहीं कुछ परेशानी हुआ करती थी, नहीं तो सरपट दौड़े चले जाते थे हम! करीब सवा घंटे में हम वहां पहुँच गए थे, अपने साथ पानी भी ले आये थे, नहीं तो उस बीहड़ में कहाँ से मिलता पानी!
"उधर लगा दो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, वहीँ ठीक है!" कहा मैंने,
और हमने, मोटरसाइकिल एक पेड़ के नीचे लगा दी! एक छोटा सा बैग लाये थे साथ, वो कंधे से टांग लिया! पानी की बोतल शर्मा जी के पास थी, मैंने ली, चेहरा साफ़ किया, धूल घुस गयी थी आँखों में, और फिर दो घूँट पानी पिया!
उस वक़्त, साढ़े पांच का समय हो रहा था, और अगर देखा जाए, तो हमारे पास, उजाले के दो-ढाई घंटे का वक़्त था! इसी वक़्त के दौरान, वो हमें मिल जाता या हम ही घेर लेते उसे, तो कोई बात बनती! प्रेत कभी भी, अपने निश्चित समय से नहीं चूका करते! वो लगातार उसी चक्र में घूमा करते रहते हैं! जहाँ से शुरू हुए और जहाँ खतम हुआ उनका सफ़र, उसी दूरी के बीच! कुछ ऐसा ही था हाशिम के लिए भी!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम चल दिए, एक जगह बैठने, एक जगह साफ़ दिखी तो वहीँ जा बैठे, घास-घूस तो थी नहीं, सूखी सी ज़मीन ही थी, रुमाल बिछाए और बैठ गए! हवा में अभी तक गरमी थी, दिन भर खूब छकाया था सूरज ने उस जगह को, यही लगता था!
"एक बात बताइये?" बोले वो,
"पूछिए?" कहा मैंने,
"वो यहां आता है, ठीक?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यहां, ढूंढता भी होगा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैने,
"अब एक बात!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"वो चला कहाँ से था?" पूछा उन्होंने,
सवाल वाजिब था! ये तो ध्यान में लाया ही नहीं गया था! वो चला कहाँ से था? ये अगर पता चल जाता, तो यहां आने की ज़रूरत नहीं पेश आती!
"हाँ! सही कहा!" कहा मैंने,
"क्या ये नहीं जाना जा सकता?" पूछा उन्होंने,
"ये तो वही बताये!" कहा मैंने,
"और जाना कैसे जाए?" पूछा उन्होंने,
"जब वो आये!" कहा मैंने,
"हम्म! ठीक!" बोले वो,
"पानी दो ज़रा!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो, दी बोतल मुझे,
मैंने पानी पिया, प्यास बड़ी जल्दी जल्दी लग रही थी! गरमी की वजह से!
"पियोगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, दे दो!" बोले वो,
मैंने दे दिया, पानी पी लिया उन्होंने ढक्क्न लगाया और रख दी बोतल!
बातें करते करते बीता एक घंटा!
"थक गए यार!" बोले वो,
"बैठे बैठे?" पूछा मैने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब लेटने की जगह तो है नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
बजे साढ़े छह!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" उठते हुए बोले वो,
मैंने तब, एक जगह जाकर, कलुष का संधान किया, अपने और उनके, नेत्र पोषित कर दिए! नेत्र पोषित हुए, तो दृश्य स्पष्ट हुआ! नींव के पत्थर भी दिखने लगे थे, अंदर धंसे हुए!
"आओ!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"उस रास्ते तक!" कहा मैंने,
"पेड़-पाड़?' बोले वो,
"हाँ, वहीँ!" कहा मैंने,
"यहीं जो रुक लेते?" बोले वो,
"आओ तो सही?" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
और हम चल दिए, उस रास्ते की तरफ! जा खड़े हुए!
बजे सात!
अब हुआ असली इंतज़ार शुरू!
"सात बजे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हो जाओ तैयार!" बोले वो,
"मैं तो हूँ!" कहा मैंने,
"मैं भी!" बोले वो,
सवा सात!
साढ़े सात!
नज़रें सामने!
कान, मुस्तैद!
और फिर बज गए साढ़े सात से भी ऊपर! अब तक तो कुछ ही आभास नहीं हुआ, न ही कोई आया और न ही कोई गया, हम वहीँ बैठे बैठे उकताने लगे थे, दो घंटे बिता लिए थे और कुछ पता नहीं चला था! हम लगातार उस रास्ते पर नज़रें गढ़ाए हुए थे, उस पुराने रास्ते पर, लेकिन वो तो अभी भी उजाड़, बियाबान पड़ा था, किसी भी इंसानी मौजूदगी से अलग थलग! थे वहां तो वही पेड़ पौधे, झाड़ियाँ और कुछ नहीं! गरमी और लग रही थी, पसीने निकल रहे थे वहां खड़े खड़े, बोतल का आधा पानी ही खत्म कर लिया था हमने! हलक़, तर होने में ही न आता था!
"क्या लगता है?" पूछा शर्मा जी ने,
"इंतज़ार तो करना होगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"आपको क्या लगता है?'' पूछा मैंने,
"बक़ौल उन दोनों के, आज जुम्मे का रोज है, आज आना ही चाहिए उसे , मुझे तो उम्मीद है!" कहा मैंने,
"उम्मीद ही है, तभी तो हम यहां हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ, ज़रा बैठते हैं उधर!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और हम चल दिए एक जगह, हालांकि गरमी थी, लेकिन खड़े खड़े भी थक गए थे हम! सोचा कुछ देर टिक ही लिया जाए!
"यहां ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
वहां कुछ घास थी, वहीँ बैठ गए रुमाल बिछा कर, फिर से पानी पिया और रख दी बोतल, बोतल का पानी भी गरमा गया था! कुछ ही देर में, गुनगुना हो जाना था!
बज गए आठ से भी ज़्यादा! अब अँधेरा पाँव पसारने लगा था, और हमारी उम्मीद को अब, अँधेरा डराने लगा था! उसे शाम तलक आ ही जाना था, लेकिन वो नहीं आया था, क्या वजह थी, कुछ नहीं पता था!
"अब मुश्किल लगता है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या किया जाए?" पूछा उन्होंने,
"वापिस ही चलना होगा!" कहा मैंने,
"चलो फिर, देर करना ठीक नहीं!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
तो हम, दोनों ही, लौट पड़े फिर, एक बार, आखिरी बार रास्ते पर नज़र डाली, कुछ देखा-भाला, लेकिन कुछ नहीं था! खाली पड़ा था वो रास्ता! तब, कोई रास्ता नहीं बचा था, कलुष को वापिस लिया, और लौट पड़े, उम्मीद उस रोज, धराशायी हो गयी थी हमारी तो! जुम्मे पर भी नहीं आया था वो, अब कोई और ही कारण था, जो हमें नहीं मालूम था!
"चलो अब!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
की मोटरसाइकिल स्टार्ट, और चल दिए हम वहाँ से, नज़रें, कभी-कभार उस पुराने रास्ते पर पड़ जाती थीं अपने आप, लेकिन, वो किसी भी आवाजाही से कोसों दूर था!
मित्रगण!
हम लौट आये वापिस! अगले दिन, वापसी हो गयी दिल्ली के लिए, लेकिन मन में एक खलिश बाकी रह गयी थी! काश कि हम, मिल पाते हाशिम से!
इसी उहापोह में एक हफ्ता और गुजर गया! मैंने बहुत सोचा था इस बारे में, कि कहना गुंजाइश रह गयी थी! हमने वक़्त का सही अंदाजा लगाया था या नहीं? कोई मदद भी नहीं कर सकता था, उसके लिए, कुछ न कुछ तो आवश्यक था हाशिम का! भले ही, मैं उसे देख पाटा, वो भी सिर्फ एक बार ही! तब तो इबु काम आ सकता था, वाचाल भी काम आ सकता था! लेकिन अभी तो ऐसा था, कि जैसे सामने समंदर हो और हम उसे, सहरा समझ रहे हों!
वो शाम का वक़्त था,
शर्मा जी, मैं और एक साधिका, बैठे थे, किसी विषय में बातें चल रही थीं, तभी कुछ ऐसा ही प्रकरण सा छिड़ा, साधिका ने शुरू किया था वो प्रकरण, मुझे तभी कुछ ध्यान आया! क्या कोई ऐसा तरीका है, कि हाशिम के बारे में और जानकारी निकाली जा सके? साधिका उठी और चली बाहर, रह गए हम दोनों अब उधर!
"शर्मा जी?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"क्या कहीं से हाशिम के बारे में कोई जानकारी मिल सकती है?" पूछा मैंने,
"बड़ा मुश्किल है!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कोई रिकॉर्ड नहीं होगा!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" बोला मैं,
"और ऐसा कोई रोजनामचा, हमें तो मिलने से ही रहा!" बोले वो,
"ये भी सही है!" कहा मैंने,
"अब एक ही तरीका है!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"आप इबु को भेजिए!" बोले वो,
"इबु कोई कुछ चाहिए!" कहा मैंने,
"तब तातार कैसा रहेगा?" पूछा उन्होंने,
मैंने कुछ सोचा!
हाँ! तातार में ये काबिलियत है! ये है खासियत! हाँ, वो कर सकता है, कम से कम, पता तो काढ़ ही ला सकता है, उम्मीद सी जगी!
"हाँ! सही कहा!" बोला मैं,
"तो कोशिश कर लो!" बोले वो,
"हाँ! आज रात ही!" कहा मैंने,
"कुछ पता चल जाए, तो सारा ही काम हो जाए!" बोले वो,
"सही कहा आपने!" बोला मैं,
तो आज, तातार का ज़रूरत आन पड़ी थी! तातार का इस्तेमाल, मैं कभी-कभार ही किया करता हूँ! आज वो वक़्त था! आज उसको पेश करना था! शाही ख़बीस है वो! गुस्सैल! लड़ाकू और ज़िद्दी! ये ही खासियत है उसकी!
