वर्ष २०१३ दिल्ली की...
 
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वर्ष २०१३ दिल्ली की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अभी तक बना हुआ था!
निकल नहीं पा रहे थे उस से बाहर!
मैंने गाड़ी आगे ले जाने को कहा,
सड़क पर तमाशा बना हुआ था,
इक्का-दुक्का लोग,
पूछने भी लगे थे,
स्थिति गंभीर हो गयी थी!
मैं गाड़ी में बैठा,
शर्मा जी भी बैठे,
और चल दिए आगे,
गोविन्द समझाते रहे उन्हें!
आखिर मैंने ही समझाया उनको,
कि सब ठीक है!
वो औरत नहीं आएगी कभी अब दुबारा!
अब कोई खतरा नहीं!
वे जैसे नींद से जागे!
कांच बिखरे थे गाड़ी में,
हर तरफ,
बैठने में भी दिक्कत हो रही थी!
किसी तरह से हटाये वो सब!
अब शर्मा जी ने संभाला उनको!
पूरे एक घंटे के बाद,
जैसे उन्होंने आँखें खोलीं!
बाहर देखा,
जब कोई पेड़ आता,
तो डर जाते!
ऐसी हालत थी उनकी!
मित्रगण!
मैं उस औरत को क़ैद नहीं करना चाहता था!
लेकिन करना पड़ा!
नहीं तो मार ही डालती वो उन दोनों को,
गला दबा देती!
फेंक देती किसी वाहन के सामने!
कुचल जाते वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मेरी विवशता बन पड़ी थी,
उसको पकड़ना!
और अब उस से पूछना था,
कि क्या कारण रहा कि,
वो इनकी शत्रु ही बन बैठी थी!
क्या दिन और क्या रात!
हर समय!
हर जगह इनके सामने आती थी!
कोई तो वजह रही ही होगी!
नहीं तो,
उनके घर तक नहीं आती वो!
वो सड़क किनारे वास कर रही थी,
इसका क्या कारण था?
क्या नाम है?
कहाँ की है?
क्या हुआ था उसके साथ?
अब वापिस हुए हम!
दिल्ली के लिए!
वे शांत तो थे,
लेकिन मन में भी था अभी भी!
और भय का होना,
लाजमी ही था!
मौत को सम्मुख देखा था उन्होंने!
कोई और भी होता,
तो प्राण छोड़ देता अपने!
यही हालत इनकी थी!
एक-दूसरे से चिपके हुए,
सामने देखे जा रहे थे!
गाड़ी भागे जा रही थी!

हम फरीदाबाद पहुंचे,
यहां जब तक हमने खाना खाया,
गोविन्द साहब ने,
गाड़ी का शीशा लगवा लिया,
साफ़-सफाई करवा ली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दोनों अभी भी भयत्रस्त थे!
साथ साथ ही बैठे थे,
खाना नहीं खाया था उन्होंने,
ना चाय ही पी थी,
अभी तक वे,
उन्ही दृश्यों में खोये हुए थे!
और मन ही मन,
कोस रहे थे उस रात को,
जब वो पहली बार टकराये थे,
उस औरत से!
मैंने बहुत समझाया,
लेकिन जितना समझ सके,
समझा,
जितना मैं समझा सका,
समझा दिया था!
अब वक़्त के हाथ में था सबकुछ!
वक़्त अच्छे अच्छे ज़ख्म भर दिया करता है,
इस से बड़ा कोई मरहम नहीं!
हाँ, कुछ ज़ख्म हरे ही रह जाते हैं,
कुरेदने पर,
ताज़ा हो जाते हैं!
अब इनकी हालत ये थी,
कि अब वो गाली तो क्या,
एक शब्द भी नहीं निकालेंगे,
कहीं भी जाते हुए!
हाथ और जोड़ लेंगे!
हम चले वहाँ से,
और आ पहुंचे दिल्ली,
हमे छोड़ा उन्होंने,
और मैंने उन्हें कह दिया कि,
अब घबराइये नहीं, वो नहीं आएगी अब,
उन्होंने बहुत बहुत धन्यवाद किया हमारा,
और दो दिन बाद दुबारा मिलने को कह दिया,
हम लौट आये वापिस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अगले दिन,
पहुंचे अपने स्थान,
दिन में आराम किया,
और फिर संध्या हुई,
थोड़ा खाया-पिया,
फिर हुई रात,
और आज मुझे इबु को हाज़िर करना था,
ताकि मैं उस औरत से बात कर सकूँ!
कहानी जान सकूँ उसकी!
रात हुई,
और मैं चला क्रिया-स्थल में,
अब बैठा,
और शाही-रुक्का पढ़ा इबु का!
इबु हाज़िर हुआ!
मैंने इबु से उस औरत को छोड़ने को कहा,
एक पल में ही,
वो औरत हाज़िर हो गयी!
डरी-सहमी सी!
इबु ने भोग लिया और फिर वापिस हुआ!
उसको वापिस भी एक अलग ही शब्द से भेजा जाता है,
ये पांच अक्षरों का शब्द है!
खैर,
वो गया, और रह गयी वो औरत!
मैं खड़ा हुआ,
उसने मुझे देखा,
"नमस्ते" वो बोली,
"नमस्ते" मैंने कहा,
अब उसने अपने आसपास देखा!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"पूनम" वो बोली,
"कहाँ की रहने वाली हो?" मैंने पूछा,
"आगरा" वो बोली,
"उन दो आदमियों को क्यों मारा-पीटा?" मैंने पूछा,
मित्रगण!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उसने एक कहानी सुनाई!
अपनी स्वयं की कहानी!
वही लिखता हूँ!
आगरे का रहने वाला एक संभ्रांत परिवार,
देवी-दर्शन के लिए निकला,
जिस दिन निकला था,
उस दिन पूर्णिमा का दिन था,
मंदिर आदि जाकर,
पूजा-पाठ करके,
वे रवाना हुए थे,
इस परिवार में,
एक बुज़ुर्ग दम्पति,
उनके दो बेटे,
अपने परिवार के साथ थे,
ये पूनम,
उन्ही दम्पति के छोटे बेटे,
पावन की पत्नी थी,
संतान नहीं थी उसके,
इसी कारण से वे लोग जा रहे थे,
वे लोग,
संध्या-समय निकले थे घर से,
जब वे उस स्थान पर पहुंचे,
तब पावन और उसका बड़ा भाई,
लघु-शंका के लिए नीचे उतरे,
गाड़ी रुकी हुई थी,
पीछे की पार्किंग-लाइट जली हुई थीं,
ये कोई साढ़े नौ का वक़्त रहा होगा,
ये पूनम भी बाहर निकली,
और सड़क की तरफ पीठ करते हुए,
अंदर बातें करने लगी,
तभी पीछे से आती हुई,
एक लाल रंग के टाटा-सफारी गाड़ी,
उस से टकराई,
और घसीटते ले गयी सड़क पर बेचारी को,


   
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श्रीशः उपदंडक
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गर्दन से पहिया उतर गया था,
मौक़े पर ही मौत हो गयी थी उसकी,
इतना ही नहीं,
वो गाड़ी, भाग भी गयी थी,
कौन चला रहा था, कहाँ की गाड़ी थी,
कुछ पता नहीं चल सका था!
ये थी इस अभागी औरत की कहानी,
इस हादसे को,
अभी चार साल गुजरे थे!
लाल रंग की टाटा सफारी गाड़ी!
यही तो थी उनके पास,
वैसे ही लाल रंग की,
उस रात महाजन और कपिल साहब के पास!
अब समझ आ गया मुझे सब!
सब माज़रा समझ में आ गया!
वो हत्यारा समझ रही थी उन दोनों को!
और हर लाल टाटा सफारी के सामने वो आया करती थी!
रात में ही!
दिन में कभी नहीं!
वो हादसा,
रात में हुआ था,
इसीलिए!
बहुत दुःख भरी कहानी थी इस औरत की!
मेरा दिल पसीज उठा!
वो भटकती रहती,
लोग शिकार बनते रहते उसके गुस्से का,
ये भटकाव,
उसका ना जाने कब तक चलता!
अतः, इस औरत को, पूनम को,
मुक्त करना अत्यंत आवश्यक था!
मेरे सामने जब उसने अपनी कहानी सुनाई,
तो रो पड़ी थी वो!
उसको याद आती थी अपने घर की!
अपनी बहनों की,


   
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श्रीशः उपदंडक
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भाइयों की,
माता जी की,
पिता जी नहीं थे उसके,
मैंने बहुत जतन किया,
उसको समझाया,
खूब समझाया,
तब जाकर मानी वो!
वो तैयार थी आगे जाने को!
अपना नया सफर शुरू करने को!
मुझे बहुत दया आई थी उस पर,
कोई पकड़ लेता उसको,
तो उस से मारन के कार्य ही लेता कोई!
अच्छा था,
मेरे हाथ लगी थी!
प्रेतों का दर्द कोई नहीं समझता!
कोई भी नहीं!
वे दर्द से ही प्रेत बनते हैं,
और दर्द में ही घिरे रहते हैं!
एक लड़का है,
मोहम्मद इलियास,
नौकरी करता है,
कभी कोई अमल नहीं सीखा उसने,
लेकिन बहुत संजीदा लड़का है,
किसी अर्थी को देखता है,
किसी असहाय को,
किसी निर्धन को,
लाचार को,
तो फूट फूट कर रोता है!
उसको, प्रेत भी दिखाई देते हैं!
अर्थियों के संग जाते हुए!
वे बात करते हैं उस से, कि ये छूट गया,
ये कमी रह गयी, इनसे ये कह दो, वो कह दो,
ऐसे!
ये प्रेत उसके संजीदापन को जान लेते हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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इसी कारण उस से संपर्क करते हैं!
सको भय नहीं लगता!
कैसे लगे!
उन जैसा ही समझता है अपने आपको!
खैर,
मैंने अब उसको अपनी मांदलिया में डाल लिया,
उसकी एक आखिरी इच्छा थी,
देवी-दर्शन की,
वो रह गयी थी!
वो पूर्ण करनी थी!
उस से पहले,
वो नहीं मुक्त होना चाहती थी!
दो दिन बाद,
मैंने यही बात महाजन साहब और कपिल साहब को बतायी,
और अपनी वो मांदलिया,
उनके साथ रख दी, सामान के साथ!
वे अगले ही दिन,
देवी-दर्शन के लिए चले गए!
चार दिन बाद वापिस आये!
उसी रात मैंने, पूनम को मांदलिया से निकाला!
वो खुश थी!
मित्रगण!
तीन दिन बाद,
मैंने उसकी मुक्ति-क्रिया पूर्ण कर दी!
वो मुक्त हो गयी!
मुझे बहुत सुकून हुआ!
वो बेचारी, अभागी पूनम,
अब मुक्त थी!
महाजन साहब और कपिल साहब,
उन्होंने पूनम के नाम पर,
ग्यारह दिन का भंडारा किया!
वस्त्र बांटे,
धन दान किया,
अनाथालयों में धन, वस्त्र, भोजन दान किया!
आज सब खुश हैं!
अब काम बढ़ गया है!
हाँ! अब जब भी आगरा जाते हैं,
तो उस पेड़ को, हाथ जोड़ना नहीं भूलते!
और मुझे मिलना! अक्सर ही मिलते हैं!
आज भी धन्यवाद करते नहीं थकते!
और गाली-गलौज! एक शब्द भी नहीं!
पूनम सब सिखा गयी है उनको!
---------------------साधुवाद!--------------------


   
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