वर्ष २०१३ दिल्ली की...
 
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वर्ष २०१३ दिल्ली की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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परखा!
कुछ लौंग फेंकी वहाँ!
और फिर सारी कहानी सुनी!
जैसे जैसे सुनता जाए,
और गंभीर होता जाए!
ये कोई ऐसा वैसा मामला नहीं था!
वो प्रेत बहुत ताक़तवर था!
जान भी ले सकता था!
उस तांत्रिक को उठा कर फेंक मारा था!
उसी दिन से वो जुट गया काम पर!
सामान आदि सब कुछ मंगा लिया!
मदिरा, मांस और न जाने क्या क्या!
और ले लिया एक कमरा!
उसने एक परात मांगी,
रेत से भरी हुई,
और एक खाली बोतल,
वो बोतल उसने उस परात में,
रेत के बीच गाड़ दी!
इसी में क़ैद करना था उस प्रेत को!
जो आतंक मचाये हुए था!
जीना हराम कर दिया था सभी का!
अब सुकून हुआ सभी को!
की ये बाबा बढ़िया है!
ये तो कर ही लेगा क़ैद!
उसी शाम,
बाबा ने,
कपिल साहब,
महाजन साहब और गोविन्द साहब के बाल काटे थोड़े थोड़े,
और अपने पास रख लिए,
और उनके साथ जमकर दावत उड़ाई!
और रात को कोई ग्यारह बजे,
चला गया अपने कमरे में!
गोविन्द साहब तो हीरो बन गए थे!
उनके मामा जी ऐसा कुशल आदमी लाये थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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की आज तो हर समस्या का अंत हो ही जाना था!
सब जाकर सो गए,
महाजन साहब भी चले गए!
और इधर ज्वाला भगत ने धूपबत्तियाँ जलाईं!
अगरबत्तियां जलाईं!
फूल-मालाएं सजाईं!
लोहबान जलाया!
पूरे घर में लोहबान की धूनी दी!
और फिर लग गया अपने काम में,
एक घंटा बीता!
और दिर दो!
ऊपर के कमरे से,
धरपकड़ की आवाज़ें आयीं!
जैसे गुत्थमार हो रही हो!
सबकी आँखें खुल गयीं!
अपने आप में सिमट गए सभी!
ऊपर तो घूसम-पट्टी सी हो रही थी!
तभी किसी औरत की आवाज़ गूंजी!
चिल्लाते हुए!
और फिर उस बाबा की!
कराहते हुए!
समझ ही नहीं आ रहा था कि,
हो क्या रहा है?
तभी छत पर रखे गमले फूटे!
एक एक करके!
ज्वाला बाबा रो रहा था!
बचाओ!
बचाओ!
चिल्ला रहा था!
और सबकुछ शांत हो गया!
ज्वाला बाबा सीढ़ियों से नीचे आया!
बचाओ! बचाओ! कहते कहते!
मामा जी और गोविन्द ने दरवाज़े खोले अपने अपने!
कपिल साहब ने भी खोला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जो देखा!
समझो खून जम गया सभी का!
बाबा खून से नहाया हुआ था!
कपड़े फटे हुए थे!
जले हुए थे!
धुंआ उड़ रहा था!
उसने पेट पकड़ा हुआ था अपना!
जब उसका पेट देखा, तो आंत का एक टुकड़ा बाहर आ चुका था!
सभी के सीने में शूल सा घुस गया!
और वो बाबा ज्वाला भरभराकर नीचे गिर गया!
गोविन्द ने उठाया उसे!
और भागे सभी लेकर उसको अस्पताल!
करवाया दाखिल!
उसके पेट से बोतल के कांच के टुकड़े निकले,
छाती में छेद थे,
कंधे जल गए थे!
बाल उखाड़ दिए गए थे!
अब तो और भय बैठा!
सभी के!
अब जान मुसीबत में थी!
सभी की!
क्या गोविन्द!
और क्या मामा जी!
सभी के नाड़े ढीले हो कर,
उलझ चुके थे!
और देखिये!
तभी महाजन साहब का फ़ोन आया!
एक और हथौड़ा चला!
उनके रसोईघर में आग लग गयी थी!
सारा सामान जल चुका था!
हाँ,
रसोईघर का दरवााज़ा नहीं जला था!
वो सुरक्षित था!
महाजन साहब बहुत डरे हुए थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आग बुझा तो ली गयी थी,
लेकिन डर की आग और भड़क गयी थी!
अब कपिल साहब ने बताया,
की वो अस्पताल में हैं!
चौंके महाजन साहब!
और बता दी सारी कहानी!
अब तो काटो तो खून नहीं!
महाजन साहब भागे घर से,
और सीधा अस्पताल आ गए बीस मिनट में!
मित्रगण!
वो रात!
सारी काली हो गयी!
बाबा ज्वाला तो,
अब रहने वाला था अस्पताल में,
करीब बीस दिन!
और इन बीस दिनों में,
ये लोग चालीस बार मरने थे!
सर पकड़ लिया उन्होंने अपना!
अच्छी गालियां दीं!
जान के लाले पड़ गए!
अब क्या किया जाए?
कहाँ से लाएं ऐसा आदमी?
सुबह हुई!
सारी रात के जागे वे लोग,
कार में ही सोये!
बेचारे!
घर जाने से डर लग रहा था!
बेचारे दफ्तर गए,
वहीँ नहाये-धोये!
जैसे दड़बा होता है न?
वैसे ही बैठे सब,
एक दूसरे से चिपक कर!
सर पकड़ कर बैठे थे वे सब!
तभी उनके पास एक व्यक्ति आये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे कपिल साहब के जानकार थे!
नाम है उनका प्रताप सिंह,
औद्यौगिक मंत्रालय से सेवानिवृत हैं वो,
मेरे जानकार हैं!
जब उन्होंने पूछा उनके इस हाल के बारे में तो,
उन्होंने कहा की उनके हैं एक जानकार!
एक बार उनसे सलाह ले लें!
कपिल साहब ने न आव देखा ताव!
झट से उसी समय शर्मा जी को फ़ोन कर दिया!
और अब देखिये!
उस समय न तो मैं,
और न ही शर्मा जी दिल्ली में थे!
हम उस समय गोरखपुर में थे,
वापिस आने में चार दिन थे!
वे इतना घबराये हुए थे कि,
हमसे वहीँ आ आकर मिल लेना चाहते थे!
मैंने मना किया,
और उनको चार दिन रुकने को कहा!
नहीं मान रहे थे!
किसी तरह से समझाया उनको!
उन्होंने वे चार दिन कैसे काटे!
ये, या तो वो ही जानते हैं,
या सिर्फ मैं और शर्मा जी!
और जब हम दिल्ली आये,
उसी शाम को सभी आ धमके हमारे वहां!
वहाँ का हाल देखा,
तो समझ गए कि,
हो सकता है ये आदमी,
कुछ कर सके!
जब वे आये,
तो चेहरे का रंग उड़ा हुआ था सबका!
काँप रहे थे!
बोलने कि हालत में भी नहीं थे!
मैंने संयत किया सभी को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अब सुनी उनकी बात!
गलती उनकी थी!
केवल इतनी कि,
उन्होंने गालियां दी थीं!
बाकी उन्होंने उस औरत को,
बचाने के लिए वही कदम उठाया था,
जो सही था उस समय!
शुक्र था कि कोई बस या ट्रक नहीं आ रहा था पीछे,
नहीं तो अनहोनी हो जाती!

वे चारों बेचारे,
पतझड़ के किसी पेड़ के बचे हुए,
पत्तों के समान व्याकुल थे!
कि ना जाने कब उस प्रेत की,
हवा चले,
और वो धड़ाम से नीचे गिर जाएँ!
उनकी हालत ऐसी थी,
कि कहीं जैसे क़त्ल-ए-आम हुआ हो,
और वे किसी तरह से बच आये हों!
डरे हुए,
कांपते हुए,
बेबस!
लाचार!
उन्होंने मुझे उन दोनों,
बाबाओं के बारे में बताया,
हैरत की बात थी कि,
वो बाबा भी उस प्रेत का कुछ,
भी ना कर सके थे!
बाबा ज्वाला तो अच्छा ओझा था,
फिर कैसे मार खा गया?
वो तो अभी भी,
अस्पताल में दाखिल था!
हालत नाजुक थी उसकी,
बस किसी तरह बच ही गया था!
अब सबसे पहले ये पता करना था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कि वो प्रेत इतना आक्रामक क्यों है!
इनके पीछे कैसे पड़ा है?
हरिद्वार तक कैसे पहुँच गया?
और अब, गोविन्द के घर भी पहुंच गया!
है तो वो औरत,
एक आम प्रेत ही है,
लेकिन इतनी आक्रामक?
बस यही पता करना था!
और इसके लिए मुझे,
उस पेड़ तक जाना था,
जहां उसका वास था!
यहीं से लगी थी वो पीछे इनके,
मैंने उनसे यही कहा कि मुझे,
उस पेड़ तक ले जाओ,
मैंने कहा,
और उनके सीने में जैसे विस्फोट हुआ!
डर के मारे घिग्घी बंध गयी!
कोई तैयार ही नहीं हुआ!
उनको दरअसल ये डर था कि,
अगर मैं भी असफल हुआ,
तो इस बार,
या तो वहीँ जान से मार देगी,
या फिर नहर में ही डूबना पड़ेगा!
जो बीच रास्ते में आती है!
अब शर्मा जी को गुस्सा आया,
खूब सुनाई उन्हें,
कि जाओ यहां से वापिस,
और जो कर सके उसके पास चले जाओ,
अगर विश्वास है,
तो चलो अभी,
नहीं तो जय राम जी की!
अब मरता क्या नहीं करता!
मान गए बेचारे!
मैं उनके डर को जानता था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इसीलिए अधिक कुछ नहीं कहा उनसे,
दो गाड़ियां थीं उनके पास,
अब हम उसी समय वहाँ के लिए निकल पड़े,
कपिल साहब और महाजन साहब,
बेचारे काँप रहे थे!
टांगें साथ नहीं दे रही थीं!
शरीर में जान नहीं थीं!
बाकी बची दाढ़ें टीस रही थीं!
कपिल साहब का कान का पर्दा काँप रहता था!
नकसीर छूटने का एहसास हो रहा था!
फिर भी चल पड़े!
हमने फरीदाबाद पार किया,
और आगे बढ़ चले,
फिर बल्लभगढ़,
और बढ़ चले आगे,
एक जगह बीच में रुके,
यहाँ कुछ चाय-ठंडा पिया,
उन दोनों के चेहरों पर,
हवाइयां उड़ रही थीं!
उस औरत के बारे में सोच सोच कर,
घुले जा रहे थे!
मैं जान रहा था उनके बारे में,
लग रहा था कि जैसे,
कसाई के पास ले जा रहे हों,
बकरों को!
हम अब चले,
पलवल पार किया,
और फिर होडल,
और चल दिए आगे,
फिर से रुके,
यहां शिकंजी पी,
और फिर चल पड़े आगे,
कोसी आ गया,
कोसी पार किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जैसे ही पार किया,
वे दोनों ही कांपने लगे भय के मारे!
कभी मुझे देखते,
कभी बाहर को देखते,
मकड़ी के जाल में फंसे कीट के समान,
फड़क रहे थे!
मैंने उनकी हिम्मत बंधाई बहुत!
लेकिन वो तो मान ही नहीं रहे थे!
बाहर झांकते,
और जब कोई औरत दिखाई देती बाहर,
तो उछल पड़ते थे!
और हुई अब गाड़ी धीमी,
वो जगह बस आने को ही थी!
और थोड़ी देर में,
वो आ ही गयी!
रुक गयी गाड़ी!
और रुकी उनकी साँसें!
सीट से चिपक गए दोनों!
हाथ काँप उठे उनके!
वो पेड़ दाहिनी तरफ था,
ये शीशम का एक बड़ा सा पेड़ था,
उन्होंने पहले पीपल बताया था!
वो पेड़ अधिक घना नहीं था!
अब मैं उतरा गाड़ी से,
और वहीँ से पेड़ को देखा,
सामान्य सा पेड़ था!
अब फिर से गाड़ी में बैठा,
और आगे से गाड़ी मोड़ने को कहा,
और तभी कपिल साहब चीखे!
गाड़ी में ब्रेक लगे!
कपिल साहब ने कुछ देखा था!
मैंने गाड़ी पीछे मोड़ने को कहा,
गाड़ी पीछे हुई,
और एक जगह रुक गयी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कपिल साहब का मुंह खुला था,
महाजन साहब ने आँखें फेर ली थीं.
कपिल साहब ने बाहर इशारा किया,
मैं उतरा, और कलुष-मंत्र पढ़ा!
मंत्र जागृत हुआ,
अब मैंने अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये!
नेत्र खोले!
दृश्य स्पष्ट हुआ!
और अब सामने देखा!
सामने सड़क के पार,
एक पेड़ गिरा हुआ था,
उसी पेड़ पर,
एक औरत बैठी थी,
अपने दोनों पाँव हिला रही थी!
उसकी नज़रें,
हमारे ऊपर ही जमी थीं!
हाथ में एक गन्ना सा था!
औरत गुस्से में थी बहुत!
ऐसा ही लग रहा था उसको देख कर!
अब मैं आगे बढ़ा,
आसपास देखा,
इक्का-दुक्का वाहन गुजरे,
शर्मा जी भी मेरे साथ चले,
मैंने सड़क पार की,
और उस मार्ग-भाजक पर आया!
वहाँ खड़ा हुआ,
और औरत,
खड़ी हो गयी!
मैंने फिर से शेष सड़क पार की,
और अब उस पेड़ की तरफ चला!
उस औरत ने हमे देखा,
और उस पेड़ पर,
पीछे की ओर चली!
खिसकते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गन्ना अपनी बगल में दबाये हुए!
मैं आगे बढ़ा,
और आगे!
उसने अपना गन्ना मारा फेंक कर मुझे!
गन्ना मेरे बाएं से निकल गया!
मैं रुक गया!
और वो खड़ी हुई!
और एकदम सामने आ गयी मेरे!
शाम हो चुकी थी!
सूर्य अस्त हो चले थे,
वाहनों ने अपनी बत्तियां,
जला ली थीं!
उनका प्रकाश पड़ता था हम पर!
मैं आगे बढ़ा,
और वो भी आगे हुई,
उसकी उम्र कोई तीस-पैंतीस वर्ष की रही होगी,
गोरा रंग था उसका,
साड़ी करीने से बाँधी हुई थी उसने,
सभ्रांत परिवार से ताल्लुक रहा होगा उसका,
गले में,
एक सफ़ेद रंग की माला पहनी हुई थी,
हाथ-दांत जैसी!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
उसने घूरा मुझे,
शर्मा जी को,
और उसके बाल उड़े,
आधे उसके चेहरे पर आ गए!
अब लग रही थी वो पूरी चुड़ैल सी!
"बता?" मैंने पूछा,
गुर्राई वो!
गुस्से में भड़की!
और एक झटके में ही,
पीछे हो गयी!
हवा में उठी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और सीधा उस पेड़ के पार जा उतरी!
हमसे कम से कम दस मीटर आगे!

मैं आगे बढ़ा!
और वो रुक गयी वहाँ!
कद काफी ऊंचा था उसका,
मेरे कंधे से ऊपर ही आती वो!
और फिर से उछली वो!
पेड़ पर कूदी,
आगे बढ़ी,
और छलांग लग दी उसने मेरे ऊपर!
मैंने अपने आपको संभाला,
लेकिन उसके नाख़ून मेरे गले को चीरते हुए चले गए!
खून छलछला गया उसी समय!
वो फिर से उछली और कूदी मेरी तरफ!
मैंने यौमिक-विद्या का संधान किया!
मात्र एक शब्द ही पढ़ा था,
कि वो उड़ कर गिरी बहुत दूर!
बहुत दूर!
मैं भाग चला उसके पास!
वो खड़ी हुई!
और डर के मारे बैठ गयी नीचे!
डर!
हाँ!
वो डर गयी थी!
यौमिक-विद्या से जो टकराई थी!
यौमिक-विद्या से कोई भी अशरीरी टकरा नहीं सकता!
ये स्थूल तत्व पैदा करती है उसमे!
और इस कारण से,
उसको चोट भी पहुँचती है!
ये अत्यंत जटिल विज्ञान है!
वो बैठी हुई थी!
मुझे देख रही थी!
"कौन हो तुम?" मैंने कहा,
वो चुप रही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताओ?" मैंने पूछा,
वो खड़ी हुई!
और टहलने लगी!
लेकिन बोली कुछ नहीं!
और तभी सड़क की तरफ इशारा किया उसने,
मैंने वहीँ देखा,
वहाँ गाड़ी खड़ी थी!
जिसमे,
कपिल साहब और महाजन साहब बैठे थे!
डर के मारे उनकी गर्दन घुटनों से जा लगी थी,
कार की सीट पर!
"क्या किया उन्होंने?" मैंने पूछा,
उसने गुस्सा किया उन्हें देख कर!
गुर्राने सी लगी!
अब साफ़ था!
बहुत गुस्सा थी वो उन दोनों से!
मार ही डालती वो उनको यदि कोई,
सटीक मौक़ा मिलता तो!
लेकिन अब मैं बीच में था!
मेरी कोशिश यही थी कि,
कुछ भी करके,
इस मामले को शांत किया जाए,
ये बख्श दे उनको अब!
बहुत हुआ, अब बहुत हुआ!
उन्होंने तो हाथ भी जोड़ लिए हैं!
"तुम कौन हो?" मैंने पूछा,
अब उसने देखा मुझे!
सामने आई!
मुझे गंध आई,
रक्त की गंध!
जैसे खूब सारा रक्त बह रहा हो,
जैसे रक्त-रंजित किसी शरीर के पास,
खड़ा होऊं मैं!
"बताओ?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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उसने फिर से इशारा किया उस गाड़ी की तरफ!
"माफ़ कर दो उन्हें!" मैंने कहा,
उसने गुस्से से देखा मुझे,
हाथ उठाकर दिखाया,
कि मारूंगी अभी एक झापड़!
मित्रगण!
मुझे दया सी आ गयी उस पर उस क्षण!
एक प्रेत ऐसा करता है!
अपना क्रोध ज़ाहिर करता है!
ये लाजमी है!
अँधेरा गहराता जा रहा था!
वाहनों के प्रकाश में,
हमारे शरीर झिलमिला पड़ते थे,
लेकिन उस औरत का नहीं!
वो केवल श्वेत ही थी!
प्रकाश पार कर जाता था उसको!
"अपना नाम बताओ?" मैंने पूछा,
उसने फिर से गाड़ी की तरफ इशारा किया!
बहुत गुस्सा थी वो!
बहुत गुस्सा!
"नमस्ते" वो बोली,
मैं चौंका!
ये क्या?
पल में ही परिवर्तन?
कैसे?
"नमस्ते" मैंने भी कहा,
"वो" वो बोली,
उस गाड़ी की तरफ इशारा करके,
मैं समझ गया!
जब तक वो गाड़ी यहां रहेगी,
ये बात नहीं करेगी!
अब मैंने शर्मा जी से कहा कि,
गाड़ी हटवा दें वहाँ से,
शर्मा जी दौड़े,


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाड़ी के पास पहुंचे,
और गाड़ी आगे ले जाने को कहा,
और गाड़ी जैसे ही आगे हुई,
वो भागी!
सीधी गाड़ी के पास!
इस से पहले कि मैं कुछ करता,
गाड़ी के सामने वाले शीशे को लात मारकर फोड़ डाला!
अब मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था!
मैं भागा वहाँ!
इस से पहले कि वो महाजन साहब और कपिल साहब को,
पकड़ कर मारे, उन्हें किसी वाहन के सामने फेंके,
मैंने शाही-रुक्का पढ़ दिया!
खिलखिलाता हुआ इबु हाज़िर हुआ,
मैं इशारा किया उसको उस गाड़ी की तरफ!
वो हुआ लोप और वो औरत भी धुंए की तरह से गायब हो गयी!
और वे दोनों!
बालकों की तरह रो रहे थे!
डर रहे थे!
मैं पहुंचा वहाँ,
और समझाया उनको,
उनको तो जैसे दौरा पड़ा था,
एक-दूसरे से चिपके हुए थे!
सभी समझा रहे थे कि सब ठीक है!
सब ठीक है!
लेकिन वे नहीं मान रहे थे!
रो रहे थे!
माफ़ी मांग रहे थे!
उस औरत से माफ़ी मांग रहे थे!
बार बार!
कान जैसे,
उनके बंद हो गए थे!
उस औरत को जब शीशा फोड़ते देखा होगा उन्होंने,
तो घबरा गए होंगे!
वही डर,


   
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