वर्ष २०१३ दतिया, मध...
 
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वर्ष २०१३ दतिया, मध्य-प्रदेश की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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अब हम उतरे वहाँ से, और अब हमारा गंतव्य था वो कन्दरा, जहाँ सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाना था, ये अंतिम पड़ाव था! वो कन्दरा अधिक दूर नहीं थी, कुछ सौ मीटर दूर ही थी, दिल अब ज़ोर से धड़क रहा था, इतने सारे किये गए श्रम का अब फल पकने को था! न जाने अगले पल क्या हो, क्या हो यदि बाबा खंडल इसका विरोध करे! किसी भी मदद की आशा नहीं थी! बस, मन में एक अगाध श्रद्धा थी, अपने उन गुरु श्रेष्ठों के लिए, जिन्होंने मेरा समग्र मार्गदर्शन किया था! बाबा ऋद्धा का वो सम्पूर्ण ज्ञान, जो मैंने बरसात में, कीचड़ में, जंगल की नमी में, कीड़ों से कटवाते बीच, नमी में, ग्रहण किया था, एलाबंध भेदना उन्हीं का ज्ञान था! बाब ऋद्धा के एक शिष्य आज भी हैं, असम में, वे अभी भी कन्दरा में ही वास करते हैं, नितांत अकेले! हालांकि, मैं उनसे बरसों से नहीं मिला हूँ, सच कहूँ, तो मार्ग ही याद नहीं मुझे अब वो, बरसों पहले वहां भू-स्खलन हुआ था, कुछ मार्ग सदा के लिए बंद हो गए, कुछ नए खुले, कुछ नयी झीलें, पोखर बन गए, भूगोल ही बदल गया, अब नहीं कह सकता कि मैं वहां तक पहुँच सकता हूँ या नहीं! खैर, अब मेरे सामने मूल प्रश्न यही था, कि एलाबंध का भेदन कैसे किया जाए, कैसे एलाबंध से वे सभी मुक्त हों और किस प्रकार से मैं उनके काम आ सकूँ! और सबसे बड़ी बात, मेरे वो प्रश्न, जो मेरे गले में फंदा बन, न जाने कब से पड़े हुए थे, अब तो उनका कसाव बेहद बढ़ गया था, सांस लेना भी दूभर हो चला था! मेरे संग, शर्मा जी ने भी खूब मिट्टी फांकी थी, खूब उलझे थे, खूब ही परेशान भी हुए थे, खूब ही जल के प्यासे भी रहे थे, सामने देखते हुए, मेरे संग अब, वे भी बढ़े चले जा रहे थे उस कन्दरा की तरफ!
हम नीचे उतर चले थे, और अब, कुछ ही दूर वो बड़ी सी कन्दरा थी, दीख रही थी साफ़ साफ़, कुछ ऊपर चलना था और उसका मार्ग शुरू हो जाता! हमने कुछ पल इंतज़ार किया, पश्चिमी क्षितिज पर, सूर्य अब लालिमा में लिपट कर, लाल हो गए थे! आकाश में, पक्षी, वापिस लौट रहे थे अपने अपने बसेरों को, कुछ ही देर में सन्ध्यावसान हो जाता और फिर रात्रि का आगमन होता!
"चलें?" पूछा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोले वो,
और हम चल पड़े, चल पड़े उस कन्दरा के लिए! वो छोटा बैग, जो मेरे कंधे से बंधा था, अब उसका काम आना तय था! हमने अब चढ़ना शुरू किया, पत्थरों से बचते-बचाते, झाड़ियों से बचते-बचाते हम ऊपर चढ़ने लगे! कन्दरा का मुहाना दिखने लगा था, ये कन्दरा काफी बड़ी लग रही थी!
और इस तरह, हम उस कन्दरा के मुहाने पर आ गए! कन्दरा के मुहाने पर, रंग-बिरंगे से धूमिल निशान बने थे, शायद, बरसात और वक़्त ने चाटना रोका नहीं था उन्हें! कन्दरा के ऊपर, दो बड़े से छिद्र थे, काफी बड़े, जिनमे कोई इंसान आसानी से खड़ा हो सकता था! उसका मुहाना करीब चालीस फ़ीट के आसपास का तो रहा ही होगा, हम तो बौने लग रहे थे उसके सामने!
"आइये!" कहा मैंने,
और हमने, अपने मोबाइल की टोर्च जला लीं, अब तो उनमे बैटरी भी कम ही बची थी, न जाने कब ख़त्म हो जाएँ, काम आता तो फिर बस, शर्मा जी का लाइटर, उसी से कोई लकड़ी, मशाल बना कर पजारी जाती और उसके सहारे ही हम आगे बढ़ते! हम अंदर घुसे, ठूंठ और फोकी सी लकड़ियाँ पांवों के नीचे आने लगीं, कीड़े इधर-उधर दौड़ने लगे! दीवारों पर, चमगादड़ लटके थे, बस कुछ ही देर में उनके उड़ान भरने का समय होने वाला था, ये तो शुक्र था, कि वो जगह जगह लटके थे, झुण्ड में नहीं, नहीं तो मारे बदबू के अंदर भी नहीं जाया जाता!
"आराम से!" शर्मा जी बोले,
मेरा पाँव फिसलने को था एक पत्थर से टकरा कर,
"हाँ हाँ!" कहा मैंने,
हम अंदर चलने लगे! और जैसे ही अंदर आये, रास्ता घूम गया, वो दायें हो चला था, हम भी दायें हो चले थे, यहां कन्दरा में, गंदगी नहीं थी, किसी जानवर का आवास भी नहीं था, रास्ता चौड़ा था और समतल भी था, जैसे नीचे बड़े बड़े से पत्थर बिछाये गए हों!
"श्ह्ह्ह!" बोले वो,
कुछ सुना था उन्होंने,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने फुसफुसा कर,
"ध्यान से सुनो?" बोले वो,
मैंने कान लगाये, सुनने की कोशिश की, कुछ सुनाई दिया, जैसे कोई दो लोग फुसफुसा रहे हों, आवाज़ स्पष्ट न थी!
"हाँ, कोई फुसफुसा रहा है शायद!" मैंने धीरे से कहा,
"आगे चलो, आराम से!" बोले वो,
तब हम, धीरे धीरे आगे चले, जैसे ही आगे आये, तो पता चल गया कि वो फुसफुसाहट क्या थी, वो हवा थी, उसका झोंका जब आता तो गुफा के किन्ही छेदों में से रास्ता बनाते वक़्त, वो आवाज़ पैदा होती थी!
"आओ!" कहा मैंने,
यहां प्रकाश था, छेद हुआ, हुआ था छत में, लालिमा रास्ता बना, अंदर आ रही थी! भले ही मद्धम थी, लेकिन देखने के लिए पर्याप्त थी!
"वो सामने रास्ता है!" बोले वो,
"हाँ, आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम चले उस तरफ ही, और उस रास्ते पर आ गए, और जैसे ही उस रास्ते को देखा, पता चल गया कि वो प्राकृतिक नहीं था, वो बनाया गया था! ये छह फ़ीट चौड़ा और करीब बीस फ़ीट लम्बा था, उस रास्ते में, चार कक्ष, दायें और बाएं बने थे, कक्ष खाली थे, कुछ नहीं था, नमी की बदबू थी और काई सी जमी थी दीवारों पर!
वो रास्ता फिर से घूमा, इस बार बाएं! और वहाँ का रास्ता कुछ साफ़-सुथरा सा लगा, वहाँ भी दो कक्ष बने थे, हमने उनको भी देखा, वहाँ भी कुछ नहीं था, खाली थे वे कक्ष भी!
"कुछ नहीं है!" कहा मैंने,
"आगे चलो!" बोले वो,
हम आगे बढ़े,
आगे आये, तो सीढ़ियां पड़ीं, कुल चार, उतर आये, सांप की फुफकार सी आई, मारी रौशनी उस पर, बड़ा लम्बा-चौड़ा सांप था वो, काला नाग था, करीब पांच फ़ीट दूर बैठा था, उस से बचते हुए हम आगे बढ़े, जब आगे बढ़े तो एक और रास्ता दिखा, इसमें आये तो कन्दरा से ही बाहर आ गए! अब तो बाहर उजाला भी साथ छोड़ने लगा था, आकाश में, तारे, भले ही एक दो, चमकने लगे थे, सूर्य अस्तांचल में प्रवेश कर चुके थे, अब वहां घोर सन्नाटा पसरा था! आसपास के झींगुर, मंझीरे, कीड़े-मकौड़े सब अपने अपने क्रिया-कलापों में लग गए थे,
"अब?" बोले वो,
"कहा तो कन्दरा में ही था?" कहा मैंने,
"आगे-पीछे देखते हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हमने आगे पीछे वहाँ की जांच की, कुछ नहीं था वहां, जंगल ही जंगल और पीछे वो कन्दरा, और कुछ नहीं, ये तो वही निकला, आसमान से गिरे, खजूर में अटके!
तभी कुछ सुनाई दिया!
जैसे कोई भजन गए रहा हो!
ठीक सामने कहीं! कोई कोई शब्द तेजी से गूँज जाता था और वही हमें सुनाई भी पड़ जाता था! हम दोनों को जैसे राह मिली!
''आओ!" बोला मैं,
"चलो, वहीँ!" बोले वो,
आहिस्ता आहिस्ता, आराम आराम से हम नीचे उतरने लगे! चलने लगे उस भजन की तरफ, अचानक से, वो भजन बंद हो गया! फिर से अटक गए हम!
"सीधे ही चलो!" बोला मैं,
"चलो!" कहा उन्होंने,
हम सीधे ही चलते रहे! पेड़ों का एक झुरमुट आया, यहीं रुक गए, आसपास देखा, कोई नहीं था, कहीं कोई धोखा तो नहीं हुआ था? कान तो नहीं बज गए थे?
"आवाज़ तो यहीं से आई थी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
आसपास रौशनी मारी, कहीं कोई नहीं!
तभी हम दोनों की नज़रें सामने रुकीं!
"वो? वो कैसा प्रकाश?" पूछा मैंने,
"जैसे कोई दीया?" बोले वो,
"कन्दरा से?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"पहले तो नहीं था?" कहा मैंने,
"कहीं ओट में न हो?" बोले वो,
''सम्भव है!" कहा मैंने,
"आओ, दौड़ो!" कहा मैंने,
और हम फिर से लौट पड़े! भागने लगे!
आये रास्ते पर, चढ़े फिर से!
प्रकाश टिमटिमा रहा था, जैसे कोई बड़ा सा दीया!
कन्दरा के बाएं भाग से आ रहा था वो प्रकाश!
हम पहुंचे वहाँ, प्रकाश को देखते हुए, आगे बढ़ते गए!
फिर से घुसे अंदर, प्रकाश की चमक फैली थी!
भन्न! भन्न! भन्न!
ऐसी आवाज़ हुई! कान फट जाते हमारे तो! हाथों से ढकना पड़ा!
"ये क्या था?" पूछा मैंने,
"आओ, देखते हैं!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम फिर से अंदर चले आये थे, फिर से उसी रास्ते पर चले जहां से वो प्रकाश आ रहा था, आसपास देखा, तो ठीक दायें एक और रास्ता दिखा, शायद अँधेरे में ये रास्ता छूट गया था हमसे!
"ये भूल गए थे हम!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
''आओ फिर!" कहा मैंने,
''चल रहा हूँ!" बोले वो,
हम चलने लगे उधर, तो फिर से सीढ़ियां पड़ीं! इस बार भी कुल चार! उतर गए हम!
"आओ, आराम से, सीढ़ियों पर, फिसलन है!" चेताया मैंने उन्हें,
"चलो!" नीचे आ कर बोले वो,
अब आगे चले, तो फिर से सीढ़ियां पड़ गयीं! इस बार चार फिर से कुल!
"आओ!" कहा मैंने,
"ये कैसा स्थान है?" बोले वो,
चढ़ आये ऊपर, और चले रास्ते के साथ साथ,
"अजीब सा ही स्थान है, या फिर अँधेरे में ऐसा लग रहा होगा!" कहा मैंने,
"अँधेरे की वजह से ही!" बोले वो,
भन्न! भन्न! भन्न!
फिर से वही आवाज़!
कान फोड़ के रख दिए! ऐसी गूंजे कि आंसू तक निकल आएं!
और फिर आवाज़ शांत, अपनी गूँज के साथ कम पड़ती गयी!
"घंटे जैसी आवाज़ है!" बोले वो,
"इतना बड़ा घंटा?" कहा मैंने,
"हाँ, हो सकता है!" कहा उन्होंने,
तभी दीवार में एक कोटर सा दिखा, करीब चार फ़ीट ऊपर, ज़मीन से, यहां से भी प्रकाश आ रहा था, हम दोनों ने झाँका अंदर! अंदर एक बड़ी सी पिंडी के ऊपर, एक बड़ा सा तसला रखा था, तसले में ही अग्नि प्रज्ज्वलित थी! प्रकाश इसी का था!
और तभी दीवार के पास, उस पार कुछ हिलता सा दिखा! जैसे कोई छिप गया हो हमें देख कर, हमारे तो कान खड़े हो गए, आँखें फट गयीं!
"कोई है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
डाली रौशनी, लेकिन उस अग्नि के प्रकाश में कहाँ पता चले उस छोटी सी टोर्च की रौशनी का! अंदर जाने का कोई रास्ता था नहीं, न दायें और न बाएं, न ही कोई अन्य द्वार, कोई हो, तो कहीं और ही हो, यहां तो नहीं था!
और तभी कोई सर्राट से खिसका, चला बाहर की तरफ! वो जैसे झुक कर निकला था! हम तो सकते में ही आ गए थे, क्यों निकला था वो ऐसे? आखिर था कौन वो?
"यहीं से चलना होगा!" कहा मैंने,
और उठा ऊपर, रखी टांग उस कोटर में, शर्मा जी की मदद से, अंदर कूद गया, और फिर शर्मा जी की मदद की, और उन्हें भी अंदर खींच लिया, अग्नि का ताप बहुत तेज था, झुलसा देने वाला ताप था उसका, हम बस भाग लिए वहां से, उसके पीछे जो भागा था, सामने के रास्ते से!
"आओ जल्दी!" कहा मैंने,
और हम, बिना कपड़े झाड़े ही, दौड़ लिए सामने की तरफ! सर्र-सर्र की सी आवाज़ आ रही थी सामने, जैसे कोई कुछ खींच कर ले जा रहा हो, अब हाथ लगे तो पता चले! हम आये एक जगह, ये खुला सा स्थान था, आवाज़ बंद हो गयी थी, हम भी शांत ही खड़े रहे, कान लगाये हुए, आसपास, टोर्च मार रहे थे, पीछे से लपलपाती हुई रौशनी से बनती हुईं हमारी परछाइयाँ हमसे ही बातें कर रही थीं, सन्नाटा पसरा था वहाँ! ज़रा सी आहट होती थी, तो वहीँ कान लग जाते थे हमारे!
"कहाँ गया?" फुसफुसा के पूछा मैंने,
"यहीं कहीं होना चाहिए, और कोई रास्ता तो है नहीं?" बोले वो,
कुछ पल ऐसे ही आगे खिसके, कुछ और भी खिसक गए!
और फिर से सर्र-सर्र की आवाज़ हुई!
ये हमारे पीछे से हुई थी!
हम, एक झटके से पलट गए!
टॉर्चों की रोशनियाँ एक हों, पड़ीं किसी पर!
वो एक इंसान सा लगता था, बैठा हुआ, उकडू बैठा हुआ, लबादा सा ओढ़ रखा था उसने, उसके दोनों हाथ, ज़मीन पर फैले थे, देह और भुजाएं बड़ी ही मज़बूत थीं उसकी, चेहरा भी भारी और बड़ा था! वो जैसे हमसे घबरा रहा था! हमें देखता और नज़रें झुका लेता!
हम बढ़े उसकी तरफ, उसने चेहरा नीचे कर लिया था अपना,
और हम ,पहुँच गए उसके पास, कोई हथियार नहीं था उसके पास, हमें डरने की कोई आवश्यकता नहीं थी, निःसंदेह  वो प्रेत था, एक भीरु-प्रेत जो इंसानों से डरा करते हैं!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
उसने कोई जवाब नहीं दिया,
"डरो नहीं, बताओ?" पूछा मैंने,
कोई जवाब नहीं दिया उसने,
मैं तब, नीचे बैठा, उसके हाथ पर रौशनी डाली, नाख़ून लम्बे और बदरंग थे उसके, काले पड़े हुए थे, जैसे उसने साफ़-सफाई ही न की हो उनकी, उसकी कलाइयों में, कौड़ियों की मालाएं सी बंधी थीं, काली कौड़ियां, मैंने उसके पाँव देखे, नंगे पाँव था वो, उसके पाँव देख, मैं चौंक पड़ा, वो जैसे मांसहीन थे, बस हड्डियां ही हड्डियां, कृशकाय सी देह थी उसकी, कमर से नीचे की, साफ़ स्पष्ट था वो जन्म से ही किसी गंभीर, अस्थियों के किसी रोग से पीड़ित था, वो अपाहिज था, इसीलिए रगड़ के चलता था, उसके लम्बे केश, रूखे केश नीचे तक झूल रहे थे, उसके नीचे किये हुए मुंह से, लार टपक रही थी, जिसे वो बार बार, अपने हाथ से पोंछता था, उसको पोंछना पड़ता था! मुझे दया आ गयी उस पर! सच में, उसकी हालत देख कर, मुझे दया आई, कैसे उसने अपने आपको बचाया होगा? कैसे जीवन-निर्वाह किया होगा? वो अपाहिज था, क्या इसी कारण से क्षमा-दान मिली उसको?
"कौन हो तुम? मुझसे न डरो, मुझे बताओ, कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
कोई जवाब नहीं, उत्तर ही नहीं दिया उसने कोई,
मैंने उसके हाथ पर हाथ रखा, हाथ बरफ़ जैसा ठंडा था उसका, उसने एक नज़र भर, मुझे देखा, उसका चेहरा कुरूप था, उसके चेहरे के हड्डियां, अव्यवस्थित थीं, जैसे गूमड़ निकले हों चेहरे पर, ये अस्थि-विकार था, जिस से ये अभागा पीड़ित था!
"बताओ?" कहा मैंने,
"ये नहीं बोल सकता!" आई एक आवाज़!
मैं झट से उठ खड़ा हुआ!
ये बाबा ढाकल थे!
चिमटा खड़काए, बढ़ रहे थे हमारी तरफ!
आये हमारे पास, हमने प्रणाम किया उन्हने!
और वो, वो जो था, उनके पाँव पकड़, बैठ गया था उकडू!
"ये दहानु है, खेमू का अग्रज, उसका प्यारा भाई, बाबा खंडल के प्राण!" बोले बाबा!
दहानु! खेमू का अग्रज!
परन्तु अपाहिज बेचारा! अभागा!
इसीलिए अपने भाई, खेमू का दुलारा रहा होगा, एक बालक की तरह!
इसीलिए बाबा खंडल के प्राण रहा होगा, सर्वप्रिय की तरह!
समझ सकता था मैं! आखिर देहांश था दहानु सभी का! भले ही अपाहिज था, परन्तु एक परम-शक्तिशाली भाई का भाई और एक महा-ढौमर का पुत्र था दहानु!
लेकिन मित्रगण!
अब खोपड़ी गरम!
और सोच भसम!
फिर से फिरकी घूमी समय की!
फिर से कर्र-कर्र की आवाज़ हुई उसकी धुरी की!
फिर से वही सवाल उठ खड़े हुए!
गले में पड़ा फंदा, फिर से कसने लगा!
आखिर?
आखिर वो क्या कारण था?
वो कौन सा कारण था कि ऐसा महा-रक्तपात हुआ?
क्यों सैंकड़ों मासूम बलि चढ़ा दिए गए?
"उत्तर यहीं है!" आई आवाज़ बाबा ढाकल की!
हमने चौंक कर देखा उन्हें!
"यहीं! यहीं हैं सब उत्तर! और यहीं हैं, बाबा हरलोमिक, बाबा औला, खेमू, हिरानु, ऋतुवेश! सब यही हैं!" बोले वो, चिमटा खड़काते हुए!
और हमें देखा! कुछ बुदबुदाये, बढ़े आगे,
रखा हाथ कंधे पर उन्होंने दहानु के,
दहानु ने उठाया सर, मुस्कुराये बाबा ढाकल और किया अपना चिमटा आगे!
"दहानु! अंत हुआ! जा! जा! ले जा इन्हें!" बोले बाबा!
"जय जय रूपा! जय जय ढाकेश्वरी!" महानाद किया बाबा ने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जाओ! संग जाओ इसके! ये ले जाएगा! ले जाएगा! जय जय रूपा! जय जय ढाकेश्वरी!" ये नाद करते हुए, बाबा ढाकल लौट गए, लौट गए बाहर! जहां से आये थे!
और तब सरकते हुए वो दहानु आया हमारे पास, हमें देखा, मुझे और शर्मा जी को, अपनी कोहनी मोड़, इशारा किया एक तरफ, एक तरफ, जहां वो हमें ले जाना चाहता था!
"चलो दहानु!" कहा मैंने,
और दहानु, आगे खिसकता हुआ, सरकता हुआ चल पड़ा! हम उसके पीछे पीछे चल पड़े! वो सीढ़ियां चढ़ा, हमें देखा, हम पीछे ही थे उसके,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम भी चढ़ दिए सीढ़ियां!
वो आगे एक रास्ते पर जा घुसा, हमें देखा, वो देखता था कि हम, आ रहे है उसके पीछे पीछे या नहीं, हम पीछे ही थे, चल पड़ते थे उसके साथ साथ! वो बार बार अपने मुंह की लार पोंछता, हाथ अपने लबादे से रगड़ता और चल पड़ता आगे, वो अपाहिज था, कष्ट के साथ चलता था, कभी-कभार लगता वो लुढ़क जाएगा, मैं दौड़ पड़ता और जैसे ही झुकता उसे सहारा देने को, वो ठीक से संतुलन बना लेता था, जीवन के इसी ढर्रे का अादी बन चुका था वो, हालांकि मेरी परवाह करना उसके लिए, बेमायनी ही थी लेकिन मुझे, इंसानी इख़लाक़ों की इज़्ज़त करना बेहद पसंद है, ऐसा कह सकते हैं! जो इंसान इंसानी इख़लाक़ों से परे हो, उसे इंसान कहलाने का कोई हक़ नहीं!
आगे जाकर, दहानु रुक गया, हमें आते देखा तो एक तरफ हो गया, और अपनी कोहनी से इशारा किया, ये एक कक्ष था, यहां रौशनी नहीं थी, उस अलाव की हल्की सी ही रौशनी ही वहाँ पहुँच पा रही थी, जो कि सिर्फ छत तक ही क़ैद थी!
"यहां दहानु?" पूछा मैंने,
उसने सर उठाया, और फिर हाँ में सर हिलाया!
उसे सर हिलाते हुए भी कष्ट हुआ था, फिर भी उसने सर हिलाया अपना!
उसके बाद, दहानु लौट गया, रुक रुक कर, बीच में देखता, पलट पलट के देखता! न  जाने कौन सी इच्छा दफन किये, दिल में पाले बैठा था! उसने आखिरी बार हमें देखा, और उतर गया सीढ़ियां!
उस समय, मुझे ईश्वर की बहुत याद आई!
स्मरण हो आया!
क्या क्या बिसातें बिछाई हैं उसने!
क्या क्या और ग़ज़ब के खेल खेलता है वो!
उसके सब्र का कोई छोर नहीं!
उसके जैसा कोई सब्र वाला नहीं!
उसको पत्थर कहो, कागज़ कहो!
ज़मीन कहो, आसमान कहो!
रेत कहो, मिट्टी कहो!
खुदा कहो, भगवान कहो, या अन्य कुछ भी!
यहां दीखती है उसके बेपनाह और बेशुमार ताक़त!
यहां दीखती है उसकी रजा!
यहां दीखती है उसकी क़ुदरत!
सख्त ऐसा कि पाषाण चूर हो जाए!
मोम ऐसा, कि किसी मूक की मूक भाषा से पिघल जाए!
हे मेरे ईश्वर! और कुछ नहीं मांगता! बस इतना, मेरे पाँव न डिगने पाएं!
ग़र डींगें भी, तो देर न करना, ख़ाक़ हूँ, ख़ाक़ भी न छोड़ना!
मैं अपनी उस ख़ाक़ से, तेरी पाक-साफ़ ख़ाक़ में दाग़ नहीं लगाना चाहता!
बस, यही इल्तज़ा है मेरी! बस, इतनी सी ही इल्तज़ा!
सामने, ठीक सामने, धुंआ सा हुआ था, जैसे धुंए का गुबार छाया हो! जैसे, कोहरा छाया हो! यहीं जाना था हमें! यहीं उतरना था नीचे!
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम, सीढ़ियां उतरने लगे, एक एक करके!
अंदर तो सिहरन भरी सर्दी थी! ठिठुरन का सा माहौल था!
टप! टप! टप! टप!
कहीं पानी टपक रहा था!
हम एक तरफ हुए, और जलायी टोर्च, मोबाइल की, एक जगह, पानी टपक रहा था, हम पहुंचे वहाँ तक, वो अपने नीचे बनी एक हौदी में इकट्ठा हो चला था! हौदी का पानी एकदम शीशे की तरह से साफ़ था! पानी भरता था और एक छोटी सी नाली से, बह जाता था एक तरफ! पानी की वो टप टप, गूँज रही थी वहाँ!
"वो, रास्ता है?" बोले शर्मा जी,
मैंने वहीँ देखा, वो एक रास्ता ही था!
"हाँ, एक रास्ता ही है!" कहा मैंने,
"चलो उधर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हम उस रास्ते की ओर बढ़ चले! वहां तक पहुंचना ही बड़ा मुश्किल था, ज़मीन पर कीचड़ भरी हुई थी, जूते कहीं कहीं तो फिसलने को हो जाते!
आखिर हम, उस रास्ते पर आ गए!
अब अंदर चले, अजीब बात ये, कि यहां भी द्वादश-मुखी दीये लगे थे! कुल सत्ताईस! दीवारों पर, बड़ी बड़ी खूंटियां सी गड़ी थीं!
और तब अचानक ही, एक झोंका आया!
बहुत तेज! दीये फ़ड़फ़ड़ा गए! हमने लपक कर, वहां के पत्थर थाम लिए! वो झोंका गुजरा तो फिर से शान्ति छा गयी! उन दीयों का प्रकाश फैला हुआ था, सबकुछ साफ़ दीख रहा था!
"ये कैसी जगह है?" उन्होंने पूछा,
"अजीब सी जगह है!" कहा मैंने,
एक झटका सा लगा! हमने संतुलन बनाया अपना! और अचानक ही, दीवारों के पास, कोनों के मध्य, आग भड़क उठी! वो जैसे ज़मीन एम से निकल रही थी! धू-धू की आवाज़ आने लगी थी!
"निकलो यहां से!" मैं चीखा,
"लेकिन कहाँ?" बोले वो,
"वापिस चलो?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम, लौटने को हुए! घबराहट बढ़ने लगी थी!
"इधर!" बोले वो,
मैं आ गया उधर, खड़ा हो गया! यहां मिट्टी थी गीली, तब राहत हुई! पूरी दीवारों के कोने, जैसे आग फेंक रहे थे! आग भी पीली!
"रुको!" कहा मैंने,
वे रुके, मेरा कंधा थामा,
"वो बैग दो?" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
"इसमें से नटसिंघी निकालो!" कहा मैंने,
उन्होंने टटोला, और निकाल कर दे दी मुझे!
मैंने पढ़ा एक मंत्र, उसका टुकड़ा चबाया और थूक दिया! जैसे ही थूक गिरा नीचे, वो धू-धू करती आग, बंद हो गयी! ये तंत्रोक्त आग थी! भरमाने के लिए प्रयोग हुई थी!
"आओ अब!" कहा मैंने,
और हम दौड़ के, वो जगह पार कर गए!
अब जहाँ आये, यहां तो पिंडियां थीं!
काले रंग के पत्थरों की! आसपास में छोटी छोटी सी हौदियां बनी थीं!
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"पिंडियां!" कहा मैंने,
"औचित्य?" पूछा उन्होंने,
"अभी रुको!" कहा मैंने,
आगे बढ़ा मैं,
एक हौदी में प्रकाश डाला, उसमे कुछ था, मैंने हाथ में उठाया,
"क्या है ये?" पूछा उन्होंने,
"भस्म सी लगती है!" कहा मैंने,
अब उन्होंने भी उठाया,
"हाँ! भस्म ही है!" बोले वो,
अचानक तभी.................!


   
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अचानक से किसी के हंसने के से स्वर गूंजे! जैसे कि हमें ही देख कर हंसा हो, स्वर अधिक ऊंचे तो नहीं थे, लेकिन स्पष्ट रूप से सुनाई दिए थे, मैंने और शर्मा जी ने वो भस्म, जस की तस, वहीँ डाल दी थी, और चले हम, उस जगह की ओर जहां से वो हंसने के स्वर गूंजे थे! वे स्वर एक बार ही गूंजे थे, हम वहीँ रुके रहे, करने लगे इंतज़ार, पुनः स्वरों के गूंजने का! करीब दस मिनट गुजर गए, कोई स्वर नहीं गूंजा, न ही कोई अन्य आहट ही हुई!
"कौन है?" पूछा मैंने,
उत्तर तो नहीं आया, हाँ, एक झोंका अवश्य ही चला हवा का!
"जो भी हो, सामने आओ?" कहा मैंने,
कोई नहीं आया वहाँ!
बड़ी मुसीबत! क्या किया जाए!
शर्मा जी आये मेरे पास,
"कुछ तो करना होगा!" बोले वो,
"हाँ, समझ गया!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
मुझे छोटा वाला बैग दिया उन्होंने,
"एक काम करो आप!" कहा मैंने,
"बोलो?" पूछा उन्होंने,
"आप, वहां चले जाओ!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"समझो ज़रा!" कहा मैंने,
और फिर से वे स्वर गूंजे!
ठीक वैसे ही स्वर!
"हे? कौन है, सामने क्यों नहीं आते?'' पूछा मैंने चिल्लाते हुए!
मैंने बस इतना पूछना था कि जैसे कहर बरपा!
मुझे और शर्मा जी को किसी ने कंधे पर मारते हुए हाथ, गिरा दिया नीचे! हम नीचे गिर पड़े! उठने की कोशिश की तो मेरा बैग छूटा मेरे हाथों से, मुझे खींच रहा था कोई, शर्मा जी को भी संग मेरे! मारे रगड़ के, टांगें छिलने सी लगी थीं, पत्थरों का ठंडापन, स्पर्श होने लगा था!
और तब मैंने, महा-कौष मंत्र पढ़ा! जैसे ही आरम्भ किया! छोड़ दिया गया हमें, उठने तक का साहस न हुआ था, मैंने मंत्र बिना तोड़े पढ़ा था, अभी जागृत था, कुछ पलों के लिए तो उसे भेदा नहीं जा सकता था!
"उठो, जल्दी!" कहा मैंने,
उनको उठाया मैंने, उनकी कमीज़ कंधे से फट गयी थी, मेरी कमीज़, बगल से फट गयी थी, मेरा पाँव भी मुड़ गया था, अब दर्द होने लगा था उसमे!
"बैग ढूंढों! जल्दी!" कहा मैंने,
हमने ढूंढना शुरू किया, और मुझे दिखा गया, मैं भाग कर गया वहाँ तक, और खोला बैग लप्प-झप्प में! निकाली एक अस्थि, और तब मैंने भैरव-डोरा खींचने के लिए, निकाली अस्थि! वहीँ खड़े खड़े, मैंने उस अस्थि से, अपने आपको, शर्मा जी को, बीच में रखते हुए, वो भैरव-डोरा काढ़ दिया! अब हम सुरक्षित थे! भैरव-डोरा इतनी सरलता से तो कटने वाला था नहीं! चिंता मिटी, राहत हुई, और हिम्मत बंधी!
"आये सामने अब!" कहा मैंने,
और जो प्रकट हुआ, वो तो एक चेवाट सा था, संथाल-आदिवासी का सा रूप धरा था उसने, भीषण, विकराल देह थी उसकी! उसका एक ही कार्य था, उद्देश्य था, जो यहां आये, उसका नाश करना! तो बाबा खंडल ने, चेवाट रख छोड़े थे! चेवाट! अत्यंत ही शक्तिशाली रक्षक हुआ करते हैं! इनकी भी सिद्धियां हैं कई, इन्हीं में से कई हैं, जिन्हें वीर कहा जाता है! इनसे बाहुबल में नहीं जीता जा सकता! ये बस तांत्रिक-अभिचार द्वारा ही पछाड़े जा सकते हैं, अन्य कोई विकल्प नहीं! वो हंसने के स्वर, ऐसे ही किसी चेवाट के थे! वो तो मैं और शर्मा जी, तंत्राभूषण धारण किये हुए थे, नहीं तो ये चेवाट ऐसे फेंक के मारता हमें दीवार पर, कि अस्थियों का चूर्ण ही बन जाता! मांस का तो छोड़िये ही, रक्त भी वाष्पीकृत हो जाता, ऐसा मानिए!
"चेवाट हैं यहां!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोले वो,
"बैठ जाओ!" कहा मैंने,
वो बैठ गए, फिर मैं भी बैठ गया! खोला बैग, और निकाली कुछ सामग्री, रूक्षिका, भरनत्माजरी, केवाकि आदि सामग्री के छोटे छोटे टुकड़े ले लिए! उन तीनों को मिलाया आपस में, और पढ़ने लगा मंत्र! पहले, श्री वपुधारकाये कमंत्र पढ़ा, फिर उनके वीर-जागरण का, तदोपरांत, महावीर कौहिंड का स्मरण किया! कौहिंड महाबली का मात्र जाप ही चेवाटों के लिए अंतिम चेतावनी हुआ करता है, तदोपरांत वे धुआं हो जाते हैं, लोप हो जाने को विवश हो जाते हैं!
मैं खड़ा हुआ, और जाप करते हुए, वो सामग्री फेंक दी सामने! वायु-प्रवाह बह चला! वो बड़े बड़े दीये, अपनी लौ को ले, भूमि चाटने लगे! और अगले ही पल! सब शांत!
वो चेवाट, विवश हो गए थे लोप होने को! अब नहीं आ सकते थे पुनः! मैंने सर नवा कर महाबली कौहिंड का नमन किया! श्री वपुधारकाये का महानाद किया!
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
''चलिए!" वो बैग उठाते हुए बोले!
"सामने ही चलो!" कहा मैंने,
"चलिए!" कहा उन्होंने,
जैसे ही हम आगे चले, वो भस्म वाली हौदियां आवाज़ सी कर बैठीं! जैसे उनमे उबाल सा आ गया हो! मैं भाग कर गया उधर, देखा उन्हें, उनमे नगर सुलगने लगे थे! वो अंगार एक दूसरे पर चढ़, फिर से नीचे चले जा रहे थे!
"पीछे हटो!" कहा मैंने,
और उनको पकड़, हुआ पीछे, एक पत्थर के पीछे जा पहुंचे हम!
भक्क सी आवाज़ हुई!
और वो अंगार, हर तरफ फ़ैल गया उधर!
एक अजीब सी बदबू फ़ैल गयी वहाँ!
जैसे कच्चे मांस को भूना जा रहा हो, या चमड़े में आग लगा दी गयी हो!
"बाहर भागो!" कहा मैंने,
और हम बाहर भागे!
निकल आये वहां से!
और जब पीछे देखा!
देखा तो अंगार, दीवारों से ऐसे टकरा रहा था, जैसे कोई बेलचा भर भर उन्हें फेंक रहा हो दीवार पर! मारे बदबू के, सत फटने को हो गया! बड़ी ही भयानक गंध थी वो! अब लग रहा था कि जैसे, सड़े हुए मांस को जलाया जा रहा हो, किसी भट्टी में!
अंगार फिंकता रहा! लेकिन बाहर न आया! समझ गया था इसका भी कारण मैं!
"आओ, आगे चलो!" कहा मैंने,
हम आगे बढ़े,
और कड़ाक की आवा हुई एक! बड़ी ही तेज! एक बड़ा सा पेड़, आधे तने से टूट कर गिर रहा था, बाएं! उस से बचने के लिए, हम फिर से एक तरफ भागे, हालांकि ये एक खुला सा स्थान था, जगह ही जगह थी, लेकिन भागने में दिक्कत थी, पत्थर पड़े थे वहाँ, हर जगह!
वो पेड़, भड़भड़ा के नीचे गिर गया!
जैसे ही गिरा, उसने सुलगना शुरू किया!
देखते ही देखते आग भड़कने लगी! ताप ऐसा हुआ कि झुलसा ही दे!
"उधर! उधर!" बोले शर्मा जी,
मैं दौड़ लिया उधर!
एक ढलान थी वहाँ! यहां छिप सकते थे हम! ताप ऊपर से ही गुजर जाता! हमने ऐसा ही किया, ढलान पर जाकर, लेट गए, घुटनों से, पीछे होने लगे!
"यहां तो हद ही हो गयी!" बोले वो, खांसते हुए!
आगे से धुआं पैदा हुआ था, धुंए से दमघोंटू वातावरण! खांस खांस कर, गला छिल गया! पानी था नहीं, रुमाल ही काम आया!
शर्मा जी ने उठ कर देखा,
"जल गया!" बोले वो,
तब मैंने देखा, पूरा पेड़ जल गया था! अब धुआं उठ रहा था!
''आओ!" कहा मैंने,
वो खड़े हुए, मैं भी, और चल पड़े उस पेड़ तक जाने के लिए, वहीँ से एक दीवार में रास्ता था, कम से कम, उस समय तो यही दिखा था!
"उधर से!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने, और हम बढ़ लिए उधर के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आग तो यहां खूब ही खेल, खेल रही थी! जब से इस जगह घुसे थे, आग से ही पाला पड़ रहा था, अब पेड़ जल कर राख हो चुका था, धुआं उठ रहा था, गरमी फैली थी, कैसी अजीब बात थी अंदर उस कक्ष में, जहां वो भस्म रखी थीं, वहां ठंड ऐसी थी, कि ठिठुरन के मारे देह कड़क जाए और वहाँ से निकले, तो ताप ऐसा कि देह झुलस जाए! खैर, यूँ मानिए कि हमने तो ओखली में सर दे ही दिया था, तो अब मूसल कूटे सर या मूसला! कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था! यहां से लौटना सम्भव नहीं था, अब जो कुछ होना था, यहीं होना था!
"आओ, पार करें इसे!" बोले वो,
एक डंडी जो जली पड़ी थी, सुलग रही थी, उसको पाँव से एक तरफ करते हुए वे आगे बढ़ रहे थे,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
आखिर में हमने वो जगह, वो भट्टी जैसी जगह पार कर ही ली, और अब एक ऐसी  जगह आ गए थे जहां कुछ सुकून सा मिला, ये जगह उन जगहों से अलग थी, ये तो खंडहर जैसी थी, हालांकि, खंडहरों के नाम पर बस बुनियाद और टूटे हुए वे पत्थर, वे बड़े पत्थर पड़े थे, जो कभी शीर्ष पर रहे होंगे, उनका रंग सफेद धूसर सा बदरंग हो गया था, प्रकाश की कमी थी यहां, आँखें चौड़ी कर ही कुछ देख पा रहे थे हम, शर्मा जी की टोर्च का प्रकाश अब बंद होने की कगार पर था, मेरे फ़ोन में बस, थोड़ी देर की ही जान बची थी, कुछ देर बाद वो भी चिर-विश्रामावस्था में जाने वाला था, एक बात जो हमारे पक्ष में जाती थी, वो ये कि, चाँद की रौशनी बढ़िया थी उस रात, कम से कम, गड्ढे और पत्थर तो दीख ही रहे थे!
"वो देखिये?" बोले वो,
वहां एक झरोखे से, प्रकाश निकलता सा आ रहा था, वहां अवश्य ही कुछ न कुछ था, लेकिन वहां जाने से पहले, अब मैं सशक्त होना चाहता था, इसीलिए मैंने, कुरूणि, त्वकप्रभा, कपालशुंडिका, रुरु-रूढिका, और ज्वाल-मालिनि की विद्याएँ जागृत कर ली थीं, मुझे इनमे करीब आधा घंटा लगा गया था, रुरु-रूढिका एक सेविका है, सेविका, श्री रुरु भैरव जी की, महाप्रबल और महाघंटक रूप होता है इसका! प्रेत, महाप्रेत, खचेवी महाप्रेत, अर्तण्ड-भुण्डिनि आदि भी समक्ष नहीं ठहर सकतीं!
एक महाप्रयोग बताता हूँ आपको, ये प्रयोग मात्र मांसाहारी एवं मांसाहार करने वाले ही प्रयोग में ला सकते हैं! इसका फल कैसे प्रभावी और त्वरित होता है, ये भी जान सकते हैं!
नौकरी में बाधाएं हों, उन्नति न होती हो, पल पल नौकरी जाने का भय हो, अथवा, कोई कनिष्ठ, आपकी वरिष्ठता को दरकिनार कर, आपसे उच्चस्थ पद पर पदासीन हो जाए, राज्य-सेवा आदि में अड़चनें हों, या राज्य-सेवा में किसी भी प्रकार एक धनादि आदि का मुक़द्दमा, सेवानिवृत होने के बाद उठा हो, तो ये महाप्रयोग अपना फल अवश्य ही देगा!
करना क्या है कि, किसी भी अमावस से आरम्भ करना है ये प्रयोग, पचास ग्राम बकरे का मांस, एक क्वार्टर शराब, एक सिन्दूर की डिबिया छोटी, काली बिंदियाँ पांच, एक काजल की डिबिया छोटी, काली सरसों, पांच ग्राम या दो चुटकी, एक ढाक का पत्ता, एक काल सूती धागा! पहले, ऐसी कोई नदी देख आएं जो बह रही हो, या नहर देख आएं, जो बह रही हो, काली बिंदियाँ, पत्ते पर उलटी तरफ चिपका दें, काजल से उलटी तरफ, एक टीका लगा दें, सिन्दूर से, सीधी तरफ एक रेखा बना दें, काली सरसों, मांस सब इस पत्ते में भर कर, धागे से नौ बार लपेटें, ऐसे लपेटें कि सब, उस पत्ते में ही आ जाए, नौ बार लपेटते हुए, नौ बार ही इस मंत्र का जाप करें "ठः ठः रुरु महारुरु हुम्म फट्ट!" अब उसी समय, ये सामान लेकर, नहर या नदी पर चले जाएँ, पांवों से चप्पल या जूते उतार दें, और ये सामान, अपने सर से छुआ कर, नदी या नहर में प्रवाहित कर दें, ऊपर से, शराब का ढक्क्न खोलकर, शराब नदी में बहा दें, पंद्रह रात ये प्रयोग करना है, सातवे दिन से आसार बन जाएंगे, शुभ-खबरें मिलने लगेंगी, प्रयोग बीच में छोड़ें नहीं, पूर्ण ही करें, भले ही अगले दिन कार्य सिद्ध हो जाए! ये प्रयोग रात्रि में करना है, दस के बाद, चार से पहले!
हाँ,
तो मैंने कुछ प्रभावी विद्याएँ जागृत कर ली थीं, दो कण्ठमाल शर्मा जी के गले में धारण करवा दिए थे और दो ही मैंने धारण कर लिए थे! विद्या के प्रति, सम्मान, श्रद्धा अत्यंत आवश्यक है! तभी ये प्रबल हो कर, कार्य सिद्ध किया करती हैं! विद्या की ईष्ट का स्मरण, संग-संग चलता है, उस समय, वही आपकी प्राण-रक्षक हुआ करती हैं!
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
मैं अपने हाथ में, अपना खंजर लिए हुए, उनके साथ चलता रहा, उस स्थान के लिए, जहां से वो प्रकाश आ रहा था, दूर से वो कोई पूजा-स्थल सा लगता था, पास आये तो ये एक मंडपम सा लगा, जो चारों ओर से ढका हुआ था, मंडपम, चौकोर नहीं होता, ये आयताकार सा हुआ करता है, और छत के कोने नहीं होते, वे गोल बनाये जाते हैं!
हम उस मंडपम के सामने पहुंचे, अंदर जाने का रास्ता बना था, दीवारें बड़ी ही चौड़ी थीं, कम से कम चार चार फ़ीट मोटी, मज़बूती में तो कोई सानी ही नहीं रहा होगा उसका! प्रकाश यहीं से आ रहा था, द्वार से अंदर झाँका, तो ठीक सामने, करीब दस मीटर दूर, एक बड़े से आले में एक दीप जल रहा था, जिसकी पीली लौ ही करीब दो फ़ीट की हो चली थी, इस से आप दीये का आकार जान सकते हैं, अंदाजा लगा सकते हैं!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और हमने अंदर प्रवेश किया, जैसे ही प्रवेश किया अंदर, दो मीटर पर एक दीवार सी दिखी, ये करीब तीन फ़ीट लम्बी थी, बाहर से नहीं दीख रही थी, उस दीवार के दोनों ही ओर सीढ़ियां बनी थीं!
"सीढ़ियां हैं!" कहा मैंने,
मेरी आवाज़ उस मंडपम में गूँज गयी!
आवाज़ बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं था, आवाज़ वहीँ टकरा कर लौट आती थी, इसीलिए गूंजी थी मेरी आवाज़!
"उतरो सीढ़ियां?" बोले वो,
"हाँ, आओ, यहां से!" कहा मैंने,
जैसे ही हम उतरने लगे, कोई तीसरी सीढ़ी पर, धातु रगड़ने की आवाज़ हुई, मेरा पाँव किसी धातु के टुकड़े पर पड़ा था शायद, मैं झुका, और उस टुकड़े को उठाया, छू कर देखा, तो वो गोल था, आगे आया तो और टुकड़ों पर पाँव पड़ा, जब दीये की रौशनी में देखा सामने! जब देखा सामने तो आँखें फटीं रह गयीं! पूरे मंडपम में, पूरा का पूरा मंडपम का फर्श सोने के सिक्कों, गहनों, मूर्तियों, छोटे छोटे रथों, पहियों जैसो स्वर्णाकृतियों से भरा पड़ा था! मेरे पाँव धंस चले थे उनमे!
"आओ! देखो!" कहा मैंने,
वो आगे आये, और जब चमकता हुआ सोना देखा, तो ठगे से रह गए!
"बाप रे!" उनके मुंह से निकला!
"अथाह धन!" कहा मैंने,
"ये किसका है?" पूछा उन्होंने,
मैं मुस्कुराया!
वे समझ गए!
"माया है!" बोले वो,
"उस से क्या फ़र्क़ पड़ता है!" कहा मैंने,
"कैसे नहीं पड़ता?'' बोले वो,
"नहीं पड़ता!" कहा मैंने,
"कारण?" बोले वो,
"ये मात्र आपके और मेरे लिए, क़तई मायावी नहीं है! समझे!" कहा मैंने,
"अच्छा! समझ गया!" बोले वो,
"हाँ, कि और इसे देख भी नहीं पायेगा!" कहा मैंने,
"लालच!" बोले वो,
"हाँ, अब समझे आप!" कहा मैंने,
"हाँ, समझ गया!" बोले वो,
"वो देखो, विष्णु जी, शेषासन पर!" कहा मैंने,
"बहुत सुंदर हैं!" बोले वो, प्रणाम करते हुए!
"वो देखो!" कहा मैंने,
"नृत्यांगना?" बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"उर्वशी!" कहा मैंने,
"कैसे पहचाने?'' बोले वो,
"मात्र उर्वशी ही बायीं तरफ झुक कर, बायां हाथ उठाती हैं!" कहा मैंने,
"ओह! और वो?" बोले वो,
वो एक युगल था, काम-क्रीड़ा में लीन!
"औमिश एवं उसकी प्रेयसि परीक्षिति!" कहा मैंने,
"ये कौन हैं? गान्धर्व?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"विद्याधर!" कहा मैंने,
"कैसे पहचाना?" बोले वो,
"विद्याधर, सदैव, गोल-मुंदिक् वस्त्र धारण करते हैं सर पर!" कहा मैंने,
"सूक्ष्म ज्ञान है आपको इस विषय में!" बोले वो,
"मंत्रों में सब वर्णित है!" कहा मैंने,
पीछे से आवाज़ हुई! झम्म-झम्म!
"ये कैसी आवाज़?" बोले वो,
"देखते हैं, आओ!" कहा मैंने,
और हम, उस 'पीली-मिट्टी' को छोड़ आये वहीँ! मुझे बाद में पता चला, कि मैंने एक सिक्का रख लिया था जेब में, जब हम उस आवाज़ के पीछे दौड़े थे! आये बाहर!
"मेह?" बोले वो,
"हाँ! मेह!" बोला मैं,
"ये वास्तविक है या मायावी?" पूछा उन्होंने,
"वास्तविक ही है, लगता है!" कहा मैंने, हाथ आगे बढ़ाते हुए, हाथ गीला हो गया था, और कुछ क्षणों में ही, मेह जैसे बरसा था, वैसे ही बंद भी हो गया!
"कमाल है!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मेह बंद!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"आवाज़ इसी की थी!" बोला मैं,
"हाँ वो झम्म-झम्म!" कहा उन्होंने,
अचानक से हमारे पीछे से आती रौशनी बंद हो गयी! जैसे अचानक ही, बत्ती गुल हो गयी हो! एक झटके से पीछे देखा, अब न मंडपम ही था वहाँ, और न ही वो दीया, ना ही उसका प्रकाश!
हम आगे गए, गौर से देखा,
अब वहां कोई मंडपम नहीं था, था तो एक कुण्ड सा! एक कुण्ड, रौशनी डाली, तो कुण्ड काफी गहरा था, लेकिन पानी नहीं था उसमे, सीढ़ियां भी नयी सी बनी हों, ऐसा प्रतीत होता था!
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
हम कुण्ड की मुंडेर पर खड़े हुए, अब रौशनी डाली, तो गहराई कुछ नहीं! कमाल था! अभी तो करीब पंद्रह फ़ीट रही होगी, और अब, अब जैसे नीचे की भूमि ऊपर आ गयी हो!
"कुछ है वहां!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ध्यान से देखिये?" बोले वो,
मैंने खूब ध्यान से देखा, नहीं आया नज़र मुझे तो कुछ भी!
"इधर आओ, यहां से देखो?" बोले वो,
मैंने ध्यान से देखा, हाँ! कुछ तो था! था वहाँ!
"वो है क्या?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, पास चलना होगा?" बोले वो,
दरअसल, सामने, सामने कुण्ड की सीढ़ियों पर, जैसे कुछ रखा था, जैसे कोई थान हो कपड़े का, जैसे कुछ लिपटा हो वस्त्र में!
"तो चलें?" बोला मैं,
"हाँ, मुंडेर पकड़ लो!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
हम उस मुंडेर पर खड़े हो, चलने लगे उस तरफ! जैसे जैसे पास आये, वैसे वैसे कुछ साफ़ दीखना शुरू हुआ! हम अब सीढ़ियां उतरने लगे!
उतरते गए!
उतरते ही गए!
और जा पहुंचे!
जैसे ही देखा, झटका खाया!
ये तो शव था? पेट के बल लेटा था,  शव किसी किशोरी का था, और वो किशोरी कहीं हिरानु तो नहीं? मन में ख्याल, उमड़-घुमड़ गए उसी क्षण! मैंने हाथ बढ़ाया, उसके सर के केशों को पकड़ा, केश पकड़े और उठाया, जैसे ही देखा, झटका लगा, ये हिरानु ही थी, जैसे सो रही हो, शांत..........एकदम शांत....
मैंने रख दिया सर उसका, आहिस्ता से,
"वो देखो!" बोले शर्मा जी,
सामने इस कुण्ड के केंद्र-स्थल में, कई शव लेटे थे, एक दूसरे के साथ, उनमे कोई फांसला नहीं था, किसी का हाथ किसी पर रखा था,
"आना?" कहा मैंने,
और हम चले उन शवों की तरफ,
उतरे सीढ़ियां नीचे, आये मध्य तक,
वहाँ, ऋतुवेश, हाजू, खेमू, श्रावक, बाबा औला, सृजा के संग दो और शव रखे थे, उन्हें नहीं पहचान पाये हम, हाँ इतना अवश्य, कि उनको अभी तक देखा नहीं था हमने, वे शव, फूलों पर लिटाये गए थे, साफ़ थे, कि अंग-भंग न था, कोई रक्त का निशान न था, न ही उनसे कोई छेड़छाड़ ही की गयी थी, हाथों में, बाजुओं में, गले में, पांवों में, जो भी कण्ठमाल, हस्तमाल, भुजबंध, पायेजब आदि थे, वे सब, वैसे के वैसे ही थे, उनको इस प्रकार लिटाया गया था, जैसे वे सुरक्षित रहें, देखने में लगता था, सभी सोये हों!
मैं उठ खड़ा हुआ,
अब प्रश्न मस्तिष्क में उपजे फिर से,
ये किसने रखे?
क्या उद्देश्य रहा होगा?
इस कुण्ड के मध्य?
वो हिरानु, सबसे पृथक क्यों?
वो अविवाहिता थी, कुंवारी, शायद इसी कारण से?
ये सब, बाबा हरलोमिक के संगी हैं?
तो फिर ये खेमू क्यों?
बाबा खंडल ने एलाबंध बाँधा, ठीक है, लेकिन खेमू?
खेमू तो उनका ही पुत्र था?
वो यहां क्यों?
और फिर, दहानु?
वो कहाँ है?
और सबसे बड़ा प्रश्न ये कि,
स्वयं बाबा हरलोमिक कहाँ हैं?
न कोई चिन्ह? न कोई प्रतीक? कहाँ हैं?
"अंत्येष्टि!" आई एक आवाज़!
पहचान गया मैं! मैं पहचान गया! ये बाबा ढाकल थे! लेकिन थे कहाँ? मैंने आसपास देखा, कहीं नहीं? बस, स्वर ही गूंजें!
"बाबा?" मैंने पुकारा!
"लौमिक-अंत्येष्टि! लौमिक-अंत्येष्टि!" आई आवाज़!
ओह..............
अब समझा मैं.........
लौमिक-अंत्येष्टि.........
उनकी देह, जो राख भी न बन सकी, तड़प के रह गयी, जो, काल-कलवित हो कर रह गयीं, उनकी अंत्येष्टि, मात्र लौमिक रूप से ही की जा सकती है!
यही उद्देश्य था बाबा का!
और यही कर्त्तव्य था मेरा!
कम से कम, उस क्षण तो!
क्या ये अंतिम-चरण है?
उसके बाद?
फिर, मेरे वो प्रश्न?
इसके बाद क्या होगा?
ठीक है, पहले लौमिक-अंत्येष्टि!
प्रेत-उन्मूलन! उचित है!
"लौमिक! लौमिक!" आई आवाज़!
समय की, थमी हुई फिरकी, फिर से घूमी! इस बार, विपरीत दिशा में! हम, उठा लिए गए थे इतिहास की गोद में!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"कुछ लकड़ियाँ ले आओ!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" कहा मैंने,
टोर्च दी उन्हें, और वो चल पड़े, मैंने तब तक, उक्तक-चिन्ह लगा दिए थे, ये चिन्ह, समयाबंधक हुआ करते हैं, विश्वास है, ये कार्य-सिद्धि में मदद किया करते हैं! पूरे ग्यारह चिन्ह!
लकड़ियाँ ले आये थे वो,
अब उनसे, एक छोटा सा आकार बनाया! आकार, एक मंदिर जैसा, सामग्री इत्यादि से सुसज्जित कर दिया, और फिर, उन लकड़ियों का एक एक टुकड़ा, उन देहों पर रख दिया!
'शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" आये मेरे पास,
"आप साक्षी हैं!" कहा मैंने,
"हाँ हूँ!" बोले वो,
"हे नभ! हे भूमि! हे शून्य! आप साक्षी हैं!" कहा मैंने,
उसके बाद, गुरु नमन किया, ईश-वंदन किया, भूमि-वंदन किया, नभ-वंदन किया! आगे बढ़ा, और शर्मा जी के लाइटर से एक लकड़ी जलायी! मंत्र पढ़ा, और उस ढेरी में अग्नि बिठा दी, सामग्री चटक के जली! सुगन्धि फ़ैल उठी! मंत्रोच्चार करता रहा मैं!
एक साथ!
एक साथ ही, कई स्वर, प्रलाप के स्वर, गूँज उठे!
और तत्क्षण ही!
वे शव, एक एक कर, भस्मीभूत होने लगे! न धुआं ही उठा, न कोई गंध ही फैली! ये मात्र लौमिक-अंत्येष्टि थी! पूर्ण हो गयी!
मैंने और शर्मा जी ने, नेत्र बंद कर रखे थे, किये ही रहे! करने ही थे, जब तक उस अग्नि की सामग्री शांत न हो जाए! और इसमें, करीब बीस मिनट लग ही गए!
और जब नेत्र खुले!
न कुण्ड!
न शव!
न अग्नि!
न लकड़ियाँ!
कुछ नहीं!
जंगल! अन्धकार! बीहड़! उजाड़! सन्नाटा! बस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ नहीं शेष था वहां! न वो खंडहर! न वो स्थान! जैसे सब मायावी था! सब का सब! हम चौंक पड़े थे, कि ये हम कहाँ आ गए? कहाँ फेंक दिए गए?
"क्या हम वहीँ हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कि नयी जगह है!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"न पहाड़ियां हैं, न वो खंडहर!" बोले वो,
टड़म! टड़म! टड़म!
ऐसी आवाज़ हुई!
जैसे किसी ने पूरा कसा हुआ नगाड़ा बजाया हो! ऐसी ही आवाज़ थी वो!
"नगाड़ा?" बोले वो, हैरानी से,
"हाँ, आवाज़ तो ऐसी ही थी?" बोला मैं,
"आई कहाँ से?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, ये ही तो नहीं पता?" बोले वो,
टड़म!
फिर से आवाज़ गूंजी!
हमने झटके से पीछे देखा!
ये क्या? क्या है ये?
"अलाव?" पूछा मैंने,
"कुछ याद आया?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो पेड़, वो रास्ता? वो अलाव? वो औरतें? सतीश और मोहर सिंह की वो रात? वो बालक? याद आये?" पूछा उन्होंने!
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"हो न हो! ये वही जगह है!" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"वही है!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"आओ मेरे साथ!" बोले वो,
मित्रगण!
वहां, हमारे पीछे, अलाव जल रहे थे, कम से कम पचास! कम से कम, पचास! दिख रहे थे हमें जलते हुए! रौशनी की गेंदों जैसे!
हम दौड़ लिए थे!
"वो देखो? याद आया?" बोले वो,
"हाँ! वही पेड़? वहां पुलिया होगी? है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, होनी चाहिए!" बोले वो,
"इसका मतलब कि...जहां से आरम्भ हुआ......वहीँ अंत भी है इसका!" कहा मैंने,
"हाँ! बाबा खंडल ने बना है ये ताना-बाना सब!" बोले वो,
"मान गया मैं!" कहा मैंने,
हम आ गए थे वहाँ तक! सांस ली हमने! सामने देखा, अलाव अभी भी दूर थे वहाँ से, आसपास देखा, अँधेरा ही अँधेरा! बस दिखें, तो चाँद, तारे और वो अलाव!
''आओ!" बोले वो,
"चलो, तेज!" कहा मैंने,
हम फिर से दौड़े! और कुछ देर बाद!
हम चौंक कर रुक गए!
"वही पुलिया!" बोले वो,
हैरत! हैरत में पड़ा मैं अब! हम कहाँ थे? यहां कैसे आये? क्या यहीं भटक रहे थे? यादराम? रामखिलावन? वो फौजी काशीराम? क्या वो, वो सब, यहीं हैं? या थे ही नहीं???
"और वो रहा, वो पेड़! आया याद?" बोले वो,
"हाँ, आया याद!" कहा मैंने!
"आओ अब! अब आया है मेरी समझ में सारा खेल!" बोले वो,
"क्या खेल?" पूछा मैंने,
"बता दूंगा!" बोले वो,
हम चले पेड़ की तरफ!
हुए नीचे खड़े उसके!
आया एक तेज हवा का झोंका!
और गूंजे कुछ स्वर! स्वर, जैसे कई लोग भाग रहे हों सड़क पर! नंगे पाँव! हम उस पेड़ के नीचे से आये सड़क की तरफ, तो क्या देखा! देखा, बहुत सारे बालक, बालिकाएं, चमकते हुए, चंदीले से रंग के, भागे चले आ रहे हैं सड़क पर! वे भागते आते, और अपनी गरदन घुमा, हम दोनों को देखते! किसी के हाथ में कुछ और किसी के हाथ में कुछ! लकड़ियों के खिलौने! मिट्टी के खिलौने! वे भागते जाते, अपनी गरदन हमारी ओर किये! उनका धड़ सामने
 होता, छाती सामने सड़क की ओर, लेकिन सर, चेहरा हमारी ओर! वे हँसते जाते! और उस पुलिया को पार करते जाते! पार करते और लोप हो जाते!
उस अंधियारी रात में,
उस बियाबान में,
उस उजाड़ स्थान में,
अगर कोई ऐसा होते देख ले, तो शामिल हो जाए उन्हीं में!
वो भी दौड़ा चला जाए! दुर्बल-हृदय वाले तो पछाड़ ही खा जाएँ!
पीछे आहट हुई! किसी ने, लकड़ियाँ बिखेरी थीं एक जगह, हम मुड़ चले उनकी तरफ! वे दो लोग थे, देहाती से, ग्रामीण लिबास पहना था उन्होंने!
"वहाँ!" एक बोला, इशारा करते हुए,
हम, उन्हें देखते हुए, चल पड़े उधर, वो वे, हमें देखे जाएँ, धीरे धीरे खड़े होते हुए!
हम आगे पहुंचे,
दो और मिले, ठीक वैसे ही!
अलाव तापते हुए!
"वहाँ!" एक ने इशारा किया, एक तरफ, हम चल पड़े उधर! और वे, धीरे धीरे, खड़े होते गए, हमें देखते हुए! उचक उचक कर देखें! हम उन्हें पीछे देखें!
"उधर!" आई आवाज़!
देखा हमने उधर!
अलाव जला था, दो औरतें बैठी थीं, एक मर्द था उनके साथ, वेशभूषा ऐसी ही, जैसा मोहर सिंह और सतीश ने बतायी थी!
हम उन्हें देखें, और वो हमें! खड़े होते जाएँ!
तभी मेरी कमर पर किसी ने पकड़ा मुझे, मेरी कमीज़ को! मैंने चौंक के देखा! वो एक दुर्बल सा बालक था, नंगा, आयु में कोई छह-सात वर्ष का, गले में धागे पड़े थे उसके, कमर में, एक काले रंग का धागा था, जिसमे, एक काले रंग की मिट्टी से बना, पकाया हुआ, लिंग बना था, अक्सर, गाँव देहातों में, बालकों को, ऐसा धागा या तगड़ी पहनाई जाती है, बालकों को केवल, विश्वास है, ये सन्तानोत्पत्ति में कोई भी बाधा नहीं आने देता! यही कारण है इसके पहनाने का!
मैं नीचे झुका, उसने छोड़ा मुझे, और उसने अपना छोटा सा हाथ खोला, उसके हाथ में कुछ था, मैंने लिया उसके हाथ से वो, गौर से देखा, वो एक टुकड़ा था, जैसे किसी मिट्टी के बर्तन का टुकड़ा हो, कुछ ऐसा ही, मई वापिस किया उसे, और उसने हाथ खींच लिया अपना!
मेरे हाथ में, मुझे उसी क्षण, गरमाईश महसूस हुई, वो टुकड़ा, गरम होने लगा था, जब नहीं सहा गया तो फेंक दिया उसे, वो अंगार बन गया, और वो बालक, सीधा भागता ही चला गया!
शर्मा जी ने वो अंगार देखा बैठ कर,
"क्या है ये?" पूछा मैंने,
"कोई टुकड़ा लगता है!" बोले वो,
"मिट्टी के बर्तन जैसा है!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ये बर्तन का नहीं, ये हड्डी है!" बोले वो,
"हड्डी?" चौंक के पूछा मैंने, और बैठ गया उनके साथ,
"हाँ, ये देखो, रंध्र!" बोले वो,
हाँ, वो हड्डी का टुकड़ा ही था, अब किसका था, ये नहीं पता चल सका, गरम था, उठाया नहीं जा सका, हम बस खड़े हो गए, आगे चले,
एक और अलाव पड़ा!
यहां कोई नहीं था!
"वहाँ!" आई आवाज़,
कोई पेड़ के पीछे खड़ा था, उसी ने कहा था,
हम आगे चल पड़े, ये सुनसान सा क्षेत्र था, बंजर सा!
हम आगे बढ़ चले, सामने एक मैदान आया और उस मैदान में बड़ी हलचल मची थी! बहुत सारे लोग थे वहां तो! जैसे सब इकठ्ठा हुए हों, कोई उत्सव हो या मेले जैसा! सभी के सभी, चंदीले से चमक रहे थे! वे कम से कम सौ तो रहे होंगे!
हम एक तरफ खड़े हो, देख रहे थे उन्हें! वे दौड़-भाग रहे थे, कोई बंजारा-समूह सा लगता था वो! जैसे ठिकाना बना रहे हों या फिर बीच यात्रा में ठहरे हों!
"वहां! वहाँ जाओ!" आई एक आवाज़! एक बूढा व्यक्ति था वो, हाथ में, एक लकड़ी लिए, उसी से
 इशारा करके बता रहा था हमें!
"आओ!" कहा मैंने, और हम दोनों चल पड़े वहाँ से, आगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस वृद्ध ने राह दिखाई और हम आगे चल पड़े! आगे गए, तो जगह जगह अलाव जले हुए थे, लोग ताप रहे थे! वे सब हम, इशारा कर देते आगे के लिए, और हम आगे चल पड़ते, इस तरह हम फिर से, शायद घूम कर वहीँ आ गए थे, या फिर उस जंगल में कहीं भटक रहे थे! बाबा ढाकल भी नहीं मिले थे हमें, वो मात्र उस कुण्ड तक ही आये थे, वहाँ भी, मात्र उनके स्वर ही गूंजे थे, वे दिखे नहीं थे!
"अरे?" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
मैंने अपने जूते को ठीक कर रहा था, उसमे बजरी घुस गयी थी, चलते में, दर्द कर रही थी!
"हाँ, क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो देखो?" बोले वो,
"अरे?" कहा मैंने,
वहाँ वो बेरी के पेड़ थे, वही बेरी के पेड़, जो दिखने में अजीब से और भुतहा लगते थे!
"हम तो वहीँ आ गए?" कहा मैंने,
"हाँ, वहीँ हैं!" बोले वो,
ये कैसा तिलिस्म था! कैसा भटकाव था! ये कौन सी फिरकी घूम रही थी, हम बार बार जैसे एक ही वृत्त में घूम घूम कर, वापिस आ जाते थे उसी जगह, जहां से चलते थे! ये सब बड़ा ही अजीब था! कोई विज्ञान का शिक्षार्थी हो तो सच में, वो भी बेहोश हो जाए और विज्ञान की जगह, मानव-विज्ञान में शोध करे फिर!
"वहां!" आई एक औरत की आवाज़!
"वहां?" पूछा मैंने,
"हाँ, कूप!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जाओ!" उचक कर, फुसफुसाते हुए बोली वो!
तभी शोर सा मचा!
मैंने पीछे देखा, वही बालक-बालिकाएं भागे चले आ रहे थे! सभी खुश लग रहे थे, उछलकूद मचा रहे थे! पीछे, छोटे छोटे बालक भी, लड़खड़ाते उन बालकों के पीछे पीछे आ रहे थे!
वो औरत, लौट गयी फिर, और वो बालक, वहीँ खड़े रहे! फिर अचानक से पलटे, और दौड़ लिए वापिस!
"उसने कूप कहा न?'' पूछा मैंने,
"हाँ, कूप ही!" बोले वो,
अब तलक तो सबकुछ देख लिया था, बस ये कूप ही देखा जाना शेष था, अतः, हम उस तरफ चल पड़े, जहा ये कूप था!
अब, कोई अलाव न जल रहा था, कोई नहीं था अब वहाँ, हाँ पीछे अभी भी अलाव जल रहे थे! अचानक से, एक संकरा सा रास्ता आया, शायद, मिट्टी या चट्टानें ढह गयी होंगी वहाँ!
"आराम से!" कहा मैंने,
और तभी, मेरी टोर्च ने खांसी ली! अब शायद दम तोड़ने वाली थी वो! कोशिश की, और फिर से साँसें चलने लगी उसकी!
जैसे ही आगे बढ़े हम!
चील-कौवों की भयानक आवाज़ें आने लगीं! ठीक वैसी ही, जैसे पहले आयीं थीं! लेकिन इस बार, इस बार वो हमला नहीं कर सकते थे, हमने अपने आपको विद्याओं में जकड़ा हुआ था, उनका वरदहस्त था हम पर!
"ये तो हज़ारों लगते हैं!" बोले वो,
"सही कहा आपने!" मैंने कहा,
"दिन का वक़्त हो, तो उड़ा के ही ले जाएँ! बोटी-बोटी नोंच डालें!" बोले वो,
"कोई शक नहीं!" कहा मैंने!
मैंने आसपास देख रहा था, कि शर्मा जी रुके, मैं भी रुका, वो सामने देख रहे थे, मैंने भी देखा!
देखते ही मैं आगे बढ़ा, वो भी बढ़े!
"ये ही है वो कूप!" कहा मैंने,
वो चमक रहा था चंदीले रंग का!
हम में जैसे आई चुस्ती-स्फूर्ति! और हमने लगाई दौड़!
"सुनो?" आई एक आवाज़!
पास में ही, रास्ते में, एक पुरुष खड़ा था, पीठ पर कुछ लादे हुए! हम चले उसके पास!
"हाँ?" कहा मैंने,
"मेरी मदद करो!" बोला वो,
"कैसी मदद?" पूछा मैंने,
"ज़रा इसे थाम लो?" बोला वो, एक बोरा नीचे रखते हुए,
"इसमें क्या है?" पूछा मैंने,
"ईंधन है, बालक भूखे हैं!" बोला वो,
मैंने उठा कर देखा, अधिक बोझा नहीं था उसमे, उठा लिया मैंने,
"कहाँ जाओगे?" उसने पूछा,
"कूप तक!" कहा मैंने,
"पीछे से जाना!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"जान जाओगे, चलो!" बोला वो,
कुछ देर बाद, लिया अपना बोझा वापिस, हमें देखा,
"प्यासे लगते हो?' बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कूप संग ही जल मिलेगा!" बोला वो,
और तेज फरलांगता हुआ, चढ़ गया खड़ी सी चढ़ाई पर! और हुआ गायब!
"पीछे से जाना?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चेताने आया था?" बोले वो,
"हो सकता है!" बोले वो,
कूप समीप आ गया था, अतः, हम रुके तनिक, जल ढूँढा, मिल गया, एक हौद में भरा था, पी लिया, शीतल जल था वो!
"एक मिनट?" बोले वो,
आसपास मारी नज़रें!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये व्य्वंघ है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही है!" बोले वो,
"कैसे?" मैंने चौंक के पूछा!
"दिन में यहां आये न थे?" बोले वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"ऋतुवेश के संग?" बोले वो,
"तब कूप कहाँ था?" पूछा मैंने,
"यहीं था, यहीं तो था?" बोले वो,
"क्या कहते हो?" कहा मैंने,
"अरे? यहां औरतें पानी नहीं भर रही थीं?" बोले वो,
"क्या कह रहे हो?" पूछा मैंने,
"वो बच्चे, औरतें?" बोले वो,
"याद है, लेकिन कूप?" पूछा मैंने,
"आपने देखा न होगा?" बोले वो,
"ऐसा कैसे हो सकता है?" कहा मैंने,
"जैसे दिशा-भ्रम हो सकता है!" बोले मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए!
हाँ!
दिशा-भ्रम तो हुआ ही था!
"अब पीछे से!" बोले वो,
"चलो, देखते हैं!" कहा मैंने,
हम पीछे चले!
जैसे ही आये!
सकते में रह गए!
वहाँ एक बड़ा सा भवन था! लाल रंग का! फिर से, दीये जले थे वहाँ!
"अब क्या ये भी देखा था?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
"चलो!" कहा उन्होंने!
अचानक ही, श्वानों के भौंकने की आवाज़ें गूंजीं!
"श्वान?" बोले वो,
"हाँ! भेड़िये नहीं!" कहा मैंने,
"याद है, वो कुत्ते वाला?" बोले वो,
"हाँ, सतीश ने बताया था?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
तभी वहां धरपकड़ सी हुई!
कोई भागा! इधर से उधर! उधर से इधर!
लेकिन दीखे नहीं!
हम नज़रें गड़ाए, देखते रहे! अपलक! न जाने, कब क्या हो! सबकुछ अप्रत्याशित था यहां तो! भूल-भुल्लैय्या बहुत देखी थीं, लेकिन ऐसी कभी नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो धरपकड़ कैसी थी? किस वजह से थी, पता नहीं चला रहा था, बस, ऐसा लग रहा था कि कोई आता है बहुत तेजी से, हमारा रास्ता काटता है और फिर से वापिस हो जाता है, अब न कोई नज़र ही आये और न ही कुछ आवाज़ ही आये, बस, क़दमों की धप्प-धप्प! ऊपर से, श्वानों का बढ़ता और करीब आता शोर! श्वान रह रह कर भौंक रहे थे, जैसे दूर कहीं उन्हें कुछ सुनाई दे और उसको सुन, वे भौंक पढ़ें! यहां श्वान तो रहे होंगे, दिन में हमने देखे भी थे, पहाड़ी से श्वान थे वो, अक्सर ऐसे श्वान बंजारे रखा करते हैं, मेरे एक जानकार के पास, ऐसा ही एक जोड़ा है श्वानों का, एक एक का वजन ऐसा है कि अगर कूद पड़े एक भरे पूरे इंसान पर तो गिरा ही दे! नोंच डाले मांस शरीर से! चौड़ा मुंह, चौड़ी गरदन, भारी शरीर लेकिन भागने में जैसे भेड़िया! अलसेशन भी दुम दबा के भाग जाए उनके सामने! अलसेशन में सबसे बड़ी कमी है उसके पीछे के दोनों पाँव, बहुत कमज़ोर होते हैं, हालांकि भेड़िये से संकर है वो श्वान, लेकिन ये दोष होता ही है उसमे, जैसे भेड़िये के पाँव, चलते हुए चटक-चटक करते हैं, वैसे अलसेशन के नहीं करते! खैर, वो भूंक भी बड़ी ही खतरनाक सी थी, भारी और गर्जनदार!
खैर, कुछ देर बाद वो धरपकड़ कम हुई, और फिर धीरे धीरे बंद ही हो गयी, शायद कोई प्रहरी था या कोई अन्य देखभाल करता हुआ! अब एक बात साफ़ थी, कि सामने जो मंदिर था, वो ही अंतिम स्थल था, उसी मंदिर में ही आज ये सारा भटकाव समाप्त हो जाना था, मैं भी अत्यंत ही उद्गिन था, बहुत से प्रश्न थे मेरे मस्तिष्क में, मैं अभी तक, उन्हें दबाये हुए ही बैठा था!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम, क़दम साधते हुए, चल पड़े उस मंदिर की तरफ, सीढ़ियां थीं, कुल दो ही सीढ़ियां, अंदर असंख्य दीप जले थे, अंदर का माहौल अत्यंत ही पावन सा था, फूल और फूलों की पत्तियां बिखरी हुई थीं, सुगन्धियाँ जल रही थीं, गुग्गल, लोहबान जैसी सुगन्धियाँ अपने सुगंध बिखेर उस पावनता में और चार चाँद लगा रही थीं! ठीक सामने ही, एक चबूतरा बना था, ये लाल रंग के पत्थर का था, उसके ऊपर फूल बिखरे हुए थे, नीचे दीये जल रहे थे!
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
और हम, उस चबूतरे तक गए!
उसको छू कर देखा मैंने, बेहद ठंडा था वो, ओंस जमी थी उस पर! एक फूल उठाया, ये एक बड़ा सा रजनीगंधा का फूल था, एकदम ताज़ा, जैसे अभी अभी तोड़ कर, लाया गया हो, और चढ़ा दिया गया हो!
कड़क! कड़क!
आवाज़ गूंजने लगी ऐसी!
मैं झटके से पीछे हुआ, शर्मा जी के पास आ गया, आवाज़, सामने से, और ज़मीन की तरफ से आ रही थी! हम दोनों ही चौंक पड़े थे!
"वो, वहां कुछ हुआ है!" बोले वो,
इशारा करते हुए, उस चबूतरे की तरफ!
मैंने चबूतरे को देखा, उस पर अब फूल नहीं थे, कहाँ गए वो फूल?
मैं आगे बढ़ा, और पहुंचा चबूतरे के पास, देखा तो चबूतरे में, दरार पड़ गयी थीं, दो बड़ी से दरारें, और अंदर तक दिखने लगा था, उस चबूतरे में, मुझे, कपड़े दिखाई दिए, लाल रंग के कपड़े, या शायद कुछ और ही रंग रहा हो, और उस प्रकाश में, शायद यही दिख रहा हो!
अब तक शर्मा जी भी पहुँच गए थे वहां, उन्होंने भी झुक कर, उस चबूतरे को देखा, उसमे झाँक कर देखा!
"वस्त्र से लगते हैं?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लेकिन ये हटायें कैसे?'' बोले वो,
सोचा! विचारा, लिया फैंसला!
"बाहर आओ, कुछ मिले शायद, जिस से, ये बचा पत्थर हटाया जा सके?'' कहा मैंने,
"हाँ, सही कहा आपने!" बोले वो,
और हम बाहर चले! जैसे ही बाहर आये! बड़ा ही हौलनाक सा दृश्य था वहां का! अलाव ही अलाव! और उन अलावों के पास, बैठे, सैंकड़ों लोग! बालक-बालिकाएं! कुछ बैठे हुए, कुछ खड़े हुए!
"अब देर भली नहीं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आसपास देखा, कोई डंडा या बांस आदि नहीं था, अब कुछ और ही करना था, जिस से वो पत्थर हटाया जा सके, कुछ तो तिकड़म लड़ानी ही थी! हम दौड़े, वापिस आये मंदिर में, और जो देखा, वो भी वैसा, कि भूला ही न जाए कभी!
जहाँ चबूतरा था, अब वहाँ कोई चबूतरा नहीं था! वहां मिट्टी थी, और उस मिट्टी में, एक बड़ा सा कलश रखा था, उस कलश पर, सप्तबेल और एक वंग-त्रिभुज बना था! ये बहुत ही अजीब बात थी! बहुत ही अजीब!
सप्तबेल तो बनायी जा सकती है! माना! लेकिन वंग-त्रिभुज?
वो किसने बनाया होगा? या बनवाया होगा?
सप्तबेल उस कलश पर बनाई जाती है, जिसमे किसी की भस्म या अवशेष एक लम्बे समय तक संभाल कर रखे जा सकें! सप्तबेल से ही, उस पर मंत्र-प्रभाव स्थायी रहता है, वो सदैव सुरक्षित ही रहती है! इसका कारण तो समझ में आया!
लेकिन वंग-त्रिभुज?
ये वो त्रिभज है, जिसमे, किसी से, जिसकी भस्म या अवशेष रखे होते हैं, क्षमा प्रदान करने का निवेदन होता है!
तो?
किसने किया निवेदन?
कौन था वो?
और फिर, ये सप्तबेलिय-कलश किसका है?
गुत्थी तो और उलझे जा रही थी!
जितना सुलझाओ, उतने ही वल्ले पड़ते जा रहे थे! सच कहता हूँ, इस से पहले कभी दिमाग़ इतना नहीं घूमा जितना इस प्रकरण में घूम गया था! जहां से चलो, फिर वहीँ पहुँच जाओ! अब कलश मिला तो और जैसे हम, गहरे धंस गए! जितना निकलो, उतना ही अंदर धँसो! कैसी अजीब सी दलदल थी ये!
"इसको खोलें?" बोले शर्मा जी,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"देखें?" बोले वो,
"आओ?" कहा मैंने,
कलश देखा हमने, मज़ाल ही नहीं कि खुल जाए! कलश के मुंह पर, एक धातु के मोटे से टुकड़े से, पिघले हुए रांगे से, टांका गया था, उसके लिए हथौड़ी और छैनी चाहिए थी, या आरी, और हमारे पास बस नाख़ून ही थे! उसमे तो बरसों लग जाते! उंगलियां जातीं सो अलग!
"ये तो नहीं खुलने वाला!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं खुलेगा!" बोले वो,
"अब क्या करें?" पूछा मैंने,
"इसको उठाना ज़रा?" पूछा उन्होंने,
मैंने उठाया, उठ गया, वजन ज़्यादा नहीं था उसमे!
"भारी है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"क्या ये टूटेगा भी नहीं?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं, मज़बूत धातु है!" कहा मैंने,
रख दिया वहीँ!
अब क्या करें?
कौन मदद करे?
बाबा ढाकल भी अब नहीं आ रहे थे!
"अब क्या हो?" पूछा उन्होंने,
"कुछ समझ नहीं आ रहा मुझे तो!" कहा मैंने,
तभी!
तभी कक्ष में, एक सुगंध उठी! भड़ाकेदार! मैं और शर्मा जी ने जैसे उसको सूंघते ही, संतुलन सा खोया! जैसे छाती में भर गयी हो वो! नाक बहने लगी हमारी तो! मुंह से लार टपकने लगी! संतुलन खोया, तो बैठते चले गए नीचे! हाथों से संतुलन बनाने लगे! छींक आने लगीं! आँखों में पानी आने लगा! चक्कर से आने लगे हमें!
ढप्प!
शर्मा जी ने संतुलन खोया और उनका सर टकराया नीचे उस बिछे हुए पत्थर से, अगले ही पल, मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाया, एक छींक उठी, और मैं सामने की ओर झुकता चला गया! आँखें बंद होने से पहले, जो दिखा वो था झिलमिलाता हुआ उन दीयों का प्रकाश!
हम अचेत हो गए थे!
उसके बाद क्या हुआ, याद नहीं!
उस दरम्यान क्या हुआ, याद नहीं!
कभी याद नहीं आया!
जो याद रहा वो इतना कि,
जब चेतना लौटी, चेतना, मैं उसको शून्यावस्थागत-चेतना कहूँगा, वो हमने भौतिक रूप में नहीं, अपितु एक सूक्ष्म-अवस्था, तो हम, एक हरे-भरे से व्य्वंघ में थे!
जीवंत और मुस्तैद से!
विद्यार्थियों के शब्द गूँज रहे थे!
पक्षी आदि सब, चहचहा रहे थे!
फलदार वृक्षों पर, विशेषकर आम के वृक्षों पर, बौर झूल रही थी!
खटास भरी पवन बह रही थी!
दूध के से औटने की गंध फैली थी वहाँ!
हम जैसे, किसी व्य्वंघ के अंदर ही थे! उस क्षण!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हमने वहां बड़े अजीब से दृश्य देखे! सच में ही अजीब! देखा, ज़मीन से सोते फूट रहे थे, चश्मे! कोई छोटा और कोई बड़ा! पेड़ों के शीर्ष से, पानी की झड़ियाँ फूट रही थीं! बादल के छोटे छोटे से, रुई जैसे सफेद टुकड़े, हवा में गोल-गोल घूम रहे थे! जैसे अभी कोई चक्रवात गुजरा हो वहाँ से! गाय देखीं, जिनके थन दूध से भरे थे, और उनमे से दूध रिस जाता था उनके चलने से! लाल सी बकरियां, जिनके थन ऐसे विशाल कि चल ही न पायें बेचारी, उनके छौने, ज़मीन पर बह रहा उनका दूध चाट रहे थे! पक्षी, रंग-बिरंगे से, एक पेड़ से दूसरे पेड़, और दूसरे से तीसरे पेड़ पर उछल-फांद रहे थे! कस्तूरी हिरणों का झुण्ड भागे ही जा रहा था! कभी रुकता, और फिर से वापिस लौट आता! नीलगाय, हरी हरी घास चर रही थीं! काले बड़े से मेढ़े, सर टकरा रहे थे एक दूसरे से! कौवे तो वहां, हुजूम बनाये बैठे थे! कांव-कांव कर, पूरा स्थान सर पर उठा रखा था उन्होंने! विद्यार्थियों का शोर तो गूँज रहा था, लेकिन कहाँ से, ये नहीं पता चल रहा था! लगता था जैसे कि, आकाश से ही आ रहा हो नीचे!
तभी कुछ दिखा! एक पेड़ के पास, कुछ दूर, साथ में ही, कुछ दिखा! वही लाल सा मंदिर! उसके खुले कपाट! हमने आव देखा न ताव! दौड़ कर भाग लिए उस मंदिर के लिए! और जैसे ही हम अंदर आये, गहन अन्धकार छाया, कपाट बंद हुए जैसे, और हम, ढप्प से दोनों ही, नीचे गिर पड़े!
कुछ पल बीते!
मेरे नेत्र खुले!
प्रकाश नेत्रों में पड़ा!
आसपास देखा मैंने!
और झट से हुआ खड़ा! देखा, शर्मा जी, पेट के बल, नीचे लेटे हुए थे! मैं झुका तभी, बैठा, देखा उन्हें, छूकर, देह गरम थी, हाथ पकड़ा उनका, खींचा!
"उठो?" कहा मैंने,
उन्होंने आँखें खोल लीं!
मुझे देखा, आसपास देखा! जैसे ही समझे कुछ, झट से खड़े हो गए! जेब से मोबाइल निकल गया था, वो उठा लिया, पीछे देखा, कलश, अब वहां नहीं था! कलश एक दीवार में, जैसे घुस गया था! जैसे ठोक दिया हो किसी ने उसे! ये देख, हम दोनों ही विस्मित हुए! चले उस कलश की तरफ, ध्यान से देखा, वो अब धातु नहीं थी, तभी वो दरका, कुछ चटक सी बनीं उसमे, और फूट गया! फूटा, तो एक बड़ा सा हिस्सा ज़मीन पर गिरा, पांच-छह टुकड़ों में टूट गया, उस कलश में से, एक हरे रंग के कपड़े में बंधी, पोटली सी दिखाई दी! मैंने हाथ बढ़ाया आगे, और उस पोटली की सुतली को पकड़ा, जैसे ही पकड़ा, पोटली उठी, नीचे गिरी, खुलती चली गयी! मैंने खींचा पोटली को, और खोली वो! उसमे से, एक दांत, एक केशों के सफेद लट, एक लोहे का छल्ला, एक अस्थ-रूढिका माला और एक छोटी सी डिबिया निकली, डिबिया को खोला तो उसमे, एक टुकड़ा था, वस्त्र का, ये हाथ से बना वस्त्र लगता था, लाल रंग का, मोटा सा वस्त्र था, टुकड़ा, कोई इंच भर का!
"ये किसका हो सकता है?" पूछा मैंने,
"ये बाबा हरलोमिक का तो क़तई नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
हमारे नेत्र मिले!
और मेरे हाथ कांपे!
पसीना छलछला गया मेरे हाथों में!
आ गया समझ मुझे!
दौड़ गया दिमाग़ मेरा! जान गया मैं!
मैंने वो सब सामान, आहिस्ता से, रखा नीचे, और बैठ गए हम!
क्या खेल खेला था बाबा खंडल ने!
मैं मान गया उनके दिमाग़ को! उनके इस खेल को! क्या घुमाया-फिराया था! क्या बढ़िया नाकेबंदी की थी! कितनी बार पीछे लौटने को विवश किया था! कितनी बार स्वतः ही सम्मुख आये थे वो! कितनी बार मदद की थी उन्होंने हमारी!
मैं सब समझ गया!
सब का सब!
वो बाबा ढाकल ही, बाबा खंडल हैं! हाँ! वो स्वयं ही बाबा खंडल हैं!
कैसा खेल! अभेद्य खेल! कैसा छ्द्म-रूप! कैसा महा-बलवान और खिलाड़ी!
अब समझा! अब समझा! क्यों वो उस कुण्ड तक पल पल साथ थे! क्यों दहानु चरण थाम रहा था उनके! क्यों इस अंतिम पड़ाव पर लाये वो हमें! सब समझ गया मैं!
ऐसा सक्षम! ऐसा मानस! और ऐसा प्रायश्चित?
"जय जय रूपा! जय जय ढाकेश्वरी! जय करंगविनाशिनि!" आई आवाज़!
गूँज उठा वो भवन!
हो उठा प्रकाशवान!
सफेद, दूधिया प्रकाश भर उठा!
हमारे नेत्र बंद हो गए!
हम, उठ खड़े हुए!
खोले नेत्र!
श्वेत, धवल वस्त्रों में, कमर तक धुंए के आवरण में लिपटे बाबा खंडल, हाँ, स्वयं बाबा खंडल थे वो उस समय, हमारे सम्मुख थे!
न प्रश्न ही पूछ सका मैं, न कुछ सोच ही सका!
मैं, उनके उस रूप को निहारता ही रहा!
जैसे शिव का श्वेत-वस्त्रों में, चन्द्र-चूढ़ स्वरुप!
काँधे पर त्रिशूल, डमरू बंधा, सैन्गा लटकाये हुए!
वो औघड़ों का महाऔघड़ था! बस, वस्त्र श्वेत थे!
पर किसलिए?
प्रायश्चित के लिए!
प्रायश्चित?
वो भला कैसे जाना मैंने?
उस वंग-त्रिभुज को देख!
मित्रगण!
मेरे प्रश्नों का जो ज्वार-भाटा, निरंतर उठ रहा था, वो अब शांत होने को था! मुझे मेरे उत्तर मिलने वाले थे अब! वो चक्रव्यूह, हमने अपनी लग्न और सतत प्रयास से भेद डाला था! अब बस, प्रश्नों के उत्तर जानने की लालसा ही शेष थी!
प्रश्न ये, पहला कि, ऐसा हुआ क्या था, जिस के कारण, ऐसा नरसंहार हुआ?
उत्तर है मान-सम्मान! आप इतिहास देखें! मान-सम्मान के पीछे, न जाने क्या क्या हुआ! राजपूताना तो, मशहूर ही इसीलिए हुए! वचन, प्रतिज्ञा, मान-सम्मान! डबरा वाले बाबा खंडल के समय, उस व्य्वंघ का संचालन बाबा औला किया करते थे! बाबा औला, विख्यात तो थे ही, उनका शैक्षणिक-कार्य अत्यंत ही प्रखर माना जाता था! चूंकि पूर्ण सात्विकता से भरा उनका व्यक्तित्व था, अतः उनके पास, दूर दूर से शिक्षार्थी आया करते थे! परन्तु, इसमें ऐसा क्या कारण था जिसके कारण, बाबा खंडल को बैर हुआ? नहीं! बैर बाबा खंडल को नहीं था, न बैर था उन बाबा औला को! बैर का कारण थे, वो भटियारे, वो बंजारे, वो गड़रिये, जो सेवायें लेते थे बाबा खंडल की! धन-रक्षा हेतु! स्थान-रक्षा हेतु! विजय-आशीर्वाद हेतु! उनका ठिकाना, अक्सर बाबा औला के व्य्वंघ के समीप ही होता था! वर्ष बीते और ये वैमनस्य बाबा औला के सहयोगियों और उन भटियारों के बीच बढ़ता गया! खेमू, ने फैसला भी करवाया, फैंसला टिका भी, लेकिन, फिर वही ढाक के तीन पात! कालांतर में, दो भटियारों की हत्या हो गयी, स्थान वही था, हत्या किसने की, नहीं पता चला, कुछ समय पश्चात, व्य्वंघ के दो लोग मारे गए, स्थान वही! अब दो गट हुए, गड़रियों का कार्य व्य्वंघ से संबंधित था, मवेशी आदि के लिए, बंजारे तटस्थ थे, लेकिन भटियारे, उग्र होते हैं! चिंगारी सुलगती गयी! आगे जाकर, ये चिंगारी, मूल रूप से, दो ही स्थानों पर आ टिकी! इसके फौरन बाद, और हत्याएं हुईं, कुछ भटियारों की, कुछ व्य्वंघ वासियों की, मामला बिगड़ता चला गया! आखिर में, भटियारे भिड़ गए, गड़रियों से! यहां हुआ रक्त-पात! गड़रियों का नाश होने लगा, जब बात संभाले न सम्भली, तो खेमू फिर से मिला बाबा औला से, बीच-बचाव हुआ, यूँ कहो कि चिंगारी को, गरम राख से ढक दिया गया! कुछ समय बाद, चिंगारी फिर से भड़की! और इस बार भड़का रोष बाबा खंडल का! उन्होंने सरंक्षण दिया था , वैसे तो तीनों को ही, लेकिन उस रोज, सब्र का प्याला छलक गया! दोपा को भेजा तो गया था सुलह करवाने, क्योंकि खेमू, व्य्वंघियों का पक्षधर था! अब किसी को ये आभास नहीं था कि दोपा क्या करने जा रहा है! दोपा ने वो किया, जो न बाबा औला चाहते थे और न ही बाबा खंडल! और परिणाम सामने ही था!
अब दूसरा प्रश्न, स्वयं बाबा हरलोमिक कहाँ थे उस समय?
उत्तर! वे थे ही नहीं! बाबा हरलोमिक ने वर्ष भर पहले समाधि ले ली थी, बहत्तर वर्ष की आयु में! बाबा औला दूसरे स्थान पर थे, दूसरे पुत्र थे बाबा हरलोमिक के, प्रथम पुत्र मध्य-प्रदेश के रीवा जिले में एक व्य्वंघ का संचालन करता था! उसका मुझे कभी न पता चला! हाँ, बाबा हरलोमिक की समाधि का स्थान आज भी है! क्या बाबा हरलोमिक, सिद्ध नहीं थे?
उत्तर है नहीं!
वे सिद्धावस्था की डगर पर थे! उनके शेष कार्य, बाबा औला के सुपुर्द थे, दुर्भाग्य से, वे कार्य कभी पूर्ण न हो सके! अब सृजा, सृजा कनिष्ठ पुत्री थी, बाबा औला, नेत्रहीन थे और सृजा उनके नेत्र! परन्तु, दोपा के उस दुष्कृत्य ने किसी को जीवित ही न छोड़ा! भटियारों ने साथ दिया दोपा का! बाद में, बंजारे भी तठस्थ न रह कर, शामिल हो गए दोपा के साथ! दोपा ने एक दिन नहीं, पूरे तीन दिनों तक नरसंहार किया था, खेमू पहले रोज ही काल का ग्रास बना था, स्पष्ट है कि क्यों!
अब प्रश्न ये कि क्या बाबा खंडल को ज्ञात न हो सका?
ज्ञात हो सकता था, परन्तु ज्ञात किया नहीं! शायद उन्हें ये भान हो कि दोपा संभाल लेगा सबकुछ, खेमू से कोई सकारात्मक खबर न मिलती थी उन्हें! दोपा के स्वभाव से क्या वो अनभिज्ञ थे?
नहीं! नहीं थे!
तो फिर?
बाबा खंडल चाहते, तो स्वयं ही वहां जा सकते थे, लेकिन नहीं गए! क्यों नहीं गए?
बस!
यही है इस नर-संहार की सबसे बड़ी वजह!
क्योंकि, बाबा औला ने आमंत्रण ठुकरा दिया था बाबा खंडल का! ये स्वयं बाबा खंडल को रास आया हो या न आया हो, दोपा के सीने में फांस बन कर रह गया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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बाबा औला का नामोनिशान तक मिटा दिया गया, ऐसा 'प्रतिशोध' लिया दोपा ने! और दोपा! उसका एक बाजू कट गया था, खेमू रहा नहीं था, कुछ ही समय के बाद, ज़ख्म के सड़ जाने के कारण, दोपा भी काल का ग्रास बन गया! और बाबा खंडल? उन्हें क्या मिला? कुछ नहीं! उन्हें भारी प्रायश्चित हुआ! दुःख हुआ! उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं रहा था, सब छिन्न-भिन्न होने की कगार पर था! और वही हुआ!
आषाढ़ की उस रात, बाबा खंडल ने अपने जीवन की अंतिम क्रिया की! महाक्रिया की! ये महाक्रिया थी एलाबंध की! भारी संताप में थे बाबा खंडल! रचा उन्होंने एक उदभेदन! पिरोते गए एक एक किरदार! और अंत में रखा स्वयं को! उस अपाहिज दहानु को, विष-पान(संखिया-पान) करवा दिया, दहानु ने, बाबा खंडल के घुटनों में दम तोड़ दिया! वो, अंतिम से पहली कड़ी था! अंतिम कड़ी थे स्वयं बाबा खंडल! यदि वे मुक्त होंगे, तो उनसे पहले, सभी मुक्त हो जाएंगे! यही रचा उन्होंने! यही है एलाबंध! वो जो औरतें, बालक, वृद्ध, पुरुष, बालिकाएं मिलीं, वे सब भटियारन, बंजारे और गड़रिये थे! वे सब, वहीँ भटकते रहे! उस एलाबंध के परिसीमन में!
मित्रगण!
उसी रात्रि, पौ फटने से पहले, एक क्रिया की गयी! क्रिया की थी स्वयं मैंने, कुछ पार्थिव अंश छोड़ दिए थे बाबा खंडल ने! उनसे ही क्रिया सम्भव हुई! और इस प्रकार, बाबा खंडल भी मुक्त हुए, सदा सदा के लिए!
मैंने क्या पाया?
कुछ नहीं! कुछ भी तो नहीं!
परन्तु!
खोया भी क्या?
कुछ नहीं! या कुछ? नहीं! कुछ नहीं खोया!
अब तो काफी समय बीत गया है! अब वहां के वो अजीब से पेड़, बेरी के पेड़, ठूंठ हो गए हैं! भूमि और बंजर हो गयी है! जैसे, भूमि की जीवन-शक्ति ने भी विदा ले ली हो वहां से!
उस अंतिम क्रिया के बाद, हम, एक जगह आ बैठे थे! आँखों में नींद नहीं थी! कुछ ही देर में, पौ फटी! पीछे देखा, पक्षी चहचहा रहे थे, और लेटे थे, आराम से, वो फौजी! रामखिलावन और यादराम!
अब हैरान नहीं थे हम! एक ही रात में, कहाँ से कहाँ, और कहाँ से कहाँ, घूम चुके थे हम!
"राम राम जी!" आई आवाज़! चादर लपेटते हुए फौजी ने कहा!
"राम राम!" हम दोनों ने कहा,
"रात तो ऐसी नींद आई, कि पता ही नहीं चला कुछ भी!" बोला वो फौजी!
मैं चुप! जवाब न बना!
"हाँ भाई फौजी! कुछ न पता चला! बहुत बढ़िया नींद आई!" बोले शर्मा जी!
"काम हुआ?" पूछा फौजी ने,
अब तक वे दोनों भी उठ चुके थे, हाथ जोड़, नमस्कार हुई!
"हाँ, हो गया काम!" बोले वो,
"तो लौट चलें?" बोला फौजी!
"हाँ, लौटना ही होगा!" कहा मैंने,
पानी पिया, कुल्लादि किया, बैग संभाले, और चल पड़े वापिस! रास्ते में, ऐसी कई जगह आयीं, जो देखी देखी सी लगीं! हम रुक जाते! मुस्कुरा जाते और वापिस लौट पड़ते!
घर वापिस आ गए थे, उस दिन शाम को वापिस हुए, हाँ, वो सिक्का, जो मेरे पास था अभी तक, फौजी को दे दिया था, सिक्का बड़ा था, कम से कम तीस-पैंतीस ग्राम का रहा होगा! वो दरअसल सिक्का नहीं था, वो शायद ढक्कन था किसी बर्तन का! वजन ज़्यादा भी हो, तो पता नहीं!
शाम को हम वापिस हुए, और रात तक, धर्मशाला जा पहुंचे, अगले दिन गाँव लौटे, सभी खुश थे!
मैं नहीं भूल सकता एक खिलाड़ी का वो उदभेदन! ये तो, तिलिस्म से भी उलझा हुआ और जटिल था!
सोचता हूँ कभी कभी! कितना अल्प-समय है हमारे पास और हम, कहाँ अटके हुए हैं! पता नही, कितना और अटकना है! कितने ही ऐसे झंझावतों में, और फंसना है! खाली हाथ आये, खाली हाथ ही जाएंगे! आते समय, कम से कम, मुट्ठियाँ तो बंद थीं, जाते समय तो वो भी न होंगी!
जय माँ ढाकेश्वरी!
जय बाबा हरलोमिक! जय बाबा औला!
और जय बाबा खंडल!
जय जय रूपा! जय जय ढाकेश्वरी!
साधुवाद!


   
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