वर्ष २०१३ दतिया, मध...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१३ दतिया, मध्य-प्रदेश की एक घटना!

86 Posts
1 Users
0 Likes
884 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

तो हमें चाय समाप्त कर ली थी, नींद भी पूरी हो गयी थी और थकावट भी नहीं थी अब! अब मेरा मन था कि इन दोनों जगहों के विषय में जाना जाए, बदकिस्मती से मेरे मोबाइल का इंटरनेट भी काम नहीं कर रहा था, लैपटॉप मैं लाया नहीं था, नहीं तो कम से कम फौरी तौर पर जानकारी मिल ही जाती, मैंने पहले भी ऐसे ही मदद ली है, अक्सर मदद मिल ही जाती है!
दो नाम थे हमारे पास, सिलोरी और इंदरगढ़,  ये दो नाम थे, और कसम से, मैंने ये नाम कभी न सुने थे, कभी साबका ही नहीं पड़ा था! सोचा कि नीचे धर्मशाला वाले सज्जन से मदद ली जाए! हो सकता है कि काम बन ही जाए!
"नीचे पता करें?" पूछा मैंने,
"संचालक से?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ, स्थानीय ही हैं?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हमने दरवाज़े को लगाया ताला, और चल पड़े नीचे, वो उस जगह थे नहीं, उनकी मेज़ पर कुछ रजिस्टर पड़े हुए थे, औंधे मुंह रखे हुए, पास में ही, एक जग में पानी रखा था, पानी ढका हुआ था, एक किताब से, किताब पर, मृगनयनी नाम का शीर्षक था, शायद कोई पत्रिका थी वो, ठीक पीछे एक कैलेंडर लटका हुआ था, कैलेंडर में, माँ पीतांबरा-पीठ का दृश्य था और नीचे, विज्ञापन था, किसी मिठाई वाले का, मोहन लाल नाम था उसका, पीछे ही, एक पुरानी सी, विंटेज कहूँगा मैं उसे, एक जालीदार छोटी अलमारी रखी थी, अलमारी के ऊपर, धूल चढ़ा एक गुलदस्ता रखा था, शायद होली पर ही साफ़-सफाई हुई हो उसकी, धूल देख कर पता चलता था कि उसका नाता इस जगह से काफी पुराना है!
तभी पीछे से चप्पलों के फटकने की आवाज़ आई, ये शिव था!
"हाँ जी? कोई काम?" पूछा उसने,
"नहीं, ये कहाँ चले गए?" पूछा मैंने,
"आ रहे हैं अभी, आप बैठिये!" बोला वो,
बैठने के नाम पर, एक बूढा सा बेंच था, बेंच हिचक-पिचक करता था, कहीं उसके फट्टों के बीच में खाल आ जाती तो जहां निशान पड़ता, वहीँ चीख भी निकल आती, खड़े होने में ही भलाई थी!
"कहीं दूर गए हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, पास में ही बहन रहती है उनकी, वहीँ गए हैं!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"ठीक है, हम आते हैं अभी!" शर्मा जी ने कहा,
"आ जाइए!" बोला वो,
और हम बाहर चले आये, बाहर अब रौनक सी होने लगी थी, पांच का समय हो चला था और बंद दुकानें अब खुलने लगी थीं! अलसाये से लोग अब हरकत में आने लगे थे! कुछ बकरियां मुंह में चारा दबाये, वापिस लौट रही थीं, उनके थनों को झोलों से बाँध दिया गया था, कईयों के थन तो, बड़े ही भारी हो चले थे, बेचारियों को चलने में भी दिक्कत होने लगी थी! उनके मालिक, हाँक रहे थे उनको, रंग-बिरंगी बकरियां बड़ी ही सुंदर लग रही थीं, उनके साथ चलते हुए उनके शैतान और नटखट छौने अपनी ही मस्ती में मशगूल थे!
"कुछ खाया जाए?" पूछा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
हम देखते रहे आसपास, कुछ हल्का-फुल्का मिल जाता तो सही रहता!
"यहां तो कुछ नहीं ऐसा!" बोले वो,
"वही पूरी-कचौड़ी हैं!" कहा मैंने,
"आगे चलते हैं!" कहा उन्होंने,
"चलो!" बोला मैं,
आखिर में, एक जगह मिली, यहां कुछ हल्का-फुल्का मिल गया, वो भी चिड़वा! चलो, बढ़िया हुआ, उसी से काम चलाया! बनाया भी बढ़िया ही था! साथ में, एक एक चाय भी पी ली!
मैं अभी चिड़वा खा ही रहा था कि, मेरी नज़र एक थोड़ा दूर बने एक छोटे से मंदिर पर पड़ी, उस मंदिर की थड़ी पर, कोई कन्या खड़ी थी! मेरा दिमाग घूमा! मैंने देखा है इस कन्या को! लेकिन कौन?
कौन है ये?
क्यों लगता है, कि मैं जानता हूँ इसे?
इस से बातें भी हुई हैं!
उसकी आवाज़ मुझे अभी तक याद क्यों है?
कौन है ये?
मैं उठ खड़ा हुआ, शर्मा जी ने मुझे देखा, फिर जहां मैं देख रहा था, वहां देखा, खड़े हो गए! आये मेरे पास, अपनी तश्तरी लिए हुए,
"क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,
"हिरा.....नु.." कहा मैंने,
"हिरानु?" चौंके वो!
"हाँ.........." कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"वो सामने!" कहा मैंने, ऊँगली आगे करते हुए!
उन्होंने गौर से देखा उधर, कई बार,
"नहीं, कोई नहीं?" बोले वो,
"है!" कहा मैंने,
और मैं चल पड़ा उधर के लिए, वो हट रही थी पीछे, मंदिर की दीवार की छाँव में आ गयी थी, सामने देखते ही पीछे हटी थी वो!
मैं दौड़ा!
दौड़ के सड़क पार की,
भागा मंदिर के पास!
वो लौट रही थी अब, पीठ पीछे किये!
मैं दौड़ता, फरलांगता हुआ, भागा उसके पीछे!
"हिरानु?" चिल्लाया मैं,
उसने पीछे पलट के देखा, लेकिन रुकी नहीं!
"सुनो?" बोला मैं,
नहीं सुना, चलती रही आगे!
मैं काँटों के बीच से दौड़ा! पत्थरों पर दौड़ा!
"हिरानु?" फिर से बोला मैं,
उसने देखा पीछे फिर से! रुकी वो, पल भर के लिए,
मैंने ज़ोर लगाया! भागा आगे तेज!
पीछे पीछे मेरे, शर्मा जी आ रहे थे!
वो तेज क़दमों से चलती रही, मैं दौड़ता रहा!
अचानक से, रास्ता बंद हुआ, मैंने दायें बाएं देखा, कोई रास्ता नहीं, हाँ, एक रास्ता दिखा, जो सामने की ओर जाता था, पत्थरों को चीरता हुआ! मैं चढ़ चला उस रास्ते पर, पत्थर बड़े ऊँचे थे, उनको जैसे घिस कर, सीढ़ियों की शक्ल दी गयी थी, एक ही सांस में चढ़ गया मैं, आ गया ऊपर! आसपास देखा, कोई नहीं! सामने देखा, एक बड़े से पेड़ के नीचे, वहीँ खड़ी थी!
"हिरानु? रुको?" बोला मैं,
और उतरने लगा नीचे!
भागा बहुत तेज! बड़े बड़े पत्थर, नज़र चूक जाया करती थी!
मैं भागा और रुका एक जगह, वो पेड़ दूर था अभी भी!
आव देखा न ताव!
दौड़ पड़ा, उसने देखा मुझे, और पकड़ी आगे की राह!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मैं दौड़ा हुआ गया उस पेड़ तक, सांस फूलकर, दुल्लर हो गयी थी, रास्ता ही ऐसा था, एक तो पथरीला और एक चढ़ाई! पसीनों के मारे हालत खराब थी, हलक सूख गया था, मैंने नज़रें दौड़ायीं वहां, लेकिन कोई नहीं था, बहुत ढूँढा आसपास, कोई नहीं था! अब तक शर्मा जी भी आ पहुंचे थे, वो भी अपने घुटनों पर हाथ रख, दम साध रहे थे! पत्थरों में से जैसे आग निकल रही थी! मैंने भी अपनी साँसे नियंत्रित कीं और उस पेड़ की एक टहनी पकड़ कर खड़ा हो गया! जब साँसे नियंत्रित हुईं, तो मेरी तरफ बोतल बढ़ायी उन्होंने, मैंने झट से बोतल खोली और पानी पिया, पानी ठंडा था, नयी बोतल खरीदी थी उन्होंने, पानी पिया सो अमृत पिया! एक बार में ही आधी बोतल साफ़ कर दी! अब जाकर राहत मिली, चेहरे पर भी पानी डाला, लगा जैसे किसी गरम तवे पर जैसे पानी की बूँदें नाचने लगती हैं, ऐसे नाचा पानी!
"नज़र आई?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, यहां के बाद तो दिखी ही नहीं!" कहा मैंने,
"उधर बैठो ज़रा!" बोले वो,
एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था वहां, गमछा बिछाया हमने, और टिक गए!
"हिरानु ही थी?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, सौ प्रतिशत!" कहा मैंने,
"बड़ी अजीब बात है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसका अर्थ ये हुआ कि हम निगाहों में हैं?" बोले वो,
"यही अर्थ हुआ!" कहा मैंने,
"ये तो अच्छा हुआ फिर!" बोले वो,
"हाँ, अब जल्दी ही कुछ करना होगा!" कहा मैंने,
"वैसे?????" बोले वो और रुके,
"क्या वैसे?" पूछा मैंने,
"हिरानु ही क्यों दिखी?" बोले वो,
"शायद, वो बड़ी है, इसलिए?' कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा उन्होंने,
मैंने आसपास देखा, अभी शाम होने में देर थी, हालांकि, शाम की सुगबुगाहट होने लगी थी, दूर आकाश में, धनुषाकृति बनाये, बगुले अपने अपने घरौंदों की ओर लौटने लगे थे, उनकी यात्रा बड़ी ही लम्बी हुआ करती है, उनकी दिशा देख लगता था कि जैसे अब वो सीधा चंबल के किसी जलीय क्षेत्र या भरतपुर के पक्षी अभ्यारण्य में ही रुकेंगे! दूसरे पक्षी भी कोई अकेला और कोई दुकेला लौटने लगा था वापिस!
गिलहरियाँ भी अब अपने अपने स्थानों पर लौटने लगी थीं, उनके लिए ये समय, ये मौसम बड़ा ही रुक्ष हुआ करता है, फलों की गुठलियां आदि सब कड़ी हो जाती हैं, और फिर पानी की समस्या! खैर, ये प्रकृति है, जिसने जन्म दिया है, वो लालन-पालन भी करता ही है!
"वापिस चलें?" बोले वो,
"हाँ, चलते हैं!" कहा मैंने,
और हम लौट चले वापिस, अब धीमे कदमों से आगे बढ़े! करीब आधा रास्ता पार किया और मैंने तब पीछे मुड़कर देखा, देखा तो हुआ सन्न! कंधे पर हाथ रख कर, शर्मा जी को रोक लिया!
और मैं मुड़ा पीछे!
शर्मा जी समझ गए, कुछ नहीं बोले, वहीँ देखते रहे!
मैंने क्या देखा?
देखा वो ऋतुवेश! उस पेड़ के नीचे खड़ा हुआ!
कंधे पर, झोला लटकाये!
मेरी और उसकी निगाह तो नहीं मिली, लेकिन देह देखकर ये निश्चित था कि उसका ध्यान मुझ पर ही है!
मैं खड़ा खड़ा देखता रहा उसे, वो पत्थर सा बन, एकटक देखता रहा, मैं भी!
"रुकना आप!" कहा मैंने शर्मा जी से,
और धीमे क़दमों से वापिस हुआ मैं!
पेड़ पास आता चला गया!
और पास आता चला गया वो ऋतुवेश!
मैं सधे क़दमों से आगे बढ़ा!
धीरे धीरे!
पांवों के नीचे के कंकड़ आवाज़ करते रहे!
मैं कभी लड़खड़ाता, कभी सीधा चलता, लेकिन नज़रें नहीं हटाता!
मैं आया और करीब!
थोड़ा और करीब!
और रुका!
अब मिली निगाहें!
उसका चेहरा भावशून्य था!
लग, वो मुझे नहीं देख रहा, मेरे पीछे किसी और को देख रहा है!
मैंने पलट के भी देखा, वहाँ कोई नहीं था, कोई भी नहीं!
शर्मा जी हट चुके थे वहां से!
अब उसका और मेरा फांसला, महज़ दस फ़ीट का रहा होगा!
लू का एक तेज गुबार चला! मेरे चेहरे पर, मिट्टी के कण पड़े, मैंने हाथ से हटाया उन्हें! लेकिन नज़रें नहीं हटाईं उस से!
आगे बढ़ा और!
थोड़ा और आगे!
"ऋतुवेश?" कहा मैंने,
उसने पीछे देखते हुए, मेरे पीछे देखते हुए, नज़रें नहीं हटाईं! टाल गया मेरा प्रश्न!
"ऋतुवेश?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोला वो,
"आप यहां?" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
"ऋतुवेश?" बोला मैं,
"हूँ?" बोला वो,
"आप यहां?" कहा मैंने,
''श्ह्ह्ह!" बोला वो, मुंह पर ऊँगली रखते हुए!
मैं समझ नहीं सका कुछ भी!
पता नहीं क्या चल रहा था उस समय!
"पीछे देखो?" बोला वो,
मैंने एक झटके से पीछे देखा!
देखा तो जैसे ज़मीन में गड़ा!
कम से कम बीस साधू से खड़े थे दूर, एक अर्ध-चन्द्र सा बना कर, सभी नग्न, भस्म-भूत लपेटे हुए, रुक्ष-केश, हाथों में, डंडे लिए हुए, मोटे मोटे, उन डंडों के ऊपर, शीर्ष पर, फरसे कसे थे, स्पष्ट था, वे औघड़ स्वरुप थे, लेकिन वे थे कौन?
मैंने झट से आगे देखा!
नहीं था ऋतुवेश वहां!
मैं चौंका!
पीछे देखा, कोई नहीं था! सभी लोप हो गए थे!
मैंने आसपास देखा, हर जगह देखा! कहीं कोई नहीं! जैसे मैं किस समय-संध में जा पहुंचा था, पल भर के लिए! अब रहस्य और गहरा गया था! वे सब कौन थे? ऋतुवेश को क्यों देख रहे थे, ऋतुवेश तो छिपा भी नहीं था? क्या कारण रहा होगा?
कहीं कोई टकराव तो नहीं?
कहीं मतांतर का कोई संहार तो नहीं हुआ था?
और तभी..............!!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अब तो दिल का अमन-ओ-चैन जैसे उठ, खड़ा हो, बगलें झाँकने लगा था! ये मैंने क्या देखा था? या, मुझे क्या दिखाया गया था? किसने दिखाया था? हिरानु कहाँ थी? यहीं थी या कहीं और? क्या घटा था इन दोनों किशोर और किशोरी के साथ? मुझे तो कहीं से भी ये न तो तेज-तर्रार ही लगे थे और न प्रपंची ही, फिर क्या वजह रही होगी? और फिर क्षेत्र? ये क्षेत्र तो बहुत ही विशाल रहा होगा उनके समय में, हम करीब पैंतालीस या पचास किलोमीटर दूर थे, क्या इसी जगह पर कोई डेरा या आश्रम रहा होगा? ये कोई व्य्वंघ बाबा हरलोमिक का? और फिर? फिर? बाबा हरलोमिक कहाँ थे? उनके रहते ऐसा क्या घट गया? क्यों नहीं रोका गया? सवाल बेहिसाब और जवाब कहाँ ढूंढें जाएँ? कौन दे जवाब उनके? कहाँ जाऊं? कोई भी मदद कैसे करता? मई तो बुझा-बुझा सा एक जगह आ बैठा था, दूर क्षितिज पर ताकता हुआ, हाँ, क्षितिज पर, इस समय तो मेरी सोच और वैचारिक क्षमता, क्षितिज पर ही दोलन भांति लटक रही थी! न आगा जानूँ और न पीछा! ये कैसे खेल में पड़ गया मैं! ऋतुवेश का उज्जवल चेहरा याद आये तो हिरानु की चंचलता! उस स्थान की पवित्रता याद आये और वो शीर्ष से फूटती जल-धाराएं! ये क्या पहेली है? सर घूम कर रह गया! किस से मदद मांगूं?
मैंने सबकुछ शर्मा जी को बता दिया था, उनके माथे पर भी शिकन पड़ने लगी थीं, अब ये विषय ही ऐसा हो चला था, कुछ भी देखें, न हमारे पास कोई ओर था न कोई छोर! वे औरतें कौन थीं? जिन्होंने मोहर सिंह और सतीश को मार्ग सुझाया था? वो बालक कौन थे? वो अलाव के पास बैठे, दूसरे लोग कौन थे? ऋतुवेश और हिरानु की भूमिका क्या थी? बाबा हरलोमिक कहाँ थे? कौन सा स्थान था उनका? और फिर विश्रामशाला वहाँ है, तो वो व्य्वंघ भी समीप ही होना चाहिए? वो समीप है, तो हम यहां क्या कर रहे हैं? हम यहां आये थे पता करने, कुछ गुत्थी सुलझाने, लेकिन यहां तो हम ही उलझ गए थे वो भी बुरी तरह से!
क्या किया जाए?
वापिस वहीँ चला जाए क्या?
या फिर यहीं जांच की जाए?
"क्या किया जाए अब?" पूछा मैंने,
"सबसे पहले इन दो जगहों के बारे में पता करते हैं!" बोले वो,
"हाँ, ये तो मैं भूल ही गया था!" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोले वो,
और हम, वहां से उठ कर, चल पड़े वापिस, अब पता करना था उन दोनों जगहों के बारे में! क्या पता, कुछ मिल ही जाए?
हम चले अब वापिस, धीरे धीरे, मैं बार बार पीछे देखता रहा, लेकिन कोई नज़र नहीं आया, सोचा, उनका जो मंसूबा था वो समझा दिया गया है हमें, अब हमें ही कुछ करना है! रास्ता पार किया, आ गए वापिस, सीधा चाय वाले के पास गए, चाय के लिए कहा और वहीँ बैठ गए! थोड़ी ही देर में चाय भी मिल गयी, चाय पी, पैसे चुकता किये और वापिस हुए फिर, आज वैसे रुकने का मन नहीं था यहां, एक तो कपड़े नहीं थे, और वहां मिलते नहीं, फिर भी, आज रात तो रुकना ही था, सीधा धर्मशाला आये, और अपनी कमीज आदि धोने रख दी, सुखा दी, घंटे भर में ही पहनने लायक हो गए थे, पहने और नीचे चले हम, अब वो सज्जन बैठे मिले, उस समय चाय पी रहे थे, साथ में पकौड़ियाँ खा रहे थे!
"आइये! बैठिये!" बोले वो,
अखबार लिया, बेंच पर बिछाया, बेंच ने जैसे कराह सी निकाली, संतुलन बनाया और बैठ गए!
"चाय पिएंगे?" उन्होंने पूछा,
"धन्यवाद, चाय पी ही थी अभी!" कहा मैंने,
उन्होंने तश्तरी आगे बधाई पकौड़ियों की,
"ये लीजिये, खाइये!" बोले वो,
मैंने एक उठा ली, शर्मा जी ने भी, खायी, स्वाद तो लाजवाब था उनका, पालक और आलू की पकौड़ी थी वो!
"प्रकाश जी?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोले वो,
तभी शिव आया वहां, चादर आदि लाया था बाहर से, शायद धुल कर आई थीं, रख दी उसने वो सब वहीँ,
"शिव?" बोले प्रकाश,
"हाँ जी?" बोला वो,
"चाय ले आ, और ये पकौड़ी भी!" बोले वो,
"अभी लाया!" बोला वो और चला बाहर!
"लो, और आ रही हैं!" बोले वो,
मैंने एक और उठा ली, खाने लगा,
"हाँ, कुछ कह रहे थे आप?" बोले वो,
"हाँ, वो कुछ जानना था हमें?" बोले शर्मा जी,
"पूछिए?" बोले वो,
"ये इंदरगढ़ नाम की एक जगह है पास में, कहाँ है और कितनी दूर?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ है, यहां से कोई तीस किलोमीटर पड़ता है, उत्तर-पूर्व मानो आप! पुरानी जगह है, पहले वही बसा हुआ था, बताते हैं!" बोले वो,
ओहो! इसका मतलब, इंदरगढ़ नाम की जगह सच में ही है! आज भी! ख़ुशी का ठिकाना न रहा हमारा तो!
"यहां से रास्ता है?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, है न?" बोले वो,
"बताइये?" बोले वो,
और उन्होंने रास्ता बता दिया, फिर उनसे गाँव पूछा, गाँव का नाम भी जान गए वो, कहने लगे कि बहुत पुराने बसे हुए गाँव हैं वहाँ! गाँव है तो दूर दूर लेकिन रास्ता ठीक है वहां तक जाने का! फिर वजह पूछी उन्होंने तो हमने कोई व्यक्तिगत कारण बता दिया उन्हें!
"जब सड़क से आते हैं तो टेकनपुर पड़ता है, है न?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ, पड़ता है, आर्मी का सा क्षेत्र है!" कहा मैंने,
"हाँ, आर्मी का ही है!" बोले वो,
"हाँ, पड़ता है!" कहा मैंने,
"एक रास्ता वहाँ से भी जाता है, वो यहां के मुकाबले ठीक है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जा रहे हैं वहाँ?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
तभी शिव ले आया पकौड़ियाँ और चाय! रख दी सामने ही, प्रकाश जी ने पकौड़ियाँ निकाल लीं और रख दीं तश्तरी पर, साथ में हरी चटनी भी, फिर शिव ने चाय भी डाल दी कप में, हमने चाय पीने के लिए, उठा लिए अपने अपने कप!
चाय पी और पकौड़ियाँ भी खायीं!
और फिर हम, उनका धन्यवाद कर, चले अपने कमरे में,
अब शाम घिर आई थी, कल के बारे में ही अब योजना बनानी थी!
तो आये हम कमरे में, बैठे और तब मैंने पानी पिया थोड़ा सा,
"एक जगह तो मिल गयी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब रहा वो गाँव, सिरोली? है न?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो वो, वहां जाकर पता चल जाएगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब चैन पड़ा!" बोले वो,
"ये तो है ही!" कहा मैंने,
"नहीं तो धूल में लाठी भांज रहे थे!" बोले वो,
"हाँ, सुजान ने सही कहा था!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
बातें होती रही, करते रहे बातें!
बजे साढ़े आठ!
''चलो, भोजन ही कर आएं!" बोला मैं,
"हाँ चलो!" बोले वो,
हमने कमरा किया बंद और चल पड़े नीचे,
आये बाहर, बाहर तो प्रकाश ही प्रकाश था! बाज़ार की रंगत शाम होते ही बदल जाया करती है, सो बदल गयी थी! खान-पान वाले सभी व्यस्त थे, ढूंढने लगे हम भी कोई खाली जगह वाली व्यवस्था, आगे जाकर, एक जगह मिल गयी, जा बैठे, अरहर की दाल मिली, वही दाल अक्सर यहां मिलती है, और ये बनाते भी अच्छा है! वही ले ली, साथ में दही भी, और करने लगे भोजन तब हम!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

भोजन कर लिया था, अब हुए वापिस, पानी खरीद लिया था, धर्मशाला का पानी ठंडा नहीं था और फिर खारा भी बहुत था, गर्मियों में सबसे बड़ी चीज़ ये पानी ही होता है, बाहर कहीं जाएँ तो सदैव शुद्ध ही जल पीना चाहिए, चाहे खरीद ही लें, जल-जनित व्याधियां बहुत समस्याएं पैदा कर सकती हैं, और यदि पीना ही पड़े, तो साथ में नीम्बू का रस भी ले लेना चाहिए, खैर, भोजन कर लिया था हमने और तब हम वापिस चलने हो हुए, मंदिर में से संगीत के स्वर आ रहे थे, बड़ा ही पावन माहौल था, लोग-बाग़ श्रद्धा पूर्वक, पूजन-सामग्री एकत्रित कर रहे थे, पूजन से संबंधित वस्तुओं का बाज़ार था ये, वे खरीदी जा रही थीं! लोग दूर दूर से आते हैं यहां, यहां शाम की छटा निराली ही हुआ करती है! शाम ढल चुकी थी और अब दिन जैसे भट्टी वाली गर्मी नहीं थी, हवा में कुछ शीतलता भी थी, जो उस समय आनंददायक प्रतीत हो रही थी!
"आइये, उस प्रांगण तक चले हैं!" बोले वो,
वो भी एक मंदिर ही था, अधिक बड़ा नहीं था लेकिन था बढ़िया ही, श्री हनुमान जी का मंदिर था वो, हमने हाथ जोड़े उनके, प्रसाद जो मिल रहा था, ग्रहण किया और वहीँ कुछ पल के लिए बैठ गए! हनुमान जी से संबंधित भूमि तो ये है ही! उनके बाल्य-काल की भूमि है, अपने पिता श्री केसरी और अपनी माता अंजनी, जो कि एक शापित अप्सरा थीं, खूब छकाया था श्री हनुमान जी ने! श्री हनुमान जी के बाल्य-काल की अधिक चर्चा अथवा उल्लेख नहीं प्राप्त होता, कारण, उस से अर्थोपार्जन नहीं होगा! स्पष्ट कहता हूँ मैं, इसमें कोई छिपाव ही नहीं! मुख्यधारा में जो बताया गया वही अधिकतर जानते हैं लोग! न तो ये भी बताया कि श्री हनुमान जी की मित्रता सुग्रीव से कैसे हुई, कैसे वे उनके मंत्री हुए, बाली को कैसे जानते थे वे, आदि आदि, बाल्य-काल में कौन उनका मित्र रहा, कौन उनके गुरु हुए, किसने उड़न-विद्या सिखाई, श्री केसरी के विषय में बस यही ज्ञात है कि वे श्री हनुमान जी के पिता हुए, दैहिक पिता! अब ये भी नहीं कि वे शापित अप्सरा केसरी जी से ही क्यों विवाह के लिए राजी हुईं, क्या कारण था, केसरी जी तो वानर थे, कैसे मिलन हुआ, क्या कारण रहा होगा! और फिर पवन-देव का क्या महत्व? क्यों उन्हें पवन-पुत्र कहा जाता है, माँ अंजनी से क्या नाता उनका? कुछ नहीं! ये प्रश्न पूछे यदि कोई, तो उत्तर कहीं नहीं!
मित्रगण, जानते हैं ईश्वर ने आपको सबसे बड़ी विधा, सबसे बड़ी कृपा सबसे अद्भुत वस्तु क्या प्रदान की है? बिना आपसे कुछ मांगे? जानते हैं वो क्या है?
वो है विवेक! स्वयं-विवेक!
ये संसार मूलरूप से, दो भागों में विभक्त है, एक सांसारिक, अर्थात स्पृश्य अर्थात भौतिक! इस भौतिकता में भी कई गूढ़ रहस्य विद्यमान हैं! अर्थात, भेद हैं इसमें भी! हम, वही देखते हैं, वही सुनते हैं, वही ग्रहण करते हैं जो ग्राह्य है, गाह्य है! इसमें हमें, हमारे शरीर की भौतिकता का ज्ञान कराने वाली इन्द्रियों का योगदान है! इन्हीं से हम इस संसार से जुड़े रहते हैं! कौन मेरा पिता, कौन मेरी माता, कौन मेरा भाई, कौन मेरी बहन, कौन मेरा रिश्तेदार, कौन मेरी पत्नी, कौन मेरा पुत्र, कौन मेरी पुत्री, ये सब, सामाजिक बंधन हैं! हम बस, इन्हीं बंधनों में जीवन काटते चले जाते हैं! परन्तु, कौन मैं? इसका कभी विचार नहीं करते! ऐसे कई सूक्ष्म-जीव हैं, इन्हें हमारी आँखें नहीं देख सकतीं! ऐसे कई ध्वनियाँ हैं, जिन्हें हमारे कान नहीं सुन सकते! ये भी भौतिकता है!
तो? विवेक किसलिए?
विवेक, स्वयं को जानने के लिए परम आवश्यक है! ईश्वर ने इसी विवेक के कारण हमें, अन्य पशुओं से पृथक रखा है! तो अब, जब विवेक होगा जागृत, तो प्रश्न भी होंगे! जैसे, कि ये मैं कैसे मान लूँ कि इस संसार में ईश्वर नाम का कोई है भी या नहीं? प्रश्न उत्तम है! जायज़ है! तर्क़संगत है! उत्तर भी ऐसा ही होना चाहिए! अब इसे, हम यूँ कह कर ख़ारिज़ नहीं कर सकते कि ये तो मूर्खता भरा प्रश्न है, नास्तिकता है, बुद्धिहीनता है! आदि आदि! नहीं! ये बुद्धिहीनता नहीं, बुद्धि-तीक्ष्णता है! प्रश्न करना हमारा स्वभाव है, हाँ, उत्तर कैसे मिले, कहाँ से मिले, ये हम भी ही निर्भर करता है! और फिर, एक बार आप ये प्रश्न करें और उत्तर ढूंढने निकलें तो समझ जाएँ, अब सांसारिकता का कोई मोल शेष नहीं रहा! जिस प्रकार, श्रावण मास में आकाश मेघों से ढक जाता है और ग्रीष्म में आकाश मेघरहित हो जाता है, उसी प्रकार, ये सांसारिकता, मृत्यु-पर्यन्त कभी साथ नहीं छोड़ती! कोई विरला ही होता है ऐसा! और जो छोड़ देता है, वो सत्य में विलीन हो जाता है!
खैर,
रात्रि गहराई,
और हमने अपना बिस्तर पकड़ा, कल हमने वापिस सतीश के पास जाना था, वहां से, कुछ कपड़े और कुछ आवश्यक सामान भी लेना था, और उनको, सूचित भी करना था कि हम कहाँ से कहाँ जा रहे हैं, इस से वे भी निश्चिन्त ही रहते और हम भी, मोहर सिंह के वैसे दो बार फ़ोन आ ही चुके थे, शर्मा जी ने बता दिया था उन्हें और ये भी कि कल हम वापिस आ रहे हैं!
रात के करीब दो बजे का समय रहा होगा,
मेरी नींद अचानक से खुली!
ज़ीरो-वॉट का हल्का सा हरा बल्ब जल रहा था,
पंखे के घूमने की आवाज़ भी आ रही थी, बीच बीच में जैसे वो ऊँघने लगता था, और जाग भी पड़ता था, जब जागता था वो कर्र-कर्र की सी आवाज़ करने लगता था!
मैंने करवट बदली अपनी, लेकिन नींद न आये,
उठा, और पानी पिया,
बैठ गया कुर्सी पर वहीँ,
आज दिन भर की बातें सोचने लगा, हिरानु के बारे में, ऋतुवेश के बारे में!
"क्या बताना चाहता था ऋतुवेश?" स्वयं से प्रश्न किया मैंने,
वो क्यों खड़ा था उस पेड़ के नीचे?
वो हिरानु, वो कहाँ थी उस समय?
आखिर में, हुआ क्या था?
ये कैसा खेल खेला जा रहा है?
ये खेल मेरे अब तक के जीवन में सबसे उलझा हुआ था, ऐसा प्रतीत हो रहा था! मैं उठा, चला खिड़की तक, बाहर झाँका, नीचे अँधेरा था, एक सरकारी लैंप-पोस्ट पर बल्ब जल रहा था, उसको भी उसके यार-दोस्त, वो पतंगे, छेड़ रहे थे! दो तीन श्वान, भौंक रहे थे, बारी बारी से, जैसे नाकाबंदी कर रखी हो उन्होंने एक दूसरे के साथ, कभी दूर से आवाज़ आती, वो बीच वाले नाके तक टकराती और यहां से आगे बढ़ जाती!
सामने वाले क घर में, कुछ हलचल सी मची थी, जैसे घर में रात को ही साफ़-सफाई चल रही हो, हालांकि खिड़कियाँ बंद थीं, लेकिन दरवाज़े के बीच की झिरी से, आना-जाना किसी का लगातार चल रहा था, कुछ आवाज़ें भी आती थीं, जैसे किसी बालक से कुछ सामान उठाने को कहा जा रहा हो! साथ वाले घर के छज्जे पर बंधा एक संतरी रंग का झंडा, जिस पर ॐ छपा था, कभी कभी फड़कने लगता था, हवा का संगी था, हवा चलती, तो साँसें भर लेता था!
तभी नीचे खड़-खड़ की आवाज़ हुई, मैंने नीचे देखा, एक ठेला था वो, एक व्यक्ति ठेला चला रहा था, पीछे उस ठेले में, दो बालक सोये थे, आराम से, न धचकी की चिंता न और न उस अँधेरे की, शायद आदी थे वो इसके! वो ठेले वाला, हल्के पांवों से, आगे धकेलता जाता वो ठेला! आज सूए शायद देर हो गयी थी अपने ठिकाने तक पहुंचे में, इसीलिए सवा दो बजे वो ठेला खींच रहा था!
आकाश में,
वो ब्रह्म-साक्षी, श्री चन्द्र देव, अपना सिंहासन संभाले, अपने सभासदों के संग, प्रत्येक धरा-जन्य जीव पर जैसे टकटकी लगाये हुए थे! उनके सलोने रूप को देख कर, मन में हर्ष उमड़ आया! क्या क्या देखा है श्री चन्द्र देव ने! मुक्त का इनसे बड़ा कोई नहीं! उनकी खिलती छटा, न जाने कितनी ही सहस्त्रों वनस्पतियों में जीवन का संचार किया करती हैं! कितनी ही मीन उनके इस रूप को देख, प्रणय किया करती है और और अपनी संतति को आगे बढ़ाती हैं! इस कारण से, मीन का वर्ण भी, चंदीला ही हुआ करता है! नीचे फिर से कचर-कचर की आवाज़ हुई!
झाँका नीचे मैंने तब!
एक और ठेला था वो, वो आ रहा था कहीं से, उसमे मंदिर बना था, अक्सर ऐसे बहुत देखने को मिल जाते हैं, यही रोजी-रोटी है उनकी!
"क्या बात है? नींद नहीं आ रही?" आई आवाज़, ये शर्मा जी थे,
"हाँ, नींद खुल गयी!" कहा मैंने,
"अभी तो पौने तीन बजे हैं?" बोले वो,
"हाँ, सो जाऊँगा अभी!" बोला मैं,
"ज़रा पानी पकड़ाना?" बोले वो,
बोतल मेरे पास ही थी, दे दिया पानी उन्हें,
पिया उन्होंने, और कर दी बोतल वापिस मुझे,
"कब से जागे हो?" पूछा उन्होंने,
"पौन घंटा हुआ!" कहा मैंने,
"अब सो जाओ, कल काम बहुत है!" बोले वो,
"अभी सो जाऊँगा!" कहा मैंने,
मैं वापिस मुड़ा और आ गया खिड़की के पास, देखने लगा बाहर!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मैं बैठा रहा वहीँ, शर्मा जी नींद के आगोश में चले गए थे फिर से, उनके खर्राटे गूंजने लगे थे, लेकिन मैं कहीं और ही खोया था, सोच रहा था कि, दिन, रोज हो होता है, सुबह भी, दोपहर भी और शाम भी, फिर घिर आती है रात, फिर सुबह, वही सूर्योदय और वही सूर्यास्त! ऐसा अनवरत होता चला आ रहा है, एक एक दिन, किसी न किसी को इतिहास के पृष्ठ में नत्थी करता चला जाता है, समय बीत जाता है, पृष्ठ मुड़-तुड जाते हैं, धूल खाने लगते हैं कई बार चिपक जाते हैं! तब तक नहीं खुलते जब तक, कोई आ नहीं जाता उन्हें खोलने! तो क्या? वो मैं हूँ? क्या इतिहास के उन नत्थी हुए पृष्ठों को, जो चिपक गए हैं, धूल के गुबार में बदरंग हो चले हैं, अब खोले जाएंगे? मेरे द्वारा? दिमाग होने लगा गर्म! नींद का जो आवेश थोड़ा बहुत जागा था, अब वो कोसों दूर छिटक गया था! घड़ी देखी मैंने, तीन बज कर, इकतालीस मिनट हो चले थे, सूर्यदेव के रथ के अश्वों को दाना-पानी दे दिया गया होगा, खरेड़ा भी कर ही दिया गया होगा, अब तो अपनी दुम और पाँव पटक रहे होंगे! आकाश-भ्रमण करना था उन्हें, रोज की तरह! असंख्य वर्षों से यही तो कलाप है उनका! एक ही मार्ग, एक ही कलाप! कुछ ही देर में, सूर्यदेव अपने रथ पर सिंहासनारूढ़ हो जाएंगे, अरुण उनकी लग़ाम पड़, ले चलेंगे आगे! कैसे अश्व हैं वो! कैसे सारथि हैं वो! जो सूर्य के ताप से भी, लेशमात्र विचलित नहीं हुआ करते! जानते हैं मित्रगण? कि सूर्य-सारथि और श्री शिव-वाहन, श्री महानंदी महाराज भाई भाई हैं! पढ़िए आप उनके विषय में! शायद, कम ही ज्ञात हो किसी को!
और क्या आप जानते हैं कि, एक बार भगवान सूर्यदेव से गुहार लगाई अरुण ने कि वो भी अप्सराओं का नृत्य देखना चाहते हैं, सूर्यदेव ने मना किया, तब सूर्यदेव से बार बार विनती करने के पश्चात, सूर्यदेव ने मान ली उनकी बात! परन्तु शर्त ये कि, वो एक स्त्री का रूप धर के ही नृत्य देख सकते हैं! इसीलिए अरुण ने, स्त्री का रूप धरा! नाम रखा अरुणि! अब रूप ऐसा धरा उन्होंने, कि खलबली मच गयी! इंद्रा देव तो कामाहत हो गए! संसर्ग का अनुनय किया! और संसर्ग किया अरुणि के संग! अब इस संसर्ग से, एक संतान उत्पन्न हुई, नाम था उसका बाली, वानरराज बाली! आप जानते ही होंगे उनके विषय में भी! अब जब अरुण वापिस हुए, तो वो, स्त्री-रूप में ही थे, उनके उस रूप को देखा तो सूयदेव भी काम-पीड़ित हो गए! संसर्ग का निवेदन किया! संसर्ग हुआ और इस प्रकार, एक और संतान हुई! नाम रखा गया, सुग्रीव! आप जानते ही होंगे उनके विषय में! दोनों ही संतान, विलक्षण थीं, अब लालन-पालन कौन करे उनका? तब श्री ब्रह्म-देव ने, वे दोनों संतान, ऋषि गौतम की पत्नी आहिल्या को दे दीं! जब ऋषि गौतम को भान हुआ तो उन्होंने उस संतानों को श्राप दिया कि ये संतानें, पृथ्वी पर, वानर बनेंगी! और इस प्रकार, सुग्रीव और बाली का जन्म इस धरा पर हुआ!
ऋषि गौतम ने ऐसा क्यों किया? श्राप क्यों दिया? इसका कारण है कि, उनको लगा था कि ये संतानें, आहिल्या के अनैतिक रूप से, इंद्र और सूर्य से उत्पन्न हुई हैं! ये कारण रहा! अब और पढ़िए, ऋषि गौतम को ऐसा क्यों लगा? कोई ठोस प्रमाण तो होना ही चाहिए था? प्रमाण मिला! अंजनी! अंजनी ऋषि गौतम की पुत्री थीं, आहिल्या ने ये रहस्य अंजनी को बताया, जब सुग्रीव और बाली को श्राप मिला तब, आहिल्या ने अंजनी को श्राप दिया, कि उसके जो संतान उत्पन्न होगी वो भी वानर ही होगी! तदोपरांत श्री हनुमान जी का जन्म हुआ! अंजनी, अपने कौमार्य-समय में, पवनदेव से प्रेम करती थीं, श्रापग्रस्त से विवाह वे कर नहीं सकते थे, परन्तु, वे अंजनी से संसर्ग करने के लिए राजी हो गए! अतः, श्री हनुमान जी, उसी दिन से पवनपुत्र के नाम से विख्यात हो गए! तंत्र-शालिभा, एक एक रहस्य को उजागर करती है! अधिक जानकारी के लिए, स्वयं ही उद्यम करना होता है! लौ कब तक जलानी है, अखंड कैसे रखनी है, ये आप पर ही निर्भर करता है!
चलिए अब घटना!
मैं कोई चार बजे, वापिस आ, लेट गया था, आँखें बंद कीं, लेकिन दिमाग पता नहीं कहाँ कहाँ घूमे जाए! बार बार उसका केंद्र एक ही हो! केंद्र कि वो,
बाबा हरलोमिक कहाँ थे?
और अब, अब कहाँ हैं?
उनका इस पूरी कहानी में, क्या किरदार है?
और हाँ!
सबसे अहम बात!
सबसे अहम तथ्य!
कि वे औरतें, जो मोहर सिंह और सतीश को मिली थीं,
वो किस पक्ष की थीं?
वे सात्विक तो क़तई नहीं थीं!
ऐसा तो मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ!
तो फिर? वो कौन से पक्ष की थीं?
क्या वो, तांत्रिक पक्ष की थीं?
अगर हाँ, तो बाबा हरलोमिक कहाँ हैं?
इसका कैसे पता लगाया जाए?
क्या किया जाए?
उथल-पुथल!
बदली जाए करवटें!
और उत्तर, कहीं नज़र न आये!
इसी उहापोह में, आँखें बंद हुईं, और किसी तरह से नींद आई! मैं सो गया, साढ़े चार का समय रहा होगा उस समय!
जब नींद खुली तो आठ बजे थे!
शर्मा जी, नहा-धोकर तैयार बैठे थे, अखबार पढ़ रहे थे!
"उठ गए?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कब सोये थे?" पूछा उन्होंने,
"साढ़े चार बजे!" कहा मैंने,
"डेढ़-दो घंटे जागे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, नींद नहीं आई थी!" कहा मैंने,
मैं उठा और चला निवृत होने, आधे घंटे में ही फारिग हो लिया!
"मैं चाय की कह कर आता हूँ!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
वे नीचे गए, और मैं तैयार होने लगा!
करीब दस मिनट में वे आ गए, चाय खुद ही ले आये थे!
"ये लो!" बोले वो,
मैंने ले ली चाय, बैठ गया वहीँ!
"अब सतीश के यहां चलना है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
चाय पी, खत्म की, सामान उठाया, कमरे में सांकल लगाई, नीचे आये, कुछ दान दिया, और फिर वापिस हुए वहां से, चले सीधा गाँव सतीश के!
रास्ते भर दिमाग में उत्सुकता भरी रही!
वो रास्ता आया, पार किया, वो पेड़ आया, रुके, सुस्ताए वहां, और फिर चल पड़े! गाँव जा पहुंचे! सतीश से मुलाक़ात हुई, वो सही था तब! सामान्य हो गया था! मोहर सिंह नहीं मिले, वो शहर चले गए थे, कल आने थे वापिस!
सतीश को अब सब बताया, और ये भी कि वहाँ से आने से पहले हम फ़ोन कर देंगे, चिंता की ज़रूरत नहीं है, और मोहर सिंह से बात हम कर ही लेंगे! नाश्ता और थोड़ा भोजन कर, हमने सामान ले लिया अपना, कपड़े रख लिए, बदल भी लिए, और करीब आधे घंटे बाद ही, हम उसी रास्ते पर थे, सतीश ने रास्ता बता ही दिया था, गाड़ी सरपट भागती रही!
करीब एक घंटे के बाद, मुख्य सड़क से आ लगे हम!
''अब चलो आराम से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
ग्यारह बजे थे उस समय!
आबादी आती जातीं और फिर हटती जातीं! जंगल आता कभी, और कभी वीराना! कभी कोई बरसाती नदी तो कहीं कहीं खस्ताहाल रास्ता! हम एहतियात से आगे बढ़ते रहे!
और फिर, एक जगह, एक पत्थर दिखा, इंदरगढ़ वहाँ से, नौ किलोमीटर दूर था! जान में जान आई! और हम बढ़ते चले गए उस रास्ते पर!
कुछ आबादी आती दिखाई दी!
कुछ पुराने से खंडहर भी!
इंदरगढ़ का अपना एक इतिहास रहा है!
और हम उसी इतिहास के कुछ पृष्ठ पलटने यहां तक चले आये थे! ये दतिया जिले में नगर-पंचायत है, ये पता चला हमें एक साइन-बोर्ड पढ़ कर!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

इंदरगढ़! एक खूबसूरत जगह! उसने तो देखते ही मन मोह लिया मेरा! पुराना और ऐतिहासिक स्थल! आज भी शान से खड़ा है इंदरगढ़ का शानदार किला! अपनी विरासत का बखान करता! ये किला, जाट राजाओं के आनबान और शान का प्रतीक है! बाद में, मराठाओं के शासन-काल में इसको मराठा-साम्राज्य में शामिल कर लिया गया! लेकिन इसका राज-परिवार आज भी है! भारतीय सेना में, इसी वंश के लोग काफी ऊंचे ओहदे तक पहुंचे हैं! कुछ भी कहिये! भारत के ये शहर ऐसे ही नहीं बने! इन सभी का अपना अपना इतिहास रहा है! इन्होने राज-वंश, अंग्रेजी राज और आज़ादी का संग्राम भी देखा है! किसी भी शहर का सीना चौड़ा करता है उसका अपना ही समृद्ध इतिहास! ऐसा ही है ये इंदरगढ़! पहले ये शहर, इन्दरगांव के नाम से जाना जाता था, कालांतर में ये इंदरगढ़ हो गया! आज इसका वास्तविक नाम, इंदरगढ़ ही है! हम शहर के अंदरूनी भाग में चल दिए! बाज़ार अच्छा है यहां का, आपको बुन्देल-संस्कृति की पहचान दिखाई देगी यहां! वैसी ही वस्तुएं और सामान! पुराना शहर है, इमारतें भी वैसी ही हैं, नयी बसावट तो है, लेकिन भीड़-भाड़ अभी भी पुराने शहर में ही है! बाज़ार भी पुराना है और यहां की संस्कृति भी पुरानी, बड़े बड़े पेड़, आज भी अपना इतिहास से बताते हुए दीख पड़ते हैं जगह जगह! ये दिल को बेहद सुकून देता है कि ये सब भारत में है! एक उम्र भी कम है अपने भारत देश को देखने के लिए! भीं-भिन्न संस्कृतियों को जानने के लिए! उनका भोजन, परिवेश, आचार-विचार, स्थानीय देवता और देवियाँ, उनके रीत-रिवाज सब अलग अलग हैं, लेकिन मध्य में भारत ही है! उसी के चारों और ये सभी संस्कृतियाँ घूमा करती हैं!
एक जगह, बाज़ार के बीचों बीच, हमने मोटरसाइकिल खड़ी की, वहां गर्मागर्म समोसे तले जा रहे थे, छोटे छोटे समोसे, यहां समोसे, रायते के साथ, कढ़ी के साथ खाए जाते हैं, ऐसा झांसी में भी देखा मैंने, दतिया में भी और यहां भी! हम उस दुकान में चले गए, मेज़ साफ़ की गयी, पानी रखा गया ठंडा, पानी पिया हमने एक एक गिलास, हमसे खाने के बारे में पूछा गया तो हमे दो दो समोसे मांग लिए, साथ में आलू की सब्जी और दो बढ़िया सी तेज पत्ती की चाय! दुकान का माहौल ठेठ देहाती ही था, एक काउंटर था, काउंटर के अंदर, लड्डू रखे थे, मोतीचूर के, बेसन के, कलाकंद और पेड़े थे शायद, ऊपर उसके, दही रखने वाले मिट्टी के बड़े बड़े बर्तन रखे थे, साथ में कुछ दोने और फाड़कर रखे गए कुछ अखबार! हनुमान जी की एक तस्वीर लगी थी, उसके सामने एक ज्योत भी जल रही थी, कोने में, साथ में ही, दीवार में दो मोरपंख भी चिपके थे, दो कैलेंडर थे, एक तो पिछले साल का था वो बदला नहीं गया था, उसमे कान्हा जी, मटकी में से मक्खन चुरा रहे थे, लेकिन लगता तो यही था कि जैसे अपना फोटो खिंचवा रहे हों! दूसरे कैलेंडर में, लक्ष्मी जी, सरस्वती और गणेश जी के साथ, खड़ी थीं, वे दोनों बैठे हुए थे, धन-वर्षा कर रही थीं वो! वो कैलेंडर, उसी वर्ष का था!
तभी एक लड़का आया, दो तश्तरियां लेकर, दो दो समोसे, सब्जी के साथ रख गया था, जग जो खाली हुआ था आधा पानी का, उसको पुनः, एक बड़े से बर्तन में डुबोकर, भर गया था! समोसे गरम थे, मैंने थोड़ा इंतज़ार किया ठंडा होने का!
"दही लोगे?" उसी लड़के ने पूछा,
"हाँ, दे दो!" कहा मैंने,
"दो या एक?" पूछा उसने,
"दो ले आओ!" कहा मैंने,
लड़का कटोरियाँ लेकर गया, दही के बर्तन में से, दही निकाली, भरी उनमे, और ले आया हमारे पास, रख दीं, और चला गया, अब हमने खाना शुरू किया, तभी लड़का फिर से आया और धुली हुई साबुत हरी-मिर्चें रख गया! ये अच्छा हुआ! तो हम खाने में हुए मशगूल! दही भी खा ली, समोसे भी, सब्जी बिन कहे ही और मिल गयी थी, हल्का-फुल्का अब भारी हो गया था! लेकिन बढ़िया रहा वो सब!
कुछ देर बाद, कोई दस मिनट के बाद, दो चाय आ गयीं, चाय बढ़िया बनी थी, रंग देखकर ही पता चल रहा था! आराम से चुस्कियां ले, चाय भी पी ली!
"इन्हीं से पूछ लेता हूँ!" बोले वो,
"पूछा लो!" कहा मैंने,
वो उठे, पैसे दिए, और पूछा, उस व्यक्ति ने बता दिया, आराम से समझा दिया था, ये भी कि, रास्ता अच्छा नहीं है, आराम से जाना होगा!
आये शर्मा जी मेरे पास, बैठे उधर!
"कितना बताया?" पूछा मैंने,
"करीब सत्रह किलोमीटर!" बोले वो,
"कोई दूर नहीं!" कहा मैंने,
"अब ये तो रास्ता ही बताये!" बोले वो,
"वैसे यहां से भी है एक रास्ता, लम्बा पड़ेगा कोई चार किलोमीटर, लेकिन रास्ता साफ़ है!" वही व्यक्ति बोला,
"यहां कहाँ से?'' पूछा शर्मा जी ने,
"आप जब आये होंगे, तो मुड़े होंगे?" पूछा उसने,
"हाँ?" बोले शर्मा जी,
"तो आप वापिस जाओ, मुङो नहीं, सीधा रास्ता पकड़ लो!" बोला वो,
"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ, वो रास्ता ठीक है!" बोला वो,
"ठीक है भाई!" बोले शर्मा जी,
"किसी से मिलना है?" पूछा उसने,
"हाँ, मिलना ही है!" बोले वो,
"न मिले कोई, और ज़रूरी हो, तो यहां है एक जगह, ठहर सकते हो!" बोला वो,
ये बढ़िया बताया था उसने!
अगर ज़रूरत पड़ी, तो यहीं आकर, रुक सकते थे हम!
"धन्यवाद!" बोले वो,
उसने सलाम सा बजाया! और हम आये बाहर!
"पानी ले लो?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
उसी दुकान से, पानी भी ले लिया हमने, दो लीटर!
"अब चलो जी वापिस वहीँ!" कहा मैंने,
"बस चलते हैं!" बोले वो,
गाड़ी की स्टार्ट, और मैं बैठा, उनके पीछे सीट पर,
"चलें?" बोले वो,
"हाँ चलो!" कहा मैंने,
बैग आदि सब रख ही लिया था मैंने!
"चले जी हम!" बोले वो,
और हम, उस भीड़-भाड़ से बचते हुए, आगे चलते गए!
करीब आधे घंटे में, उस मोड़ तक आ गए,
"यहां न?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहीं कहीं और पहुँच जाएँ!" बोले वो,
"यही जाएगा रास्ता!" बोला मैं,
और हम उस रास्ते पर चल पड़े!
रास्ता? धूलम-धाल!
कोई बड़ा वाहन जाता आगे, तो कुछ दिखाई ही नहीं देता सामने!
"बड़ा बुरा हाल है!" बोले वो,
"आप मुझे दो गाड़ी!" कहा मैंने,
"हाँ, चश्मा तंग कर रहा है!" बोले वो,
''आओ!" कहा मैंने,
अब मैंने संभाली बाइक, और चल पड़े,
रास्ता साफ़ हुआ कुछ, बंजर सी ज़मीन! उजाड़ हर तरफ! कहीं कहीं बस, कुछ हरियाली! कुछ पुरानी खंडहरनुमा सी टूटी-फूटी इमारतें! कभी आबाद रही होंगी, आज तो बस, एक एक सांस गिन रही हैं! कब धूलधसरित हो जाएँ पता नहीं, और कब ज़मींदोज़! ये वक़्त है! सारे निशान मिटा देता है धीरे धीरे! और एक दिन, कोई नामलेवा भी नहीं रहता! न कोई नाम, न कुछ अता-पता! ये है वक़्त की बेपनाह ताक़त का सबूत!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

ऐसी धूल उठती थी कि सामने का दृश्य ही गायब हो जाए! कभी-कभार तो रुकना भी पड़ता था! बारिश की तलबग़ार थी वो ज़मीन! प्यासी और रूखी! बारिश आये तो जाकर, शांत हो वो! साँसों में धूल घुसने लगती थी, खांसी उठने लग जाती थी, हालांकि बुक्कल मारा होता था लेकिन वो भी क्या करे! एक जगह हम रुक गए, एक बड़े से पेड़ के नीचे! सामने की तरफ, कोई रास्ता जाता था किसी गाँव की तरफ! ज़मीन ऐसे तप रही थी कि जैसे हम धधकते हुए कोयले वाली ज़मीन के ऊपर खड़े हों! हम उतरे नीचे, बोतल से पानी निकाला, पानी पिया और चेहरा धोया! तब जाकर कुछ राहत मिली!
"यहां तो दूर दूर तक कोई नहीं!" बोले वो,
"हाँ, गरमी भी तो है?" कहा मैंने,
"हाँ! जानलेवा!" वो बोले,
एक पेड़ लगा था, कंडिया का पेड़ था वो, कंडिया पर देर से पतझड़ आया करता है, इसका पत्ता गुलमोहर जैसा लेकिन काफी चौड़ा और बड़ा हुआ करता है! इसकी छाँव बेहद ठंडी होती है! अक्सर गरमियों में, सांप, नेवले आदि यहां आसपास ही रहने लगते हैं, ये कभी-कभार पानी की बौछार सी करता है! इसकी पत्तियों में से, पानी जैसे रिसता रहता है! पक्षी भी घोंसले बना लेते हैं, नेवले जहाँ हों, वहां तो पक्षियों को साँपों से पूरी सुरक्षा मिला करती है!
"कहीं ऐसा न हो कि हम आगे ही निकल जाएँ!" बोले वो,
"कोई निशानी या पत्थर तो होगा, लिखा हुआ?'' पूछा मैंने,
"अभी तक तो नज़र नहीं आया?" बोले वो,
सच में, ऐसा कोई पत्थर नज़र तो नहीं आया था हमें! अंदाज़े के साथ ही आगे बढ़ते जा रहे थे हम!
"कोई मिलेगा तो पूछ लेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले वो,
"चलें अब?" पूछा मैंने,
"हाँ!" वो बोले,
और हम, बुक्कल मार, फिर से आगे बढ़ चले!
हम करीब दस किलोमीटर चल आये थे, न कोई पत्थर ही मिला और न कोई आदमी ही, दूर दूर तक, बस बियाबान और बीहड़! रात-बेरात पता नहीं क्या होता होगा यहां, शायद दिन छिपे, कोई निकलता ही न होगा यहां! न कोई आदमी, न कोई गाँव, न कोई खोमचा और न कोई खेत! बस, लू ले थपेड़े झेलते जंगली पेड़ पौधे! और कुछ नहीं!
"कितना आ गए हम?" उन्होंने पूछा,
"अब तक बारह आ चुके हैं!" बोले वो,
"अच्छा, पांच-सात और होगा?" बोले वो,
"उम्मीद तो यही है!" कहा मैंने,
"चलते रहो बस फिर तो!" बोले वो,
"चल ही रहे हैं!" कहा मैंने,
नज़रें इधर-उधर मारे, हम आगे बढ़ते जा रहे थे, लगता था, कोई अंत ही नहीं है इस रास्ते का! अंतहीन रास्ता है! बैठे बैठे दिशा-भ्रम भी होने लगा था! हम दक्षिण-पूर्व में थे या दक्षिण में, या फिर उत्तर-पूर्व में? रात होती, तो दिशा मैं पता लगा सकता था! दिन के लिए भी है कुछ तरीके, लेकिन गरमी ऐसी थी कि जूतों के सोल तक पिघल जाएँ, सड़क का तारकोल तक पिघल गया था! हट गया था कई जगह से! बस यही सोच रहे थे कि कोई आबादी वाला क्षेत्र आये, तो पूछताछ करें!
"भाई कमाल है!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कैसे रहते होंगे यहां लोग?" बोले वो,
"आदत हो गयी है!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" कहा उन्होंने,
"जो पढ़-लिख गए, शहर चले गए, कुछ मेहनत-मजूरी करने चले गए, जो रह गए, उनको मिल ही जाता होगा कुछ न कुछ गाँव से ही, या जो शहर गए हैं, आया करते होंगे माह में एक-आद बार!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है! हम कौन सा फिरंगिस्तान में जन्मे थे?" बोले वो,
मैं हंस पड़ा उनकी बात सुनकर!
तभी जैसे क़िस्मत चमकी!
सड़क के दायें से, दो सवार आते दिखे, मोटरसाइकिल पर! हम तेज गति से पहुंचे वहां, और रुके, वे भी रुक गए, बुक्कल खोली हम सभी ने, नमस्कार की उन भले लोगों ने, हमने भी नमस्कार की!
"अरे भैय्या?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला एक,
"यार एक बात बताओ?" बोले वो,
"जी दो पूछो!" बोला वो, हँसते हुए!
"ये एक गाँव है सिलोरी, कितनी दूर पड़ेगा?" पूछा उन्होंने,
"सिलोरी जाओगे?" पूछा उसने,
"हाँ जी, जाना तो वहीँ है!" बोले शर्मा जी,
अब आपस में बातें कीं उन्होंने, एक ने हाँ कही, एक ने ना, फिर राजी हुए किसी बात पर!
"आगे तो रास्ता टूटा-फाटा है, पल का काम चल रहा है, एक काम करो, आगे कोई डेढ़ किलोमीटर के बाद, उलटे हाथ पर सड़क मुड़ेगी, रास्ता पतला है, मिट्टी वाला, लेकिन जाएगा टापाटाप!" बोला वो चालक!
"और वहां से?" पूछा उन्होंने,
"वहां से, सीधे हाथ पर मुड़ना है, एक नाका सा आएगा, उसको पार करो, बस कोई दो-तीन किलोमीटर पर ही है वो गाँव, और ना तो बूझ लेना, बता देगा कोई भी!" बोला वो,
"भाई बहुत बहुत धन्यवाद!" बोले शर्मा जी,
"अजी कोई बात ना!" बोला वो,
हाथ मिलाये हमने, और हम एक तरफ और वो, इंदरगढ़ की तरफ!
"अरे भैय्या ये तो एक्सपीडिशन हो गयी!" बोले वो,
"अब क्या करें!" कहा मैंने,
"उस रास्ते का ध्यान रखना!" बोले वो,
"हाँ, देख रहा हूँ!" बोला मैं,
"कहीं किसी पेड़-पाड़ के नीचे ही बिछानी पड़े चादर!" बोले वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
उन्होंने पानी पिया, और बोतल बढ़ाई मेरी तरफ,
"पानी पीना है?" पूछा उन्होंने,
रोक ली बाइक मैंने एक तरफ करके,
"पिला दो साहब!" कहा मैंने,
"कहाँ के साहब! साहब की मोम हुई पड़ी है!" बोले वो,
और मुझे पानी पीते पीते फन्दा सा लगा!
"मोम?" पूछा मैंने, हँसते हुए!
"हाँ, सुबह से चलते चलते मोम हो गयी है!" बोले वो,
"ये तो सही कहा आपने!" बोला मैं,
"बहन**, यहां कहीं घास भी तो नहीं है?" बोले वो,
"क्या करना था?" पूछा मैंने,
"गद्दे का सा मजा ही मिल जाता!" बोले वो,
मैंने पानी पी लिया था, ढक्कन बंद किया और दे दी बोतल उन्हें वापिस,
"यहां कहाँ गद्दा!" कहा मैंने,
"हाँ! कहीं बैठ जाओ तो, कि भी कीड़ा-मकौड़ा आ धमकेगा, कि कैसे हुई हिम्मत तेरी यहां बैठने की? यही जगह मिली तुझे कोसों दूर में? बेकार में फौजदारी का मुक़द्दमा और दायर कर देगा!" कहा मैंने,
मैं हंस पड़ा!
''आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"अरे राम मेरे!" वो उचक कर बैठते हुए बोले!
"चलें?" पूछा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और मैंने, फिर से भगा दी मोटरसाइकिल आगे!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

तो गाड़ी हमारी भागम-भाग भागे जा रही थी! कोई ढाई किलोमीटर चलने पर, एक रास्ता दिखाई दिया, ये एक नहर सी थी, अब पानी नहीं था उसमे, नहर थी या कोई बरसाती नाला, पता नहीं, लेकिन पुल बना था उस पर, कोने में एक झुरमुटा सा था, ढाक के पेड़ों का, हरियाली थी वहां, कुछ राहत हुई, बीहड़ देखे देखे अब इस तरह पेड़ दीखे तो अच्छा तो लगता ही!
"यही से काटो!" बोले वो,
"हाँ, चल रहा हूँ!" कहा मैंने,
और मैंने गड़ी वहीँ के लिए काट दी, रास्ता था तो मिट्टी वाला ही, लेकिन था ठीक, धचकियां तो थीं लेकिन गड्ढे नहीं थे! नहीं तो गाड़ी के शॉकर्स भी कट-कट बोलने लगते थे!
हम उसी रास्ते पर चले करीब चार किलोमीटर, और आया एक बड़ा सा रास्ता, ये मुख्य-मार्ग था शायद! यहां वाहनों की आवाजाही अच्छी थी, चलो, एकांकीपन से तो बाहर आये! थोड़ा आगे चले, तो अब इंसानी आबादी से सरोकार हुआ! कुछ खोमचे आदि दिखाई पड़ने लगे! एक आद ढाबा भी दीखने लगा! हमने अब बढ़ा दी गाड़ी आगे, गाड़ी सरपट दौड़ने लगी!
आगे जाकर, एक नाका सा पड़ा, नाका क्या था, बस रात में गाड़ी आदि की जांच हुआ करती होगी, एक टीन से बना खोमचा सा ही पड़ा था, खाली था अब, एक नीले रंग का झंडा सा लहरा रहा था उस पर!
आगे बढ़े हम, आगे गए, तो एक पुराना सा पत्थर पड़ा, मील का पत्थर, लेकिन लिखा क्या था, ये न बांचा गया! मिट्टी जम गयी थी उस पर!
"ये भी साथ छोड़ गया!" बोले वो,
"कोई बात नहीं, अब शायद आगे ही हो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम दौड़ पड़े! लू तो भागे हमारे साथ साथ!
लू कहे कि मैं तुझे गिराऊँ और मैं कहूँ कि तेरे हाथ न आऊँ!
दोनों में ठनी थे बहस!
लेकिन, बचना मुझे ही था, उसका कुछ बिगड़ता नहीं, और मेरा कुछ बचता नहीं!
"आराम से ही चला लो!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"एक तो तारकोल है नहीं सड़क पर, जहाँ है, वो वैसे पिघल रहा है, कहीं पिघलने के चक्कर में, बचा-खुचा मोम भी न पिघल जाए!" बोले वो,
मैं गाड़ी चलाते हुए हंस पड़ा! वो भी हंस पड़े!
और तभी सामने एक जगह लिखा दिखा, सिलोरी!
ओहो! बांछें खिल गयीं!
मोम-शोम सब भूल गए!
"आ गए शायद!" कहा मैंने,
"लग तो रहा है!" बोले वो,
अब आबादी का क्षेत्र आ गया था! ट्रक खड़े थे वहां!
"चलो, ढाबे पर रोको किसी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैं चलता रहा और बाएं एक ढाबे पर, रोक दी गाड़ी!
उतरे, और पानी की हौद तक पहुंचे, हाथ-मुंह धोये! सर भिगोया! ऐसा चैन कि जैसे चौमासे की बारिश पड़ गयी हो!
"जी तो कर रहा है, कूद जाऊं इसमें!" बोले वो,
"नहाना है?" पूछा मैंने,
"मन तो है!" बोले वो,
"तो बाल्टी मिल जायेगी, हो जाएंगे तरोताज़ा!" कहा मैंने,
"यही करो फिर!" बोले वो,
और हमने किया इंतज़ाम नहाने का, लपेटा गमछा, और बम बम भोले! छक के नहाये हम! ऐसे भी कई बार नहाये हैं हम! भरी गर्मी में अगर नहान एको मिल जाए तो इस से बढ़िया और क्या!
हो गए तरोताज़ा!
अब लगी भूख!
खाना खाना था अब तो!
तो गए अंदर, दाल पूछी, एक सब्जी और दही, और जा बैठे!
लग गया कहना, और हमने खाना शुरू किया! खाना बड़ा ही अच्छा लगा! अब है क्या कि, भूख में किवाड़ पापड़! वही बात थी!
खाना खा लिया, चाय भी पी ली,
और मालूमात भी कर ली,
सिलोरी, कोई एक किलोमीटर अंदर था, एक रास्ता जाता था यहां के लिए, करीब एक घंटे के बाद, कोई तीन बजे, हम चल पड़े उस रास्ते पर!
रास्ता था या जानलेवा परीक्षण?
पूरा बदन हिल गया! डर ये कि अगर हो गया पंक्चर तो हुए खानाबदोश! आसपास था ही नहीं कोई! कहाँ जाते और किस से बताते!
"यार?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये एक किलोमीटर कैसे कटेगा?" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"बहन**! रीढ़ की हड्डी भी झनझना गयी मेरी तो!" बोले वो,
"बस थोड़ी देर और!" कहा मैंने,
"ये थोड़ी देरी ही मार लेगी!" कहा उन्होंने,
"बैठे रहो?" कहा मैंने,
"इस से पैदल ही भला!" बोले वो,
मैं रुक गया!
गाड़ी का इंजन, भर्र-भर्र करे! पटाखे छोड़े!
"इसका भी मोम पिघलने वाला है शायद!" बोले वो,
"अब कोई जगह भी तो नहीं है?" कहा मैंने,
"आज ये हाल है, पहले क्या होता होगा?" बोले वो,
"वे जीवट वाले थे!" कहा मैंने,
"हाँ, हम तो माने हार!" बोले वो,
"बैठो अब!" कहा मैंने, वो उतर गए थे नीचे!
"रुक जाओ अभी!" बोले वो,
"अब क्या?" पूछा मैंने,
"ज़रा सिंचाई कर दूँ!" बोले वो,
"करो! जल्दी आओ!" बोला मैं,
आये वापिस, हाथ धोये, पोंछे और बैठ गए!
"चलो जी अब!" बोले वो,
और हम चल पड़े!
जो खाया था, सिलोरी पहुँचते पहुँचते, पच ही जाना था!
तो मित्रगण!
कोई आधे घंटे के बाद, सामने, एक मंदिर दिखा! छोटा सा, लेकिन ऊँचा! पुराना सा लेकिन अभी तक ज़िंदा!
"आ गए शायद!" बोले वो,
"लगता तो है!" बोला मैं,
"चलो फिर!" बोले वो,
हमने बढ़ाई बाइक आगे! धीरे धीरे! और मिली एक बैलगाड़ी! उसमे दो लोग बैठे थे, कुछ लोहे का सा सामान भर रखा था उन्होंने! हमने वहीँ, उनके पास ही गाड़ी रोक दी अपनी!
राधे राधे हुई हमारी!
"अरे भैय्या?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला एक, अधेड़ सा व्यक्ति था वो!
"भैय्या? सिलोरी ये ही है?" पूछा उन्होंने,
"कहाँ जाओगे?" पूछा उसने,
"सिलोरी!" बोले शर्मा जी,
"किस से मिलना है?" पूछा उसने,
"गाँव जाना है!" बोले वो,
"ये ही है, आगे पड़ेगा थोड़ा!" बोला वो,
"कितना आगे?" पूछा उन्होंने,
"पास ही है!" बोला वो,
"अच्छा जी!" बोले वो,
रखे पाँव ऊपर,
"चलो जी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम बढ़ चले आगे!
दूर गाँव दीख रहा था, छोटा सा गाँव! मकान दीख रहे थे! पेड़ लगे थे, खेत-खलिहान भी दीख रहे थे आसपास ही!
''आ ही गए!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो, देखते हैं कहाँ चलें!" बोले वो,
"हाँ, रुकते हैं कहीं!" कहा मैंने,
तभी गीत-गाने की सी आवाज़ आई सामने से, हम चल ही रहे थे, और धीरे हो गए! आराम आराम से आगे बढ़ते रहे!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

हम आगे चले, एक बड़ा सा कट्ठे का पेड़ लगा था वहां! उस पर, हल्के पीले से छोटे जंगली शहतूत लगे थे, कुछ बालक, उच्च-उचक कर तोड़ रहे थे उन्हें, कुछ उसकी डालियाँ पकड़, चुन रहे थे शहतूत, और थे सामने, कुछ महिलायें थीं, मध्य में उनके, एक स्त्री, जो कि साज-श्रृंगार युक्त थी, सर पर एक मटकी रखे बढ़े चली आ रही थी, मटकी को सजाया गया था, ये कुआं-पूजन की विधि थी, हम रुक गए, महिलायें कम से कम तीस रही होंगी, कुछ पुरुष भी थे, महिलायें, बालक और कुछ पुरुष हमें ही देख रहे थे, ये ठेठ देहाती माहौल था और हम, परदेसी अपनी वेशभूषा से, उस दृश्य थे मेल नहीं खा रहे थे, इसी कारण से कौतुहल का प्रमुख विषय बन गए थे!
"पानी लोगे?'' बोले शर्मा जी,
"हाँ, पिला दो!" कहा मैंने,
उन्होंने पानी पी लिया था, और फिर बोतल मुझे दे दी थी, मैंने पानी पिया और बोतल वापिस कर दी उन्हें!
एक पुरुष आया हमारे पास, थोड़ा संकुचाया, पर आया वो,
"कहाँ जाएंगे?" पूछा उसने,
"अभी तो हम गाँव ही देखने आये हैं!" बोले शर्मा जी,
"किसी से मिलना नहीं है?" पूछा उसने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"कोई जानकार नहीं है?" पूछा उसने,
"नहीं साहब!" बोले वो,
''अच्छा, आप उस मंदिर तक चलिए, आराम कीजिये, मैं आता हूँ वहां अभी!" बोला वो,
भला आदमी था वो, नहीं तो आज किसको फुर्सत है! बहुत अच्छा लगा उसका ये सेवा-भाव देख कर!
हम उस मंदिर की तरफ चल पड़े, वहाँ पहुंचे, ज़्यादा दूर नहीं था, छाँव बहुत बढ़िया थी वहां, पीपल के वृक्ष लगे थे बड़े बड़े, कुछ अनार के और कुछ आंवले के!
"यहां ठीक है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
उन्होंने बैग से निकाल कर, चादर बिछा ली, मैंने जूते खोले, और बैठ गया, हवा बहुत अच्छी चल रही थी, धूप कहीं कहीं बस, अठखेलियां कर रही थी!
मैं लेट गया, लेटा तो बड़ा सुकून मिला! शर्मा जी भी लेट गए, पानी पिया मैंने तब, पानी खतम हो गया था, लेकिन वहां पानी का इंतज़ाम था, घड़े रखे थे उधर, कुछ दूर ही!
"मैं पानी लाया!" बोले वो,
दो-चार घड़े उलटे-पलटे, और बोतल भर ली,
आ गए मेरे पास,
"लो, मुंह धो लो!" बोले वो,
मैंने मुंह धोया, ताज़गी मिली! बहुत अच्छा लगा!
उन्होंने भी मुंह धोया और रुमाल से पोंछ लिया!
अब आँखें बंद कर लीं हमने, अलसायापन छाने लगा बदन पर, भारी होने लगा! मेरी तो आँख लग गयी थी, सुबह से भागम-भाग हो रही थी, अब बदन को आराम मिला तो उसने अब ऊर्जा-उपार्जन हेतु बदन में शिथिलता लानी शुरू कर दी थी, इसी कारण से ये शिथिलता आई थी!
और इस तरह, आँख लग गयी हमारी, मैं तो सो ही गया! करीब पौने या एक घंटे के बाद, दो लोगों की आवाज़ें सुनकर, मेरी नींद खुली, एक तो वही था, जो हमें मिला था उस जगह, एक और उसके साथ था, नमस्कार हुई हमारी, शर्मा जी भी उठ गए!
अब बातें हुईं हमारी, तो उस व्यक्ति के बारे में जानकारी पता चली, वो शहर में, डाक-विभाग में कर्मचारी था, दूसरा व्यक्ति, उसके रिश्ते का भाई था, दोनों ही सिलोरी के ही रहने वाले थे, सीधे-सादे और संतुलित लोग थे! कोई बनावट नहीं, वही सादगी भरा जीवन! हमने उन्हें अपने आने का प्रयोजन बता दिया! वे चौंके तो ज़रूर, लेकिन चूंकि बात धर्म से जुडी थी उनके लिए, अतः वे पूरी तरह से मदद करने के लिए तैयार हो गए! ये हमारे लिए किसी वरदान से कम नहीं था, या यूँ कहिये कि स्वयं बाबा हरलोमिक ने हम पर दया दिखाई थी, यहां पहुँच कर, राह ऐसी सरल हो जायेगी ये तो मैं सोच भी नहीं सकता था!
"क्या कभी किसी ने बाबा हरलोमिक के बारे में सुना है?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं जी!" बोला वो डाक-विभाग वाला व्यक्ति, नाम राम खिलावन था उसका,
"शुरू से गाँव में रहे होंगे आप?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं जी, पिता जी रहे थे, बाद में शहर चले आये थे सब" बोला वो,
"तब नहीं सुना होगा!" बोले शर्मा जी,
"गाँव के पंडित हैं, वो जानते हों शायद?" बोला वो,
"हाँ सही रहेगा!" कहा मैंने,
उस दूसरे व्यक्ति ने, अब घर चलने की कही, हम जाना तो चाहते नहीं थे लेकिन ज़िद पकड़ ली उसने! आखिर मानना ही पड़ा हमें! ये भी अच्छा ही हुआ था, कहीं एकांत में ही दो चारपाइयां मिल जातीं तो बढ़िया होता! वापिस में, बालकों को कुछ धन दे देते, वे तो लेते नहीं, ये तो पक्का था!
और इस तरह, हम घर जा पहुंचे उस व्यक्ति के, नाम था उसका यादराम, गाँव में ही रहा करता था, एक बड़े भाई थे, खेती थी थोड़ी-बहुत उसी में गुजारा चला जाया करता था, जब खेती निबट जाया करती, तो शहर चला जाया करता, कुछ पैसे भी बन जाया करते! मेहनतक़श इंसान है यादराम!
घर पहुंचे, तो शबे पहले चाय की पूछी, चाय से बढ़िया और क्या होता! चाय बन कर आई, हमने चाय पी, और फिर खाने की पूछी, खाना तो खाकर ही आये थे, तो मना कर दी, दो चार और लोग भी आये कुनबे वाले, उनसे भी मुलाक़ात की हमने! और फिर आराम किया!
शाम को, करीब सात बजे, नींद खुली, बाहर देखा, तो मौसम बड़ा ही अच्छा था, आकाश में बदलाव आ गया था, अब ठंडक सी थी, शायद, बारिश हो, ऐसे आसार बन रहे थे, देखा जाए, तो सबकुछ ठीक वैसा ही हो रहा था, जैसा मैंने उम्मीद की थी!
करीब आठ बजे हमने भोजन किया, भोजन ऐसा बढ़िया कि पूछिए मत! गाजर और पत्ता-गोभी की सब्जी थी, गाढ़ा-गाढ़ा रायता, मिर्चों का अचार, कच्चा-प्याज, आम का अचार, उड़द की दाल! लहसुन के छौंक वाली! देसी घी से चिपुड़ी हुई चूल्हे की रोटियां! अब इस स्वाद का कोई सानी नहीं! यूँ कहो, कि इस खाने का कोई मुक़ाबला ही नहीं! पेट भर के, जी भर के खाया हमने! फिर चले ज़रा बाहर घूमने, गाँव अधिक बड़ा नहीं, लेकिन जहाँ तक मैंने गौर किया, गाँव बेहद पुराना और महत्त्व वाला था! महत्व का अर्थ यहां हुआ कि कुछ कहानी अपने गर्भ में संजोये हुए था! अभी भी वहां पुराने पेड़ हैं, मैंने कुछ पुरानी पिंडियां भी देखी थीं वहाँ, कुछ जर्जर से चबूतरे और कुछ ऐसी जगह भी, जहां से, उन दोनों के हिसाब से, बंजारों ने मनों सोना, जेवर निकाल लिया था, सुबह गाँव की कुछ स्त्रियों को, कुछ जेवर भी प्राप्त हुए थे सोने के! कुछ सिक्के, गिन्नियां और चांदी के कुछ जेवर! जहां मैंने गौर किया था, वहां अभी भी ऐसा सामान दफन है, देख-मंत्र से साफ़ पड़ा दिखाई दे जाता है! मैं शर्मा जी को सब बताये जा रहा था!
एक जगह हम बैठ गए थे, वे दोनों अपने कुछ जानकारों के साथ, दूसरी तरफ, बातें करने लगे थे, बता रहे थे हमारे बारे में शायद!
"कुछ हो, तो इनका भी भला कर जाना!" बोले वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"कुछ मिल जाए इन्हें भी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"भले हैं बेचारे!" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"नहीं तो कौन पहचानता है आज किसी को?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी वे दोनों किसी अधेड़ से व्यक्ति को लेकर आये हमारे पास,
उसने आते ही नमस्कार की,
"वो आप क्या कह रहे थे बाबा हरलोमी?" बोला यादराम,
"बाबा हरलोमिक" बोले शर्मा जी,
"इन्होने सुना है वो नाम!" बोला यादराम!
ये सुनते ही!
ये सुनते ही मुझे लगा एक ज़ोर का झटका!
शर्मा जी तो उठ ही गए! मैं भी खड़ा हुआ!
"कहाँ सुना है?" पूछा शर्मा जी ने,
"जंगल के अंदर एक मंदिर है, टूटा-फूटा, बताते हैं वो जगह थी उनकी!" बोला वो आदमी,
"कहाँ है वो मंदिर?" पूछा मैंने,
"वहाँ, वहाँ के जंगलों में!" बोला वो इशारा करके,
"और आपको कैसे पता?'' पूछा मैंने,
"हमारे दादा और पिता जी लिया करते थे ये नाम!" बोला वो,
"पिता जी हैं अभी?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"क्या मंदिर का रास्ता बता दोगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, चल पड़ेंगे!" बोला वो,
अब अँधा कहा चाहै, दो आँख!
मन की मुराद पूरी होने को हो अब तो!
दिल में, फुलझड़ियाँ सी छूटें!
कहाँ से चले,
कहाँ रुके,
कहाँ अटके,
कहाँ गए,
और कहाँ पहुंचे!
मेहनत सफल सी लगे!
"कल चलें यादराम?" पूछा मैंने,
यादराम ने उस व्यक्ति से पूछी, हुई हाँ!
और अब, सीना फूला! जोश भरा! जैसे, कोई बरसों से खोयी हुई वस्तु मिली!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

रात भर नींद नहीं आई चैन से! कभी इस करवट, कभी उस करवट! कभी आँखें खुल जाएँ, कभी खोलनी पड़ें! कम से कम पांच बार तो पानी पी लिया! हालांकि मौसम बढ़िया हो गया था, सुबह के वक़्त, कुछ बूँदें भी पड़ गई थीं! लेकिन दिल में चैन कहाँ, वही तूफान और वही सैलाब! जमकर उठें दोनों! हद तोड़ने को हों!
सुबह उठे, जल्दी ही फारिग हो लिए थे, आठ बजे का समय रखा था हमने निकलने का, स्नान कर लिया, निवृत हो गए, चाय भी पी ली, परांठे भी खा लिए, दोपहर के लिए खाना बंधवा भी लिया! पानी भी भर लिया था, अब इंतज़ार था तो उस व्यक्ति का, नाम उसका काशीराम था! समय ही न कटे! लगे कि, पंख लग जाएँ और उड़ कर, फ़ौरन ही चला जाए उधर! वैसे रास्ता इतना सरल नहीं था, अब चलते तो जंगल में, करीब दोपहर तलक ही पहुँचते, सामान सारा बाँध लिया था हमने, चादर आदि सब! कुछ दूसरी ज़रूरत की सभी चीज़ें भी! जो उस स्थान पर काम आने वाली थीं!
ठीक आठ बजे, काशीराम भी आ गया, पानी पिया उसने, नमस्कार हुई, सफेद रंग के कुर्ते पाजामे में, अलग ही दीख रहा था! आदमी जीवट वाला था वो, एक बार भी न हिचका था वो!
और इस तरह, हम निकल पड़े, अब हमारा गंतव्य था, बाबा हरलोमिक का स्थान! एक भूला-बिसरा स्थान! जो अब, जंगलों के बीच अकेला पड़ा था! कभी आमद-जामद लगी रहती होगी वहां लोगों की, आज नितांत अकेला! समय की धूल चाटता! न जाने कब, कब वो ज़मींदोज़ हो जाए!
हमने करीब दो किलोमीटर रास्ता पार किया, फिर रुक गए, जंगल घना नहीं था, छितरा हुआ था, कहीं तो हरियाली थी और कहीं बीहड़! कहीं बड़े बड़े पत्थर और कहीं समतल ज़मीन! पानी का तो नामोनिशान तक नहीं था, परिंदे नहीं थे, कोई जानवर भी नज़र नहीं आया था, नहीं तो नेवला, गोह आदि तो बहुत हैं उधर! शायद गरमी की मार का असर था, सभी अपनी खोह में छिपे-दुबके बैठे होंगे! संध्या समय शीतल हो जाने पर ही बाहर निकला करते हैं वो सब! वैसे मौसम ठीक था, धूप तो नहीं थी, धूप आती भी थी तो बदरी में छिप जाते थे सूर्यदेव! राहत मिला करती थी तब! हम एक साफ़ जगह रुक गए थे!
"काशीराम?" बोला मैं,
"हाँ जी?" वो बोला,
"कभी पहले गए हो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"कब?" कहा मैंने,
"जाता रहता हूँ जी!" बोला वो,
"किस काम से?" पूछा शर्मा जी ने,
"वहाँ शान्ति है जी!" बोला वो,
शान्ति! ये तो सत्य ही था, ऐसे ही स्थान पर शान्ति की प्राप्ति हुआ करती है!
"काशीराम?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोला वो,
"पहले क्या करते थे तुम?" पूछा उन्होंने,
"फ़ौज में था जी!" बोले वो,
"अच्छा? क्या?" पूछा शर्मा जी ने,
फौजी से फौजी मिला!
"लांसनायक!" बोला वो,
"अरे वाह!" बोले वो,
और इस तरह जिला, गाँव, फ़ौज, डिवीज़न, रेजिमेंट, पोस्टिंग्स आदि आदि की बात चल पड़ी! काशीराम भी ये जानकर खुश! दोनों ही फौजी! इसीलिए जीवट वाले हैं दोनों ही!
"मेरे ताऊ के लड़के हैं जी अब श्रीनगर में!" बोला वो,
''अच्छा! बढ़िया!" बोले वो,
"और तुम्हारे लड़के?'' पूछा उन्होंने,
"कुछ न करें जी!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा शर्मा जी ने,
"एक तो नशेड़ी है जी, दूसरा शहर में है, मोबाइल का काम सीख रहा है!" बोला वो,
"बाप का नाम खराब कर दिया यार!" बोले वो,
"क्या करें!" बोला वो,
"बेटी है कोई?" बोले वो,
"एक ब्याह दी, एक पढ़ रही है!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया! आजकल बेटियां ही काम आती है काशीराम! अब बेटे बस नाम के ही हैं, चाहिए पूरा हक़, लेकिन माँ-बाप की सेवा नहीं!" बोले वो,
"जी! लड़ते और हैं साहब!" बोला वो,
"हाँ, सच कह रहे हो!" बोले शर्मा जी,
"ऐसा ही है जी!" बोला वो,
"चलो कोई बात नहीं, बेटियां किसी की कुँवारी नहीं रहतीं!" बोले वो,
"हाँ जी, भगवान पर भरोसा है!" बोला वो,
"भगवान सब ठीक करेगा!" बोले शर्मा जी,
उसके बाद, हम फिर से आगे बढ़े, धीरे धीरे, बातें करते हुए, पत्थरों से बचते हुए! कहीं पाँव ही न फिसल जाए और मोच ही न आ जाए!
अब की बार, हम चले थे करीब चार किलोमीटर और! अबकी तो टांगें ही काँप गयीं थी हमारी! सांस फूलने लगी थी! दरअसल चढ़ाई शुरू हो गयी थी! एक जगह, हम रुक गए! ये अच्छी जगह थी, बिछा ली चादर हमने, और बैठ गए, उन्हें भी चादर दे दी थी, उन्होंने भी बिछा ली थी चादर! पानी पिया हमने, तरोताज़ा हुए, जो खाना साथ लाये थे, अब वो खाया, परांठे और अचार था, वही सब खाया, पेट भरा हमारा और कुछ चुस्ती सी आई! करीब आधे घंटे आराम किया! और फिर से आगे बढ़े!
और तभी बारिश का हुआ मौसम! पड़ने लगी रिमझिम बरसात! हल्की हल्की! मौसम हुआ सुहावना! हम बढ़ते चले गए! हवा चले ज़ोर ज़ोर से! ठंडी हवा! शायद कहीं पीछे बारिश हो रही थी!
"अब और कितना है?" पूछा मैंने,
"बस कोई दो किलोमीटर?" बोला वो,
"फिर तो आ ही गए?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
बारिश थोड़ा तेज होती, फिर धीरे!
लेकिन अच्छा हो गया था मौसम!
और तब, जंगले छंटे लगा था!
पेड़ छोटे हो चले थे या वहां थे ही नहीं!
हम चलते रहे आगे! और आगे, बची-खुची ताक़त समेटी और बढ़ते चले!
काशीराम, रुका एक जगह!
"वो देखो!" बोला वो,
मैंने गौर से देखा वहां!
वो सच में ही एक मंदिर था, पुराना, अब बदरंग हो गया था!
"यही है!" बोला वो,
मेरे सामने, बाबा हरलोमिक का स्थान था! बाबा हरलोमिक! अब जानने का मौक़ा आया था उनके बारे में, जी-जान से जुट जाना था उनके विषय में जानने को!
"यहां से आओ!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"ये पीछे का भाग है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"रास्ता सामने से है!" बोला वो,
"कितना दूर?' पूछा मैंने,
"पास में ही है!" बोला वो,
और चढ़ा वो ऊपर, एक झाड़ी पकड़ते हुए!
हम भी चढ़ने लगे उसके साथ साथ!
और जैसे ही ऊपर आये!
मैं सन्न!
ऐसा उन्नत मंदिर?
ऐसा शानदार?
जंगल की खाक छानता हुआ?
नितांत अकेला?
वहां के विशाल भग्नावशेष!
जैसे एक एक सब, आगे बढ़ बढ़, अपनी कहानी सुनाने को आतुर हों!
जैसे उनमे होड़ लगी हो!
जैसे सब, आगे आने को, धक्का-मुक्की कर रहे हों!
क्या छोटे और क्या बड़े!
"ये है जी वो स्थान!" बोला काशीराम!
हम बैठ गए एक जगह!
आसपास देखा, दूर दूर तक खंडहर ही खंडहर!
टूटे हुए पत्थर, उखड़े हुए पत्थर!
सभी मूक!
चुपचाप देखें उन्हें!
"कमाल है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, वाक़ई कमाल!" कहा मैंने,
"कभी जागता होगा ये!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लोग आते जाते होंगे!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
बारिश पड़ने से, उसका रंग, हरा सा हो चला था, शायद वनस्पतियों के कारण!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

बारिश ने सांस ली! और रुकी थोड़ी देर के लिए! मौसम सुहावना हो गया था फिलहाल में तो! ज़मीन इतनी भी गीली नहीं हुई थी कि कीचड़-काचड़ हो, जो पानी पड़ा था, वो ज़मीन ने, प्यासी ज़मीन ने, सोख लिया था! हाँ, हवा अभी भी ज़ोर ज़ोर से चल रही थी! हवा की सांय सांय आवाज़ हो रही थी, पेड़ , जो वहां लगे थे, झूम झूम कर उस हवा में जैसे कलाबाजियां खा रहे थे! हम ऐसे ही एक पेड़ के नीचे थे, यहां बारिश की पहुँच नहीं थी, नीचे पत्थरों की पटिया लगी थीं, जैसे कभी कोई चबूतरा रहा हो वहां, आराम से, चार-पांच आदमी, अपने पाँव पसार सकते थे! यादराम, रामखिलावन और काशीराम आराम से बैठे हुए, बीड़ियाँ खींच रहे थे, शर्मा जी भी बीड़ी सुलगा रहे थे, हवा तेज थी, तो बीड़ी को सहारा दिया जा रहा था! हम टोर्च नहीं लाये थे, बस यही याद नहीं रहा था, ले आते तो जाँच बढ़िया हो जाती, एक लाइटर था और मोबाइल-फ़ोन की टोर्च, उसी में काम चलाना था हमें!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"अरे राम रे!" वे ये बोलते हुए उठे!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"चलते चलते घुटने अकड़ गए हैं!" बोले वो,
"बस अब पहुंच तो गए ही हैं!" कहा मैंने,
"तभी तो हिम्मत बंधी है!" बोले वो, कपड़े झाड़ते हुए,
"काशीराम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"आते हैं अभी!" बोले वो,
"मैं आऊँ?" बोला वो,
"ना, आराम करो, हम आते हैं!" बोले वो,
और चले आये मेरे पास, हम चल पड़े उस मंदिर का मुआयना करने!
इसकी स्थापत्य-कला कब की होगी?" पूछा उन्होंने,
"देख कर तो मथुरा-शैली लगती है!" कहा मैंने,
''वो कैसे?" पूछा उन्होंने,
"मंदिर के चार खंड हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो, देखते हुए,
"ऐसा मथुरा-शैली में होता है!" कहा मैंने,
"हाँ, चौ-खण्डी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और दक्षिण-भारत में?" पूछा उन्होंने,
"वो प्राचौर्य अथवा नव-खंड हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"उसमे, एक मुख्य-गर्भगृह होता है, शेष, प्राचीर कह सकते हैं!" कहा मैंने,
"द्वार!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ऎसे बहुत से मंदिर हैं!" बोले वो,
"हाँ, एक बात और बताऊँ?" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोले वो,
"मध्य-एशिया में ऐसे ही, चौ-खण्डी भग्नावशेष हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"स्पष्ट है, ये सम्भवतः वहीँ की देन हो?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और विशुद्ध भारतीय क्या है?" पूछा उन्होंने,
"बौद्ध-स्तूप एवं मंदिर!" कहा मैंने,
"अच्छा! जैसे श्री महाबोधि-मंदिर?" बोले वो,
"हाँ, वो पाल-वंश का बना हुआ है, विशुद्ध भारतीय-कला है उसमे!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
बातें करते करते हम आगे तक आ गए थे, ये प्रांगण था उस मंदिर का, अभी भी वहां, जंगली फूल लगे थे, शायद वंश-बेल हों अपने पूर्वजों की! इनमे, पत्की, कुरुषा, अज्ज्वाला आदि के फूल थे, इन सभी का महत्व है, परन्तु आज मात्र गिने-चुने फूलों को ही चुना जाता है! पत्की के पुष्प, श्री माँ गौरा को सर्वप्रिय हैं, कुरुषा श्री गणेश जी को और अज्ज्वाला श्री महाकाली को! एक तथ्य और बताता हूँ, रुद्राक्ष को श्री महाऔघड़ से जोड़ दिया गया है! ये नेपाल की शैव-शाखा का कमाल है! आज नेपाल में रुद्राक्ष का व्यवसाय काफी धनोपार्जन वाला है! अब तो प्रत्येक देवी-देवता के सांकेतिक रुद्राक्ष उपलब्ध हैं! एकमुखी, द्विमुखी, पंचमुखी आदि आदि! सत्य रूप में, रुद्राक्ष का श्री महाऔघड़ से कोई लेना देना है ही नहीं! उन्हें मात्र बिल्व-पत्र और पारिजात के पुष्प ही प्रिय हैं! भांग-धतूरा आदि औघड़ पंथ द्वारा जोड़ दिए गए हैं! और वैसे भी मित्रगण, शिव जितने सरल प्रतीत होते हैं, उनको समझना उतना ही दुष्कर है! इसीलिए विदित है सत्यम शिवम् सुन्दरम्! मूलरूप से शिव अघोरी है, अघोर उनका तत्व है, सरलता उनका आभूषण है और श्मशान में वे वास करते हैं! उत्तर भारत के शिव और दक्षिण भारता के शिव, पूर्वोत्तर भारत के शिव(ओडिशा) आदि में आपको कई अंतर मिल जाएंगे! कहीं कहीं आपको शिव बाएं हाथ में त्रिशूल लिए दिखेंगे और कहीं कहीं दायें हाथ में, कहीं चन्द्र बायीं दिशा में होंगे और कहीं चन्द्र दायीं दिशा में! शिव का त्रिशूल त्रि-फलक है, ये तीनों लोकों का सांकेतिक चिन्ह है! शिव-त्रिशूल में चौरासी, वेग-वाहिनियों का वास है, इनमे मुख्य, संहारक-वाहिनि श्री महाकाली हैं! पुरुष-संहारक वेग-वाहक श्री वीरभद्र जी हैं! ये पुरुष वेग-वाहक कुल चौंसठ हैं, इनके मुख्य अधिपति श्री भैरव नाथ जी हैं! शेष तिरेसठ, द्वारपाल हैं, महावीर हैं श्री भैरव नाथ जी के! श्री शिव, महातामसिक हैं, श्री औघड़ाधिपति हैं! शिव नग्न रूप में विचरण करते हैं, व्याघ्र-चरम का चलन बाद में हुआ है, दक्षिण के शिव, नग्न-रुपी हैं! उनके सर पर, जूड़ा नहीं होता, केश रुक्ष होते हैं, उनके मात्र कंठ में ही सर्प नहीं लिपटा होता, वरन, देह के प्रत्येक जोड़ पर, सर्प लिपटे हुए होते हैं, इनकी संख्या एक सौ ग्यारह है, इनमे, श्री वासुकि, तक्षक, तक्ष, रिशुक्ष, उद्यमादन, पम्पोरिक, एवतीक्षक, निरुषा, सर्पासुर, बंध्यालोचन, पलियुतिका और उष्मांका प्रमुख हैं!
एक तथ्य और!
तथ्य परन्तु सत्य!
मेरे कई मित्रगणों को ये अनुचित प्रतीत हो सकता है, परन्तु पढ़ने में कोई बुराई नहीं है! मैं क्षमाप्रार्थी हूँ उन सभी से!
शिव-लिंगम् पूजन क्या है?
इसका कोई महत्व है?
यदि है तो क्या?
मेरे मित्रगण, आमंत्रित हैं अपने विचार स्पष्ट करने के लिए!
किस कारण से, शिव-लिंगम् का पूजन होता है?
किस कारण से जलाभिषेक?
कोई तो कारण होगा?
या कोई रिक्त-परिपाटी चली आ रही है?
और हम, ढोल बजाए जा रहे हैं!
मित्रगण!
एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ!
पुरुष के लिए शिव-लिंगम् पूजन त्याज्य है!
त्याज्य?
परन्तु? ऐसा तो दिखाया जाता है?
बहुत से लोग करते हैं?
दूध चढ़ाते हैं?
फिर? त्याज्य कैसे?
कहा न, कि शिव जितने सरल प्रतीत होते हैं, उतने ही दुष्कर हैं!
शिव-लिंगम् का पूजन मात्र स्त्रियों के लिए ही है!
मात्र स्त्रियों के लिए ही!
वो भी, कौमार्य-युक्त स्त्रियों के लिए! विवाहित स्त्रियों के लिए नहीं!
ये शिव-लिंगम् पूजन-विधि आई कहाँ से?
सबसे पहले कहाँ उद्धृत है?
कहाँ उल्लेख है?
विष्णु जी ने तो कहीं नहीं कहा?
न स्वयं श्री ब्रह्म-देव ने ही?
न किसी अन्य ऋषि-मुनि आदि ने ही?
फिर?
देवऋषि नारद ने!
ये विधि इस संसार में, मात्र देवऋषि नारद ही लाये!
वो क्यों?
किस कारण से?
आद्यशक्ति माँ सती की अघाड़ प्रेमानुभूति कारण!
देवऋषि को, उन पर दया आई!
वे तो युगों युगों से श्री महाऔघड़ को अपना सर्वस्व मान चुकी थीं!
सबकुछ किया!
कठोर तपस्या!
जप, तप, हठ, योग अब! परन्तु, श्री महाऔघड़ कहाँ सुनने वाले थे!
वो तो भूत-माला गले पहने, खप्पर उठाये, डमरू बजाए घूमते रहते थे श्मशान में! उन्हें प्रेम के लिए कहाँ बाध्य होना था! कौन बाध्य करता! कोई नहीं!
तब! देवऋषि नारद ने, श्री दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त महा-तंत्र का एक अभीष्ट प्रयोग बताया माँ सती को! कि माँ सती ठीक वैसा वैसा करें, तो वो मसानी, श्मशानी अवश्य ही एक दृष्टि तो भरेगा ही! एक दृष्टि, यदि चूकीं वो, तो फिर, कुछ नहीं किया जा सकता! कुछ भी नहीं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

तब माँ सती को बताया गया कि, नदी की रेत से वे एक पुरुष-लिङ्गाकृति का निर्माण करें, निर्माण पश्चात, उसने श्री शिव का दर्शन करें, हां, वो लिङ्गाकृति ऐसी हो जैसे वो लिंगम्, किसी योनि में प्रविष्ट-मुद्रा में हो, ये बाद मे जोड़ा गया! अब इसके पीछे भी कई ऐसे तथ्य हैं!
और यही हुआ! अभीष्ट हुआ! शेष कथा आप सभी को पता ही है! तभी से, ये प्रचलन हुआ कि, कोई भी कन्या, यदि, अपना ऐच्छिक वर प्राप्त करना चाहती हो, तो लिंगम्-पूजन करे! आप गुडिमल्लम, चित्तूर, आंध्र-प्रदेश के मंदिर का उदाहरण ले सकते हैं, दक्षिण कर्नाटक के इंदाबेट्टु, शिव-मंदिर का उदाहरण ले लें, स्पष्ट हो जाएगा! ठीक ऐसा ही लिंगम्, माँ सती द्वारा निर्मित किया गया था!
खैर, ऐसे बहुत से तथ्य हैं, जो जन-साधारण को पता नहीं, लकीर के फ़क़ीर हैं ऐसे लोग! जो बताया गया, यक़ीन कर लिया, जैसा सुनाया गया, यक़ीन कर लिया! ईश्वर द्वारा प्रदत्त, स्वयं-विवेक का उपयोग, आवश्यक ही नहीं!
जैसे कि आप ये पढ़िए, मैं तो बहुत हंसा ये पढ़ कर! एक बार एक पहुंचे हुए उपदेशक, धर्मगुरु श्री कृष्णलीला के विषय में लगातार चार दिनों से प्रवचन दे रहे थे! शामियाना लगा होने के कारण, शराबियों का ठेका बंद था, वे दूर से लाते और पीते! आखिर में, पांचवें दिन एक शराब का आया गुस्सा, सोचा उसने, कि आज पंडित जी की बातें सुनी जाएँ, हो सकता है कोई लाभ ही मिल जाए! तो वो, कंबल ओढ़, आराम से बैठ गए एक कोने में, सुनता रहा, सुनता रहा, दो घंटे हो गए! कृष्णलीला और कृष्णलीला! बात बात पर, कंस ये और कंस वो, और मामा कंस ऐसा और वैसा! अब आया शराबी को गुस्सा! झट से, शीशी निकाल मारे दो घूँट! और हुआ खड़ा!
"ओ पंडित?" चीख के बोला वो,
गाना-बजाना रुक गया!
सुरक्षा-कर्मी आ बढ़े आगे!
पंडित जी ने रोक लिया उन्हें! पता चल गया कि अब तो दिमाग उसका, इस ज़मीन पर है नहीं!
"हाँ, बोलो भाई?" बोले पंडित जी,
"तुझे हम क्या लम्पट या बेवक़ूफ़ लगते हैं?" पूछा शराबी ने,
"नहीं तो, क्या बात है?" पूछा उन्होंने,
"चार दिन से लीला और लीला, अबे तूने पागल समझा ही हमें? ये साले होंगे पागल, मैं नहीं!" वो दुसरे लोगों की तरफ इशारा करते हुए बोला, लोग हैरान!
"क्या पूछना है आपने भाई?" पूछा पंडित जी ने,
"सच सच बताएगा?'' बोला शराबी,
"हाँ, सच बताऊंगा!" बोले वो,
"तब एक बात बता ज़रा?" बोला शराबी,
"हाँ, अवश्य ही पूछो!" बोले पंडित जी,
"कंस राजा था?" पूछा उसने,
"हाँ, था!" बोले पंडित जी,
"बड़ा राजा था?" पूछा शराबी ने,
"हाँ था! बड़ा ही था!" बोले वो,
"सब डरते थे उस से? देवता भी?" पूछा शराबी ने,
"हाँ, अत्याचारी था वो!" बोले पंडित जी,
"अक़्ल होगी उसमे या नहीं?" पूछा शराबी ने,
"हाँ, होगी!" बोले पंडित जी,
"तो एक बात बता, जब ये बात तय थी कि देवकी की आठवीं संतान उसका वध करेगी, तय थी या नहीं?" पूछा उसने,
"हाँ, तय थी!" बोले पंडित जी,
"तो उस उल्लू के पट्ठे कंस को ये नहीं पता था कि अगर देवकी और वासुदेव को अलग अलग जेल में बंद किया जाए तो औलाद कहाँ से होती? औरत और मर्द की साँझा जेल? अबे पंडित, आज तक नहीं है, आज के युग में भी नहीं है? है कोई? है तो बता?" बोला शराबी!
पंडित जी का चेहरा लाल!
जो सुना था, सच ही सुना था!
क्या कंस को इतनी अक़्ल भी नहीं थी!
"अबे मुझे बना कंस! अगर एक भी औलाद हो जाए, पहली ही हो जाए तो मैं जानूँ! आठवीं तो जब होगी तब होगी! बेवक़ूफ़ बना रहा है, चार दिन हो गए सुनते सुनते! चल, उखाड़ ये शामियाना, और अक़्ल सीख के आ पहले, चला है उपदेश देने! अबे ये लोग तो फ़ालतू के हैं, सास को खाना दिया जाता नहीं, ससुर दर्द से रो रो सो जाता है, यहां उपदेश सुनने आती हैं, पति चिल्ला चिल्ला के मर गया कि खाना दे दो, खाना दे दो, लेकिन नहीं! यहां उपदेश सुनना है! अरे जो जीवन मिला है उसे ही हँसते-खेलते काट लो? चले हैं उपदेश सुनने और तेरे जैसे लम्पट, सुनाने!" बोला वो, और निकाल कर शीशी, मारे दो घूँट! रखी अंटी में, और ये जा और वो जा!
खैर!
अब घटना!
वो मंदिर, काफी बड़ा था, अब तो स्तम्भ ही शेष थे, या कुछ दीवारें, जो दीवारें बची थीं उनमे घास-फूस रंग-रलियाँ मना रहे थे! नए नए पीपल के पौधे, भविष्य में, आसपास के पौधों से प्रतिकार लेंगे, ऐसा कुछ माहौल था! कुछ जंगली बेलें ऐसी बड़ी हो गयी थीं कि रस्सी ही बन जाती उनसे तो!दरअसल, हम किसी ऐसे रास्ते की तलाश में थे, जो समतल हो और आराम से अंदर जाया जा सके जिसमे, यहां तो झाड़-झंखाड़ इतने थे, कि छह फ़ीट का आदमी घुसे, तो छिप जाए, नज़र ही न आये!
तभी एक पेड़ पर, आवाज़ सी आई एक जानी-पहचानी!
"ये तो उल्लू हैं न?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"दिन में?" बोले वो,
"ये ध्वनि के प्रति संवेदनशील होते हैं बहुत!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो शायद हमारे जूतों की आवाज़ नयी लगी हो उन्हें!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" बोले वो,
"इसीलिए, संदेश प्रेषित कर दिया घर-कुनबे में!" कहा मैंने,
"सही कहा!" बोले वो,
हम आगे बढ़े!
"रुको!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो देखो!" कहा उन्होंने,
मैंने ध्यान से देखा! वो एक सर्प था, कोई तीन फ़ीट का, चमकदार, सुनहरे से रंग का, दुम पर एक छल्ला था, लाल रंग का!
"ये तो पद्म-नाग है!" कहा मैंने,
"अच्छा! धन्य हुए!" बोले वो,
"ये बहुत क्रोधी, ज़िद्दी और आक्रामक हुआ करता है!" कहा मैंने,
"हाँ, देखा तो था?" बोले वो,
"हाँ, वही है!" कहा मैंने,
"है कितना सुंदर!" बोले वो,
तभी उसने हमें देख लिया था शायद! छोटा सा फन फैला लिया, गर्दन ऊंची कर ली, फुला ली, और हल्के से, सांस छोड़ी! छोटी सी फुफकार निकली!
"ये तो गुस्सा हो गया!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी वो दौड़ा!
आया भागा हुआ हमारी तरफ, हम भागे और पीछे एक पत्थर पर चढ़ गए!
वो रुका उधर, मारी कुंडली! किया फन पीछे उसने! दुम कर ली कुंडली के बीचोंबीच!
"ये तो काले नाग की तरह से कर रहा है!" बोले वो,
"हाँ, उस से अधिक क्रोधी है!" कहा मैंने,
मारी फुफकार उसने!
खोली कुंडली!
कभी इधर और कभी उधर!
"चलें यहां से?" बोले वो,
"हाँ, पीछे चलो!" कहा मैंने,
और हम पीछे हुए, धीरे धीरे!
और वो! उचक उचक के देखे!
और अगले ही पल, चढ़ आया आगे!
"ये तो पीछे ही पड़ गया!" बोले वो,
"इसके क्षेत्र में आ गए हैं हम!" कहा मैंने,
"माफ़ कर दो यार!" बोले वो,
उसने कुंडली मार ली फिर से, फन हिलाये, हमें दिखाए!
"जाने तो दो यार!" बोले वो,
"श्ह्ह्ह!" कहा मैंने,
वो हुए चुप!
"भाग लेना फौरन, मेरे कहते ही!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"एक साथ नहीं, अलग अलग!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और कुछ पलों के बाद, मैंने भागने को कहा!
हम भाग लिए! दौड़े! वो मेरे पीछे पीछे! और मैं आगे भागूं! चढ़ा एक पत्थर पर, देखा उसे, नहीं था वहां अब! आसपास देखा, नहीं था!
वहाँ शर्मा जी भी, एक बड़े से पत्थर पर चढ़ गए थे!
मैंने इशारे से पूछा कि है क्या वहां वो?
उन्होंने हाथ हिलाकर, मना कर दिया! शायद, भाग गया था, या छिप गया था कहीं! सांप, वैसे भी इंसान से डरता ही है! अपनी सुरक्षा के प्रति जब उसे संदेह होता है, तभी कुछ करता है अन्यथा नहीं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

थोड़ी देर इंतज़ार किया, कहीं फिर से न आ जाए, पांच मिनट के बाद, मैं उतरा और चला उनके पास, वे भी उतर आये थे, आसपास देखा तो कहीं नहीं दिखा, चला गया था वो, अपनी गुंडागर्दी दिखा कर!
"चला गया!" बोले वो,
"हाँ, अच्छा हुआ!" कहा मैंने,
"आओ, चले उधर!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
चलते हुए ही पानी पिया मैंने, उन्होंने भी पिया पानी,
"वहां दिखती है सही जगह!" बोले वो, एक तरफ इशारा करते हुए,
"हाँ, जगह साफ़ है!" कहा मैंने,
और हम, चल पड़े उस तरफ ही, यहां छोटो छोटी घास थी, कुछ छोटे से पत्थर, वैसे रास्ता साफ़ था, कोई दिक्कत नहीं होनी थी!
"आओ!" बोले वो,
और हम चल पड़े, अंदर पहुंचे, सामने एक बड़ा सा पत्थर गिरा पड़ा था, उस से बचे, और फिर आगे चले, दो स्तम्भ दिखे, आधे टूट गए थे, अब अंदर उनके सूराख बन चले थे, वक़्त की छैनी सभी को छील दिया करती है, क्या लौह और क्या पाषाण! कोई भी शेष नहीं!
"अरे???" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"व..वो.........!!" बोले इशारे से,
"वहां...........???" मैं भी सन्न!
हैं? ये क्या???
हम दौड़ पड़े उधर के लिए!
जो देख रहे थे, वो तो विश्वास से परे था!
मैं हैरान था!
शर्मा जी हैरत में पड़े थे!
"ये...............वही है न?'' बोले वो, सकते में आये हुए से,
"ह......हाँ!" कहा मैंने,
मित्रगण!
ये वही शिव-लिंगम् था जो हमने वहां देखा था! जो वहाँ नहीं था, जो, जैसे उखाड़ लिया गया था! वो यहां था! हमारी आँखों के ठीक सामने!
"लगता है जैसे, जल्दी में ही गाड़ा गया हो?" बोले वो,
"हाँ, मिट्टी भी ताज़ा है!" कहा मैंने,
"अब इसका क्या अर्थ हुआ?" पूछा उन्होंने,
"यही, कि जो यहां बुलाना चाहता था, बुला लिया!" कहा मैंने,
"लेकिन किसने?" पूछा उन्होंने,
हाँ! लेकिन किसने?
ये सबसे अहम सवाल था, किसने?
क्या हिरानु ने, या ऋतुवेश ने?
या फिर स्वयं, बाबा हरलोमिक ने?
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"अब यहां से शुरू होता है खेल!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"अब हम उस स्थान पर आ चुके हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"आज रात, यहीं रुकेंगे!" कहा मैंने,
"उचित है!" बोले वो,
"आज ही पता चल जाएगा!" बोला मैं,
"ये अच्छा रहेगा!" बोले वो,
"आओ, आगे देखते हैं!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
हम आगे बढ़े,
और तभी दोनों ही रुके!
लगा, कहीं घंटा बज रहा है! एक बड़ा सा घंटा!
"सुना?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"घंटे की आवाज़!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आ कहाँ से रही है?" पूछा उन्होंने,
"ध्यान से सुनो?" कहा मैंने,
और हम, कान लगाए, खड़े हो गए!
"अरे?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"दो जगह पर तेज है, है या नहीं?" बोले वो,
"इस तरफ?" कहा मैंने,
"हाँ! पूरब में!" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं? फिर?" बोले वो,
"पश्चिम से!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"मानो!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उन्होंने,
"यहां, यहना सुनो?" कहा मैंने,
उन्होंने ध्यान से सुना,
कई बार, कान भी साफ़ किये, हिलाकर भी देखे!
''अब आवाज़ बंद है!" बोले वो,
मैंने सुना,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई मंदिर तो नहीं आसपास?'' बोले वो,
"मुझे नहीं लगता कोई और होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, बीहड़ में कहाँ से होगा?" बोले वो,
तभी घंटा बजा! बहुत तेज! जैसे कान पर ही बजा हो हमारे!
"अरे?" बोले वो,
कान बंद करने पड़ गए थे हमें अपने!
"गूँज रही है आवाज़?" बोले वो,
"अब नहीं!" कहा मैंने,
"निकलो यहां से!" बोले वो,
हम जल्दबाजी में बाहर आये! आसपास देखा, कुछ नहीं था असामान्य!
"उधर देखें?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम चले एक तरफ,
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
देखने में वो कोई बावड़ी सी लग रही थी!
"ये..क्या है?" पूछा मैंने भी,
"कोई चबूतरा तो नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"पानी भी नहीं है?" बोले वो,
"शायद, सूख गया हो?" कहा मैंने,
"कहीं इकट्ठा तो नहीं करते होंगे यहां?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"यही होगा!" बोले वो,
"अजीब सी नहीं?" बोला मैं,
"हाँ, गहरा तो कुँए जैसा है?" बोले वो,
"हाँ, लेकिन कुआँ नहीं है!" कहा मैंने,
"हाँ और फिर ये है भी चौकोर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
फिर से घंटे की आवाज़ गूंजी! धीमी धीमी सी!
"वही आवाज़?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम आगे बढ़ चले, ये जगह अच्छी थी समतल! मैदान सा!
"ये जगह साफ़ है!" बोला मैं,
"हाँ, खेत सा नहीं लगता?" बोले वो,
"हाँ! कुछ ऐसा ही!" कहा मैंने,
"पता नहीं क्या हो?" बोले वो,
घंटे की आवाज़ बंद हो गयी! उसी क्षण!
"यहां तो हर चीज़ में रहस्य लग रहा है!" कहा उन्होंने,
"यही तो सुलझाना है!" बोला मैं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

ये बात तो सही थी, यहां की प्रत्येक वस्तु में रहस्य सिमटा हुआ था, हर वस्तु रहस्य के अन्धकार में लिपटी हुई थी! हम किसी प्रकार से यहां तक आन तो पहुंचे थे, बस अब गुत्थी सुलझे और जानने को मिले कुछ! सबसे पहली बात, वो रहस्यमय घंटों की आवाज़ें! दूसरा, वो शिव-लिंगम् का यहां आ जाना! ये दो बातें तो हमें आते ही चौंका गयी थीं! वो शिव-लिंगम्, यहां कैसे पहुंचा, और ये, कि वो घंटों की आवाज़ें, वो कहाँ से आयीं? ऐसा नहीं है कि ऐसा अन्य स्थानों पर नहीं हुआ था, होता है, कुछ न कुछ तो होता है, परन्तु शिव-लिंगम् का इस प्रकार स्थान बदलना, ये सच में ही चौंका गया था हमें! अब ये तो स्पष्ट था कि उस स्थान का, जहाँ वो बेरी के पेड़ लगे थे और इस स्थान का अपना एक गहरा संबंध था! और वो संबंध क्या था, यही तो जानना था!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"अब जो होगा, वो रात को ही सम्भव है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"आप इन लोगों से पूछ लोगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं?" बोले वो,
"तो ठीक है, आप पूछिए, मैं आता हूँ अभी!" कहा मैंने,
"ठीक है" बोले वो,
और दो-चार पत्थर लांघते हुए, वो चले गए वापिस!
और मैं, मैं उस मंदिर के भग्नावशेष देखने आगे चला पड़ा!
पीले फूलों के रंगों वाली, जंगली झाड़ियाँ लगी थीं वहां, छोटे छोटे फूल थे उनमे, कहीं कहीं हल्के गुलाबी से फूल लगे थे, जैसे कनेर के फूल होते हैं, और कहीं कहीं, जैसे केतकी की झाड़ी लगी थी, लगती तो केतकी ही थी, लेकिन थी नहीं, ग्वार-पाठा भी नहीं था, उनकी ही कोई अन्य प्रजाति थी वो! उसमे कांटे तो लगे थे, लेकिन नुकीले नहीं थे, मध्य ने, सफेद रंग की पुंजिका सी निकली थी, अब ऐसा केतकी और ग्वार-पाठे में नहीं होता! अन्य जंगली पेड़-पौधे लगे थे, कुछ अजीब सी फलियां लगी थीं, मैंने कुछ सूखी हुई फलियां तोड़ीं तो, उसमे अरहर की दाल जैसे बीज निकले, होगी तो कोई वन-औषधि ही, लेकिन मैं अनजान था उस से! कभी देखा ही नहीं था मैंने!
अब बारिश के आसार नहीं थे, आसमान खुला हुआ था, काले बादल, छंट चुके थे, एक तरह से ये अच्छा ही था, रात को रुकना था और बारिश हो जाती तो सारे मंसूबे धरे के धरे रह जाते!
मंदिर हर तरफ से एक जैसा ही था, अब मुख्य रास्ता कहाँ था, बता पाना बड़ा ही मुश्किल था, रास्ते में या तो पत्थर पड़े थे या फिर जंगली झाड़-झंखाड़ ने कब्ज़ा कर लिया था उस पर! मंदिर के मुहाने चारों दिशाओं में भी, सब, एक जैसे ही थे! कौन सा मुख्य-द्वार है, ये भी नहीं पता चला रहा था!
फिर भी, मैंने मुआयना किया, दो जगह तो ऐसी थीं कि कहीं भी रास्ता नहीं था उनमे अंदर जाने का, दो रास्ते थे, जिनसे अंदर जाया जा सकता था, एक वो था, जहां हम हो कर आये थे, दूसरा वो, जो था तो साफ़ ही, लेकिन पत्थरों के कारण, अवरोध का सामना करना पड़ता! तो मैंने वही रास्ता अपनाने की सोची, तो सरल था, जहां से जाना आसान और सुगम था!
मैंने करीब पौना-एक घंटा मुआयना किया था, और फिर वापिस हुआ था, देखना था, शर्मा जी ने क्या समझाया था उन्हें! मैं चल पड़ा उनकी तरफ, पहुंचा वहां, वे सभी बैठे हुए थे, हाँ, यादराम एक करवट ले, लेटा हुआ था, लेकिन जागा हुआ, जब मैं वहां पहुंचा, तो उठ गया था वो!
"आओ जी!" बोला रामखिलावन,
मैं मुस्कुराया और बैठ गया साथ में ही, छाया बढ़िया थी वहाँ, धूप वहां नहीं थी, पेड़ के नीचे आराम से बैठे हुए थे वे सभी, हवा में ज़रूर तेजी थी! लेकिन हवा ठंडी और बढ़िया चल रही थी!
मैंने पानी पिया वहां आ कर, ज़रा सा पानी ले, आँखों पर भी मार लिया!
"बात हो गयी है!" बोले वो,
"क्या रहा?" पूछा मैंने,
"ये यहीं ठहर लेंगे!" बोले वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
तभी काशीराम और रामखिलावन उठे, दो डंडियां थीं उनके पास, पीछे पीछे!
"कहाँ चले?" पूछा मैंने,
"अभी आये!" बोले वो,
और चल पड़े वो वहाँ से!
"कहाँ गए ये?" पूछा मैंने,
"रात के लिए कुछ भोजन का इंतज़ाम करने!" बोले वो,
"यहां क्या मिलेगा?" पूछा मैंने,
"देखो, क्या लाते हैं!" कहा मैंने,
"तालाब यहां नहीं, नदी, यहां नहीं!" कहा मैंने,
"काशीराम जुगाड़ी आदमी है! कर लेगा जुगाड़!" बोले वो,
उस समय करीब साढ़े पांच का समय हो चला था, मैं कमर सीधा करने के लिए लेट गया, आराम किया, थोड़ी ही देर में आँखें हुईं भारी, और लग गयी आँख!
आँख ऐसी लगी, कि मैं गहन निंद्रा में जा पहुंचा!
जा पहुंचा तो एक स्वप्न आया मुझे!
स्वप्न भी ऐसा कि मैं समझ ही न सका उसका आशय!
बिना सर-पैर का सा लगा वो स्वप्न मुझे!
मैंने देखा, जैसे मैं कोई पक्षी बन, उड़ रहा होऊं!
नीचे देखा तो नीचे एक ऐसी जगह दिखी जहां चार नदिया मिल रही थीं एक साथ!
जहां मिल रही थीं, वहाँ वो अथाह-जल किसी गहरे कूप में गिर रहा था!
मुझे विस्मय हुआ!
ये जल इतना अथाह जल, आखिर जा कहाँ रहा है?
मैं नीचे हुए,
अच्छा, हैरानी इस बात की, कि मैं अपनी ही देह नहीं देख पा रहा था!
ये बड़े ही कमाल की बात थी!
जैसे बस, मेरे नेत्र ही देख रहे हों सबकुछ!
मैंने नीचे हुआ,
उस विशाल जल-टकराव का ऐसा भयंकर शोर उठ रहा था कि व्यक्ति बेहोश ही हो जाए!
कानफोड़ू शोर!
आसपास विशाल समूह थे वृक्षों के!
भूमि सुनहरी सी चमक रही थी!
उस विशाल जल-कूप पर, इन्द्रधनुष जगमगा रहा था!
वाय ऐसी चल रही थी, कि सबकुछ उड़ा कर ही ले जाए!
अचानक से मैंने संतुलन खोया!
और गिरने लगा नीचे!
उस जल-कूप से कई सौ मीटर ऊपर, मुझे जल के छींटे छूने लगे!
और मैं!
मैं कटे फल सा नीचे गिरता जा रहा था!
न चीख ही निकली और न आवाज़ ही!
गहन अन्धकार!
समय, जैसे शांत हो गया! रुक गया!
और मैं, उस मध्य में, जहां का तहाँ रुक गया!
न शोर, न जल! न वो न कुछ दीखे ही!
मैं जड़ हो चला था!
न ऊपर, न नीचे!
मैं कहाँ हूँ?
क्या नेत्रहीन हो गया हूँ?
कुछ दीखता क्यों नहीं?
आवाज़, वो न निकले!
कोई अंग भी न हिले!
सर नीचे और पाँव ऊपर हों, ऐसा लगे!
देह, दीखे नहीं!
और अचानक, जैसे महाप्रपात हुआ जल का!
मेरे नेत्र खुले!
और मैं, चौंक के उठ बैठा!
"क्या हुआ?'' शर्मा जी ने पूछा,
"मैं कितनी देर सोया?" पूछा मैंने, तेजी से,
"कोई बीस मिनट?" बोले वो,
"बस?" बोला मैं,
"हाँ? हुआ क्या?" पूछा उन्होंने,
अब मैंने उन्हें वो अजीब सा स्वप्न सुनाया!
चौंके वो भी!
न सर, न पैर!
न कोई संकेत न उदाहरण!
और ऐसा दृश्य तो, कभी देखा ही नहीं था मैंने!
ये कैसा स्वप्न था?
कैसा अजीब?
क्या अर्थ हुआ इसका?
सोचने लगा, सोचा और विचारा, लेकिन, पता नहीं चल सका!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उस सपने तो मेरे जैसे होश ही उड़ा दिए थे! वो दृश्य ऐसा था जैसे कि मैं किसी हरे-भरे प्रदेश के बीचोंबीच, ऊपर, आकाश में स्वच्छ्न्द विचरण कर रहा होऊं! जहां तक देखो, बस हरियाली ही हरियाली! शीतल और स्वच्छ वायु! प्रवाह ऐसा कि सबकुछ पल में ही उड़ा ले जाए! और मैं, मैं एक पक्षी की तरह से उड़ रहा होऊं! उतनी ऊपर तो कोई बड़ा पक्षी ही उड़ सकता था, जिसमे दमखम हो! जैसे कोई गरुड़ या फिर कोई चील या गिद्ध! कोई छोटा पक्षी तो वायु-प्रवाह में, अस्थियां चटकने के कारण ही मर जाता! वायु की शीतलता को मैं महसूस कर सकता था, परन्तु हैरत ये, कि मैं देह नहीं देख पा रहा था अपनी! अब पक्षी था या सूक्ष्म-देहधारी! कुछ पता नहीं! जब नीचे आँखें टिकीं तो होश ही उड़ गए! वो एक विशाल सा जल-कूप था! जिसमे, चार नदियां, आमने-सामने से आती हुईं, विशाल जल-प्रपात बनाती हुईं गिर रही थीं! जल के गिरने का शोर ऐसा था जैसे या तो भूमि फट गयी हो या फिर आकाश भड़भड़ा गया हो! कानों में जैसे पीड़ा पहुंचने लगी थी! और अगले ही क्षण, जैसे मैंने अपनी उड़ान से नियंत्रण खो दिया! और नीचे का गुरुत्व मुझे अनियंत्रित गति या वेग से नीचे खींचने लगा! मैं देश, एकदम सीधा, उस जल-कूप के मध्य जा गिरा! नेत्र खुले तो नितांत अँधेरा था वहां! न जल, न शोर और न ही कोई प्रकाश! और तभी आँखें खुल गयीं मेरी! चौंक कर उठा था मैं! शर्मा जी भी हैरान हो गए थे कि मैंने ऐसा क्या सोच लिया या देख लिया कि मैं चौंक पड़ा!
कई पलों तक, वो दृश्य मेरे मस्तिष्क-पटल पर नाचता रहा! उसका शोर, मेरे कानों में अभी तक समाये था! उस वायु-प्रवाह से खड़े हुए रोएँ अभी तक खड़े थे! हैरानी की बात थी, मैं मात्र बीस मिनट में ही, कहाँ से कहाँ चला गया था और वापिस भी आ गया था!
घड़ी देखी, साढ़े छह बजने को थे, भूख नहीं लगी थी तब तक, पानी ही इतना पी लिया था कि पेट भर गया था! यहां इतनी गरमी भी नहीं थी, हवा बेहद दांत सी, थोड़ा तेज, बहे जा रही थी, पसीना नहीं आ रहा था! नहीं तो ज्येष्ठ के उस माह में, ऐसा हो जाए, असम्भव!
मैंने फिर से आँख बंद की, वो दृश्य अभी भी मेरे दिमाग में रह रह कर उठ जाता था, एमी भूलने का प्रयास कर रहा था, लेकिन उस विशाल जल-कूप का भय जैसे अभी भी मेरे मन में कहीं छिपा हुआ था!
कहिर, जैसे तैसे करके मैंने आँखें बंद कीं, शर्मा जी भी सो ही गए थे, हम करीब एक घंटा सोये! और जब नींद खुली मेरी, कुछ आवाज़ें आने से, तो वे तीनों भी आ चुके थे, वे तीनों दो बड़ी सी रक़्क़ाबी पकड़ लाये थे, निशानची लगते थे वो तो! रक़्क़ाबी, मोर जैसी होती है, काले रंग की, मुर्गी से बड़ी और रंग में लाल-सुनहरी, काली सी, तो आज रात का यही था हमारा भोजन!
"काशीराम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"यार, ये कहाँ से ले आये?'' बोले वो,
"जंगल में बहुत हैं!" बोला वो,
"बढ़िया!" बोले वो,
उन दोनों में, इतना माल तो था ही कि सभी का पेट भर जाए! वैसे, उस क्षेत्र में लोग, मोर का भी शिकार कर लिया करते हैं, हालांकि ये प्रतिबंधित है, लेकिन, अंदर, दूर-दराज में, ऐसा होता है, मैंने खुद देखा है, खाया भी है! भूख में सब जायज़ है, नहीं तो प्राणों पर बन आती है! मांस से, तुरंत ही ऊर्जा प्राप्त होती है, इसमें समय नहीं लगता और शरीर भी उसको शीघ्र ही सोख भी लेता है, हालांकि, यदि, कुछ वनस्पतियाँ जो खाने लायक हों, मिल जाएँ तो हम अक्सर वही खा लेते हैं, शिकार नहीं किया करते, लेकिन जब हो ही कुछ नहीं तो क्या किया जाए! नदी हो, तालाब हो, तो मछलियाँ और केंकड़े आदि मिल जाया करते हैं, लेकिन ऐसे जंगल में, जहां कुछ न मिले, तो तीतर-बटेर, रक़्क़ाबी, खरगोश, साही आदि का शिकार, लाजमी हो जाया करता है! वनस्पतियों में क्षार हुआ करता है, कब क्या खेल दिखा दे, पता नहीं, हाँ, फल हों तो बात अलग है! जंगल में अक्सर, जंगली-आम, जंगली-टमाटर, बेर आदि मिल जाया करते हैं, यदि पर्याप्त मात्र में मिल जाएँ, तो हम उनको खाना अधिक पसंद किया करते हैं!
"भूनोगे इन्हें तो?" बोले शर्मा जी,
"जैसा आप कहो?'' बोला वो,
"मतलब?" बोले वो,
"तरी चाहिए तो बन जायेगी!" बोला वो,
"कैसे, बर्तन?" बोले वो,
"सब है!" कहा उसने,
अब ये तो वाक़ई में कमाल था! काशीराम का बड़ा झोला, क्या क्या लिए बैठा था, अब आया था समझ! वो पहले भी यहां आया करता था, तब आया समझ!
"ये तो दावत कर दी!" बोले मुझ से शर्मा जी,
"दावत से कम नहीं जी!" कहा मैंने,
तो साहब,
उन्होंने छील-छाल, घोट-घाट, सब रांध दिया! मसाले आदि भले ही कम थे, लेकिन जंगल में ऐसा भोजन मिल जाए तो क्या कहने! छप्पन भोग भी कम फिर तो! और रक़्क़ाबी का गोश्त तो वाक़ई लाजवाब था! मुग़लई सा ज़ायक़ा दे रहा था!
तो जी, खाना आदि खा लिया था हमने! उसके बाद आराम किया! आराम ज़रूरी था, आग जला ही ली थी, वैसे इस इलाक़े में ऐसा कोई शिकारी बड़ा जानवर नहीं है जो इंसान पर हमला करे या उसको खा ही जाए, इक्का-दुक्का कहीं से कोई तेंदुआ आ गया तो एक अलग बात है, रीछ भी नहीं हैं, हैं भी तो दूर के दुर्गम जंगलों में हैं! यहां सबसे बड़ा शिकारी, नदियों में रहता है, वो है मगरमच्छ! बस!
बजे नौ, यादराम और रामखिलावन तो अपनी अपनी चादर ओढ़, चैन से सो गए! काशीराम से बातें चलती रहीं हमारी, काशीराम ज़िंदादिल इंसान है, फ़ौज में रहा है, तो पक पक कर पक्का हो चुका है!
शर्मा जी ने कुछ बता दिया था उसे, ये कि हमारे आने का प्रयोजन क्या था वहां, उसने हमारे साथ बने रहने की बात कही! अर्थात, जैसा हम कहेंगे, वैसा वो ख़ुशी-खशी करेगा! ईमानदार इंसान है, और ईमानदार इंसान का एक एक लफ्ज़ गवाही होता है उसके ईमान की!
बजे दस,
और मैंने शर्मा जी को जगाया, वे ऊँघने लगे थे! काशीराम भी जागा हुआ ही था, तब मैंने काशीराम को कुछ समझाया, कहा कि कुछ भी हो, कहीं नहीं जाना वहां से, और इस प्रकार, एक सुरक्षा-घेरा, उन तीनों के इर्द-गिर्द काढ़ दिया! अब वे सुरक्षित थे!
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
मैंने अपना छोटा बैग ले लिया था,
"लाइट जला लो!" कहा मैंने,
उन्होंने अपने मोबाइल की लाइट जला ली, मैंने भी!
वहां गहन अन्धकार था, अभी, फिलहाल में तो पीछे जलती आग में सब दीख ही रहा था लेकि वो भी धीरे धीरे मद्धम होने को था!
"वहीँ चलना है!" कहा मैंने,
"वहीँ?" बोले वो,
"हाँ, उस लिंगम् स्थान पर!" कहा मैंने,
''अच्छा! ठीक!" बोले वो,
अब आग की रौशनी पड़ी मद्धम!
अब मोबाइल-टोर्च ही रास्ता दिखा रही थी!
"आराम से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"रात को सांप निकलते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, पता है!" बोले वो,
और हम, उस उजाड़ को छानते हुए आगे बढ़ते चले!
छर्र-छर्र! छर्र-छर्र!
ऐसी अजीब सी आवाज़ आई सामने!
हम चौंक के रुके!
रौशनी डाली उधर!
अँधेरा हटा तो कुछ हिलता सा दिखा!
थोड़ा आगे बढ़े!
सम्भल कर, धीरे धीरे!
आवाज़ बंद!
हम भी रुके!


   
ReplyQuote
Page 3 / 6
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top