वर्ष २०१३ दतिया, मध...
 
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वर्ष २०१३ दतिया, मध्य-प्रदेश की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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वो दोनों हैरत में पड़ गए थे मेरा जवाब सुनकर! यक़ीन ही न आये! ग़ैर-यक़ीनी में मुझे ही घूरें! शर्मा जी को देखें! पहली बार मेरी किसी बात से उन्हें ऐसी चोट पहुंची थी! अपने सर पर हाथ फिराया सतीश ने, फिर देखा मोहर सिंह को!
"हमें बीस फ़ीट उछाला गया था, शुक्र है कि वहाँ मिट्टी थी, नहीं तो हड्डियां टूटती ही टूटतीं!" बोला सतीश,
"मानता हूँ!" कहा मैंने,
"और आप कह रहे हों कि जान नहीं ली?" बोला सतीश,
"एक बात सोचो?" कहा मैंने,
"क्या?" बोला सतीश,
"वो कुत्ता अगर गायब न होता तो?" पूछा मैंने,
मुंह फटा उनका! मेरी बात दिमाग में घुसने को हुई उनके!
"सोचो, वो आदमी या बाबा, आपके सामने ही रहता तो?" बोला मैं,
एक दूसरे को देखें वो!
"सोचो, आपको कहीं और ही फेंका होता तो? जैसे पत्थरों पर, तो?" बोला मैं,
"और क्या? उनके लिए क्या असम्भव?" बोला मैं,
अब अक़्ल में पड़ी कुछ! हाँ, अगर ऐसा ही होता, जैसा मैंने अंदेशा लगाया था तो अभी वो रास्ते में होते, किसी गाड़ी में या किसी बुग्घी में, ले जाए जा रहे होते किसी अस्पताल! पता नहीं होश रहता भी या नहीं उन्हें!
अब यक़ीन हो चला था उन्हें, भले ही थोड़ा सा! लेकिन ये भी बहुत था!
"ठीक है, अब आप नहीं जाइए कहीं भी, हम ही जाएंगे!" बोले शर्मा जी,
वे दोनों, मूक ही बैठे रहे, जाने का तो अब सवाल ही नहीं था! उनके अंदर जो भय बैठ गया था वो अब उन्हें जल्दी रिहा नहीं करने वाला था!
"चलिए, अब सो जाइए!" कहा मैंने,
"हाँ, रात भी आधी हो चली है" बोले शर्मा जी,
हमारी चारपाइयां बाहर बिछी थीं, तो हमें कपड़े बदले, सामान आदि रखा एक तरफ और पानी पी, लेट गए! करीब आधा-पौना घंटा मैं और शर्मा जी बातें करते रहे, कल के विषय में, कल, जो हम करने जा रहे थे! इस तरह, नींद भी आ गयी और हम सो गए!
सुबह हुई, नित्य-कर्म से निवृत हुए, चाय-नाश्ता भी कर लिया, मोहर सिंह और सतीश ने अपने साथ गुजरा पिछली रात का वाक़या अभी तक किसी को बताया नहीं था, ये अच्छा भी किया था उन्होंने, नहीं तो घर में बे-वजह से तनाव बन जाता! उस दिन मौसम ने करवट बदली थी, धूप ज़रा देर से आई थी और आकाश में बादल भी बने थे, लगता था कि जैसे बारिश के आसार बन रहे हैं! इस से मौसम जहां ठंडा हो जाता वहीँ सुकून भी देता और फिर, मैं और शर्मा जी इत्मीनान से उस स्थान की जांच भी कर ही लेते!
कोई दस बजे, थोड़ा सा भोजन भी कर लिया था, पूरी और बैंगन की सब्जी बनाई गयी थी, इतना तो खा ही लिया था कि शाम तक का काम चल ही जाता! उस समय करीब दस का वक़्त रहा होगा! स्व दस बजे, मैं और शर्म अजी, मोहर सिंह और सतीश से मिलकर, चल पड़े थे उसी स्थान के लिए, मौसम गरम नहीं था उस रोज, हवा में भी गरमी नहीं थी, कुल मिलाकर मौसम सुहावना था, कहा जा सकता था! मैं अपने साथ अपना छोटा बैग ले आया था, आज ज़रूरत पड़ सकती थी उसकी! हम करीब चालीस मिनट में वहाँ पहुँच गए थे, उसी रास्ते पर मोटरसाइकिल काट ली थी, रास्ता था तो पथरीला लेकिन गाड़ी सही ही चल रही थी, धचकियां अवश्य ही लग रही थीं लेकिन था कुल मिलाकर, जाने लायक ही!
वहां पहुंचे हम, लगाई मोटरसाइकिल एक तरफ, एक पेड़ के नीचे, पानी की बोतल निकाली, पानी पिया, चेहरे पर पानी डाला, एक बोतल साथ ली और एक रहने दी उसमे, अब मैंने कलुष जागृत किया, नेत्र पोषित किये, जब नेत्र खोले तो कुछ भी असामान्य नहीं लगा! वही दृश्य, वही भूगोल, ज़मीन में गड़े वही बड़े छोटे पत्थर! इंसानी कुछ भी नहीं, उसके बाद प्राण-रक्षा मंत्र और देह-रक्षा से अभिमंत्रित किया स्वयं को और शर्मा जी को!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम सामने चल पड़े, वही अजीब से पेड़ मिले, उनके बीच में से गुजरे! और सामने चलते हुए, एक बड़े से टीले तक चले आये! सूरज को ढका एक बड़ी सी बदली ने, वहाँ का भूगोल नहा गया उस अंधियारे में, सबकुछ स्लेटी से रंग का लगने लगा! जैसे स्लेटी रंग के चूर्ण का आवरण चढ़ गया हो वहाँ की प्रत्येक वनस्पति और पत्थर पर!
"आज मौसम तो ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"गरमी भी उतनी नहीं है!" बोला मैं,
"हवा में ठंडक है, कहीं बरसा है मेह!" बोले वो,
"हाँ, पूरब में कहीं, वहीँ से हवा आ रही है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
बातें करते करते हम उस टीले को पार कर गए, जैसे ही पार किया, एक अजीब सा गड्ढा दिखाई दिया, लाल रंग की मिट्टी थी उसके आसपास, वहाँ के भूगोल से बिलकुल ही अलग!
"ये देखना?'' बोले वो,
"हाँ, लाल मिट्टी?" बोला मैं,
"हाँ, गेरू जैसी!" बोले वो,
मैं नीचे बैठा, मिट्टी उठायी, ऊँगली से दबाई, भुरभुरी थी मिट्टी!
"गेरू है क्या?" पूछा उन्होंने,
"लगता तो कुछ ऐसा ही है!" बोला मैं,
अब वो नीचे बैठे, मिट्टी उठायी, हाथ में ली, पीस के देखा,
"बड़ी मुलायम है?" बोले वो,
"हाँ, जैसे कोई द्रव्य मिलाया गया हो!" कहा मैंने,
अब हमने सूंघ के देखा, कोई गंध नहीं! गड्ढा भी कोई दो फ़ीट गहरा ही रहा होगा, ऊपर उसके घास-फूस और टहनियाँ पड़ी थीं, पूरा गड्ढा भरा गया था उन्हीं से,
आसपास नज़रें दौड़ायीं, दूर दूर तक कुछ नहीं!
"आगे चलें?" पूछा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम आगे चल पड़े!
करीब पचास मीटर चले होंगे, कि एक समतल सा मैदान दिखा!
''वो देखो!" बोले वो,
बड़े से पेड़ लगे थे वहाँ, चटख हरे रंग के! शायद शीशम के रहे होंगे, बड़े और विशाल, घने और लहलहाते हुए!
"चलना उधर?" बोला मैं,
"चलो!" बोले वो,
और हम जैसे दौड़ लिए उधर के लिए,
वहाँ पहुंचे, रुके, आसपास देखा,
"ये जगह अजीब सी नहीं लगती?" बोले वो,
"कैसे अजीब?" पूछा मैंने,
"यहां का भूगोल अलग नहीं है?" बोले वो,
"यहां हरियाली अधिक है!" कहा मैंने,
"हाँ, वो क्या है?" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर? वो ज़मीन पर?" बोले वो,
काले रंग की कोई पिंडी सी लगती थी वो!
"आना तो?" बोला मैं,
और हम, चल पड़े उस झुरमुटे की तरफ, जहां वो कलाई सी पिंडी उभर रही थी ज़मीन में से निकलती हुई, अधिक दूर नहीं थी, बस कोई दस मीटर ही दूर, उत्तर-पूर्व में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम वहां जा पहुंचे! ये पिंडी थी? यदि थी, तो बड़ी अजीब सी थी! नहीं तो दिखने में, शिव-लिंगम् समान लगती थी! परन्तु कोई चिन्ह नहीं थे, लिंगम के नीचे, योनि-स्थानम् भी नहीं था, ये तो विस्मयकारी ही थी! आसपास और कोई पिंडी नहीं थी वैसी, वैसी क्या, कोई भी नहीं, पत्थर ही पड़े थे, टूटे-फूटे, एक दो ठूंठ पेड़, जो वाइज़-ए-ज़ौफ़(बुढ़ापे के कारण) अब ज़मीन पर लेटे थे, उनकी खोखरों में, छोटे छोटे कीड़े मकौड़ों ने अपने संसार बसा लिए थे, चींटियाँ अपने काम में तल्लीन थीं, एक आद सुंडियां उनकी पकड़ में थीं और अब वे सुंडियां कीड़े बनने से पहले ही इस संसार से विदा होने को तैयार थीं! मकड़ियाँ तो जैसे माफिया थीं यहां! जहां-तहाँ अपने जले बना रखे थे, कई सूखे हुए कीड़ों के अवशेष झूल रहे थे उनके जालों पर! पता चलता था, बड़ा ही सटीक और कुशल तरीक़ा अपनाया था उन्होंने, मिल-बाँट कर खा रही थीं, शिकार कर रही थीं! और यही इनके जीते रहने का मूल-मंत्र भी था! और वैसे भी, मकड़ियों का कोई शिकारी कम ही हुआ करता है! ये खुले-आम घूमा करती हैं! एक-आद धर ली जाती है लाल मुंह वाले चमगादड़ द्वारा नहीं तो मजे ही मजे हैं! हमारे पीछे ही, पीले शरीर वाली कुछ मकड़ियाँ मुस्तैद हो चली थीं! प्रकृति का एक सरल सा नियम है, जितना चटख रंग, उतना ही ज़हरीला वो जीव! ये याद रखना चाहिए बस, बच-बचाव अपने आप ही हो जाता है! हमारे सामने ही, एक बड़ी सी, पीली प्रेइंग-मेंटिस बैठी थी, अपने छोटे से त्रिभुजाकार सर में धंसी बड़ी बड़ी आँखों से, हमें ही देखे जा रही थी! अपनी बाजूओं की ताक़त दिखाते हुए, उन्हें चाट रही थी, जैसे धार लगा रही हो अपने हथियारों पर! बीच बीच में, सर झुका कर, हमें देखने लगती! मैंने एक आद बार हटाने की कोशिश की तो मेरे सामने ही आ डटी वो तो! छोटा सा जीव और हाथी भर का कलेजा! हंसी छूट गयी मेरी उसके इस साहस पर! झुक जाती थी, जैसे मैं उसके सर के ऊपर तलवार से वार कर रहा होऊं! ये वास्तव में एक कुशल शिकारी है, चिड़िया तक को दबोच लेती है! खैर, ये उनकी दुनिया है, हम ही बाहरी लोग थे उनके लिए! अपनी गलती मान ली जी हमने, और अब सारा ध्यान उस पिंडी अथवा शिव-लिंगम् पर लगा दिया!
"ये मुझे पिंडी तो नहीं लग रही?" कहा मैंने,
"हाँ, पिंडी तो नहीं है" बोले वो,
"लिंगम् सा लगता है, नहीं?" पूछा मैंने,
"कुछ वैसा ही" बोले वो,
"ज़रा कोई लकड़ी लाइए" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उन्होंने,
"इसकी जड़ खोद कर देखते हैं!" कहा मैंने,
"समझ गया" बोले वो,
और तब तक, मुझे मेरा खंजर दे दिया बैग से निकाल कर, मैंने तब तक, आसपास की मिट्टी में खंजर मार मार, नरम बना दिया उसे!
"ये लो, ये ठीक है?" शर्मा जी, लकड़ी देते हुए बोले मुझे,
"हाँ, ठीक है, लाइए!" कहा मैंने,
लकड़ी बड़ी थी, मज़बूत भी, मैंने उसके दो हिस्से कर दिए, खंजर से नोंक बना दी, और लग गए खुदाई करने उस पिंडी या लिंगम् की!
करीब आधे घंटे के बाद, हमें उस पिंडी के नीचे, एक सपाट सा काला पत्थर दिखा, ये लंबवत था, अब ये स्पष्ट था कि ये पिंडी नहीं थी, ये एक शिव-लिंगम् ही था! योनि-स्थलम् अब स्पष्ट था! ये तो श्री महाऔघड़ का स्थल था! मन में अपार बलानुभूति ने जन्म लिया! मैंने शिवम्-उरवार्क पढ़ डाला! वो स्थान जैसे गुंजायमान हो उठा! शिवम्-उरवार्क एक तांत्रिक मंत्र होता है, व्यक्ति में भय का नाश कर, नव-संजीवन का प्रवाह भर देता है! जपने वाले को, जैसे श्री महाऔघड़ का सरंक्षण प्राप्त हुआ हो, ऐसा प्रतीत हुआ करता है! जब स्वयं श्री महाऔघड़ का सरंक्षण प्राप्त हो, तो भय कैसा? भयहीन होना, भय का नाश करना, भय को समूल नष्ट करना यही इस शिव-उरवार्क का मूल उद्देश्य है, और इसी कारण से श्री महाऔघड़, श्री भैरव नाथ जी हो जाते हैं! भय+रव् अर्थात भैरव! रव् का अर्थ ताम-विद्या में, नाश करने वाला होता है!
शर्मा जी ने भी श्री अरविन्दम्-स्रोतम का पाठ कर डाला! नेत्र बंद हो गए थे उनके और मैं, उनके इस स्रोतम का आनंद उठाता रहा!
कुछ पल ऐसे ही आनंद में बिताये!
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"ये अवश्य ही पूज्य-स्थल रहा होगा!" कहा मैंने,
"निःसंदेह!" बोले वो,
"सब नष्ट हुआ, परन्तु, ये लिंगम् शेष है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
तब तक, शर्मा जी ने, जल से साफ़ कर दिया था वो लिंगम्! अब स्पष्ट दीख रहा था! हम खड़े हुए, हमें कुछ तो मिला ही था!
तभी एक आवाज़ गूंजी!
दूर, पूरब में!
आवाज़, जैसे कोई स्त्री, नृत्य कर रही हो, कोई मृदंग बजा रहा हो! नृत्य करते समय, उसके आभूषण आपस में टकरा रहे हों, ऐसी आवाज़!
"ये क्या है?" बोले वो,
"आओ, देखते हैं!" कहा मैंने,
और हम, दौड़ चले, पूरब की तरफ! भागने लगे! आवाज़ करीब और करीब आने लगी! हम एक जगह रुक गए! ये स्थान बड़ा ही निराला सा था, जैसे, कोई झाड़ू-बुहारी करता रहा हो वहाँ! जंगली पुष्प खिले थे, बेलें लगी थीं, सफेद, पंचभुजा फूल खिले थे उन पर, पतंगे, तितलियाँ भिनक रहे थे उन पर!
"ये तो बगिया सी है!" बोले वो,
"ऐसी ही लगती है!" बोला मैं,
तभी मृदंग ने जैसे अंतिम ताल सी छेड़ी, और धुंग-धुंग करते हुए, बंद हो गया, शेष बची तो वो ध्वनि जो सम्भवतः आभूषणों के टकराने से हुई थी! और फिर, उसके बाद, सन्नाटा पसर गया! और तभी, हलकी सी बौछार पड़ी!
"वहाँ चलो!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
एक पेड़ था, बड़ा सा, घना सा, वहीँ के लिए चले, वैसे तो बारिश में पेड़ के नीचे नहीं खड़ा होना चाहिए, लेकिन मज़बूरी थी, क्या करते!
"यहां ठीक है!" बोले वो,
तभी हवा चली बड़ी तेज! धूल-धक्कड़ उठ गयी! रुमाल लगा लिए चेहरे पर हमने! हवा बड़ी तेज चल रही थी!
"मौसम बदल गया!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बढ़िया हुआ!" कहा उन्होंने,
"हाँ! ठंडक तो मिली!" बोला मैं,
हम ज़रा और अंदर को हो लिए थे, पेड़ अब झूमने लगा था!
"शीशम है न ये?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने, देखते हुए पेड़ को,
"फिर तो मज़बूत है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
देखते रहे हम उधर, धूल उड़ाए जा रही थी सबकुछ!
"लो!" बोले वो,
पानी दिया था मुझे,
"लाओ" कहा मैंने,
पानी पिया, ढक्कन लगाया और दे दिया वापिस उन्हें!
बौछार थोड़ा तेज हुई! हलकी हलकी!
"आसमान में बादल बन गए हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, लगता है, तेज ही बरसेगा आज तो!" बोले वो,
"कोई दूसरी जगह देखो जल्दी!" कहा मैंने,
और देखने लगे हम आसपास, कोई ऐसी जगह, जहां भीगने से बच जाएँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ वैसे तो ऐसी कोई जगह थी ही नहीं जहां हम छिप सकें! या ऐसी किसी गुफा, कंदरा या कक्ष में जा सकें, पेड़ थे घने, वही कुछ शरण दें तो दें! खंडहर भी नहीं थे, जहां छिपा जा सके! फिर भी वहाँ से निकल लिए थे हम, वजह ये थी, कि पछाँ से जो हवा आती थी, वो बारिश की तेज फुहार लाती थी, ये नहीं कह सकते कि भीग जाते थे लेकिन फिर भी, गीलापन महसूस हो जाया करता था!
"वो ठीक है?" बोले शर्मा जी,
"चलो वहीँ!" बोले वो,
हम भाग कर वहां गए, ज़मीन पर अभी कीचड़ जमा नहीं हुई थी! ज़मीन ने बारिश की वो बौछार जज़्ब कर ली थी!
"हाँ, यहां ठीक है!" कहा मैंने,
यहां भी पेड़ ही थे, साथ में एक टीला था, हवा नहीं थी यहां वो बौछार वाली, पाने भी कम ही टपक रहा था वहाँ!
"यहां बैठ जाओ!" बोले वो,
पत्थर थे वहाँ, नीचे पड़े हुए,. वही बैठने को कहा था उन्होंने,
"हाँ, ये ठीक है!" कहा मैंने,
और हम दोनों वहीँ बैठ गए, बैठे बैठे, बारिश की फुहार का आनंद लेते रहे, आसपास के भूगोल को देखते रहे!
करीब पौना घंटा बीता, न बारिश बढ़ ही रही थी, न कम ही हुई थी, कभी-कभार तेज बौछार पड़ने लगतीं और कभी एकदम से सूखा सा पड़ जाता था!
तभी मेरी नज़र, दूर एक जगह पड़ी! दूर कोई था, छोटा दिखाई दे रहा था, लेकिन कोई तो था वहां!
"वो क्या है शर्मा जी?" मैंने इशारा करके पूछा,
"कहाँ?" बोले वो,
"वो, सामने से पूरब में? दायें?" कहा मैंने,
वो खड़े हो गए, मैं भी खड़ा हो गया!
सामने लगता था कि जैसे दो किशोरियां हैं, सर पर कुछ सामान सा लिए, आपस में बातें करते हुए, उनके वस्त्र बड़े ही अजीब से थे, जैसे लबादा सा धारण किया हो उन्होंने, लाल रंग का! बीच बीच में पेड़-पौधे हिलते और वो नज़रों से दूर हो जाया करती थीं, वो खड़ी हुई बतिया रही थीं, जैसे बारिश से अनजान हों बिलकुल!
"लड़कियां लगती हैं?" बोला मैं,
"हाँ, लड़कियां ही हैं!" बोले वो,
"आओ, चलो फिर!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम, दौड़ पड़े उनकी तरफ, वे अनजान थीं हमसे, न देख ही रही थीं हमें आते हुए, न ध्यान कहीं और ही था उनका!
हम करीब दस मिनट में उनके करीब पहुंचे, कुछ पेड़ों के झुरमुटों के बीच में खड़े हो गए थे, हालांकि बातें नहीं सुनाई दे रही थीं, लेकिन अब साफ़ दिखने लगी थीं वो हमें, उन दोनों ने ही लबादा पहन रखा था, लाल रंग का, कमर में उसी कपड़े से वो लबादा पहन रखा था, नीचे पांवों तक था वो लबादा, एड़ियां ही दीख रही थीं, ऊपर, गर्दन तक कसा हुआ था वो, सर पर गठरियाँ सी थीं उनके, गांठें बंधी थीं उनमे, केश उनके बंधे हुए थे, कद-काठी लम्बी थी, देह भारी और मज़बूत थी उनकी, एक लड़की का चेहरा दीख रहा था, सांवले रंग की थी वो लड़की, कानों में, आभूषण चमक रहे थे, चांदी के, गले में कुछ मालाएं पहन रखी थीं, हाथों में, कपड़े बंधे हुए थे, जैसे रुमाल बाँध लिया जाता है, ठीक वैसे, दूसरी का चेहरा नहीं दीख रहा था, उसका पृष्ठ भाग ही था हमारी तरफ!
आयु में सत्रह या अठारह वर्ष की रही होंगी वो, इस से अधिक नहीं,
"ये हैं वो किशोरियां!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
तभी बौछार बढ़ी! बारिश पड़ी तेज! लेकिन उन पर कोई छींटा न गिरा! एक कहे जाए कुछ और दूसरी गर्दन और चेहरा हिलाये जाए!
"आओ, धीरे!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
तब हम आराम आराम से आगे बढ़े, अब फांसला दस फ़ीट का ही रह गया! लेकिन आवाज़ अभी भी न आई हमें बतियाने की!
"रुको!" कहा मैंने,
वो झट से रुक गए!
उन लड़कियों ने पलट कर हमारी तरफ देखा! हम जहां थे, वहीँ ठिठक कर रह गए, उनकी नज़रें हमें ढूंढ़ती रहीं, लेकिन हम, उन्हीं पेड़ों के बीच छिप कर खड़े रहे! कुछ देर ढूंढने के पश्चात, फिर से बातों में तल्लीन हो गयीं वो! हमारी साँसों में सांस आई फिर! अब मैंने इशारे में बात शुरू की उनसे, पलट कर, उनके और करीब जाकर, देखने को कहा, वे मान गए,
हम धीरे धीरे, दबे पाँव, आगे बढ़ते रहे, कभी कभार कोई लकड़ी पाँव के नीचे आ जाती, कड़क जाती तो रुक जाते, हाथ से उठा कर, उसको एक तरफ रख देते थे! अब फांसला कम होने लगा, हम करीब छह फ़ीट तक आ पहुंचे थे, अब साफ़ दिखने लगी थीं वो! लड़कियां बेहद सुंदर थीं, उनकी लम्बाई छह फ़ीट से अधिक लम्बी थी, मुझ से भी अधिक लम्बी! देह मज़बूत थी, पहले इंसान मेहनतक़श हुआ करता था, इसीलिए देह उसी अनुसार ढल जाया करती थी, कलाइयां, हाथ, बाजू, कंधे, कमर, जंघाएँ सब मज़बूत रहा करती थीं! आजकल की तरह से बेडौल देह नहीं हुआ करती थीं! अब बात भी सही है, हम रोगों को खुद ही आमंत्रित किया करते हैं, दिन-चर्या ऐसी ही बना ली है हमने! रास्ते छोटे हो गए, समय कम हो गया लेकिन, हम असल ज़िंदगी से दूर हो गए!
"श्ह्ह्ह्ह!" कहा मैंने, ऊँगली, अपने होंठों पर रखते हुए,
वे चुप ही रहे,
आगे बढ़े हम, चुपके चुपके,
बारिश पड़ रही थी, चेहरे पर पानी टपक जाता था, पोंछना पड़ता था बार बार! बड़ी ही खीझ उठती थी इस से!
"आओ?" कहा मैंने हल्के से,
और हम चल पड़े आगे के लिए,
फांसला, और कम हुआ,
और मैं एक झटके से, उनके बाएं आ खड़ा हुआ! उन्होंने जैसे ही मुझे देखा, वो चौंकीं! दोनों एक साथ ही खड़े हो गयीं, पोटली सर से उतार, कमर से सटा लीं!
"डरें नहीं! क्षमा करें!" मैंने धीरे से कहा,
वे घबरा गयी थीं, बार बार मुझे और मेरे पीछे देख रही थीं, कि जैसे कोई नज़र आये तो मदद को पुकारें किसी को!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
उन्होंने एक दूसरे को देखा एक झटके से, फिर मुझे, लेकिन कोई जवाब नहीं दिया!
"बताएं?" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं! घबराई हुई ही खड़ी रहीं!
"मैं कोई अहित नहीं करूँगा, बताएं, कौन हैं आप?" पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
मैं थोड़ा आगे बढ़ा, तो वो सिमटीं अपने आप में!
"बताएं?" कहा मैंने,
"बछिंदर?" एक चिल्लाई!
और दोनों ही भाग छूटीं वहाँ से!
मैं भी भागा उनके पीछे, लेकिन वो इतनी तेज, कि एक झुरमुटे के पास से गायब हो गयीं! मैं रुक गया वहां!
शर्मा जी भी अ आगये दौड़े दौड़े!
"कहाँ गयीं?" बोले वो,
"यहाँ से गायब हो गयीं!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
न कोई पांवों के निशान न कोई अन्य निशान!
"यहां से, मतलब, कूद गयीं कहीं?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
अब आसपास टटोला! कुछ भी नहीं! बस पत्थर ही पत्थर!
सहसा एक नाम याद आया मुझे!
बछिंदर!
"बछिंदर! हाँ! ये नाम बोला था एक ने!" कहा मैंने,
"बछिंदर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसका मतलब, यहां है बछिंदर कोई!" बोले वो,
"हाँ, कोई तो है!" कहा मैंने,
"आप उधर देखो, मैं इधर!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और हो लिए अपनी अपनी राह!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जहां मैं गया, वहाँ बस पत्थर, लकड़ियाँ, झाड़ियाँ ही थीं, और कुछ नहीं! बारिश ज़ोर पकड़ने लगी थी, मैं तो भीग ही चला था, हवा चलती तो हलकी फुरफुरी सी भी दौड़ उठती थी बदन में! यही कुछ हाल शर्मा जी का भी था, अब बारिश तंग करने लगी थी, कुछ बरसाती कीड़े-मकौड़े भी उड़ उड़ कर हमारे कपड़ों में आ घुसने लगे थे, अब कुल मिलाकर, वहां रुकना ठीक नहीं था, पता नहीं बारिश कब रुके और कब नहीं, क्या पता शाम तक ही चले, इसीलिए मैंने तो वापिस जाने का ही निर्णय ले लिया था! वापिस हुआ मैं,
"शर्मा जी?" चिल्ला के आवाज़ दी,
कोई आवाज़ नहीं आई,
"कहाँ हो?" फिर से चिल्ला के पूछा,
"आ रहा हूँ!" बोले वो,
और तब वो आ रहे थे सामने से,
"कुछ दिखा?'' पूछा मैंने,
"कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"चलो अब, बारिश तेज है और मौसम खराब!" कहा मैंने,
"चलो, पता नहीं कब रुके!" बोले वो,
हमने चेहरे पोंछे अपने, और चल पड़े वापिस,
"ऐसा नहीं पता था!" कहा मैंने,
"कैसा?'' बोले वो,
"कि ऐसा हाल होगा बारिश में!" कहा मैंने,
"हाँ, चौमासे की सी हो रही है!" बोले वो,
"चलो, दौड़ पड़ो!" बोला मैं, और दौड़ लिया,
अब तक, मिट्टी पर, पानी जमा होने लगा था, कीचड़ जमने लगी थी!
आखिर में, हम आ गए मोटरसाइकिल तक, स्टार्ट की, और बड़ी मुश्किल से कीचड़ में से निकाली, हैंडल कांपने लगता था उसका, कहीं कहीं तो स्लिप ही होने लगती थी! किसी तरह से सड़क पकड़ी हमने!
जैसे ही सड़क पर आये, तेज बारिश की बौछारें पड़ने लगीं! बहुत तेज!
"अच्छा हुआ न, निकल आये?' कहा मैंने,
"हाँ, बुरा हाल हो जाता वहां तो!" बोले वो,
"हाँ, अंदेशा हो लिया था मुझे!" कहा मैंने,
बातें करते कटे, हम वापिस आ गए घर, मोहर सिंह कहीं बाहर गए थे, सतीश मिला घर में, बातचात हुई, पहले तो स्नान किया और फिर कपड़े पहन, आराम से कमरे में आ बैठे, बाहर बारिश बढ़िया पड़ने लगी थी!
"आज नहीं रुकने वाली!" कहा मैंने,
"लगता तो यही है!" कहा मैंने,
"इतने बादल कहाँ से आ गए?" बोले वो,
"गरमी बहुत थी!" कहा मैंने,
"हाँ, यही कारण है!" बोले वो,
तभी चाय आ गयी, सतीश से बातें हुईं, अब सतीश सामान्य था, उसका हँसमुखपन वापिस आ गया था! और ये अच्छी बात थी!
"मोहर जी कहाँ गए?" पूछा मैंने,
"शहर गए थे" बोला वो,
"क्या करने?" पूछा मैंने,
"कोई मिलने वाला है उनका" बोले वो,
"अच्छा, तो आएंगे या नहीं?" पूछा मैंने,
"मौसम खराब है, पता नहीं!" बोला वो,
हाँ, पता नहीं था कि आएंगे या नहीं, मौसम तो खराब था ही!
संध्या हुई,
फिर रात हुई,
भोजन किया और फिर बिस्तर पकड़ा!
रात भर बारिश की झम झम सुनाई देती रही!
सुबह उठे तो पानी भर चला था वहाँ! रात भर बढ़िया बारिश हुई थी, स्नान-ध्यान से निबटे और फिर चाय-नाश्ता किया, मोहर सिंह नहीं आ पाये थे, करीब नौ बजे, बारिश मंद हुई, लेकिन बादल बने हुए थे! दिन के दो बजे करीब, सूरज की किरणें ज़मीन पर पहुंचीं! और फिर हुई गरमी की त्रासलीला आरम्भ! नमी ही नमी! उमस ऐसी कि जान ही ले ले, बाहर हवा चल रही थी, लेकिन नमी भरी! नमी में स्नान से आराम मिलता है, स्नान भी कर लिया, लेकिन फिर वही उमस! उस हम तो कहीं न जा सके हम!
उस रात भी हमने कल का इंतज़ार ही किया!
अगली सुबह!
सुबह खुशगवार थी! मौसम आज बढ़िया था, नमी नहीं थी, हवा भी ठंडी ही थी! आज वहाँ जाया जा सकता था! अब तो वहाँ कीचड़-काचड़ भी नहीं मिलता! तो हमने, चाय-नाश्ता किया, नाश्ता ज़रा भारी ही लिया था, दोपहर तक आना था वापिस, इसीलिए!
तो हम, करीब नौ बजे, निकल पड़े वहाँ के लिए!
वहाँ पहुंचे, रास्ता पहचानते ही थे, कोई मुश्किल नहीं आई सामने!
एक जगह मोटरसाइकिल रोक दी, पानी निकाला बैग से और पानी पिया, एक बोतल वहीँ रहने दी, और एक साथ में ले ली!
चल पड़े हम उस तरफ के लिए!
वहाँ पहुंचे, पहुंचे तो हुए सन्न!
न उन्हें यक़ीन! न मुझे यक़ीन!
वो लिंगम्?
कहाँ गया?
न उखाड़ने के निशाँ थे और न धंसने के ही?
जगह तो वही थी?
वही पेड़, वही टीला?
फिर वो? लिंगम्?
कहाँ गया? कौन ले गया?
न आसपास ही था, न कहीं दूर?
और फिर, स्थान भी वही?
वो लकड़ियाँ भी वहीँ?
तो फिर कहाँ गया?
हम नीचे बैठ गए!
हाथों से, छूकर देखा वहां! कोई चिन्ह नहीं!
"ये ही जगह है न वो?" कहा मैंने,
"हाँ, शर्तिया?" बोले वो,
"तो लिंगम्?" कहा मैंने,
"अजीब बात है!" बोले वो,
"ऐसा कैसे सम्भव है?" बोला मैं,
"कोई और तो नहीं आया?" बोले वो,
"आता, उखाड़ता, निशान तो होते?" बोला मैं,
"हाँ, यहां तो कुछ भी नहीं?" बोले वो,
"ये क्या माज़रा है?" बोला मैं,
"अजब ही है!" बोले वो,
मैं खड़ा हुआ, वो भी खड़े हुए, आसपास नज़रें दौड़ायीं! कुछ भी नहीं!
"एक काम करो आप!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"आप ज़रा हटो यहां से!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"मैं दुहित्र-संधान करूंगा!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और वो हट गए, बाएं चले गए, पेड़ के पीछे,
मैं बैठा, एक चुटकी मिट्टी उठायी, मंत्र पढ़ा, और नीचे गिरा दी,
और कर दिया संधान दुहित्र का!
खोले नेत्र!
और दृश्य बदला!
मैंने अपने आपको, पाया, एक भवन में! भवन जो खंडित हो चला था! लाल रंग के पत्थरों से बना भवन! दीवारों में आलों की जगह छेद बने थे! मैं हैरान था! उस भवन में से कोई रास्ता न आता था और न जाता था! वो एक गुंबद सा था! जैसे मैं किसी गुंबद में क़ैद होऊं!
अंदर अँधेरा था, बस सूरज की रौशनी अंदर छन कर आ रही थी उन छेदों से! धूप की वो चमक, परावर्तित हो, अंदर उजाला डाल रही थी, अंदर एक गंध फैली थी, गंध जैसे दीये प्रज्ज्वलित हुए हों! तीखी सी गंध! मैं एक छेद के पास गया, बाहर झाँका, छेद पर काजल चिपका हुआ था, काजल की गंध आ रही थी उसमे से, कुछ फूलों की सूखी पत्तियां उस काजल से चिपकी हुई थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो काजल ऐसा लगता था कि जैसे पिछली रात को ही बनाया गया हो, बनाया नहीं, खुद ही बन गया हो, उसमे चिपकीं वो फूलों की पत्तियां सूखी हुई थीं, मैंने कुछ पत्तियां उठायीं, खींची उस काजल से, तो वो गेंदे के फूल की और मधुमालती के फूलों की सी लगीं, यहां मधुमालती मिलती हो, ऐसा तो लगता है नहीं था, हाँ, गेंदा तो हर जगह मिल जाता है, गरम प्रदेश का फूल है, इसका पौधा, अक्सर कहीं भी फल-फूल जाता है, उसका तो माना जा सकता था और समझ में भी आता था! खैर, मैंने आगे देखा, सामने की तरफ, सामने एक चौपाल सी बनी थी, कच्ची मिट्टी की, बेहद ही शानदार लीपी गयी थी, और जो आकृति उस पर बनी थी, वो एक गाय की थी, गाय भी कोई ऐसी वैसी नहीं, कामधेनु गाय! वो कला बेहद ही शानदार थी! जैसे अभी ही बोल पड़ेगी, सफेद रंग से बनी थी, जैसे कि सफेद सी खड़िया से बनायी गयी हो! उसके अंदर की तरफ, छाया देते समय, पीले रंग का प्रयोग हुआ था! दूसरी दीवार पर, फूल बने थे, उन फूलों के बीच में, कन्याएं खड़ी थीं, हतहों से फूल गिराते हुए! पवित्र माहौल था वहां का! लिपाई इतनी शानदार थी कि जैसे किसी कुशल महिला ने मन से लीपा हो उसे! बीच में जो प्रवेश-द्वार था, उसके चारों तरफ, पीले रंग की एक मोती सी रेखा थी, फिर उसके ऊपर, एक सफेद रेखा और फिर एक पीली रेखा, उनको बीच बीच में, जोड़ा गया था वलयदार रेखा से! लगता था कि जैसे कोई सर्पाकृति हो वो! मंत्रमुग्ध कर देने वाला स्थान था वो! एक ऐसा स्थान, जहां जाते ही, शुद्धता, स्वच्छ्ता और पवित्रता अपने आप ही व्यक्ति में भर जाए, उनका समावेश हो जाए! मैं तो मुस्कुरा ही पड़ा था उसको देख कर! भूल गया था पल भर के लिए कि मैं उस गुंबद में क़ैद हूँ! और जब ध्यान आया, तो पीछे हटा, ढूंढने लगा बाहर जाने का रास्ता! अचानक से मेरे पीछे एक तेज रौशनी उठी, मैं जैसे ही मुड़ा, मेरी आँखें चुंधिया गयीं! बंद हो गयीं! और जब खोली आँखें तो सामने मेरे शर्मा जी खड़े थे, मुझे आवाज़ें देते हुए! जैसे ही होश में आया, सब गायब हो गया! जैसे मैं कहीं दूसरी जगह से यहां इस वीराने और उजाड़ में ला पटका होऊं!
"क्या हुआ?'' उन्होंने पूछा,
मैं अवाक था! हैरान!
पल भर के लिए, कुछ न कह सका!
अभी तक जैसे मैं, उसी गुंबद में क़ैद था!
"क्या हुआ?" बोले वो,
अब मैंने उन्हें सब बताया! सब का सब! वे भी हैरान!
"क्या यहीं सब कुछ?" बोले वो,
"हाँ, यहीं!" कहा मैंने,
"किधर?" पूछा उन्होंने,
"शायद, उधर!" कहा मैंने, इशारा करते हुए!
"तो चलो उधर?" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
हम दौड़ पड़े वहां के लिए, वहाँ पहुंचे,
"यहीं थे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, यहीं!" कहा मैंने,
"यहां तो कुछ नहीं?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
और तब मैंने कलुष-संधान किया, सम्भव था, जो दुहित्र ने पकड़ा था, कलुष भी पकड़ सकता था!
कलुष का संधान किया मैंने, और नेत्र पोषित किये अपने और शर्मा जी के, और खोले नेत्र! दृश्य स्पष्ट हुआ! और इस बार, कलुष की पकड़ में कुछ आया!
"वो देखो!" कहा मैंने,
"झोंपड़ी?" बोले वो,
"हाँ, आओ!" कहा मैंने,
हम दौड़ पड़े, झोंपड़ी दूर थी, हम दौड़े, लेकिन झोंपड़ी, दूर ही हुए जाए! जितना हम आगे चलें, उतना ही आगे हो वो! ये क्या? ये कैसी माया?
"ये क्या?" बोले वो,
"पता नहीं शर्मा जी?" बोला मैं,
"कुछ तो है?" बोले वो,
"हाँ, कोई भटका रहा है!" कहा मैंने,
"क्या करें?" बोले वो,
"आगे चलिए!" कहा मैंने,
तो अब हम, झोंपड़ी को नज़रों में बांधे आगे बढ़ते गए!
"रुको?" बोले वो, मेरा हाथ पकड़ते हुए!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"सुनो ज़रा?" बोले वो,
मैंने कान लगाये!
"कुछ सुनाई दिया?" बोले वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"ध्यान से सुनिए न?" बोले वो,
"और कितना ध्यान से?" कहा मैंने,
"सुनो तो सही?" बोले वो,
मैंने ज़ोर लगाया, सुना, कुछ न सुनाई दिया!
"सुना?" बोले वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"कुछ भी नहीं?" बोले वो,
"ना?" कहा मैंने,
"इधर आओ!" बोले वो,
और मुझे एक जगह खड़ा किया, अब आँखें बंद कर, सुनो ज़रा?" बोले वो,
ध्यान से सुना!
और इस बार, कुछ अति-मद्धम सी आवाज़ आई मुझे!
"क्या सुनाई दिया?" पूछा उन्होंने,
"जैसे पानी बह रहा हो, कल-कल!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"लेकिन? यहां पानी कहाँ?" पूछा मैंने,
"यही तो सवाल है?" बोले वो,
मैं घूमा पीछे, पीछे देखा, कुछ नहीं!
"आगे देखते हैं!" बोले वो,
हम आगे चले, रुके, आवाज़ थोड़ा तेज हुई,
हमने पीछे देखा,
और जैसे ही देखा!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जैसे ही पीछे देखा हमने, हमारे तो होश उड़े! ऐसा तो हमने कहीं भी नहीं देखा था! ऐसा कैसे संभव था? वहाँ एक पेड़ लगा था, उसी पेड़ की शीर्ष से पानी की एक धार नीचे गिर रही थी! जैसे भगवान शिव की जटा से, श्री गंगा जी फूट कर अवतरित हुआ करती हैं!
"ये?" मेरे मुंह से निकला,
शर्मा जी अवाक! सन्न!
"ये क्या देख रहा हूँ मैं?" कहा मैंने, जैसे अपने आप से,
वो पानी की धारा, किसी फव्वारे की तरह से, उस पेड़ के शीर्ष से फूट रही थी, संग उसके, कुछ अन्य सह-धाराएं भी कभी-कभी फूट पड़ती थीं! उस पेड़ की डालों पर पानी बह निकला था, पूरा पेड़, जैसे बारिश में नहाया था! पक्षीगण आमोद-प्रमोद में मग्न थे, वे बार बार उड़ते, और बैठते थे, तोते ऐसे चिल्ला रहे थे जैसे उन्हें किसी रेगिस्तान में कोई नख़लिस्तान मिल गया हो!
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"अद्भुत! बस अद्भुत!" कहा मैंने,
मैं आगे बढ़ चला! मंत्रमुग्ध सा! आगे, और आगे! वो पेड़ मुझे जैसे खींचता जा रहा था अपनी ओर! संग मेरे शर्मा जी के भी पाँव खिसकने लगे आगे! अब जल के ठंडे ठंडे छींटे हमारे ऊपर पड़ते जा रहे थे! ऐसी आनंदानुभूति हो रही थी किस जैसे हम कल्प-वृक्ष के नीचे खड़े हों!
"क्या ऐसा कभी देखा है?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, कभी नहीं!" कहा मैंने,
"कभी कल्पना भी नहीं की!" बोले वो,
"ऐसा कैसे सम्भव है?" पूछा मैंने,
"हम वहाँ नहीं हैं शायद, जहां थे!" बोले वो,
एक धारा फूटी और सीधा हमारे सर पर पड़ी! जल ऐसा ठंडा की फुरफुरी सी छूट पड़ी हमारी!
"हाँ सत्य कहा!" बोला मैं,
"ये किसी के तपोबल का प्रभाव है!" बोले वो,
"हाँ, कैसा विलक्षण साधक होगा वो!" मन ही मन सोचा मैंने!
"है या नहीं?" फिर से पूछा उन्होंने,
"हाँ! सच में!" कहा मैंने, होश में आते हुए!
"कौन हो आप?" आई एक आवाज़!
हमने चौंक के देखा पीछे!
एक किशोर था वो! केश नहीं थे मुंड पर, एक चुटिया रखी थी उसने, दुर्बल से शरीर का था वो, परन्तु अत्यंत ही तेजवान! आयु में, मात्र चौदह या पंद्रह वर्ष का रहा होगा, उस से अधिक नहीं! श्वेत वस्त्र पहने थे उसने, कमर में नीचे धोती थी, चमाटी के से रंग की, कमर में, लाल रंग और काले रंग के धागे बांधे हुए थे, मस्तक पर, चंदन से बना टीका लगाये था, कानों में, ऊर्जाष की लकड़ी पिरो रखी थी उसने! उस रूप बेहद चित्ताकर्षक था!
"कौन हैं आप?" उसने पुनः प्रश्न किया,
"हम नवागन्तुक हैं भदंत!" कहा मैंने,
"कहाँ से आये हैं?" पूछा उसने,
"यहीं, पास में से ही!" कहा मैंने,
"नृजापुजिका के यहां से?" पूछा उसने,
नृजापुजिका?
ये नाम तो सुना ही नहीं था हमने!
ऐसा कठिन सा शब्द? क्या अर्थ हुआ इसका?
"नहीं भदंत! हम परदेसी हैं!" कहा मैंने,
"ओह! आइये, बाबा हरलोमिका के व्य्वंघ(लघु-आश्रम) में आपका सौहार्दिक स्वागत है!" बोला वो,
वो सच में, सुहृदय था! इसमें कोई संदेह नहीं! जिस भाव से, उसने हमारा संवाद सुना था, अर्थपूर्ण भाव से, हम सच में, ऋणी हो चले थे उसके! वो आयु में भले ही कमतर था, परन्तु शिक्षण और व्यवहार में, हमसे कहीं अधिक आगे था! विशुद्ध संस्कारों से युक्त था! हमारे उत्तर तो जैसे लट्ठमार जैसे लग रहे थे उस समय!
व्य्वंघ! ये शब्द मैंने अभी तक, मात्र मंत्रों और लेखों में ही पढ़ा था, और कहीं नहीं, अब इस शब्द का प्रयोग ही नहीं होता! अब लघु-आश्रम ही प्रयुक्त होता है! तंत्र में, ऐसा कोई स्थान नहीं है, तो, इसका अर्थ ये हुआ की, ये सात्विक-आश्रम था! बाबा हरलोमिक का आश्रम! सात्विकता का मान रखना होता है! इसीलिए, हम अब चौकस हो चले थे!
"आएं, यहां आएं!" उस किशोर ने कहा,
वो किशोर, एक पगडंडी पर, आगे चला जा रहा था, हम उसके पीछे पीछे!
"यहां से बाएं!" बोला वो,
हम उसके साथ ही घूमे!
अब ये क्या?
ये कहाँ से आया?
अनार के वृक्ष?
केले के वृक्ष?
कल तक तो यहां कुछ नहीं था?
केवल पत्थर और उजाड़?
कहीं ये.................
बाबा हरलोमिक का प्रभाव तो नहीं?
हाँ! हाँ! सम्भव है!
सकते में आ गए हम तो!
लगा, भूतकाल सजीव हो उठा है!
और हम, पर्दा-फाड़, उसमे जा घुसे हैं!
"आपका नाम क्या है भदंत?" पूछा मैंने,
"ऋतुवेश श्रीमन!" बोला वो,
"आपके अतिरिक्त और कौन कौन है वहां?" पूछा मैंने,
"अभी तो, मैं और हिरानु ही हैं!" बोला वो,
"हिरानु?" पूछा मैंने,
"हाँ, शेष हम ही हैं!" बोला वो,
"क्या कोई शिक्षण कार्य होता है वहां?" पूछा मैंने,
"नहीं श्रीमन! ये विश्रामशाला है!" बोला वो,
मेहँदी की तीव्र सुगंध उठ रही थी! केवड़े की गंध, हर जगह फैली थी!
"तो विश्रामशाला में मात्र दो ही आप?' पूछा मैंने,
"सन्ध्यावसान पश्चात, सभी आ जाएंगे श्रीमन!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आइये!" बोला वो,
और मैं रुका!
ठिठक गया!
ये तो वही था!
वही, वही चौपाल सा! जो मैंने देखा था!
"क्या हुआ श्रीमन?" पूछा उसने,
"क...कुछ नहीं!" मेरे मुंह से निकला,
"आएं फिर?' बोला वो,
"ह.....हाँ!" कहा मैंने,
शर्मा जी, लपक कर मेरे पास आये,
"क्या हुआ?" फुसफुसा के पूछा उन्होंने,
"ये, वही है!" कहा मैंने,
"क्या वही?" पूछा,
"वही, चौपाल!" कहा मैंने,
"गुंबद से जो देखा था?" पूछा,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"ये अच्छा हुआ!" बोले वो,
"कुछ है क्या श्रीमन?" रुक कर पूछा किशोर ने,
"नहीं भदंत!" कहा मैंने,
"बस, निकट ही है!" बोला वो,
"उचित है!" कहा मैंने,
और हम आगे बढ़ते रहे!
"आइये! वो, वो रहा स्थल!" बोला वो,
क्या स्थल था वो!
आम के छोटे छोटे पेड़!
आम्र-मंजरी से लदे हुए!
भंवरे, तितलियाँ, भृंग आदि सब मग्न!
सुगंध!
"आएं!" बोला वो,
और हम, कच्ची मिट्टी से बनी हुई, वो सीढ़ियां चढ़े!
"इधर!" बोला वो,
हमने, वहाँ अपने जूते उतार दिए! कच्ची मिट्टी की सुगंध फैली हुई थी, गोबर-मिश्रित सुगंध!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आइये!" बोला वो, और अपना कुछ सामान, जो कंधे पर लटकाया हुआ था, नीचे रख दिया उसने, एक तरफ! और हम चल पड़े उसके साथ ही! एक जगह से गुजरे तो एक बड़ी सी हाथ से चलने वाली चाकी दिखाई दी, अभी तक अन्न का अंश मौजूद था उस पर! शायद कुछ देर पहले ही अन्न पीसा गया था उस पर!
उसके बाद, हम एक खुली सी जगह पर आ गए, वहां, कुशा की, घिस कर नरम की हुई घास से बनी हुई चटाई पड़ी थी, वहां की ओर चले!
"स्थान ग्रहण करें!" बोला वो,
हम बैठ गए उस पर! मिट्टी की सौंधी सौंधी महक ऐसी प्यारी लगे कि जी करे, कच्ची मिट्टी के ढेले ही खा लिए जाएँ! ऐसा ही स्वाद आ रहा था मुंह में!
"आप बैठें, मैं जलादि लाता हूँ!" बोला वो,
और चला गया, जहाँ से आया था, उस से से विपरीत!
"कैसा मनमोहक स्थान है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, इस संसार पर स्वर्ग जैसा!" कहा मैंने,
"हाँ, निःसंदेह!" बोले वो,
"ये बाबा हरलोमिक का स्थान है!" कहा मैंने,
"हाँ, पावन स्थान!" बोले वो,
"परन्तु?" बोला मैं,
"क्या परन्तु?" विस्मित से होकर, पूछा उन्होंने,
"ये विश्रामशाला है न?' पूछा मैंने,
"हाँ? तो?" बोले वो,
"तो मुख्य-स्थल कहाँ है?'' कहा मैंने,
"ऋतुवेश को आने दीजिये, मैं पूछ लूंगा!" बोले वो,
कुछ ही देर में, ऋतुवेश, पानी ले आया, कच्ची मिट्टी को पकाकर, वो बर्तन बनाये गए थे!
"ये लें आप!" बोला वो,
मैंने जल लिया, शर्मा जी ने भी लिया, और पीने लगे, जैसे ही जल होंठों से लगाया, वहिसे ही ऋतुवेश ने, अपने दोनों हाथ, अपने सर पर रख लिए! ये व्यवहार, उच्च-कोटि का होता है, इसका अर्थ है, कि यदि जल विषाक्त हो, मदाक्त हो, मद्यमिश्रित हो, तो उसका फल, जल देने वाले को लगे! अतिथि को नहीं!
"और ग्रहण करेंगे?" पूछा उसने,
"हाँ, कुछ और!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
और मिट्टी के बर्तन में से ही, जल परोस दिया फिर से उन पात्रों में! हमने पात्र, वापिस कर दिए! उसने रख लिए!
"ऋतुवेश?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोला वो,
"आप भी स्थान ग्रहण करें?" बोले शर्मा जी,
"अवश्य! गौ-स्थल पर्यवेक्षण पश्चात, मैं आता हूँ! क्षमा चाहूंगा!" बोला वो,
"क्षमा जैसी कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"मैं शीघ्र ही आता हूँ!" बोला वो, और चला गया!
इस बार, एक सरकंडा भी ले गया था साथ में, वो सरकंडा था या बांस छोटा सा, पतला सा, पता नहीं चला था!
"उच्च-संस्कारयुक्त एवं उच्च-पाविक क्षेत्र है ये!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"अब ऐसा कहाँ बचा है?" कहा मैंने,
"अवसान हो गया है!" बोले वो,
"सत्य है, यही है शुद्ध आर्यता!" कहा मैंने,
"हाँ यही है वो आर्यव्रत!" बोले वो,
तभी पायल की आवाज़ हुई!
हम हुए चौकस!
संतुलित कर लिया अपने आपको हमने!
निःसंदेह, कोई स्त्री ही थी वो!
और तब, एक कन्या आई वहां! पीत-वस्त्रों में! दुग्ध सा वर्ण उसका! चेहरा ढका हुआ हाथों के सहारे से, एक लाल वस्त्र से! हाथ में एक कच्ची मिट्टी की तश्तरी सी लिए, हमारे सामने रखी वो तश्तरी उसने! उसमे, बेर थे, लाल लाल और पीले पीले! ये झड़बेरी लगती थी!
"आप?'' कहा मैंने,
"हिरन्या, हिरानु!" बोली वो,
"आपका धन्यवाद!" कहा मैंने,
और उसने, फिर एक सकोरा रख दिया पास में हमारे, शायद, बेर की गुठलियों के लिए!
"आपने जल ग्रहण किया?'' पूछा उसने,
"हाँ, कुछ स्वंय ही पहले!" कहा मैंने,
"अन्य कुछ आवश्यकता?'' पूछा उसने,
"नहीं हिरन्या!" कहा मैंने,
वो खड़ी हुई, पीछे क़दम चली, मुड़ी और चली गयी!
अब देखी तश्तरी, उसमे, कुछ पत्ते रखे थे, पत्तों के ऊपर वो बेर थे, मैंने पत्ता उठाया तो वो मुझे कुछ कुछ काठगूलर का सा लगा!
"काठगूलर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसका अर्थ हुआ, कि प्रकृति ने सब बदल दिया!" बोले वो, एक बेर खाते हुए!
"हाँ, परिवर्तन, प्रकृति का अटल नियम है!" कहा मैंने,
"हाँ, ऋतुवेश जैसा और इस कन्या जैसा, आज तो सम्भवतः जीवित ही न बचे!" बोले वो,
"इसमें कोई शक़ नहीं!" कहा मैंने,
तभी बाहर, गौ जाती दिखाई दीं, उन झरोखों से, जो दीवार में बने थे, चौकोर और बीच में गोल गोल छेद!
बाहर लगता था जैसे, हम स्वर्ग के किसी ग्राम में आ पहुंचे हैं! मैं उठा और बाहर झाँका, जैसे ही झाँका, फिर से मंत्रमुग्ध हो गया!
"यहां आओ!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" पूछा मुझसे,
"देखिये तो?" कहा मैंने,
बाहर झाँका!
एक एक पेड़ के शिखर से, जल-धारा फूट रही थी!
"अद्भुत! अद्भुत!" बोले वो,
मैं तो, मंत्र-पीड़ित सा हो चला था!
"ये निःसंदेह सत्य ही रहा होगा!" कहा मैंने,
"हाँ! सत्य!" बोले वो,
''अरे? वो देखो?" कहा मैंने, बालक की तरह से प्रफुल्लित होते हुए!
"वो क्या है?" पूछा उन्होंने,
"क्या हिम-शैल है?" पूछा मैंने,
"नहीं, कहीं कपास तो नहीं?" बोले वो,
"नहीं! ऐसा दैदीप्यमान?" कहा मैंने,
"बाहर आना ज़रा?'' बोले वो,
हम झट से बाहर चले!
वहां देखा!
पेड़ के पास, एक ढेर लगा था, जैसे कोई हिम-शैल हो!
"थोड़ा आगे चलो?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम दौड़ पड़े वहां के लिए!
और तब समझ आया!
"ये तो, फुहार से बना आवरण है!" कहा मैंने,
"हाँ! वही है!" कहा उन्होंने!
"परन्तु? नारंगी प्रकाश?" कहा मैंने,
"ये नहीं समझ आया!" बोले वो,
और तभी, वो प्रकाश धूमिल हो गया! हम दूर हटे! जल की बौछारें पड़ने लगीं!
"आओ!" बोले वो,
और हम वापिस हुए तब!
आ गए उसी स्थल के अंदर!
"यहां तो महामाया है!" बोले वो,
"यही लगता है!" कहा मैंने,
"यहां, प्रकृति अपने नियम भूल गयी है!" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''वो क्यों?" पूछा उन्होंने,
"प्रकृति प्रदत्त ही है ये सबकुछ!" कहा मैंने,
"ये सही कहा आपने!" बोले वो,
मैंने कुछ बेर उठाये, और एक एक कर, चबाने लगा! खोया हुआ! न यहां का, न वहां का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस समय दिन के कोई दो या तीन ही बजे होंगे, या कुछ कम ही समय रहा होगा, यहां समय का पता ही नहीं चला रहा था, बाहर धूप खिली हुई थी, मनमोहक रौशनी थी बाहर, न अधिक गरमी ही और न अधिक सरदी ही! जैसे अक्सर अक्टूबर के आखिर में मौसम हुआ करता है, ऐसा ही मौसम था वहाँ! हवा में, पावन सुगंध फैली हुई थी! बर्रे, भंवरे, तितलियाँ और भृंग आदि आदि अपने अपने काम में मग्न थे! ऐसे ही एक छेद के पास, एक कलाई मक्खी ने, जिसे हम अंजनन्यारी कहते हैं, अपना घोंसला बनाया हुआ था, घोंसला, मायने एक छत्ता सा, वो बार बार उड़ कर जाती और मिट्टी ले आती थी अपने मुंह में भरकर, गीली मिट्टी, और अपने छत्ते को मज़बूती देती रहती थी! उसका रंग, गहरा काला और श्याम-नील सा था! वैसे तो बड़ी ही ज़हरीली हुआ करती है, काट ले तो समझो न दिन का चयन और न रात की नींद! रक्त में से ऑक्सीजन उड़ा दिया करता है इस विष! बस एक ही दवा है इसकी, आख के पौधे का अर्क! उसे मल लिया जाए, तो पीड़ा तो होती है, परन्तु जैसे उसके विष का वाष्पीकरण हो जाया करता है! खैर,
"आधा घंटा तो हुआ न?'' पूछा मैंने,
"मैं समझा नहीं?" बोले वो,
"ऋतुवेश को गए हुए?" कहा मैंने,
"हाँ, कहीं अधिक!" बोले वो,
अभी हम बातें कर ही रहे थे, कि ऋतुवेश, अपने कंधे पर एक झोला लटकाये आ पहुंचा था वहाँ! देखते ही मुस्कुराया वो और स्थान ग्रहण कर लिया अपना!
"हो गया पर्यवेक्षण?" पूछा शर्मा जी ने,
"जी!" बोला वो, झोला एक खूँटी पर टांगते हुए, खूँटी, जो वहाँ के एक शहतीर से निकली थी, लकड़ी ऐसी चिकनी हो गयी थी उसकी, कि कहीं हाथ रखो, और कहीं जा ढुलके!
तभी हिरन्या वहां आई, जल ले आई थी!
"आप जल ग्रहण करेंगे?" पूछा उसने,
"हाँ, अवश्य ही!" कहा मैंने,
हिरन्या से जल लेकर, मुझे दिया, शर्मा जी को भी दिया!
हमने जल ग्रहण किया! जल का स्वाद बड़ा ही प्यार था, वहीँ कच्ची मिट्टी का स्वाद!
"ये है हिरन्या!" बोला वो,
हाँ, मिल चुके हैं हम!" कहा मैंने,
"मेरी ज्येष्ठ बहन हैं!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ! इस विश्रामशाला की देखभाल, यही करती हैं!" कहा उसने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और आपने माता-पिता?" पूछा मैंने,
"वे दूर हैं यहां से!" बोला वो,
"तो आप शिक्षण हेतु यहां हैं?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
हिरण्य ने पात्र उठाये और चली गयी वहां से!
"आप आएं ज़रा इधर?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम उठे, चले उसके साथ ही, वो आगे आगे, और हम पीछे पीछे!
"वो देखें आप!" बोला वो,
दूर एक पहाड़ी थी, अधिक ऊँची तो नहीं, लेकिन थी पहाड़ी ही!
"हाँ?" कहा मैंने,
"वहाँ कुछ देखा आपने?" पूछा उसने,
"वहां?" कहा मैंने, इशारे से,
"जी, वहाँ!" बोला वो,
"हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
"वो पीत-प्रकाश देखा आपने?'' पूछा उसने,
"हाँ! देखा!" कहा मैंने,
"कौन हैं वहां?" पूछा मुस्कुरा कर उसने!
कौन हैं?
सच पूछें तो, मुझे प्रकाश भी कम ही दिखा था! अब वहां कोई है, ये तो मेरे संज्ञान में था ही नहीं!
"बता सकते हैं?'' पूछा उसने,
"क्षमा कीजिये ऋतुवेश! नहीं बता सकता!" कहा मैंने,
"क्षमा न कहें आप! आप ज्येष्ठ हैं!" बोला वो,
"क्या है वहां ऋतुवेश?" पूछा शर्मा जी ने,
"बगुलावाहिनि! श्री पीतांबरा!" बोला वो!
ओह! हाँ! ये तो ज्ञात है, दतिया में अति-प्राचीन शक्ति-पीठ है माँ श्री बगुलामुखी का! श्री माँ पीतांबरा नाम से प्रसिद्ध हैं वो! इनकी माया अपरम्पार है! माँ बगुलामुखी घोर तामसिक देवी हैं! और माँ पीतांबरा भी! अब जिसकी जैसे श्रद्धा वैसे ही रूप में पूज्य हैं अपने साधक के लिए! इनकी महिमा का गुणगान सर्वत्र प्राप्त हुआ करता है! प्राचीन समय में, श्री राम समय में, श्री राम जी ने, माँ पीतांबरा पूजन किया था, विजय श्री प्राप्त करने हेतु! माँ बगुलामुखी ने, पीतांबरा रूप में अपने दिव्य-दर्शन उन्हें दिए थे, साथ ही साथ विजय श्री का वरदान भी! गीधराज जटायु उस समय, यही के एक पहाड़ पर वास कर रहे थे, इसी स्थान पर, गीधराज से असुरराज रावण का युद्ध भी हुआ था, जिसमे रावण ने जानबूझकर, जटायु का वध नहीं किया था! बस पंख ही काटे थे, ताकि लंका तक का मार्ग, श्री राम जान सकें! सीता-हरण किसने किया, ये स्वयं गीधराज अपने श्री मुख से श्री राम को बता सकें! रामायण कालीन भूमि है ये! दतिया, झांसी, बरुआ-सागर, शिवपुरी आदि आदि! ऋषिमूक पर्वत भी यहीं है, और किष्किन्धा भी यहीं है! श्री केसरी नंदन मारुती श्री हनुमान की जन्म-भूमि भी यहीं हैं, उनका बाल्य-काल यहीं बीता! उनका अल्हड़पन, यहीं निखरा! उनको अपनी विद्याएँ भूलने का श्राप भी यहीं मिला! श्री सूर्यपुत्र जामवंत या जामवनु भी यहीं हुए! उनकी केंद्र आज भी यहीं है! श्री कृष्ण से, जामवनु का युद्ध भी यहीं हुआ! ये भूमि अति-विशिष्ट है! कण कण में रामायण है यहां! श्री राम बसते हैं यहां! बाली-पुत्र अंगद द्वारा उठाया पर्वत और पर्वत से प्रकट करायी नदी भी यहीं है! आज भी यहीं बह रही है!
"हाँ! हाँ ऋतुवेश! जय माँ पीतांबरा!" कहा मैंने,
संग में, शर्मा जी ने भी उस ओर, हाथ जोड़कर कहा!
"बस, उस पार, मेरा ग्राम है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"गत छह वर्षों से यहां हूँ!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"आइये!" बोला वो,
और हम वापिस हो लिए वहां से!
''दिवाःसंधि निकट है!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
दिवाःसंधि!
एक अहोरात्र में, चौबीस घंटे होते हैं! रात्रिमान और दिनमान, दो भाग हुआ करते हैं! ग्रीष्म में, रात्रिमान कम हुआ करता है, फलस्वरूप दिन अधिक लम्बे होते हैं! शीत-ऋतु में, रात्रिमान अधिक हुआ करता है, अतः, दिन छोटे होते हैं! दिनमान का वो भाग जहाँ से, दिन के दो भाग हुआ करते हैं, दिवाःसंधि कहलाता है!
तो अब, ऋतुवेश ने क्यों कहा कि दिवाःसंधि समय है?
जानते हैं?
शायद नहीं!
बताता हूँ!
आज जो लोग, सात्विकता का ढोल पीटते हैं, दरअसल, उन्हें सात्विक-सत्यता का कोई ज्ञान नहीं! बस, कुछ रूढ़िवादी रीत, प्रचलन और परम्पराएँ! जैसे, प्याज न खाएं! लहसुन न खाएं! तीक्ष्ण-प्रकृति वाले भोज्य-पदार्थ त्याज्य हैं! आदि आदि!
दरअसल, दिवाःसंधि दिन का वो भाग है, जब श्री भगवान सूर्य अपने उच्च पर हुआ करते हैं, इस संधि के बाद, उनका अवसान हो जाया करता है या, वो घटने लगते हैं! इस समय, शुभ मुहूर्त अपने आप जन्म लेते हैं! नक्षत्र, जो तीक्ष्ण हैं, आसुरिक हैं सब शुभ-फलदायी होते हैं! उस समय, इस प्रकृति में एक अलग ही रस की उत्पत्ति हुआ करती है! फल, और मीठे, जल और अधिक शीतल, औषधियां और अधिक गुणकारी हो जाया करती हैं! उस समय, स्वर्ग-कपाट खुल जाया करते हैं! स्वर्ग-कपाट से अर्थ है, समूल-शुद्धता! इस समय का पूजन, अपने आराध्य अथवा आराध्या से स्पष्ट रूप से और निष्बाध रूप से होता है! अब आप समझ गए होंगे! सात्विकता, परिधान से नहीं, मन से हुआ करती है! तन तो आपका और मेरा सदैव ही मलिन रहा करता है! अपान-वायु, बाह्य-श्वास, चक्षु-जल, पसीना, मेद, श्लेष्मा, आँतों में अपशिष्ट पदार्थ, कृमि, जो हमारे उदर में वास करते हैं, जिनके बिना, पाचन-तंत्र कार्य ही नहीं करेगा! आदि आदि गंदगी, सदैव ही हमारे साथ रहती है! लार न बने, तो आप बोल नहीं सकते! बलग़म न बने तो आप की श्वास अंदर ही रह जाए! श्लेष्मा न मिले मस्तिष्क को, तो मस्तिष्क तापग्रस्त हो, विस्फोटित हो जाए! यही श्लेष्मा या बलग़म, शीतलता प्रदान करती है इसे!
तो सात्विकता, बाह्य नहीं, अंतःकरण से हुआ करती है!
उसी प्रकार, रात्रि-संधि!
महातंत्र!
सूक्ष्मता पर विजय!
उनसे, वार्तालाप!
आदि आदि!
जितना जान सका हूँ, बता दिया करता हूँ, दावे से कहता हूँ, खोखलापन नहीं जानता! जो पिट-पिट के सीखा, सहज बता दिया करता हूँ! अब चाहे कोई लाख गाली दे! शैल, शैल ही रहता है! मैं शैल तो नहीं, प्रयास तो कर ही सकता हूँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रकृति की गोद में बसा ये स्थान अत्यंत ही अनुपम था! वो शब्द कहाँ ये लाऊँ जिस से उस स्थान का बखान करूँ! न शब्द ही पर्याप्त हैं और न मेरी दृष्टि ही! ये तो वही जाने तो इस स्थान को स्वयं अपनी आँखों से निहारे! और सच कहता हूँ, जो एक बार निहारे, वो यहां से दुबारा जान एक नाम ही न ले! ऐसा हठ जग जाए उसमे! वो वहीँ शैक्षिक हो, ऐसा मन बना ले! सुध-बुध ही खो बैठे! भाड़ में गया वर्तमान समय! भाड़ में गयी आधुनिकता! यहीं का हो कर रह जाए!
"सच में! अद्भुत है!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
मैं उस चटाई पर, लेट गया था, अपने हाथ से टेक लेकर, मिट्टी की सौंधी महक आ रही थी, उस लेपन में, जो भूमि पर किया गया था, उसमे हल्की हल्की लकीरें सी थीं, लकीरें उँगलियों के दरम्यान जो रिक्त-स्थान हुआ करता है उसका! ये अलग ही दीख पड़ता था!
"कौन जाए यहां से वापिस?" बोले वो,
और स्वयं भी लेट गए! टेक लेकर अपनी कोहनी की! हाथ में एक फूस का टुकड़ा था, दांतों से, उसके दो हिस्से करने में लगे हुए थे उसके!
तभी वहां से हिरानु गुजरी, हमने अपनी दृष्टि फेरी और एक दूसरे पर टिका ली, वो हम पर एक नज़र डालती हुई चली गयी, उसके क़दम बड़े ही सधे हुए थे, क़दमों से और कोई आवाज़ नहीं आती थी, बस, उसके पांवों में जो दो पतली सी पायल पड़ी थीं, उनके टकराने की एक मधुर आवाज़ आती थी! उसकी देह कसी हुई और गठावदार थी, तो जैसे ही अपना एक क़दम आगे बढ़ाती, त्वरित बल और पांवों की जड़त्वहीनता से, पायल दब पड़तीं और उनमे एक खनक उत्पन्न हो जाया करती थी! कन्या को पायेजब या पायल पहनाने का भी एक प्रयोजन हुआ करता था, कन्या जब चले, तो खनक की आवाज़ जितनी तेज होगी, उसका गर्भाशय उतना ही सशक्त होगा! चौड़ा होगा, इस से बलशाली और स्वस्थ संतान का जन्म होगा! उन्नत नितम्ब-क्षेत्र और नाभि-क्षेत्र, सन्तानोत्पत्ति में विशेष भूमिका निभाया करते हैं! ये तंत्रोक्त-श्लाघा में वर्णित है! कन्या की रीढ़ सीधी रहे, इसीलिए हाथों में, भारी कंगन, गले में हंसली धारण करायी जाती थी! इस से, गर्भ सदैव सुरक्षित रहा करता है, गर्भाशय में सिकुड़न नहीं रहा करती और किसी भी प्रकार की कोई भी व्याधि उत्पन्न नहीं हुआ करती! हमारे पूर्वज जो भी कुछ किया करते थे वो अपने अनुभव और कसौटी पर जांच कर ही किया करते थे! जिसे आज की पीढ़ी दकियानूसी खयालात, रूढ़िवादिता कहते हैं, उसको वो पहचानते ही नहीं! आज क्यों सीज़ेरियन संतान पैदा हुआ करती हैं? क्यों विवाह-पूर्व ही गर्भ से संबंधित व्याधियां हो रही हैं? क्यों मासिक में अनियमितता हो रही हैं? क्यों देह, कृशकाय हुए जा रही हैं? या क्यों स्थूल हुए जा रही हैं? कारण है, हमारे पूर्वजों द्वारा दिए गए ज्ञान से वंचित रहना! आजकल तो कई इंजेक्शन हैं, वैक्सीन हैं, पहले कहाँ थीं? किसको था पोलियो, रिकेट्स, टाइफाइड, थाइरोइड आदि आदि! ये सब, आधुनिकता के श्रृंगार हैं! अब करो धारण और जियो दवा के सहारे!
शर्मा जी, साठ से अधिक है, कोई चल ले पैदल उनके बराबर! आज भी पंद्रह किलोमीटर एक तरफ से और पंद्रह किलोमीटर दूसरी तरफ से घूम कर आ सकते हैं! मैं भी एक बार को, दो लीटर पानी पी ही जाता हूँ उनके साथ! कुछ आराम भी किया करता हूँ! वो टेक नहीं लगाते कभी! कहते हैं, एक बार कमर को टेक की आदत हुई तो समझो फिर ये बिना टेक के रह ही नहीं सकती! और बात भी सही है! मैं प्रयास करता रहता हूँ! इसका सच में ही लाभ मिलता है! ये तो देह है, कच्ची-मिट्टी, जैसा ढालोगे, ढल जायेगी! रुई बनाई है तो रुई बनेगी, लोहा बनाना है तो लोहा बनेगी! ये तो आपके हाथ में है!
तभी, हाथों में कुछ पकड़े, हिरानु वहाँ आई, रुकी, हम बैठ गए, उसके पांवों को देखा, वो हमारा इतना मान कर रही थी तो उसके मान को सम्मान देना हमारा कर्तव्य भी था!
"ये लीजिये!" बोली वो,
वो दो शिरासन थे, जिन्हें हम तकिया कहते हैं! हमने ले लिए, वो आगे बढ़ गयी फिर, हमने वो तकिये जो कि खजूर के पत्तों को बट कर बनाये गए थे, रख लिए सर के नीचे, सच में ही आराम मिला उस से, अब टेक की आवश्यकता नहीं थी!
मेरी आँख लगी!
आँख लगी तो जैसे मैं किसी उपवन में खड़ा हुआ था! लाल रंग के फूल खिले थे वहां! बड़े बड़े! बड़े पेड़ों पर! मैं पहचान गया था उन्हें! ये सेमल के पेड़ थे! पूरा उपवन उनके चमकदार बड़े बड़े फूलों से लाल हुआ पड़ा था! ज़मीन पर, उनकी बड़ी बड़ी केले जैसी कलियाँ पड़ी थीं! नीचे पीले रंग की बेलें चल रही थीं, उन पर पीले रंग के, छोटे छोटे फूल लगे थे, फूल जैसे अक्सर लिली में हुआ करते हैं! बेहद ही तीखी गंध थी उनकी! पेड़ों के तनों पर, नीले रंग के फूलों वाली बेलें थीं! दूर दूर तक जहां तक देखो, ऐसा ही जंगल था!
घनेरा छाया था वहाँ! सूरज की रौशनी अंदर, नीचे आने को जैसे तड़प रही थी, लेकिन उस धूप को,पेड़ों के पुंगियों पर ही झुलाया जा रहा था! अंदर कोई प्रवेश नहीं दिया जा रहा था! अंदर तो बस घना अन्धकार सा ही छाया! था! मैं आगे बढ़ता जा रहा था, कुछ ताड़ के से पेड़ लगे थे, मेरे मुंह पर उनके पत्ते टकरा जाते थे! पत्ते, पानी से भीगे थे, पानी लग जाता था मेरा हाथों पर!
"अरे?" मुझे एक आवाज़ आई!
मैंने आसपास देखा!
कोई नहीं नज़र आया!
और मेरी आँखें खुलीं!
शर्मा जी, विस्मित से बैठे थे, मुझे देखते हुए!
मैं झट से उठा! आसपास देखा!
ये हम कहाँ हैं?
वो चौपाल? वो चटाई? वो शिरासन? सब कहाँ गए?
मैं झट से खड़ा हुआ, आगे भागा, दायें देखा, बाएं देखा! कुछ नहीं! बस वही वीरान और उजाड़! हम वहीँ थे, वहीँ, जहाँ आज सुबह आये थे! मैंने घड़ी देखी, तीन बजे थे! शर्मा जी दौड़ के आये मेरे पास! मुझे देखा, हैरत से!
"हम वापिस आ गए!" बोले वो,
"हाँ! वापिस!" कहा मैंने,
इसके बाद, वो चुप!
मैं चुप!
बोले तो बस कुछ हवाएँ, कुछ पक्षीगण और ज़मीन से उठती धूल की आवाज़! और कुछ नहीं! नितांत अकेले थे हम!
"वापिस कैसे हुए हम?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"न किसी ने कुछ कहा और न हमने इच्छा ही की?' बोले वो,
"लगता है कि......!" कहा मैंने,
"कि? क्या?' बोले वो, ज़रा उत्सुकता से!
"कि कोई ऐसा ही चाहता है!" कहा मैंने,
"आपका अर्थ वो बाबा हरलोमिक?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो फिर कौन?" बोले वो,
"सोच रहा हूँ!" बोला मैं,
"क्या ऋतुवेश?" कहा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हिरानु?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" बोला मैं,
"तो कौन?" पूछा इस बार शिद्द्त से!
"वही!" कहा मैंने,
"कौन वही?" बोले वो,
"जिसने भेजा हमें!" बोला मैं,
"जिसने भेजा?" कहा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मैं,
"मेरी समझ से बाहर है!" बोले वो,
"ये उलझा हुआ मामला है!" कहा मैंने,
"सो तो पता है!" बोले वो,
"और रास्ता भी यहीं है!" कहा मैंने,
"कौन सा रास्ता?" पूछा, मुझे पकड़ते हुए, मेरे कंधे पर, हाथ रखते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम, उस बियाबान में अकेले ही खड़े थे! धूप चिलचिलाती हुई जैसे खालो को उतारने के लिए आमादा आन खड़ी हुई थी! न वहां कोई पेड़ था न कोई पौधा! धूप सीधी ही हम से टकरा रही थी! यहां जो भी कोई था वो अत्यंत ही निपुण और कुशल था! उसे पल पल की खबर थी, एक तरह से, ये हमारी जांच हो रही थी कि हम उस स्तर पर पहुँचते हैं भी या नहीं या हम उस स्तर के हैं या नहीं! कुछ कुछ तो समझ आने लगा था!
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
''चलो!" बोले वो,
और हम ऐसे किसी पेड़ के नीचे जाने को हुए जहाँ छाया हो, ऐसा एक पेड़ मिला, पीपल का पेड़ था वो, छाया तो थी उसके नीचे, वहीँ जा बैठे हम, घास थी तो, लेकिन सूखी थी, खैर, हम बैठ गए वहां!
"पानी पिलाइये!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोतल देते हुए मुझे, बोले शर्मा जी,
मैंने ढक्कन खोला और पानी पिया फिर, फिर उन्हें भी दिया, उन्होंने भी पी लिया पानी! बोतल को ढक्कन लगा, रख ली वापिस बैग में!
"मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है!" बोले वो,
"मुझे कुछ कुछ आने लगा है!" कहा मैंने,
"तो बताइये?" बोले वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"हम कहाँ थे उस समय, जब वो भदंत मिला था?' पूछा मैंने,
"उस जगह!" बोले वो, इशारा करते हुए,
"वहाँ क्या था?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं?" बोले वो,
"क्या वो लिंगम् नहीं था?" पूछा मैंने,
"हाँ! हाँ था, एक दिन पहले!" बोले वो,
"तो हम वहीँ गए थे!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"सिका अर्थ हुआ, वो प्रवेश-द्वार है!" कहा मैंने,
"कहाँ का?'' पूछा उन्होंने,
"उस स्थल का!" कहा मैंने,
"स्थल का या उस विश्रामशाला का?'' बोले वो,
"स्थल का!" कहा मैंने,
"कैसे कह सकते हैं?'' पूछा उन्होंने,
"हमें कौन ले गया था संग?" पूछा मैंने,
"वो, ऋतुवेश!" बोले वो,
"अपने संग?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"उसी के कहने पर हम चले?'' कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"तो, वो स्थल, वहीँ है!" कहा मैंने,
"नहीं समझा!" बोले वो,
"अब विश्रामशाला वहीँ होगी या कहीं दूर?" पूछा मैंने,
ज़ोर लगाया अब उन्होंने!
"हाँ! वहीँ होगी!" बोले वो,
"समीप ही?" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"तो चलो फिर?" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"वहीँ, अब देखिये आप!" कहा मैंने,
"वहां उस जगह?" बोले वो,
"हाँ, वहीँ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम उठ चले वहाँ के लिए, वहाँ पहुंचे, तब मैंने आसपास देखा, दिशाओं का भान किया और फिर एक जगह हुआ खड़ा, अब वहाँ से, दक्षिण की ओर देखा! यहीं थी वो विश्रामशाला! हाथ जोड़े अपने! महातम  महाविद्या का संधान किया तब! ये महाविद्या, माया को जहाँ भेदती है वहीँ उसको उसके कारण सहित प्रस्तुत भी कर देती है! विद्या जागृत हुई! मुझे फिर से, उन पेड़ों के शीर्ष से जल की धाराएं फूटती दिखने लगीं!
''आओ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम चल पड़े एक तरफ!
कुछ ही दूर गए होंगे कि एक जगह रुके, वहां बड़े बड़े चूहे मुंह में रोटी के टुकड़े लिए भाग रहे थे! इसका अर्थ स्पष्ट था कि वो इंसानी आबादी के क्षेत्र से दूर नहीं थे और अन्न भी वहां पर्याप्त मात्र में उपलब्ध था! ये महातम विद्या का प्रभाव था! शर्मा जी इस से अभी तक अनभिज्ञ ही थे, मैंने भी उन्हें बताया नहीं, वे भांप ही जाते हैं कि मैं कुछ देख रहा हूँ!
महाताम-महाविद्या मात्र ग्यारह रात्रिकाल-साधना में पूर्ण हो जाया करती है, परन्तु ये अति-तीक्ष्ण साधनाओं में से एक है! इसमें मसान-भोग, मसान-स्वीकृति और मसान-रूढ़ता अति-आवश्यक है! सिद्ध होने के पश्चात, कोई भी माया आपके समक्ष नहीं ठहर सकती! कुछ नहीं बिगाड़ सकती आपका! मंत्र पंचाक्षरी है! सरल है कंटस्थ करने में! कोई भी इसको सिद्ध कर सकता है!
"क्या देखा?'' पूछा उन्होंने,
मैंने बता दिया उन्हें!
"हम पास में ही हैं शायद!" बोले वो,
"यही लगता है!" कहा मैंने,
हम चलते रहे!
"वो देखिये ज़रा?'' बोले वो,
सामने देखा मैंने!
एक पेड़ पर, काले कपड़े बंधे थे! उन कपड़ों में जैसे पोटलियाँ बंधी थीं!
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"आगे चलिए!" कहा मैंने,
हम आगे बढ़े, रुके उस पेड़ के नीचे,
"ये तो ठूंठ है?'' बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
वो पोटलियाँ कुल चौबीस थीं!
"उसे उतारना ज़रा?'' कहा मैंने,
उन्होंने एक पोटली उतार ली! दी मुझे,
मैंने एक गाँठ खोली! मक्की के दाने निकले उसमे से,
"मक्का?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और खोलो?" बोले वो,
और खोला, तो राख सी मिली!
"भस्म?" बोले वो,
"वही लगती है!" कहा मैंने,
"दिखाओ?'' बोले वो,
मैंने दी उन्हें वो पोटली, सूंघ के देखा,
"गंधहीन है!" बोले वो,
आसपास देखा खड़े होते हुए,
बस, उसी पेड़ पर ऐसा था, और कहीं नहीं!
"इसका क्या प्रयोजन हो सकता है?'' बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इसे यहीं बाँध दो वापिस!" कहा मैंने,
''अभी लो!" बोले वो,
बाँध दी उन्होंने वापिस वो पोटली, और आ गए मेरे पास!
"अब क्या?'' पूछा उन्होंने,
"रुको! रुको!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' पूछा उन्होंने,
"रुको ज़रा!" कहा मैंने,
मैं रुक गया था, दरअसल, दो विचार मेरे दिमाग में कूद रहे थे! और दोनों की ही दिशा अलग अलग थी!
वो मंदिर?
माँ पीतंबरा का मंदिर!
उसके पास, ऋतुवेश का ग्राम होना!
ऋतुवेश का हमें बताना!
किसलिए?
हमने तो पूछा नहीं था? फिर?
हिरानु, उसका क्या महत्व?
वो तो बड़ी है उस से, लेकिन, इस कथा में वो कहाँ बैठती है?
उसका क्या किरदार?
वो देखभाल करती है, उस विश्रामशाला की, ठीक है, लेकिन हमें क्यों बताया? हमने तो पूछा भी नहीं?
फिर?
और फिर वो, नारंगी सा प्रकाश?
वो क्या था?
और दूसरा विचार!
हम उस समय थे, वहां उस स्थान पर, जहां से वो लिंगम् उखाड़ा गया था?
ठीक?
हाँ जी, ठीक!
वहाँ से, हमें बुलाया गया!
किसने बुलाया?
स्वयं ऋतुवेश ने!
क्या वो अनभिज्ञ था?
अनभिज्ञ, हमारे अस्तित्व से?
नहीं! ऐसा कैसे सम्भव है?
हम हाड़-मांस से बने,
वो सूक्ष्मदेह धारी!
ठीक?
हाँ जी, ठीक!
वो ले गया हमें, कहाँ?
विश्रामशाला!
हिरानु के विषय में बताया!
जी, हाँ, बताया! फिर?
ले कहाँ से गया था?
उस लिंगम् स्थान से!
तो आपका आशय क्या है?
आशय? स्पष्ट है!
स्पष्ट ये, कि जो हम यहां ढूंढ रहे हैं, वो यहां है ही नहीं!
अर्थात?
अर्थात का अर्थ ये, कि ऋतुवेश और हिरानु का अहम किरदार समाप्त! पटाक्षेप! वो जो बताना चाहते थे, बता दिया! अब उस घोर तिलिस्म में घुसने के साहस हो, तो घुसो! अन्यथा, इस बियाबान और बीहड़ से लौट जाओ!
और उन पेड़ों के शीर्ष से फूटती जल-धाराएं? उनका क्या?
क्या कभी पेड़ों के शीर्ष से जल-धाराएं फूटा करती हैं?
नहीं तो?
तो जल-धरा कहाँ से फूटती है? जल-धारा, मेरे शब्दों पर ध्यान देना, चूक गए तो पुनः उत्तर नहीं दे पाउँगा!
जल!
अर्थात?
क्षुधापूरक!
ठीक!
अब प्रश्न ये, कि इस समस्त धरा पर, सबसे पावन जल कहाँ और किसका?
स्पष्ट है, माँ गंगा का!
हाँ! माँ गंगा का! सही कहा!
और, ये विशुद्ध जल, जब इस धरा पर अवतरित हुआ, तो कहाँ ठहरा?
भगवान श्री भोलेनाथ की जटाओं में!
हाँ! क्योंकि, अन्य किसी में भी ऐसा सामर्थ्य था ही नहीं कि श्री माँ गंगा का वो वेग संभाल सके! तो?
जटाजूट-धारक! श्री महासंहारक! त्रि-बस्ती बसाने वाले, खुद वीराने में धूनी रमाने वाले, भोले बाबा ने, उनका वेग सहा! श और श्री माँ गंगे को, अपनी जटाओं में, शरण दी! हम औघड़ कहते हैं, क़ैद कर लिया! हाँ! हमारे धुर्जटाक्ष औघड़ ने क़ैद कर लिया! और यहां से, श्री माँ गंगा का वेग सीमित कर, उसे, एक सहस्त्र भाग में, पृथ्वी पर भ्रमण हेतु निश्चल छोड़ दिया!
अब?
किसलिए?
श्री माँ पीतांबरा का उल्लेख क्यों?
सोचा आपने?
मेरी इस खोपड़ी ने सोचा था उस समय!
यदि आप, भारत के नक्शे में, एक रेखा खींचो, सीधा माँ पीतांबरा से लेकर, श्री माँ गंगा की गंगोत्री  तक, तो, सीधी ही आएगी! और, यहां से, श्री माँ बगुलामुखी तक खींचो, तो भी सीधी ही आएगी!
अरे वाह रे औघड़-खोपड़ी!
माँ बगुलामुखी!
मित्रगण! क्या जानते हैं आप इनके विषय में?
इतना जान लीजै, नरकासुर, जिसके नाम पर, नरक-चौदस का त्यौहार है, उसका निकट संबंध है माँ कामाख्या से! विवाह करना चाहते थे श्री माँ बगुलामुखी से! प्राग-ज्योतिष राज्य में, जितनी भी पहाड़ियां हैं, नीले रंग की, वो सब, नरकासुर के हाथों से बनी हुई हैं! नरकासुर, माँ पृथ्वी, सत्यभामा और स्वयं श्री विष्णु के पुत्र हैं! ये महा-असुर हैं! अब, असुरों को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, दुःख होता है!
जानते हैं?
असुर न होते,
तो इस पृथ्वी पर, श्री महाऔघड़ का नाम लेवा भी कि न होता! श्री महाऔघड़ के समस्त स्थल, असुरों ने ही गढ़े हैं! वे बस, छल से ही दबते आये हैं! श्री दैत्यगुरु शुक्राचार्य द्वारा शस्त्र-विद्या द्वारा ही, श्री माँ बगुलामुखी को, चौरासी अस्त्रों का दिक्-भान हुआ है! स्वयं, श्री शुक्राचार्य, देव हैं, परन्तु, असुरों पर, होते अतिक्रमण, अत्याचार द्वारा वे पीड़ित हुए, अपने भ्राता श्री देव गुरु बृहस्पति द्वारा निन्दित होते हुए भी, उन्होंने, असुरों का गुरु होना ही सुनिश्चित किया! श्री महाऔघड़ के हृदय-स्थल में वास करते हैं श्री शुक्राचार्य जी!
कुंडली में, श्री बृहस्पति शुभ हों, तो दस सहस्त्र दोषों को दूर करते हैं, और यदि शुक्र शुभ हों, तो चौरासी लक्ष!
देवगुरु श्री बृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र, स्वयं, श्री शुक्राचार्य के शिष्य हैं!
तो?
माँ पीतांबरा के विषय में, इनका उल्लेख क्यों?
वो इसलिए कि!
श्री शुक्राचार्य ने, एक सौ, महा-संध यज्ञ पूर्ण करवाये थे श्री असुरराज रावण पुत्र मेघनाद को! उस से बलि, कोई था ही नहीं!
लक्ष्मण जी को, वो त्रिकुटाक्ष-अस्त्र, स्वयं, श्री शुक्राचार्य ने ही दिया था, कहाँ?
इसी, इसी पवित्र स्थान, माँ पीतांबरा के स्थल में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सुनो?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
:समय क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"चार का समय है" बोले वो,
"चलो!" बोला मैं,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"अभी चलो यार?" कहा मैंने,
"कहाँ चलूँ?" बोले वो,
"दिन ढल जाएगा, जल्दी ही!" बोला मैं,
"तो?" उन्होंने अजब से अंदाज़ में पूछा,
"यहां से चलो?" बोला मैं,
"लेकिन कहाँ?" बोले वो,
"जहां हमारी मोटरसाइकिल खड़ी है!" बोला मैं,
"क्या?" पूछा,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वापिस घर?" बोले वो,
"अरे नहीं?" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"यहां से चलना है!" बोला मैं,
"लेकिन, कहाँ?" पूछा,
" आगे, वहाँ!" मैंने इशारे से कहा!
"कोई जगह?" बोले वो,
मुझे आया गुस्सा तब!
"वहाँ? जहां मंदिर है?" बोला मैं,
"कौन सा मंदिर?' बोले वो,
"अरे? वो, श्री माँ पीतांबरा का?" कहा मैंने,
"वहाँ? किसलिए?" पूछा मैंने,
"चलो बस!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम, चले अपनी मोटरसाइकिल की तरफ!
की स्टार्ट! और चल पड़े!
"कोई चालीस होगा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अभी चलेगा पता!" बोले वो,
हम चले,
सबसे पहले, वो जगह आई, जहां, वो अलाव दिखा था!
"ये, ये तो पांच है?" बोले वो,
"चलो?" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
वो चला रहे थे, और मैं देखे जा रहा था आसपास!
वही बीहड़! वही बियाबान!
इस संसार से अलग!
विशाल और विसरित! मूक!
राह तकता!
मूक!
सब सुनता!
लेकिन बोल नहीं पाता!
न देख पाता!
न, दिशा-निर्देश!
कुछ नहीं!
गरमी!
और गरमी में राह तख्ते, वो पत्थर!
वो झाड़ियाँ!
जिनकी वंशबेल, अब तक ज़ारी थीं!
रास्ते में एक जगह रुके हम, ये एक छोटा सा क़स्बा था! आज भी है, यहां हमने, चाय पी, और कुछ नमकीन भी खाया! कोई दस मिनट के बाद, हम फिर से रवाना हो लिए, जो पता चला, वो ये, की अभी हम पचास किलोमीटर दूर थे!
पचास, या उसके आसपास! मतलब ये, की अभी हमें, मुख्य-सड़क पार करनी थी! वो जो आगे तक चली जाती है!
हम आ गए सड़क तक, यहां से, उस रास्ते के लिए चल पड़े! लेकिन देखिये! रास्ता बंद! कारण, कुछ मरम्मत कार्य था! अब किसी से पूछा, तो उसने एक गाँव से रास्ता बताया, वहाँ से चले फिर, धीरे धीरे! बेजान रास्ता! उजाड़! पत्थर ही पत्थर!
"आज पहुँच जाएंगे?" बोले वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"मंदिर कहा है?" पूछा उन्होंने,
"पूछ लेंगे!" कहा मैंने,
करीब बीस किलोमीटर तक, कुछ नहीं!
और एक जगह, एक बुग्घी दिखी! उस से पूछा, आगे बढ़े!
और इस तरह, करीब आठ बजे, हम वहाँ पहुंचे!
भूख लगी थी, सो खाना खाया!
देह में जान न थी, सो आराम किया! अब सच में, देह में जान न रही थी! लू के थपेड़े और गरमी का आलिंगन! अब तो बस, साथ छोड़ा देह ने!
"क्या करें?' बोले वो,
"कोई जगह देखो यार!" बोला मैं,
"धर्मशाला?" बोले वो,
"जो भी हो!" कहा मैंने,
'आता हूँ!" बोले वो,
और वो करीब, बीस मिनट बाद आये!
"आओ!" बोले वो,
मैं उठा!
"कहाँ?" बोला मैं,
"आओ यार?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हल्के क़दमों से, आगे बढ़े!
ये एक धर्मशाला थी, वहीँ चले आये थे हम!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कपडे लाये नहीं थे साथ, साथ था तो बस रुमाल और एक तौलिया! और कुछ नहीं! खैर, अब धर्मशाला तो ले ही ली थी, शर्मा जी ने अता-पता लिखवा ही दिया था! अब किया मैंने स्नान, दिन भर की गरमी से निजात मिली! शर्मा जी ने भी स्नान किया और फिर हम बाहर चल पड़े, बाहर छोटे छोटे मंदिरों में पूजा-अर्चना होने लगी थी, बड़ा ही पावन माहौल था! माँ पीतांबरा के मुख्य मंदिर में प्रकाश की व्यवस्था कर दी गयी थी! वहीँ पास में ही हमने आलू-कचौड़ी का आनंद लिया! भोजन कर ही लिया था, अब बस कुछ ही देर बाद, लम्बी तान ले, सो जाना था, कल का दिन क्या शगुफ़्ता खिलाता ये अब कल ही देखा जाना था! मैंने धर्मशाला में पूछताछ की थी, एक लड़का मिल गया था शिव कुमार नाम का, वो पड़ोस के ही गाँव का रहने वाला था, लेकिन उसने न किसी बाबा हरलोमिक और न ही किसी ऋतुवेश का नाम सुना था! न ही कोई अन्य मदद कर सका था! हाँ, लाभ इतना अवश्य ही हुआ कि आसपास के भगोल और जगहों का पता चल गया था! और एक बात अब स्पष्ट थी, यहां बिना कुछ 'मदद' लिए मदद की कोई गुंजाइश नहीं थी, मैं अक्सर, ऐसी कोई 'मदद' नहीं लिया करता, उसमे दिमाग और घूम जाया करता है! मदद में, कुछ नाम मिलते हैं, कुछ दिशा-निर्देश, ये ऐसा ही हुआ जैसे कि किसी कूट-भाषा को सुलझाना! लेकिन अब उसकी मदद की आवश्यकता थी!
रात घिरी, और हमने अपना बिस्तर संभाला, नीचे ही लगा था बिस्तर, तो आराम से पाँव पसार लिए! दिन भर की थकावट थी, तो नींद ने भी दया दिखाई और हम उसके झूलते पालने में, झूलते झूलते झूल गए!
सुबह नींद खुल गयी मेरी जल्दी ही, कुल्ला-दातुन आदि से फारिग हुआ और फिर स्नान भी कर लिया, शर्मा जी को जगाया तो वे जागे, वे भी निवृत हुए, अब तक सूरज की धूप, इठलाना छोड़, आगे बढ़ चुकी थी, पक्षीगण चहचहा उठे थे, मैंने खिड़की से बाहर झाँका, दूध बेचने वाले, अपनी अपनी साइकिल पर चले जा रहे थे, इक्का-दुक्का लोग, फूलमालाएं खरीद रहे थे, वंदना-समय था, इसीलिए सुबह की रौनक छायी हुई थी, नीचे क पनवाड़ी, अपनी पीतल की लुटिया में चूर्ण वाला कत्था फेंटने में मग्न था! पान के पत्ते बिकने वाला, दो ढेरियां रख गया था, कान से पेन निकाल कर, जेब से एक कागज़ निकाल, फ़ेहरिस्त को बढ़ाने में लगा था, पास ही दो श्वान आपस में खेल रहे थे, समीप ही, आलू-पूरी की दूकान थी, उसी तरफ बार बार देखने लगते!
"चलें नीचे?" पूछा मैंने,
"हाँ चलो!" बोले वो, कान में ऊँगली डाल, कान को हिलाते हुए!
"पाने ठंडा है!" कहा मैंने,
"हाँ, खुला है न यहां!" बोले वो,
और बातें करते करते, हम सीढ़ियां उतर आये, आये नीचे, नीचे तो बाज़ार की आप-धापी शुरू हो गयी थी! टोकरे में सब्जी-भाजी लिए औरतें चले जा रही थीं, लोग गुनगुनाते हुए, मंदिर की तरफ जा रहे थे, ये तो उनकी दैनिक दिन-चर्या का हिस्सा है, सारे काम बाद में, पहले देवी-दर्शन!
"आलू-पूरी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम, उसी पास वाली दुकान पर आ पहुंचे, आलू-पूरी के बारे में कहा, और दो ही मिनट में, ढाक के पत्ते पर, छार-चार पूरियां मिल गयीं, सब्जी का ख़ुश्बू बड़ी लाजवाब थी, हींग की ख़ुश्बू उड़ रही थी, साथ में, साबुत हरी-मिर्च का आचार भी दे दिया, हम खान एहिलगे कि दुकान का एक लड़का, सब्जी में दही डाल गया! अब इस से अच्छा और क्या!
हो गए शुरू!! हमने तीन पत्ते पूरियां खायीं, फिर वहीँ से, लस्सी भी ले ली! वो भी पी, हाथ -मुंह साफ़ किये और चल पड़े, हम भी मंदिर की ओर, मंदिर पहुंचे तो वहीँ बाहर से ही, हाथ जोड़ लिए! थोड़ा बहुत घूमे-फिरे, दाढ़ी-मूंछ बनवा लीं, और दो गमछे भी खरीद लिए, इनकी आवश्यकता पड़नी थी, एक बोतल पानी भी ले लिया और फिर हुए वापिस हम, कुछ देर आराम किया, धर्मशाला वाले सज्जन ने, चाय का प्रबंध करवा दिया था, चाय भी कमरे में मिल गयी, चाय पी!
और फिर कुछ देर आराम किया!
"अब कैसे करना है?" पूछा उन्होंने,
"पहले मुझे एकांत चाहिए!" कहा मैंने,
"बाहर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले वो,
मैंने अपना छोटा बैग तैयार कर लिया था,
"ये पहन लो!" कहा मैंने,
वो एक धागा था, मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित!
"लाइए!" बोले वो,
माथे से लगाया और पहन लिया,
ऐसे ही, मैंने भी पहन लिया!
"कब निकलना है?" पूछा उन्होंने,
मैंने देखी घड़ी,
"बस, आधे घंटे में!" बोला मैं,
"ठीक है!" कहा उन्होंने,
आधे घंटे में, जो मैं कर सकता था, कर लिया, तैयारी आज की!
"क्या उम्मीद है?" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और इस तरह, आधे घंटे के बाद, बोतल ली पानी की, कमरा किया बंद और चल पड़े बाहर, बाहर आये तो ज़रा कुछ फल ले लिए, अमरुद और केले, केले खाते हुए, हम आगे बढ़ते रहे, गरमी में, कभी भी खाली पेट न रहिये, कुछ न कुछ हल्का-फुल्का खाते ही रहिये! पानी की कमी न रहने दीजिये, नहीं तो समस्या पैदा हो सकती है!
इसीलिए हमने फल ले लिए थे, अमरुद, पेट में हाज़मा करता है, आँतों की सदन नही पैदा होने देता! अमरुद के वैसे तो कई फायदे हैं, अपने फूल से लेकर, पकने तक ये एक औषधि का कार्य करता रहा है!
पेट में यदि अफारा, अपच, पेट फूलना, खट्टी डकारें आना, एसिडिटी पैदा होना, छाती में जलन रहना, बदबूदार डकारें आना, अपान वायु का गरम होना आदि हो, तो ये प्रयोग करें, एक कच्चा अमरुद ले लें, कच्चा हो, कड़ा, उस अमरुद को, देसी घी से चिपुड लें, उसने, चाक़ू मार कर, छेद कर लें, अब चूल्हे की गरम राख में दबा दें, न हो चूल्हा तो गैस पर भून लें, इतना भूनें कि जब तक, काला न पड़ जाए, ये लगभग आधा रह जाएगा, अब इसको ठंडा कर लें, और ठंडा होने के बाद, इसको पीस लें, चूर्ण कर लें, अब इस चूर्ण में, एक चुटकी हींग, एक चुटकी अजवाइन चूर्ण, एक चुटकी काला नमक, एक चुटकी कलौंजी का चूर्ण और आधा चुटकी, लौंग का बीज भुना हुआ, लौंग का बीज वो होता है जो लौंग के शीर्ष पर होता है, अब इनकी मिला लें, चूर्ण तैयार हो जाएगा! जब भी भोजन करें, उसके बाद, ताज़ा पानी से, फंकी मार लें, जब भी कुछ भोजन करें, इसे अवश्य ही लें, छह-सात दिन में, ये समस्याएं समाप्त हो जाएंगी! नित्य सेवन किया जाए तो कभी भी तंग नहीं करेंगी!
जो पुरुष विवाहित है, और पत्नी को संतुष्ट करने में अशक्त हों, असमर्थ महसूस करते हों, या शीघ्रपतन से पीड़ित हों, शुक्राणु की कमी हो, अथवा शुक्र पतला हो या पीले रंग का हो, उनके लिए ये प्रयोग रामबाण से कम नहीं!
अमरुद के चौंसठ पत्ते, मुलायम हों, ले लीजिये, इनको सफेद सूती कपड़े में, छाँव में लाकर बाँध दीजिये, धूप न लगे, सूखने तक इनको बंधे रहने दीजिये, अमूमन, छह-सात दिन में सूख जाएंगे, अब इन पत्तों को साफ़ कर लिए, और इनका चूर्ण बना लिए, चूर्ण न बने तो सिल पर पीस लीजिये, कच्चा दूध प्रयोग करें लुगदी बनाने के लिए, जब लुगदी बन जाए तो दो चम्मच शुद्ध शहद, एक चम्मच अश्वगंधा चूर्ण, एक चुटकी पिसे हुए बड़ी इलायची के बीज मिला लीजिये, और किसी कटोरी में भर लीजिये, काम-सेवन से, एक घंटा पहले इन चुटकी चाट लीजिये, जब भी काम-लाभ उठायें, ऐसा ही करें, आपको लाभ प्राप्त होता जाएगा, एक परहेज है, इस एक घंटे में कोई भी खट्टी वस्तु, पेय-पदार्थ, चटनी आदि का सेवन न करें! आजमाएं और लाभ उठायें!
स्त्रियों में मासिक की कैसी भी समस्या  हो, तो अमरुद के फूल को, मासिक के दौरान, लहसुन के पानी के साथ सेवन करें! फूलों को सुख भी सकते हैं, लहसुन का पानी, आप एक चम्मच पानी में, लहसुन को फोड़ कर, उसका अर्क निकाल कर, मिला दीजिये! कैसी भी समस्या हो, रहेगी ही नहीं, अपितु चेहरे का रंग और चुस्ती-स्फूर्ति भर जायेगी!
स्त्रियों में, शाररिक विन्यास में, यदि स्तनों का आकार छोटा प्रतीत हो, तो अमरुद की छाल उतार लें करीब पच्चीस ग्राम, सुखा लें, छाँव में, चूर्ण बना लें, जब चूर्ण बन जाए तो नित्य रात्रि में, सोने से पहले, फ़टे हुए दूध के पानी के साथ दो ग्राम चूर्ण का सेवन करें, पानी आधा गिलास हो, इक्कीस या माह भर में, स्तनों का आकार, बढ़ जाएगा, और वे कड़े हो जाएंगे, विवाहित स्त्रियां भी इसका प्रयोग कर, लाभ उठा सकती हैं, ये स्तनों को सुडौल और कड़ा रूप देता है, अन्य कोई दवा ऐसा, इतना शीघ्र कार्य नहीं करती!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हमें वहां से निकलना था, मंजिल थी, दूर कहीं उत्तर में चला जाए, वहीँ का अंदेशा था,
और ऋतुवेश ने हमें जो दिखाया था, उसके अनुसार वो उत्तर दिशा में ही पड़ता! मुझे भी यही विश्वास था की जो हम ढूंढने जा रहे हैं, वो उत्तर दिशा में ही मिलेगा! लेकिन ये भी रेत के कणों में, एक चांदी के कण को ढूंढने के बराबर था! या तो हमारा नसीब ही ज़ोर मारता या फिर हम पर माँ श्री पीतांबरा की ही कृपा होती! तो हमने सामान ले लिया था अपना, एक छोटा बैग, वो फल और पानी की बोतल, की मोटरसाइकिल स्टार्ट, और की फिर बंद, टंकी खोल के देखी, पेट्रोल कम था, भरवाना ज़रूरी था तो चल दिए भरवाने के लिए, आधे घंटे तक, पेट्रोल भी भरवा लिया और उसके बाद, फिर से उत्तर की राह पकड़ ली! अब गाड़ी दौड़ा दी हमने, आबादी लघु और लघु रूप लेने लगी! मंदिर ने कितनों का आश्रय दिया है, ये साफ़ देखते बनता था! मंदिर के आसपास तो जगह ही न थी, और यहां, जो हम देख रहे थे, जगह ही जगह थी, हाँ, कुछ नए नए डेरे और आश्रम आदि का निर्माण हो रहा था, उनके बोर्ड लगे थे जगह जगह, कि फलां आश्रम और फलां आश्रम!
भविष्य में शायद यहां भी जगह नहीं मिलने वाली! लोग बस्ते चले जाते हैं, आबादी बढ़ने लग जाती है, और गाँवों का निर्माण हो जाया करता है, बिजली, पानी सड़क की व्यवस्था हो जाए तो फिर क़स्बा बन जाता है! तो हम भविष्य का कोई क़स्बा ही देख रहे थे, नए नए प्लाट कट रहे थे, हालांकि अभी रास्ता कच्चा-पक्का ही था लेकिन भविष्य में यहां सब बदल जाने वाला था!
अब आगे आये तो बीहड़ से हुआ सामना, मदमाती लू और लू के थपेड़े! गरमी ने शुरू किया अब नाम और पता पूछना! हमने तो बुक्कल मार रखी थी, लेकिन जहां भी लू टकराती, सन्नाहट सी मचा देती थी!
करीब डेढ़ घंटे चलने के बाद, रास्ते के किनारे एक छोटा सा सफेद रंग का मंदिर दिखा! बाहर ही एक बड़ी सी पत्थर की पटिया पड़ी थी, गुलमोहर का पेड़ लगा था, लेकिन था वहां सन्नाटा ही!
"यहीं रोक लो यार!" कहा मैंने,
"रोक रहा हूँ!" बोले वो,
और पेड़ के नीचे, एक तरफ, रोक ली गाड़ी हमने!
उतरे, सामान लटकाया गाड़ी पर, और आ बैठे उस पटिया पर!
"ये लो!" बोले वो, बोतल देते हुए मुझे,
मैंने बुक्कल खोली, चेहरा पोंछा, पसीने पोंछे!
और फिर पानी पिया, पानी तो अमृत सा जान पड़े उस वक़्त!
"ये लो!" कहा मैंने,
अब उन्होंने पिया, मुंह भी साफ़ कर लिया!
"क्या भयानक गर्मी है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
केले ले लिए थे, केले खाने लगे हम!
गरमी में, पेट कभी न खाली रखिये, कुछ न कुछ खाते ही रहिये! पेट भरा रहेगा तो लू नहीं लगेगी! नहीं तो एक बार लू लग जाए तो समझो हुआ काम फिर! बिगड़ जाए तो उलटी-दस्त की नौबत आ पड़ती है, सारे खनिज और लवण बाहर आ जाते हैं, बदन में कमज़ोरी हो जाती है! बेहोशी आती है, सो अलग!
"वैसे यहां भी एकांत ही है!" बोले वो,
"है तो, लेकिन मंदिर है!" कहा मैंने,
"आगे देखते हैं फिर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैंने तो जूते-जुराब सब खोल लिए थे, पांवों को बड़ी राहत मिली थी!
"यहां तो लगता है कोई बसता ही नहीं!" बोले वो,
"गाँव होंगे, दूर!" कहा मैंने,
"हाँ, हो सकता है!" बोले वो,
हमने करीब एक घंटा आराम किया, या कुछ कम ही!
"अब चलते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ चलो!" बोले वो,
वहां एक घड़ा रखा था, पानी लिया, हाथ-मुंह धो लिए, और पानी भर लिया!
"भला हो घड़ा रखने वाले का!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो, वो बर्तन भी भर दो!" बोले वो,
"अच्छा!" बोले वो,
वो बर्तन दरअसल पक्षियों का था, अब सूखा पड़ा था, मैंने भर दिया और छाँव में रख दिया, उन्होंने एक दूसरा बर्तन देखा, उसने शायद श्वान आदि के लिए पानी था, पानी पूरा था, फिर भी मैंने भर दिया!
"आओ अब!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वहां से,
सीधा चलते रहे, करीब आधा घंटा!
"वो देखो ज़रा?" बोले वो,
"वो झुरमुट?" पूछा मैंने,
"हाँ, एकांत है!" बोले वो,
"देख लेते हैं!" बोला मई,
शर्मा जी ने मोटरसाइकिल, उतार दी वहाँ के लिए,
उतरे हम फिर, छाँव थी, कीकर के पेड़ थे और कुछ ढाक के भी, जिसे यहां के लोग छोलिया का पेड़ बोलते हैं!
"हाँ ये जगह ठीक है!" कहा मैंने,
"आप करो अपना काम, मैं जाता हूँ उधर!" बोले वो,
जाने से पहले, मैंने कुल्ला कर लिया था, ये ज़रूरी भी था!
अब पढ़ा मैंने अपने कारिंदे सुजान का रुक्का!
सुजान हुआ हाज़िर, सफेद रंग के लिबास में, सर बांधे हुए कपड़े से, हवा में आधा लटका हुआ! बताया उसे उद्देश्य मैंने अपना!
उद्देश्य जान, उड़ चला सुजान, फरर्र की आवाज़ करता हुआ!
और करीब चार-पांच मिनट के बाद, वापिस आया वो!
बताया मुझे कुछ!
ये दो नाम थे, मैंने कभी नहीं सुने थे, बताकर, सुजान वापिस हुआ! और मैं चला शर्मा जी की तरफ, वो गमछे में से, निकले हुए धागे निकाल रहे थे, मुझे देख खड़े हो गए!
"बैठो!" कहा मैंने, बैठते हुए,
"पता चला कुछ?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"सिलोरी, इंदरगढ़!" बोला मैं,
"सिलोरी? इंदरगढ़?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"शायद, जिला दतिया में, ये इंदरगढ़ कोई तहसील होगी और सिलोरी कोई गाँव!" कहा मैंने,
"अब ढूंढें कैसे?" बोले वो,
"ढूंढना तो होगा?" कहा मैंने,
"हमें क्या पता?" बोले वो,
"किसी से पूछ लेते हैं?" कहा मैंने,
"यहां तो एक कुत्ता तक नहीं?" बोले वो,
"कोई न कोई तो मिलेगा ही?" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद हम वापिस हुए! गरमी का तपता सूरज, अपने किरणें और पैना करता हुआ, हमारी पीठों पर धार लगा रहा था! ऐसी गरमी पड़ रही थी की अगर कोई नदी या तालाब मिलता तो मैं तो कूद ही जाता उसमे, कपड़े समेत! ऐसी चिलचिलाती गर्मी पड़ रही थी की खाल ही उतार ले! लगता था जैसे सूर्यदेव को उनके सारथि, उनका रथ लेकर आ रहे हों हमारे पीछे पीछे! झुलसा देने वाली गर्मी थी वो! रास्ते में आये तो वही मंदिर पड़ा, मैंने रुकवा लिया उनको! सीधा मंदिर के बाहर जा बैठे हम! जूते-जुराब, गमछा, सब खोल दिया! पेड़ के नीचे थोड़ी राहत तो थी, लेकिन लू का झपेटा ऐसा था कि बार बार चिपकने को पड़ती थी!
"ओय होय!" कहा मैंने,
"मर गए यार!" बोले शर्मा जी,
"बड़ा ही बुरा हाल है!" कहा मैंने,
"लगता है, सारी गरमी यहीं आ बसी है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"रास्ते में, पैदल चलते हुए तो बंदा पछाड़ ही खा जाए!" बोले वो,
मैंने पानी की बोतल ली, जी किया, बदन पोंछ लूँ! इतना पानी था नहीं, पीकर ही काम चलाया!
"हाँ, गिर जाए नीचे!" कहा मैंने,
"ये पथरीली ज़मीन है, इसी कारण से ऐसी भीषण गरमी है!" बोले वो,
"यही वजह है!" कहा मैंने,
''और रात को पड़ेगी ठंड!" बोले वो,
"हाँ, पत्थर जल्दी ठंडा हो जाता है!" कहा मैंने,
"जी का जंजाल है ये तो!" बोले वो,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
'और लाऊँ पानी?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, भर लो!" कहा मैंने,
वे गए और घड़े से पानी भर लाये! थोड़ा पानी पिया मैंने भी, कितना ही पानी पियो, हलक फिर से सूखा का सूखा!
"सर्दी होती तो मजा आ जाता!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तब यही धूप कैसा मजा देती!" बोले वो,
"अभी तो खाल जला रही है!" कहा मैंने,
"हाँ, भून रही है!" बोले वो,
"चलें अब?" बोला मैं,
"चलो, कम से कम छाँव तो नसीब हो!" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वहां से, इस बार गाड़ी सरपट भगा दी शर्मा जी ने!
"आराम से!" कहा मैंने,
'आराम कहाँ?" बोले वो,
"यार, आराम से चलो, कहीं उछल ही न पड़ें!" बोले वो,
हंसने लगे, और गाड़ी धीरे कर दी!
आबादी आनी शुरू हुई, और तब कुछ चैन मिला!
"ले जाओ सीधे धर्मशाला!" कहा मैंने,
"ले जा रहा हूँ!" बोले वो,
तो हम, बचते-बचाते, आगे चलते रहे, आ गए धर्मशाला! लगाई मोटरसाइकिल, और चले ऊपर, कमरा खोला, सामान रखा, और धम्म से बिस्तर पर गिरे!
"मर गया रे!" बोले वो,
"क्या हुआ!" पूछा मैंने,
"भट्टी से निकल कर आये हैं न!" बोले वो,
मैं हंसा!
"हाँ, बाहर तो भट्टी है है!" बोला मैं,
कुछ देर आराम किया हमने, और फिर मैं स्नान कर आया! हालांकि पानी गरम ही था, लेकिन राहत ज़रूर मिली! फिर शर्मा जी भी न आये! उसके बाद हम दोनों ही सो गए! और नींद खुली हमारी चार बजे! अभी भी गरमी में यौवन बाकी था!
"चाय पीनी है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
वो बाहर चले गए फिर,
और मैं सोचने लगा कि अब मालूमात की जाए! किया इंतज़ार शर्मा जी का!
आये वो, और बैठ गए!
"बोला आये?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
कुछ देर चुप्पी!
"एक बात बताइये?" बोले वो,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"ये जो दो जगह हैं?" बोले वो,
"हूँ?" कहा मैंने,
"ये नयी हैं या उस वक़्त की?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं जी!" कहा मैंने,
"कहीं हुईं पुरानी तो निकली जान!" बोले वो,
"तब तो मेहनत है!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सुजान भी कमाल है!" बोले वो,
"अब जितना पता चलता है, बता देता है!" कहा मैंने,
"अटका ज़्यादा देता है!" बोले वो,
"वही काम है उसका!" बोला मैं,
"चलो जी!" बोले वो,
तभी लड़का आया एक, चाय ले आया था!
"ला, यहां दे दे!" बोले वो,
उसने पकड़ा दी, और चला गया!
शर्मा जी ने चाय डाली कप में, और दे दी मुझे,
चाय पीने लगे हम!
"वैसे क्या कोई सात्विक रचता है तिलिस्म?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" हैरत से पूछा,
"हाँ नहीं!" कहा मैंने,
"तो ये?" बोले वो,
"उदभेदन!" कहा मैंने,
"अर्थात आरम्भ?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो किसलिए?" पूछा उन्होंने,
"सुरक्षा!" कहा मैंने,
''सुरक्षा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"किस से?'' पूछा उन्होंने,
"शत्रुओं से!" कहा मैंने,
"एक सात्विक के शत्रु?" पूछा उन्होंने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"लेकिन किसलिए?" पूछा उन्होंने,
"बहुत कारण हैं!" बोला मैं,
"जैसे?'' पूछा उन्होंने,
"केंदवता!" कहा मैंने,
"केंदवता? वो क्या होता है?" पूछा उन्होंने,
"ऋद्धि-फल!" कहा मैंने,
"अर्थात?" पूछा उन्होंने,
"समझ जाओगे!" कहा मैंने,
"और?" पूछा उन्होंने,
"शंदता!" कहा मैंने,
"सिद्धि-फल?" बोले वो,
"सही पहचाने!" बोले वो,
"कोई छीन भी सकता है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लाभ?" पूछा उन्होंने,
"लघु-मार्ग!" कहा मैंने,
"ओह! समझा!" बोले वो!


   
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