वर्ष २०१३ त्रैरात्र...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१३ त्रैरात्रिक-वधु!!

111 Posts
1 Users
0 Likes
1,260 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

नाचता जाऊं! झूमता जाऊं! बता किसी को नहीं पाऊं! गिर पडूँ! उठूं, तो फिर से गिर पडूँ! और फिर मैं हंसा! अपनी साधिका के सर पर हाथ फिराऊं, उसे चूमता रहूं! ऐसी ही कुछ हालत थी मेरी! मैंने उसको हटाया अपने से, और फिर, हिलते-डुलते उठा, बदन में पीड़ा थी, आँखें एक ही जगह पर सध नहीं रही थीं! चक्कर आ रहे थे मुझे, पाँव काँप रहे थे! मैं चला आगे तक और एकदम से लहराया! और धड़ाम से नीचे गिरा! नीचे गिरते ही, कानों में शूं-शूं की सी ज़ोर आवाज़ आने लगीं! मेरे हाथों में भी इतना दम नहीं रहा कि कान ही ढक लूँ, बन्द कर लूँ! मेरा सर घूमा और मेरी चेतना मेरे शरीर से, दूर हो गयी! मैं अचेत हो गया!
कुछ पल, न जाने कुछ या बहुत...कुछ नहीं पता, मेरी चेतना लौटी! मेरी आँखों में नमी सी थी! मैंने अपने हाथों से, उस जगह पर, जहां पर मैं गिरा था, टटोला! मैं टटोलता तो मेरे हाथ, कुछ नरम सी भुरभुरी मिट्टी सी लगती! बेहद ही ठंडी! मेरी आँखें नहीं खुल रही थीं, ऐसा लगता था कि मेरी पलकें ही सील दी गयीं हों! चाह कर भी नहीं खुलें और खोल ही सकूँ!
"शाश्व!" आवाज़ आयी एक!
मेरे चेतन मस्तिष्क ने, फौरन ही, उसे मिलाना शुरू किया, और जब न मिला सका तो अवचेतन को ज्यों का त्यों सौंप दिया! अवचेतन एक सागर है! इसमें कोई भी घटना, स्वप्न, कल्पना, समय, आदि, हमारे उस शरीर से सम्बंधित तथ्य सदैव ही रखे होते हैं सम्भाल कर! तो मेरे अवचेतन ने फौरन ही ये पहचान ली आवाज़! हालांकि ये आवाज़ कुछ मद्धम सी और कुछ धीमी सी थी! आवाज़ में, कहीं भी कोई खिंचाव नहीं था, भावहीन सी आवाज़ थी!
"शाश्व!" आयी फिर से आवाज़!
"साधिके!" कहा मैंने,
"आओ, उठो!" बोली वो,
मैंने हाथ आगे किया, और उसने उठा लिया!
मैं नहीं देख पाया उसे, उसके पीछे, दाएं, बाएं, प्रकाश ही प्रकाश था! जैसे प्रकाश उसी में से फूट रहा था!
"शाश्व!" बोली वो,
मैं तो झूल ही गया था उसके ऊपर!
"हाँ, साधिके!" कहा मैंने,
"मैं कौन!" पूछा उसने,
ये प्रश्न, ऐसा था, कि स्वयं ही उसने उत्तर दे दिया हो! इसीलिए, प्रश्न सुनते ही, मेरी हंसी गूंजने लगी! मैं रुक गया, और उसके सहारे ही, उसको देख, हंसने लगा!
"शाश्व!" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने हंसते हंसते!
"मैं कौन?" पूछा उसने,
"वधुका!" कहा मैंने,
और जैसे ही मैंने ये कहा, वहां का दृश्य ही बदलने लगा! वैसा कुछ नहीं बचा, जैसा अभी पहले ही था! मुझे, दूर दूर के दृश्यों में, कई मन्दिर, पुल, लोगबाग, भीड़, सड़क आदि के दृश्य एक बार फिर से दिखने लगे!
"वधुका?" मैंने चिल्ला कर पूछा!
"शाश्व!" आयी आवाज़!
ये आवाज़ भूमि के नीचे से आ रही थी जैसे! मैं घबरा गया! पाँव हटाने लगा अपने! मेरी समझ, ने पलटा खा लिया था उस पल!
"जाओ शाश्व!" आयी आवाज़!
"कहाँ वधूके?" पूछा मैंने,
मैंने ये प्रश्न जैसे ही पूछा, मैं हवा में उछल, जैसे मेरे बदन से, मैं, बाहर निकला होऊं! सच बता रहा हूँ, जैसे मेरे शरीर से. खुद मैं ही निकला होऊं उस वक़्त! मुझे मेरा ही साया सा निकलता दीखा था! मैं उसी क्षण, कटे पेड़ सा नीचे गिर पड़ा! अब अचेत था! 
कितना समय बीत, पता नहीं! मुझे ज्ञात नहीं! बस इतना ही ज्ञात है, कि जब मैं गिरा पड़ा था, तब मुझे किसी ने, एक मृद-पात्र में, तीन दाने दिए थे, ये उबले हुए थे, ये दाने, जैसे जौ के थे, मुझे उन्हें खाने को कहा गया था और मैंने खा लिए थे! तब मैंने, उन सभी को, उस वृद्धा को, जो पेड़ के कोटर में थी, वो दो कन्याएं, वो वृद्ध, जो सरोवर के पास था, वो कुटिया वाली वृद्धा, और वो साधिका मेरी, सभी को लौटते हुए देखा था मैंने! बस, इतना ही याद! है! और जो याद है उसके बाद का, वो लिख ही रहा हूँ!
मैं उठ, अचानक से! मेरे मुंह में मिट्टी भरी थी, उसे थूक थूक कर साफ़ किया! तभी दृष्टि आसपास गयी! ये वही श्मशान था! मैं उचक कर फौरन ही खड़ा हुआ! पीछे देखा तो मेरी साधिका औंधे मुंह पड़ी थी! बिजली की तेजी से, लपक कर वहां गया! अलख को देखा, अलख अब शांत हो, सो गयी थी! मेरे सामान शेष था अभी भी, पीछे पेड़ों पर, पक्षियों की चहल-पहल होने लगी थी! पूर्वी क्षितिज का रंग बदलने लगा था! सोये हुए पौधे जाग चुके थे! इसका अर्थ था, मैं वापिस हो आया था उस लोक से!
"साधिके? साधिके?" मैंने नीचे बैठते हुए उसे झिंझोड़ कर पूछा!
उसने कोई उत्तर नहीं दिया, तब मैंने वस्त्र लपेटा उसकी देह पर, स्वयं के लिए भी वस्त्र ढूंढा, मिला तो बाँध लिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
और जल छिड़का मैंने उसके मुख पर! आँखों में हलचल सी हुई उसके! मैं प्रसन्न हो उठा!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो, नेत्र खोलते हुए!
नाथ! अब कोई शाश्व नहीं! शाश्व तो लौट चुका था! शाश्व अब नहीं था वहां! अब नाथ था! मैं मारे प्रसन्नता के, लिपट ही गया उस से! चूमता रहा उसे बेतहाशा! उसने, मुझे, इस साधना के पर लगा दिया था! साधना, पूर्ण हुयी थी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और इस प्रकार से, क्रिया का, इस साधना का, अंतिम एवम महत्वपूर्ण चरण भी पूर्ण हो गया! मित्रगण! आयामों में विचरण करना, इतना सरल भी नहीं! समाधि की जिस उच्चावस्था के विषय में बताया गया है, वो यही अवस्था होती है! हमारा शरीर, मात्र एक 'स्थल' ही है, और इसका यात्री, मुसाफिर हमारी आत्मा ही है! आत्मा का जो स्वरुप एवम परिभाषा हम आज तक पढ़ते आये हैं, जानते आये हैं, हम समझते आये हैं, हमें समझाया गया है, उसमे कुछ ही अंश तक सत्य है! भूत, प्रेत आदि सत्ताएं, आत्मा ही बताई गयी हैं! परन्तु ये आत्मा तो हैं, लेकिन इसमें कई गूढ़ भेद हैं! ये भेद, न कोई बताता है, न ही इतनी सरलता से जाने जा सकते हैं! इन्हें जानने के लिए हमें कुछ साधन करने पड़ते हैं! यही साधन, किस प्रकार से प्रयोग किये जाएँ, ये तन्त्र द्वारा ही समझा जा सकता है! ऐसा नहीं है, कोई अन्य रीत ऐसा नहीं करती, करती है, परन्तु उस विषय में कभी जान नहीं सका! खैर, छोड़िये, अब इसी घटना में ही रहते हैं....
तो अगले दिन मेरी नींद खुली! उस रात, साधिका को, मैं उठा कर लाया था, उसके कक्ष तक, और अपने कक्ष में आ गया था! आज मुझे भोग अर्पित करना था, मसान राजा को! उसकी स्वीकृति के बिना कुछ भी सम्भव न था! मैंने, करीब दो बजे, बाबा से मुलाक़ात की थी, कुछ मुद्रा भी बाबा को सौंप दी थी, बाबा ने मेरे लिए समय निकाला था, अतः मैं उनका धन्यवाद कैसे भी करता, कम ही था! चार बजे करीब मैंने शहरयार जी को बुला लिया था! वे बेहद प्रसन्न थे कि साधना पूर्ण हो गयी थी! बाबा उर साधिका मेरी, एक दिन बाद वहां से लौटने वाले थे, आज दावत थी, वो भी मेरी तरफ से ही! तो मैंने भेरी, खड्ग आदि का पूजन कर लिया था!
चार बजे, शहरयार जी आ गए! गले मिले और प्रसन्न हो गए थे वे! मैंने उन्हें, साधना पूर्ण होने के विषय में बता ही दिया था! हाँ, कोमल के कई बार फ़ोन आये थे, विवशता ये, कि उस से बात नहीं हो पायी थी! समय ही नहीं मिल पा रहा था!
छह बजे, भोग अर्पित किया गया, और नौ बजे, हमारी दावत शुरू हुई! आठ बजे करीब मेरी बात हुई थी कोमल से, वो नाराज़ तो नहीं थी, लेकिन अल्हड़ सी उम्र थी, तो नखरा कच्चा था उसके, कुछ ही पलों में टूट गया था, उस से वायदा किया था, कि एक महीने बाद, उस से पुनः मुलाक़ात होगी, वहां, मुझे काम था कुछ, इस बहाने उस से भी बात हो जाती!
नौ बजे.....
"शहरयार?" कहा मैंने,
"हुकुम?" बोले वो,
"कल ज़रा जेवरनाथ के पास चलें!" कहा मैंने,
"बिलकुल जी!" बोले वो,
तभी मोहन भी आ गया, आया था किसी काम से! नमस्कार हुई उस से! शहरयार जी और वो, एक दूसरे को देख बड़ी ही ज़ोर से हंसे!
"बैठ यार!" बोले 
"बस जी, बैठना ही बैठना है!" बोला वो,
"और सुना?" बोले शहरयार!
"अब सुनी-सुनाई बाद में, पहले तर्रमतर!" बोला वो,
"हाँ! ये ले, बना! और फहरा दे झंडा!" बोले शहरयार!
ये सुन, मैं तो हंस ही पड़ा!
"मोहन?" बोला मैं,
"जी?" बोला वो,
"कल जेवरनाथ के पास जाना है!" कहा मैंने,
"पता है!" बोला वो,
"तू कैसे जाने?" मैंने अचरज से पूछा!
"चर्चा है हर ओर!" बोला वो,
"अच्छा! वैसे क्या रखता है ये?" पूछा मैंने,
"कुछ ख़ास तो नहीं, चार-पांच रँगा हैं!" बोला वो,
"कोई पकड़?" पूछा मैंने,
"साला कमीना इंसान है! बहुत कमीना, सब जानते हैं!" बोला वो,
"कैसे?' पूछा मैंने,
"अब समझ जाओ आप?" बोला वो,
"हूँ! अच्छा!" कहा मैंने,
"छापू जानते हो?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वैसा कुछ!" बोला वो,
"अच्छा?" बोले शहरयार जी!
"हाँ!" बोला वो,
तभी एक सहायक आया, अंदर आते ही, मोहन से बोला कुछ, कुछ देहाती सी भाषा थी, कुछ सामान की सी बात थी! बात हुई और वो चला गया!
"कल मैं और ये, जा रहे हैं उधर!" कहा मैंने,
"आराम से जाओ!" बोला वो,
"बात करते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक! कोई बात हो तो फ़ोन कर देना! वहीँ पहुँच जाऊँगा!" बोला वो,
"ज़ुर्रत ही न हो उसकी कुछ बोलने की, तू देख?" बोले शहरयार जी!
"देखें क्या कहता है ये!" बोला मैं,
"सीधे सीधे बात करो, ख़त्म बात!" बोला मोहन!
"हाँ, सीधे ही बात करेंगे!" बोले शहरयार जी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उस रात, महफ़िल सजी रही! खाना-पीना हुआ और फिर शहरयार जी भी वहीँ रुक गए! रात, देर तक, हम बातें करते रहे और फिर करीब बारह के आसपास नींद के झोंके आये, नींद ने घेरा और हम सो गए!
सुबह, जल्दी ही उठ गए, नहाये-धोये, नित्य-कर्म से निबटे, चाय पी, नाश्ता किया! साधिका से मिलने भी गया तो वो व्यस्त थी, नहीं मिला सका! बाबा से मुलाक़ात हो गयी थी, वे आज रात लौटने वाले थे वापिस, साधिका के संग! तो मैं उनसे अब मध्यान्ह पश्चात ही मिल सकता था! तो मैंने, उस साधिका से बात की, जो मालिनि के संग थी, वो कुशल से थी, काम में हाथ बंटा रही थी! उसे बता दिया था हमने कि आज मिलने जा रहे हैं हम उस जेवरनाथ से! देखें क्या कहता है! वो घबराई हुई तो थी, लेकिन जब हिम्मत बंधाई तो कुछ सुकून सा मिला उसे! मैंने, उस से बातें करने के बाद, सरला से बातें कीं, उसको भी बता दिया, सरला भी वहां पहुंच जाती करीब एक घण्टे तक!
दिन के बारह से ऊपर का समय होने को था, गर्मी थी भी और नहीं भी! खैर, हो कुछ भी, मिलने तो जाना ही था, करीब आधे घण्टे के बाद हम वहां के लिए निकल पड़े थे!
"सीधे सीधे न माने तो?" बोले वो,
"कैसे नहीं मानेगा!" कहा मैंने,
"ठीक, यानि कि मनवाना ही है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
एक जगह ऑटो रुक, ठीक सामने 'शीतल-पेय' का ठेका!
"भाई वाह!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ओ सुन भाई?" बोले ऑटो वाले से वो!
"हाँ जी?" बोला चालक!
"ये ले, ज़रा दो, 'स्ट्रांग' पकड़ ला!" बोले वो,
"स्ट्रांग?" पूछा उसने हैरानी से!
"चल तू बैठ, मैं आया!" बोले वो,
उतरे और चल दिए, कुछ ही मिनट में, चिलचिलाता सा 'शीतल-पेय' ले आये वो! आये और बैठ गए!
"लो जी!" कहा उन्होंने,
"ये बढ़िया किया!" कहा मैंने,
"हाँ जी, मजा आ जाएगा!" बोले वो,
हमने पीना शुरू किया और चालक ने ऑटो आगे बढाया! बातें करते करते, 'शीतल-पेय' का आनन्द लेते हुए, आखिर हम जा ही पहुंचे उधर! ऑटो वाले को पैसा दे दिया, और हम चल पड़े उस जेवरनाथ के ठिकाने के लिए!
अंदर आ गए, कोई न था उधर, अंदर आये तो एक आदमी मिला, अपनी ही राह चले जा रहा था वो!
"अरे भाई?" बोले शहरयार जी!
"जी?" बोला वो,
"जेवरनाथ से मिलना है!" बोले वो,
"बाबा जी से?" पूछा उसने,
"हाँ, बाबा जी से ही!" बोले वो,
"वो तो उधर मिलेंगे!" बोला वो,
"उधर कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर, उधर बैठे होंगे!" बोला वो,
"बता सकते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं! आओ!" बोला वो,
और हम उसके साथ हो लिए! वहां, सड़क पर कुछ खोके से पड़े थे, उन्हीं के बीच में से चलते हुए, हम एक पतली सी राह पर चले, आगे तो कोई नदी थी, यहां झुग्गियां से पड़ी थीं! शायद, कुछ बाहरी क़िस्म के लोग थे यहां, बांग्लादेशी थे वो!
"कहाँ बैठे हैं?" पूछा शहरयार ने!
"आगे, नदी पर!" बोला वो,
"अच्छा, चलो!" बोले वो,
और नीचे उतरे हम, सामने नदी का किनारा था, यहां कुछ लोग बैठे थे, या तो मल्लाह होंगे या फिर वहीँ के ही कोई!
रुका वो, इशारा किया एक तरफ!
"वो पेड़ देख रहे हो?" बोला वो,
"वो जहां लोग बैठे हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहीँ!" कहा उसने,
"उधर बैठा है बाबा?" बोले शहरयार!
कड़वी सी नज़र से देखा उस आदमी ने शहरयार जी को तब!
"हाँ, चले जाओ!" बोला वो,
"धन्यवाद!" कहा मैंने,
और वो आदमी पलट कर, चला गया, दो बार पीछे मुड़कर ज़रूर देखा उसने!
"बुरा मान गया शायद!" कहा मैंने,
"मान जाए!" बोले वो,
"चलो ज़रा, मिलें!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
और हम, उस किनारे पर चलते हुए, उस पेड़ की तरफ चल पड़े!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

तो हम चल पड़े पेड़ के पास! यहां ऐसा तो कुछ नहीं था कि जैसे कोई बड़ा ही बाबा, अपने शिष्यों को कुछ सिखा रहा हो, पढ़ा रहा हो! यहां तो ऐसा लगता था कि जैसे अभी बस 'मटका' खुलने वाला हो! सभी ऐसे ही लोग थे यहां! खैर, हम जा पहुंचे उस पेड़ के पास, नीचे एक चटाई पड़ी थी, चटाई भी बांस की खपच्ची आदि से बनी थी, ये बांग्लादेशी पहचान होती हे, अक्सर और ज़्यादातर, वे लोग ही ऐसी चटाई बनाते हैं! चटाई वैसे मज़बूत और टिकाऊ हुआ करती है! यहां तो कोई बड़ी उम्र का बाबा नहीं था, यहां तो जो आदमी थे वो पचास के आसपास के ही थे!
"राम राम!" बोला एक हमें देखते हुए!
अब जिसने ये राम राम कही थी, ये अवश्य ही उत्तर प्रदेश का निवासी ही था, शायद कोई स्थानीय ही, गोंडा, फैज़ाबाद के आसपास का ही!
"राम राम जी भाई जी!" बोले शहरयार जी, कोहनी तक हाथ जोड़ते हुए!
"आ जाओ जी!" बोला वो ही,
"आ गए जी! कुछ पूछना है!" बोले वो,
"क्या?" बोला वो, आँखें ऐसे झपका रहा था जैसे अभी अभी चिलम में चरस सूँत के आया हो! लगभग , दस बढ़ लोग, ऐसे ही लग रहे थे, वैसे, चरस की गन्ध यहां नहीं थी, उन्होंने कहीं और ही चौकड़ी जमाई होगी, और अब हवाखोरी के लिए यहां आ गए होंगे!
"उस जगह के बाबा हैं जेवरनाथ, उनसे मिलना है!" बोले वो,
"बड़े बाबा?" पूछा उसने,
"हाँ, शायद वो ही?" बोले वो,
अब सभी में आँखों ही आँखों में मन्त्रणा सी हुई!
"एक काम करो" बोला एक,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"पीछे जाओ, देखो, वहां तक" बोला वो,
"उधर तो घाट सा है?" कहा मैंने,
"हाँ, घाट ही है" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"वहाँ पूछो!" बोला वो,
"मिल जाएंगे बड़े बाबा?" पूछा शहरयार जी ने,
"हाँ, वही होंगे" बोला वो,
"ठीक" कहा मैंने,
''आओ जी!" बोला मैं,
"चलो जी!" बोले वो,
और हम पीछे चल पड़े, ये डगर इस जगह से एक घाट तक जाती थी, दिख रहा था वो घाट वहाँ से,
"लोगबाग तो न के बराबर हैं?" बोले वो,
"कम ही आते होंगे" कहा मैंने,
"हाँ, आओ यहां से" बोले वो,
यहां, कुछ चिताएं सी थीं, जो जल चुकी थीं, आसपास और कोई नहीं था, हो भी तो कहीं अलग ही, यहां नहीं था!
"ये लोग यहीं संस्कार करते होंगे!" बोले वो,
"हाँ, बाकी ये नदी है ही!" कहा मैंने,
"हाँ, और यहां से गंगा जी में!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम आ गए घाट पर, गाय बैठी थीं, कुछ लोग नज़र तो आ रहे थे, लेकिन वे सभी पण्डे जैसे थे!
"आओ पूछते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम एक दुकान के पास रुके, दुकान क्या, एक ठेली थी, वहीँ रुके, सिन्दूर आदि फैलाये बैठा था एक बुज़ुर्ग सा वहाँ, स्टूल पर!
"नमस्ते जी!" बोले शहरयार जी!
उस बुज़ुर्ग ने हाथ आगे किया, आशीर्वाद की तरह!
"बाबा जेवरनाथ से मिलना है" बोले वो,
"जेवर से?" बोला वो,
"हाँ" कहा उन्होंने,
उस बुज़ुर्ग ने, हमें बता दिया कि कहाँ है उसका डेरा! वहां जाने के लिए, नदी किनारे चलते हुए ही, हम जल्दी पहुंच सकते थे! तो हम, फिर से उस नदी की तरफ चले, सीढियां उतर कर! गाय, बछड़े, सांड सभी आराम फरमा रहे थे, कुछ श्वान भी आराम से पसरे हुए थे वहां, दानकर्ताओं के खुदे हुए नाम, जो अब धूमिल से पड़ने लगे थे, दीवारों में, पत्थरों में लगे थे! गणेश जी, यहां दिन-रात पहरा दे रहे थे मूर्ति के रूप में! और हनुमान जी, जो पर्वत लेके चले, अभी यहां रुके हुए थे! ये दोनों, यहां पर, द्वारपाल बना दिए गए थे!
"वो होगा!" बोले वो,
"हाँ, वो नाग के निशान वाला!" बोला मैं,
"हाँ! तो डेरा तो पीछे है?" बोले वो,
"चल जाएगा पता!" कहा मैंने, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

तो हम एक ऐसी जगह आये, जहां से एक डगर, ऊपर के लिए चली जाती थी! यहीं से कुछ औरतें गुजर रही थीं, कुछ चढ़ भी रही थीं, ज़्यादा दूर नहीं, बांस गाड़ कर, कपड़े भी सुखाये गए थे धो कर!
"यहीं होगा!" बोले वो,
"आओ, चल कर देखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
और हम ऊपर की तरफ चल दिए, यहां भी छोटे छोटे से घर बने थे, सभी के सभी एक जैसे ही! मछुआरों की बस्ती सी लगती थी ये! तभी एक साधू से आदमी को रोक लिया शहरयार जी ने!
"बाबा जी, क्या जेवर नाथ बाबा जी यहीं हैं आगे?" बोले वो,
"सीधे चले जाओ, वहीँ जगह है" बोला वो,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"जय गंगा माई!" बोला वो साधू और चला गया नीचे!
"आ गए" कहा मैंने,
"यही है शायद!" बोले वो,
"पूछते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, उस औरत से पूछता हूँ!" बोले वो,
वो औरत आयी तो शहरयार जी ने रोक लिया!
"ये बड़े बाबा जेवर जी, यहां रहते हैं?" पूछा उन्होंने,
"काम है कोई?" सीधे ही पूछ उसने तो!
"हाँ!" बोले वो,
"हाँ, वो द्वार है, वहीँ जाओ!" बोली वो,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने, इस से पहले कि मुझे देखते वो!
"हाँ!" कहा उन्होंने,
हम द्वार पर आये! जगह तो पुरानी थी! अंदर बरगद और पीपल के पेड़ लगे थे, उम्र बता रहे थे अपनी! आसपास मन्दिर भी बहुत थे, कहीं से भी, कभी भी, मन्दिर की घण्टी बज ही जाती थी!
हम अंदर ही घुसते आये, आगे जाकर, एक जगह पर एक मन्दिर पड़ा, मन्दिर भी पुराना था, पास ही में कुछ छीकड़े पड़े थे, शायद सामग्री आदि के!
"नमस्कार जी!" शहरयार जी, एक आदमी से बोले!
"नमस्कार!" साफ़गोई से नमस्कार की उसने!
"बाबा जेवरनाथ जी से मिलना है!" बोले वो,
"अच्छा!" बोला वो,
"कहाँ मिलेंगे?" पूछा उन्होंने,
"उधर, मण्डप में!" बोला वो,
"ज़रा बता देते तो..." बोले वो,
"दिखा देता हूँ!" बोला वो,
"जी!" कहा उन्होंने,
तो वो एक जगह लेकर चला, रुका,
"वो देखो!" बोला वो,
"वो, बारामदा सा?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, वो ही!" बोला वो,
"वहां मिलेंगे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" बोला वो,
"धन्यवाद जी!" बोले शहरयार, हाथ जोड़ते हुए!
"जय जय गंगे!" बोला वो, और अपनी राह चलता चला गया!
"आओ जी!" बोला मैं,
"चलो!" बोले वो,
और हम, चल पड़े उधर! वहां आये तो साफ़ पता लग गया कि जेवरनाथ है कौन! साठ साल के आसपास का था वो, पूरा भस्म में नहाया हुआ! शरीर पर, मालाएं लपेटे हुए, रुद्राक्ष से दुध्राक्ष तक! कुछ न छोड़ा था उसने! नीचे ज़मीन पर बिछे आसन पर बैठा था, सामने एक गोल सी अलख थी, उसके बाहर, त्रिशूल गड़ा था, डमरू लटका था और हस्त-सिंहन रखा था, शरीर में भारी था, दाढ़ी सफेद थी, सर पर केश न थे, उम्र ने चाट लिए थे केश उसके! उसके आसपास, कुछ लोग बैठे थे, शायद समस्या-समाधान हेतु आये होंगे, लेकिन जो समस्या उस पर आन पड़ी थी, उसका हालिया समाधान तो न था उसके पास! बस आवाज़ दे, गुर्गे बुलाये, गाली-गलौज करे! बस इतना ही!
"बम बम भले महाराज!" बोले शहरयार जी हाथ जोड़ते हुए!
"भोले भोले बम बम!" बोला वो भी!
"यहां बैठ जाओ आप!" एक गुर्गा बोला उसका हमसे!
"बैठने का टाइम नहीं है!" बोले वो,
"क्या?" बोला वो, बड़ी हैरानी से!
"क्या बात है?" बोला वो जेवरनाथ!
"जी समस्या ही ऐसी है!" बोले शहरयार जी!
"बैठो तनिक, बताओ!" बोला वो, दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"अजी बाबा जी, बैठने का टाइम नहीं है!" बोले वो,
अब सभी देखें उन्हें! कैसी जल्दबाजी है इन साहब को! आये हुए, सभी देखें उन्हें!
"मामला गम्भीर है क्या?" पूछा बाबा ने,
"बहुत ही गम्भीर!" बोले वो,
"बैठो, बताओ!" बोला बाबा,
"सभी के सामने?" पूछा शहरयार जी ने!
"सभी यहां अपने ही हैं, बताओ!" बोला बाबा,
"कोई लड़की है जी यहां की, किसी के संग गयी थी पूजा करने, वो नहीं लौटी, उसी के बारे में बात करनी है!" बोले शहरयार जी!
इतना सुन तो बाबा, लप्पझप्प से खड़ा हो गया! आसपास देखा, फिर अपने गुर्गे को देखा, गुर्गा दौड़ा वहाँ से! और बाबा आगे आया तब!
"कौन हो तुम?" बोला वो,
"वो ही, ठीक समझे!" बोले वो,
"तो लड़की तुम्हारे पास है!" बोला वो,
"पहले दिन से ही!" बोले वो,
"अब नहीं लौटने वाला तू!" बोला वो,
"लौटने वाला? बोले तो तुझे भी ले जाऊं यहां से?" बोले अब तैश में आकर शहरयार जी!
बाबा ज़रा चौंका! थोड़ा कम हुआ कद उसका, तना सीना, थोड़ा कम हुआ! और इतने में ही, आठ-दस गुर्गे दौड़ आये उधर! एक घेरा सा बना लिया उन्होंने, बाकी लोग, उठ कर, एक तरफ खड़े हो गए!
"लड़की कहाँ है?" पूछा बाबा ने,
"तेरी बेटी? हाँ! सुरक्षित है!" बोले वो,
"जो पूछ वो बोल?" भड़का बाबा!
"मैं क्या बोलूं?" बोले वो,
"कहाँ है लड़की?" पूछा बाबा ने,
"पुलिस-स्टेशन! आ रही होगी! बस कुछ ही देर और तू चला अंदर फिर!" बोले वो,
ये सुन! बाबा की हुई लँगोट ढीली! चेहरे से उड़ गया रंग! बाबा तो गिरने को ही होये!
"सुन रे ओ ** * **! साफ़ साफ़ सुन!" बोले शहरयार जी, आगे बढ़ते हुए!
अब बाबा कुछ न बोला!
"लड़की नहीं लौटने वाली अब! सुना है, उसका बाप भी यहीं है, बाप का मामला बाप जाने और बेटी! अब अगर तूने कुछ भी खोज लगाई या उस लड़की को तंग किया, तो क़सम से कहता हूँ, तुझे काट ही दूंगा, जो होना हो, हो!" बोले वो, ज़रा अकड़ वाले तेवर में!
"हाँ? फ़ोन किसने किया था? बुला ज़रा उसे? कौन सा पहलवान है वो, ज़रा देखें तो सही?" कहा मैंने,
अब कोई, उसे, उसके ही डेरे पर, आकर, गाली-गलौज करे, धमकाए, न घबराये तो वो कुछ तो होगा ही! यही बात सोच, गुर्गे, पिघले मोम से हो, खड़े थे वहां! लोग जो थे उधर, मामला समझ, खिसक लिए थे एक एक करके!
"किसने किया था फ़ोन?" पूछा उन्होंने!
बाबा चुप! शायद पहले ये सब, कभी भोगा हो उसने, या फिर उसकी उम्मीद के मुताबिक़ काम नहीं हुआ था, इसीलिए सांप सूंघ गया था उसे!
"बुला, बुला उस **** को?" बोले वो,
बाबा चुप्प! गुर्गे, सूखे सभी!
"हाँ?" पूछा शहरयार जी ने उस से!
"करेगा खोज? करवाएगा फ़ोन? जो जी में हो, बोल, लड़ना हो तो लड़, या फिर मामला सुलझाना ही हो, तो सुलझ गया! और हाँ, उस फ़ोन करने वाले को कह देना, कभी अगर टकरा गया, तो न सीधा चले ही, बोले ही, देखे ही, खावे ही और न हगे ही! समझा?" बोले शहरयार!
"चलो अब! छोडो! जो समझाना था समझा दिया, कुछ हुआ, तो इसका पता है ही, जी बना कोई पहलवान, तो फिर न बचे कोई यहां!" कहा मैंने,
बाबा चुप्प! उसका तो कागज़ ही फट गया था! सोच रहा था कोई अइय्या-भैय्या ही होगा, लेकिन यहां तो मामला ही अलग निकल!
''जा रहे हैं! समझ ले अच्छी तरह से! जो चर्बी उतरवानी हो, तो फ्री सेवा दूंगा!" बोले वो, और मैं हंस पड़ा उन सभी की दशा पर! ऐसे लोग सिर्फ औरतों और कमज़ोरों को ही डराते-धमकाते हैं! बस!
तो मित्रगण!
हम निकल आये वहां से! उस लड़की को खबर कर दी, बड़ी ही खुश हुई वो! कल उस से मिलना भी था! सरला ने भी लोहा मान लिया हमारा! उसी रात, अपनी विशिष्ट साधिका और बाबा जी को भी विदा कर दिया! रात भर जश्न किया! अगले दिन उस लड़की से मिले, वो बहुत ही खुश थी, उसे बता दिया कि कुछ प्रबन्ध होने तक, वहीँ रहे, मालिनि से लगाव हो चुका था उसे! बेटी की तरह ही! मालिनि अपने तौर पर, और हम अपने तौर पर, उसका प्रबन्ध कर ही रहे थे! उनसे विदा ले, हम काशी आये, यहां दो दिन रुके और फिर दिल्ली वापिस हुए! करीब एक महीने बाद, उस लड़की का भी रोज़गार सम्बन्धी प्रबन्ध, उस मालिनि ने कर ही दिया था, दोनों ही खुश थीं! और क्या चाहिए था! सब निबट गया आराम से! अभी तक ऐसी कोई खबर नहीं मिली कि जेवरनाथ के किसी भी आदमी या उसने स्वयं कभी तंग किया हो! लड़की का पिता, शराब का आदी है, वो आज भी उसी जेवरनाथ के संग ही है!
साधुवाद!


   
ReplyQuote
Page 8 / 8
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top