वर्ष २०१३ त्रैरात्र...
 
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वर्ष २०१३ त्रैरात्रिक-वधु!!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"सागर कहाँ होता है?" पूछा मैंने,
"जहां नदियां संगम कर, सागर से मिल जाती हैं!" बोली वो,
"और ये नदियां क्या?'' पूछा मैंने,
"सरोवर, प्रपात आदि?" बोली वो,
"सत्य!" कहा मैंने,
और इतने में, एक वसायुक्त टुकड़ा मांस का उसने अलख में झोंका! जैसे ही वो वसा गर्म हुई, उसमे बुलबुले उठने लगे! अनगिनत! मैं मुस्कुरा गया! यही तो! यही तो होना है हम सभी का! बुलबुले से उत्पन्न हुए, बुलबुले समान ही जीवन जिया! बुलबुले से सुखों से प्रसन्न हुए! और अंत में, वापिस फिर, बुलबुला हुए! यही तो है, चक्र! इस संसार का चक्र!
"साधिके?'' अब कहा मैंने,
और मंदिर के गिलास उठा लिया, होंठों से लगाया और गट गट कण्ठ के नीचे उतारता चला गया!
"साधिके!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए!
"सरोवर, प्रपात स्थिर हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तब उनसे फूटी धाराएं, चंचल सी, शोर मचाती हुई आगे चल पड़ती हैं! हैं न साधिके?'' पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"तब वो चपल हो जाती हैं!" कहा मैंने,
"बहुत ही चपल!" बोली वो,
"और उनमे तब, स्थिरता नहीं रहती, वे चलायमान हो जाती हैं! है न?'' पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"अर्थात, स्थिरता से चलायमान होने की दिशा और दशा, बनती है!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"अब एक प्रश्न!" बोला मैं,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"यदि किसी ग्राम में, या शहर में कोई नदी जब बाढ़ ले आती है, तब दोष किसको लगाया जाए?" पूछा मैंने,
वो अटक सी गयी! कुछ समझ नहीं आया उसे!
"क्या उस नदी को? जिसको बाढ़-पीड़ित मनुष्यों ने देखा, उसका उग्र रूप देखा या फिर, उस सरोवर को, जिसका रूप उन्होंने कदापि नहीं देखा!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"मैं इस योग्य नहीं!" बोली वो,
"प्रयास करो!" कहा मैंने,
"कुछ कहूँ? आज्ञा?" बोली वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
"साधारण रूप से तो नदी ही!" बोली वो,
"हाँ, नदी ही, परन्तु, साधारण रूप से! है न?" बोला मैं,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"तो ये साधारण कौन? अधिकाँश ये साधारण, मनुष्यों में, बहुमत में हैं! अधिकाँश!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"परन्तु, न सरोवर भरत ही, न नदी ही उफान खाती!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"तो उस साधारण से शेष सोचेंगे, कि दोष उस सरोवर का है! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही है!" बोली वो,
"परन्तु?" कहा मैंने,
"क्या नाथ? क्या परन्तु?" बोली वो,
"न बरसात ही होती, न जल ही भरता!" कहा मैंने,
"हाँ, सत्य तो यही है!" बोली वो,
"मान लिया! सागर का कोई दोष?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या भला?" पूछा मैंने,
"न सागर से जल मिलता न बरसात ही होती, न सरोवर ही छलकता और न नदी में उफान आता और और न बाढ़ ही बनती!" बोली वो,
"हाँ, सच है!" कहा मैंने!
और फिर से मदिरा उड़ेल ली गिलास में!
"परन्तु, ये तो एक नियम है, इसमें किसको दोष? न सूर्य-रश्मियां पीड़ित होतीं, न जल वाष्प बनता, न मेघ आच्छादित होते और न ये सब!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो साधिके! इस संसार में हो रहा है, होता आया है, हो कर रहेगा, उस पर किसी का कोई बस नहीं! कोई भी, इस चक्र को नहीं रोक सकता! कोई भी नहीं! हाँ, मात्र समझ ही सकते हैं! विज्ञान क्या है? समझना! उस क्रिया एवम प्रक्रिया को समझना! यही है विशुद्ध विज्ञान! अब ये शक्तियां! साधिके! ये अपने अस्तित्व में हैं, थीं और रहेंगी! ये भी एक विज्ञान ही है! जिसे, कोई न कोई, एक न एक दिन, अवश्य ही समझ लेगा! इस संसार में कारण है यदि तो उसका भी कुछ न कुछ कारण है! फिर उसका कारण भी है! और ये सब कहाँ रुकता है? ये सब, उस पारब्रह्म में रुकता है, जो सर्वज्ञानी है, जो रचियता है! मात्र वही, इसको जान सकता है अथवा, समझा भी सकता है! जो सिद्ध हो जाता है वो जान लेता है!" कहा मैंने,
और तब, वो गिलास खाली कर दिया मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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कुछ पलों तक, शान्ति पसरी रही! आज अंतिम रात्रि थी इस साधना की, अभी कुछ समय था हमारे पास! इसीलिए, तन्त्रोक्त विषय पर चर्चा चल रही थी, ऐसा अक्सर होता है!
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"आओ, अलख सम्भालो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और मैं उठ खड़ा हुआ, वो भी, और वो उस जगह आ पहुंची! अलख को नमन किया उसने और फिर ईंधन झोंक दिया!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"मैं चाहता हूँ अलख अब तुम न सम्भालो!" कहा मैंने,
वो चौंक पड़ी! कुछ समय ही पहले, मैंने अलख उसे सौंपी थी, अब फिर से उठने को कह रहा था?
"जी, नाथ!" बोली वो,
और उठने को तैयार हुई!
"रुको!" कहा मैंने,
वो फिर से चौंकी!
"हाँ, उठो नहीं!" कहा मैंने,
"मैं नहीं समझी?" बोली वो,
"समझाता हूँ!" कहा मैंने,
"क्या बैठ जाऊं?" पूछा उसने,
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
वो बैठ गयी पुनः!
"मेरा अर्थ था, प्रवेश!" कहा मैंने,
"ओह...समझी!" बोली वो,
"क्या तैयार हो?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"साधिके?'' कहा मैंने, कुछ खाते हुए उस थाल से!
"जी?" बोली वो,
"मैं तुम्हारी देह में प्रवेश करवाऊंगा! तुम, तुम मात्र देह होंगी, देह-स्वामी कोई और होगा!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
"कोई प्रश्न?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई भय?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई शंका?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अन्य कोई सुझाव?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
मैं चुप हुआ, अलख में ईंधन झोंका!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"तुम्हारी देह में, 'औघड़ गुरुआयन' प्रवेश करेगी!" कहा मैंने,
उसके चेहरे पर जहाँ प्रसन्नता आयी, वहीँ, ये शीघ्र हो, ऐसा भाव भी मैंने देखा! मैं प्रसन्न हो उठा!
औघड़-गुरुआयन! ये गुरुआयन कही जाती है! इसका आह्वान मात्र, शुद्धि-कर्ण हेतु ही नहीं, वरन इसको बुलाने से, मार्ग अवरोधरहित, कष्ट मिटाने वाला व स्थायित्व हेतु किया जाता है! जब कोई साधक श्मशान उठा लेता है तब, उसका द्वित्य चरण इसी का आह्वान होता है! तदोपरान्त, ये साधक की, मदद किया करती है! मन्त्र शीघ्रता से, तन्मयता से जपता चला जाता है! औघड़-गुरुआयन, पैशाचिक श्रेणी में आती है, जैसे, कर्ण-शूल, कर्ण-पिशाचिनि आदि!तो ये ही मेरा मक़सद था यहां!
"साधिके?" कहा मैनें,
"जी?" बोली वो,
"कौन बड़ा?" पूछा मैंने,
"जटेश!" बोली वो,
"क्या ओढ़े?" बोला मैं,
"सिंगिया!" बोली वो,
"क्या नापे?" पूछा मैंने,
"कैलास!" बोली वो,
"क्या भोसे?" पूछा मैंने,
"मांस-मदिरा!" बोली वो,
"कितने संग?" पूछा मैंने,
"फट्ट तिरासी!" बोली वो,
"कौन सेवक?" पूछा मैंने,
"मैं और तू!" बोली वो,
"माँ कौन?" पूछा मैंने,
"लोना *मारिन!!" बोली वो,
"और मैं कौन?" पूछा मैंने,
"स्वामी मेरा!" बोली वो,
"तू कौन?" पूछा मैंने,
और उठ खड़ा हुआ! उधर साधिका ने उत्तर नहीं दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"साधिके?" कहा मैंने, फिर से!
और उस बार भी कोई उत्तर नहीं! मुझे आदेश हो गया था उसी क्षण कि गुरुआयन की आमद हो ही चली है! अब उसके सेवकगण भी यहां उपस्थित होंगे! गुरुआयन, पांच महापिशाचिनियों एवम दो उत्भत्तल, रौद्र महाप्रेतों द्वारा सेवित होती है! इस की एक पिशाचिनि, सौम्य भाव रखने वाली, भय का नाश करने वाली एवं वर प्रदान करने वाली होती है! इसका नाम है, गोराचि, ये पुष्पों वाले तालाब में वास करती है! सर्प-विद्या में इसका उल्लेख होता है, गोराचि दरअसल एक वनस्पति है जो तालाब में नीचे तल में पायी जाती है! ये औषधि के रूप में सर्प-विष को प्रभावहीन करती है! जिस तालाब में ये होती है, वहां पर्णिका उत्पन्न नही होती, यही इसके वास की पहचान है! इस पिशाचिनि से इस वनस्पति का क्या सम्बन्ध है, ये कहीं वर्णित नहीं! न ही गोराचि के रूप आदि का ही कोई वर्णन मिलता है! लोहे के थाल, लोहे का दीया, चूल्हे की राख और सरसों के तेल से ही इसका पूजन होता है! सामने जो चूना लगा, पात्र रखा जाता है, वो इसका मन्त्र सिद्ध होने पर, काला पड़ जाता है, अब यही पात्र सिद्ध-पात्र कहलाता है! इसमें पानी भर कर, रोगों का, बांझपन का एवम विष-हरण का इलाज अक्सर ही ओझा एवम गुनिया किया करते हैं! इसका मन्त्र, बारह बार पढ़ कर, उस पानी पर, जो इस पात्र में भरा जाता है, पिलाया जाता है पीड़ित को, बारह दिन में बारह बार, तेरहवें दिन से ही लाभ मिलने लगता है! तदोपरांत, सवा किलो बकरे का मांस, और मंदिर का भोग अर्पित करवाया जाता है! यही इसका सौम्य रूप है! अन्य महाप्रेत इसके, अन्य पिशाचिनियाँ इसकी, कभी प्रकट नहीं होतीं!
तो यहां गुरुआयन की आमद होने ही वाली थी, मेरी साधिका, सर नीचे कर, अपने घुटनों पर बैठ, आगे को झुक, सर नीचे किये हुए बैठ गयी थी! मैं खड़ा हुआ, और तब अलख को नमन किया!
''साधिके?" कहा मैंने,
"हुंह?" बोली वो,
"गुरुआयन है?" पूछा मैंने,
"हूँ हूँ.....!" बड़ी लभि सी हुंकार भरी!
''साधक का प्रणाम!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो!
"कहाँ से आयी?" पूछा मैंने,
"तीमन खा कै!" बोली वो,
"जाओगे कहाँ?" पूछा मैंने,
"जां तू ले ज्जावै!" बोली वो,
"मैं तो भूखा
 हूँ!" बोला मैं,
"ना ना!" बोली वो,
"हाँ गुरुआयन!" कहा मैंने,
"ओ देखह?" बोली हाथ आगे करते हुए! 
मैंने देखा, देखा, तो सामने अलख और अलख के परे एक बड़ा सा मांस का पिंड! लाल एकदम! जैसे ताज़ा ही काट दिया गया हो! मैं आगे आया और देख उसे! ये किसी किशोरी का धड़ सा लगता था, जिसके स्तन थे, और नाभि तक का हिस्सा था, बाकी काट दिया गया था!
"भेंट?" पूछा मैंने,
"हाक्क!" सर हिला कर बोली वो,
"किसने दी?" पूछा मैंने,
"मल्ला!" बोली वो,
ये मल्ला कोई ऐसा औघड़ रहा होगा जिसने किसी की बलि चढाई होगी, किसी कन्या की, चूँकि वो धड़, उसका हिस्सा लगता था कि सड़ा-गला नहीं था, ये तो स्पष्ट था कि बलि के नाम पर किसी किशोरी को भेंट चढ़ा दिया गया होगा! ये गुरुआयन ही ऐसी है जो अपने साधक को, भोजन भी उपलब्ध कराया करती है! ये अलग बात है कि ये भोजन अक्सर मांस ही होता है, अब चाहे मनुष्य का ही क्यों न हो! अब पता नहीं कहां चढाया होगा ये भोग और कब चढाया होगा! इसे सेवक-सेविकाएं भोग ले रहे होंगे, तब दे दिया उसने यहां भी!
"गुरुआयन?" बोला मैं,
"हाक्क!" बोली वो,
"कुछ बता तो सही?" कहा मैंने,
"क्या? क्या? क्या?" चीख चीख कर, बोली वो!
"कहाँ जायेगी?" पूछा मैंने,
"जां तू ले ज्जा!" बोली फिर से!
"कुछ सिखा दे?" बोला मैं,
"क्या? क्या? क्या?" चीखी वो!
अब मैंने अपना उद्देश्य बताया उसे! उसने जानकर, ज़ोरदार सा अट्टहास किया! लेकिन सौ बार कहने पर भी, अलख पर बैठने को तैयार न हुई! इसका अर्थ हुआ कि अभी मैं कच्चा था! मुझ में योग्यता ही न थी ऐसा करवाने की!
"ठीक है गुरुआयन!" कहा मैंने,
"हाक्क!" बोली वो,
"कुछ दे तो जा?" बोला मैं, हंसते हुए!
"डेरा जाऊं, कुआँ जाऊं, चढ़ बैठूं पुछड़िया छाती! प्रेत, कारू, जमकारु बनाऊं घराती!" बोली वो!
साधिका खड़ी हुई, पान ऊपर होने शुरू हुए उसके और देह उसकी तब, झूला सा झूले! मैंने मन्त्र पढ़, भस्म ली और चला साधिका के पास! और फेंक मारी भस्म साधिका पर! अभीष्ट हुआ! साधिका, पके फल की तरह डाल से टूटी और मैंने लपकी! अट्टहास गूंजा और गुरुआयन अपने सेवकों सहित, लौट गयी!
तब मैंने साधिका को नीचे रखा! वो सकुशल थी, बस, उसकी काया में, उसका सूक्ष्म गहरे दब गया था, वायु-प्रवाह होता तो जागृत हो जाता! और मुझे, करनी थी प्रतीक्षा! सो मैं, उधर ही बैठ गया!
और वो बरबटी मन्त्र, जो अभी सुना, वो काम का है! परन्तु यहां नहीं लिखूंगा उद्देश्य उसका! जब तक मन्त्रों के विषय में पूर्ण ज्ञान न हो, कदापि प्रयोग नहीं किये जाने चाहियें! चूँकि इन्हीं मन्त्रों से सृजन भी होता है और विध्वंस भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो लेटी हुई थी, और मैं अलख में ईंधन डाले जा रहा था, कुछ पल ऐसे ही शांत निकले, कुछ ही समय में, दूसरा प्रहर आधा बीत जाने वाला था!
"हिल्लाज! अहो! अहो! अहो! हिल्लाज? अहो अहो!" बोली वो, पेट पर हाथ मारते हुए! और उठ बैठी! आसपास देखा, बस मुझे ही नहीं! आकाश की ओर देख, ज़ोर ज़ोर से फूंक मारी उसने!
"अहो! अहो! चंडूलिका! अहो! हिल्लाज!" बोला मैं भी!
ये सब, 'अंतर-जंतर' हैं तन्त्र के! ढेले होते हैं ये! मारे जाते हैं! हिल्लाज का मतलब हुआ, तैयार! अहो, मायने अभी! इसका मतलब, गुरुआयन की जामद होने वाली हैं! वो, वहाँ 'अपनों' को संग ले जाने वाली थी! अपने! समझे कौन? प्रेत, भूत-मण्डली! जो इसके संग लगी रहती है! मुझे एक बार एक जोगन ने बताया था, कि उसने भोड़ा जाल्या था, मतलब रही थी वो, इस गुरुआयन के 'डेरे' में! उसके अनुसार, उसे लगता था कि इस संसार में तो ये भूत और प्रेत ही हैं! कोई मानस ही नहीं! ऐसा संसार है ये! अब लोग पागल कहें उसे, तो कहें! बावला कहें, तो कहें! बौरा गया है, तो भी तैयार वो! औघड़ तो बावरा ही होता है! बावरे का पर्यायवाची ही तो है वो! और क्या! मान और सम्मान से परे!
और एक लहर सी खाते हुए, फिर से धम्म से लेट गयी वो! अब लौटी थी गुरुआयन पूर्ण रूप से! 
"साधिके?" मैंने बैठे बैठे ही कहा,
कोई उत्तर नहीं मिला!
"ओ साधिके?" कहा मैंने,
इस बार भी उत्तर नहीं!
मैं हंस पड़ा! जो हो रहा था, उसका भान था मुझे! मैं उठा, और एक प्याले में, मदिरा भरी, उसमे, भस्म मिलाई, एक मन्त्र पढ़ते हुए! और फिर, थोड़ा सा जल! और चला साधिका के पास!
"साधिके?" कहा मैंने,
वो नहीं बोली कुछ भी!
उसके बदन में, ऐंठन थी अभी तक, यही लगता था!
"साधिके?" कहा मैंने,
अब भी कोई उत्तर नहीं!
तब मैंने उसको सीधा किया, उसका बायां हाथ खींचा! हाथ, बर्फ सा ठंडा हुआ पड़ा था हाथ उसका!
"साधिके?'' कहा मैंने,
अब उसके नेत्रों के बीच में हरक़त सी हुई, संचार सा होने लगा था उसकी देह में!
"साधिके?" कहा मैंने,
उसने एक कराह सी भरी!
"उठो! उठो?" कहा मैंने, उसको खींचते हुए!
"साधिके?' कहा मैंने,
और तब उसने नेत्र खोले अपने! मैं मुस्कुराया!
"लो! ये लो!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"आप?" बोली वो,
"मैं ठीक हूँ!" कहा मैंने,
"ज...जी" बोली वो,
"लो, ये लो!" कहा मैंने,
मैंने पात्र आगे बढाया और उसके हाथ को पकड़ते हुए, उसको पात्र थमा दिया! जब उसने पकड़ लिया तब मैंने हाथ छोड़ दिया उसका!
"लो, भोग लो!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
और उसने मुख से लगाया वो पात्र, और धीरे धीरे पात्र खाली कर दिया! मैंने, खाली पात्र पकड़ा और रख दिया नीचे!
"आओ, इधर आओ!" कहा मैंने,
और उठा लिया उसे, वो चली मेरे साथ! सर पर एक हाथ रखते हुए!
"आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
और बैठ गयी नीचे, मेरे पास ही!
"अलख जगाओ!" कहा मैंने,
उसने नमन किया और ईंधन झोंक दिया अलख में!
"लो!" कहा मैंने,
और सप्त-मेघी दी उसे!
"इसे माथे से छुआ, अलख में छोड़ दो!" कहा मैंने,
"आज्ञा!" बोली वो,
और उसने, वही किया!
"ठीक हो?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"ठीक! आगे बढ़ें?" बोला मैं,
"जी!" बोली वो,
और मैंने अलखनाद किया फिर! खड़ा हुआ, नौ थाप दीं भूमि पर! अब चूँकि अलख मेरे हाथ में थी, मैं उसे और उग्र करना चाहता था!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"उधर चली जाओ!" कहा मैंने, त्रिशूल से इशारा करते हुए उसे! 
"आज्ञा नाथ!" बोली वो, और चली गयी उधर ही! मैंने एक महामन्त्र पढ़, मुट्ठी में मांस के टुकड़े भर, अलख में झोंक दिए! जलते मांस की गन्ध से, मन्त्रों को धार सी लगी तब! उस अलख में जां पड़ने लगी! उस गन्ध में ऐसा मद होता है, कि कोई भी व्यक्ति, कट ही जाए इस संसार से!
"नाथ?" बोली वो, ज़ोर से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हां साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ, उधर कोई है?" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"कोई है!" बोली वो, दोबारा!
"देखो! और बताओ!" कहा मैंने,
"ना....!" इस से पहले की वो पूरा करती अपना वाक्य, लहराते हुए गिरी नीचे! और सर, ज़मीन से लगा गया! मिट्टी थी, चोट नहीं आने पायी थी! परन्तु जो मैं चाहता था, वो ही हुआ था!
"हे वधुका!" मैं चीखा और हंस पड़ा!
अलख में ईंधन झोंका मैंने, ज़ोर से देकर!
"हे वधुका!" बोला मैं,
"स्वीकार कर! स्वीकार कर!" कहा मैंने,
फिर से ईंधन झोंका और फिर से हंसा मैं!
"स्वीकार! कर!!" बोला मैं,
"जा! प्रवेश कर!" बोला मैं,
"जा! प्रवेश कर!" फिर से चीखा मैं!
अब अलख में से एक जलती हुई लकड़ी उठायी! और ले चला लेटी हुई साधिका की तरफ! मदिरा उठायी एक ही झटके से! और जा पहुंचा साधिका के पास!
"ए?" बोला मैं!
'ए?" फिर से बोला!
"ए?" बोलता गया!
फिर, दो चार हल्के हल्के चाटे से मारे उसे!
"ए औरत?" बोला मैं,
और हंस पड़ा! हंसते हंसते हुए जब रुका तो उसके स्तनों से 'खेलने' लगा! खेलता जाऊं और हंसता ही जाऊं!
"तू क्या करेगी! ऐं?" बोला मैं,
"क्या करेगी! तू?" बोला मैं, हंसते हुए!
"ओ वधुका?" चिल्लाया मैं!
"आ! घर दिया!" बोला मैं,
और उसके स्तनों को छोड़, एक घुटना उसके उदर पर रख लिया! ऊपर देखा! खड़ा हुआ! पाँव डगमगाए मेरे!
"ए वधुका! आ! कर प्रवेश!" बोला मैं,
मैंने वो जलती हुई लकड़ी, पहले ही ठोक दी थी भूमि में, अब उखाड़ ली, वो बुझ गयी थी! पर लेना आग से नहीं, उसकी राख से था! सो उठायी!
"वासिनि...................................!!" बोला एक मन्त्र!
और उठ खड़ा हुआ!
"आ?" चीखा मैं,
''आ वधुका?" बोला मैं!
"देख! कोई कमी नहीं!" बोला और फिर से उसका बायां स्तन, उस लकड़ी से हिलाने लगा! और फिर से, लकड़ी ठोक दी भूमि में!
"आ?" चीखा मैं!
"आती क्यों नहीं?" बोला मैं!
"हे?" चीख कर बोला मैं!
''आ?" देख? तेरे लिए लाया!!" बोला मैं,
"आ जा! आ जा! सेज लगी है!" कहा मैंने और मिट्टी उठा, फेंक मारी सामने ही!
अब पढ़ मन्त्र! और पढता ही रहा! उस लकड़ी को उठाया, फिर उस साधिका के ओर एक घेरा खींच दिया!
आ बैठ उसके पास! और अचानक ही, मेरी साधिका उठ बैठी! आँखें, पीली-लाल हो गयीं उसकी! होंठ कस गए! नथुने फड़क गए उसके! कोई देख ले, तो भड़ाम से ज़िगर फट जाए उसका!
"तू आ गयी!" कहा मैंने,
वो गहरी साँसें ले!
"आ गयी न?" बोला मैं,
और हंस पड़ा तेज तेज!
"आना ही था! है न?" बोला मैं, और फिर से हंसा!
''आना ही था! तेरा खसम हूँ न!!" बोला मैं,
और फिर से हंसा! अट्टहास सा लगाया!
उन गुस्से में एक हाथ उठाया और जैसे ही मैंने उसे पकड़ा, झपटी मुझ पर! और हो गयी गुत्था-गुत्थी आरम्भ! वो उछले मुझ पर चढ़ने को, और मैं धकेलूं उसे! मैं बीच बीच में, हंस भी पडूँ!
और तभी एक ज़ोर का झन्नाटा दिया उसे मैंने! वो डर सी गयी! चेहरा ढीला पड़ गया उसका!
"ले?" बोला मैं,
और पाँव आगे किया मैंने अपना!
"ले?" बोला मैं,
उसने तब, अपने माथे से सर लगाया मेरे पाँव को! लगाए और देखे! लगाए, और? देखे! बार बार!
"चल हट?" कहा मैंने,
बैठ गयी पीछे!
"इधर आ ओ औरत?" कहा मैंने,
वो घुटने चल, आ गयी मेरे पास!
"हाँ?" कहा मैंने,
सर हिला कर न कही उसने!
"मैं कौन?" बोला मैं,
"मेरा.........मी...!" आधे गले से, खाते हुए शब्द निकाले उसने मुंह से अपने!
"साफ़ बता?" बोला मैं, चीख कर, लेकिन हंसा भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"वधुका?" कहा मैंने,
और झूमने लगा! वधुका ही अंतिम थी आमद में, तदोपरान्त, साधना पूर्ण हुई, माना जाता है! ये वधुका, स्वतंत्र, सिद्धिदायक एवम, मार्ग-प्रशस्त करने वाली होती है! इसकी साधना कैसी होती है, यही मैंने आपको बताया! कई कई साधनाएं ऐसी हैं, कि मैं उन्हें वर्णित तो कर सकता हूँ परन्तु वे सभी महा-रौद्र, वीभत्स, क्रूर-कर्म वाली एवम महाकलिष्ट होंगी! खैर...
"वधुका! मुझे ले चल!" कहा मैंने,
वो मेरे सम्मुख, दोनों हाथ टिकाये और घुटनों पर बैठी थी! उसके केश बड़े ही भयंकर से लगते थे! मुझे उसका कोई संकेत चाहिए थे, संकेत मिलते ही मैं आगे बढ़ता! ये अंतिम ही चरण था, इसीलिए मैं उसे उग्र और अति-उग्र किये जा रहा था! बधूक एक उग्र शक्ति है, ये मसानी-जगत में वधुका नाम से और वास्तव में, महाशालवि कही जाती है! इसका आह्वान किसी द्वन्द आदि में नहीं किया जा सकता! ये मात्र साधक के कल्याण हेतु हुआ करती है, विध्वंसता इसका गुण नहीं! जो लोग किये-कराए, किसी भी टोना-टोटके, अभिचार आदि से ग्रस्त हों, वे, पलाश का एक पत्र ले, उसमे बकरी के दूध से जमाई गयी दही रखें, दही, मिट्टी के बर्तन में, और ठीकरा एक, उसमे रखें, ताकि यही दही उठाते समय, इसी ठीकरे का प्रयोग किया जा सके, दही की मात्र, पत्र में भले ही कितनी रहे, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता इस से! सन्ध्या के बाद, इस प्रयोग को करें, ये दही, तीन दिन तक, पीड़ित स्त्री या पुरुष, बालक या बालिका को एक मन्त्र पढ़ते हुए खिला दें, दही फीकी ही रहे! उसमे कुछ न मिलाएं! यदि पीड़ित व्यक्ति में, प्रेत-वास होगा तो उखड़ जाएगा और सम्भव है कि कुछ विरोध हो, या तो वो ये दही नहीं खायेगा, या उलटी कर देगा, तब उसका निदान यही है कि कैसे भी करके उसे इस दही का सेवन करवाया जाए! जब पीड़ित को लाभ हो जाए, तो यथासम्भव दान कर दें, चाहे अन्न, वस्त्र भोजन इत्यादि! जो मांसाहार करते हों, वे मांस और मंदिर का किसी श्मशान में दान करें या, किसी भी व्यक्ति को दे सकते हैं!
मेरी साधिका, कभी मुझे देख लेती और कभी उस अलख को! अलख से प्रत्येक शक्ति आकर्षित हुआ करती है! उसे प्रसन्न करने हेतु अलख निरन्तर जलाये रखनी पड़ती है!
तो तब मैं उठा, और अलख तक गया! ईंधन उठाया, झोंक मारा अलख में! अलख बिलबिला पड़ी और साधिका, उठ खड़ी हुई!
"आ?" कहा मैंने,
वो खड़ी ही रही!
"आ?" फिर से बोला मैं!
नहीं हिली ज़रा भी!
मैं नीचे बैठ गया! और आलती-पालती मार ली, अलख में ईंधन झोंका मैंने, मन्त्र पढ़ अलख का!
"आ जा!" बोला मैं,
और हंसा गला फाड़ कर!
"क्या देखती है?" पूछा मैंने,
कोई जवाब नहीं दिया उसने!
"ले! ले? अमृत ले!" कहा मैंने,
और एक पात्र में मंदिर परोसी! मंदिर की गिरती धार में अलख का रंग घुला और वो रक्त की धारा सी लगने लगी!
"आ जा! आ!" बोला मैं,
वो खड़ी ही रही! पत्थर सी बनी! मूर्ति सी बनी!
"आ जा?" कहा मैंने,
नहीं हिली वो! बस उसके आँखें मुझ ही से चिपकी रहीं! मैंने एक घूंट पिया और नीचे रख दिया पात्र! मांस का टुकड़ा लिया, खींच कर काटा उसे, ये पुठ का टुकड़ा था, हड्डी थोड़ा नरम होती है यहां की, मज़्ज़ायुक्त होता है, सो चबा लिया! चबाया और मंदिर के सहारे, गले से नीचे धकेल लिया!
"साधिके?" चीखा मैं!
लेकिन वो, साधिका तो थी ही नहीं!
मैं खड़ा हुआ, अलख में ईंधन झोंका और फिर से साधिका को देखा! वो अभी भी मुझे ही घूर रही थी! अपलक सी! वो श्वास ले रही है या नहीं, दीख ही नहीं पड़ता था! हाँ, इतना बस, कि कभी कभी, बाएं हाथ की उंगलियां कभी हिलने लगती थीं! बस इतना ही बताता था कि उस देह में, रक्त बह रहा है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये समय बड़ा ही तीक्ष्ण था! पल में क्या हो जाए, पता नहीं! मित्रगण! जिस समय वधूके की आमद होती है, साधिका की 'सेज'(देह) को भोगने के लिए, न जाने कितनी ही अनगिनत शक्तियां, आसपास मंडराने लगती हैं! इनमे से दो तो बेहद ही खतरनाक हुआ करती है, एक भ्रामरि और दूसरी हुंडकी, भ्रामरि बेहद ही खतरनाक है! इस से साधक, संसर्ग में कभी जीत नहीं सकता, संसर्ग समय ही, रक्त का वाष्पीकरण सा होने लगता है, देह ठूंठ हो जाती है, अस्थियां भंगुर हो जाती हैं, और कुछ ही क्षणों में साधक की देह राख हो जाती है! हुंडकी काम-सुंदरी होती है, ये साधिका में उस समय प्रवेश करती है, जिस समय साधिका को आनन्दातिरेक की स्थिति होती है! इस के प्रवेश करते ही, योनि से स्राव होता है और ये स्राव रक्त का होता चला जाता है! साधक चाह कर भी पृथक नहीं हो पाता, उसे ये, इस आनन्द में घेर लेती है कि उसे वप माया भी मूर्त सी प्रतीत होने लगी है! तो मुझे इसका भी ख़याल रखना था!
"आ जा साधिके?" कहा मैंने,
वो नहीं हिली ज़रा भी!
"वधुका!" कहा मैंने,
और उसके पास चला, उसकी देह को देखा! देह जो पहले पाषाण सी थी, उसमे अब कुछ परिवर्तन सा होने लगा था, उसकी देह से, गुलाब की सी सुगन्ध एवम स्निगधता सी आने लगी थी! रह रह कर, उसके बदन का कोना कोना, काम-बाण छोड़ रहा था! वो उस समय एक पुस्तक समान थी, जिसे पढ़ने, बांचने के लिए, एक साधक लालायित हो उठा था!
"साधिके?' कहा मैंने,
उसके पीछे जा कर कहा था मैंने,
"साधिके?" कहा मैंने फिर से, और उसके कंधे पर स्पर्श किया! चिकर सी पड़ी वो, पूरे बदन में उसके फुरफुरी सी दौड़ पड़ी! और मैं समक्ष आ गए उसके! उसके स्तनों में उसके केश अड़े थे, वो हटा दिए, हाथ पकड़ा अचानक उसने, और अपने होंठों से लगा लिया, मैं सतर्क था! उसने पलकें नहीं झपकी थीं, कुछ भी होना सम्भव था! उसने हाथ छोड़ दिया मेरा अगले ही पल, और अपने नेत्र बन्द कर लिए! सर पीछे किया और ठुड्डी आगे!
"वधुका?" कहा मैंने,
"हाँ?" बदली उसकी आवाज़!
"वधुका?" कहा मैंने,
"हाँ, हूँ यहीं!" आयी आवाज़ उसकी!
ये आवाज़, कच्ची सी, सौंधी सी, अति-मृदु से थी! ये आवाज़ यदि और उच्चारित होती रहे, इसी भाव में, तो सत्य कहता हूँ, अच्छे से अच्छा साधक, वहीँ स्खलित हो जाए! स्खलित हो जाए, उसके विचार से ही!
"वधुका?" कहा मैंने,
"हम?" बोली वो,
इस बार उसके बदन में तराहट सी आयी! और मेरे बदन को नमी ने घेरा! वो बोलती तो मेरा जोड़ जोड़ एक हल्के से दर्द से, कहक उठता! अजीब बात ये, कि इस दर्द में ऐसा असीम आनन्द व्याप्त था, कि लगे, बस यही! यही है वो, अंतिम-स्थिति! अंतिम-चयन! अंतिम-लक्ष्य! बस यही! शेष सब मिथ्या ही है! बस, मैंने ही जाना ये अनन्त आनन्द! बस एक मात्र रहस्य जो था, वो यही है! यही तो है!
"शाश्व?" बोली वो,
इस बार नज़रें मिलाते हुए!
"नमन! नमन!" कहा मैंने नम करते हुए!
"शाश्व?" बोली वो,
"आज्ञा!" कहा मैंने,
"मैं कौन?" पूछा उसने,
ओहो! वो बोले, और मेरे लिंग-स्थल पर दबाव पड़े! मानो मेरी तो, यदि वायु भी शिश्न से छू जाए तो स्खलन ही हो जाए! ऐसा दबाव!
"रोहिणि!" कहा मैंने,
"तू?" बोली वो,
"शाश्व!" कहा मैंने,
"अवन्दित्य!" बोली वो,
''आदेश वधुका!" कहा मैंने,
"सुकाम?" बोली वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"स्वीकार!" बोली वो,
"नमन! हे वधुका!" कहा मैंने,
और वो आगे बढ़ी! मेरे नेत्रों से नेत्र मिलाये! मेरे त्रिपुंड में से जैसे ज्वाला धधके! मेरा हाथ, बड़े ही शक्तिशाली से हों! मेरा लिंग-स्थान, पल भर में पाषाण सा भारी हो! ये प्रभाव था इस वधुका का!
मैंने हाथ आगे बढाया! और उसकी गर्दन के पीछे रखा! उसने विरोध नहीं किया तनिक भी, परन्तु नज़रें नहीं तोड़ीं!
"वधुका!" कहा मैंने,
और लगा लिया अंतः से! कोई विरोध नहीं! उसने बाएं हाथ से, मुझे घेर लिया! मैंने और खींचा उसे अपनी तरफ! वो खिंची वो मैंने तभी, एक ही झटके में उठा लिया उसको! और ले चला आसन की तरफ! और जैसे ही रखा, उसके नेत्र बन्द हो गए! उसने लेटे हुए ही, अपने योनि-स्थल को, ऊँचा किया, और मैंने, अलख में ईंधन झोंक, इस आमंत्रण को जाने न दिया! और हमारा संसर्ग, आरम्भ हो गया! साधिका तो कल भी यही थी, स्थान, कल भी यही था, परन्तु आज का आनन्द, देह की कसावट, योनि की कहक्ता, सब अलग थी!
"वधुका?" मेरे मुंह से, ये शब्द, न चाहते हुए भी, चार या पांच साँसों में पूर्ण हुआ!
उसने कोई उत्तर नहीं दिया, बस नेत्र बन्द ही रहे उसके! हाँ, उसने, अपनी भुजजाएं, मेरी कमर के ऊपर कस ली थीं, एक प्रकार का, सीमित सा दायरा बना लिया था, उस से बाहर, मैं नहीं जा सकता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अभी कुछ ही समय बीत होगा, कहिये कि कोई तीन या चार मिनट ही, कि उसने एकदम से पासा पलट लिया! जो खिलाड़ी था, वो खिल्लड़ बन गया और जो 'भोग्या' थी वो, खिलंदड़ी! अर्थात, मैं नीचे आ गया था और वो ऊपर! और जो वेग था, उस से तो मेरा हृदय भी अव्यवस्थित सा होने लगा था! मेरी पसलियां ही चढ़ने लगी थीं! मेरी आंतें, जैसे उनमे गांठें पड़ने वाली थीं आपस में! और इसी प्रक्रिया में, मेरे नेत्र ही बन्द हो गए! मुझे बस पीड़ा का ही अनुभव हुए जा रहा था, लगता था कि वो मुझे, पल में ही दो-फाड़ कर देगी या उछाल फेंकेगी दूर ही कहीं इसी श्मशान में! अचानक से ही, मेरे नेत्र खुले! सब शांत? ये कैसे हुआ? साधिका कहाँ गयी? मैं उठ खड़ा हुआ, मेरा लिंग भी उत्तेजित नहीं? वो अलख? वो अलख कहाँ है? ये कहाँ हूँ मैं? क्या ये, कोई माया-मण्डल है? क्या कोई शक्ति आयी है? भ्रामरि या फिर हुण्डकी? या फिर स्वयं खेमकाणि ही आ गयी?
मित्रगण! प्रत्येक साधना में, उसके ईष्ट होते हैं, चर्नेष्ट! ये, ऋतुओं समान अपना अपना अंश-भोग तो अवश्य ही किया करते हैं! ऐसी शक्तियों का वर्गीकरण किया गया है! अर्थात, मोहन-तन्त्र में अलग! अब जो मित्र, इंद्रजाल, *माली की पुस्तकें पढ़ते आये हैं या पढ़ते हैं, उनमे, माँ सरस्वती को मोहन-तन्त्र की ईष्ट माना गया है! जबकि ये शत-प्रतिशत ही नहीं, अक्षौहण तक असत्य है! भला, पराम् सात्विक देवी सरस्वती जी का इस मोहन-तन्त्र से क्या लेना? सरस्वती का अर्थ क्या है? सरस और वती, और सोचिये, ये यदि सुरस और वती हो तो? सरस और सुरस, इनमे क्या अंतर? बहुत ही बड़ा अंतर है! बहुत ही बड़ा! मोटे मोटे तौर पर, सरस् एक गुणवाचक संज्ञा हुई और सुरस, द्रव्यवाचक संज्ञा! एक पेय जो तिक्त होते हुए भी सरस है! अब रस मीठा ही हो, ऐसा माना जाता है! और सुरस? अर्थात, जिसमे सुरसता भरी ही हो! तो कहूँ यदि सरसवती और सरस्वती, दोनों में अंतर है! इंद्रजाल, तन्त्र से सम्बन्ध नहीं रखता! ये मदार-विद्या से सम्बन्ध रखता है! सरस्वती का स्थान है तन्त्र में, परन्तु, पूर्ण सात्विक तौर पर! अब मैंने बताया, खेमकाणि, ये खेमकाणि, दरअसल क्षेमकाणि है! मोहन-तन्त्र में, इसी का सन्धान हुआ करता है! माया, मिथ्या(भौतिक रूप), स्वप्न, धन आदि इसके गुण हैं! ये मोहन उत्पन्न करती है! प्रबल तामसिक है! साधकों को, धूल चटाया करती है, रूप बदलती है, महामाया, लक्ष्मी जी, श्री महाकाली, बंध-वैताली आदि का रूप धर, साधक को, मृत्यु का स्वाद चखाती है! इसी की सेविका, श्मशान-चंडूलिका है! ये रूप में तो रति को भी पीछे छोड़ दे! काम-कला में, कोई सानी नहीं खेमकाणि का!
तो यहां मैं अटक गया था! ये क्या हुआ था? साधिका कहां लोप हो गयी? और वो मेरी अलख? मेरा सामान-सामग्री? वो कहाँ गयी?
"साधिके?" मैंने चिल्ला कर पूछा!
चारों दिशाओं में देखा! हर तरफ, एक सा ही दृश्य! अँधेरा, घुप्प अँधेरा! हाथ को हाथ न सूझे! आकाश में टोह ली! चन्द्रमा भी नहीं? तारे भी नहीं? लगता था कि जैसे, यहां कोई सजीव प्राणी है, तो मात्र मैं ही!
परन्तु मैं हूँ कहाँ? क्या ये भूमि है? मैंने पाँव की थाप मारी भूमि पर! हाँ! ये भूमि ही है! भूमि है तो वे सब कहाँ हैं?
"साधिके?" चिल्लाया मैं,
कोई उत्तर नहीं!
"वधुका?" चीखा मैं!
कोई उत्तर नहीं!
ए...एक...मिनट!
"साधिके? वधुका?" चीखा मैं!
लेकिन ये क्या? मेरे शब्द, मेरे अंदर ही क्यों गूँज रहे हैं? कोई सुन क्यों नहीं रहा? क्या ये कोई माया है? सम्भव है! तो मैं खड़ा हुआ एक पाँव मोड़कर!
"भक्षम भक्षम! रक्षम रक्षम................................................!!" पढ़ मन्त्र!
ये क्या? दूर सामने, जैसे ज़मीन में लावा है और अभी अभी ज़मीन में से कोई बुलबुल उठा उसका, उठा, फूटा! लाल सी रौशनी हुई! तो क्या मेरे चारों ओर, लावा ही लावा है? पिघलते पाषाण? धातुएं? नहीं नहीं! ऐसा कैसे सम्भव? कैसे सम्भव! फंस गया रे! और कर ले औघड़-चल्ली!!
"वधुका?" चीखा मैं!
"ये क्या है?" चीखा फिर से!
"आँधिया?" बोला ज़ोर से!
कोई हंसी नहीं! कुछ नहीं!
"साधिके?" फिर से चीखा मैं!
अब देखूं कहाँ? हर तरफ ही एक सा! घूमूं तो कहना घूमूं? बढूं तो कहाँ? जाऊं तो किधर? बैठूं तो लाभ क्या?
"वधूके?" चिल्लाया मैं!
और ठीक पीछे मेरे एक आवाज़ सी हुई! ये आवाज़ ऐसी थी कि जैसे जल का अथाह प्रवाह खोल दिया गया हो! छोड़ दिया गया हो!
मेरे तो पांवों के नीचे पसीने छूट गए! मैं तो ऐसा श्वान सा हो गया जो, घबराकर, दुम पेट के कमर के नीचे छिपा, सोच रहा हो, कि 'शत्रु' कहाँ कम!
और अचानक से ही, प्रवाह समाप्त! इस से पहले कि मैं कुछ समझता, वायु का तीव्र प्रवाह फूटा शून्य से और मैं! मैं, ये जा! और वो जा! न नेत्र खुलें, न बाजू मुड़े! वायु का पालन और उस पालने में में, छिपकर पड़ा एक तिनका!
और....धम्म!
धम्म से गिरा मैं नीचे! कमर के जोड़ में पीड़ा होने लगी, अंडकोषों में ऐसा दर्द, ऐसा दर्द कि जैसे, खौलते हुए लौह सांचे में दबा दिए गए हों!
मेरी कराह निकली! आ ही गया समय! बस! यही तक थी डोर! बस, खत्म हो गयी डोर! ख़तम हो गया अपना सिलसिला तो! यही है सम्भवतः मृत्यु से पहले का भय और कष्ट! हाँ, सम्भवतः यही है!
"वधूके?" मैं चीखा ज़ोर से!
"साधिके?" चिल्लाया मैं ज़ोर से!
कोई उत्तर नहीं! हाँ, रोएं से खड़े होने लगे! जैसे मैं कहीं किसी शीत-ग्रस्त स्थान पर ला पटका गया हूँ मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं कंपकंपाता हुआ खड़ा हुआ! आसपास देखा! सारा स्थान एक जैसा ही था! मैं तो नितांत ही अकेला था! ठंड के मारे, और हालत खराब होने लगी थी! मेरे तंत्राभूषण आदि सब, ऐसे ठंडे पड़ गए थे कि जैसे मैंने बर्फ के टुकड़े पहन रखे हों! यहां होता है एहसास! एहसास कि मित्यु के समक्ष, क्या कोई सिद्धि, क्या कोई रिद्धि, क्या कोई सिद्धत्व और क्या सामर्थ्य, मान रखा करता है! मृत्यु शाश्वत है! अत्यंत बलशाली है! इसकी चल को डिगा तो लो, हटा नहीं सकते! यहां अपने शून्य होने का एहसास होता है! सिद्धियों से, आगे का मार्ग मिल जाएगा, पूर्णत्व प्राप्त होने में कई जीवन लग जाते हैं! इसी को आरम्भ होना कहते हैं! अर्थात, मृत्यु जहां अंत है वहीँ एक नवारम्भ भी है! एक ही पक्ष के दो नाम! जैसे, एक ही चन्द्र और उसके दो दो रूप! एक पूनम की शीतल चांदनी और एक अमावस का कटु-अन्धकार! सिद्धत्व! सम्भव है कि सिलसिला इस जीवन में समाप्त हो, या फिर, स्वेच्छा से टाला जाए, या फिर, बस, आने को हो!
तभी किसी के खांसने की सी आवाज़ गूंजी, ये मेरे दाएं से आयी थी, आव देखा न ताव और मैं भाग लिया उधर के लिए! पांवों में ठंडी मिट्टी चिपके जा रही थी! अंग सभी, पत्थर बने जा रहे थे, बस हृदय था, जो स्पंदित हो कर, रुधिर को नसों में बहाने के लिए, न जाने किस किस अंग को रोक रहा था! मैं आगे आया, साँसें फूल रही थीं, लेकिन वो खांसी की सी आवाज़ मुझे, लगातार सुनाई देती जा रही थी! मैं आगे आया, और एक झटके से ही रुक गया! मेरे सामने, एक दिया जला था, छोटा सा! सच कहता हूँ, वो मेरा सूर्य था! मेरा सूर्य! जिसके ताप से मुझे कुछ समय और या फिर, पुनर्जन्म ही मिल जाता! तभी खांसी की आवाज़ फिर से सुनाई दी, बाएं से आयी थी, नज़र भरी उधर, तो, मद्धम सा प्रकाश फैला था वहां, और उस जगह पर, अँधेरा जैसे जूझ रहा था उस प्रकाश को लीलने के लिए! मैं चल पड़ा उधर ही! और सामने दिखा एक वृक्ष! कौन सा था, पता नहीं! लेकिन था बेहद ही विशाल! करीब सौ फ़ीट के घेरे वाल तो रहा ही होगा, उसमे एक कोटर बनी थी, प्रकाश और वो खांसी की आवाज़, यहीं, इसी कोटर से आ रही थी! मैं आगे हुआ, ये करीब, चार फ़ीट ऊँचा था, सो झुका, और अंदर देखा, अंदर देखा तो दो बड़े बड़े पाँव दिखाई दिए, पांवों में फटाव था, एड़ियां फ़टी हुई थीं, उँगलियों के बीच की खाल भी फ़टी थी, कहीं कहीं उधड़ी हुई थी! खांसी की आवाज़, यही से आ रही थी!
अभी मैं कुछ सोचता के शब्द गूंजे!
''शाश्व!" आयी आवाज़!
ये किसी वृद्धा की सी आवाज़ थी! अत्यंत ही आयुवृद्ध!
"ह...हाँ.....मैं....मैं..शाश्व!" कहा मैंने लड़खड़ाती हुई आवाज़ में!
"सामने आ?" आयी आवाज़, 
सामने? सामने तो मैं था ही, वो ही अंदर थी! फिर भी, मैं घूमा, वृक्ष की दूसरी ओर गया और तब देखा, यहां भी कोटर थी! शायद, वही कोटर, आरपार थी! मैं आगे बढ़, और उस कोटर के सामने झुका! एक वृद्धा स्त्री का, शिकनों, झाइयों, काला धुंए सा, उसी के कपाल में धंसा चेहरा था! उसकी नाक बेहद ही चौड़ी सी, कान लटके हुए, छेद हुए, हुए थे! माथे पर, सफेद सी खड़िया घिसी गयी थी जैसे!
"शाश्व?" बोली वो,
उसकी आँखें! चौड़ी, पीली सी आँखें, सूखी हुई सी आँखें थीं, बोल कर वो शब्द, मुंह चलाती थी अपना, ठुड्डी के नीचे की खाल, ज़ोर से हिलती, और उस पर कई सारी झुर्रियां सी उभर जातीं!
"हाँ...शाश्व हूँ मैं..." मरीमरी आवाज़ में बोला मैं,
"क्या ढूंढता है?" पूछा उसने,
"साधिका! वधुका!" कहा मैंने,
इस बार कुछ जोश से! कोई तो मिला उधर!
"कौन?" पूछा उसने, कान आगे करके! कान से प्रकाश फूट रहा था उसके, मैं देख नहीं पाया, ऐसा तेज प्रकाश था वो!
"साधिका! वधुका!" कहा मैंने,
"आ..हाँ!" बोली वो,
और फिर से पोपला मुंह चबाया उसने!
"तू कहाँ से आया?" पूछा उसने,
"श्मशान से!" कहा मैंने,
"कौन? किसने?'' पूछा उसने, कान आगे कर. कोटर में ही!
फिर से तेज प्रकाश! फिर से चुंधियायी आँखें!
"श्मशान!" कहा मैंने,
"आ? हाँ!" बोली वो,
"वधुका?" बोली वो,
"हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
"हाँ?" फिर से बोली वो,
"हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
सर हिलाया उसने, हाँ में, मुंह चलाया फिर से!
"आ?" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"मेरे पीछे?" बोली वो,
समझ गया! और दौड़ के, पांवों की तरफ के कोटर तक गया! मुझे बस, कोई पल भी न लगा होगा, या कुछ अंश ही, कि जब आया तो भौंचक्का रह गया! ये कौन? कोई राजसी-स्त्री? राजस-भूभूनि?
"आ?" बोली वो,
उसका कद? मैं तो उसके स्तनों तक ही आऊं! देह ऐसी सुगठित कि जैसे कोई गांधर्वी! सुगन्ध ऐसी, श्रीशाकन्डूल के पके फल की सी! ये फल, दैविक मन जाता है! जैसे, हाइकु जीव! जानते हैं हाइकु के विषय में? ये एक स्तनधारी जीव है! कहते हैं, स्वयं माँ गौरा ने, उसकी मासूमियत को देख, अपने हाथ से केला खिलाया था! दुर्लभ है, अमर है! मात्र एक ही दीखता है, न जोड़े में और न बच्चों के संग ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चटखीले लाल रंग और गहरे गुलाबी रंग के उसके परिधान सच में ही उसका वैभव दिखा रहा था! आभूषण ही आभूषण! जहां देखो, वहीँ आभूषण से युक्त थी वो स्त्री! मैं तो, उस समय भी, उसको ही निहारने लगा था! 
"आ जा शाश्व?" बोली वो,
"हाँ, हाँ!" कहा मैंने,
और मैं उसके पीछे चलने लगा! हैरत ये, कि प्रकाश-पुंज उसके साथ चलते! वो अवश्य ही अलौकिक स्त्री थी!
"जा शाश्व!" बोली वो,
मैं आया उसके पास, और जहाँ उसने संकेत किया था, मैंने देखा उधर! उधर तो रात्रि के प्रकाश को बींधने के लिए, बड़े बड़े से दीये लगाए गए थे! मुझे दीयों का प्रकाश ही नज़र आया!
"जा शाश्व!" बोली वो,
और मैंने तब, उसकी तरफ सर किया, जैसे ही किया, वो नदारद! नहीं थी वो वहां! अब सोचने का समय नहीं था! अतः मैं उस स्थान की ओर जहां वो दो बड़े से दीये लगे थे, चल पड़ा! वहाँ पहुंचा तो किसी डाल की चरकने की सी आवाज़ें आयीं! मैं उसी तरफ बढ़ चला! और क्या देखता हूँ कि! सामने एक बड़ा सा पेड़ है! जिसका सर, ऊपर है और नीचे से नहीं दिख पा रहा! और उस पेड़ की डाल पर, एक झूला पड़ा था, और उस झूले में दो कन्याएं, झूल रही थीं! उन्होंने वस्त्र नहीं पहने थे, देह नग्न ही थीं उनकी! आयु में करीब सोलह या अठारह रही हों! दोनों की दोनों एक जैसी! कमाल ये, कि झूले की आवाज़ तो आये पर वायु स्पर्श ही न हो!
"शाश्व?" दोनों ही एक साथ बोलीं!
"हाँ!" मैंने धीमे से कहा,
"आओ?" बोली एक,
मैं आगे गया! जैसे ही गया तो देखा, झूले के नीचे, सर्प बैठा है एक! पीले नेत्र चौड़ा करके! बहुत ही बड़ा! कुंडली मारे! एक इंसान तो उस पर बैठ ही जाए!
"क्या खोजता है?" बोलीं अब दोनों!
मैंने उत्तर देने से पहले, उनके झूले के दोलन का इंतज़ार किया, जब समीप आया तो...
"साधिका!" कहा मैंने,
"कौन?" दोनों बोलीं,
और झूला पीछे चला गया!
"साधिका मेरी!" कहा मैंने,
"कौन?" बोली अब एक!
"वधुका!" कहा मैंने,
"वधुका?" बोलीं दोनों ही!
"हाँ!" कहा मैंने,
"आ?" बोलीं अब दोनों!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
तभी झूला रुक गया! जैसे कभी दोलन हुआ ही न था उसमे! और तभी एक उतरी उसमे से! हाँ, अब आयु का अंदाजा लगाया, वो सोलह से भी नीचे की थी! घुटनों में, एक ज़ंजीर सी बंधी थी, चांदी की या उस से मिलती जुलती! दूसरी वाली भी उतर गयी, लेकिन वो, वहीँ खड़े रही!
"शाश्व?" बोली पहले वाली!
''हाँ?" कहा मैंने,
"आ?' बोली वो,
और मुड़ गयी! वो मोदी और चली, मैं उसके पीछे चला! आसपास से मुझे पशुओं की सी आवाज़ें आयीं! कोई फ़फ़कार रहा था, कोई रम्भा रहा था तो कोई खुर घिस रहा था, और कोई कोई, सींग से सींग टकरा रहा हो जैसे!
"आ?" बोली वो.
और रुक गयी एक जगह! मैं गया वहां तक! तो मुझे ऊपर जाती हुई एक बेल सी दिखी! अब बेल कहाँ से आ रही थी, कहाँ को जा रही थी, कुछ नहीं दिखा! ये बेल, पान के पत्ते सी, गिलोय सी, लेकिन बड़े बड़े पात वाली थी! उसमे, कुछ बूटे से लगे थे, जैसे, अनार से लटके हों!
"आ?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"उधर!" बोली वो,
अर्थात, उस बेल के पत्ते हटाओ और अंदर जाओ! और मैंने ऐसे ही किया! वो बेल थी? ये बेल का जंगल? खैर, मैं सीधा ही चलने लगा! तभी छपाक-छपाक सी आवाज़ें आयीं! मैं आहिस्ता से आगे बढ़ चला! और एक जगह निकल! ये एक सरोवर सा था, नीले और सफेद से पानी से भरा! उसमे मछलियाँ तैर रही थीं! छोटी छोटी तो उछल ही पड़तीं जल से बाहर! और तो और, यहां चांदनी सी थी! उसी का प्रकाश था!
"शाश्व?" आयी एक आवाज़!
मैंने आसपास देखा! कोई नहीं!
"शाश्व?" फिर से आवाज़ आयी!
बाएं देखा, तो कोई खड़ा हो, प्रतीत हुआ! मैं चल पड़ा उधर! वहां तक आया तो एक वृद्ध पुरुष दिखा! करीब अस्सी या नब्बे की उम्र का! सिर्फ लँगोट हुई पहने था, शेष भाग पर कुछ भी नहीं! एक माला भी नहीं, और ऑंखें, आधी ही खुली हुईं!
"शाश्व?" बोला वो,
"जी?" कहा मैंने,
"ये, इधर आ?" बोला वो, और चल पड़ा आगे! मैं भी पीछे पीछे! वो रुका तो मैं भी रुका!
"शाश्व!" बोला वो,
और संकेत किया सामने! मैंने देखा! वहां तो लोगबाग थे! आ जा रहे थे! जैसे मैं किसी बाज़ार का चलचित्र देख रहा होऊं!
"लौटना है?" पूछा उसने!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"वहां?" बोला वो हंस पड़ा वो!
"नहीं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सोचा?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने!
"नही जाना!" कहा मैंने,
तब वो हंस पड़ा!
"आओ शाश्व!" बोला वो,
और ले चला मुझे उस रास्ते से अलग! यहां, मानव की अस्थियां पड़ी थीं, कपाल बिखरे थे,पसलियां उलझी पड़ी थीं!
"मान्य!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"ये....." मेरी बात कटी!
"ये प्रलाव हैं!" बोला वो,
प्रलाव मायने, प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रवेश करने वाले!
"क्या खोजता है?" पूछा उसने,
"साधिका!" कहा मैंने,
वो रुक गया! मुड़ा, और मुझे देखा!
"क्या?" पूछा उसने,
"साधिका!" कहा मैंने,
"साधिका नहीं है यहां कोई!" बोला हंसते हुए!
"वधुका?" कहा मैंने,
"हम्म! ले जा रहा हूँ!" बोला वो,
और मैं चलता रहा उसके साथ!
"देखो!" बोला वो,
मैंने सामने देखा, एक गोल सा कूप था वो! उस पर, रहट सी रखी हुई थी, पास में, खूंटे से गड़े थे!
"जा!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर!" बोला वो,
उधर, मायने वो कुआं!
"उसके अंदर?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोलते ही मुड़ा वो, और लौट गया, मैं देखते रहा उसे, वो एक से दो, दो से चार, चार से सोलह, ऐसे होते हुए दिखा!
तो मैं आगे चल! कुँए पर कोई सीढ़ी नहीं थी, हाँ जो रहट थी, वो चालू हो गयी थी अपने आप! बड़ी ही हल्की हल्की सी, गम्म-गम्म सी आवाज़ आ रही थी! मैं आगे बढ़, और कुँए में झाँका, तो सीढियां दिखाई दीं! प्रत्येक सीढ़ी पर, पुष्पों का भंडार सा सजा था!
"यहीं!" मेरे मन से आवाज़ आयी!
"शाश्व!"
एक आवाज़ आयी, बड़ी ही शीतल सी! ये किसी स्त्री की आवाज़ थी! मैं आगे बढ़, तो आवाज़ नीचे से ही आयी थी!
''आ जाओ!" आयी आवाज़!
मैं नीचे चला, करीब आठवीं सीढ़ी पर रुका और जब ऊपर देखा, तो पिछली सात सिद्धियां गायब हो गयी थीं!
"आओ!" बोला कोई!
"कौन?" पूछा मैंने,
"आ जाओ!" बोली वो,
मैं नीचे चला, और पर की हुई सीढियां, लोप होती गयीं! बारहवीं सीढ़ी पर, एक तरफ, छत्ती सी दिखी, मैंने वहीँ झाँक कर देखा! अंदर तरल पड़ा था, सुनहरे से रंग का और एक तीव्र सी गन्ध फैली हुई थी!
"आओ शाश्व!" आयी आवाज़!
मैं सोच रहा था कि कहाँ जाऊं?
"आओ?" आयी आवाज़ उसी छत्ती के पास से! मैं सीढ़ी पर बैठा और झाँका फिर! मुझे एक मार्ग दिखाई दिया! तरल, स्थिर हो गया था! मैंने अपना डायन पाँव अंदर की तरफ रखा और रेंगते हुए, आगे बढ़! उस तरल ने मुझे गीला नहीं किया! अजीब बात थी! मैं चलता रहा आगे! और अचानक ही, वो मार्ग, सँकरा सा मार्ग कब खत्म हो गया, पता नहीं चला! मैं किसी आरी से कटे लकड़ी के गुटके समान धाड़म से नीचे गिर पड़ा! जहां गिरा था, वहां जल था, मैं उसी में गिरा था! फौरन ही उठा मैं! आँखों से फौरन ही जल पोंछा! कमर तक जल था यहां, आसपास देखा, चार द्वार दिखाई दिए! एक में प्रकाश था, वहीँ की तरफ चल पड़ा! जब आया तो एक ऊपर जाती सीढ़ी सी दिखी! मैं चढ़ने लगा उस पर! वो सीढियां एक कक्ष से स्थान पर खुलीं! मैं हैरान था! स्तब्ध!
"शाश्व!" आयी आवाज़!
और मैं, बेचैन सी मीन की भांति, इधर-उधर देखने लगा! आवाज़ ये, मेरी जानी-पहचानी थी! इस आवाज़ को कई बार सुना था मैंने!
"शाश्व!" आयी आवाज़!
"साधिके! साधिके!" बोला मैं!
पहचान गया था वो आवाज़! ये तो मेरी साधिका थी!
"साधिके?" चीखा मैं!
"शाश्व!" फिर से आवाज़ आयी!
''कहाँ हो?" चिल्लाया मैं!
"आगे!" बोली वो,
मैं दौड़ पड़ा आगे! रुकना पड़ा! आगे तो खुला सा आकाश था! जिस से नीचे मैं, गिर ही पड़ता उस कक्ष से! पीछे पलट! और दौड़ पड़ा! रुका, बदहवास सा! खड़ा हुआ, पानी पोंछा!
''शाश्व!" फिर से आयी आवाज़, इस बार मेरे पीछे से!
और जैसे ही मैंने मुड़ कर देखा....................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे ही मैंने पीछे मुड़कर देखा, कि मुझे मेरी साधिका दीख पड़ी वहीँ खड़े हुए! वो जहां खड़ी थी, वो दृश्य बड़ा ही मनोरम सा था! कहने को यहां जल था, कुछ बड़ी, मोटी सी दीवारें थीं, दीयों का लाल सा प्रकाश था, जल में दीयों की रौशनी झिलमिला रही थी, पानी में रौशनी की लहरों, आवर्तनों के कारण उसकी देह ऐसे लगती थी कि जैसे, अभी अभी कोई स्वर्गाप्सरा भूमि पर भटक आयी हो! वो मुझ से करीब बीस फ़ीट दूर थी, मेरी भौंहों से जल, अभी भी कभी-कभार टपक जाता था, जब जब टपकता, तब तब मेरी आँखों में पड़े जल के कारण, सारा दृश्य ही जगमगा जाता था! मेरी साधिका, मुझे अपने से अलग, इस संसार से अलग, विजातिय सी, न जाने क्यों मालूम पड़ रही थी! मुझे भान हो रहा था ऐसा ही कुछ, कि जो शब्द मैं बोलूंगा, शायद, वो समझ ही न पाए! एक, अलग सा ही परायापन सा लग रहा था, वो न मुस्कुरा ही रही थी, न क्रोध में थी, ऐसे प्रतीत हो रही थी! उसकी देह पर कोई वस्त्र नहीं था, हाँ, कुछ सफेद से रंग की पंखुड़ियों, फूलों की, अवश्य ही चिपकी हुईं थीं! ये फूल, कुमुदिनी के से लगते थे, एक अलग ही सुगन्ध फ़ैल गयी थी वहां, कुछ ऐसी, कि जैसे, चमेली के फूलों का अर्क और गुलाब का सा अर्क एक साथ मिश्रित किया गया हो! तभी, ठीक पीछे, छप्प सी आवाज़ हुई, मैंने एक झटके से पीछे देखा! लेकिन वहां कोई नहीं था, हाँ, एक बुलबुला फूटा था जल में से, उसकी ही आवाज़ रही होगी वो! उसको छोड़ आगे देखा, तो साधिका, पीठ मेरी ओर किये, आगे जा रही थी! मैं भी उसके पीछे चल पड़ा! आगे चला, तो मालूम पड़ा कि वहां, सीढियां हैं, उन पर पाँव रखा, पत्थर चिकना नहीं था, इसीलिए पांवों की पकड़ बनी रही! मैं तेज तेज चढ़ने लगा! ऊपर आया तो बड़ा ही विहंगम सा दृश्य था! यहां रात का अँधेरा तो था, परन्तु, पौ फटने वाली हो, ऐसा समय रहा होगा! सब शांत था वहाँ! आसपास हर जगह! वे समस्त वृक्ष, अनजान से थे मेरे लिए, वे पौधे, वे फूल, हालांकि मुझे दीख नहीं रहे थे, वे भी आजीन से ही रहे हों! सहसा ही, मेरी साधिका?
मैं तेजी से आगे गया! ये सपाट सा एक बहुत ही बड़ी सी शिला सी लगती थी, जहां मैं खड़ा था उस समय!
"शाश्व?" आयी आवाज़,
अपने आसपास देखा, बाएं, दाएं, आगे और पीछे! कहीं कोई नहीं और आवाज़! आवाज़ ऐसी लगे कि मेरे पास से ही दी हो किसी ने!
"शाश्व?" फिर से आवाज़!
"कौन?" पूछा मैंने,
"शाश्व!" आयी फिर से वही आवाज़!
"कौन है?" मैंने हकबका सा पूछा!
"किसको खोज रहे हो?" प्रश्न हुआ!
"साधिका!" कहा मैंने,
"मुझे?'' आयी आवाज़!
"साधिका! वधुका!" कहा मैंने,
मैंने उत्तर का इंतज़ार किया! लेकिन उत्तर ही नहीं आया, मैं फिर से बेचैन हो उठा! और फिर से आगे-पीछे टहल कुछ, ढूंढने लगा होऊं जैसे!
अचानक ही, मुझे शिला से नीचे, मेरी साधिका दिखी! जल से भीगी हुई, उसकी नज़रें मुझ पर नहीं थी, वो, कभी आगे, कभी पीछे होती थी! उसके सामने मुझे कुछ दीख नहीं रहा था, अन्धकार ही था, सघन तो नहीं, परन्तु मेरे नेत्र आज मेरी भी परीक्षा लेने पर आमादा थे! मैंने आसपास देखा जल्दी जल्दी! ताकि कोई रास्ता दिखे नीचे जाने का, लेकिन कोई रास्ता नहीं था! और कूद मैं सकता नहीं था! उस समय तो नहीं, इसे ही कहते हैं, द्वि-आयाम में एक ही समय विचरण! भौतिकता बसी होती है हमारे कण कण में! वे जो दृश्य मैंने देखे थे, वो सब, सभी, इसी धरा पर मौजूद थे, मेरा मस्तिष्क फौरन ही, उनका चित्रण कर, मेरी समझ वाली ग्रन्थि में उसका संचार कर रहा था! जो मेरे मस्तिष्क को समझ नहीं आता था, या समझ से बाहर था, उसे, एक पल में ही छोड़ देता था! जैसे कि वो झूले के नीचे बैठा सर्प! उसका, इस भौतिकता से भला क्या लेना देना? अतः, न मुझे उसका कोई ख़याल ही आया और न ही मुझे भय ही लगा!
"साधिके?" मैंने आवाज़ दी उसे ऊपर से ही!
लेकिन उसने न सुनी!
"वधुका?" चीखा मैं!
उसने तब ऊपर देखा!
"मार्ग कहाँ है?" पूछा मैंने,
एक पल को, कुछ न बोली वो, खड़ी ही रही!
"मार्ग? वधुका? मार्ग?" मैंने ज़ोर से चिल्ला कर पूछा!
"मार्ग!" मेरे कानों में आवाज़ पड़ी! और मैं चौंका!
"हाँ, मार्ग?" पूछा मैंने,
"उधर!" बोली बाजू से इशारा करते हुए! 
मैंने झट से उधर देखा! एक छोटी सी कन्या खड़ी थी वहां! उसके केश बहुत बड़े थे! बहुत ही बड़े! नीचे भूमि तक लटके थे! जैसे वो अपने ही केशों में लिपटी कहि हो, ऐसा लगता था!
"शाश्व!" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"नीचे जाओ!" कहा उसने, संकेत देकर!
"लेकिन, मार्ग?" पूछा मैंने,
"वहीँ है!" बोली वो,
मैं दौड़ कर, वापिस हुआ, उस कन्या के करीब से गुजरा! कन्या से मेरे नेत्र जुड़े, उसके नेत्रों में मृदुता थी, ये भांप लिया था मैंने!
"जाओ!" बाइली आज्ञा सी देकर!
और मैं, नीचे चल पड़ा! सीढ़ियों पर उतरा, जल श्वेत हो उठा था! और, सामने एक प्रकाश-लौ सी दिखी! मैं आँखों को, अपने हथेली का सहारा दे, आगे चल पड़ा! उस प्रकाश की लौ तक जाने के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं उस लौ की तरफ बढ़ा और चला सामने की ओर, यहां भी सीढियां थीं, मैं आगे चलते हुए, उन पर चढ़ गया, ऊपर आया तो यहां फिर से दृश्य बदल गया था! मेरे सामने, दूर दूर तक, भूमि पर, एक विस्तृत से मैदान में, हज़ारों दीये जले थे! ये कैसा अद्भुत लोक! ये कैसी अद्भुत सत्ता! कौन लौटना चाहेगा यहां से, वापिस उसी भौतिकता में? दीयों के प्रकाश में, भूमि का एक एक कण, लाल सी आभा लिए चमक रहा था! मुझे कुछ पादप से दिखे वहां! मैं नीचे उतरा और एक ऐसे ही पादप के पास पहुंचा! ये आर्क का पादप था, लेकिन ये पादप, सर्वथा भिन्न था हमारी पृथ्वी के आर्क से या फिर, मैंने कहीं नहीं देखा था पहले उसे! इसके पत्ते लाल रंग के थे, उनकी नसें और ग्रीव, सुनहरे से हो कर चमक रहे थे! उसके फूल, चटकीले बैंगनी के रंग के थे! हर तरफ, यही पादप लगे थे! एक घेरे में, मैंने देखा था सभी को, एक घेरे में ही! मैंने ऊपर किया सर! ऊपर, सुनहरा प्रकाश, कभी कौंधता और कभी यात्रा सी कर, क्षितिज पर ठहर जाता! फिर से, विद्युतीय-आकर्षण सा होता और वो, शांत सा प्रकाश, कणों को साथ ले, दूसरे क्षितिज के लिए दौड़ पड़ता! मैं खो सा गया था, प्रकाश की उस नभ-क्रीड़ा में ही!
"शाश्व!" आवाज़ें आयीं!
एक साथ कई सारी आवाज़ें! मैंने झट से सर नीचे किया और सम्मुख देखा, सामने, कई मादक-मंदाकिनियाँ सी खड़ी थीं! उन्हीं दीयों के मध्य! सभी एक सी! सभी की वेशभूषा एक सी ही! नीले रंग की कुटँगी धारण किये! ये वो वस्त्र होता है, जो कभी स्त्रियां धारण किया करती थीं, जंघाओं को ढांपते हुए, नितम्बों को, ढांपते हुए, फिर सामने, नाभि से नीचे एक, पर्दा सा डाले हुए! ऊपर, वक्ष-स्थल को, सुमज्ञ-परिधान से ढाँप दिया गया था, इसमें प्रत्येक स्तन, अलग सा ही प्रतीत होता है, जैसे मानिए आप तो, जो, गड़रिये-लुहार होते हैं, उनमे जो स्त्रियां पहना करती हैं, कुछ वैसा ही, इसमें, स्तन पूर्ण रूप से सुशोभित होता है, उनमे मिलान नहीं रहता और अलग अलग ही प्रतीत होता है, ये सुमज्ञ-परिधान, गहरे हरे से रंग का था, उसमे, ज़री सी लगी थी, महीन सा गोटा, जो काला हो कर भी, सुनहरा सा प्रकाश झालता था! उनके कद भी ऊँचे ऊँचे थे, करीब सात सात फ़ीट के! एक एक अंग ऐसा प्रतीत होता था, कि किसी दक्ष-मूर्तिकार ने, अपनी अंतिम ही कृति पूर्ण की हो! उनके चेहरे, ऐसे दैदीप्यमान थे, कि हमारे नेत्र कई बार तो झपकें और कई बार उनमे, काठ मार जाए उस चमक से! एक तेज! उज्ज्वलता! चौड़ा ललाट, भरा चेहरा, अस्थि-अंश का कोई चिन्ह नहीं, मांसल! कमाल की बात तो ये, सौंदर्य ऐसा कि सबकुछ भुला ही दे! जैसे कि मैं, उस वक़्त भूल बैठा था!
"शाश्व!" आयी आवाज़ें!
"हाँ!" कहा मैंने,
मैं तो अभी भी वशीभूत सा ही था!
"वधुका?" बोलीं वो,
"हाँ! वधुका!" कहा मैंने,
"आओ!" बोलीं वो सभी!
अब बड़ी ही अजीब सी बात हुई! मैं चला उधर, उनके साथ, जिसके करीब होता, वो लोप हो जाती! यानि मेरी जद से बाहर! एक लोप होती, दूसरी दीखती, मैं उस तरफ चलता. मैं सीधे की बजाय, दाएं जा रहा था! पीछे देखा, न शिला, न ही वो पादप! सभी जैसे, कोहरे में ढंक गए थे!
और फिर, बची एक! मैं उसके पास गया, उसने बाजू आगे की, और ऊँगली से संकेत किया! मैंने उधर देखा, एक कुटिया सी थी वहां!
"जाओ शाश्व!" बोली वो,
और बिन कुछ कहे, देखे, लौट पड़ी वापिस, मैंने सर घुमाया तो लोप! अब सामने देखा, उस कुटिया तक चलने की सोची, और चल पड़ा!
आ गया कुटिया तक! अंदर कुछ प्रकाश सा था, टिमटिमा रहा था, मैंने उस कुटिया में झाँक कर देखा तो एक वृद्धा, नीचे बैठ कर, खेजड़ी(झाड़ू करना) कर रही थी! सामने, उस छान के नीचे, चार चूल्हे बने थे, कुछ जलावन भी पड़ी थी, एक पत्थर का भांड भी रखा था, पत्थर ही कहूंगा मैं, वो देखने में चिकना और मज़बूत था!
मैं इस से पहले कुछ कहता, कि..
"शाश्व?" बोली वो वृद्धा, बिन मुझे देखे!
"जी!" कहा मैंने,
"किसे खोजता है?" पूछा उसने,
"साधिका, वधुका!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"वधुका!" कहा मैंने, इस बार ज़ोर से!
"अंदर आ!" बोली वो,
मैं अंदर आया और वो खड़ी हुई! जब खड़ी हुई तो, मुझ से डेढ़ गुना वो! उस कुटिया की छत  ही नहीं थी!
"आ?" बोली वो,
और मैं समीप चला उसके!
"उधर!" बोली वो,
उसने दीवार की तरफ इशारा किया, मैंने जैसे ही देखा, जैसे धुंआ सा छंटा, और उधर मैंने, एक मार्ग देखा! मैं बढ़ा उस तरफ! और आया उस मार्ग के मुहाने पर, पीछे देखा, तो वो कुटिया, बहुत दूर! बहुत ही दूर! बस, उस कुटिया के फूस से झांकती हुई लौ की किरणे ही दिखाई दीं!
मैं मार्ग में आगे चला! भूमि यहां कुछ शीतल थी! मैं आगे चलता गया! सीधा! और मार्ग, समाप्त होने का नाम ही न ले! खैर, मैं चलता ही रहा! और आगे जाकर, एक बहुत ही बड़ा, विशाल सा चबूतरा दिखा! अब समझ न आये क्या करूँ? अन्य कोई मार्ग नहीं वहाँ, न बाएं और न दाएं! चबूतरा ऐसा ऊँचा, कि चढ़ न सकूँ!
"शाश्व? हे? शाश्व?" आयी एक आवाज़ मुझे, मेरे पीछे से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने अविलम्ब पीछे देखा! हंसती सी, मुस्कुराती सी मेरी साधिका खड़ी थी! ठीक वही, जो मेरी ही थी! मेरी उसी भौतिकता वाली साधिका! ज्सिके संग में इस साधना में तल्लीन था! वो चलती आयी मेरे पास और मैं, कुछ आगे चला!
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी, शाश्व!" बोली वो,
शाश्व? ये कौन है? इसे तो शाश्व नहीं, नाथ कहना चाहिए था? फिर ये...ये शब्द....शाश्व क्यों?
"शाश्व?" पूछा मैंने,
"हूँ! शाश्व!" बोली वो,
और मेरा हाथ पकड़ लिया उसने! उस शीतल से वातावरण में, जब उसके हाथ से स्पर्श हुआ, तब मेरी सोई हुई सी चेतना, भी जाग उठी! उसका स्पर्श और उसके बदन की गर्मी ने, मुझ में फिर से जीव-वाहिनि का संचार कर दिया!
"आओ शाश्व!" कहा मैंने,
अब मैं 'जाग' गया था, चल पड़ा उसके साथ, लेकिन अभी भी कुछ प्रश्नचिन्ह मेरे माथे पर झूल रहे थे!
वो लेकर, चलती रही, मेरी भुजा पकड़! मैं भी किसी मस्तूल के पर्दे समान, वायु-प्रवाह की थ से चलता ही रहा! आगे एक जगह आयी! मैं रुक गया! आसपास देखा! श्वेत पुष्प! ऐसे ही पुष्प मैंने, उस जल में देखे थे!
"चलो शाश्व!" बोली वो,
और मैं, उसको एक पल को देख, फिर दृष्टि हटा, उन पुष्पों पर पुनः बिखेर, चल पड़ा उसके साथ!
"इधर!" बोली वो,
मैंने तभी उधर देखा, ये जो देखा मैंने तो स्तब्ध ही रह गया! ये नीचे जाने का रास्ता था, अनगढ़ सी, गोबर और चिकनी मिट्टी से लीपी हुईं, मिट्टी से बनाई हुई सीढियां थी! उधर कच्ची मिट्टी की सौंधी सौंधी महक आ रही थी, ऐसी महक, कि दांत ही किटकिटा जाएँ आपस में!
"आओ!" बोली वो,
और मैं नीचे चल पड़ा उसके साथ!
"यहां!" बोली वो,
मैं रुक गया उधर! आसपास देखा, ये एक कच्ची मिट्टी से बना घर सा था, घर में कोई चौखट नहीं थी, मिट्टी की मोटी मोटी दीवारें थीं!
"इधर!" बोली वो,
और चली आगे! मैं भी चला आगे, ये एक दीवार थी, उसमे, बना एक रास्ता, ये रास्ता कई और घरों को भी जोड़ता था! कुल ऊंचाई उन दीवारों की, करीब ढाई या तीन फ़ीट रही होगी! एक घर के बाहर, दीवार में मोरपंख चिपके हुए थे, कमाल ये कि उनके केंद्रों से, दीये जैसी रौशनी छन रही थी!
"अंदर आओ शाश्व!" बोली वो,
और मैं अंदर चला उसके साथ! पांवों में, नरम दूब की सी घास होने का एहसास हुआ, लेकिन यहां भी जो सुगन्ध थी, कच्ची मिट्टी की ही थी! उस कक्ष में और कुछ न था, कुछ भी नहीं! मैंने ऊपर देखा, तो छत न दिखाई दे मुझे! सबकुछ बड़ा ही अजीब सा था! यहां मद्धम सा प्रकाश अवश्य था, कहाँ था इसका स्रोत, ये नहीं पता था!
"बैठो शाश्व!" बोली वो,
मैं मंत्रमुग्ध सा, बैठ गया!
वो आगे आयी और मेरे नेत्रों पर हाथ रखा! नेत्र बन्द हो गए थे,पलकों के अंदर ऐसा लगा कि जैसे स्वयं ही सूर्य समक्ष से गुजर गए हों!
'साधिके?" पूछा मैंने,
"हाँ शाश्व!" बोली वो,
"ये कौन सा स्थल है?" पूछा मैंने,
"कामाश्रय!" बोली वो,
"और ये मण्डल?" पूछा मैंने,
"वधूकान्शिक!" बोली वो,
"और तुम?" पूछा मैंने,
"वधुका!" बोली वो,
"वधुका या साधिके?" पूछा मैंने,
हाथ हटाया उसने मेरे नेत्रों से! मेरी देह में तीव्र सी ऊष्मा परिचालित हुई! मैंने उसे देखा! वो नग्न थी, मैं उठ खड़ा हुआ! कामावेश में. उठा लिया उसे ऊपर! और , ओंष्ठ-क्रीड़न कब आरम्भ हुआ, ज्ञात नहीं!
मेरे मुख से, अक्षरमुष्टिक( सांकेतिक भाषा, जिसे बस समझने वाला ही समझे, आधुनिक युग में, अक्सर भूमि से सम्बंधित एजेंट, दलाल आदि प्रयोग करते हैं!) शब्द निकलने लगे! उस काम-पिपिका में, मैं ईंधन हो गया था! जल रहा था! सुलग रहा था! दाह ऐसा, कि स्वयं ही कहीं भस्म न हो जाऊं!
तभी, उस साधिके के, हंसी के स्वर गूंजे! उसने, मेरे दाएं कंधे पर, नख से, दबाव डाला, और मैंने तब, उसकी हंसी के स्वरों को ही, कामाश्व-खुर बना डाले! ये सब, भाषावली, चौंसठ कलाओं की हैं!
"साधिके!" कहा मैंने,
और मैंने महसूस किया कि जैसे, वो मुझे वायु-गमन करवा रही है! मैं, हल्का हो चुका हूँ! वायु से भी हल्का! चिपका हुआ, उस से, बहे जा रहा होऊं!
"शाश्व!" बोली वो,
नेत्र खोले मैंने अपने! और देखा, नीचे ही हूँ मैं तो! मेरा आसन, मेरा त्रिशूल, मेरी अलख आदि 
सब वहीँ हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर मेरी आँखें झपकीं! और वो सब, सार्वभौमिकता लोप हो गयी! मैं तो अभी भी विचरण ही कर रहा था! हाँ, अब अँधेरा छंटने लगा था! कुछ कुछ अब दूर तलक, दीख पड़ने लगा था! नीचे मैंने, जिसे, उड़ते हुए, पर्वत देखे! घाटियां! हिम-आच्छादित सी चोटियां! झुण्ड में भागते हुए हिरन और अन्य वन-पशु! नदियां! सरोवर! झीलें! सब का सब विहंगम! और फिर से आँखें झपकीं! मैं संसर्ग में था! ये कैसे? मैं संसर्ग कर रहा था साधिका के संग!
मित्रगण!
बार बार ये दृश्य मुझे दीखते! अब मेरा मस्तिष्क मेरे बस में नहीं था! वो कभी कुछ और कभी कुछ देख रहा था! मेरा तो जैसे तंत्रिका-तन्त्र ही ठप्प हो चला था! मैंने बस अपने आपको, अब खोया और तब खोया! मेरी आँखों के सामने,  दिन और रात, सुबह और शाम ऐसे क्षणों में गुजर रहे थे कि मैं अब ख़तम और अब खत्म!
"शाश्व!" आयी आवाज़!
मैं नशे में बेसुध!
"शाश्व!" फिर आयी आवाज़!
आँखें खोलीं! दिखे कुछ नहीं! नितांत अँधेरा! कुछ नहीं! आँखें मिचमिचाउं मैं, प्रयास करूँ देखने लक, और दिखे कुछ नहीं! स्थिर करना चाहूं नेत्रों का, तो न कर सकू! मेरी छाती पर, मनों बोझ जैसे! श्वास अवरुद्ध हो, बेहोशी सी आये!
"शाश्व!" आयी फिर से आवाज़!
मैं इस बार तो कराह सा ही उठा! मेरी जंघाओं की पेशियां कस गयीं! किसी ने मेरे घुटनों को पकड़ रखा था, पता चलता था!
"शाश्व!" आयी फिर से आवाज़!
"साधिके?" मैंने टूटे से शब्दों में बोला!
"हाँ शाश्व!" बोली वो,
मेरी कमर की, दोनों तरफ की हड्डियां, जैसे अब अलग ही होने को थीं! ऐसा क्या हो रहा था? मैं कहाँ हूँ? ये मण्डल है क्या? या फिर, वही कक्ष? या ये फिर मेरा ही श्मशान है? ये कौन सी जगह है? मैंने अपने सीधे हाथ को भूमि से रगड़ा! नहीं! ये भूमि नहीं! तो ये क्या है? कांच? कांच है क्या?
"शाश्व!" आयी आवाज़!
"आ. हाँ...सा...धिके!!" बोला मैं,
और कराह उठा! मेरी नाभि में तीव्र सा दर्द उठ रहा था, मैं बार बार, अपना उदर ऊपर उठाता था और कोई, मेरे वक्ष पर हाथ रख, नीचे दबा देता था!
"शाश्व!" कहा उसने!
"हाँ?" फिर से टूटे से शब्द!
मेरा सर ऊपर हुआ, सम्मुख देखा, तो बस, श्याम से केश! मैं, कमर के बल लेटा था, मैंने हाथ लगाने का प्रयास किया उसे, वो पीछे झुक गयी! मेरा वो हाथ, पकड़ के लिए मसोस कर रह गया!
"शाश्व?" इस बार प्रश्न किया उसने!
"ह...हाँ?" कहा मैंने,
"यायोचित है?" पूछा उसने,
"नहीं जानता!" कहा मैंने,
और तभी, मेरा उत्तेजित लिंग, उसकी योनि से बाहर आ गया, मैं गहरी साँसें लेने लगा था, अभी श्वास, छोड़ता ही, कि फिर से मैंने महसूस किया कि मेरा लिंग, योनि में पुनः प्रवेश कर चुका है, फिर से वही क्रमण! वही मर्दन! वही दर्द और वही अहसास!
"मुक्ति!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"इसी क्षण!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मुक्ति? हाँ?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
और मर्दन थमा! वो रुक गयी! मैंने अपने सूखे होंठों पर, जीभ फिराई! और तभी, मेरे केश पकड़े किसी ने! खींचा ऊपर!
"मुक्ति?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
और हाथ जोड़ लिए! गिड़गिड़ाने लगा! मैं, मैं न रहा उस क्षण!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ शाश्व?" बोली वो,
"नहीं! कोई मुक्ति नहीं!" कहा मैंने,
और पुनः मर्दन आरम्भ हो गया! इस बार तो मेरी देह ही चटक गयी! मेरी कमर का पुर्ज़ा पुर्ज़ा टकराने लगा एक दूसरे से! जी चाह, धकेल दूँ उसे! जी चाहे, रोक दूँ! लेकिन नहीं! कूप के तल में था मैं! अब नहीं लौट सकता था!
तभी साधिका ने मुझे कसा! और ज़ोर से जैसे रुदन किया! मैंने नहीं छोड़ा उसे इस बार! और इस बार मैंने मर्दन किया उसका! साधिका हटना चाहे! नहीं! अब नहीं! कुछ और समय! और फिर उसकी एक चीख सी गूंजी! ये आवाज़ हर तरफ गूँज गयी!
और साधिका!
साधिका, मेरे ऊपर ही झूल गयी! मेरे नेत्र बन्द हो गए! शान्ति! असीम सी शान्ति! नेत्र खोलने चाहे! तो अन्धकार व्याप्त था! बन्द किये, तो अन्धकार था! सो मैंने बन्द ही कर लिए!
उन क्षणों में, सभी को जड़ मार गया था जैसे! साधिका, ज़ोर ज़ोर से श्वास ले रही थी, मेरे से भी अधिक! वो निढाल थी और मैं! मैं सुकून में था! जी किया, खुल कर हंस पडूँ! खड़ा हो, नाचने लगूं!


   
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