एक एक क्षण, प्रत्येक क्षण ऐसा था कि जैसे तीखी धार पर किसी तलवार पर, गुलाब की नाज़ुकी को जांचा जा रहा हो! और वो इतना नाज़ुक, कि उफ़्फ़ कहे तो जान से जाए! यही हाल इस समय मेरा था! छोड़ सकता नहीं, भाग सकता नहीं, ये तो वो कूप-कपाट थे, जिसमे गिरे तो जीत कर ही बाहर निकलना हो! वो साधिका, अपनी जंघाओं से भींच मुझे, नीचे गिराने को आमादा थी और मैं उसे साधने को आमादा! उसके योनि-स्राव को मैंने अपने बदन पर, उदर के पास, महसूस किया, ऐसा गरम कि जला के रख दे!
मैंने तब उसको साधते हुए, मन्त्र पढ़ने आरम्भ किये! जैसे ही मन्त्रावधि बढ़ती गयी उसका जैसे क्रोध ही बढ़ता गया! उसने तो अब जैसे हाथापाई सी आरम्भ कर दी! मैं, किसी तरह से, उसे ठेलते हुए, अलख तक लाया, अलख में ईंधन झोंक सकता नहीं था, अलख अभी तक भड़की हुई थी! उसे मेरी दशा को देख, आनन्द मिल रहा था बहुत, ऐसा लगता था!
और तभी!
तभी साधिका के मुख से तीन शब्द निकले! बस! यही तो प्रतीक्षा थी! मैंने वो शब्द उच्चारित किये! कटे पेड़ की तरह से, मेरे बदन से, नीचे गिरती चली गयी वो! कहीं उसका सर भूमि से ही न टकरा जाए, मैंने आहिस्ता से उसको पकड़ते हुए, लिटा दिया आसन पर! मेरी जान में जान आयी! श्वास, फिर से नियंत्रित हो गयी! वो स्राव जो मुझे जला रहा था, अब शीतल सा लगने लगा था! साधिका अपने होश में नहीं थी, रोष्टि जा चुकी थी! मैं लपका और सीधे ही अलख पर बैठ गया! दोनों मुट्ठियों में, ईंधन लिया और झोंक मारा अलख में! अलख बिलबिला गयी! मैं आगे झुका, मदिरा उठायी, पात्र में भरी और साधिका के ऊपर, अंजुल भर छिड़क दी! उसके नितम्बों और जंघाओं में संकुचन सा हुआ! एक पाँव हिला, हाथों की उंगलियां खुलने लगीं और कुछ ही क्षणों में, पेट के बल लेटी साधिका, उठ बैठी! उसने उठते ही मुझे देखा!
"कुशल से हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" कहा उसने,
उसको स्राव अभी भी हो रहा था, मैंने एक वस्त्र से उसके बहते हुए स्राव को पोंछ दिया और वस्त्र, अलख में झोंक दिया! जलते हुए, धुंआ उठा और वस्त्र के बीच में एक बड़ा छेद बना, और आगे की लपट ने, रख कर दिया उसको, आसपास फैलते हुए!
"कौन?" पूछा उसने,
"कुछ याद है?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"रोष्टि!" कहा मैंने,
"गमन?" बोली वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
उसने ये सुनते ही, आकाश की ओर हाथ करते हुए, कुछ बुदबुदाते हुए, हाथ जोड़ लिए!
उसने झुक कर अपनी योनि पर दृष्टि भरी, फिर मुझे देखा!
"नहीं, अभी नहीं!" कहा मैंने,
"फिर रोष्टि?" बोली वो,
"ये नहीं होता!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"आओ!" कहा मैंने,
एयर मैंने एक टांग फिला दी आगे, उसकी इशारा किया अपनी फैली हुई जगह पर विराजित होने को, उसने ऐसा ही किया!
"मदिरा!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
और एक पात्र भर दिया उसने, दे दिया मुझे!
"चखो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और चख ली मदिरा!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" पूछा मैंने,
"और?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मैं?" पूछा उसने,
"अवश्य!" कहा मैंने,
और अपना खाली हुआ पात्र उठाया, उसमे मदिरा भरी, चखी और कुछ छींटे अपने सर पे छिड़के!
"लो साधिके!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और ले कर वो पात्र उसने, एक ही बार में, गटक ली सारी मदिरा! मुझे हैरानी तो न हुई, पर, अब कुछ बल ही मिलने वाला था मुझे! इसीलिए, मुस्कुरा पड़ा मैं!
मदिरा-भोग से, जहां उसकी देह में, 'खुलन' होती, वहीँ नव-संचार भी होता! केंद्रीकरण हो जाता और तब, क्रिया हेतु उसका मानसिक-बल और बढ़ जाता! उसने मदिरा-भोग किया और उसके गले में, पेशियां हिलीं! मैंने भी अपना पात्र उसकी तरफ सरका दिया!
"मदिरा साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ! अवश्य! अवश्य!" बोली वो,
मदिरा तो उसकी आवाज़ में लिप्त हो गयी थी! चेहरा लालिमा ले गया था उसका! पेशानी पर छलके पसीने, मोती की तरह से चमकने लगे थे! उसने मदिरा भरी पात्र में और मुझे देखा! मैं झुका!
"लाओ साधिके!" कहा मैंने,
"ऊं हूँ!!" बोली वो, सर ना में हिलाते हुए!
"क्यों साधिके?" पूछा मैंने,
और मैं पात्र पकड़ने के लिए आगे झुका, वो भी झुकी, उसकी गरम सांस, मदिरा की वो मदमाती गन्ध लिए मेरे नथुनों से टकराई! जैसे ही टकराई, जैसे आग को बारूद की ख़ुशबू मिली हो, मेरे नथुने भी फड़क गए! मेरे लिंग के पास, बन्ध वो लोहे का छल्ला कसने लगा, मैं जान गया कि मुझे उत्तेजना हो चली है! कुछ मदिरा और कुछ उसका मदमाता सौंदर्य! कुँए से बचो तो खाई में गिरो! खाई से बचो तो पाँव फिसलन से न बंधे सही! ऊपर देखो तो काम-तड़िता ऊपर ही गिर, विध्वंस ही न कर दे! तो! फंस गए! अब जब फंस गए तो झुकना क्या, क्या राह नापनी भाग भाग कर! आराम आराम, आहिस्ता आहिस्ता से ही चलना उचित था! और उस सख्त, मैंने यही निर्णय लिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ??" बोली वो,
उस प्याले को चाटते हुए! ये देख, जैसे मुझे फिर से वेग महसूस हुआ! मैं हंस पड़ा! हंस पड़ा उस स्थिति पर!
"क्यों साधिके?' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"ऐसे नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछ मैंने,
"नाथ, सब जानते हो!" बोली वो,
"हाँ, जानता हूँ!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"इस समय, मैं, मैं होता तुम्हें, तुम न समझता!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
शायद, समझी नहीं थी मेरे शब्द!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
और अपने हाथ से, मेरी ठुड्डी के नीचे, उठाते हुए, चेहरा, ऊपर तक किया, नाखूनों से, मेरा मुख खोला, और हाथ का अंजुल बना, मेरे मुंह में, मदिरा गिराने लगी! मैं मदिरा इकट्ठा करता, घूंट बनाता और गटक जाता! उसके हाथ से, चन्दन की महक, उस मदिरा के संग, मेरे मुख में चली जाती! मदिरा का 'जल' नीचे जाता और महक का 'जाल' ऊपर, सीधे मस्तिष्क में! 'जल' और 'जाल' का ऐसा मिश्रण हुआ, कि मेरे तो, पाषाण से शिलाएं, शिलाएं से पत्थर और पत्थर से कंकड़ बनते चले गए! कहीं धूल ही न बन जाऊं, मदिरा ने तरस खाया, वो चुक गयी पात्र से, और वो मिश्रण, कुछ देर के लिए ही सही, थोड़ा दूर हो गयी! मदिरा दूर हुई, परन्तु मैं नहीं! भर लिया साधिका को बाहुपाश में मैंने! वो भी चिपक गयी! उसकी छुअन ने मेरे तो तपते बदन में अंगार रख दिए!
"साधिके!" कहा मैंने,
कुछ न बोली वो!
"ऐ साधिके?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"अलख बुला रही है!" कहा मैंने,
उसने सर घुमाया और अलख को देखा, अलख की अगन, जैसे घूंघट के पीछे से, लजा कर, कनखियों से देख रही थी हमें! वो हट गयी, और बाएं हाथ से, ईंधन पकड़ा, ईंधन छूटा! मदिरा ने रंग चढ़ा दिया था अपना! अब मदिरा की एक एक बून्द, नाम पूछ रही थी उसका!
'इधर आओ!" कहा मैंने,
वो हटने लगी, पीछे गिरती ही, कि मैंने सम्भाला उसे, और अपने से अलग किया, दोनों बाहों का सहारा ले, बैठ गयी साधिका!
"जय जय अलखेश्वर! तेरी जय!" बोला मैं,
और ईंधन झोंक दिया! अलख का घूंघट हटा! लाज सब ताक पर रख दी, और अब, ईंधन पाते ही, नृत्य आरम्भ हो गया उसका! मैं ईंधन झोंकता रहा उसमे! अलख, उठ कर, हमारे से भी ऊपर जा, नृत्य में लीन हो गयी!
उधर अलख लीन थी और इधर मैं उस काम-मद में तल्लीन! मेरे संग साधिका भी तल्लीन! आज कुछ विशेष था, आज साधिका पर, कुछ खुमार ही अलग था, ये रोष्टि के कारण हुआ था! रोष्टि ने ही कुछ जागृत किया था उसमे! इसीलिए, रह रह कर, वो प्रत्येक अपनी दैहिक-भाव-भंगिमा में, निवेदन ही देती सी लगती थी! या फिर, ये मुझ पर जो सवार था उस समय मद, उसके कारण था!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?' कहा मैंने,
"नाथ?" बोली फिर से,
"बोलो साधिके!" कहा मैंने,
"और....." बोली वो,
इस और का अर्थ मैं नहीं समझ सका, क्या और, मात्र में या और, फिर पुनः या फिर बदल कोई?
"और क्या साधिके?' पूछा मैंने,
अभी मैंने पूछा ही था कि तीव्र ढल्ली(डल्का, बड़ा सा आधा मटका, जिस पर ढोर की खाल से, पर्दा बना कर, बाँधा जाता है) बजने का स्वर गूंज! मैं चपल हो उठा! साधिका को इशारे से बुलाया, वो चली आयी और मैंने, साधिका को, वहीँ लेटने के लिए संकेत कर दिया! वो लेट गयी, सर पर, आँखों पर, हाथ रख लिया! ढल्ली फिर से बजी! इसकी आवाज़ ऐसी तेज थी, कि मेरी हड्डियों के जोड़ भी जैसे खुल ही पड़ते थे! मैंने अलख में ईंधन झोंका! और प्रतीक्षा की! ढल्ली फिर से बजी! लेकिन समक्ष कोई नहीं आया! मैं अब थोड़ा हैरान था! जो भी है, वो सामने क्यों नहीं आता? नहीं आता तो संकेत भी नहीं देता? ये कौन है? अभी सोच ही रहा था कि ढल्ली ज़ोर से बजी! और सहसा ही दिमाग में, इस ढल्ली के बजने की कुछ याद मेरे दिमाग में जाग गयी! ये जो था, ये बड़ा ही क्रूर था! कामपिपासु था! साधिका अब खतरे में थी, यदि ये, वो ही था तो!
जब कोई समक्ष न आये और खेल ही दिखाए, तो समझिए कि मामला उलट ही हो रहा है! मैं कभी अपनी निढाल से साधिका को देखता और कभी सामने ही! बाएं से, ढल्ली पीटी गयी! तीन बार! अब तो मैं समझ ही गया ये कौन है! ये वेताल-चैवातक, गणाक्ष था! ये बड़ी ही भीषण सत्ता है! इस से भिड़ना तो शर्तिया ही विक्षिप्त हो जाने के समान है! ये ऐसी गम्भीर माया का निर्माण करता है, कि साधक, माया में भी प्राण देखे!
तभी मेरी साधिका ने नेत्र खोले! अचरज से मुझे देखा और मैंने एक ही बार देखते हुए उसे, नीचे लेटे रहने को कहा! वो लेट गयी लेकिन खुले नेत्रों से!
"नेत्र बन्द करो!" फुसफुसा के बोला मैं!
ये भी भूल गया कि मेरी फुसफुसाहट का कोई लाभ ही नहीं गणाक्ष को! अचानक से, मेरे समीप ही ढल्ली बजी! ठीक सामने की मिटटी में धूल का गुबार सा उठ गया!
"कौन है?" साधिका ने घबरा के पूछा!
"रुको!" कहा मैंने,
और लपक कर अपना त्रिशूल उखाड़ लिया, काँधे से सटा लिया! और देखने लगा हर हरकत को! ज़रा सी आहट भी होती तो फौरन ही मुड़ जाता मैं उधर!
"गणाक्ष!" कहा मैंने,
ढल्ली बजी!
"समक्ष आओ!" कहा मैंने,
एक ज़ोरदार, पेड़ों तक को चीर देने वाला अट्टहास गूंजा! ये अट्टहास किसी के भी पाँव डगमगा दे!
मैं अलख के पास चला, धीरे धीरे! और रुक गया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"उठना नहीं!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो!
"गणाक्ष है!" कहा मैंने,
साधिका अंदर तक शं गयी ये सुनकर! टांग से टांग चिपका लीं उसने, हाथ दोनों सर पर रख लिए और नेत्र बन्द कर लिए!
"बस गणाक्ष!" कहा मैंने,
ढल्ली फिर से बजी!
"चले जाओ गणाक्ष!" कहा मैंने,
फिर से अट्टहास उठा!
"चले जाओ!" कहा मैंने,
नहीं कोई भी उत्तर!
कुछ पल, खामोशी के! मेरा हृदय, लगातार स्पंदन करता जा रहा था! यहां कोई चूक नहीं होनी थी, अन्यथा प्राणों का संकट, समक्ष ही आ खड़ा होता! समय को जैसे विराम का चाबुक जड़ दिया गया हो! वो शांत सा खड़ा हो गया! न आगे ही बढ़े, न कोई राहत ही दे! मेरे हाथ में पसीने छलछलाने लगे थे, फिर भी, त्रिशूल पकड़े, खड़े रहा मैं!
और अचानक ही!!
अचानक ही, मेरी साधिका बीच में से उठी! उसकी चीख निकली! मेरी तरफ हाथ किया उसने और मैं उस पल में ही सारा माज़रा समझते ही लपक उसी तरफ! वो चिल्ला रही थी, मैं जैसे ही गया उसके पास उसने मुझे कमर से, पकड़ लिया! साधिका पर जैसे जो बोझ गिरा था, वो हट गया था! किसी ने जैसे छोड़ दिया था उसे! वो घबरा गयी थी! कंपकंपा रही थी! उसने नीचे झुके ही, मेरी बायीं जांघ को कस के जकड़ लिया था! मैं हवा में त्रिशूल उठाये, आसपास ही देख रहा था!
"साधिके! घबराओ नहीं! घबराओ नहीं!" कहा मैंने,
ये कहते हुए, मैंने ढांढस बंधाया था उसे! हुआ यूँ था कि गणाक्ष की सत्ता के प्रभाव से ही उसकी देह में जो प्रक्रिया आरम्भ हुई थी, उसी के कारण साधिका की रीढ़ टूटने की कगार पर आ चली थी! गणाक्ष जैसे कि बताया, एक वेताल-चैवातक है, स्वतन्त्र ही रहता है! इसको भी सिद्ध नहीं किया जाता, ये भी प्रसन्न ही हुआ करता है, इसकी साधना घोरतम हुआ करती है! इसे सिद्ध करना, साक्षात मृत्यु से वार्तालाप कर कुछ पलों की भिक्षा समान ही समझी जाती है! मैंने इसका आह्वान नहीं किया था, इसे मेरी बदनसीबी ही कहिये कि इस से टकराव हो गया था! पाषाण में हुए बड़े सूराख़ या दरारों में इसका वास माना जाता है, ये कदापि स्थिर नहीं रहता! पूर्ण रूप से प्रकट नहीं होता! महामसान से मित्रभाव रखता है! रूप में, ये भीषण हुआ करता है! इसकी साधना बहते जल के समीप, कन्धे तक, मिट्टी में दब कर, षड-शेष की धूनी ले, की जाती है! षड-शेष का अर्थ यहां देह के स्रावों से है! जैसे मल, मूत्र, पसीना आदि आदि!
एक समस्या और भी है, गणाक्ष कभी, वार्तालाप भी नहीं किया करता, करे भी तो स्वर स्पष्ट नहीं होते, मन्त्र-भंजक स्वर होते हैं इसके! एक बार में जैसे सात या आठ स्वर एक साथ उठ रहे हों, ऐसे! इस प्रकार के जैसे!
"गणाक्ष!" कहा मैंने,
मेरे पीछे ढल्ली पीटे जाने की आवाज़ हुई, परन्तु पीछे नहीं देखा मैंने! ये समक्ष ही वार करता है, पीछे से नहीं, ये स्वभाव से चैवातक है, इसीलिए सम्भवतः! जिस वेताल का ये चैवातक है, वो वेताल भी अति-भीषण एवम प्रलयंकारी स्वभाव का होता है! वो वेताल, चूँकि स्वतंत रूप से विद्यमान रहा करता है, किसी का ज़ोर नहीं, न तन्त्र का, न मन्त्र का, न यन्त्र का, मात्र वचनों एवम आन से ही पार पाया जा सकता है! और यही मुझे करना था, ये खेल वो अधिक देर तक नहीं खेलने वाला था! अतः मैंने, आन-मन्त्र लड़ाने की युक्ति सोची और, माँ त्रिपुरभैरवी की सहोदरी, अनुरन्गा की आन भिड़ाने की सोची! ये तन्त्र में विदित है, कि माँ अनुरन्गा इस प्रकार के क्षणों में, साधनाओं में, आन लगाए जाने पर उनकी, शत प्रतिशत रूप से सहायिका हुआ करती हैं! जो व्यक्ति, घोर अवसाद(एक्यूट डिप्रेशन) से ग्रस्त हों, वे व्यक्ति दिन में नौ बार किसी भी समय माँ अनुरन्गा का मन्त्र-जाप करें! तीन दिवस में ही बदलाव महसूस करें!
अचानक से ढल्ली पीटी जाने लगीं! और मैंने तभी माँ अनुरन्गा का आन-मन्त्र जपना आरम्भ किया! अभीष्ट हुआ! पहले पूर्व, फिर उत्तर और फिर पछाँ में ढल्ली बजना बन्द हो गया! और जब मैंने आन-मन्त्र पढ़ते हुए भूमि पर शोषक-थाप देते हुए मन्त्र पढ़, दक्खन की भी ढल्ली बजनी बन्द हो गयी!
जान में जान आयी! लौट गया वो वज्रक महावीर गणाक्ष! चला गया था सीधा अपनी नसिका की राह! मैंने त्रिशूल को माथे से लगाया! श्री शिवांकर का मन्त्र ज़ोर ज़ोर से पढ़ और चहुँ-दिश नमन करते हुए, माँ अनुरन्गा से हुई प्राण-रक्षा के लिए सदैव ही चरणों में रखने का दुःसाहस भी किया!
अब सब शांत था! अलख की चट-चट फिर से चटकने लगी! मैं संयत हो गया! इस प्रकार की विपत्तियां आना कोई नयी बात नहीं इस क्षेत्र में! बस साधक का तरकश उत्तर देने वाला हो!
"साधिके!" कहा मैंने,
और उसने चेहरा हटाया अपना! ज़र्द हो गया था, नसों में जैसे, कलेजे से विमुख हो, मेद, बहने लगा था भय खाकर! मैं पल भर को मुस्कुराया! उसने संकेत समझ लिया, उसके चेहरे से ज़र्द रंग, उड़ने लगा और लालिमा, फिर से छाने लगी!
"नाथ!" मेरे पांवों में सर रखते हुए बोली वो!
"उठो साधिके!" कहा मैंने,
वो उठने लगी, मुझे देखा!
"आओ! आओ साधिके!" कहा मैंने और बढाया हाथ अपना, उसने बढाया हाथ, मैंने पकड़ कर, खींच कर उसे, खड़ा कर लिया!
"आओ, उठो!" कहा मैंने,
उसकी गर्दन पर जो पसीने छलछलाये हुए थे, अब उन्होंने सूखना आरम्भ कर दिया था! मैंने उसके केशों से, फूलों की पत्तियां, तिनके आदि हटा दिए!
"अलख पर चलो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और चल पड़ी अलख पर, मैं संग ही चला उसका!
"बैठो, यहां!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
फिर मैं भी बैठ गया! और त्रिशूल उसी के स्थान पर, गाड़ दिया! कपाल उठाकर, फिर से उसके फाल पर, टांग दिया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"मदिरा!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
वो मदिरा परोसने लगी, मैंने साथ रखे डोल से, जल मिला लिया था पात्रों में, अलख में ईंधन झोंका और फिर मदिरा-पात्र को देखा, वो आहिस्ता से घाले जा रही थी मदिरा उन पात्रों में, कहीं छलक कर, बाहर न आ गिरे, पूरा ध्यान रख रही थी! मैंने जानबूझकर, उसे मदिरा-पान करने और कराने के लिए कहा था, उसका भय जो अभी भी शेष था उसमे कहीं कि और कोई ऐसी ही शक्ति न आ जाए सम्मुख, उसके मस्तिष्क ने उसको देह को ही अब एक सुरक्षा-ढाल का सा स्वरूप प्रदान कर दिया था! पूछा जाए, तो मैं यही नहीं चाहता था, इस से उसका ध्यान भटक जाता, भाव-रस, मृदु न हो, तिक्त होना सम्भव था, जब तक पूर्ण रूप से, 'संग' न हो, तब तक कोई लाभ ही नहीं था आगे जाने का! इसीलिए मैंने उसे मदिरा-पान करने को कहा था! मेरा कहा मानने को वो बाध्य थी, ऐसा भी नहीं था, ये तो साधक और साधिका के बीच की एक डोरी है, विश्वास की! मैंने अपने जीवन में ऐसी कई डोरें टूटती भी देखी हैं और अनुभव भी की हैं! मैं, चाहे किसी को भूलूँ चाहे न भूलूँ, एक साधिका को मैं कभी नहीं भूल सकता, उसका ना, मुक्ता था! मैं जानता था, वो इस संसार से, अपने इसी 'व्यवहार' के कारण, शीघ्र ही 'मुक्त' भी हो जायेगी, और हुई भी, परन्तु, दो साधकों की मृत्यु पश्चात! और ऐसी मज़बूत डोर भी देखी हैं जो डिगी ही नहीं, मृत्यु तक थामे रहीं वो डोर! खैर, ये पुरानी बातें हैं, अधिक तो नहीं, लेकिन अतीत के हिस्सों को ज़्यादा इकट्ठा नहीं करना चाहिए, हो जाएंगे इकट्ठे तो पहाड़ बना लेंगे, पहाड़ जो बना तो कभी न टूटे वो फिर! स्मरण रहे, अतीत, बनाने से बनता है, अतीत वो ही बनाये जो मज़बूत हो! मज़बूत, दिल से, इरादे से, सत्य से! नहीं तो आपका अतीत भी कोई और ही लिखेगा, बनाएगा! भविष्य में छेद नहीं होता, वर्तमान में भी सम्भव नहीं वर्तमान तो पिसता रहता है, भूत और भविष्य के बीच! अतीत में छेद बनाया जा सकता है! इसका रुख बदल जा सकता है! अफ़सोस, जो अतीत हम पढ़ते आ रहे हैं, वो पूर्णतय सत्य है ही नहीं! होल-झोल भरा, मन-माफ़िक़ और, 'बहुमतीय' है!
चलिए, ये समय अतीत को उलीचने योग्य नहीं! तो रहने देता हूँ! और फिर, कोई लाभ भी तो नहीं! सच ही है न!
"लीजिये!" बोली वो,
"हाँ साधिके!" बोली वो,
मैंने अपना पात्र पकड़ लिया, कुछ छींटे अलख में छोड़ दिए! माथे से, मदिरा को लगाया! उसकी शीतलता ने, सच में ही काम किया!
"लो साधिके!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"साधिके! स्मरण रहे! जब तक मैं सदेह और संज्ञानीकृत रूप से तुम्हारे संग हूँ, तब तो कोई भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेगा!" कहा मैंने,
अब आयी मुस्कुराहट उसके होंठों पर! मैंने उसके पात्र को जगह देते हुए, उसके ओष्ठों पर, चुंबन छू दिया उस समय!
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"अवश्य ही गणाक्ष की आमद, शेष थी! इसी कारण से आया वो! परन्तु, ये गोरखी-क्षेत्र है! और गोरखी-चाकी! बिन पिसे तो जाए नहीं कोई!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"मेरा चयन उचित था!" कहा उसने,
"यही मेरा मत भी है!" कहा मैंने,
और इसके बाद, हम दोनों ने ही, जमभाट-नाद कर, अपने अपने पात्र रिक्त कर दिए! और रख दिए अलख के समीप ही!
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"और!" कहा मैंने,
"आज्ञा!" बोली वो,
और भर दिए फिर से पात्र उसने! उसकी आवाज़ अब लहकने लगी थी! मदिरा का प्रभाव अब गोचर था! ये उस समय, ठीक भी था! यही आवश्यकता भी थी अभी, फिलहाल में तो! मैंने अलख में ईंधन झोंका और फिर से एक हल्का सा जमभाट-नाद किया!
"नाथ?" बोली वो,
"कहो साधिके?'' पूछा मैंने,
"एक प्रश्न है!" बोली वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
"इस से सम्बन्धित नहीं है!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"पूछूँ?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"पयोमचक्र!" बोली वो,
ये शब्द मैं सुन, थोड़ा सा विचलित अवश्य ही हुआ! उसके बोलते ही, मैं उसका आशय समझ चुका था! पयोमचक्र, एक साधिका की लिए ही एक अवस्था है! इस अवस्था में, आप कहिये कि, समझिये कि, जैसे 'कुण्डलिनि-जागरण' नाम की एक धारणा आजकल प्रचलन में है, जिसमे चक्र पूर्ण किये जाते हैं, इत्यादि! वैसी ही ये चक्रावस्था है, मात्र साधिका के लिए! तन्त्र में न साधक का स्थान निम्नतर है और न ही साधिका का! साधिका स्वयं चयन करती है अपने साधक का, ये कहने की बात नहीं! अब इस साधिका ने, अवश्य ही कुछ देखा, भांपा मेरे अंदर, जो ये, क्लिष्ट सा प्रश्न किया! प्रश्न किया तो उत्तर देना मेरा कर्तव्य भी था! हाँ, यदि मैं ही अनभिज्ञ रहा होता तो परिपेक्ष्य पृथक ही रहता!
"क्या जानना से इस विषय में?" पूछा मैंने,
"क्या ये सम्भव है?" पूछा उसने,
"हाँ, सम्भव है!" कहा मैंने,
"किस आधार पर?" पूछा उसने,
"तीन आधार हैं!" कहा मैंने,
"बता सकते हैं?" बोली वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
"तो पहला?" बोली वो,
"प्राण मोह-त्याग!" कहा मैंने,
"क्या इसका आशय वही है, जैसा मैंने सोचा है?" पूछा उसने,
"हाँ, परन्तु विस्तृत रूप में ये अधिक जाने, जाने योग्य है!
"समझ गयी!" बोली वो,
"अध्ययन करना उचित होगा!" बोला मैं,
"और द्वितीय?" पूछा उसने,
"औचित्य!" कहा मैंने,
"इसका आशय?" उसने मुझ से नज़रें फेरते हुए पूछा!
"ये सब, सन्ध हैं अर्थात, पहला आधार दूसरे से और दूसरा तीसरे से सन्धिकृत है, तदानुसार तृतीय भी, प्रथम से ही जुड़ा है!" कहा मैंने,
"औचित्य से यहां क्या मूल आशय?" पूछा उसने,
"कारण! किस कारण से! यदि उस कारण का मूल नष्ट किया जाए तो कोई आवश्यकता एवम औचित्य शेष नहीं रह जाता साधिके!" कहा मैंने,
"ओह...ये ही सत्य है!" बोली वो,
"हाँ, क्लिष्ट-धारणा है ये!" कहा मैंने,
''और तृतीय?" पूछा उसने,
"तृतीय है, शेष-हीनता!" कहा मैंने,
वो चुप हुई, शायद मेरे शब्दों का सन्धि-विच्छेद किया हो उसने! या शायद समझ ही न पायी हो!
"साधिके?" पूछा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"कोई प्रश्न शेष नहीं?" पूछा मैंने,
"ये तृतीय का..शेष-हीनता, इसका क्या आशय हुआ?" पूछा उसने,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"कृपा!" बोली वो,
"कृपा नहीं!" कहा मैंने,
वो मन्द मन्द मुस्कुराई मेरा उत्तर सुन!
"साधिके! इस जीवन में सभी कुछ शेष है! आशा, इच्छा, स्वप्न, कल्पना, आकांक्षा और इसी प्रकार भविष्य!" कहा मैंने,
"सच है!" बोली वो,
"ये साकार हो सकती हैं?" पूछा मैंने,
"दुष्कर है!" बोली वो,
"परन्तु असम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"परन्तु...." बोलते बोलते, पहले खांसी हल्का सा, फिर मुझे देखा, थूक गटका और फिर से नज़रें नीचे कर लीं!
"परन्तु क्या?" पूछा मैंने,
"कोई मार्गदर्शन...?" बोली वो,
"इस विषय में ज्ञात नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा..." बोली वो,
"हाँ, यो जानता था, बता दिया!" कहा मैंने,
इसके बाद, हमारे बीच कोई बातचीत न हुई! उस पर मदिरा का प्रभाव तो हुआ था, परन्तु कुछ अधिक ही केन्द्रीकरण हो गया था!
"साधिके?' कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"औचित्य शेष है!" कहा मैंने,
"हाँ..." बोली वो,
वो फिर से असहज सी होने लगी! ये तो वो ही बात हुई, कि खे कर, मैं, बीच धार से, नैय्या तो निकाल लाया, लेकिन आ कर पता चला, किनारा भी दलदल भरा है! कहीं और की ठौर नहीं, और, कोई और नहीं!
"साधिके?" पूछा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"क्या ही अच्छा होता कि मैं स्वयं ही मन कर देता कि, मुझे इसका उत्तर ज्ञात नहीं?" कहा मैंने,
"क्षमा! क्षमा नाथ!" बोली वो,
"क्षमा जैसी कोई बात नहीं साधिके!" कहा मैंने,
"मैं समझती हूँ!" बोली वो,
"ऐसी कोई बात नहीं!" बोला मैं,
"मैं थोड़ा समय लेना चाहती हूँ!" बोली वो,
''अवश्य!" कहा मैंने,
"आप समझते हैं न?" पूछा उसने,
"हाँ, सर्ग आवश्यक है!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" मुस्कुरा गयी वो!
मैंने अलख में फिर से ईंधन झोंका! और एक नाद किया! द्वितीय प्रहर, बस कुछ ही देर में विदा ले लेता! अभी, फिर भी, समय था मेरे पास!
कुछ देर बीती और मैंने साधिका को देखा! वो पहले बैठी हुई थी, अब लेट गयी थी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" सर उचका कर देखा उसने मुझे!
"मदिरा?" पूछा मैंने,
''नहीं!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"क्या आप?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" वो उठते हुए बोली!
"परोस दो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"यदि, 'ना' हो तो कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं नाथ!" घबरा ही गयी थी वो!
"यदि ऐसा हो तो...." कहा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोली वो,
और मुझे देने से पहले ही मदिरा स्वयं ही पी गयी वो! मैं समझ गया था, कुछ विचार थे उसके मन में, कांटे उगे थे, या तो कांटे हटा दो, या फिर मार्ग बदल दो! मैं प्रतीक्षा में था उसके निर्णय की!
"लाओ!" कहा मैंने,
उसने भरी हुई मदिरा पकड़ा दी मुझे! मैंने ऑंखें बन्द कर, गटक ली सारी, जब नेत्र खोले, तो साधिका खड़ी थी! मैंने उसके चेहरे को देखा!
वो मुस्कुराई! और नेत्र झपझपाये! नेत्रों से मदिरा छलकने लगी थी उसके अब! खड़े होते हुए भी, कुछ लहक सी जाती थी! फिर वो हाथ फैला अपने, घूमने लगी! मैं, उसको देखता रहा!
कुछ क्षणों के बाद!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" पूछा मैंने,
"तत्पर हो?" पूछा उसने,
मैं मुस्कुरा पड़ा! समझ गया आशय उसका, खड़ा हुआ, और उसके समक्ष आ खड़ा हुआ, वो लिपट गयी मुझ से! मेरे अंदर, उसके स्तनों के स्पर्श से, काम-धौंकनी चालू हो गयी! मैंने उठाया उसे, आसन पर रखा और फिर उसके बाद, उसको देखा!
"हाँ! मैं तत्पर हूँ!" कहा मैंने,
मैंने इतना कहा और वो लपकी मुझ पर! मैंने भी कस लिया उसे! मदिरा के प्रभाव से, मेरे अंदर का रक्त अब उबाल खाने लगा था!
और इसके बाद, संसर्ग आरम्भ हो गया! इस बार संसर्ग में, कुछ अधिक तेजी से बरती थी उसने! खैर, दूसरे चरण की भी आज रात्रि की साधना, उसके स्खलन के साथ ही, पूर्ण हो गयी!
कुछ देर पहचात...
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"आओ, चलें अब!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और मैं उसकी भुजा पकड़, चल पड़ा वापिस!
"तुम स्नान करो, अपने कक्ष तक जाओ, आराम करो, मैं कल दिन, चरर बजे तुमसे मिलता हूँ!" कहा मैंने,
"जो आज्ञा!" बोली वो,
और इस तरह वो अपने मार्ग और मैं अपने मार्ग हो लिया! स्नान किया और फिर, कुल्ला आदि कर, अपने कक्ष में चला गया, एक तो मदिरा का प्रभाव, कुछ थकावट, नींद जल्दी ही आ गयी!
अगले दिन...
मेरी नींद करीब दस बजे खुली, मैं नहा-धोकर, तैयार हुआ और चाय मंगवा ली, कुछ ही देर में चाय आ गयी, चाय के साथ कुछ नकीं आयी थी, उसके साथ ही चाय पी ली! उसके बाद वस्त्र बदल लिए और कुर्सी पर बैठ गया!
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई,
"कौन?" पूछा मैंने,
"खोलो ना?" आयी आवाज़!
पहचानी आवाज़ मैंने, ये कोमल थी!
"आया कोमल!" कहा मैंने,
और दरवाज़ा खोल दिया, वो सजी-धजी सी अंदर आ गयी! हाथ में एक पर्चा था उसके, उसने मुझे पकड़ाया पर्चा, मैंने पकड़ा और पढ़ा!
"अच्छा, ये पता है?" कहा मैंने,
"हाँ, पता है!" बोली वो, ज़रा गुमसुम सी थी वो!
"तो दे देतीं आराम से?" बोला मैं,
"मैं जा रही हूँ!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"घर" बोली वो,
"पिता जी के साथ?" बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो,
"इसका मतलब उनका काम हो गया?" पूछा मैंने,
"हाँ, कल ही!" बोली वो,
"बैठो तो?" कहा मैंने,
और कुर्सी पर बिठा दिया उसे मैंने! घुटने पर घुटना रख बैठ गयी वो! मुझे देखती, अपने बाल ठीक करती वो!
"कब जाना है?" पूछा मैंने,
"अभी बस!" बोली वो,
"अरे?" कहा मैंने,
"हाँ, अभी!" बोली वो,
"सांझ तक पहुंचोगी?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"क्या ठीक?" बोली वो,
"यही, सांझ तक!" कहा मैंने,
"आप कब जाओगे यहां से?" पूछा उसने,
"तीन या चार दिन बाद?" बोला मैं,
"अच्छा!" बोली वो,
"क्या अच्छा?" पूछा मैंने,
"तीन दिन या चार दिन!" बोली वो,
"कभी आना हुआ तो मिलूंगा!" कहा मैंने,
"मिलना होगा!" बोली वो,
"अच्छा, हाँ!" कहा मैंने,
"वैसे कब तक की उम्मीद?" पूछा उसने,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
"कुछ तो?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कभी तो? अरे?" बोली वो,
"आऊंगा तो फ़ोन करूँगा!" कहा मैंने,
मुस्कुरा गयी वो! एक सच्ची मुस्कान! बनावटी नहीं!
"अब चलूँ?" बोली वो,
"हाँ, देर मत करो!" कहा मैंने,
"अच्छा, ठीक!" बोली वो,
उठी, और चल पड़ी, मैं भी चला, उसने कई बार पीछे देखा, जब तक ओझल न हो गयी!
कोमल चली गयी! जिस तरह से आयी थी, ठीक उसी तरह से जाना भी हुआ उसका! मैं मुस्कुराता हुआ, वापिस कमरे में लौट आया! तभी एक सहायक आया, उसने खाने की पूछी तो हाँ कह दी, थोड़ी ही देर में भोजन भी आ गया! कासीफल की सब्जी, रोटियां और दाल-भात! और साथ में, थाली में ही, दही, दही थी ला लस्सी थी, पता नहीं! दो हरी मिर्चें और कुछ गोल कटा हुआ प्याज, सफेद रंग का! तो भोजन करने लगा, भोजन से फारिग हुआ तो शहरयार जी का फ़ोन आ गया!
"नमस्ते!" कहा मैंने,
"नमस्कार!" बोले वो,
"कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"दाढ़ी बनवाने आया था!" बोले वो,
"भोजन हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"क्या लिया?" पूछा मैंने,
"वही सब, जनता-खाना!" बोले वो,
"बढ़िया किया!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्या कर रहे हो अब?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, पानी लिया है!" बोले वो,
"अच्छा, समय हो तो लगा जाओ चक्कर?" कहा मैंने,
"कुछ लाना है?" बोले वो,
"नहीं तो!" बोले वो,
"अमरुद बढ़िया हैं यहां!" बोले वो,
"ले आओ फिर!" कहा मैंने,
"अभी आया, बीस-पच्चीस मिनट में!" बोले वो,
"ठीक है! अरे हाँ?" कहा मैंने,
"जी, हुकुम?" बोले वो,
"पानी लेते आना!" कहा मैंने,
"ठीक, ले आता हूँ!" बोले वो,
और फ़ोन कट गया, मैं लेट गया, अभी तक मदिरा की गन्ध बाकी थी साँसों में, सोचा, कुछ चबा ही लूँ, ढूंढा तो कुछ न मिला, चलो, अमरुद ही सही!
करीब आधे घण्टे के बाद वो आ गए! हाथ मिलाया और वो बैठे उधर, थैली रख दी बिस्तर पर और पानी मुझे दे दिया, दो लीटर ले आये थे, मैंने पानी पिया, ठंडा पानी था, बड़ा ही सुकून मिला!
"अमरुद लो!" कहा उन्होंने,
"कटवा लिए?" पूछा मैंने,
"मसाला भी लगवा दिया!" बोले वो,
"ये ठीक किया!" कहा मैंने,
और हम अमरुद खाने लगे, बेहतरीन अमरुद था, ताज़ा! मजेदार था बहुत! वहाँ अमरुद बहुत होते हैं, ताज़ा ही मिलते हैं!
"कोई फ़ोन?" पूछा मैंने,
"सचिन का आया था!" बोले वो,
"सचिन?" बोला मैं,
"वो, फरीदाबाद से!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"पूछ रहे थे वापसी का!" कहा उन्होंने,
"बता दिया?" कहा मैंने,
"एक हफ्ते बाद सम्पर्क करें, कह दिया!" बोले वो,
"ठीक किया!" कहा मैंने,
"और सुनाओ!" बोले वो,
"बस ठीक!: कहा मैंने,
''आज अंतिम?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बढ़िया!" बोले वो,
"आप सुनाओ!" बोले वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"टिकट अभी न करवाऊं?" बोले वो,
"हाँ, अभी नहीं!" कहा मैंने,
"चलो निबट लो पहले!" बोले वो,
"हाँ, उसके बाद ही!" कहा मैंने,
"माल-पानी है?" पूछा उन्होंने,
"है!" कहा मैंने,
"कम हो तो लाऊं?" बोले वो,
"नहीं, अभी है!" कहा मैंने,
"कोई खबर जेवर की?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''अच्छा, समझ गया फिर!" बोले वो,
"कल चलते हैं!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
शहरयार जी से और भी बातें हुईं, ले दे के बाद फिर से उस पूर्व-जन्म की घटना, मधु की बात तक आ गयी! कैसे न कैसे वो जानना ही चाहते थे उस लड़की के विषय में! मैंने उन्हें एक मामला बताया था, ये आदरणीय डोरोथी लुइ इडी की सच्ची कहानी है, ये महज़ एक इत्तिफ़ाक़ है या सच, ये आज भी शोध का विषय है! लेकिन डोरोथी लुइ इडी को आदर के साथ मैडम ओम सेटी कहा जाता है, कभी समय मिले तो मैडम ओम सेटी के विषय में पढिये! ऐसा ही ये एक मामला था मधु का, उसके साथ भी कुछ ऐसा ही था, अब वो जीवित नहीं, उसकी मृत्यु हो चुकी है, परन्तु बहुत सारे रहस्यों के विषय में वो बता गयी थी! शहरयार जी, इसी मधु के विषय में बार बार मांग करते थे जान्ने की! इस बार भी, मैंने उन्हें समझाया और मन लिया की बाद में कभी बता दूंगा!
"इस बार तो बता ही दीजिये!" बोले वो,
"हाँ, बताऊंगा!" कहा मैंने,
"मुझे ऐसे रहस्य बेहद ही सनसनीखेज और अच्छे लगते हैं!" बोले वो,
"हाँ, सो तो है ही!" कहा मैंने!
"वापिस चलकर बताएंगे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"टाल रहे हो?" बोले हंसते हुए!
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"तो इस बार पीछा नहीं छोडूंगा!" बोले वो,
"खुद ही बता दूंगा!" कहा मैंने,
"ये ठीक रहेगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब चलता हूँ!" बोले वो,
"अच्छा, ठीक!" कहा मैंने,
"कल कब आ जाऊं?" बोले वो,
"आ जाओ दो ढाई बजे?" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले उठते हुए वो और फिर बाहर चले, संग मैं भी चला उनके, बाहर तक छोड़ आया उन्हें, वे चले गए! मैं लूट पड़ा, सीधे अपने कक्ष में आया और लेट गया! कुछ ही देर में नींद आ गयी! सो गया मैं!
ठीक चार बजे मैं साधिका के पास पहुंच, सर्वाज़ खटखटाया तो सहायिका बाहर आयी, प्रणाम हुई और मैं अंदर चला आया! साधिका कुर्सी पर बैठी थी!
"प्रणाम!" बोली वो,
"प्रणाम!" कहा मैंने,
"बैठिये!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने और दूसरी कुर्सी पर बैठ गया!
"कैसी हो?" पूछा मैंने,
"कुशल से हूँ!" बताया उसने,
"बस, आज और!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"भोजन?" पूछा मैंने,
"किया!" कहा उसने,
"अच्छा!" बोला मैं,
"आपने?" पूछा उसने,
"मैंने भी!" बताया मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"कोई आवश्यकता तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"सब है?'' कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो कल वापसी?" पूछा मैंने,
"परसों!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"जहां से आयी!" बोली वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"आप?" बोली वो,
"अभी तीन दिन और!" कहा मैंने,
"कोई काम?" पूछा उसने,
"हाँ, थोड़ा सा!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"ठीक है, आराम करो!" कहा मैंने, और उठ गया!
"कब आओगे?" बोली वो,
"दस बजे!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा उसने,
और मैं बाहर आ गया फिर! कक्ष में नहीं लौट, एक जगह आकर, बैठ गया, सोचने लगा कि आज क्या होगा? पूर्ण हो जायेगी? कोई बाधा तो नहीं? अब तक, सब ठीक है, क्या आगे भी? ऐसे विचार आते चले गए! मैं करीब आधा गहनता बैठा, उठा और फिर अपने कक्ष की ओर लौट गया!
शाम का वक़्त था, शाम, बीत चुकी थी मेरा मतलब, आठ बजने को थे, कि मेरा फ़ोन बजा, नम्बर नया था, फिर मैंने उठाया फ़ोन, दो तीन बार बार हैलो कहा तो आवाज़ आयी!
"मैं पहुंच गयी!" आयी आवाज़!
कौन पहुँच गयी? किसे भेजा मैंने?
तभी याद आया! वो चुलबुली सी लड़की कोमल!
"कोमल?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अच्छा, कब?" पूछा मैंने,
"बस अभी, पन्द्रह मिनट हुए!" बोली वो,
"और फ़ोन लगा दिया?" पूछा मैंने,
"गलती कर दी?" बोली वो,
"ओहो! नहीं नहीं!" कहा मैंने,
"सोचा, बता दूँ!" बोली वो,
"अच्छा किया!" कहा मैंने,
"और सुनाइए!" बोली वो,
"अरे हाथ-मुंह तो धो लो?" कहा मैंने,
"कर लिया!" बोली वो,
"बड़ी जल्दी?" कहा मैंने,
"कोई मशीन थोड़े ही चलानी पड़ती है?" बोली वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"आप दो दिन बाद निकलोगे?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक है!" कहा उसने,
"अच्छा, कुछ काम कर लूँ?" कहा मैंने,
"हाँ हाँ!" बोली वो,
"ठीक है फिर!" कहा मैंने,
"अब कब करूँ?" बोली वो,
"कल कर लो, दो बजे के बाद!" कहा मैंने,
"ठीक! उठाना ज़रूर!" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोला मैं,
और फ़ोन काट दिया मैंने! ये कोमल, खैर!
और फिर हुई रात! नौ बजे करीब मैं पूजन-स्थल में चला गया और फिर पूजन कर, वापिस आया, साधिका को खबर करवा दी, और फिर से निकल आया मैं बाहर! आज श्मशान में चिता पूजन था, ये अंतिम रात्रि थी साधना की, अतः आज चिता-पूजन आवश्यक था!
मैं आया चिता-स्थल में, तो एक महाब्राह्मण मिला, उस से कोई नयी चिता हो, इस बारे में पूछा, उसने बता दिया और मैं चला आया उस चिता के पास! एक चिता मिली थी, ये पुरुष की थी और अभी दाह हुए कुछ समय ही बीता था, देर रात्रि में पहुंची थी चिता! क़ाहिर, कुछ भी था, मुझे पूजन के लिए उचित चिता मिल चुकी थी! मैं आया चिता तक, हाथ जोड़े नमन किया! और फिर एक मुट्ठी अनाज, चिता पर छिड़क दिया! कुछ मदिरा थी, वो भी छिड़क दी!
और तब, पाँव के तरफ उस चिता के, मैं बैठ किया, श्री महाऔघड़ का जाप किया! शक्ति से याचना की, साधना पूर्ण हो, ऐसी आशा की! कुल आधे घण्टे के बाद, चिता की परिक्रमा करने लगा! जितने चक्कर काटता, उतनी बार ही, नमन करता!
पूजन सम्पूर्ण हो गया, उस भस्म से अब स्नान किया, श्रृंगार किया और चल पड़ा अपने क्रिया-स्थल के लिए! वहाँ पहुंच, एक स्थान पर सामान रख दिया गया था, मैं उधर आ गया! मन्त्र पढ़, बुहारी की और आसन लगाया! बैठ गया, सभी सामान व्यवस्थित किया, अपनी अपनी जगह पर सँजो कर रख दिया!
ठीक दस बजे साधिका का प्रवेश हुआ उधर, आज सहायिक बीच से ही लौट गयी थी, साधिका आयी मेरे पास!
"प्रणाम साधक!" बोली वो,
"प्रणाम साधिके!" कहा मैंने,
और मैंने उसे एक फूल पकड़ा दिया, उसने ले लिया वो फूल!
"आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और बैठ गयी वो!
"दीप प्रज्ज्वलित कर लो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
उसने वो फूल अपने कान पर फंसा लिया और दीप निकाल लिया, फिर उसकी सामग्री भी!
"नाथ!" बोली वो,
"इस उधर, सम्मुख रख दो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और चल पड़ी वो दीप लेकर!
''आगे, और आगे!" कहा मैंने,
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
"जी, आज्ञा नाथ!" बोली वो,
"बैठो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और बैठ गयी समीप!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"आज यात्रा होगी!" कहा मैंने,
"यात्रा?" बोली वो,
"हाँ, यात्रा ही!" कहा मैंने,
"कैसी यात्रा नाथ?" बोली वो,
"अगम्य यात्रा!" कहा मैंने,
''अगम्य?" अचरज से पूछा उसने,
"हाँ साधिके, अगम्य!" बोली वो,
"अर्थात?" बोली वो,
"मार्ग, है मेरे पास, लक्ष्य, है मेरे पास, औचित्य? वो भी!" कहा मैंने,
"तब अगम्य क्या?" पूछा उसने,
"ध्येय!" कहा मैंने,
"ओह...समझ गयी.." बोली वो,
"ये तो काल ही जाने!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और कुछ क्षण, चुप्पी पसरी!
"ईंधन!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"डालो?" कहा मैंने,
"हाँ..हाँ..!" कहा उसने,
और अलख में ईंधन झोंक दिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"आज तुम्हें सम्भालनी होगी ये अलख!" कहा मैंने,
वो चौंक पड़ी! आँखें खुल गयी चौड़ीं!
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
"मैं समझी नहीं?" बोली वो,
''आज अलख तुम्हें सौंप रहा हूँ!" कहा मैंने,
"पर, क्यों नाथ?" बोली वो,
"आज मैं मुक्त होना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
"मुक्त?" बोली वो,
"हाँ, मुक्त ही!" कहा मैंने,
"किस प्रकार मुक्त?" बोली वो,
"मैं आज, अकेला होना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं समझ आ रहा?" बोली वो,
"ईंधन!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और ईंधन झोंक दिया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"यहां, इधर आओ!" कहा मैंने,
और मैं उठ खड़ा हुआ, हट गया अपने आसन से, उसका हतः पकड़ा और उस स्थान की तरफ बुलाया!
"यहां बैठो!" बोला मैं,
"प...." बोलती कुछ तो, मैंने बात काट दी उसकी!
"कुछ नहीं, ये आदेश ही है!" कहा मैंने,
"जी...आदेश..!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"प्राण!" कहा मैंने,
वो अवाक सी मुझे देखे!
"प्राण फूंको अलख में!" कहा मैंने,
वो समझ गयी और ज़ोर से फूंक मारी अलख में उसने, लॉ कुछ पीछे हुई और लौट आयी!
"ईंधन!" कहा मैंने,
उसने ईंधन लिया और फेंक के मारा अलख में!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"स्मरण रहे, ये अलख, प्राण हैं, मेरे, तुम्हारे!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
"डालो ईंधन!" कहा मैंने,
उसने मुट्ठी भर, ईंधन झोंक दिया! चड़चड़ आवाज़ हुई! अलख ने चबाया अपना ईंधन!
"भोग अर्पित करो अलख में!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और मांस के तीन टुकड़े, झोंक दिए अलख में उसने!
"द्वितीय भोग!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और मदिरा का भोग चढ़ा दिया अलख में!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"नौ सवार!" कहा मैंने,
"ॐ हक्काल!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"तीन, भालेश!" बोला मैं,
"ॐ भालेशा!" बोली वो,
"तीन जगणिका!" कहा मैंने,
"ॐ माँ डामरी!" बोली वो,
"नौ पिशाचिनि!" बोला मैं,
"ॐ हरसवेषा!" बोली वो,
"साधिके?' कहा मैंने,
"जी नाथ?" कहा उसने,
"अलख को नमन करो!" कहा मैंने!
"जय अलखेश्वरी!" बोली वो,
"उस आसन-भूमि को!" कहा मैंने,
"जय आसनेशि!" बोली वो,
"उस आसन को!" कहा मैंने,
"जय आसनम-योगिनि!" बोली वो,
"नभ को!" कहा मैंने,
"जय नाभेष!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ?" बोली वो,
"इस पावन लौ को!" कहा मैंने,
"जय घुरमेषि!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोली वो,
"अलख की नम्म-परिक्रमा!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और उसने परिक्रमा की! नौ मन्त्र पढ़े जाते हैं, इस अलख-धारी को, अलख से जोड़ते हैं, अलख उसके प्राण बन जाती है! जब तक अलख जलेगी, सब कुशलता से होगा, अलख के सहारे तो 'किसी' से भी लड़ा जा सकता है! छीना जा सकता है!
"साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"चौकस हो जाओ!" कहा मैंने,
"हूँ मैं नाथ!" बोली वो,
"मेरी देह, अब माध्यम होगी!" कहा मैंने!
"आदेश नाथ!" कहा उसने!
"तत्पर हो?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"यदि, बल, अधिक लगे, तो मदिरा लेना, और अलख में छोड़ देना! स्मरण रहे, स्पर्श न हो तुम्हारा मुझ से! अन्यथा, कुछ शेष न बचेगा!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"जय आद्यम! महा-आद्यम!" कहा मैंने,
"जय आद्यम! महा-आद्यम!" बोली वो,
"जय जय शक्ति-करालिनि!" कहा मैंने,
"जय जय शक्ति-करालिनि!" बोली वो भी!
और मैं उठ गया तब! अलख में ईंधन झोंका, भस्म ली, चाट ली! और पीछे जा बैठा!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"आह्वान करो!" बोली वो,
"जी नाथ!" बोली वो,
और उसने, अपने स्वर में, आह्वान करना आरम्भ किया! आह्वान किये जाए, ईंधन झोंके, मन्त्र-मंगल गाये! चिमटा उठा ले, खड़काये! मैं उसको ही देखे जाऊं! उसको ही! कैसी विलक्षण लग रही थी वो अलख-साधिका! कहीं कोई, भुंजक ही न आ जाए द्वन्द हेतु! अनुनय करे! विनय करे! निवेदन करे! चौमांड ही दे!
अचानक से, मेरे खुले नेत्रों के सामने, रक्त का पर्दा सा पड़ गया! मेरे नेत्र, सामने की ओर देखना चाहें! परन्तु वो पर्दा, और रक्तिम, और रक्तिम हो उठे! मेरे कंधे, जैसे शक्तिशाली हो गए! ऐसा आभास हो, कि किसी भी पेड़ को जड़ समेत ही उखाड़ डालूं! एक मुष्टिका, पृथ्वी पर मार दूँ तो फाड़ ही डालूं वो पृथ्वी!
मैं चिल्ला उठा! गरज उठा! रीछ जैसा महसूस करने लगा! गर्मी फूटने लगी देह से! जबड़े भिंच गए मेरे! हाथों की हड्डियां, चटक सी उठीं! नसों में पूर्ण आवेग आ चला! स्पष्ट था, किसी ने मुझे, 'माध्यम' बना लिया था! मैं खड़ा हुआ तो मात्र अलख की लौ ही दिखे! न कोई साधिका, न कोई दृश्य, न कोई परिदृश्य! न ही साज-सामग्री, न आकाश और न ही पृथ्वी! मैं धुंए में खड़ा होऊं, बस ऐसा लगे!
और मैं कुछ बोला! क्या बोला, पता नहीं, मेरे कानों में बस मेरे ही, खड़खड़ से शब्द ही गूंजे!
तभी अचानक, मुझ पर कुछ छींटे से पड़े और मैं धड़ाम से नीचे गिरा! जब गिरा तो कुछ होश नहीं! मैं जैसे बेहोश हो गया था! न नेत्रों का ही पता, न किसी स्पर्श का ही! न श्वास-ध्वनि ही सुनाई दे! मैं कब तक पड़ा रहा ऐसे, नहीं पता चला मुझे! और कुछ क्षणों के बाद में, मुझे कुछ सुनाई पड़ा, जैसे कोई स्वर हों, दूर से कहीं से, बहे चले आये हों! बेहद ही मद्धम से! न सुनाई देने के बराबर! हाँ, कुछ तो ऐसा लगा ही था कि मैं कुछ हूँ! कुछ भान सा होने लगा था, वे स्वर, कभी दीर्घ, कभी शून्य से और कभी शांत से लगने लगते थे!
अचानक ही मेरे शरीर में कुछ हरक़त सी हुई, मेरा बायां हाथ पकड़ा था किसी ने, सर घूम रहा था मेरा, लगता था कि जैसे कई दिनों का भूखा-प्यास, उसी दशा में पड़ा होऊं!
"नाथ?" स्वर गूंजे!
मुझे अर्थ समझ नहीं आया! मैंने नेत्र खोलने की कोशिश की और प्रकाश की किरणें, भाला सा बन, फोड़ने चलीं मेरे नेत्र!
"नाथ?" आयी फिर से आवाज़!
अभी भी नहीं समझा कुछ! जी चाहा, करवट लूँ और फिर से सो जाऊं! मैं कहाँ हूँ, कौन हूँ, कुछ हैं पता था!
"नाथ?" बोली वो,
मैंने आधे नेत्र खोले! देखा सामने एक महिला, चिमटा लिए बैठी है, उसके नेत्र मुझे ही देखे जा रहे हैं, मैं घबरा गया! सिकुड़ने लगा! सोचने लगा कि ये कौन है? और मैं कहाँ हूँ?
मस्तिष्क जाग उठा! तार से तार जुड़ने लगा, पहले साधिका, फिर वो अलख, और फिर मैं! सब माज़रा समझ गया मैं! सब का सब!
"नाथ?" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
और उठ बिठा तभी! पूरा बदन जैसे टकराया हो किसी पाषाण से, ऐसा दुखने लगा था!
"उठिये!" बोली वो,
मैंने हाथ बढाया!
"हाँ, उठिये?" बोली वो,
मैं उठ गया तभी, उसका हाथ पकड़ते हुए!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोला मैं,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"कार्केत!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, आप....थे!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"बताया कि.." बोलते बोलते रुक गयी!
"क्या बताया?" पूछा मैंने,
"यही कि, शाम्बूल अज्ञ उचित है!" बोली वो,
अब मैं हंस पड़ा! साधिका, तनिक भी प्रसन्न न दिखी, उसे समझ ही नहीं आया मेरी हंसी का कारण!
"शाम्बूल!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"अज्ञ?" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"भटक गयीं तुम!" कहा मैंने,
"क...क्या?" बोली वो, घबराते हुए!
''मैं बताता हूँ!" कहा मैंने,
और चला अलख की ओर!
"आओ, बैठो!" कहा मैंने,
वो आ बैठी!
"शाम्बूल ये साथ है!" कहा मैंने,
"कैसा स्थल?" बोली वो,
"बताऊंगा! पहले कार्केत!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"कार्केत एक भाट है!" कहा मैंने,
"भाट, अर्थात भृत्य?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"भाट का कार्य सीमित होता है!" कहा मैंने,
"और भृत्य?" बोली वो,
"ये निज भी होता है!" कहा मैंने,
"जी!!" बोली वो,
"समझीं?" कहा मैंने,
"जी!" कहा उसने,
"आदेश!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो भी,
"और ये, शाम्बूल? हम्म?" कहा मैंने,
"हाँ, शाम्बूल!" बोली वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
और अलख में ईंधन झोंका, मैंने भी और उसने भी!
"शाम्बूल एक स्थल है! एक स्थल, जहां पर, कुछ शक्तियों का वास है! प्रश्न ये, कि जब कोई साधक किसी का आह्वान किया करता है तो, चूँकि उस विशेष शक्ति को भान होता है कि उसका आह्वान हुआ है, तो वो कूच करती है, अपने वास से! कहाँ से?" पूछा मैंने,
"वास से!" बोली वो,
"अब देखा हो, कहते हैं कि इस पेड़ पर, उस शिला पर, इस भूमि पर आदि आदि पर कोई सत्ता वास करती है! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही है!" बोली वो,
"तो क्या प्रत्येक उस पेड़ पर, उस शिला पर, उस भूमि पर उस शक्ति का वास होगा?" पूछा मैंने,
"नहीं, या ज्ञात नहीं!" बोली वो,
"उत्तर है नहीं!" कहा मैंने,
"वो कैसे?" पूछा उसने,
"इस प्रकृति में, समय की महत्वता है! और समय को, हम मनुष्य, घण्टे, मिनट, घटी-पल आदि में विभक्त करते हैं! हैं न?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो प्रश्न ये कि समय का चालन अभी से नहीं, युगों युगों से है! ये समय अनवरत बना रहता है! न टूटता ही, न जुड़ता है! इसी के नियम, कदापि भंग नहीं होते! मात्र यही, स्थिर नहीं रहता!" कहा मैंने,
"ये तो अकाट्य सत्य है!" बोली वो,
"तब, इस समय के चालन से वर्ष, माह, दिवस, रात्रि, प्रातः, सन्ध्या, घटी, पल आदि आदि, हमने ही बनाये हैं!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"समय का मान सदैव सजीव देहधारियों पर पड़ता है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तब ये शक्तियां, कहाँ रहती हैं?" पूछा मैंने,
"अर्थात?" बोली वो,
"ये तो जानती ही हो, ये शक्तियां, किसी भी कर्म-फल से रहित हैं? उसी प्रकार समय-सीमा से भी, उसके चालन-मान से भी रहित हैं!" कहा मैंने,
"सत्य!" बोली वो,
"तो कोई भी शक्ति, अपने वास से, सीधे यहां नहीं चले आतीं! वे वचन में बंधी होती हैं, आन लगी होती है, कर्तव्य निर्वाह होता है, मन्त्र-मान होता है, तब वे, इसी शाम्बूल-स्थल में पहुँचती हैं! और यहां से, आह्वानकर्ता के सम्मुख प्रकट होती हैं!
"ये कहाँ से जाना?" बोली वो,
"मन्त्रों से!" कहा मैंने,
"क्या कोई मन्त्र हैं ऐसे?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"ये सब लिखा है! सिखाया जाता है! बरसात में मेंढक टर्र-टर्र करें तो मस्तिष्क सहज ही जान लेता है, कि कोई अजीब बात नहीं!" कहा मैंने,
''हाँ!" बोली वो,
"परन्तु, जेठ के महीने में अगर टर्र-टर्र सुनाई दे, तो मस्तिष्क कयास लगाता है, कि, या तो आसपास कोई जलाशय है, अथवा कोई जल का स्रोत!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"उसी प्रकार, ये शक्तियां हैं!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"कई शक्तियां, रात्रि में बली हैं और कुछ दिवस में!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"पर जो शक्तियां, सदैव ही बली रहती हैं वे ही इस तन्त्र-सागर में सम्मिलित की गयी हैं!" कहा मैंने,
"समझ गयी!" बोली वो,
"सत्व-पूर्ण शक्ति, दिवाःकालीन बली हैं! परन्तु उनका क्षेत्र सीमित है! यदि असीमित हो होता, तब तन्त्र होता ही नहीं!" कहा मैंने,
"सटीक!" बोली वो,
"राजस शक्तियां कौन कौन सी हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं ज्ञात!" बोली वो,
"इनका कभी आह्वान नहीं होता! ये इस संसार को, निम्नतर, दोषकारक एवम हीन मानती हैं!" कहा मैंने,
"कौन कौन सी?" बोली वो,
तो मैंने उसे उत्तर दिया! वो विस्मित हो गयी! उन शक्तियों का नाम मैं यहां नहीं लिख सकता! इस से सामंजस्य में गड़बड़ होती है!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
