वर्ष २०१३ त्रैरात्र...
 
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वर्ष २०१३ त्रैरात्रिक-वधु!!

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श्रीशः उपदंडक
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मैं साधिका को लेकर, बाबा के पास चला गया, उनको सारी व्यथा बताई उसकी, बाबा भी पसीज गए! वे हर सम्भव मदद को तैयार थे, चाहे कुछ भी होता! तन्त्र में साधिका की इच्छा सर्वोपरि हुआ करती हे, उसका दमन नहीं किया जा सकता! वो जब चाहे, जा सकती है, आ सकती है! कोई आड़े आये तो उसे कोई भी योग्य साधक सबक़ सिखा सकता है, या कई लोग इकट्ठे मिलकर, इसके खिलाफ खड़े हो सकते है! ये सर्वमान्य है! तो मैंने बाबा को अब सब बता दिया था, मैं साधिका को ले, अपनी एक परिचिता के पास जा रहा था, मेरी वो परिचिता विश्वास योग्य थी, और अच्छी पैठ है उसकी कई बड़े साधकों में! मेरी कई बार मदद भी की है उसने! फिलहाल में साधिका को वहीँ ठहराता, तदोपरान्त उस से सलाह लेता, यदि वहीं प्रबन्ध हो जाता उसके रोजगार का भी तो इस से बढ़िया तो कोई बात ही नहीं होती!
"आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और हम बाहर निकल आये, बाहर निकल कर, सवारी ली औए भाड़ा तय किया, फिर चल पड़े उस परिचिता से मिलने, मेरे पास जो नम्बर था उसका, वो नहीं मिल रहा था, इसीलिए बात नहीं हो सकी थी! खैर, कोई बात नहीं, मिल लेते तो काम हो ही जाता, मुझे चार बजे अपनी तृतीय साधिका से भी मिलना था, उस से कुछ बातें होनी थीं! लेकिन पहले ये काम! करीब पौने घण्टे में हम उस स्थान पर जा पहुंचे, ये बाबा नन्दू का डेरा था, यहां अक्सर ही साधक आया करते थे, लेकिन जो आते थे, वे मात्र विश्राम कर, अपनी राह पकड़ लिया करते थे! मैंने वहीँ जाकर, मालिनि के विषय में पूछा, मुझे और साधिका को, एक सहायक, ले चला, ये बड़ा ही खूबसूरत स्थान था! एक तालाब भी था वहां, बनाया हुआ! उसके किनारे, जाल रखे थे, मछली पकड़ी जाती होगी उसमे से! आसपास, फूल ही फूल लगे थे! वो सहायक हमें ले आया मालिनि के पास! मालिनि को बुलाया तो वो आयी बाहर! मुझे देख थोड़ा सा चूंकि और फिर हंस कर, अंदर बुला लिया! अंदर, एक बड़ी सी दरी बिछी थी, उस पर दो चादरें, पीले और नीले रंग की! छत की कड़ियों में में पुराना सा पंखा लगा था! खिड़की में पुराने जंगल लगे थे, उस कक्ष से एक और कक्ष खुलता होगा, वहाँ एक चौखट थी, उस पर पर्दा पड़ा था! कोने में एक बड़ा सा घड़ा रखा था, और उसके साथ एक पीतल का बड़ा सा कलश! कुछ सूखे से नारियल भी रखे थे, कुछ एक पोटली भी!
"आओ!" बोली मालिनि!
मालिनि आयु में करीब अड़तालीस की रही होगी, लेकिन बदन अभी तक ऐसा कसा था कि कोई देखे तो घूम कर ज़रूर देखे एक बार तो! उसके माथे पर एक बड़ा सा टीका ही उसकी पहचान बन चुका था. चन्दन मल कर माथे पर, गोरोचन का टीका! रंग-रूप तो सम्भल कर रखा था उसने अपना अभी तक!
"कब आये?" पूछा उसने,
"ये सब बाद में बताऊंगा, अभी कुछ काम है, उसी के लिए आया हूँ!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
अब मैंने उसका परिचय दिया साधिका का, और सारी समस्या बता दी! वो सुनती रही, और कोई विस्मित नहीं हुई!
"कोई बात नहीं!" बोली वो,
"यही उम्मीद भी थी!" कहा मैंने,
"चिंता न करो!" बोली वो,
"बाकी मैं देख लूंगा!" कहा मैंने,
"कब आना है?" बोली वो,
"चौथे दिन!" कहा मैंने,
"जब चाहो!" बोली वो,
"ठीक, अब चलूंगा!" कहा मैंने,
"रुको तो सही?" बोली मालिनि,
"नहीं मालिनि, काम बहुत है!" कहा मैंने,
"वो तो हमेशा ही होता है!" बोली वो,
"क्या करूँ!" कहा मैंने,
और मुड़ने लगा, मैं आया बाहर प्रणाम कर, तो साधिका मेरे पीछे पीछे दौड़ी आयी, मैं रुक गया उसको देख कर!
''यहां आराम से रहो!" कहा मैंने,
"कब आओगे?" बोली वो,
"चौथे दिन, बताया तो?'' कहा मैंने,
"हम्म, ठीक!" बोली वो,
"कोई समस्या नहीं होगी तुम्हें यहां!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोली वो,
"अब चलूं?" कहा मैंने,
"जाना तो होगा, कोई लाभ नहीं, ना, कह कर!" बोली वो,
"समझदार हो!" कहा मैंने,
"सीधे वहीँ?" बोली वो,
"नहीं, तृतीय साधिका के पास!" कहा मैंने,
"अरे हाँ!" बोली वो,
"जो चाहो, ले लेना इधर, मालिनि को अपना ही समझो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और मैं, उसके सर पर हाथ रख, चल दिया बाहर के लिए! पीछे नहीं देखा, कुछ तार होते हैं अदृश्य, बढ़ जाता है इंसान उनमे! न चाहते हुए भी!  इसीलिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मैं बाहर आ गया! बाहर आया तो सवारी पकड़ी, बात कर ली थी, मुझे साधिका के पास जाना था, आज उसके संग ही साधना थी, ये साधिका, तीन रात्रि तक, मेरे संग ही रही, मुझे अभी और तब, कई बाधाओं का पार करना था! ये बाधाएं, आती हैं और मुझे इसका आभास तो था, पर तत्क्षण क्या हो, ये मात्र समय ही बताए! ये जो मेरी विशिष्ट साधिका थी, ये पारंगत थी! उसको इस क्षेत्र का ज्ञान था और देखा जाए तो मुझ से भी कहीं आगे ही होती यदि आंकलन किया जाए तो! मैं सोच में डूबा था, मुझे इस जेवरनाथ की साधिका की कोई चिंता नहीं थी, वो सकुशल थी और अब जब ओखली में सर दे ही दिया था तो भला अब एक मूसल पड़े या सौ, बात एक ही! जो होता, सो देखा जाता! चिंता थी, सोच थी ये कि मैं इस साधना के मध्य में आ गया था! और अब इसे पूर्ण करना ही था, अब चाहे कुछ भी हो! सोच सोच में ही, मैं जा पहुंच वहां, मुझे चालक ने ही बताया, मैंने पैसे दिए और चल दिया उस डेरे के लिए! वहां पहुंचा और अपनी उस साधिका से मिला! चाँद की तरह से खिली थी वो! ये विशिष्ट-साधिका थी और मैं भाग्यशाली था कि उसके संग ही मुझे ये साधना करने का योग प्राप्त हुआ था!
''आज सन्ध्या समय!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"मैं आ जाऊँगा लेने!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
"कोई विशेष बात?" बोला मैं,
"नहीं, सब है मेरे पास!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
तभी एक लड़की आयी वहां, उसके हाथों में एक कटोरी थी, कटोरी उसने उस साधिका के सामने रखी, मैंने झाँका, तो उसमे अखरोट की मींग थी, भीगी हुई, ये शायद शहद में भिगो के दी गयी थी! अखरोट की मींग को, रात में, शहद के साथ भिगो दो, और मध्यान्ह समय, भोजन के बाद खा लीजिए, इस से देह की सारी तकलीफ खत्म हो जायेगी, स्मरण-शक्ति बढ़ जायेगी, मस्तिष्क को जैसे बल मिल जाएगा! ये साधिका अवश्य ही इसका सेवन करती होगी!
"अभी बजे हैं, सवा तीन!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो मैं आपके पास, सात बजे तक चला आऊंगा!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
"कुछ मंगवाना तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"ठीक, अगर कुछ याद आये तो आप मुझे फ़ोन कर देना!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
और मैंने विदा ली उस से! अब सीधा जाना था मुझे शहरयार जी के पास! ज़रा बतियाता और उनको ले जाता अपने साथ ही! तो मैंने ऐसा ही किया, मैंने उन्हें उस साधिका के बारे में भी बता दिया, उन्होंने भी मेरा ही समर्थन किया!
"तो आज से तीन दिन बाद मिलेंगे!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
'एक काम करना?" कहा मैंने,
"हुक्म?" बोले वो,
"एक दो बार उस मालिनि के पास जाकर, उस साधिका से मिल लेना, कोई ज़रूरत हो उसे तो पूछ लेना!" कहा मैंने,
"जी! कल ही चला जाऊँगा!" बोले वो,
"ये ठीक रहेगा!" बोले वो,
'और आज यहीं रहना होगा!" कहा मैंने,
"जो हुक्म!" बोले वो,
"यहां से निबट लें तो मिलना भी है किसी से!" कहा मैंने,
"किस से?" बोले वो,
"रूद्र नाथ कोई खबर लाया है!" कहा मैंने,
"अच्छा, काशी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चल लेंगे फिर!" बोले वो,
"हाँ, जाना ही होगा!" कहा मैंने,
"पक्का जी!" बोले वो,
"आदमी खोखला नहीं वो!" कहा मैंने,
"हाँ, बताया था आपने!" बोले वो,
"पक्की और यक़ीनी खबर लाता है!" कहा मैंने,
"देखें क्या लाया है!" बोले वो,
''हाँ!" कहा मैंने,
"लो!" बोले वो, सिगरेट देते हुए मुझे, मैंने ली, होंठों के बीच रखी, उन्होंने माचिस सुलगायी और मैंने उस से सिगरेट! एक लम्बा कश खींचा फिर!
"ये, मिल गयी इधर?" पूछा मैंने,
"ढूंढने से!" बोले वो,
"अच्छा किया!" कहा मैंने,
"इकट्ठी ले लीं!" बोले वो,
"ठीक किया!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, ये हर जगह नहीं मिलती यहां!" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"तो कब जाना है उधर?" बोले वो,
"साढ़े छह निकल जाऊँगा!" बोला मैं,
"तैयारी?" बोले वो,
"सब पूर्ण है!" कहा मैंने,
"आपको शुभकामनाएं!" बोले वो,
"धन्यवाद!" कहा मैंने,
फिर कुछ देर बातें करते रहे हम, उन्होंने कुछ घर की बात बताई, घर में सबकुछ ठीक ही था! न उन्हें कोई जल्दी थी न मुझे ही! ये काम निबट जाए तो सोचें जाने की! लेकिन रूद्र नाथ से मिलना भी ज़रूरी था! उसका काम है भटकना! खबरें इकट्ठी करना और कुछ मिल जाए तो ले लेना! देखें, इस बार क्या खबर लाया था वो!
और फिर साढ़े छह बजे, मैं चल पड़ा साधिका को लेने के लिए, मोहन से कह ही दिया था, गाड़ी मंगवा ली थी, अब मैं चला पड़ा था! वहां पहुंच, साधिका को लिया, उसका सामान लिया, उसके साथ उसकी एक सहायिका भी चली संग! तो इस तरह मैं ले आया उनको वहाँ! अब तक साढ़े सात हो चुके थे, आज रात में साधना दस बजे के बाद आरम्भ होनी थी, इसीलिए समय का हिसाब-किताब ठीक से किया गया था, शहरयार जी से भी मिल लिया था, कह दिया था कि अगर जेवरनाथ की तरफ से कोई आये तो बात कर लें, जो भी बात हो, बता दें! इसके बाद मैं स्नान करने चला गया, इस प्रकार साढ़े आठ हो गए, मैं साधिका से मिलने चला, पता चला वो नहीं थी वहां, श्रृंगार करने और अपने ईष्ट का पूजन करने गयी थी, आधे घण्टे में लौट आना था उसको!
मैं वापिस कक्ष में आया, मेरा सामान ले जाने के लिए बता दिया गया था, आज कहाँ लगाया था स्थल, ये नहीं पता चला था, जाकर ही पता चलता वहां! वैसे मुझे इस साधिका को कुछ बताने की, कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं थी, वो कुशल थी और सब जानती ही थी! मैं नौ बजे करीब साधिका से मिलने गया, मुझे साधिका को नहीं मिली, हाँ उसकी सहायिका अवश्य ही मिली!
"अंदर ही हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"बात कर सकता हूँ?" पूछा मैंने,
"अभी तो नहीं!" बोली वो,
"कोई कारण विशेष?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कोई सन्देश उनका?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"उन्होंने कहा कि आप चले जाएँ, समय से कुछ पूर्व, वे आ जाएंगी उधर!" बोली वो,
"उचित है फिर!" कहा मैंने,
"कोई सन्देश?" बोली वो,
"नहीं, बस ये, कहना कि मैं पहुँच जाऊँगा दस तक!" बोला मैं,
"कह दूंगी!" बोली वो,
और मैं लौट लिया वहाँ से, सीधा भैरव-टोला आया मैं, उधर ही, उनका पूजन किया, मंदिर भोग दिया, मांस का भोग लगाया, उनके चरणों का टीका लगाया और अपना शीश रख दिया उनके चरणों में! यदि आज बाबा ने चाहा तो सफलता कोई दूर नहीं! और चल पड़ा बाहर के लिए, बाहर आया तो ठीक सामने ही चबूतरे से एक वृद्ध पुरुष उतरा नीचे! मुझे आवाज़ दी!
"बेटा?" बोला वो,
"जी, बाबा?" कहा मैंने,
"अंदर जाओगे?" बोला वो,
"हाँ बाबा, क्यों?" पूछा मैंने,
"ये, ये चढ़ा देना!" बोला वो,
उसने अपनी जेब से, कुछ निकाला था बाहर, ये पोटली में था, मेरी तरफ बढ़ दिया, मैंने पकड़ लिया!
"ये क्या है बाबा?" पूछा मैंने,
"पत्ते हैं!" बोला वो,
"ओह! समझा!" कहा मैंने,
"चढ़ा देना!" बोला वो खांसते हुए!
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"मनोकामना पूर्ण हो तेरी!" बोला वो,
"आपकी भी तो हुई!" कहा मैंने,
"हाँ, आ गया बेटा मेरा!" बोला वो,
"ख़ुशी की बात है!" कहा मैंने,
''अच्छा बेटा!" बोला वो, और हाथ जोड़, चला गया, लँगड़ाता हुआ बाहर की तरफ! मैं समझ गया था, ये एक प्रसाद-रूपी वस्तु थी, इसे किसी चिता में रख देना था, उसके वचन के अनुसार, इसीलिए मुझे थमा गया था! मैंने उसको जाते हुए देखा था, धीमी चाल से वो लौट गया था! और मैं आगे बढ़ गया, उचक कर देखा, तो अंदर कई चिताएं जल रही थीं, मैं मुड़ गया अंदर की तरफ! जैसे ही अंदर आया कि.............!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं अंदर आया तो अंदर आते ही ज़रा आपाधापी सी देखी! कोने में एक कमरा बना था, उसके बाहर ही, लकड़ी की टाल थी, बाहर की तरफ, एक बड़ा सा तराज़ू लटका हुआ था, ज़ंजीरों से बंधा हुआ, दो लोहे के पाइपों के बीच में, मैं जैसे ही अंदर आया की दो लड़के से अलग अलग जगह भागे! उस कमरे में बत्ती जली थी, बाहर एक फोल्डिंग-पलँग पड़ा था, उस पर खेस बिछा था और मच्छरदानी से ढका था! मुझे कुछ अजीब सा लगा वहां, अक्सर यहां के कुछ लोग, मुर्दों के अंग निकाल लिया करते हैं, ये सब तांत्रिक-क्रिया के नाम पर किया जाता है! अस्थियां भी निकाल ली जाती हैं, कहीं कुछ ऐसा न हो तो मैं ये देखने के लिए उस कमरे की तरफ बढ़ा, दरवाज़ा दो पाटों वाला था, बीच में झिरी थी, मैंने पहले अंदर झाँका, तो अंदर कुछ न डिक, एक खूँटी पर कपड़े लटके हुए थे, तब मैंने दरवाज़ा पीटा, आवाज़ दी!
"कौन?" अंदर से आवाज़ आयी!
"दरवाज़ा खोल?" कहा मैंने,
"क्या काम है?" बोला कोई अंदर से,
"पहले दरवाज़ा खोल?" कहा मैंने,
"किसलिए?'' आयी आवाज़ अंदर से!
"खोलता है या तोड़ दूँ?" बोला मैं,
"हो कौन भाई?" आयी आवाज़ अंदर से!
"बताता हूँ, दरवाज़ा खोल?" कहा मैंने,
"बाहर लड़के नहीं बैठे?" बोला अंदर से कोई!
"तू नहीं मानेगा?" बोला मैं,
"ठीक है भाई, आता हूँ!" बोला वो,
और कुछ ही देर में, अंदर से सांकल उतरने की आवाज़ आयी! दरवाज़ा खुला, जो सामने आया, वो करीब पचास-पचपन का आदमी था, दरम्यानी देह का, शराब पी रखी थी, तहमद पहन रखा था, ऊपर एक कमीज़, सर के बाल उड़े हुए थे, बस कानों के पास ही बड़े बड़े बाल बचे थे!
"हाँ जी?" बोला वो,
"हट?" कहा मैंने,
"क्या काम है?" बोला वो,
मैंने अब नहीं सुना, उसकी कोहनी पकड़, पीछे धकेल दिया, जैसे ही पीछे धकेला वो पीछे गिर पड़ा, रास्ते में रखी चारपाई पर जा बैठा था वो!
"चुप लगाना, नहीं तो ऐसा तोड़ूंगा कि कभी उठ नहीं पायेगा!" कहा मैंने,
"बात क्या हुई?" बोला घबरा कर वो!
"दरवाज़ा क्यों नहीं खोला?" पूछा मैंने,
"अ.....ए.....से ही" बोला वो,
तभी किसी की सांस लेने की आवाज़ आयी! और मैं आगे बढ़ा, आगे पर्दा पड़ा था, मैंने पर्दा हटा दिया खींच कर! मेरे सामने दो लड़कियां खड़ी थीं! अब समझ गया मैं सबकुछ! मैंने पीछे देखा उस आदमी को, तो वो उठ कर फौरन ही दौड़ भागा! और लड़कियां, काटो तो खून नहीं!
"यही करती हो यहां?" बोला मैं गुस्से से!
"वो ठेकेदार....." बोली वो,
"उसको तो देखूंगा ही!" बोला मैं,
"हमें जाने दो!" बोली वो,
"सुनो, इस जगह का तो सोचो? ये अंतिम-स्थल है! अपनी अय्याशी और ये 'धंधेबाजी' बाहर तक ही सीमित रखो, इस बार छोड़े दे रहा हूँ, अगली बार क्या होगा जान जाओ!" कहा मैंने,
"गलती हो गयी" बोली वो,
"अब चलो यहां से? निकलो? ** ** *****!" मैंने गुस्से में गाली दे दी!
वो लड़कियां, फौरन ही अपने अपने कपड़े उठा, तीर से उस कमरे से भाग निकलीं! वो बिन पीछे देखे ही भाग ली थीं!
खैर, मेरे पास समय नहीं था, नहीं तो उस ठेकेदार का तो मैं हिसाब कर ही देता, फिर कभी सही! मैं आ गया, वहां चिताएं जल रही थीं, वहीँ आया और वो उस वृद्ध की पोटली एक चिता में रख दी, और हाथ जोड़, लौट पड़ा!
सोच रहा था, कि कैसा पतन हो गया है आज हमारा! इस पावन-स्थान को भी नहीं छोड़ा! न जाने क्या होगा आगे आगे!
मैं बाहर आया, और फिर से अपने स्थल की ओर चल पड़ा! वहाँ की सोच बाहर ही त्याग दी, घड़ी देखी, तो बस दस मिनट ही बचे थे, इस ठेकेदार ने कीमती वक़्त खापी करवा दिया था मेरा!
आ गया मेरा स्थल, पल भर रुका और अंदर प्रवेश कर गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं सीधा भागता हुआ आगे चलता चला गया! अभी न तो साधिका ही आयी थी, और न कोई सहायक और सहायिका ही, हाँ, एक जगह सामान रखा था, यही था मेरा स्थान!! मैं बैठ गया उधर ही, सामान देखने लगा, अपना सामना निकाला और तब श्रृंगार करने में जुट गया! मैंने भस्म लगाई, आदि आदि श्रृंगार किया, एक शीशी खोली और उस से दो बून्द तेल निकाल कर, माथे पर लगा लिया! कपाल सजा लिया, अपना त्रिशूल, अभिमन्त्रित कर, वहीँ गाड़ दिया! और फिर, अपना आसन बिछा लिया, आज आसन मैंने वाहव-मुद्रा में लगाया था! और ध्यान-मन्त्र जपते हुए, आरंभ कर दी क्रिया!
कुछ ही देर में, वहाँ वो साधिक चलते हुए, अपनी उसी सहायिका के साथ आ गयी! उसने हरे रंग की एक धोती ओढ़ी थी, माथे पर त्रिपुंड बना था और हाथों में, पुष्प-माल बंधे थे! ऐसी साधिका को ऋचिका साध्वी कहा जाता है! वो आयी तो मैंने उसे, अपने ही आसन पर स्थान दिया, सहायिका लौट गयी, कुछ वस्तुएं लेकर, साधिका ने उसे कुछ मुट्ठी बन्द कर के भी दिया था, ये क्या था, मुझे नहीं मालूम!
''साधिके!" कहा मैंने,
''आदेशम!" बोली वो,
"कुछ प्रश्न पूछने हैं!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
"साधना आरम्भ होने को है!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
"आप तैयार हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कोई विवशता?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई शंका?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई सुझाव?" बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई बन्धन?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"स्वेच्छा?" पूछा मैंने,
"यथा नाथ इच्छा!" बोली वो,
"साधना का उद्देश्य?" कहा मैंने,
"ज्ञात है!" बोली वो,
"औचित्य?" पूछा मैंने,
"ज्ञात है!" बोली वो,
"वरण हेतु स्वीकृति?" पूछा मैंने,
"अवश्य!" कहा उसने,
मैंने तभी पीला सूत लिया और उसके दोनों हाथों, कमर में बाँध दिया! ये वरण-द्योतक हुआ करता है!
"कोई इच्छा साधिके?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"साधिके?" बोला मैं,
"जी?" कहा उसने,
"त्रैरात्रिक-वधु!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"अर्थ स्पष्ट है?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"कोई संशय?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ये लो!" कहा मैंने,
और एक श्वेत-सूत्र उसे दे दिया और स्वयं मैं, खड़ा हो गया! उसने, मेरे पांवों में और कमर में, बिन तोड़े वो सूत्र बाँध दिया, शेष बचे सूत्र को, लपेट काट उँगलियों पर, उतार कर फिर, मेरे अंतःवस्त्र में उड़ेस दिया! मैं बैठ गया फिर!
तभी, पीछे से, थाली बजने की आवाज़ आयी! हम दोनों ही संयत हो, बैठ गए थे, हाथ जोड़ लिए थे, अब बाबा आ रहे थे!
"बाबा का आगमन!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"कुछ ही क्षण और!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बाबा चले आये उधर! आज बाबा ने, नरमुंड धारण किया हुआ था छाती पर अपने, और साथियों के टुकड़े बांधे थे, वे एक प्रबल से औघड़ प्रतीत होते थे उस समय! दाढ़ी में पीले रंग की जो आभा थी उसके कारण वे, प्रबल मुंड-धारक से लगते थे! नीचे उन्होंने, काले रंग का घुटन्ना-वस्त्र पहना था और कमर में, तंत्राभूषण धारण किये थे! वे आये तो हमने उन्हें प्रणाम किया, उन्होंने हाथ की हथेली से हमारे सरों पर, छूकर, एक मुद्रा में आशीर्वाद दिया!
"साधक?" बोले वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"तैयार हो?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"गुरु श्री का ध्यान करो!" बोले वो,
तो मैंने, नेत्र बन्द कर गुरु श्री का ध्यान किया! और नेत्र खोल दिए! उन्होंने, उस कपाल को मेरे सर से छुआया और एक जामिष-मन्त्र पढ़ा!
"डिगना नहीं!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"हिलना नहीं!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"त्यागना नहीं!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"सर्वस्व त्याग दो!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"या तो मृत्यु या फिर लक्ष्य!" बोले वो,
"जी! आदेश!" कहा मैंने,
"डोल जाओ!" कहा मैंने,
और मैंने तब, झुकते हुए, प्रणाम करते हुए, हट गया वहाँ से, उनके पीछे जा खड़ा हुआ! और नौ कदम आगे बढ़ गया! पीछे नहीं देखा मैंने फिर!
"साधिके?'' बोले वो,
"जी!" बोले वो,
"साधक को सर्वश्रेठ सेवा ही उद्देश्य हो!" बोले वो,
"जी, आदेश!" बोले वो,
"त्यागना हो तो अभी, लौट जाओ!" बोले वो,
नहीं श्रीश!" बोली वो,
"कोई प्रश्न, शंका, हित, लोभ, आकांक्षा?" बोले वो,
"नहीं श्रीश!" बोले वो,
"मृत्यु लक्ष्य हो!" बोले वो,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
"डोल जाओ!" बोले वो,
और वो, झुक कर, प्रणाम करते हुए, पीछे चली गयी, तीन कदम! वो गयी, तो मुझे संकेत मिला, मैं आगे बढ़ आया! आ गया उनके पास!
वे आगे बढ़े, और एक झोला नीचे रख दिया! और स्वयं, मेरे आसन पर विराजित हो गए!
"जलावन?" बोले वो,
मैंने दे दिया!
"मदिरा-भोग!" कहा उन्होंने,
मैंने मदिरा बढ़ा दी आगे!
"कोष-दीप!" बोले वो,
मैंने दे दिया!
"स्व-हन्त!" कहा उन्होंने,
मैं घुटनों पर खड़ा होआ गया और उन्होंने, मेरे शरीर को, तीन जगह, मन्त्र द्वारा काट दिया!
"द्वितीय प्रहर तक, मध्य-अवस्था हो!" बोले वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
"स्मरण रहे?" बोले वो,
"जी?" कहा मैंने,
"मैं सुबह ही आ पाऊंगा!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
वे खड़े हुए, और लौटने के लिए मुड़े, मैं भी खड़ा हो गया, मैंने कपाल को एड़ी से छुआ और तब, भूमि पर लेट गयी! वे चले गए और मैं, खड़ा हो गया तभी! अब मैं तैयार था!
''साधिके?" कहा मैंने, ज़रा ज़ोर से!
"नाथ?" बोली वो,
''आओ!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और चली आयी उधर! मैं खड़ा हुआ, मन्त्र पढ़ा और उसकी देह का आवरण उतार दिया! उतारते ही, मैंने प्रणाम किया उसे!
"साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"आसन सम्भालो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
वो बैठ गयी उधर, मैंने जलावन की तरफ हाथ बढाया और तब, ईंधन सजा दिया उस पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और इस तरह, मैंने धूमरि लगाते हुए, अलख उठा दी! अलख उठाते ही एक अलखनाद किया! मेरे पीछे पीछे मेरी साधिका ने भी अलखनाद किया! और दोनों हाथों से, ईंधन झोंक डाला, आज आँधिया और उसकी लुगाई नहीं आने थे, आज जो शक्तियां यहां आने वाली थीं, आँधिया नहीं टिकता उनके सामने! आड़े ही नहीं आता, इसीलिए आज वो नहीं आना था! मैंने क्रिया को आगे बढाते हुए, जप करना आरम्भ किया! साधिका मेरा पूरा साथ दे रही थी! इस तरह मैं आगे और आगे बढ़ता चला गया! इस तरह से चालीस मिनट गुजर गए! और तब, वहां, कुछ प्रतीत होने लगा! आसपास, घोर से शान्ति छा गयी! अलख का धुंआ उठता, और उठा हुआ नभ तक पहुँचने को आतुर हो उठा!
और तब, जैसे वहाँ घण्टियाँ सी बजने लगी! चारों तरफ! ये घण्टियाँ और वो मनमोहक सुगन्ध, निधि-सुंदरी की थी! ये इस महासाधना में अवश्य ही आया करती है! इस से वार्तालाप नहीं करना ही श्रेयस्कर हुआ करता है, एक बार वार्तालाप आरम्भ हुआ तो उसका सम्मोहन इतना प्रबल होता है कि न चाहते हुए भी, बरबस आप उसमे धँसते ही चले जाओगे! निधि-सुंदरी, आयु में कम उम्र, भरी हुई देह वाली, सुडौल, गौर-वर्ण वाली, सदैव खिलखिलाकर हंसने वाली, मादक स्पर्श प्रदान करने वाली एवं, बुद्धि-नाशिनि हुआ करती है! जिस प्रकार से उसका नाम है, उस प्रकार से इसका गुण नहीं! इसे ही प्रबल, मादक-माया माना जाता है! ये, साधक को मादक-जाल में फंसा उसकी साधना को खण्डित कर दिया करती है!
तो मैंने इसका शमन करने हेतु, माया-नाशिनि, दण्डक-जप आरम्भ किया! ये मन्त्र तुंड नामक यक्ष द्वारा रचित है! ये ऐसी माया का नाश करने में, प्रभाव ही प्रभावहीन करने में ये प्रयोग किया जाता है! तुंड यक्ष, जंगल में अक्सर मदार के पौधे के निकट, शिला पर वास करता है! तुंड-यक्ष की साधना से, समस्त राजसिक सुखों की प्राप्ति हुआ करती है! परन्तु ये साधना अति-तीक्ष्ण एवम प्राणघातिनि कहलाई जाती है! इसमें वेताल, सररूप शाकिनि की साधना भी आवश्यक है! ये साधना, चालीस रात्रि की है, इक्कीस भोगों द्वारा पूजित है व दीर्घ-श्वास द्वारा उच्चारित है! एक एक शब्द, दीर्घ-श्वास पर ही अंत पाया करता है! श्मशान में ये साधना, थोड़ी सरल हो जाती है!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"कुछ एहसास हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"सुगन्ध!" बोली वो,
"और घँट-स्वर?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"स्थान बदलो!" कहा मैंने,
"उधर नाथ?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और मैंने उसको, दाएं बिठा लिया तब!
"थाल लो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"और भस्म!" कहा मैंने,
सुगन्ध का झोंका उठा, एक तेज सा!
"अब नाथ?" बोली वो,
"थाल में, खेट काढ़ो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" कहा मैंने,
उसने खेट काढ़ दिया! खेट, एक चिन्ह होता है, ये चिन्ह, अर्ध-चन्द्र सा होता है, नीचे की तरफ, पान के पत्ते की आकृति होती है! तन्त्र-क्षेत्र में यंत्रों की एक अलग ही प्रतिष्ठा है! यन्त्र, शक्ति-संचार किया करते हैं! सभी यन्त्र, स्त्रीलिंग हुआ करते हैं! अतः, ये राहू-यंत्रम, केतु-यंत्रम आदि आदि मात्र ढकोसले ही हैं! इनका कोई आधार नहीं, न ही ये कहीं उल्लेखित ही हैं! ताम्र-पत्र पर कढ़ा यन्त्र, कभी प्रमाणित नहीं हुआ करता! ताम्र-पत्र मात्र तभी शुद्ध होगा जब उस धातु को भी पूजन में स्थान दिया गया हो! जिस स्थान पर रखना है, वो भी पूजनीय होता है! किस दिशा में हो, कहाँ हो, ये मात्र सात्विकता को और कड़ा करने के लिए ही रचे गए हैं! स्मरण रहे, न कोई शरीर से, न कोई देह से, न किसी सामग्री से, ही कोई सात्विक, राजसिक एवं तामसिक हुआ करता है! सभी में, ये तीन गुण सदैव ही भरे रहते हैं! रक्त तामसिक है, मांस तामसिक है, इनके बिना जीवन का कोई आधार हो, तो अवश्य ही बतलायें! ये तीनों ही गुण, प्रवृति से भी नहीं, प्रकृति से ही पहचाने जाते हैं! सिंह यदि तामसिक प्राणी है, मांसभक्षी है तो माँ वैष्णवी का वाहन क्यों है? आदि आदि!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"क्षणों में ही कुछ होगा!" कहा मैंने,
"मैं तत्पर हूँ!" बोली वो,
और एक तीव्र वायु प्रवाह! और हमारे नेत्रों के समक्ष, घोर तिमिर व्याप्त!
"सन्तुलित ही रहो!" बोला मैं,
"अवश्य नाथ!" ज़ोर से बोली वो,
मैंने फिर से अलखनाद किया! और एक मन्त्र पढ़ा! धीरे धीरे जैसे नेत्र खुलने लगे और वो घोर, श्याम तिमिर, छंटने लगा!
"कुशल से हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो वायु प्रवाह गुज़र गया था! निधि-सुंदरी का वो प्रभाव, तुंड-मेखविद्या ने प्रभावहीन कर दी थी! निधि-सुंदरी से तो छुटकारा मिल ही गया था, अब, आगे भी कुछ ऐसी ही बाधाएं थीं, माना जाए कि मार्ग में ये अवरोध थे, जिन्हें पार करना था, बिन पार किये, साधना भी तो सम्भव नहीं थी! कुछ ऐसा ही भद्राणि-साधना में भी होता है, ये अवरोध, साधना के अवरोध हैं! जो पर कर गया, उसे लाभ होता है जो नहीं कर सका, वो यहीं रुक कर रह जाता है! कहते हैं, श्री इस्माईलनाथ जी का श्रृंगार, चौदह डाकिनियां, नौ भेखली और दो, महा-सुंदरी किया करती थीं, तब जाकर, वे दैवीय-पूजन किया करते थे! ये निधि-सुंदरी आदि तो उनके पास भी नहीं फटक सकती थीं!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"आ जाओ यहां!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
और आ बैठी मेरे पास ही!
"ये लो!" कहा मैंने,
"मुंड-मनिका!" बोली वो,
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
वो खड़ी हुई और अलख के चक्कर लगाते हुए, एक एक मनिका उसमे डालती चली गयी! जैसे ही मनिका अलख में पड़ती, तेज सी चिंगारी छूट पड़ती! उसने सात मनिकाएं अलख में झोंक दीं!
तभी कुछ स्वर सुनाई दिए! ये हंसने के स्वर थे, मैंने ध्यान लगाया और जान गया, ये रुषि नामक शक्ति थी! रुषि, एक महाडाकिनि है, चन्द्रघण्टा माँ की सहोदरी कही जाती है, उनके हास की शक्ति का परिचायक है! ये प्राणघातिनि नहीं होती! मात्र भोग अर्पित करने से ही प्रसन्न हो जाती है!
तो मैंने एक थाल में, मांस, मदिरा और कुछ अन्य सामग्री सजाई, अलख के सम्मुख रही और रुषि को प्रसन्न करने हेतु मन्त्र जाप किया! लघु-मन्त्र है इसका! मृत्यु-शय्या पर गए हुए व्यक्ति, जिसको किसी हथियार, अस्त्र-शस्त्र द्वारा आघात हुआ हो, जीवनदान प्रदान किया करती है रुषि! शक्ति-पीठ में जो सीढियां हुआ करती हैं, उनमे से एक का नाम इसी पर रखा जाता है! शीशम के वृक्ष पर वास होता है इसका! शीशम की लकड़ी एवम तेल से ही यजन होता है इसका! ये रूप में भीषण, श्याम-वर्णी, रुक्ष केश वाली, मलिन-वस्त्र वाली, दुर्गंध वाली और देह में त्रि-वक्र वाली होती है! पहला वक्र, पांवों में, पाँव, हाथी-पाँव से होते हैं, कमर में, रीढ़ जैसे धँसी हुई होती है, गर्दन के दोनों ओर के कन्धों में ऊंच-नीच सी होती है! नेत्र बड़े, पीले, टूटी दन्तमाल वाली होती है! हाँ, वाणी में सौम्य, मधुर हुआ करती है!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"ये भोग उधर रख दो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
उठी, थाल उठाया और रख आयी सामने!
''आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और मैंने तब मन्त्र पढ़ा! एक टुकड़ा समक्ष फेंका! जैसे ही फेंका! भक्क! भक्क से आग लगी उसमे और वो थाल, फौरन ही हवा में उछला! उछलते ही नीचे गिरा, वो गरम था, दहक रहा था!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"मदिरा!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"दो कटोरे भर दो!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
और भर दिए दो कटोरे! एक मैंने उठाया और एक, सामने रख दिया! मैंने जामिष-मन्त्र पढ़ते हुए, कटोरा खाली कर दिया! और दूसरा कटोरा उठा, अलख में झोंक दिया! अलख को जैसे रोष जगा! वो उठ पड़ी! हमारे से भी ऊपर निकल गयी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आज्ञा?" बोली वो,
"भोग लो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
उसने ठीक वैसे ही भोग लिया और अंतिम घूंट, अपने सामने निकाल दिया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"तत्पर हो जाओ!" कहा मैंने!
"हूँ!" बोली वो,
और तब! तब मैंने अपना त्रिशूल उठाया, मन्त्र पढ़ा और उसके बीच का फाल चाटा! थूक से लबरेज़ किया और उस साधिका के माथे से छुआ दिया! छुआते ही, साधिका ऊपर उठी और जैसे देह से जान निकली हो, ऐसे बैठ गयी! नेत्र बन्द हो चले थे उसके, हाथ खुल गए थे, पाँव मुड़ गए थे!
"साधिके?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं आया!
"साधिके!" कहा मैंने,
नहीं जवाब कोई! मैंने तब उसके पास जाने को खड़ा हुआ, उसको देखा और जैसे ही नीचे बैठा............!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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निधि-सुंदरी का गमन हो ही चुका था, रुषि का तुण्ड-महाविद्या द्वारा प्रभाव समाप्त किया जा चुका था! मेरी साधिका भूमि पर लेट गयी थी, मेरे बुलाने पर भी, वो नहीं उठती थी! मैंने दो बार उसको पुकारा था, परन्तु उसने कोई उत्तर नहीं दिया था, अतः मैं उठा और चला उसके पास! मैंने नीचे बैठा और जैसे ही उसको देखा, तो उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें छलछला गयी थीं! देह शिथिल पड़ गयी थी उसकी! उदर, सन्तुलित भाव से, ऊपर नीचे हो रहा था, मेरे पीले सूत्र की जो शेष डोरी बची थी, वो उसके बाएं स्तनाग्र पर कस कर चिमट गयी थी, उसमे रक्त का प्रवाह कुछ अधिक हुआ था, इसके कारण वो नील जैसा दीखने लगा था, मैंने उस डोरी को धीरे से हटाना शुरू किया, खींचता तो सूत्र की धार से कोई चोट या चीरा लग सकता था, उसको रक्त नहीं आना चाहिए था, अन्यथा ये साधना में भंग पड़ना ही होता! मैंने वो डोरी, धीरे धीरे हटानी शुरू की, और हटा दी, साधिका को लेशमात्र भी कुछ अनुभव न हुआ! मैंने अपना मुख उसके नथुनों पर रखा और धीमे से एक मन्त्र पढ़ा, ये हैमुष-सिद्धम हुआ करता है, इस सिद्धम को यदि किसी प्रेतग्रस्त, बाधाग्रस्त व्यक्ति के मुख में कहा जाए तो अंदर जो सत्ता क़ाबिज़ है, फौरन ही उसका सटीक उत्तर दिया करती है! हैमुष-सिद्धम को, पलाश वृक्ष के नीचे एक ही दिन में सिद्ध किया जा सकता है! इसमें कोई समस्या नहीं! तो मैंने यही सिद्धम-सूत्र कहा और मुझे, एक तीव्र सी गन्ध उसके नथुनों से बाहर आती सी प्रतीत हुई, उसके होंठ हिले! और मैं पहचान गया! ये, होमा का आगमन था, ये और ऐसी ही सत्ताएं किसी सिद्धि, साधना समय ही समक्ष आया करती हैं! जो गन्ध मुझे आयी थी, उसकी गन्ध, पीले कनेर के पुष्प समान हुआ करती है, भीनी भीनी सी, मधुर सी और स्निगधता का सा आभास देती हुई! होमा, किसी भी साधिका के नाभि-क्षेत्र की स्वामिनि मानी गयी है! साधिका के इसी क्षेत्र में ये वास कर, मार्ग प्रशस्त किया करती है! मैं उठा और अलख तक गया, होमा को प्रसन्न करने हेतु मन्त्र जपे! और कुछ ही देर बाद, अलख का रंग नीला सा हो गया, मात्र एक क्षण के सौवें भाग तक ही! होमा प्रसन्न हो, चली गयी थी! होमा, मेखला यक्षिणी की सहोदरी है, स्वायत्त होती है, ये अति-बलशाली सत्ताओं द्वारा सेवित है! किसी भी दुविधा में पड़ने पर, होमा एक एक मन्त्र पढ़ा जाता है, तदोपरान्त, शयन-शैय्या के नीचे कनेर का फूल रख कर, प्रश्न कर उस से, उत्तर की कामना की जाती है, यकायक ही, विचार-प्रवाह में से, योग्य विचार सम्मुख आ जाता है, या फिर, स्वप्न में कोई कन्या आ कर इसका उत्तर दिया करती है! उस कन्या के चरण नहीं दिखाई दिया करते, वो पेटीकोट सा धारण किये रहती है, ऊपर तन पर काला वस्त्र धारण किये रहती है!
तो जैसे ही होमा गयी, मेरी साधिका के नेत्र खुल गए! उसने उठते ही, सर को एक बार झटका दिया और मुझे देखा! फिर अपने उस स्तनाग्र पर दृष्टि भरी, उसे हाथ से सहलाया और मेरी ओर देखा!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोले वो,
"कुशल से हो?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"होमा का आगमन हुआ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"कोई पीड़ा तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"उचित है!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और मैंने अलख में ईंधन झोंका फिर!
"साधिके?" पूछा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"आहूम फ़ट्ट त्रिकाली!" कहा मैंने,
"अयम लुम फ़ट्ट स्वामी!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"अब जिसका आगमन होगा, जानती हो?" पूछा मैंने,
"जी स्वामी!" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"काहुंड!" बोली वो,
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
"आओ इधर!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
वो चली आयी मेरे पास, खड़ी हो कर!
"बैठ जाओ!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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काहुँड! दैवीय-क्षेत्रपाल! अति-प्रबल! महाभीषण! मोहन का विध्वंसक चेवाटों का प्रमुख शत्रु! वज्र-घन्टाल से पूजित! और सौ महा-प्रेतों द्वारा सेवित! देह में स्थूल, पाँव तक रुक्ष केश! रूप मलिन, नग्न-देह! मानव-अंगों की सज्जा से सुशोभित रहता है! श्री भैरव नाथ जी का इकसठवां चौर्त्व-महावीर! राजस्थान के क़बीलों में पूजनीय, भीलों का शस्त्र-गुरु! मित्रगण? आपने अस्त्र-शस्त्र तो सुने ही होंगे! अब अस्त्र क्या और शस्त्र क्या? इसके बाद, वेउपि-अस्त्र एवम, बिंद-शस्त्र! इनसे क्या अर्थ भला? काहुँड का अस्त्र कोई नहीं, शस्त्र है! और वो, चौफाल-खड्ग! द्वि-फाल तो सुना होगा, ये चौफाल क्या? अर्थात दो से हन्तक और दो से, अभयदान प्रदान करने वाला! अभयदानी शस्त्र, सभी सात्विक देवी-देवता धारण किया करते हैं! आपने देखा ही होगा! ऐसे ही काहुँड है, काहुँड अग्रणी रहता है विध्वंस में! वीरभद्र की समस्त शक्ति-वाहक सहस्त्र काहुँड हुआ करते हैं! अब, इस साधना में काहुँड का औचित्य? हाँ! है! रक्षण! सैद्धव-रक्षण!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"तत्पर रहना!" कहा मैंने,
"अवश्य! आदेश!" बोली वो,
और मैंने तब, पीली खड़िया से, उसके योनि-क्षेत्र को, बन्धित कर दिया! मन्त्र एवम, षुचिक-बन्धन! काहुँड यदि टकरा जाए तो शुष्क कर देगा मानव-देह को! प्रबल ताप रहा करता है इसमें!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"शयन-मुद्रा में आओ!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और वो, उस आसन पर ही लेट गयी! पांवों के अनूठे आपस में मिला लिए, हाथ पीछे खींच कर, नागौण-मुद्रा में कर लिए! और मैं तब, उसके ऊपर, एक टांग इधर, और एक टांग उधर करके खड़ा हो गया! और जैसे दे दिया सन्देश! काहुँड का आह्वान-मन्त्र पढ़ा, कुल सात या आठ मिनट में ही, भयानक चीखें गूँज उठी! ऐसी आवाज़ें आएं जैसे बड़े बड़े पेड़, फरसे के वार से काट गिराए जा रहे हों! ये सब होता रहा और मैं मन्त्रों का उर्ष-जाप करता रहा! सहसा ताप उठा! जैसे भूमि जल कर कांच बन जाए, ऐसी लगने लगी! अट्टहास गूंजने लगा! चारों तरफ जैसे, कोई उड़ उड़ कर, वो अट्टहास लगाए जा रहा हो!
और अचानक ही, मैंने झटका खाया! और जैसे ही गिरा, तभी उठने का प्रयास किया! जैसे ही उठा, हवा में झुला दिया गया! एक बार! दो बार! और धम्म से एक तरफ जा गिरा! सर उठाकर रखा था, अन्यथा, वहां के बर्तनों से टकरा जाता!
और कुछ ही क्षणों में, सब शांत!
पीछे से, काक-स्वर गूंजा! उलूक-स्वर गूंजने लगे! सब संयत हो गया था और मैंने अपना सर उठाया! साधिका को देखा! साधिका नेत्र बन्द किये, राख के कणों से ढकी हुई सी शांत पड़ी थी!
"साधिके?" मैंने आवाज़ दी,
और मैं उठ बैठा!
"साधिके?" मैंने फिर से कहा,
कोई उत्तर नहीं आया!
"साधिके?" कहा मैंने,
उसके खांसने की आवाज़ आयी, हल्के से खांसी, और उसने उठने का प्रयास किया! ऊपर की तरफ, वर्ण काला सा और नीचे की तरफ, वर्ण गौर सा, ऐसा हो चला था! मैं लपक कर उसके पास गया!
उसने कालिख को देखा, हटाने का प्रयास किया, हाथ भी काले हो गए थे उसके!
"नहीं हटाओ!" कहा मैंने,
"क्यों नाथ जी?" बोली वो,
"काहुँड-श्रृंगार!" कहा मैंने,
"ओह....!" बोली वो,
"काहुँड-उपस्थिति कभी नहीं की अनुभव?" पूछा मैंने,
"नेत्र बंधे रहे!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"मैं नेत्र नहीं बंधवाता!" कहा मैंने,
"जी, देखा!" बोली वो,
और होंठों पर पड़ी राख को हटाने लगी!
"मदिरा ले लो! उससे हटेगी!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
उठी, और चली मदिरा-पात्र से मदिरा लेने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने मदिरा-पात्र उठाया और अपने होंठ, चेहरा धो लिया, कालिख उतर तो गयी थी, लेकिन बहते हुए कजरे की तरह से, पूरा चेहरा कजरारा हो गया था! अब दिखने में और कामुक एवम मादक लगने लगी थी!
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
उसने, मदिरा-पात्र रखा नीचे, और चली आयी मेरे पास!
"यहां, मेरे पास!" कहा मैंने,
वो चली आयी, मेरे पास ही!
"मदिरा उठाओ?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
उसने उठा ली मदिरा की बोतल और सम्मुख रख दी मेरे! मैंने बोतल उठायी और उसका ढक्कन खोल दिया!
"लो!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और ले ली मेरे हाथ से वो मदिरा!
"पिलाओ!" कहा मैंने,
उसने ढक्कन खोला और मैंने उसकी गर्दन पर आये केश पीछे धकेले! कुछ पुष्प-फनिकाएँ उलझी थीं केशों में, मैंने हटायीं और उसे पास खींच लिया उसको उसकी गर्दन से पकड़ कर!
"मदिरा!" बोली वो,
"हाँ! पिलाओ!" कहा मैंने,
"कैसे नाथ?" बोली वो,
"तुम जानो!" कहा मैंने,
"ऐसे?" बोली वो,
उसने अपना एक हाथ, अंजुल रूप में, आगे किया और फिर मुझे देखा!
"हम्म! ऐसे भी सही!" कहा मैंने,
और मैंने, हाथ से उसके, हृदय-रेखा की दरार से मदिरा पी सकूँ, ऐसे लगा दिया! हाथ पकड़े ही रहा उसका!
"परोसो!" कहा मैंने,
उसने बोतल का मुख हाथ पर लगाया और बोतल से मदिरा, छलछलाती हुई, कामातुर सी, ढुलकने लगी, मैंने पहला घूंट भरा! फिर उसको देखा, उसकी मदमाती आँखों में, मदिरा समान ही मद था!
मेरी ठुड्डी से जो मदिरा की बूंदें टपकती थीं, वो उसके घुटनों पर पड़ रही थीं, ये देख मैं और झनझना सा गया था, चन्दन की भीनी भीनी सुगन्ध आ रही थी उसके बदन से, हाथ से, ये मदमस्त करने हेतु पर्याप्त थी!
मैंने फिर दूसरा घूंट भरा, कुछ क्षण, मुख में ही रखा उसे! और उसके नेत्रों से अपने जुड़े हुए नेत्र, नहीं तोड़े! अब उसके होंठों में, काम-मधु सा लिसलिसा सा गया था! मुझे देवयानी समान ही प्रतीत होती थी वो!
मुख में रखी मदिरा, कण्ठ से नीचे उतारी! उसका हाथ, ज़रा और आगे किया, और तीसरा घूंट गटका, इस बीच, मैंने उसके सम्पूर्ण बदन को निहार लिया! उसके कांधों में रोएं से खड़े थे! गर्दन उसकी, पियूषि समान तनी थी, गले में पड़ा वो कण्ठ-माल, फाख्ते का डोरा सा लगे था!
चौथा घूंट पिया और मैंने उसके तब उन्नत अंगों का अवलोकन किया! स्त्री-सौंदर्य कदापि रिक्त नहीं होता! ये सदैव मन में ही बसता है! और उडी ऐसे सुघड़ देह के, ऐसे उन्नत एवम उन्मत्त अंगों में, काम की अगन हो, तो कौन न दहन होना चाहेगा! मैंने हाथ आगे बढाया, उसने दूसरा हाथ आगे किया, मैंने दूसरे हाथ की उँगलियों को अपने हाथ में कस लिया!
और इसी बीच, चार घूंट पीने के बाद, मैंने उसके हाथ से मुख हटा लिया, उसने मदिरा की बोतल को ढक्कन लगाया और रख दी! मैंने तब उसके घुटनों से वो बूंदें हटा दीं! सच कहूँ! मदिरा पी? नहीं! काम-हलाहल पिया! इसीलिए कह रहा हूँ क्योंकि, मदिरा का कोई झटका नहीं महसूस हुआ! अब भाव के आगे तो ज्वालामुखी शून्य!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"तुम सुंदर हो बहुत!" कहा मैंने,
वो मुस्कुरा पड़ी!
अब लगा मुझे मदिरा का झटका! लेकिन? इतने से क्या होता? जब तक, नेत्र ही न बता दें तब तक क्या लाभ?
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" कहा मैंने,
"तुम काम-रूपिणी हो!" कहा मैंने,
वो फिर से, लजाते हुए, मुस्कुरा पड़ी, चेहरे के कोरों पर, लालिमा दौड़ पड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"साधिके?" कहा मैंने,
मैं अब पूर्ण उत्तेजना में था! त्रैरात्रिक-वधु साधना का यही आरम्भ था! ये प्रबल-काम साधनाओं में से एक है! इसका लाभ क्या होगा, ये मैं आपको बाद में बताऊंगा!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"क्या तत्पर हो संग के लिए?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कारण?" पूछा मैंने,
"प्रवाह नहीं!" बोली वो,
"कारण?" पूछा मैंने,
"सम्भवतः प्रकृति!" कहा उसने,
सत्य! सत्य ही कहा था उसने! ऋण स्वयं आवेशित नहीं होता! उसको आवेशित करना होता है!
मैंने खींच लिया उसको अपनी तरफ! और उसको चूमने लगा! वो अभी विरोध कर रही थी, मनास्वादन न हो, तो कोई लाभ नहीं! ये मुझे समझना ही चाहिए था और मैं पल भर में समझ ही गया था! मेरे लिंग में कड़ाव था, उत्तेजना से जैसे रगें आवश्यकता से अधिक ही स्पंदन करने लगी थीं! ये मदिरा का प्रभाव था, हाँ! मदिरा-प्रभाव ही कहूंगा इसे! मेरा हृदय न जाने कैसे, किसी परतन्त्रता से मुक्त से अश्व समान भागे जा रहा था!
मुझे उस साधिका की दैहिक गन्ध, इस समय सबसे मृदु एवम मादक सी प्रतीत होती थी! और मेरी दशा पीपल वृक्ष के उस तने समान थी, जिसके पत्तों से तो जल रिस रहा हो और तने को नमी का अंश भी न मिले! तड़पता रहे! यही है उसकी यही नियति! पीपल का तना कभी गौर से देखिये! सूखा, तना, कठोर एवम शुष्क होता है! हालांकि उसकी जड़ें, जल का संचार करती हैं, परन्तु पत्तों की नसों तक ही!
यही दशा मेरी भी थी! शुष्क! जल-भंडार के समीप रहते हुए भी शुष्कता का मारा! नागफनी सा, जिसके गूदे में रस और स्वयं शुष्क! 
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"मदिरा!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
और तब मैंने, बोतल ले ली उस से, जम कर चार घूंट और खींच मारे! हाँ! अब कुछ आनन्द सा आया! जैसे, जोड़ जोड़ में मेरे, पुष्प बाँध दिए गए हों! जैसे मैं, इस धरा पर नहीं, किसी पुष्प-लोक में होऊं! मुझे मन्दाकिनियों की कलकल सुनाई देने लगी! मैंने सर को झटका दिया! चन्दन की भीनी महक नथुनों में दौड़ी! नेत्र बन्द होने को हुए, और मैं उन्हें खोले रखूं! इस बीच मेरी उत्तेजन में कुछ शून्यता सी आयी! मैं लपक पड़ा अलख की ओर!
मैं अलख पर बैठा, एक अलखनाद किया और फिर अलख में ईंधन झोंका! ईंधन ऐसे झोंका जैसे मैं कोई संयंत्र बन गया होऊं! मुझे मद सा चढ़ गया था!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"स्थान ग्रहण करो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
वो बैठी तो मैंने ईंधन उसकी ओर बढ़ दिया, उसने ईंधन उठाया और अलख में झोंका मारा! अलख सीधे मेरी ओर झपटी! मेरे हाथों के बाल, कुछ कुम्हला गए उस से! एक अंगार का अंश मेरे माथे से जा चिपका! न पता चला, तब साधिका ने उसको हाथ से हटाया!
"मेख....मेख......अर्णव.....मेख..............!!" कहा मैंने, और मन्त्र पड़ता रहा!
"नाथ?" बोली वो,
"कहो साधिके?" बोला मैं,
"द्वितीय प्रहर!" बोली वो,
"नहीं हुआ आरम्भ!" कहा मैंने,
"प्रतीत होता है!" बोली वो,
"नहीं साधिके!" कहा मैंने,
"मुझे ही क्यों...लगा?" बोली वो,
और! मैं आशय समझ उसका! मुस्कुरा पड़ा और अलख में ईंधन झोंका! मैंने भस्म ली अलख से, अपनी ग्रीवा पर मल ली!
"साधिके?" कहा मैंने,
"स्वामी!" बोली वो!
"खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने,
और वो खड़ी हो गयी! अब, मैं भी खड़ा हो गया! मैंने अपना कण्ठ-माल अपने नेत्रों से छुआया! और आगे बढ़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?'' बोली वो,
"जो मैं सोच रहा हूँ क्या वही है?" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"आज प्रथम-रात्रि है!" कहा मैंने,
"ज्ञात है!" बोली वो,
"कोई शंका तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई अवरोध?'' पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"मैं और तुम!" कहा मैंने,
"संग!" कहा उसने,
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
"मैं तत्पर हूँ नाथ!" बोली वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
और उसको खींच लिया अपनी बाहों में! एक तरफ साधना, एक तरफ काम! दोनों में सन्तुलन बेहद ही कुशलता से होना चाहिए, काम से साधना में तल्लीन हो जाऊँगा, तल्लीन होने से, साधना-मार्ग अकंटक हो जाएगा!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"किसी भी क्षण, मुझे रोका जा सकता है!" कहा मैंने,
"ज्ञात है!" बोली वो,
"चाहे दैहिक कारण हो चाहे मानसिक!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"कुछ प्रश्न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"अभी नहीं!" बोली वो,
वाह! अद्वितीय! अत्यंत ही कुशल साधिका सिद्ध हो रही थी वो! प्रश्न क्या है, ये तो मैं भी जानता था! उत्तर क्या होगा, इसका उसे भी भान था!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"प्रश्न क्या है?" पूछा मैंने,
"अभी नहीं!" बोली वो,
"क्या भी नहीं?" पूछा मैंने,
"प्रश्न!" बोली वो,
"और कुछ?" कहा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"याक्षिक अथवा गान्धर्वन?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"प्रकार बताओ?" कहा मैंने,
"शिवांगी!" बोली वो,
"अद्वित्य!" मेरे मुख से निकल!
याक्षिक, काम-क्षुधापूर्ति हेतु संसर्ग होता है, गांधर्व, प्रलम्भन हेतु संसर्ग होता है! शिवांगी, साधनामय हुआ करता है! अर्थात, संसर्ग का मूल उद्देश्य मात्र साधना तक ही सीमित रहा करता है! शिवांगी-संसर्ग क्रिया हेतु ही होता है! संसर्ग के कुल सात मूल भेद हैं! अंत के दो, मानविक एवं पाश्व-सन्धिक(पशु-संसर्ग) होते हैं! यही दो, संतानोतपत्ति हेतु रखे गए हैं!
"शिवांगी!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"मुझे लोभी होना है!" कहा मैंने,
"अवश्य ही!" बोली वो,
देह का लोभी!
"मुझे, पिपासु होना है!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
काम-पिपासु!
"तुम्हारे बिना सम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"मैं वरण करने हेतु स्वीकार्य हूँ साधिके?" पूछा मैंने,
"अवश्य नाथ!" कहा उसने,
और मेरे चिबुक पर उसने एक चुम्बन रख दिया! समझो, अंगार को फूंक मिली और फूंक मिलते ही दोहन आरम्भ हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फूंक! सच कहूँ तो कैसी कैसी होती है फूंक! एक फूंक जहां सीरी, ठंडी और आरामदेह होती है और एक, जिसमे अगन भरी होती है! वाह रे बनाने वाले! इंसान कभी तो आएगा समय ऐसा, कि तेरी कृतियों का सृजन कर पायेगा! परन्तु! परन्तु भाव कहाँ से लाएगा! भाव! भाव से ही तो भगवान है! अन्यथा, पत्थर ही! एक फूंक, गहरे ज़ख्म को अपनी ठंडक से राहत पहुंचा देती है और एक, गहरा ज़ख्म बना देती है! एक आग, जहाँ जीवनदान देती है और एक आग, वही आग, लील भी लेती है! तो काम का क्या अर्थ हुआ? काम का अर्थ, संसर्ग कदापि नहीं! काम संसर्ग पर समाप्त नहीं हो जाता! संसर्ग तो एक क्रिया है, क्रियाएं संतानोतपत्ति की! पर हम, हम मनुष्य इसको ही 'लक्ष्य' सा मान लेते हैं! अब क्या स्त्री और क्या पुरुष! अब फूंक कहीं नहीं बची! अब काम खुद ही शरमा जाता है, आज के युग का 'काम-रूप' देख कर! क्या यही काम है? नहीं जी! ये तो क़तई नहीं! काम का अर्थ है, साधना! साध जमा ना! अर्थात प्रक्रिया! आग, स्त्री, धन ये साधते साधते आते हैं! पूर्ण तो कोई नहीं! पूर्णत्व तो मात्र उस ईश में ही है! जो भाव उत्पन्न करता है! और यही भाव, हम संसारियों को, मूल-सुखप्रधान प्रतीत हुआ करते हैं! आग! आग का क्या अर्थ हुआ? आग का अर्थ हुआ, धर्म! कर्तव्य और निदान! कई बार विकट स्थिति समक्ष आती है! समझ नहीं आता कि क्या उचित है और क्या अनुचित! तब दुविधा में पड़ जाते हैं हम! क्या करें और क्या नहीं! यहां बहुमत का प्रश्न नहीं होता! एक को भी निदान न मिले तो धर्म ही अर्थहीन हो जाएगा! तो सकलता! सकलता कैसे आये? ये जो, मन में भाव चलते हैं ना? यही है वो आग! वो आग, जो उचित और अनुचित, दोनों को ही भस्मित कर देगी! तो प्रश्न ये होता है कि वस्तुतः बचाया किसे जाए? उचित को, कि अनुचित को? ये धर्म! धर्म न पुस्तकों में है, न इस जगत में कहीं विद्यमान! धर्म तो वास करता है प्रत्येक मन में! उसके भावों में! आग से तो उसका कोई मूल गुण, जलाना, भस्मीभूत करना, छीन ही नहीं सकता! जल से जल का गुण ही छीन लो तो शेष बचे क्या! तो ये जैसे हैं, वैसे ही हैं! तब? तब साधना! अर्थात आग को सही व उचित ढंग से साधना, यही है धर्म!
अब ये स्त्री! मैं स्त्री-योनि की बात नहीं कर रहा! सभी ब्रह्मांडीय-सौंदर्य, सौंदर्यीकरण उसके भाव, सभी स्त्रीकारक हैं! ये, उद्दंड हैं! नटखट! चपल! जैसे, घृणा, दया, नदी, सुंदरता, चांदनी, रात्रि, पत्नी, और सांसारिक रूप में, स्त्री! ये सब चपल हैं! नदी चपलता दिखाए तो नाशकारक होती है! घृणा फ़ैल जाए तो उसे शूल नहीं लगा पाता! स्त्री, उच्च-कुलीन हो, परन्तु वाचाल हो, तो समस्त कष्टों को मेहमान बनाती है! तब? इनको भी साधना, अति-आवश्यक है! तो इसी रूप में है ये स्त्री! और धन! धन के हाथ नहीं, किसी की भी गोद में ढुलक जाता है! सुख, आलीशानता, वैभव, रस आदि इसके गुण हैं! जहां इसके हाथ नहीं, वहीँ पाँव बहुत लम्बे हैं! छलांगें मारता है! कभी यहां, और कभी वहाँ! ये न किसी का पुत्र, न नाती न पोता! इसका कोई धर्म नहीं, ये वाचाल, कुटिल-बुद्धि, दुःख-कारक एवं, धीमी मौत मारने वाला होता है! दम्भ, रोग आदि इसके अभिन्न मित्र हैं! इसके आगे, क्या इंसानी रिश्ते और क्या इंसानियत! इसका पर्दा बड़ा ही श्यामल है! न देखने ही दे पार, न दीखे ही इस पार! तो, इसे साधना भी एक साधना ही है! धन को विष कहा जाता है! मृदु-विष! यही कारण है कि विषैले पुष्प अधिक चटकीले, विषैले फल अधिक गूदेदार, विषैली वस्तु आधी भड़कीली हुआ करती है! सर्प को विषहीन कर दीजिये, केंचुआ भी न डरे फिर! और इंसान! उसे केंचुए से भी निःकृष्ट समझने लगे!
तो ये काम! ये काम असल में है क्या? क्या भाव है? या प्रक्रिया-ईंधन? या कोई सकलता? क्या है ये? क्यों किसी पुरुष को कोई विशेष स्त्री ही अच्छी लगती है? क्यों कोई स्त्री, किसी विशेष पुरुष की ओर ही आकृष्ट होती है? आखिर कारण क्या है? क्या शारीरिक-सौंदर्य? आकर्षण?
नहीं! ये सब मन में है हमारे! यूँ कहा जाए, कि नैसर्गिकता में ही! या और अधिक स्पष्ट रूप से कहूँ तो अंतः में किसी रिक्तता को, भरने के लिए उत्पन्न हुई एक लालसा! काम कहना बसता है? प्रकृति में! सर्वत्र! जहां देखो, वहाँ! क्या पुष्प, क्या वृक्ष, क्या कोई सजीव प्राणी! हमारी देह, सर्व-विशिष्ट है! कभी अवलोकन कीजिये! क्या है आपके निज में? कुछ भी नहीं! न श्वास, इस हृदय-स्पंदन, न रक्त-प्रवाह, न निरोगता! कैसे देह? और फिर, सर्व-विशिष्ट? अब भला वो कैसे?
तो वो है! अवश्य ही है! ये देह, एक साधन है! साधन, उस से मिलने का! लीन होने का, अंगीकार होने का जो सच में, है ही नहीं! है ही नहीं? क्या मतलब? सच ही तो है? जिसको देखा नहीं, स्पर्श नहीं किया, सुना नहीं, तो कैसे मान लूँ?
बस? यही तर्क? नहीं, कुतर्क?
अरे! अरे मित्रगण! हम आखिर हैं क्या? क्या अस्तित्व है हमारा? ब्रह्मांड के एक कण ही तो हैं हम! असंख्यों में से मात्र एक! और स्वप्न? देखो! उस से मिलने का! ऐसी क्या योग्यता है हम में? कभी सोचा? जो मनुष्य अपना पृष्ठ-भाग भी, दर्पण में पूर्ण नहीं देख पाता, वो ब्रह्मांड-दर्पण देख सकेगा?


   
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श्रीशः उपदंडक
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ब्रह्मांड का दर्पण! हाँ! अब दर्पण ही क्यों? सरल है न? दर्पण असत्य न बोले कभी! जो सामने, वो दिखाए! अब जो छुपाये, तो क्या छुपाये! मूर्ख ही छिपा सके बस! अब प्रश्न ये कि मूर्ख कौन! तो मित्रगण! आज तो हम सभी ही मूर्ख हैं! दर्पण में ही दोष है, सिद्ध ही कर दें! और वैसे भी, दर्पण तो बाह्य-रूप ही दिखाता है, अन्तःरूप तो नहीं! तो आप क्या समझे? ब्रह्मांड का दर्पण ये अक्स देखने वाला दर्पण? अरे नहीं! दर्पण की आवश्कयता ही कहाँ! बाह्य-रूप तो आप देखते ही हो नित्य! नहीं देखते क्या? वो रूपसी! वो स्त्री! उसका रूप! नहीं क्या? देखते हैं न हम सभी? तो अंदर कौन देखे? कौन दिखाए? दिखाए बस यही ब्रह्मांड का दर्पण! जिसने, सभी को समान रूप से उत्पन्न किया! समान ही गणित लगाया! समान रूप से माँ की कोख से हम पैदा भी हुए! क्या काला और क्या गोरा! बदल क्या? बदल तो सिर्फ ये, कि एक ज़मीन पर सोये और दूसरा पालकी में सोये, जिस पर, मखमल का गद्दा बिछा है! एक जूझे कीड़े और मकौड़ों से, और एक जूझे पसीने से! एक का पसीना उसे शीतलता देय और दूजे का गीला करे! तो ये अंतर भला क्यों? सरल है! ये कर्म-विपाक हैं! कर्म-फल नहीं! कर्म-फल अभी नहीं मिलने वाले! कर्म-फल तो तब मिलेंगे जब आप उसके सम्मुख होओगे! सम्मुख सभी को होना है, चाहे जो जानता हो, चाहे, जो न भी जानता हो! चाहे जो मानता हो, चाहे जो ना भी मानता हो! और फिर फल! कैसा फल? किस प्रकार का फल? वेदज्ञ कह गए हैं कि फल की चिंता छोड़, वो तेरे हाथ में नहीं! कर्म की चिंता कर! क्यों जी? मैं दास हूँ? किसका दास? क्या मेरा अपना कुछ नहीं? चलो मान लिया कुछ नहीं! परन्तु मेरा विवेक तो मेरा ही है! अब तुझे जामुन खा, मितली होये, और मुझे दे रोग-हीनता! तो भला इसमें जामुन का क्या दोष? ये जो जामुन है न, यही कर्म है! यही है कर्म! हैरत तो इस बात की कि इस कर्म के रूप बहुत हैं! एक से बढ़कर एक! मान लिया, सभी का ध्येय, उद्धेश्य बैकुंठ जाना ही है, तो साहब, रावण ने क्या गलत किया? रावण के कारण ही श्री राम जी का अवतरण हुआ, हम मनुष्यों को मर्यादा पुरुषोत्तम मिले! तो कर्म किसका? किसके कारण? इसीलिए, इस कर्म के सौ भेद! मित्रगण! सागर की एक बून्द चख कर उसके रस का, स्वाद का अनुभव तो किया जा सकता है, परन्तु उसकी थाह नहीं पता लगाई जा सकती! तो थाह, कैसे पता लगाई जाए? सुनिए! ज़रा ध्यान से सुनिए! नदियों का लक्ष्य मात्र एक, सागर-मिलन! अब नदी चाहे, गंगा जी हों, चाहे यमुना जी, चाहे ताप्ती, नर्मदा आदि आदि! सभी का लक्ष्य एक! अर्थात, सागर में मिल, न यमुना के काले रंग के जल का अंश शेष, न गंगा जी के श्वेत, धवल जल का अंश शेष! तो ये सागर क्या है? ये सागर ही वो पारब्रह्म सत्ता है! पोखरों का, सरोवरों का, जोहड़ों का जल सड़ सड़ कर, तप तप कर, सुष्क हो हो कर, समाप्त हो जाता है! तो हम क्या हैं? मात्र एक गड्ढा! वो गड्ढा, जिम कोई कीड़ा भी वास न करता था! बल्कि लोग गालियां और देते थे! और फिर जल बरसा! अब ये जल क्या? जल, कर्म-विपाक! फल नहीं! विपाक को, यूँ जाना जाए, कि किसी शाख से निकली एक और शाख! तो जल भर उस गड्ढे में! पक्षी भी आये! कीड़े भी आये! वनस्पति भी उगी! और फिर, धीरे धीरे दम तोड़ता गया! जल सड़ गया! न कीड़ा ही, न पक्षी ही, न वनस्पति ही शेष! आंधी चली, मिट्टी उडी, ढेले बने और गड्ढा, पुनः भर गया! अब कोई नामोनिशान शेष नहीं उसका! हो गयी, 'गयी' की बात! तो कीड़े कौन? लोग! वे लोग जो आपसे सम्पर्क में थे! वे बढ़ते गए! जिसको लाभ हुआ, वो रुक गया और जिसको न हुआ, वो औरां चला गया! पक्षी कौन? पक्षी, सुख-दुःख! पंख लगाए आये, पंख फैलाये उड़े! वनस्पति कौन? हमारे सम्बन्धी! वे रहे हमारे साथ! जब हम सूखे तो, उनके बीज, नव-सन्तति हवा के संग, आगे बढ़ती चली गयी! कौन कहाँ से आया, किसी को नहीं पता! कौन कहाँ जाएगा! कौन ही जाने! हम तो जानें न!
आपको एक रहस्य 
 बताता हूँ! जब भी, कोई योनि, वर्तमान में, अपने विपाक के कारण जीवित रहती है, वो यदि, उस से, उच्च-योनि हेतु अग्रसर हो, तो इस जीव-जगत में, एक एक नैसर्गिक-गुण से रिक्त होती रहती है! कैसे?
बताता हूँ! एक में, पांव अशक्त होंगे! चल न पायेगा, फलस्वरूप अपाहिज रहेगा! फिर, अगली नियति में, नेत्रहीन रहेगा, फिर, श्रवणशक्ति-हीन, फिर मूक और फिर, जिन्हें हम पागल कहते हैं! विक्षिप्त कहते हैं! जिनसे बचकर रहते हैं! असल में, वे तो बहुत आगे चले जाने वाले हैं! और हम, कभी शूकर, कभी वानर, कभी कुछ और कभी कुछ!
तो ये सब जाना कैसे जाए?
मूल प्रश्न::- इसे कैसे रोका जाए? मैं कैसे रुकूँ? कहा जाए तो पढ़ने में सरल है! बताने में भी सरल है! उत्तर है ये! सबसे पहले ये देखिये, जांचिए, कौन ठेल रहा है आपको आगे? अब कोई तो है! न्यूटन ने भी कहा है, कि जब तक किसी वस्तु पर, कोई असन्तुलित बल न लगाया जाए, तब तक वो वस्तु, अपनी विरामावस्था को निरन्तर बनाये रखती है! तो इसका अर्थ क्या हुआ?
यही! कि मैं ठेले जाते हुए भी विरामावस्था में हूँ!


   
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