वर्ष २०१३ त्रैरात्र...
 
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वर्ष २०१३ त्रैरात्रिक-वधु!!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो हमारी महफ़िल सजती रही! देर रात हुई और बहुत सी बातें! बाबा ने मुझे और कुछ भी बताया, जो मेरे काम शर्तिया ही आता! आखिर बाबा ने, मुझे इस लायक़ तो समझा ही था! वे इस विद्या को बखूबी जानते थे, और मैं इसी का लाभ लेने का इच्छुक भी था! हालांकि, इन्ही बाबा के एक विशेष शिष्य को, मैंने एक रात्रि के द्वन्द में हराया था, लेकिन बाबा ने कभी भी इसकी चर्चा नहीं की थी! खैर, उस रात बाबा ने जो मुझे बताया था, मैंने उसको कान से अच्छी तरह से बाँध लिया था! कल सुबह के बाद से, उनका आशीर्वाद ले, कोई दो बजे से मुझे उस क्रिया के अनुसार स्वयं को ढाल लेना था! उस रात मुझे नींद कम ही आयी! इसीलिए मैं ज़रा देर से उठा, छह बजे के बजाय, सात बजे! मरी शहरयार जी से बात हुई, बाबा का आशीर्वाद लिया, अब मुझे उनसे, करीब दो बजे एक स्थान पर मिलना था, ये स्थान, उसी श्मशान में ही था! यहां से ही ये क्रिया संचालित होनी थी!
"तैयार हो?" पूछा बाबा ने,
उस समय एक बजा था, मैं स्नान-ध्यान से निवृत हो चुका था!
"हाँ! आदेश!" कहा मैंने,
"साधिका नहीं आयी?" पूछा उन्होंने,
"रुकें ज़रा!" कहा मैंने,
और चला आया बाहर, शहरयार जी वहीँ बैठे थे, मुझे देख उठ आये थे!
"चल रहे हो क्या?" पूछा उन्होंने,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"कोई बात हुई?" पूछा उन्होंने,
"साधिका नहीं आयी?" कहा मैंने,
"फ़ोन आया था सरला का, बस पहुँचने ही वाली होगी उसको लेकर!" बोले वो,
"अच्छा, ठीक, दरअसल काम बहुत है!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोले वो,
"आप यहीं रुको!" कहा मैंने,
"यहीं हूँ!" बोले वो,
और मैं अंदर चला आया, अंदर आया तो उस टाट पर बैठ गया, अब तक वहां एक बड़ा सा थाल सजा दिया गया था, ये शक्ति-पूजन हेतु था!
"हाँ?" बोले बाबा,
"बस आने को ही हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और कुछ मन्त्र बुददबुदाने लगे! मैं वहीं बैठा रहा, सुनता रहा उनके वो मन्त्र! ये क्रिया से सम्बन्धित ही मन्त्र थे! दो बजे करीब, मुझे खबर दी गयी, शहरयार जी आये थे बताने के लिए, मैं बाबा से आज्ञा ले, चल पड़ा था उनके साथ!
उन दोनों को एक कक्ष में बिठाया गया था, मैं अंदर कक्ष में आया तो दोनों से नमस्कार हुई! सरल पानी पी रही थी, जब पानी पी लिया तो मुझ से बातें हुईं उसकी!
"ये आ गयी है!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"देर तो नहीं हुई?'' पूछा उसने,
"नहीं" कहा मैंने,
"कोई प्रश्न?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो क्या?' बोली वो,
"साधिका को सब समझा दिया है ना?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तब ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ, तो मैं चल;उंगी, कल अपराह्न आउंगी, ये जायेगी और वो आएगी!" बोली वो,
''उचित रहेगा!" कहा मैंने,
"समझती हूँ!" बोली वो,
मैं उसके साथ बाहर आया, तो शहरयार जी को इशारा किया, उन्होंने समझा और कुछ पैसे उस सरला को दे दिए, सरला ख़ुशी ख़ुशी लौट गयी! वो लौटी तो मैं वापिस कक्ष में आ गया! साधिका पाँव ऊपर कर, पलँग पर बैठी थी!
"स्नान कर लो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और अपना बैग ले चली, मैं वहीँ उस कमरे में बैठ गया, ये कमरा काफी रौशनी वाला था, बड़ा था और रौशनदान भी बड़े थे इसके, मैंने खिड़कियाँ बन्द कर दीं और वहीँ बैठ गया, इंतज़ार करने लगा उस साधिका का!
करीब आधे घण्टे में वो लौटी! मैंने उसको क्रिया-हेतु ही वस्त्र पहनने को कहा, कुछ समझाया आउट तीन वचन भी ले लिए, और मैं बाहर आ गया फिर! बाहर आया तो शहरयार जी मिले, चाय पी रहे थे!
"आ जाओ!" बोले वो,
मैं चल पड़ा उनके पास, जा बैठा!
"अब सब तैयार?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई आदेश?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हुक़्म!" बोले वो,
"हुक़्म क्या!" कहा मैंने हंसते हुए!
"बोलिये तो?' बोले वो,
"मैं रात भर उस स्थान पर रहूंगा, प्रातः चार बजे, उस वेला में आऊंगा, चाहो तो विश्राम कर सकते हो!" कहा मैंने,
"कैसा विश्राम!" बोले वो,
"नींद आये तो सो जाना!" कहा मैंने,
"नींद?' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसी नींद!" बोले वो,
"समझते हो!" कहा मैंने,
"छोड़िये आप भी!" बोले वो,
"आपकी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
"फिर ठीक!" बोले वो,
''आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोले वो,
मैं उन्हें एक विशेष स्थान पर ले आया, यहां पेड़ लगे थे घने! पीपल और जामुन के! बीच में एक बड़ा सा बरगद का पेड़ लगा था, उस बरगद के आसपास, धूनी रमाई जाने के चिन्ह थे, छोटे और बड़े, त्रिशूल गाड़े गए थे!
"यहां रहेंगे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"फिर?'' पूछा उन्होंने,
"आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो, और चल पड़े मेरे साथ!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"ये कौन सी जगह है?" बोले वो,
"ये विशेष स्थान हुआ करता है, इसको मसान-स्थल कहा जाता है!" कहा मैंने,
"ओह! तो यहां ये क्रियायों का संचालन होता है!" बोले वो,
"सभी का नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"क्रियाएं कुल आठ प्रकार की हैं! चार, मसान द्वारा ही संचालित होती हैं, शेष चार में से दो में, महामसानी और शेष दो में, उग्रचण्डिका का आह्वान होता है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"वो चौभुजा देख रहे हो?" बोला मैं,
"हाँ, वो सामने?" बोले वो,
"हाँ, यहीं क्रिया का संचालन होता है!" बोला मैं,
"अच्छा, और वो क्या है?" पूछा उन्होंने,
"वो, जम्भ-स्थल है!" कहा मैंने,
"ये क्या?" बोले वो,
"द्वंद-स्थल!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
मैं उनको साथ ले गया आगे तक, ये श्मशान भले ही था, लेकिन यहां सबकुछ किसी देव-स्थल समान सा था! ये बेहद ही सुंदर जगह होती है! यहां पर, व्यक्ति को विरक्ति होने लगती है संसार से! वो अपने आप को समझने लगता है! शेष कुछ नहीं रहता, जो कुछ रहता है, उसे शेष बनाने के लिए, शेष-लब्धि प्रयोग किये जाते हैं! क्रियाएं, यही लब्धि मात्र हैं!
"वो कुंड है?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो?' बोले वो,
"ये, कूप है!" कहा मैंने,
"आम सा कूप?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर कैसा कूप?" पूछा उन्होंने,
"ये आठ फ़ीट गहरा होता है!" कहा मैंने,
"ये भी क्रिया हेतु?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"एक बात पूछूँ?" बोले वो,
"हाँ, आओ, वहां बैठें!" कहा मैंने,
और हम एक जगह, जा बैठे, ये पत्थर की एक पटिया थी, ऐसी और भी कई रखी थीं वहां पर, सम्भवतः कोई कक्ष बन रहा होगा उधर!
"ये त्रिरात्रिक-वधु, ये कैसी साधना है?" बोले वो,
"नहीं बता सकता!" कहा मैंने,
"ओह! समझा!" बोले वो,
"प्रतीक्षा करो बस!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोले वो,
"अब क्या कलाप शेष है?" बोले वो,
"मैं यहां, करीब दस बजे प्रवेश करूँगा!" कहा मैंने,
"बाबा के साथ?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''वे ही बताएंगे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"वे ही इस क्रिया में प्रधान रहेंगे!" बोला मैं,
"समझ गया!" बोले वो,
"कुछ ऊंच-नीच हो तो......!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"बाबा इस क्रिया को दो बार कर चुके हैं!
"अच्छा! तभी आपने चुना उन्हें!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो ये क्रिया कुल छह दिन चलेगी?" बोले वो,
"कम से कम!" बोला मैं,
"आज पहली?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी सामने से दो लोग गुझ्रते दिखाई दिए, आगे तक चले और फिर एक ने मुझे देखा, रुका और लौट मेरी तरफ!
"यहां कैसे?" पूछा उसने,
"आगे जा!" कहा मैंने,
सन्न रह गया वो मेरा जवाब सुनकर! दूसरा भी लौट आया और दोनों खड़े हो गए, अब हम भी खड़े हो गए! तब शहरयार जी ने समझाया उन्हें, वे समझे और फिर लौट गए!
"गए!" बोले वो,
"अच्छा हुआ!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं तो हाथ फुरैरी हो जाते!" बोले वो,
"मर जाते साले यहीं!" कहा मैंने,
"तो फेंक आते सामने नदी में!" बोले वो,
"छोडो!" कहा मैंने,
"चलें?" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
और हम लौट पड़े वापिस! मैं अपने कक्ष में आ गया, सामान टटोला और निकाल लिया सामान! शेष सामान मुझे वहां प्राप्त हो जाना था! सामान निकाल कर, मैंने कुछ देर आराम किया और फिर, स्नान करने चला गया! जब वापिस आया तो शहरयार जी भी तैयार ही मिले मुझे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शहरयार जी मिले, और मैं अब पूर्ण रूप से तैयार था! मेरी प्रथम रात्रि की साधिका आ चुकी थी, बस देर थी तो उस साधिका से मिलने की! और तदोपरान्त मुझे उसको साथ ले, क्रिया-स्थल पर ले जाना था, जहां वो स्वयं-श्रृंगार करती, इसमें मेर्रा कुछ लेना या देना नहीं था, उसे सब, स्वयं ही करना था, तब मैं शहरयार जी को एक स्थान पर छोड़, कूप-पूजन के लिए निकल गया! यहां मैंने माँ शैविकि का आशीर्वाद प्राप्त किया, माँ तुंगा का लोमित-स्पर्श किया और तब, औघड़ श्रृंगार किया! इस प्रकार समय बीतता चला गया! और आ गया क्रिया का समय! मैं तब, साधिका के पास पहुंच, सफेद सूती चादर में बाँध उसे, मैं ले चला स्थल की ओर! जो भी सामान था, सामग्री, भोगादि जो कुछ भी था, मैंने एक सहायिका को लाने के लिए कह दिया था, जब मैं वहां पहुंच तब तक वो स्थान पूर्ण रूप से तैयार था! यहां मुझे अब पूजन आरम्भ करना था, अलख उठ जाती तो बाबा भी आ ही जाते, उनका निर्देश होता और मैं आगे बढ़ता चला जाता! मैंने आसन जमाया अपना, सामान रखा उधर ही, और त्रिशूल को अभिमन्त्रित कर वहीँ गाड़ दिया! उसके ऊपर, एक कपाल टांग दिया, कपाल के माथे पर, त्रिपुंड मेरी साधिका ने काढ़ा था! अब मैंने स्थान ग्रहण किया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश, फट!" बोली वो,
"कोई प्रश्न?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई शंका?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कुछ निवेदन?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ! फट!" बोली वो!
साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"सप्तदीप निकाल लो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
उसने झोले में से, एक पात्र निकाल लिया, इसमें सात दीप लगे होते हैं, ये मिट्टी का बना, आग से तपा कर बनाया जाता है!  महाप्रजापति  कुम्हार, सारठ ही ये बना सकता है! अक्सर श्मशानों में पूजन समय इन्हीं के बनाये हुए पात्र प्रयोग होते हैं! तन्त्र, एक महा-विज्ञान है, समझने वाला समझे, न समझने वाला मात्र इसे अंधविश्वास कहता है!
"ताहिक घाल दो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और उसने इन दीयों में ताहिक घाल दिया! ताहिक मायने पत्थर से मिलाकर बनाया हुआ तेल! इसी ताहिक के आच्छादन से, कोई भी पत्थर चिकना बनता है! ये ताहिक, मूलरूप से एक द्रव्य होता है! असम, बंगाल आदि में उपलब्ध रहता है ये! ये तेल पानी में नहीं तैरता, बल्कि एक गाद सी बना देता है! किवदन्ति के अनुसार, ये नरकासुर के अश्रु हैं, जो इस स्थान पर बिखरे थे!
"जी नाथ! फट!" बोली वो,
"इसे मध्य में रखो!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"ये दीप लाओ?" कहा मैंने,
उसने चार दीप मेरी तरफ बढ़ दिए, मैंने उनमे कड़वा तेल डाला और उनमे अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ? फट!" बोली वो,
"ये चहुँ-दिशाओं में रख आओ, ध्यान रहे, बहत्तर!" कहा मैंने,
"मेरे नाथ! फट्ट!" बोली वो,
"ययम फट्ट!" कहा मैंने,
उसने, एक थाल में दीप रखे, और चल दी, और चारों दिशाओं में, दीप सजा दिए! मैं उसको ही देखता रहा! वो लौटने लगी और तभी एक हंसी सी फ़टी वहाँ, मेरे से दक्षिण दिशा में!
"ही! ही! ही! ही!" आयी हंसी!
"आँधिया!" कहा मैंने,
"लागूं!" आयी आवाज़!
ये आवाज़, मात्र साधक को ही आती है, या फिर उसे, जिसने या तो आँधिया मसान को सिद्ध किया हो या फिर रुरु मसान को! और यदि अधिपति मसान को सिद्ध किया हो, तो सारा श्मशान ही जीवन्त होता है! सारे प्रेत-स्वर सुनाई दे जाएंगे!
"लौंडी कहाँ है?' पूछा मैंने,
"ई है!" आयी आवाज़!
"ओ री भजावज रांड?" बोला मैं!
"हो! हो! हो!" आयी उस औरत की आवाज़!
"लुगाई संग लाया?' पूछा मैंने,
"हु है!" आयी उसकी आवाज़!
"दक्खन चलै आज?" बोला मैं,
"दाखन!" बोला वो,
अब मतलब साफ़ था, आज मुझे, दक्खन की तरफ मुंह करना था, पीठ उत्तर में! ये अधिपति की आज्ञा थी!
"साधिके?'' बोला मैं,
"फट!" बोली वो,
"थाल निकालो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और निकाल लिया थाल उसने, झोले से बाहर!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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थाल निकाल कर, अपनी सूती धोती से पोंछ लिया, ऐसा करते हुए, उसके केश बार बार सामने माथे से होते हुए, गिर जाते थे, वो सम्भालती और झटके से देती अपने केशों को!
"इसे सामने रखो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और रख दिया उसने!
"इसमें भोग सजाओ!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और लगा दिया उसने भोग थाल में!
"सुनो?" बोला मैं,
"जी?" चूंकि वो!
"ये, कर्णिका, इसे, इसे हटाओ!" कहा मैंने ऊँगली से इशारा करते हुए उसे! उसने झट से कर्णिका हटा ली मांस की, ये मांस भेड़ का था, भेड़ का मांस, कड़ा, रेशे वाला और ज़्यादा लाल हुआ करता है! कर्णिका उसके सर की हड्डी का मांस होता है, ये भूना जाता है, और तब काम में लाया जाता है! कर्णिका का मांस, स्त्री-शक्तियों को भोग स्वरुप अर्पित किया जाता है! उन्हें कटुक एवम कर्णिका की गन्ध रिझा लेती है! कटुक भी एक तांत्रिक शब्द है, इसके बारे में, जानकारी मिल ही जायेगी!
"हाँ, अब ठीक!" कहा मैंने,
"इसके स्थान पर?" पूछा उसने,
"टीपा रख दो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
टीपा, गले की हड्डी हुआ करती है भेड़ की, ये मसान का सबसे पसंदीदा भोग हुआ करता है! इसीलिए टीपा ही दिया जाता है मसान को!
"उठो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो उठते हुए,
"उसे उधर, उधर रख आओ!" कहा मैंने,
"दीप समीप?" पूछा उसने,
"हाँ, कुछ फर्लांग पहले ही, रखते ही हट जाना, पीछे मत देखना, देखा तो जानती ही हो न?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"अब जाओ!" कहा मैंने,
वो चली गयी, दीप से पहले कुछ, एक स्थान पर, वो थाल रख दिया, एक बार में एक! अन्यथा बुरा मान जाता आँधिया! एक बार में एक क्या? मदिरा! वो जब तक लौटी, मैंने कपाल-कटोरा भर दिया था मदिरा से, उसको छलकने तक भर दिया था!
"इधर आओ?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो, और आ गयी!
"ये लो! पकड़ो!" कहा मैंने,
उसने पकड़ा और केश फिर से पीछे किये, दोनों हाथों में ही कटोरा पकड़ा था उसने, वो साधिका तो भले ही थी, लेकिन कच्ची थी, ये साफ़ दीख पड़ने लगा था मुझे! वो एक घुटने में शायद उस रात्रि, दर्द से पीड़ित थी, या फिर, बैठने में उसको शायद दर्द हुआ हो! चलती थी तो एक घुटना अधिक नहीं मोड़ती थी! दया आती है ऐसी साधिकाओं पर! वहशी साधक, ऐसी साधिकाओं को डरा-धमका न जाने क्या क्या करवाते हैं! यूँ समझिये कि दासी ही हुई उनकी तो वो!
वो लौट आयी मदिरा-पात्र रख!
"बैठो?" कहा मैंने,
और झम्म की सी आवाज़ हुई तभी! कपाल-कटोरा हवा में उठा और नीचे जा गिरा! थाल हवा में ऐसे उदा जैसे कोई विस्फोट हुआ हो उसके नीचे! अब न तो थाल ही दीखे और न ही वो कटोरा!
"आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"ए आँधिया! ओ बुगताई! चल जा यहां से अब!" बोला मैं और चल पड़ा!
"सुनो?" बोला मैं,
"आदेश!" बोली वो,
"जो मिले, ले आओ ढूंढ कर!" कहा मैंने,
अधिक तलाश नहीं की हमने, थाल मुझे जा मिला और कटोरा उसे! फिर हम लौटे एक दूसरे की तरफ! 
'आओ, चलें!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
हम जा पहुंचे वहां, और तब मैंने त्रिशूल से, उस स्थान पर एक घेरा काढ़ दिया! घेरा काढ़ता
 और बैठता जाता! उठता और फिर चल पड़ता! कुछ ही समय लगा! और मैं फिर वापिस हुआ!
"पजारि?" पूछा मैंने,
"है!" बोली वो,
"संध?" बोला मैं,
"है!" बोली वो,
"जा! खड़ी हो पीछे अब!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और लौट पड़ी वापिस, कुछ दूर जा, पीठ कर मेरी तरफ, जा खड़ी हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने एक नज़र उसे देखा, और फिर उठ खड़ा हुआ! अपने सामान तक गया और कुछ वस्तुएं निकाल लीं, एक मदिरा की बोतल, दो पात्र, एक सिंघी, एक चीड़ी और कुछ जलावन सा! ये अलख में आवश्यक हुआ करता है! आपने देखा होगा, कि कई तस्वीरों में, विडिओज़ में, भोले बाबा, चंडी या काली की मूर्ति या फिर तस्वीरें रखी हुई करती हैं! ये जो भी रखे पूजन समय, समझो वो फरेबी है! औघड़ के लिए कण-कण में शिव हैं और प्रत्येक प्रदाह में शक्ति! शक्ति एवं प्रदाह, श्वास का, स्वर का, स्मरण का, श्रवण का! जिसमे, कोई स्थूल अंग, वेग में आये या दिशा बदले या त्वरित आगे बढ़ चले, इसका मूल, शक्ति ही हुआ करती है! रगों में बहता रक्त भी, इसी शक्ति से ही चलायमान रहा करता है! इसीलिए, कोई भी तस्वीर आदि, समीप नहीं रखी जाती! 

तो मैंने जलावन आदि रख लिया था उधर! और उठ चला, चला अपनी साधिका की ओर, जा पहुंचा उसके पास!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"मैं तेरा साधक!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"तू, मेरी साधिका!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"नेत जानती हो?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"उद्देश्य?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"नेत क्या?" पूछा मैंने,
"अग्रसर!" बोली वो,
"हाँ! और उद्देश्य?" पूछा मैंने,
"मेरा?'' पूछा उसने,
"हाँ, तेरा ही!" बोला मैं,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"हुम् हुम् त्रैकाल सुरज्ञा आहुम् फट्ट!" बोला मैं,
"हुम् फट्ट!" कहा उसने,
''आओ!" बोला मैं,
और ले चला उसको उस जगह के लिए! जाते जाते, मैंने उसके वस्त्र वहीँ गिरा दिए, अब मात्र देह से उसके, सभी वस्त्र हटाता चला गया, शेष रहा मात्र एक सफेद सूत, जी प्रातः तक उसकी कमर में बंधे रहना था, और कुछ चिन्ह आदि, शेष कुछ नहीं!
"बैठो!" बोला मैं,
"जी!" कहा उसने,
और बैठ गयी नीचे ही, उस आसन पर ही, जो कि एक कम्बल था, काला कम्बल, जिसमे कुछ कुश खचे थे! उसके कोनों पर!
"साधिके?'' पूछा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"स्वच्छ हो?" पूछा मैंने,
"पूर्ण!" बोली वो,
"बद्ध हो सकोगी?" पूछा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
"बस!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"पिता का नाम बताओ?" बोला मैं,
उसने नाम बताया!
"माँ का नाम बताओ?" पूछा मैंने,
उसने वो भी बताया!
"रेचक लगा लो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और उठ गयी, चली गयी मेरे पीछे! और मैं, अब अलख उठाने के लिए, मन्त्रोच्चार करने लगा! भूमि, आकाश, दिशाएँ, स्थान, सामग्री, अधिष्ठाता और सभी का पूजन एक एक मन्त्र से करता चला गया!
"सुआमी?" बोली वो,
मैं पीछे घूमा उसको देखा, उसने योनि-प्रदेश में रेचक लगा लिया था!
"आ जाओ!" बोला मैं,
उसने नमन किया मुझे बैठ कर, भूमि से से सर लगाया, और चल पड़ी मेरी तरफ!
"बैठो!" बोला मैं,
और एक महामन्त्र पढ़ते ही, मैंने अलख में जान और श्वास फूंक दी! अलख छटपटाने लगी! मुंह खुल गया उसका! अब तो वही स्वामिनी थी यहां की! जैसे ही अलख उठी, मेरे बाएं से, तीन बार, थालियां खड़कने की आवाज़ें आयीं! अब स्पष्ट था, ये बाबा का उस स्थान पर आगमन था! वे आते, दिशा-निर्देश करते और मैं संयत हो, आगे बढ़ता चला जाता! मेरी नज़रें उधर ही लगी रहीं, और मैंने बाबा को आते हुए देखा अपनी तरफ!

   
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श्रीशः उपदंडक
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हम दोनों ही उठ खड़े हुए थे, बाबा टेक क़दमों से उधर चलते आ रहे थे, बायीं बगल के बीच कुछ फंसा रखा था उन्होंने, अभी तो नहीं देख पा रहा था, लेकिन पता तो चल ही जाता! हम दोनों ने ने हाथ जोड़ लिए और आगे बढ़, उनको नमन किया! उन्होंने बगल में से, कपड़ा हटा कुछ निकाल कर मेरी तरफ बढ़ाया! ये कपाल था, सिद्ध-कपाल! इसी की आवश्यकता हुआ करती है! अब प्रश्न ये, कि कपाल, वो भी सिद्ध? वो कैसे? दरअसल, कपाल को सिद्ध किया जाता है! कपाल तपने लगता है, और एक समय ऐसा आता है, कि वो कपाल आपसे, वाद-प्रतिवाद करने लगता है! तन्त्र में ये एक आम सी क्रिया है, और जनसाधारण में, महज़ पागलपन, और कुछ नहीं! किसी ब्रह्मशमशान में जाइये, आज्ञा लीजिये वहाँ किसी भी औघड़ की, आज्ञा मिल ही जायेगी, कोई लाभ नहीं लेने वाला वो, यदि सच्चा औघड़ हुआ तो! आप देखेंगे कि यहां-वहाँ कपाल ही कपाल पड़े दिख जाएंगे! बारह दिवस, तरह रात्रि उपरान्त कपाल-सिद्ध होता है! इसमें कुछ तन्त्रोक्त क्रियाएं हैं जो पूरी करनी आवश्यक हैं! और एक समय ऐसा आएगा, कि कपाल आपसे स्वयं ही वाद-प्रतिवाद करने लगेगा! ऊंच-नीच, ऊँचा-बड़ा, लघु-दीर्घ, सभी तर्क रख देगा आपके सामने! कहाँ उसे प्रयोग करना है, कहाँ नहीं, किसलिए, औचित्य आदि सभी बंधते जाएंगे! कपाल-फोड़न होने पर, बाक़ायदा उसका संस्कार किया जाता है! यही होता है एक सिद्ध-कपाल!
"बैठो!" बोले बाबा,
"आदेश!" हम दोनों ने कहा!
"औचित्य ज्ञात है?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"रिश्ठान?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"साधिका?" बोले वो,
"जी!" बोली वो,
"कोई प्रश्न?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"पीछा?" बोले वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"जाओ! जाओ!" बोले वो,
और हम, उठ खड़े हुए, एक तरफ चले गए, बाबा ने आसन सम्भाल लिया और मन्त्रोच्चार में लीन हो गए! करीब पांच मिनट के बाद वे खड़े हुए, और हमें बुला लिया!
"मैं यहीं हूँ! कुछ हो, तब भी, न हो तब भी!" बोले वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"आगे बढो!" बोले वो,
और लौट पड़े! हम दोनों ने आँखें बन्द कर लीं अपनी! जाते हुए, गुरु श्री को नज़रों में नहीं बाँधा जाता! ये घोर अपमान हुआ करता है! तो जब, नेत्र खोले, बाबा जा चुके थे! तब मैंने अलख सम्भाली!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"इधर आओ!" कहा मैंने,
"जी!" कहा उसने,
मैंने ख़ंजर लिया, और अपनी मध्यमा में, एक चीर कोंच लिया उस ख़ंजर की नोंक से, रक्त की बून्द छलछला गयी! और ये देखते ही, मेरी साधिका ने उसको अपनी जिव्हा पर धारण कर लिया! धारण करने के बाद, उसने मेरे माथे को चाटा और मेरी जिव्हा पर, जिव्हा-स्राव छुआ दिया! नेत पूर्ण हुआ, अंगीकार हुए!
"अब मैं बढ़ता हूँ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"बन्धन कट जाने दो!" बोला मैं,
''अवश्य!" बोली वो,
और मैंने मन्त्रोच्चार आरम्भ किया! मन्त्र उच्चारित किये जाता और अलख में ईंधन झोंके चला जाता! आधा गहनता बीत! और तभी!
तभी मेरी साधिका ज़मीन से उछली! उछली और उकड़ू बैठ गयी! मैं जानता था, ये क्रिया-प्रभाव है, आरम्भ हो चुका था!
"साधिके?" बोला मैं,
"हूँ!" बोली वो,
"ठीक हो?" पूछा मैंने,
"पीड़ा...आह.....पीड़ा..." बोली वो,
वो कराह सी उठती थी, अपने दोनों घुटने, भूमि से स्पर्श कराने लगती थी!
"कैसी पीड़ा?" पूछा मैंने,
"अगन....." बोली वो,
"जलती रह!" कहा मैंने,
और जम कर अट्टहास किया मैंने! खड़ा हुआ, और उस अलख के चारों ओर, चक्कर काटते हुए, साधिका को लात से स्पर्श किये जाता!
"रँगना?" बोला मैं,
"हाँ! हाँ!" बोली वो!
और मैं हंस पड़ा ज़ोर से! रँगना की आमद हो चुकी थी उधर! ये अधिक देर तक नहीं ठहरती! पता, नाम नहीं बताती, बस, साधिका के व्यवहार से अंदाजा लगाना होता है, मैंने लगा लिया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जा रँगना!" कहा मैंने,
"ऊं हूँ!" बोली वो,
"जा!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली और बोलते हुए, ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी! झटके से खाये कन्धों में, और रँगना छोड़ चली उसे! रँगना! इसे मसान-सुंदरी भी कहते हैं, रूप में मादक एवम, सिद्ध होने पर, अंतिम श्वास तक, दासता किया करती है! हाँ, जब साधक की मृत्यु होती है तब वो कुछ समय तक, इस रँगना के साथ ही बिताता है! रँगना, असम और मणिपुर में अपना एक अलग ही स्थान रखती है! मोहन-विद्या में बहुत काम आया करती है ये!
मैं, झट से जा बैठा अपनी अलख पर! और अलख में ईंधन झोंक! मांस के टुकड़े झोंके! और कलेजी, भूनने के लिए रख दी, एक डंडी में फंसा कर, छेद कर उन टुकड़ों में!
"साधिके?" बोला मैं,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"कुशल?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" कहा उसने,
"अब पीड़ा नहीं?" पूछा मैंने,
"लेशमात्र भी नहीं!" कहा उसने,
"इधर चली आ!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और चली आयी मेरे पास ही, मैंने अपनी जंघा पर उसको बिठा लिया, और उसके केशों को, पीठ के पीछे सरका दिया!
"साधिके?' कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"मदिरा परोस दो!" कहा मैंने,
"जी!" कहा उसने,
और तब दो कटोरियाँ निकाल लीं उसने, मदिरा परोस दी उनमे, हिलाया उन्हें, कुछ बूंदें अलख में छोड़ दीं! अलख तो उन्हें झपटने को होय! खींची ही चली आये हमारी कटोरियों की तरफ!
"साधिके!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"मदिरापान करवाओ!" कहा मैंने,
"आदेश! ब्रह्मादेश!" बोली वो,
और कटोरी लगा दी मेरे मुख से उसने! मैंने गटागट, पूरी कटोरी खाली कर दी! जैसे जैसे मदिरा अंदर जाने लगी, तेज, ताप सा बढ़ने लगा! ताप ही बढाना था, चूँकि, त्रैरात्रिक-साधना हेतु, ये आवश्यक होता है!
"ला, इधर ला!" कहा मैंने,
और उस से दूसरी कटोरी ले ली!
"अंजुल बना?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और उसने अंजुल बनाया हाथों का, और मैंने तब उसको मदिरापान करवाया! वो करती जाए और मैं मन्त्र पढ़ते हुए, उसके माथे पर हाथ फिराता जाऊं! उसने कर दी कटोरी खाली तब, मैंने कटोरियाँ एक तरफ सरका दीं!
"जा!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और फिर से मैं गहन मन्त्रोच्चार में जा बैठा! इस बार नेत्र बन्द कर लिए और ज़ोर ज़ोर से वो श्मशान ही गूंजने लगा मन्त्र-ध्वनि से! कुल बीस मिनट के आसपास मैंने मन्त्रोच्चार किया! मेरे मुंह से थूक टपकने लगा, मैं पोंछता जाता और आगे बढ़ता जाता!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोली वो,
"ज़रा, वो उठा?" कहा मैंने,
वो आगे बढ़ी, और एक कपाल उठा लिया, दे दिया मुझे! मैंने कपाल को सीधा रखा, ज़मीन में, उसको धंसाया थोड़ा सा, और उसके सर पर, बोतल से मदिरा चढ़ा दी!
"वो कजरा?'' बोला मैं,
"हाँ!" कहा उसने, 
और दे दिया कजरा मुझे, मैंने कजरे की डिब्बी खोली, कजरा लिया अनामिका पर, और उस कपाल के सर पर, एक चौखन्डी बना दिया!
"कटोरी ला?" बोला मैं,
उसने कटोरी उठायी! और दे दी मुझे!
"जय जम्भेश्वर!" कहा मैंने,
और अट्टहास किया!
"जय तामेश्वर!" कहा मैंने और फिर से अट्टहास किया!
"जय जय अघोरेश्वर!" चीख पड़ा मैं! और उठ खड़ा हुआ! खड़े हो, चारों दिशाओं में, मदिरा के छींटे छिड़क दिए!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"ये ला!" कहा मैंने,
और उठा लिया कपाल उसने, बढाया मेरी तरफ, मैंने उठाया वो, और अपने माथे से लगाया, माथे से लगाते ही, मेरे बदन में से जैसे चिंगारियां सी उठने लगी! नसें फड़क उठीं! और मेरा काम-वेग, प्रबल होता चला गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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काम-वेग! हाँ! यही! यही तो भड़क रहा था मैं इस प्रबल साधना द्वारा! यही उद्देश्य तो था मेरा! मुझे साधिका संग, संसर्ग करना था, उसका स्खलन आवश्यक था, तदोपरान्त मैं आगे, एक और सोपान चढ़ जाता! तन्त्र में, पंच-मकर हैं और मैथुन उनमे एक स्तम्भ है! ये वो मैथुन नहीं, मैथुन भिन्न भिन्न प्रकार द्वारा किया जाता है! मैथुन यदि संतानोतपत्ति के लिए हो तो अर्थ भिन्न होता है, सन्नति-मैथुन एक धर्म है, अपनी सन्तति को आगे बढाने के लिए! तन्त्र में मैथुन का उद्देश्य स्खलन पर जा, समाप्त हो जाता है, यहां संतानोतपत्ति उसका आधार नहीं हुआ करती! तन्त्र-शास्त्र एवम तन्त्र-व्यहव्य में, कुल सात प्रकार के मैथुन बताये गए हैं! ये मैथुन का आधार और चक्र, पुरुष हेतु चार एवम स्त्री हेतु सात होते हैं! कारण यही, कि पुरुष स्खलित होते ही 'पूर्ण' हो जाता है परन्तु स्त्री में ये और ऐसा नहीं होता! यदि सब समान ही रहे, मैथुन को मैथुन का ही आधार और अर्थ मिले तो समाज में कोई भी कुरीति इस प्रकार की पनप नहीं सकती! अफ़सोस, ऐसा नहीं होता! ऐसा अलप-ज्ञान से नहीं, अपितु 'अति' से होता है! जिस प्रकार लालच घटाए नहीं घटता, उसी प्रकार अति, मिटाये नहीं मिटती! पुरुष का 'तन्त्र' बाह्य होता है और स्त्री का अंतः! अर्थात, पुरुष बाह्य रूप से पुरुष होता है, स्खलन में वीर्यपात होते ही, वीर्य स्त्री द्वारा धारण किया जाता है! स्त्री न चाहते हुए भी, वीर्य का निषेचन अथवा विरेचन नहीं कर सकती! ये उसका शारीरिक तन्त्र है! मैथुन से आनन्द नहीं प्राप्त होता! अपितु, क्षणिक एवम अलप-सुख प्राप्त होता है! आनन्द, मिटाये नहीं मिटता और सुख, रोके नहीं रुकता! सुख बादल हैं, दुःख बादल हैं परन्तु, आनन्द, समस्त आकाश है! जिसका कोई छोर नहीं, कोई थाह नहीं, कोई सीमा नहीं और कोई सीमन नहीं! मैथुन से जो इस अलप-सुख को प्राप्त करते हैं, भले ही वो स्त्री हो या फिर पुरुष, सदैव बरसाती नाले जैसे शुष्क एवं मरुस्थल जैसे प्यासे ही रहते हैं! भीगने को बार बार अंतः-स्फुटन होता है और शनैः शनैः वो जीव इसका दास बनता चला जाता है! कितनी हैरत की बात है! कि हम जिन्हें पशु, कीट कहते हैं, वे इस ऋतु-प्रसवन को भली-भाँती जानते हैं! जैसे कोई भी पशु अपने ऋतु-आवेश में ही मैथुन किया करता है! मादा, प्रत्येक पशु को उसका स्पर्श नहीं करने देती, वो भी जाँच-परख क्र, कि उसमे उसकी आनुवंशिकी होगी, चयन किया करती है! परन्तु हम, पढ़े-लिखे, सभ्रांत एवं सभ्य ऐसा नहीं सोचा करते! इसी कारण से शिशुओं में, जन्मजात दोष आते हैं! ऐसे ऐसे रोग, जिनका कोई निदान नहीं! एक बेहद ही स्थूल तथ्य आपको बताता हूँ, जिस 'समय-वेलाखण्ड' में कोई स्त्री किसी पुरुष का वीर्य धारण किया करती है, यदि वो वेला, ऋण हो, ऋण-सूचक हो, मुखोदय हो तो सन्तान स्त्री होगी! यदि धन हो, धन-सूचक हो, पश्चोदय हो तो सन्तान पुरुष होगी! और यदि, उभयलिंगी हो, मध्योदय हो, वेलान्त पर हो, तो सन्तान, नपुंसक होगी! ये एक मोटा सा तथ्य है! लेकिन आजकल, इस 'सुपरफास्ट' संसार में, किसके पास समय है ऐसे विषय में आँखें फोड़ने को! तो अब कोई विचार नहीं करता! सब 'भगवान' भरोसे चल रहा है! अपने से ज़्यादा किसी और की समृद्धि की चिंता है! खैर, अभी तो प्रथम चरणगत है कलयुग, आगे न जाने क्या हो! तो यहां विषय का अंत करता हूँ इसका!
तो मैं रुक गया था तब! और आ क्र, साधिका के पास ठहर गया था!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"कूप-हन्त!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और उठ गयी! अलख तक गयी! अलख पर जा, भस्म ली और रगड़ ली माथे से! फिर एक घेरा सा बनाया और बायां पणव उसमे रख दिया!
"नाथ!" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"जाओ, खेलो!" कहा मैंने,
और वो हटी वहां से, मैंने अपना स्थान सम्भाल लिया! अलख में झोंक दिया ईंधन! अलख-मन्त्र का ज़ोर से जाप आरम्भ कर दिया!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"मदिरा!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और मदिरा ले आयी! मैंने तब ओख बनाई और चार घूँट खींच गया! अब तक कलेजी भून चुकी थी, कलेजी निकाली, गरम गरम टुकड़ा एक, मदिरा से भिगो, अलख में उतार दिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"भोग?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
''आओ!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"जाओ! खेलो!" कहा मैंने,
और अट्टहास खींच लिया एक, छाती से!
"नाथ!" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"संग आओ!" बोली वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं उठा और उस तक जा पहुंचा! उसका चेहरा लाल हुआ पड़ा था, तमतमा गया था, सम्भव है मदिरापान से ऐसा हुआ था! होंठ गीले हो रहे थे उसके! उसके बदन के रोएं अब खड़े होने लगे थे! घटना कोई भी हो, उसके घटने में कोई दिक्कत नहीं होती, हाँ उसकी प्रतीक्षा अवश्य ही जानलेवा हुआ करती है! पर मुझे अभी और प्रतीक्षा करनी थी! यहां मेरी प्रतीक्षा का अर्थ भिन्न था, रास्ता ही दूर था और औचित्य भी दूर ही था! यूँ कहिये कि बस अभी बीज रोपा ही गया था, सींचन करना था!
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
"यहां!" बोली वो, हाथ को, भूमि पर पटकते हुए!
"किसलिए साधिके?' पूछा मैंने, हंसते हुए, हंसते हुए, चूँकि अर्थ तो मैं उसका जानता ही था! इसीलिए हंस पड़ा था! हंसी ही तब आती है, जब कोई अर्थ, समझ से बाहर होता है और अनपेक्षित रूप से उसका रहस्योद्घाटन हुआ करता है! या, जब मन में चोर हो! अब न तो कोई रहस्य ही था और न मन में ही कोई चोर! अब यहां मामला दूसरा ही था! समझने वाले समझ ही जाएंगे, कुछ ऐसा कि जो लिख कर ही नहीं बताया जा सकता!
मैं उधर बैठ गया! साधिका ने, अपना सर, मेरे सीने में धंसा लिया! परन्तु, मैं तो अभी भी व्यूत-क्रिया में था! इस क्रिया ने मुझे कई बार हारने से बचाया था! हार! हाँ, स्पष्ट कहता हूँ हार! मानस हूँ, सभी दुर्गुणों की खान हूँ! और खनिज तो पूछो ही मत! एक को हटाऊँ तो दूसरा जुड़ा मिलता है, उसे हटाता हूँ तो तीसरा! अब खोखला कैसे हो जाऊं! और हाँ! जब तक मनुष्य 'खोखला' न हो जाए तब तक वो पूर्ण भी नहीं! है न कैसी विडम्बना! वैसे एक बात कहता हूँ, खोखला होना सबसे दुष्कर कार्य तो है ही, और जो हुआ, वो तो सिद्ध हुआ! बुद्धत्व प्राप्त हो गया उसे! परन्तु, ये इतना सरल नहीं! इस सरलता में घोर श्रम है! श्रम! शारीरिक नहीं, मानसिक भी नहीं, बस, भावनाओं का श्रम! अब भला भावनाओं का श्रम क्या हुआ? क्या अर्थ हुआ इसका? जल से जल उठाया हाथ भर, और पुनः जल में छोड़ दिया! जल, जल ही रहा! न रंग बचा, न भेद कोई न ही वो गर्म हुआ और न ही ठंडा! परन्तु, श्रम! हाँ, श्रम हुआ! समझे आप? अर्थात, हम सभी मानुष भावनाओं से जुड़े हैं! किसने जोड़ा है? मस्तिष्क ने ही, आसान है उत्तर! इसी कारण से, हम स्त्री स्त्री में अंतर किया करते हैं, कोई बहन श्री है तो कोई माँ, कोई पत्नी और कोई बुआ, मौसी आदि आदि! ये समाज की परम्परा है, एक सभ्य समाज की देन और उसका मूल! समाज किसने बनाया? हमने! आदि आदि बनाया हमने! तो कुरीतियां किसने बनायीं? हमने ही! क्या भला है, क्या बुरा, क्या गर्म है और क्या शीतल, क्या सुख है और क्या दुःख, ये सब, भोगने से ही पता चलता है! है या नहीं? इसे ही कहते हैं भावनाओं का श्रम! जिस से प्रेम करते हो सर्वाधिक, वो भी एक जीव है, हम सभी सा, एक साधारण सा ही तो! विशेष, बस हमारे लिए ही ना! तब? तब उस से छिलना सीखो! छिलना, अर्थात, दूर जाना नहीं, बल्कि वो भी एक ही जैसा है, सभी के जैसा, ऐसा! भावनाओं से खेलो नहीं, उन्हें पोसो नहीं, उन्हें, सींचो नहीं, लेकिन! दबाओ भी नहीं! दबाओगे, तो यही कच्चा पड़ेगा, कच्चा मतलब, आपकी कमज़ोरी! जल उठाया, छोड़ दिया, अर्थात? जल, जल ही है, मैं, तुम, वो, ये आदि सब एक ही हैं! न कोई विशेष, न कोई अति-विशिष्ट! ऐसा कैसे सम्भव? करो! तो करो न श्रम, भावनाओं का श्रम! जानते हैं, भावनाओं के क्या प्रकार हैं? जानते हैं? मात्र एक! मात्र, एक ही! लगाव, चाहत, प्रेम, स्नेह ये सभी एक ही होते तो शब्द भिन्न नहीं बनाये जाते! लगाव किस से? जो आपसे लगाव न रखता हो! जिसको देख कर जी भरे, भरत ही जाए, वो लगाव हुआ! चाहत, चाहत, हमेशा दबी हुई रहती है! चाह, कभी पूर्ण नहीं हुआ करती! सूक्ष्म अर्थ है, समझ लेना, मुझे शत प्रतिशत विश्वास है कि कोई भी समझ सकता है इसे! तो चाहत, कभी बाहर नहीं आती! स्नेह! स्नेह सदैव कमज़ोर, अशक्त से होता है! जैसे, कोई अशक्त शिशु! कोई अशक्त, प्यारा सा पशु, बालक या बालिका! स्नेह का अंत नहीं होता, मात्र यही है, जिसका कोई विलोम नहीं! तो ये भी समझ गए होंगे आप! अब प्रेम! प्रेम के कई अर्थ हैं! मोटा मोटा, एक तो, दो विभिन्न लिंगी जीवों(हम मनुष्य) के बीच प्रेम! इस प्रेम का विलोम है, घृणा! प्रेम जितना घर होगा, घृणा दूनी होगी उस से! घृणा, सदैव दो क़दम बढाकर रखती है आगे अपने आपको! क्या एक पुरुष, किन्ही दो विपरीत लिंगियों से प्रेम कर सकता है? बताइये? स्पष्ट सा उत्तर है, हाँ! कर सकता है, और पुरुष ही क्यों, कोई स्त्री भी तो! इस प्रेम का अर्थ भिन्न है! साफ़ बताता हूँ, प्रेम रेत के कणों पर बनी आकृति के समान हैं, जिसको, परिस्थितियों और यथार्थ की लहरों से परीक्षित होना पड़ता है, एक बार नहीं, कई बार, और कभी-कभार तो, कई कई बार! प्रेम में विश्वास हो तो दृढ़, विश्वास और समर्पण हो तो सुदृढ़ और इसमें, काम मिला दिया जाए तो, शाश्वत होता है! ये तन्त्र-मत है, आपको बताया! तंत्रज्ञ मनीषियों ने विचार कर, परख कर, ये नियम बनाये हैं! ये नियम अकाट्य हैं, और इनका कोई प्रतिवाद भी नहीं! शिव, सर्वज्ञ हैं, सर्वप्रथम हैं, सर्वेश्वर हैं, सुगाह्य हैं परन्तु सम्पूर्ण नहीं! वो, बिन शक्ति के, सम्पूर्ण कदापि नहीं! जब शिव और शक्ति का मिलन होता है, तब, सृजन होता है! शक्ति का प्रस्फुटन होता है! योनियों का उद्गम होता है! इसीलिए, शिव को अकेले नहीं पूजा जाना चाहिए, चूँकि वे, उस समय ध्यान-मुद्रा में नहीं होते! एकांत में शिव, ध्यान-मुद्रा में होते हैं! श्मशान में, शिव सदैव खड़े ही रहते हैं और श्मशान के ठीक उत्तर में, शिव के साथ, शक्ति भी स्थापित रहा करती हैं, वे सम्पूर्ण हैं! ध्यान-मुद्रा के शिव को, मात्र दशानन रावण, असुरराज बलि एवम बाणासुर ने ही जगाया है! और किसी में ये साहस नहीं! भले ही कोई राजस-प्रमुख हो, या सत-प्रमुख! ये, बस उनके ध्यान से बाहर आने की प्रतीक्षा करते हैं! ये शिव-रहस्य है! और भी कई रहस्य हैं शिव से सम्बन्धित, समय मिला तो अवश्य ही बताऊंगा!
मैं हंसे लगा था! ऋण, जब आवेग में होता है, उस पर, आवेश वश करता है, तब, उस तीक्ष्ण को कोई सम्भाल नहीं सकता! उस समय ये ऋण, किसी भी रश्मि को भी चीर कर रख देने का बल रखता है! इस बल को, धन से मात्र सन्तुलित किया जा सकता है! इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आपने अवश्य ही देखा होगा, गाहे-बगाहे देखा ही जाता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शक्ति, प्रधान होती है! और शैव से जब उसका मिलन होता है, तब शिव का उत्सर्जन होता है! शक्ति का ह्रास नहीं होता! ऋण, कदापि अनावेशित नहीं होता! जिस प्रकार, पुआल में लगी आग, हवा पाते ही भड़क जाया करती है, ठीक वैसे ही, शैव-पवन आ कर, इस शक्ति को प्रभावित किया करती है! युग्म से सृजन होता है! और फिर पुनःसृजन! यही प्रकृति है और यही इस प्रकृति का अकाट्य नियम! काम के, ठीक ऐसे ही, नौ प्रधान भेद हैं! इस विषय में, अनेक ग्रन्थ लिख दिए गए, टीकाएँ गढ़ी गयीं, एक नयी विचारधारा का जन्म हुआ! ये विचारधारा आगे बढ़ती चली जा रही है! पाश्चात्य संस्कृति में अपनी पैठ बनाने वाली, और अब तो एक स्तम्भात्मक रूप से मान्य, तांत्रिक-सेक्स पद्धति हमारे इन्हीं मनीषियों की देन है! परन्तु, उस परिपेक्ष्य में, विचारों में, सभ्यता में, इसका स्वरुप ही बिगाड़ दिया गया है! अब ये मात्र पिपासा के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं, यूँ कहा जाए कि ये सब अर्थहीन है, ठोस नहीं ऐसी कोई पद्धति नहीं, ऐसी कोई विचारधारा हमारी नहीं, तो कदापि गलत न होगा! काम को यदि विधा में लिया जाए, पोषित किया जाए तो कुछ अर्थ समझ में आता है! नहीं तो ये मात्र रैनिक ही है! रैनिक, अर्थात वो स्त्री, जो नव-गणिकाओं को, काम से परिचित करवाया करती हैं! इसका छिपा हुआ अर्थ कोई नहीं जानता! यहां रैनिक का उद्देश्य, सिखाना नहीं, धन हुआ करता है! कि कैसे, कोई नव-गणिका अपने मादक सौंदर्य से किसी सबल पुरुष को, घुटने टिकवा दे! कैसे उसका दास बन जाए वो! तो ये पाश्चात्य पद्धति, मात्र रैनिक से अधिक और कुछ नहीं! दैहिक-सुख, सुखोन्तपद में, निकृष्ट रूप में रखा गया है! दैहिक सुख का लाभ तो मात्र पशु ही लेते हैं! कि कैसे नाक से नकेल निकले! किस कैसे, कन्धों से जुआ उतरे! कि कैसे, मुक्त हो, स्वच्छन्द विचरण करें! ये है दैहिक-सुख! देह से प्राप्त सुख भी इसी श्रेणी में ही गिना जाता है! मनुष्य का अर्थ क्या? उसका मनुष्य होने का लाभ क्या? आपने लोभ शब्द सुना है, एक और इसी से मिलता-जुलता शब्द है, जिसे, सुलोभ कहा जाता है! अब लोभ और सुलोभ, इनमे अंतर क्या? मोठे तौर पर, लोभ में लालच भर होता है, कामनाएं, आकांक्षाएं कुछ सुप्त, कुछ व्यवहारिक! सुलोभ? सुलोभ का अर्थ हुआ, जिसका लोभ न हो! है न अजीब और अलग ही! बुरे अर्थों के लिए, इस सुलोभ का दूर दूर तक कोई नाता नहीं, इसीलिए अब ये शब्द, मृतप्रायः ही है! मुझे, बाबा आंजनेय ने इस विषय में बताया था! ये सम्प्रेषित हो गया था! एक बात और बताता हूँ! कुआँ गहरा ही रहना चाहिए, जिसका तल लग जाए, वो कुआं, कुआं नहीं, नष्टप्रायः ही समझना चाहिए! अर्थात, खुद को जानिये! अंदर तक जानिये! कुछ अवरोध मिलेंगे! अवश्य ही मिलेंगे! नहीं मिलें तो जल शीतल एवम मृदु न होगा! पीने योग्य तो कदापि न होगा!  जितना खोजोगे भीतर ही भीतर खुद को, उतने गहरे हो जाओगे! और एक समय आएगा, जब, कुछ सुनाई नहीं देगा! कुछ दिखाई नहीं देगा, कुछ महसूस न होगा, कोई पीड़ा नहीं, कोई सम्वेदना नहीं! बस एक ही स्वर! एक ही स्वर! क्या स्वर? यही कि, मैं अभी भी अज्ञानी हूँ! पता नहीं, कितना जीवन कटे! पता नहीं इस जन्म में पूर्ण होऊं या नहीं? यदि नहीं तो कितने में? ऐसे ऐसे प्रश्न आएंगे! और तब ये अवरोध, पत्थर नहीं, कंकड़ नहीं, शिलाएं नहीं, पर्वत होंगे! पर, आपको ही करना है! कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं, न माँ, न बाप, और न ही वो, वो ईश्वर ही! अब ईश्वर खाली बैठा है मेरे जैसे या आपके जैसों को देखने के लिए? जुए में हराया है उसे? कोई वचन हार गया है वो? तो! ये पर्वत जब पर करोगे, सन्ध्या हो सकती है, प्रयास कीजिये! कीजिये कि जल्द से जल्द पर लग जाएँ! और तब! तब और ऊँचा पर्वत! चलते चलो! चलते चलो! स्मरण रहे! नाश, देह का होगा! होगा ही, अमर कोई नहीं होता! आशीष प्राप्त करता है! ये आशीष कब मिले, कहाँ मिले, कैसे मिले, कोई नहीं जानता! स्वरहीन, श्रवणहीन, नेत्रहीन, संवेदनाहीन जब हो जाओगे, तब प्रकाश दीखेगा! यही तो है सबकुछ! जो पीछे छोड़ा, वो तो भ्रम था! अवरोध थे! मिथ्या था! ऐसा क्या कहूँ जो कहा जाए? ऐसा क्या सुनूँ जो सुना जाए? ऐसा क्या देखूं जो देखा जाए? ऐसा क्या महसूस करूँ जो महसूस किया जाए? कहाँ है वो? कहाँ मिलेगा ऐसा? लोभ करूँ, तो किसका? सुलोभ करूँ, तो त्याज क्या दूँ? क्या उठाऊं जो पूर्ण हो? क्या न उठाऊं जो पूर्ण ही नहीं! लाज मेरी! हाय! किस से कहूँ! क्या करूँ? अगन! मेरी ही अगन दहका जाए मुझे! प्रश्न, कहाँ से लाऊं? उत्तर की तो सोचूं भी कैसे? मैं क्या हूँ? कौन हूँ? किसलिए हूँ? मेरा औचित्य क्या? महत्व क्या? मेरी तो मृतदेह भी काम की नहीं? पशु की तो फिर भी काम आये! सड़ांध मारेगी जो दो दिन करवट न बदले मृतदेह मेरी! पशु का तो चर्म भी काम का, अस्थि भी, सींग भी, आंतें भी और मांस भी! और मैं! हाय! क्या गति होय? कहा मिलै मोय! कासे कहूँ? मेरी तो कोई सुनता भी नहीं! किसको सुनाऊं? तो करूँ क्या?? तो, आप, अपना प्रकाश स्वयं हैं! जलाइए खुद को! फैला दो प्रकाश! सब आप में है! सब का सब!
"नाथ?" आयी आवाज़!
"साधिके?' कहा मैंने,
"मदिरा!" बोली वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
और घाल दी मदिरा कपाल-कटोरे में, उसके मुख से लगाया और पिलाने लगा उसे! वो भूमि पर बिछे कम्बल को, गुड्ड-मुड्ड करे! मदिरा की कड़वाहट, जब आनन्ददायक होने लगती है, तब पूरे शरीर में आवेश भर देती है! तो उसने पी ली मदिरा! मैंने भी, उसी कपाल-कटोरे में, मदिरा डाल ली और पी गया! कलेजी का टुकड़ा खाया और उसे भी खिलाया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"मिथांगी समय हो चला!" कहा मैंने,
"मैं तैयार हूँ! आदेश! फट्ट!" बोली वो, मेरे सामने हाथ जोड़ते हुए!
"आशीष! आशीष मिथांगी!" कहा मैंने,
और उठ खड़ा हुआ! जा पहुंचा अपनी अलख पर! अब, मिथांगी का आह्वान करना था मुझे!


   
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मिथांगी! मसान-गणिका! इसका ही आधिपत्य रहता है, समस्त काम-क्रिया पर श्मशान में! क्रिया से पूर्व, इसका आह्वान आवश्यक होता है, अन्यथा वो क्रिया पूर्ण नहीं की जा सकती! जिसका जो स्थान है, वो उसमे और उस क्षेत्र का अधिष्ठाता होता है! इसका अर्थ ये हुआ कि मिथांगी का ही ये क्षेत्र है! अब आप सोचिये, पाश्चात्य-संस्कृति में तांत्रिक-सेक्स की जो मान्यता है, वो असल में आखिर है क्या! विकृत मानसिकता! और कुछ नहीं! मात्र कुछ नया ही और, कुछ ऐसा जिस से कुछ अधिक ही 'आनन्द' प्राप्त हो! तन्त्र इस अवधारणा को खारिज़ करता है! जिसे हम देखते हैं, वो है क्या, और किस स्वरुप में दीखता है, ये व्यक्ति की सोच पर निर्भर करता है! सोच, स्थायी हो सकती है, अवधारणा कदापि नहीं! यहां मुझे मिथांगी का आह्वान करना था, मिथांगी को, प्रवेश करना था इस साधिका में, और फिर ये साधक, मात्र उसके आदेशों का पालन ही करता! तब साधक का कुछ नहीं! कुछ शेष नहीं रहने वाला था! कुछ रहता, तो वो प्राप्त होना था, जो प्राप्त होना था, वो कुँजी थी, कुंजी मिले तो ताला खुले, ताला खुले तो मार्ग मिले, मार्ग मिले तो चलूं उस पर, चलूं तो कोई विघ्न न हो, विघ्न न हो तो? तो दूसरी साधिका और उसके साथ, विघ्न हटाने वाली एक श्मशानी क्रिया! आज मिथांगी, कल लिहिका! लिहिका संग संसर्ग, और तब, तब एक दांव! दांव हारे तो गंवाया इस क्रिया का लाभ! और जो जीते, तो एक मनका और जुड़ा!
काम को स्थिर रखने का, और काम को नियंत्रित करने का अर्थ, कुछ एक को, समान सा लग सकता है, परन्तु ऐसा है नहीं! दोनों ही विलोम हैं एक दूसरे के! स्थिरता अलग है, और नियंत्रण, अलग! नियंत्रण, स्तम्भन है! और स्थिरता, दोहन!
"नाथ?" बोली वो,
"ठहरो!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कुछ पल!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"रुकना होगा!" कहा मैंने,
"सम्भव नहीं!" बोली वो,
"सम्भव बनाना होगा!" कहा मैंने,
"न बने तो?" बोली वो,
"वो मेरा कार्य!" कहा मैंने,
उसने तभी झटका खाया! दोनों हाथों को आगे फैला, सर उनके बीच रख, घुटने मोड़, कम्बल पर, शीर्षण-मुद्रा में आ गयी! मई जनता था कि क्या होने वाला है! इसीलिए, ज़ोर और तेज तेज, मंत्रोच्चार करता चला गया!
"लम्भन लम्भन दुह्सलम्भन............................................ख्राम......फट्ट!!" मन्त्र चलते चले गए! मन्त्र ध्वनि से श्मशान में हरकत होने लगी! लगा, तेज आंधी आने को है! लगा, ऊपर बने बादल, फट पड़ेंगे! भूमि, फट जायेगी!
"नाथ?" बोली वो,
मैंने उत्तर नहीं दिया!
"नाथ?" बोली वो,
कोई उत्तर नहीं दिया मैंने!
"सुनिए?" बोली वो,
"बोलो!" कहा मैंने,
"आ जाओ!" बोली वो,
"थामो!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"मानो?" बोली वो,
"नहीं! नहीं! नहीं! हैं??" अब चीखी वो!
मैंने देखा उसे, कांपने लगी थी वो! एक एक कर, मन्त्र-वाहिका बींधने लगी थी उसकी देह को!
"साधिके?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं दिया उसने!
"साधिके?" मैंने फिर से कहा,
नहीं! कोई जवाब नहीं!
"साधिके?" कहा मैंने,
अब भी कोई उत्तर नहीं! तब मैंने, भस्म उठायी और पढ़ उसे, फेंकी उधर, फेंकने से पहले ही, जम्हाई ली उसने! और उठ बैठी! मैंने वो भस्म, वहीँ अलख में गिरा दी और देखने लगा उसे! वो चारों तरफ ऐसे देख रही थी, कि जैसे उसको ला पटक हो उधर, और अब मुक्त कर दिया गया हो!
"साधिके?'' बोला मैं!
उसने एक झटके से मुझे देखा!
"तू कौन?" बोली वो,
"जजर!" बोला मैं,
"किसका?" बोली वो,
"तेरा!" कहा मैंने,
"किसका?" उठी वो, और चली आगे, मेरे पास आकर, रुक गयी, न झपकने वाली आँखों से देखा मुझे! नथुने फड़कने लगे थे उसे! आधा चेहरा, केशों से ढक गया था उसका! मैं भी उठ खड़ा हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"साधिके?" कहा मैंने,
"जजर?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मेरा?" बोली वो,
"हाँ! तेरा!" कहा मैंने,
जजर, मायने, याचिका-कर्ता! याचना ही तो थी ये! एक अलग प्रकार की याचना! जिसे, भांपे तो बस ये मिथांगी!
उसने देखा मुझे गुस्से से! होंठ कँपकँपा गए उसके और उसने मुझे, दोनों हाथों से, मेरी गर्दन से पकड़ लिया! और देने लगी धक्का आगे! मैं, श्वास लूँ, बार बार! जानता था, यही तो होता है! और झटका दे, मुझे फेंक दिया नीचे ज़मीन पर! मैं उठता, इस से पहले ही, मेरे ऊपर आ बैठी वो! मेरे कंधे नोंचे और मैं, मन्त्र पड़ता जाऊं! मैं निकलूं, तो निकलने न दे! पत्थर की तरह से सख्त हो गयी थी उसकी देह! और वजन, ऐसा कि जैसे पहाड़ ही रख दिया गया हो मुझ पर! मैंने मन्त्र पढ़े और तब, एक श्वास भर, उसके वक्ष पर छोड़ दी! उसके हाथ छूटे और मेरे पांवों से, उसका सर आ लगा! अब मैं खड़ा हुआ! और लगाने लगा उसके चक्कर! वो लेटे लेटे ही, मुझे घूरे! घूरती जाए, घूरती ही जाए और कुछ ही क्षणों के बाद!
कुछ ही क्षणों के बाद, वो उठ बैठी! मुझे पकड़ लिया मेरी जंघाओं से, सर रख दिया घुटनों के बीच मेरे! अब समय आन चला था! मैंने, श्वास नियंत्रित की और बैठा उसके पास! अब वो, लजाये! चेहरा न उठाये ऊपर! अपने आप में सिमटी जाए! साड़ी लाज, जैसे उसने ही ओढ़ ली हो अपने बदन पर! अपने गुप्तांगों को छिपाए! न वक्ष ही दिखे और न योनि-प्रदेश ही!
"साधिके?'' कहा मैंने,
उसने ना में सर हिलाया अपना!
मैं बैठ गया तो सर नीचे कर लिया उसने! उसके पांवों की उंगलियां, खुल गयी थीं! पाँव आगे, अधोतल हो चले थे! पिंडलियाँ, जैसे घुटनों के पास आ चली थीं, बदन, कस गया था उसका! मैंने अपने हाथ से उसकी चिबुक उठाने के लिए सोचा, जैसे ही हाथ लगाया तो झटका दे चेहरे को, एक तरफ कर लिया!
"साधिके?" बोला मैं,
"हूँ!!" बोली वो,
"मैं कौन?" पूछा मैंने,
"वेणिक!" कहा उसने!
"तू कौन?" पूछा मैंने,
"त्वङ्गा!" बोली वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"तुम्हारी!" बोली वो,
"मैं आकांक्षी हूँ!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
"खवेदक हूँ!" बोला मैं,
"हूँ!" कहा उसने,
"मुझे, सौंप दो!" कहा मैंने,
"बोलो!" बोली वो,
"सर्वस्व!" कहा मैंने,
"कारण?" बोली वो,
"कक्षि हो न?" बोला मैं,
"हूँ!" बोली वो, और सर फिर से नीचे कर लिया!
"साधिके?'' बोला मैं,
"हूँ!" बोली वो,
"बोलो?" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"औहिके!" कहा मैंने,
"बोलो!" कहा मैंने,
"वरण करने दो!" कहा मैंने,
"किसका?'' बोली वो,
"इस साधिका की देह का!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
"स्वीकार है?" पूछा मैंने,
अब चुप हो गयी! बहुत ऊँचा खेल खिलाती है मिथांगी! खिला रही थी, मैं खेल रहा था!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"इसको......!" बोलते बोलते रुकी वो!
"बोलो?" कहा मैंने,
"जानते नहीं हो?" बोली आह भर के!
"ये नहीं!" कहा मैंने,
"दूज होगी!" बोली वो,
"ना!" कहा मैंने,
"लाभान्वित हो जाओगे!" बोली वो,
"प्राण हर के नहीं इसके!" कहा मैंने,
"कारण?" बोली वो,
"लाभ नहीं!" कहा मैंने,
"मेरे होते?'' बोली वो,
"हाँ! तेरे होते!" कहा मैंने,
और जैसे ही मैंने ये कहा! कि.....................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"समझा?'' बोली वो,
"हाँ, एक एक शब्द!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"सोपान दीखता है मुझे!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
"आशीष!" कहा मैंने,
"जो, हारकण्ठी?" बोली वो,
"असम्भव!" कहा मैंने,
"स्पष्ट?" पूछा उसने,
"स्वतः ही!" कहा मैंने,
और मैं खड़ा हो गया! अब व्यूत से मुक्त होना था! मित्रगण, व्यूत से काम को बाँधा जा सकता है, रोका जा सकता है, नियंत्रित किया जा सकता है, परन्तु, उसे पूर्ण रूप से दबाया नहीं जाया जा सकता, कुचला नहीं जा सकता! जो काम से ही न भड़के, वो कौन हुआ? वो क्या हुआ? नपुंसक? नहीं! वो तो कदापि नहीं! फिर? कोई शब्द? हाँ! है! है ऐसा शब्द! जीतेंद्र! लेकिन, कौन जीतेन्द्र? जितेन्द्र नहीं! दोनों में अंतर है! मात्रा का अंतर तो स्पष्ट है, दीख पड़ता है, परन्तु अर्थ में भी अंतर है! अब भला क्या अंतर? हमने तो कभी ग़ौर ही न किया! हम तो जानें कि इंद्र को जीतने वाले को, जितेंद्र कहते हैं! लेकिन, गलत! ये तो अर्थ ही गलत! परस्थिति को जीतने वाला, भले ही किसी भी मान-दण्ड से, वो जितेन्द्र हुआ! और जो, स्वयं, स्वयं की इन्द्रियों को जीते, पर पाए! हाँ, पर पाए वो, जीतेंद्र हुआ! मित्रगण! पुरुष में दो भेद हैं! एक पुरुष, पुरूषोचित होता है और एक, स्त्रियोचित! अर्थात, ऐसे पुरुष में, जिसमे स्त्री-भाव अधिक हों, स्त्रियोचित गुण अधिक हो, अब भला वे गुण क्या? बताये देता हूँ! लाज, रूप को निहारना, बन-ठन के रहना, श्रृंगार करना, सूक्ष्म भावनाओं को पालने वाला पुरुष, स्त्रियोचित गुणों से भरपूर होता है! तब पुरुषोचित पुरुष कौन? जो, भावनाओं से परे हो, कैसी भावनाएं? वे भावनाएं, जो, राज-धर्म के आड़े आती हों, पत्नी-धर्म के आड़े आती हों, पिता-धर्म के आड़े आती हों, मातृ-धर्म के आड़े आती हों, उन्हें दरकिनार करने वाला, बन-ठन के न रहने वाला, श्रृंगार से दूर रहने वाला, सूक्ष्म-भावनाओं में न बहने वाला पुरुष ही, पुरुष होता है! युधिष्ठर श्री को भी यही बात, श्री कृष्ण ने समझाई थी! युधिष्ठर श्री तो बस, एक ही धर्म का पालन करते थे और वो, मात्र सत्य-धर्म! वे जानते थे कि अर्जुन ने, उस मनुष्य को तत्क्षण ही मारने की सौगन्ध खायी है जो उसको उसके गांडीव को फेंकने को कहे! कर्ण के हाथों हुई पराजय से, कर्ण के द्वारा युधिष्ठर के प्राण दान देने से, अर्जुन को युधिष्ठर श्री ने यही कहा था कि जाओ और फेक दो अपना ये गांडीव! आगे क्या हुआ, सभी जानते हैं, इस समय उल्लेख नहीं करना चाहिए!
ठीक उसी तरह, स्त्री में भी दो प्रकार हुआ करते हैं, यही दोनों! ठीक से चयन होना चाहिए भिन्न, दो लिंगियों में अन्यथा, यही सब, जन्मजात दोष पाए जाने लगते हैं! स्मरण रहे, बिना श्याम के, श्वेत का कोई आधार नहीं, और बिन निशा के, दिवस का कोई महत्व नहीं! ये आवश्यक भी हैं और प्रकृति के अकाट्य नियमों द्वारा पोषित हैं! दूर न जाइये, प्रकृति को ही समझा जाए, तो अथाह ज्ञान भंडार सर्वत्र बिखरा मिलेगा! बनिस्बत इसके, कि सूर्य की रचना किसने की, धरा का निर्माण किसने किया आदि आदि!
तो यहां, मेरी साधिका में प्रविष्ट वो मिथांगी, मुखे प्रलोभित किये जा रही थी, उसने तो वचन भी दे दिया था कि मेरे होते? परन्तु, जिसका सृजन आप नहीं कर सकते, उसका अंत भी नहीं किया जा सकता और ना ही किया जाना चाहिए!
"त्रितयं प्रहर आन पहुंचा!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
और मैंने, इसे उसकी स्वीकृति मानी! और तब, मैंने संसर्ग-निवेदन समक्ष रखा उसके! तीन प्रश्न, वो प्रश्न, नहीं बताये जा सकते! उसने पूछे मुझसे और मैंने नीतिगत और तन्त्रज्ञानगत रूप से उत्तर दिया उसे! वो प्रसन्न हुई! और इधर, मैंने अपने को व्यूत से मुक्त कर लिया! कामेश्वरी का ध्यान किया और शैव-गणम एकत्रित कर, संसर्ग हेतु तत्पर हो गया! तन्त्र में पुरुष कदापि मर्दन नहीं करता स्त्री का, वो बस, दास होता है, उसकी कामेच्छा का, पुरुष बस, उस स्त्री की कामेच्छा को बुझने नहीं देता, इसके लिए कई साधन हैं, जो जन-साधारण रूप से भी करना असम्भव नहीं!
तो मैंने नीचे स्थान लिया, ये, उवाल-मुद्रा थी, मैंने इस मुद्रा में, अपने आपको छोड़ दिया था, अब, मिथांगी ही जाने, जो जीत गया, तो आगे, जो हारा तो अर्थहीन ही हो जाती ये साधना!
उसने, कण्डव-मुद्रा में, मेरे लिंग-स्थान पर, योनि-स्पर्श किया और तदोपरान्त मैंने, कुछ इसी समय हेतु के मन्त्र मन ही मन जपने शुरू किया! वो शांत मुद्रा में थी, और मेरा रोम रोम, मुझे जलता सा प्रतीत होने लगा था! जैसे, मेरा रुधिर, विपरीत दिशागमन करने में जुट गया हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर, मर्दन आरम्भ हो गया! पीड़ा बहुत हुई, ऐसा ही होता है, मैंने बताया था कि उसकी देह एक पाषाण समान सी कठोर हो चली थी, मुझे ऐसा लगने लगा था कि जैसे मैं चाकी के दो पाटों के बीच में पीसा जा रहा होऊं, एक एक डॉन मुझे एवम मेरी स्वास को लघु करता चला जा रहा था! परन्तु, मैं यहां अब एक और अलग ही क्रिया के बीच था, ये नभ नहीं, न ही व्यूत, व्यूत में, लिंग-तनाव नहीं रहता, यहां इसकी आवश्यकता नहीं थी, तन्त्र के अनुसार, पुरुष-लिंग में, छह कोष्ठ हैं और ये छह, अपने अपने अलग ही कार्य को सम्पन्न किया करते हैं, प्रथम कोष्ठ, जंघाओं के बीच, लिंग आरम्भ में है, यहां सम्वेदना, शून्यप्रायः रहा करती है, चाहे लिंग शिथिल हो अथवा उत्तेजक स्थिति में ही क्यों न हो! व्यूत इस पर कोई प्रभाव नहीं डालता, दूसरा कोष्ठ, उस से नीचे, दो अंगुल समान रहा करता है, यहां से मात्र रुधिर का संचालन ही होता है, यहां की नसें, सामान्य शरीर के अनेक नसों में से भिन्न हुआ करती हैं, यहां रुधिर-प्रवाह की मौलिकता रहा करती है, अन्य कोई कार्य नहीं इसका, तीसरा भी दो अंगुल समान ही रहता है, यहां पर, मूत्र-वाहिनि एवं, शुक्र-वाहिनि अपना अपना कार्य किया करती हैं, तब इन दोनों के ही कार्य भिन्न हो जाया करते हैं, ये मूल रूप से प्राकृतिक ही है और इसको समझने के लिए, अति-सूक्ष्म ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, तन्त्र के अनुसार यहां शुक्र-वाहिनि, बहत्तर हज़ार अन्य सूक्ष्म-सम्वेदिकाओं को नियंत्रित करती है, शुक्र में कोई अवयव विजातीय न हो, कोई दोष न हो, कोई रुधिर-अंश न हो, इसका निर्धारण किया करती है! व्यूत यहां कार्य करता है, व्यूत में शुक्र-वाहिनि एवं मूत्र-वाहिनि को एक समान ही रहने दिया जाता है, शुक्र को प्रबल नहीं होने दिया जाता इस क्रिया में! चौथा कोष्ठ, आधा सम्वेदनशील हुआ करता है, यहां, शुक्र को गति मिलती है, अर्थात, वेग मिलता है, शुक्र-वाहिनि से गुज़र कर जब शुक्र यहां से गुजरता है तब ये स्वतः ही बीच बेच में बन्द और खुलने लगती है, जिस से शुक्र को वेग मिलता है और शुक्र या वीर्य योनि में ठीक स्थापित हो जाता है! पांचवा कोष्ठ अति-सम्वेदनशील होता है, ये शिश्न-स्थल है, इसे ही सम्वेदना महसूस होती है और उत्तेजना का जनक यही है, इसकी सम्वेदना खत्म हो, या ये सुन्नावस्था में ही रहे, खतने का प्रावधान कई जगह मान्य है, वीर्य-स्खलन में यही स्थल सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट है! आप जो शिव-लिंग देखते हैं, वो दो, भिन्न भिन्न आनुमानिक, काल्पनिक चित्रण है,ऊपर का भाग, शिश्न है, परन्तु, शिव-लिंग का मुख्य उद्देश्य योनि में प्रविष्ट लिंग ही होता है! ये प्रतीकात्मक चिन्ह कहा जा सकता है, सृजन का! प्रकृति का! शिव एवं शक्ति का भौतिक-मिलन प्रतीक! तन्त्र में स्खलन का बहुत ही बड़ा महत्व है! स्खलन से वीर्य को, तंत्रानुसार, उसके गुण मिला करते हैं! इसी के कारण, मनुष्यों में भीं भीं प्रवृतियां मिला करती हैं, इसी प्रकार, एक सा रूप लिए भी जुड़वां सन्तान की अभिरुचियाँ, गुण एवं प्रवृति भिन्न हो जाया करती हैं! अब छठा कोष्ठ, ये वो कोष्ठ है, जो सबसे बाद में कार्य करता है ये है शुक्र-वाहिनि का उद्गम-स्थल अर्थात अंडकोष! अंडकोष, सदैव ही कार्यरत रहा करते हैं, मात्र जलवायु के अतिरिक्त अन्य कोई प्रभाव इन पर नहीं पड़ता, यहीं से शुक्र का निर्माण होता है! स्त्रियों में भी इसी प्रकार कुल नौ कोष्ठ हैं! ये कभी बाद में बता दूंगा, जब आवश्यक हुआ तो! हाँ, इतना बता देता हूँ, कि कुछ विधाएं ऐसी हैं जिनसे कोई भी, स्त्री मात्र क्षणों में ही स्खलित हो जायेगी! ये सब, काम-शास्त्र में नहीं, किसी भी शास्त्र में नहीं, ऐसा कहूँ तो कोई बड़ी बात नहीं! पुरुष का अंगूठा उसकी काम-वृति और स्त्री की कनिष्ठा उसकी काम-वृति का सूचक होती है! काम-शास्त्र में कुल चौरासी आसन वर्णित किये गए हैं, परन्ति ये कुल एक सौ बारह हैं! आठ, याक्षिक, आठ, दैविक, आठ, राजसिक एवं चार शेष, सत्व से परिपूर्ण हैं! मनुष्य अपनी प्रवृति, से ही जाना जाता है! खैर...फिर कभी!
"जजर?" बोली वो,
"साधिके!" कहा मैंने,
"लोमकञ्चक हुई मैं!" बोली वो,
"अहो!" कहा मैंने,
"दृक्ष भवः!" बोली वो,
मेरे नेत्र बन्द हुए! एक 'झाल' हाथ लगा!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"ह्म्म्म!" मरमराई वो!
"बढो!" कहा मैंने,
"ह्म्म्म!" फिर से चिकलाई से वो!
और मैं, मन्त्र, पढ़े जा रहा था, मुझे, अपने आसपास, किसी की मौजूदगी का अहसास भी निरन्तर होने लगा था! मेरा कोई न कोई हिस्सा, कभी गर्म और कभी सर्द सा होने लगता था! मैं जिस क्रिया में था, नियंत्रणावस्था में, कोचित हो, ये हंदोड़ाय अवस्था होती है! ब्रह्म-डंडी की भस्म, शुद्ध शहद में भिगो, कोई, दस ग्राम, चाटी जाए, तदोपरान्त वट-वृक्ष का दूध चार बून्द, चाटा जाए तो कुछ ही क्षणों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है! क्या प्रभाव? आजमाओ और बताओ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मर्दन मध्यावस्था को त्याग अब, अंतिम चरण में पहुँच चुका था! मेरे पूरे बदन में चिंगारियां सी फूट रही थीं! बदन शिथिल तो नहीं, हाँ, जड़त्व को कब प्राप्त कर लेता, कहना आसान नहीं था! मेरे बदन में, एक अगन सी मची थी, एक अगन, जिसकी लौ, बार बार मेरे बदन के हिस्से में अंदर ही अंदर, कहीं भी जाकर, रुक जाती थी, कभी सर में, कभी ग्रीवा में, कभी सीने में, कभी कन्धों में, कभी उदर में, कभी लिंग-स्थल में और कभी उस से भी नीचे! मेरी समस्त मांस-पेशियां खिंच कर जैसे आपस में जा चिपकी थीं! मेरे बदन के, हर हचके से, हिज्जे से बिखर जाते थे! मैं सन्तुलित होता, और शिश्न पर, योनि-ताप और स्राव महसूस करता, ये मुझे शिथिल होने को विवश करता, मैं, तब, काम-पंजुक को फिर से नियंत्रित करता और ठहरने को ठहरता! वो मुझे बार बार, आहत सा करती थी, आहत, प्रत्येक हचके में, मैं जैसे कच्ची मिट्टी की तरह, जो, जल के प्रवाह से, चिकनी को, अपने रन्ध्र खोल दे, उन खुले रन्ध्रों में जल, आ बसे और पीछे सब समेट ले!
और अचानक ही, वो हल्की सी उठी, उसके बदन में, हरक़त सी मची, झटके से खाये, उसके उदर का माप, कभी बढ़ता और कभी, जैसे रीढ़ से जा चिपकता! मैं समझ गया था, ये स्खलन है, उस मिथांगी का स्खलन! मैंने रहा-सहा बल भी, अपने लिंग-स्थल को उचका कर, उसको नहीं मुक्त होने दिया! वो अलग होना चाहे और मैं न होने दूँ! और कुछ ही क्षणों में, आवेशरहित हो, 'रिक्त' हो, निढाल हो गयी! निढाल हो, मेरे पांवों में, पीछे, सर रख दिया! उसके बदन का पसीना रेंग कर मेरे पांवों की उँगलियों के मध्य आ पहुंचा! तब मैंने, अपने टांगें खोल, उसको, सामने की पसलियों में, स्तनों से नीचे, भींच लिया! श्वास नियंत्रित होने लगी उसकी! और इस प्रकार, मैं आगे बढ़ गया था! वो प्रथम-रात्रि मेरे लिए अगला मार्ग खोलने को अब तैयार बैठी थी! कुछ ही देर बाद, मैंने अपने पांवों की जकड़, ढीली कर दी, वो शांत! शांत सी, नेत्र बन्द कर, जैसे गहरी नींद सो गयी थी! मैं तब उठा, अपने आपको ठेला उसके नीचे से, और मुक्त हो गया उस से! मेरे लिंग की उत्तेजना अब धीरे धीरे शून्य हो चली थी! मैंने एक नज़र, अपनी साधिका को देखा, साधिका! हाँ, अब वो मेरी साधिका थी! मिथांगी, जा चुकी थी!
मैं नीचे बैठा, उसकी कमर में बढ़ाओ सफेद सूत्र, तोड़ लिया, कमर के नीचे से खोला और अलख में झोंक दिया! उठा और अपना त्रिशूल उठाया! और एक अट्टहास किया! ये औघड़-अट्टहास हुआ करता है! चहुँ-दिश अट्टहास! त्रिशूल वापिस गाड़ दिया और तब, आसन पर बैठ, मन्त्रों का जाप करने लगा! और इस प्रकार, प्रथम-रात्रि साधना पूर्ण हो गयी! मैं उठा, और मदिरापान किया! मेरे अंदर, मदिरा ने, ध्यान का केंद्रीकरण कर दिया था पहले ही! मदिरा का उपयोग, इसीलिए किया जाता है! ताकि, लक्ष्य से भटक न जाए साधक! कुल मिलाकर, बस, बावरा ही हो जाए अपने लक्ष्य के पीछे! मदिरा नीचे रखो, भुनी हुई कलेजी चबाई, और लाख को, प्रणाम करता चला गया!
मेरे सर के ऊपर, चन्द्रमा, चुपचाप नीचे का दृश्य देख रहे थे! तारे, चुपचाप, नज़र भर लेते होंगे! दूर आकाश में, आकाशगंगा का मध्य भाग, सुशोभित था तीव्र परन्तु धूमिल से प्रकाश से! और दूर, दखिन-पूर्व में, ऐसा ही प्रकाश उभरा था, ये लम्बवत था, स्पष्ट था, कोई अन्य आकाशगंगा उस क्रम में पड़ती होगी इस अथाह ब्रह्मांड में! मेरे पास लगे, पेड़ों पर, रात्रिचर, पक्षी जागे थे, कुछ कभी कभी अपनी उपस्थिति बता देते थे, कुछ चुपचाप, जायज़ा ले, उड़ चलते थे! वे इंतज़ार में थे, कि कब मैं हटूं वहाँ से, और कब उन्हें मांस के वो नरम गस्से निगलने को मिलें! मैं मुस्कुरा पड़ा! इस प्रकृति में, कुछ भी कभी भी, कहीं भी, नष्ट नहीं होता! रूप-परिवर्तन ही हुआ करता है! ऊर्जा का सृजन, ऐसे ही होता है! ऊर्जा, कदापि नष्ट नहीं होती! नष्ट होती है, तो मात्र भौतिकता! इस प्रकृति से जो लिया, उसे वापिस करना होता है! ये सभी को करना है! चाहे कोई जानता हो, चाहे नहीं!
मेरी नज़र अपनी साधिका की तरफ गयी! मैं उठा, वो जस की तस ही लेटी थी! न हिली ही थी, न कोई दैहिक-हलचल हुई थी! सो, मैं उठा, चला उस तक, जैसे ही चला, उसने सर हिलाया और एक तरफ रख लिया, फिर करवट बदल ली! मैं गया उसके पास, बैठा, और उसकी नाभि के नीचे स्पर्श किया! ये अभी तक, गरम ही था, ये स्थल, इसका अर्थ था, आवेश का जो धनावेश शेष था, ये उसी के कारण था!
"साधिके?" कहा मैंने,
उसने कोई उत्तर नहीं दिया!
"उठो साधिके?" कहा मैंने,
"नहीं..." धीरे से बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं उठा जा रहा नाथ!" बोली वो,
"मैं मदद करता हूँ!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
तो तब मैंने उसकी कमर के नीचे हाथ डाला, और दूसरा, सर के नीचे, उसको उठाया और बिठाने का प्रयास किया!


   
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