"हाँ, तीन साधिकाएं!" कहा मैंने,
"नहीं पता मुझे!" बोली वो,'
"मुझे अंकेश ने भेजा है!" कहा मैंने,
"कौन अंकेश?'' पूछा उसने, पान चबाते हुए,
"वो काठ पुरा वाले!" बोला मैं,
"वो स्वयं नहीं आये?" पूछा उसने, पीक अंदर लेते हुए, ज़ाफ़रान की तीखी महक फूटी थी आसपास, उसने उसी पान में डाली होगी!
"उनके घुटने में कुछ दिक्कत है!" कहा मैंने,
"तो स्वयं बात ही कर लेते?" बोली वो,
बात और वजह उसकी दोनों ही वाजिब थे, कम से कम बात हो जाती तो ये समस्या नहीं होती, और वैसे भी साधिकाएं, इस प्रकार नहीं मिला करतीं! उसकी जगह कोई भी होता, तो यही प्रश्न भी होते!
"आप दिल्ली से हो?'' पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इतना भी न जाने?" बोली वो, एक पुड़िया में से लौंग-कूट निकाल कर, मुंह में रखते हुए!
मैं कुछ न बोला, चुप ही रहा!
"पान लेते हो?'' बोली वो,
''हाँ, कभी-कभार!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोली वो,
वो छोटी सी सन्दूकची आगे बढ़ते हुए, बजरंगी कत्था था वो, साफ़ दीखता था, हाँ, चूना शानदार था, दीखता था, सफेद मक्खन जैसा! पत्ता कलकतिया था, मैंने उठाया, चूना लगाया, एक छोटी सी कूची से, फिर सिलाई से वो चूना, रगड़ दिया, जब केसरिया हो गया, तो गीली सुपारी रख ली, भुनी हुई थीं, खुश्बू आ रही थी, गुलाब जल में भिगोई होंगी, ऐसी खुश्बू आ रही थी! नंबर एक सौ बीस लिया मैंने, और बुरेक दिया मैंने!
'ज़ाफ़रान?" बोली वो,
"लिया न?'' बोला मैं,
"वो कच्चा है!" बोली वो,
"ओह! पका डालो फिर?" कहा मैंने,
"कितना?" पूछा उसने,
"जितना डाला जाता हो?" बोला मैं,
"ये तो अपनी पसंद और पकड़ है!" बोली वो,
"पसंद तो पता है, पकड़, नहीं कह सकता!" कहा मैंने,
वो हंस पड़ी!
"लो, इतना ही ठीक! शौकिया से कुछ ज़्यादा है!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
और बीड़ा हुआ तैयार, मुंह के हवाले!
"ये मक्खन?" बोली वो,
"इसकी क्या कमी!" कहा मैंने,
"ज़ोर आ जाएगा!" बोली वो,
"कोई फायदा नहीं तब तो!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" पूछा उसने,
"आग के लिए लकड़ी चाहिए न?" बोला मैं,
"आग तो दे सकती हूँ, लकड़ी? न रे बाबा!" बोली वो,
"इसीलिए न किया!" कहा मैंने,
"आग है?" बोली वो,
"तुम न दोगी?'' पूछा मैंने,
"ठंडी आग?" बोली वो,
"अब तो रहने ही दो!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही हंस पड़े!
"आदमी ज़ोर के हो!" बोली वो,
"सच्ची?" कहा मैंने,
"तन से!" बोली वो
और हम, फिर से हंस पड़े, एक साथ ही!
"नाम क्या है तुम्हारा?'' पूछा मैंने,
"रजनी!" बोली वो,
"वाह!" बोला मैं,
"वाह क्यों?" बोली वो,
"नाम जैसी हो!" कहा मैंने,
"रिझा रहे हो?" बोली वो,
"ना रे!" कहा मैंने,
"लगा मुझे!" बोली वो,
"क्या फ़र्क़ पड़ता है!" कहा मैंने,
"पड़ता तो है!" बोली वो,
मैं उठ चला! उसे अजीब सा लगा!
"चलता हूँ, कहता हूँ अंकेश सम्पर्क करें आपसे!" कहा मैंने,
"बैठो!" बोली वो,
मैं बैठ गया! जो तीर छोड़ा था, घूम-घाम के अब निशाने पर बस लगने ही वाला था! बस, निशाना चूके नहीं! चूक गया तो समय निकल जाता!
"तो मैं क्या समझूं?'' पूछा मैंने, हालांकि सही जवाब ही होगा, इसका मुझे अंदेशा हो चला था! फिर भी, पूछ ही लिया!
"रुको तो?'' बोली वो,
"रुक गया!" कहा मैंने,
"यहां कहाँ हो?" पूछा उसने,
"हैं एक जानकार!" कहा मैंने,
"जानकार हैं तो कोई दिक्कत नहीं, है न?" बोली वो,
"वो तो साफ़ है!" कहा मैंने,
"हाँ, साफ़ है!" बोली वो,
"लो?" बोली वो,
सन्दूकची आगे बढ़ाते हुए! मैंने उसकी तरफ बढ़ा दी वापिस!
"अब इतने बड़े खिलाड़ी भी नहीं हम!" कहा मैंने,
"खेल तो खेलने से आता है!" बोली वो,
"बहुत खेल खेले हैं जी हमने!" कहा मैंने,
उसने सुनी, और मेरी जांघ पर हाथ मारते हुए हंस पड़ी वो!
"हाँ, बातों से तो लगता है!" बोली वो,
"हाँ जी, पहचाना सही आपने!" कहा मैंने,
"कभी कोई 'ज़ोर' का खेल खेला है?" बोली वो,
"बहुत!" कहा मैंने,
"कैसे मानूं?" पूछा उसने,
"कैसे मनवाऊं?" बोला मैं,
"जनवाओ?" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"खिलाड़ी हो न?" बोली वो,
"आप से बड़ा नहीं जी!" कहा मैंने,
अब तो जम कर हंसी वो! और फिर से बढ़ा दी सन्दूकची आगे! मैंने फिर से वापिस बढ़ा दी!
"क्या बात है?" बोली वो,
"कुछ नहीं?" कहा मैंने,
"हार गए?" पूछा उसने,
"मैं? और हार?" बोला मैं,
"हाँ? हार?" बोली वो,
"बेकार!" कहा मैंने,
"लो, मैंने बना दिया!" बोली वो,
"लाओ जी, ऐसी बात है तो!" कहा मैंने,
"और वैसी हो तो?" बोली वो,
"साफ़ साफ़ कहो!" कहा मैंने,
"सच्ची?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो ऐसा है, शाम को आ जाओ!" बोली वो,
"खेल खेलने" पूछा मैंने, चूने वाले हाथ साफ़ करते हुए अपने रुमाल से!
"अरे नहीं!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मिलवा दूंगी!" बोली वो,
और तीर! तीर ने निशाना बेध दिया! सही जगह जाकर लगा तीर! मैं तभी उठ खड़ा हुआ, कहीं और ना-न-हाँ-हाँ न हो, इसीलिए!
"धन्यवाद रजनी जी!" कहा मैंने,
"हाँ, आ जाओ!" बोली वो,
और मैं वहां से हुआ तीर! पहुंच गया अपने ही जानकार के यहां! उन्हें बता दिया और अंकेश को भी इत्तिला दे दी! आज शाम, शहरयार भी आने वाले थे, कुछ काम था, इसीलिए, दो दिन बाद आने वाले थे वो!
उस शाम, मैं, शहरयार और एक और जानकार हैं हमारे, प्रकाश जी, उन्हीं के यहां पर महफ़िल लगी थी!
"तो अभी तो रुकोगे?" बोले प्रकाश जी,
"ये कल पता चलेगा!" कहा मैंने,
"कोई एकांत?" बोले वो,
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"इंतज़ाम?" पूछा उन्होंने,
"फिलहाल पूरे!" कहा मैंने,
"कुछ हो, तो बताइए!" बोले वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"शामू? यार इतनी देर?" बोले वो, ज़ोर से!
"आया! लाया!" बोला शामू!
"इतनी देर?" बोले वो,
"अरे क्या बताऊं! चटनी मिक्स कर दी थी!" बोला वो,
"तो क्या हुआ! अंदर सब मिक्स!" बोले शहरयार जी! मुझे सिगरेट थमाते हुए! वो ज़रा, नेवी-कट के शौकीन हैं हम दोनों! उसी का धुआं सीने में ठंडक सी पहुंचाता है! अब ये मतलब नहीं की पहुंचता ही है, है तो ऐब ही! और ऐब से दूर रहना ही बेहतर!
शामू ने जिस लहजे में बात की थी, मुझे कुछ जाना-पहचाना सा लगा, ऐसा लहजा यहां के क्षेत्र में नहीं बोला जाता!
"शामू?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"कहाँ के हो भाई?" पूछा मैंने,
"हाथरस!" बोला वो,
बस, अब क्या समझना था!
"एक में ही रख दूँ?" बोला वो,
"हाँ, रख दे!" बोले शहरयार!
शामू ने, बकरा-मुर्गा एक ही कर दिया! सलाद एक प्लेट में रख दी, प्याज महंगी थी शायद! सलाद जो दुकान से मिली थी मसालेदार खाने के साथ, उसमे पत्ता-गोभी, मूली और गाज़र 'ज़्यादा थी, शायद एक प्याज ने ही, चार ग्राहक निबटा रहा था वो दुकान वाला भी!
"रजनी से बात हुई?" पूछा शहरयार जी ने,
"अब कल होगी!" कहा मैंने,
"क्यों? उसने तो शाम को, कल शाम को बुलाया था न?" बोले वो,
"गया था, गयी है, कल दोपहर तक आएगी!" कहा मैंने,
"अच्छा, कल फिर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"माल तो बढ़िया है!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, मसाला बढ़िया है!" कहा मैंने,
"खुद पीसा है शायद!" बोले वो,
"यही बात है!" कहा मैंने,
"एक हैं यहां, मुल्ला जी, उन्हीं की दुकान से लाते हैं!" बोले वो,
"बढ़िया ज़ायक़ा है!" कहा मैनें,
"पुरानी दुकान है!" बोले वो,
"इसीलिए!" बोले शहरयार!
तो जी, उस रात खाया-पिया आराम से, पेट भर के लील गए! बाद में, आराम किया, दो-चार बातें शहरयार जी के बार में और फिर सो गए!
अगले दिन, मैं गया रजनी के पास, रजनी से मिलने के लिए, पहले अनुमति सी लेनी पड़ी इस बार! रजनी की उम्र क्रब अड़तालीस-पचास की होगी, उम्र के कई उतार-चढ़ाव देखें हों उसने, उसका चेहरा साफ़ बताता था! करीब आधे घंटे बाद, मुझे अनुमति मिल गई और मैं उसके पास चला गया! रजनी अपने कमरे के बाहर ही, कुर्सी पर बैठी थी, किसी छोटी लड़की को समझा रही थी कुछ, लड़की सुनती रही और एक थैला सा उठा, चली गई!
"नमस्कार जी!" कहा मैंने,
"नमस्कार!" बोली वो,
और उठ गई,
"बैठो!" बोली वो,
"अरे? आप बैठिए!" कहा मैंने,
"मैं लाती हूँ कुर्सी, आप बैठो!" बोली वो, और अंदर चली गई कमरे के! मैंने आसपास देखा, तुलसी जी और तुलसा जी के पौधे लगे थे, उन पर, छोटे वैजयंती की मालाएं पड़ी थीं! मन प्रसन्न हो गया! तुलसी-तुलसा जी की पूजा, वैजयंती मालाओं से ही हुआ करती है! तुलसा जी, का अग्र-भाग भी होता है और पृष्ठ भाव भी, इनकी 'शैवार्धांगिनिस्वरूपं' मुद्रा में रखना होता है, अन्यथा, इनके पूजन का कोई लाभ ही नहीं! पाठकगण अपने स्तर पर ही और अधिक ज्ञान जुटाएं, यहां प्रश्न न पूछें, मैं उत्तर नहीं दूंगा!
वो एक मूढ़ा ले आई और बैठ गई, उसके हाथों में एक थैली सी थी, थैली में हाथ डाला तो कुछ बाहर निकाला!
"ये लो!" बोली वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"लो तो सही?" बोली वो,
और मैंने ले लिया, देखा, तो तुलसी-तुलसा पूजन पश्चात का प्रसाद था, नारियल घिसा हुआ, कच्चा, केला, कटा हुआ, एक तुलसी जी का पत्ता, सूखी हुई फिरनी! ये ही प्रसाद होता है इनके पूजन का, तुलसा जी का पत्ता नहीं चबाया जाता, न प्रसाद रूप में ही दिया जाता!
"जय कमलाक्षी!" कहा मैंने,
और प्रसाद खाने लगा!
"शाम को नहीं आये?" बोली वो,
"आया था!" कहा मैंने,
"अरे हाँ!" बोली वो,
"आप ही न थे!" कहा मैंने,
"हाँ, जाना पड़ा!" बोली वो,
"बता दिया था!" कहा मैंने,
"ये लो, और!" बोली वो,
प्रसाद और मिला, तो खाया मैंने!
"सुनो!" बोली वो,
"हाँ?" मैंने कहा, चबाते हुए रुका!
"यहां तो ऐसी कोई नहीं!" बोली वो,
"ओह" निकला मेरे मुंह से,
"हाँ, यहां तो कोई नहीं!" बोली वो,
"अंकेश जी ने कहा था कि आपसे एक बार सम्पर्क हो जाए तो ये कार्य हो जाएगा!" बोली वो, मुझे एक बड़ा सा नारियल का टुकड़ा देते हुए, मैं मना न कर सका, उसे हाँ की उम्मीद से ही दिया था, अर्थात अभी गुंजाइश बाकि थी, मामला खत्म नहीं हुआ था!
"वो तो ठीक है, एक थी यहां, लेकिन वो गई है, कब लौटे, पता नहीं, आपकी 'सांधव' कब है वैसे?" पूछा उसने,
"आप तीन दिन मानिए!" कहा मैंने,
"फिर तो निपुण चाहिए!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और ये 'सांधव-मूल' क्या?" पूछा उसने,
"त्रैरात्रिक-वधु!" कहा मैंने,
"ओह! समझी!" बोली वो कुछ देर सोचा उसने, और एक टुकड़ा नारियल का, मुंह में रख लिया!
"जाना होगा!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"स्वयं ही!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
उसने एक स्थान का नाम बताया, ये स्थान एकांत में बना था और मात्र विशिष्ट लोग ही प्रवेश पा सकते थे, ये स्थान आमजन के लिए नहीं था, अर्थात, मेरे लिए भी नहीं, चूँकि मैं उस उस स्थान से नहीं जुड़ा था, मात्र उस स्थान के ही, उनसे संबंधित अथवा किसी की जानकारी वाले ही प्रवेश पा सकते थे! जो भाग इसका खुला था, उसमे माँ दुर्गा का मंदिर स्थापित था और पूजा-अर्चना हेतु, ठहरने हेतु आदि के लिए था और ये दान-राशि से ही चलता था, नियम कड़े थे और नियम तो नियम ही हैं!
"चला जाऊँगा!" कहा मैंने,
"काम हो ही, ये पक्का नहीं कह सकती!" बोली वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"उपलब्धता पर निर्भर है!" बोली वो,
"मिलना किस से है?'' पूछा मैंने,
"वहां जाना, महेश को पूछना, महेश से कहना, सरला से मिलवाए, सरला से मिलो, तो बोलना, रजनी ने भेजा है, उद्देश्य बता देना, बस, मेरा काम खत्म यहां!" बोली वो,
"यही बहुत है!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोली वो,
"बहुत मदद की आपने!" कहा मैंने,
"आदमी अच्छे लगे तुम!" बोली वो,
"दोबारा धन्यवाद!" कहा मैंने,
"समय नहीं है अधिक, जाओ, काम निबटा लो!" बोली वो,
"एक बात और!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"कब जाना ठीक रहेगा?" पूछा मैंने,
"कभी भी!" बोली वो,
"अब आपकी मदद के बिना कैसे सम्भव था ये!" कहा मैंने,
उस से थोड़ी बातें और हुईं और फिर मैं लौट पड़ा, आ कर, शहरयार जी जे साथ, फिर से महफ़िल खिली हमारी! उस शाम प्रकाश जी नहीं मिल पाये, उन्हें जाना पड़ा किसी काम से!
"अब ये जगह कहाँ है?" पूछा उन्होंने,
"यहां से करीब सौ किलोमीटर!" कहा मैंने,
"वाह!" बोले वो,
"वाह क्यों!" कहा मैंने,
"मुझे यात्रा पसंद है!" बोले वो,
"जानता हूँ!" बोला मैं,
"कब निकलें?" बोले वो,
"कल सुबह निक पड़ते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक रहेगा!" बोले वो, मुझे पैग देते हुए!
"यहां का पानी ठीक नहीं!" कहा मैंने,
"हां, भारी है!" कहा उन्होंने!
"वही!" कहा मैंने,
"तो पहले मुकेश, फिर सरला? है न?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले वो,
"हैं, देखते हैं, क्या होता है!" कहा मैंने,
"हो ही जाएगा!" बोले वो,
"हो जाए तो मेहनत बचे!" कहा मैंने,
अगली सुबह, हम निकल लिए वहां के लिए! बस तो मिली, लेकिन छोटे वाली, खड़ा हुआ जाए तो बैठा न जाए, बैठा जाए तो खड़ा न हुआ जाए! क्या करते, जाना भी ज़रूरी था! ऊपर से हर गढ्ढा नाम पूछे! खैर, ड्राइवर अच्छा था, गाडी दौड़ा के चलाई उसने! रपटा दी, सवा तीन घंटे में पहुँच गए हम उधर! एक जगह रुक कर चाय पी, चाय के साथ आलू-वड़ा भी ले लिया! दो-दो चाय खींच, अब सुध ली, ग्यारह बज रहे थे, तो पूछ लिया हमने उस जगह का पता, अब वहां तक जाने के लिए, ऑटो पकड़ा! और साहब, हमारी एक तरफ की यात्र समाप्त हुई! करीब बारह बजे, हम उस स्थान के सामने थे! बहुत ही बढ़िया बना था! द्वार पर मारुततनय शान से अपनी गदा लिए, प्रहरी स्वरुप, तैनात थे! केसरी रंग में रंगे हुए! शेष द्वार पर, समस्त गायत्री मंत्र लिखे हुए थे, सफेद पट्ट पर, नीले रंग से! बहुत ही शानदार लग रहा था वो द्वार! नीचे, दो द्वारपाल बने थे, पताका हाथों में पकड़े! हमने तो आंजनेय को प्रणाम किया, और अंदर चले! अंदर गए तो एक और प्रवेश-द्वार मिला, यहां पर बैठे हुए व्यक्ति से महेश के विषय में पूछा! महेश ही न आके देय! कम से कम पंद्रह मिनट के बाद आया महेश! पैंतालीस का रहा होगा, अच्छी तरह से मिला और उद्देश्य पूछा, उसे उद्देश्य बता दिया, रजनी जा परिचय दिया, तब अंदर प्रवेश हुआ! हमें एक जगह, जहां एक कुंड सा बना था, उधर, एक पत्थर के बेंच पर बिठा दिया गया! इंतज़ार करने को कहा गया, अब और कोई रास्ता था नहीं, सो इंतज़ार किया! हम आसपास देखते रहे, जगह वैसे तो पुरानी थी, लेकिन भव्य थी, खूब देखभाल की जाती होगी उसकी! ये स्थान, पूर्ण सात्विक सा, वैष्ण्व सा प्रतीत होता था!
"हाँ जी?" आई आवाज़,
मैंने पलट कर देखा, ये महेश था! बुला रहा था!
''आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम पहुंच गए उसके पास,
"उस कक्ष में चले जाओ!" बोला महेश,
"जी, धन्यवाद!" कहा मैंने,
मैंने शहरयार जी को देखा कि...
"आप हो आइये!" बोले वो,
"आता हूँ बस!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोले वो,
और मैं आगे बढ़ गया, अंदर, चौखट पर, पर्दा पड़ा था, ये सूती कपड़ा था, मैंने अपने जूते खोले और पर्दा उठा, अंदर झाँका!
"आ जाइये!" आई एक स्त्री की आवाज़! अंदर एक पलंग पड़ा था, बड़ा सा पलंग! आधे पर बिस्तर लगा था, आधे पर, वस्त्र रखे थे! पलंग पर एक स्त्री बैठी थी, बहुत ही सुंदर! आयु में करीब पैतीस की रही होगी, लेकिन उसका रंग-रूप, बड़ा ही सुंदर! तीखे से नयन-नक्श और कसा हुआ सा बदन! मैंने सबसे पहले उसके बदन की बनावट ही देखी, चोरी पकड़ी न ज्जाए इसलिए, कुरसी ढूंढने लगा! कुर्सी हालांकि, मेरे साथ ही रखी थी! बिन पूछे ही बैठ गया मैं तो!
"आप ही सरला.........?" पूछा मैंने,
"जी हाँ!" बोली वो,
"रजनी जी ने भेजा है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
"बताइए?" बोली वो,
"जी, पानी मिलेगा?'' पूछा मैंने,
"अरे हाँ! क्षमा कीजिये!" बोली वो, और उठ कर चली, मैंने फिर से चोरी की! वो बाहर चली गई, और मैंने आसपास देखा, अच्छा, बड़ा कमरा था, लकड़ी की अलमारी आदि रखी थीं, कुल मिलाकर, गृहस्थ का सा कक्ष लगता था, अब क्या हो, पता नहीं! क्या पता, अकेली ही रहती हो!
"ये लीजिए!" बोली वो,
कांच के गिलास में पानी मिला था, तो दो गिलास पिया, पानी ठंडा था, मतलब, फ्रिज का पानी था, ये स्थान तो 'भरा-पूरा' सा था! उसने गिलास और जग, रख दिए, बिस्तर की दुरी तरफ, और खुद उधर बैठी जहां गद्दा और चादर बिछे थे!
"जी, बताएं?" बोली वो,
"तीन साधिकाएं चाहिए!" कहा मैंने,
"तीन?" उसने हैरानी से पूछा!
"जी तीन!" कहा मैंने,
"षोडशी?" पूछा उसने,
"जी नहीं!" कहा मैंने,
"तो?" पूछा उसने,
"त्रैरात्रिक-वधु!" कहा मैंने,
मेरा उत्तर सुन, बस उसके खड़े होने की ही देर थी कि....................!!
वो सच में ही उठ गई!
"शेष तो आप जानती ही होंगी!" कहा मैंने,
"हाँ, जानती हूँ!" बोली वो, और बैठ गई!
"आपको रजनी ने ही भेजा न?" पूछा उसने,
"जी, जी रजनी ने ही भेजा!" कहा मैंने,
"दो हैं!" बोली वो,
"एक और चाहिए!" कहा मैंने,
"जानती हूँ!" बोली वो,
"तभी भेजा आपके पास!" कहा मैंने,
"ठीक ही भेजा फिर!" कहा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"क्या नहीं?" पूछा मैंने,
"आपकी इच्छा क्या?" बोली वो,
"इच्छा वाली बात नहीं!" कहा मैंने,
"ये भी पता है!" बोली वो,
"उन्मत्तोन्मुखी हो, शेष मैं जानूं!" कहा मैंने,
"जान गई हूँ!" बोली वो,
"तो बुलाएं?'' बोला मैं,
"आइये!" बोली वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
मुझे एक कक्ष में ले जाया गया, कक्ष बड़ा ही साफ़-सुथरा था, बेला के ful रखे थे ढेर सारे, एक बड़ी सी डलिया में, दीवार पर, एक चित्र बना था, चिंत्र किसी सर्प-कन्या का था, आधा, ऊपर का भाग एक सुंदरी का और नीचे का भाग सर्प का! उस सर्प-कन्या का श्रृंगा अन्य सर्प-कन्याओं का समूह सा, कर रहा था, चित्र में जो विशेष बात थी, कि चित्रकार ने, सारा श्रम और ध्यान उसी कनय पर लगाया था! ये वास्तव में ही बहुत सुंदर चित्र था! दूसरी दीवार पर, मध्य में एक खिड़की थी, खिड़की के चारों ओर पट्टिकाएं बनी थीं, जिनमे बीच की पट्टी में, नीला रंग भरा गया था, नीचे वाली केसरी और ऊपर वाली, चटख सफेद! तीसरी दीवार पर, नीलवर्ण पुता था, मध्य में सूर्य उदय हो रहे थे, आसपास लकड़ियों का सामान रखा था, जिसमे से एक अलमारी के शीशे से, पुस्तकें बाहर झांक रही थीं! छत देखता, इस से पहले ही कोई कक्ष में आया अंदर!
"अरे? आप बैठे नहीं?" बोली सरला!
"सोचा, आप आ जाएँ तो बैठ जाऊं!" कहा मैंने,
"ऐसी कोई बात नहीं!" बोली वो,
"तो अब, बैठ जाऊं?" पूछा मैंने,
वो हंस पड़ी! और कुर्सी खींच लायी! प्लास्टिक वाली कुर्सी थी, आराम से बैठ गया मैं उस पर!
"आइये!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आर्य हाँ? पानी?" बोली वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"ये साधिका नयी है, उम्मीद है, आपका कार्य सिद्ध हो?" बोली वो,
"एक ही है?" पूछा मैंने,
"घबराइए नहीं!" बोली वो,
"कहीं भागदौड़ न हो, इसलिए!" कहा मैंने,
"नहीं होगी, दौड़ ख़त्म!" बोली वो,
"आपका सच में धन्यवाद!" बोली वो,
"झूठ में भी होता है?" पूछा उसने,
"हाँ, मैं उसे फीका कहता हूँ!" कहा मैंने,
"आइये!" बोली वो,
और एक जगह, खड़ा कर दिया मुझे, और एक साधिका बाहर आई, आयु में करीब तेईस या चौबीस की, लेकिन देह से मज़बूत थी, कुल मिलाकर, ठीक ही थी! जिस कार्य हेतु चाहिए थी, उसमे पूर्ण लगी! फिर दूसरी आ गई, वो अच्छी थी, इस से लम्बी, ठाडी और मज़बूत सी!
"ये ठीक हैं?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आप इनसे बात कर लीजिए, और कक्ष में चले आइये!" बोली वो और लौट चली!
अब मैंने दोनों को देखा, उस लम्बी वाली से ही बात की पहले!
"नाम क्या है आपका?" पूछा मैंने,
"वीणा!" बोली वो,
"कोई रोगादि?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"प्रयोजन जानती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
''और तुम्हारा?" दूसरी से पूछ मैंने,
"नीतू!" बोली वो,
"सवाल समझ गईं सारे?'' पूछा मैंने,
"जी!" बोलीं दोनों!
"ठीक, तो मैं सरला जी को सूचित कर दूंगा! आप दोनों का धन्यवाद!" बोला मैं,
दोनों ने ही सर हिलाया हाँ में, और लौट गईं! वे लौटीं तो मैं भी कक्ष की ओर लौट गया! अब एक साधिका शेष थी
मैं आ गया कक्ष में वापिस! अब पानी पिया मैंने! और इस बार, खुद ही बैठ गया कुर्सी पर!
"ये दोनों ही ठीक हैं!" कहा मैंने,
"जंच गईं?'' पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोली वो,
"अब एक शेष है!" कहा मैंने,
"आने वाली है!" बताया उसने!
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"ये थोड़ी अल्हड़ है!" बताया उसने,
"कोई बात नहीं!" बोला मैं,
"इसे......उ,,,,मम्...!" बोली वो,
"सबसे पहले रात्रि!" कहा मैंने,
"हां! यही!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
और बाहर आहट हुई! वो उठ कर चली!
"आई अभी!" बोली वो,
हाँ! कोई बात नहीं!" बोला मैं,
और इतने में ही, छत भी देख ली! एक पंखा, और सफेद रंग की पुताई! ख़ास कुछ नहीं! बिजली की फिटिंग भी बाहर से ही थी! मैं कमरे में आसपास देखता रहा और मेरी नज़र, कोने में रखी एक मूर्ति पर पड़ी! मैं उठा और मूर्ति तक गया! ये मूर्ति के यक्षिणी की थी! उसके अंग-प्रत्यंग विशेष रूप से ढाल कर बनाए लगते थे! यक्षिणियाँ अक्सर दाएं हाथ में, धवल-धौंक रखा करती हैं, माथे पर, मांग के बीच में द्विफलक सिंह-दंत विराजित होता है, वक्ष-स्थल पर, कुषाल के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता! इस श्रंगार से युक्त न हों, तब वे गन्धर्वी हुआ करती हैं!
"महामेघा अथवा मेखला!" आई आवाज़! मैंने पलट के देखा तभी!
ये, सरला ही थी, आ गई थी उधर ही!
"बहुत सुंदर है!" कहा मैंने,
"हाँ, यषवल-सौंदर्य!" बोली वो,
"निःसन्देह!" कहा मैंने,
"कहाँ से मिली?" पूछा मैंने,
"पुरानी है!" बोली वो,
"दीख रही है!" कहा मैंने,
"ये हैं षोडश-श्रृंगार!" बोली वो,
"हाँ, मूल रूप से!" कहा मैंने,
उसने, हाथ में उठाया उसे, औेर कपड़े के फलक से पोंछ कर, रख दिया वहीँ!
"आपने उत्तर नहीं दिया?" बोला मैं,
"किसका?" पूछा उसने,
"कहाँ से मिली ये?" बोला मैं,
"ये प्राप्त हुई थी!" बोली वो,
"प्राप्त हुई थी? कहाँ से?" पूछा मैंने,
"एक गंडक-गुहा से!" बोली वो,
"आपको?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मेरे गुरु श्री को!" बोली वो,
"अब कहाँ हैं आपके गुरु श्री?" पूछा मैंने,
"ब्रह्मलीन हो गए!" बोली वो,
"ओह...अच्छा!" कहा मैंने,
"ये धातु?" पूछा मैंने,
"कांस्य है!" बोली वो,
"मुझे लगा था!" कहा मैंने,
''आइये, अभी देर है उसे!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम बैठे ही थे, कि चाय आ गई, साथ में नमकपारे थे!
"लीजिए!" बोली वो,
"हाँ! ज़रूर!" बोला मैं,
"एक प्रश्न है?" बोली वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"त्रैरात्रिक-वधु!" बोली वो,
"सभी को होता है अधिकांश!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"ये प्रश्न!" कहा मैंने,
"पूछ सकती हूँ?" बोली वो,
"वैसे नियम कहता है, कि उत्तर नहीं दिया जाना चाहिए और दूँ भी न, परन्तु आपने मेरी सच में ही मदद की है, अतः इस नियम को लांघ रहा हूँ मैं! पूछिए!" कहा मैंने,
"आपने कभी ये सोपान चढ़ा है? अ....मेरा मतलब, कभी प्रयास किया है?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या रहा?'' पूछा उसने,
"क्या रहा होगा? उत्तर सामने है!" कहा मैंने,
''असफल रहे!" बोली वो,
"अ....हाँ! असफल ही रहा!" कहा मैंने,
"तो अब पुनः प्रयास? हाँ?" बोली वो,
"हाँ, पुनः ही!" कहा मैंने,
"ये तो नहीं पूछना चाहिए कि असफल क्यों हुए, वजह होंगी कुछ!" बोली वो, इस बार कुछ 'ऊँचा' रहते हुए!
"बता देता हूँ!" कहा मैंने,
"बता सकते हैं?" पूछा उसने,
"हाँ, उसमे कोई 'ख़ास' नहीं!" कहा मैंने,
"तो बताइए!" बोली वो,
"दोनों बार, साधिकाएं असफल हुईं!" कहा मैंने,
"वो कैसे?" पूछा उसने,
"एक समय चूक गई और एक ने साथ नहीं दिया!" कहा मैंने, मैंने, जानबूझकर ही झूठ बोला था, वजह दरअसल कुछ थी ही नहीं, मैं इस 'विधि' में कभी नहीं बैठा था! अब अवसर था, समय भी, इसीलिए, आदेश हुआ और मुझे आदेश का पालन करना पड़ा!
"समय का चूकना समझ आता है, परन्तु साथ नहीं दिया, इसका क्या अर्थ?" पूछा उसने,
"पारुष संचय नहीं कर पायी!" कहा मैंने,
"समझी!" बोली वो,
"कुछ और देर है क्या?'' पूछा मैंने,
"नहीं, हो गया समय!" बोली वो,
तभी संयोग सा हुआ, एक महिला आई, अकेली ही थी, सरला उसे देख, फौरन ही चल पड़ी! मैं बैठा रहा वहीँ! करीब पांच मिनट में आ गई वापिस वो!
"आइये!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े, आ गए एक कक्ष में, मुझे जो साधिका दिखाई गई, उसे तो देखते ही मना कर दिया मैंने, मुश्किल से अठारह या उन्नीस की होगी वो, मेरा मन नहीं माना, उसके साथ आई महिला से कुछ बातें हुईं और मैंने उसे बाद में बताने को कह दिया! वे दोनों ही चली गईं!
"ये ठीक है?'' बोली सरला,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"मन ने गवाही नहीं दी!" कहा मैंने,
"छोटी है?" बोली वो,
"ये भी है!" कहा मैंने,
"तब इंतज़ार!" बोली वो,
"कितना?'' पूछा मैंने,
"शाम तक!" बोली वो,
''शाम तक?" बोला मैं,
"क्यों?" बोली वो,
"फिर तो लौटना होगा!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
अब मैंने जगह बता दी उसको!
''तब तो रुकना होगा!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"आपके साथ जो हैं, उन्हें बुला लीजिए!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"उधर एक कक्ष है, वहां आ जाइये!" बोली वो,
''और आप?" पूछा मैंने,
"आप आइये तो?" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और चला गया शहरयार को लेने! ले आया, कक्ष में आ गए हम दोनों! पानी भिजवा दिया गया और हम कुर्सियों पर कमर टिका, आराम से बैठ गए! चाय भी भिजवा दी गई, सो जी चाय पी!
"बात बनी?" बोले वो,
"हाँ, लगभग!" बोला मैं,
"मतलब?" बोले वो,
"एक रह गई है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
बातें करते रहे, बाहर झांकते रहे, सिगरेट फूंकते रहे और तब, करीब तीन बजे, मुझे बुलाया गया! अब मेरी निगाह एक साधिका पर पड़ी, यदि यही है, तो अवश्य ही बात बन जाती!! तो परिचय हुआ, और मैंने शुकर मनाया कि मेरी सोची हुई वो साधिका, वही थी!
"क्या नाम है आप?" पूछा मैंने,
"निशा!" बोली वो,
सच में, निशा समान ही थी वो!
"क्या बात बताई गई है?" पूछा मैंने,
"किस विषय में?" पूछा उसने,
"प्रयोजन!" कहा मैंने,
"त्रैरात्रिक-वधु!" बोली वो,
मैं सन्न रह गया! उसे ज्ञात था ये प्रयोजन! ये मेरे लिए, बेहद ही प्रसन्नता का विषय था! मैं, इस साधिका, निशा को, अंतिम रात्रि की करुषा बना सकता था! मैं प्रसन्न हो उठा था! प्रसन्न, अत्यन्त प्रसन्न!
ये साधिका, यू कहाँ जाए कि, तलछट में जमी हुई उस सोने की कणियों जैसी थी, जिसकी चमक न धूप में ही जाती है और न रात में ही, न सुबह की लालिमा में रंग छोड़ती है और न सांझ की लालिमा का रंग सोखती है! कद-काठी, रूप एवं अंग-प्रत्यंग में सम्पूर्ण थी!
"तीन रात्रि पश्चात, तुम तैयार हो?'' पूछा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
ये! ये ही! उसके अवश्य बोलने का लहजा ही तो था मेरा कार्य का सिद्ध होना! इस साधिका में 'ऋण-भाव' था! ये 'ऋण-भाव' तीक्ष्ण था, कहा जाए जल की वो धारा जो आपका बदन काट दे! वही 'ऋण-भाव' था इस साधिका में!
"निशा?" पूछा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"कुछ समय है आपके पास?" पूछा मैंने,
"जी, हां, कहिये?'' बोली वो,
"कभी इस साधना में बैठी हो?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"पहली बार?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"तब तुम्हें, एक रात्रि पहले आना होगा!" कहा मैंने,
"ये आप सरला जी से कहें!" बोली वो,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
"ठीक, बाकी बातें, सरला जी बता देंगी?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"तो मैं चलूँ?'' बोली वो,
"हाँ, मैं भी चलूँगा!" कहा मैंने,
और हम थोड़ा सा साथ चले, फिर वो बाएं हुईं और मैं दाएं! आ गया कक्ष में उस, यहां शहरयार साहब इंतज़ार कर रहे थे, मैं सीधे ही जाकर बैठा नहीं, गिलास लिया, पानी डाला, अब पानी कम पड़ने लगा था, जितना था, उतना ही डाला, और बैठ गया! कमरे से बाहर झाँका, तो एक सीढ़ी रखी थी, बल्लियों की बनी हुई, इसका मतलब, उस कक्ष के ऊपर भी कुछ व्यवस्था रही होगी, सीढ़ी अपना बुढ़ापा बता रही थी, खूब सेवा की थी उसने, उसके घिसे हुए, टुकड़े जो आड़े ठोके गए थे, अब उनमे जगह बन गई थी, रोज चढ़ने वाला तो सटासट चढ़ जाए, हमारे जैसा, एक एक पायदान सा गिने! वो बेचारी कीलें जिन्होंने उसे एक सीढ़ी की शक्ल दी थी, नामुराद सी, चुपचाप थीं! हाँ, इतना तो तय था, सीढ़ी जब सेवानिवृत होती, तभी वे खुलकर हवा लेतीं!
"पुराना सा स्थान है ये!" आई आवाज़, और वो सीढ़ी पल भर पहले जो ज़िंदा थी मेरी आँखों में, फिर से गुमनामी के अंधेरों में जा छिपी!
"हाँ, पुराना है!" कहा मैंने,
तभी, सरला आ गई, वो आई तो मैं उठा और चला उसके साथ, कुछ बातें हुईं और फिर मैंने शहरयार जी को आवाज़ दे, बुलाया, इशारा किया और हम निकल पड़े वहां से! बाहर आये चलते चलते, तो ऑटो पकड़ा, ऑटो पकड़ा तो उस जगह आये, जहां से आगे जाना था! प्रकाश जी आज भी न थे संग, तो सोचा, वही कुछ 'प्रबंध' कर लिया जाए, एक दुकान पूछी, दुकान मिली और 'अंग्रेजी' सामान ले लिया! सामान लिया तो कुछ मसालेदार भी बंधवा लिया! और चल पड़े! जल्दी ही पहुंच गए, हाथ-मुंह धोए, शामू तो जैसे हम ऐबियों के लिए ही रखा गया था, फौरन ही समझ गया और कुछ ही देर में 'सम्पूर्ण' व्यवस्था कर दी! कुछ बिलायती पानी कल का भी बचा था सो, उसे दे दिया! शामू खुश! अब कुछ कहने-सुनने की बात ही न थी! बिलायती पानी सारी व्यवस्था करवा ही देता! हम खुश, शामू खुश!
तो साहब, हमने बिलायती पानी का सम्मान किया! और डाला पहला पैग! सच कहें तो थकावट का आधा हिंसा तो उसने, धक्का मार धकेल दिया बाहर! अब जब बदन खुलने लगा, तो जब बदन खुल तो बिस्तर पर जगह बनानी पड़ गई!
"अब तो सारी समस्या खत्म?" बोले वो,
"हाँ, अब तो!" कहा मैंने,
"तो कब से?" बोले वो,
"तीन दिन बाद, देखूंगा!" कहा मैंने,
"कोई और भी आ रहा है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
''आप तो बता रहे थे?" पूछा उन्होंने,
"उनसे दोपहर में मिलना है!" कहा मैंने,
"कल का कोई कार्यक्रम?" पूछा उन्होंने,
"फिलहाल तो नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"कोई कमी?" आया शामू!
"ठंडा सा पानी!" बोले शहरयार!
"बर्फ लाया था?' बोला वो,
"ये तो पिघल गई!" बोला मैं,
"और ले आता हूँ!" बोला वो, और चला गया!
"वैसे जगह वही?" बोले वो,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"बाबा मिलेंगे?" पूछा उन्होंने,
"परसों बुलाया है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो!
तो इस तरह से दो दिन बीत गए! उस दिन मैं उसी स्थान पर था, जहां से इस क्रिया का निष्पादन किया जाना था! श्मशान में, 'भूमि' का मोल दिया जाता है, ये आवश्यक ही होता है! एक तो इस से श्मशान का विकास-कार्य चलता रहता है और निशुल्क सेवा भी दी जाती है निर्धन-पक्ष को! इस स्थान के संचालक महोदय से बात हो गई थी, मेरे एक जानकार हैं उन्होंने ही ये समस्त प्रबंध करवा दिया था! बस कुछ ही समय शेष था और ये सिद्धि-कार्य पूर्ण होना था! संचालक महोदय से बात हुईं और हम वहाँ से निकल पड़े! आज कोई विशेष कार्य नहीं था, सामग्री आदि का प्रबंध संचालक महोदय कर ही देते! तो उस दिन आराम करने में ही समय काटा हमने!
पहली साधिका द्वारा, सिद्धि जागृत करनी थी, द्वितीय से मध्यांग-अवस्था और तृतीय से, निष्पादन! तीन रात्रि, समझिए कि, सिद्धि-जागरण था, ये सिद्धि, कार्य-सिद्धि में सहायक, पुष्टिवर्धक एवं लघु-मार्ग देने वाली होती है! मारण, उच्चाटन एवं विद्वेषण, तंत्र में द्वित्य स्थान पर रखी गई हैं, अर्थात, जिनका कोई लाभ नहीं होता! मोहन, वशीकरण, सम्मोहन आदि कर्म, निम्न-स्तर पर रखे गए हैं, ये कर्म करने से साधक को पाप-फल प्राप्त होता है! अतः कोई भी साधक ऐसे कर्म करने से पहले दो बार सोचता है! अब तक, मैंने सभी आवश्यकताएँ पूर्ण कर ली थीं, अब बस देर थी, तो एक विशेष साधिका की! अर्थात जो, त्रैरात्रिक-वधु बनने वाली थी! ये, महासिद्धि है! मेरी चौथी साधिका, गत इक्कीस दिवसों से इसी सिद्धि हेतु 'परिपक्व' हो रही थी! उस समय वो यौगिक-मौन अवस्था में थी! जो दिन मैंने चुना था, वो था शनिवार का, शुक्रवार तक, सभी आवश्यक कार्य निबटा लिए जाने थे!
तो उस दिन बृहस्प्तिवार था, और मैं, एक पूजन समाप्त होने के बाद, वहीँ एक छोटी सी बगिया में बैठा था! शहरयार साथ ही थे!
"सरला का फ़ोन आया था!" बोले वो,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"आप से बात करनी थी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"करवाऊं?' बोले वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"तरुण जी का क्या रहा?" पूछा मैंने,
"काम शुरू नहीं हुआ!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"है कोई समस्या!" बोले वो,
"पारिवारिक?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही!" बोले वो,
"महेश? ओ? महेश?" चिल्लाया मैं,
"हाँ जी?" बोला वो, आते हुए!
"नमस्कार!" बोला वो,
"हाँ, नमस्ते!" कहा मैंने,
"हाँ जी?' बोला वो,
"सुन यार?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"पैसे ले जा और बढ़िया माल ला!" कहा मैंने,
"पड़ा तो है?" बोला वो,
"अरे ये कमांडर-फमांडर नहीं!" बोले शहरयार!
"कौन सी लाऊं?" पूछा उसने,
"बढ़िया सी!" कहा मैंने,
"नीले वाली?'' बोला वो,
"हाँ! नीले वाली!" बोले वो,
"ले!" कहा मैंने,
और दे दिए पइसे उसे! वो जाने लगा!
''सुन?" बोले शहरयार!
"हाँ?" बोला वो,
सर खुजाते हुए अपना!
"अपने लिए भी ले आना!" बोले वो,
"है!" बोला वो,
"अरे ले आना?" बोला मैं,
"है मेरे पास!" बोला वो,
"सच्ची में?" पूछा मैंने,
"हाँ है!" बोला वो और लौटा फिर!
"आदमी बढ़िया है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और कक्ष में आने से पहले, चाय बोल आये थे, चाय पीने का मन था!
"कल दोनों ही आएँगी!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
"सरला से बात भी करनी है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
मैंने पहले भी बरताया था, लिखा भी था कि, जिस विषय को मैं नहीं बताना चाहता यहां, वो या तो विवाद उत्पन्न करेगा अथवा, किसी की श्रद्धा के विपरीत जाएगा! अतः, विनम्र निवेदन है कि उस, उक्त विषय की चर्चा न की जाए! तुलसी की पांच किस्में हैं, इनमे एक तुलसा जी भी हैं, ये पुरुष-संज्ञक हैं, अब किसी को ज्ञात नहीं तो मुझ से न पूछें, बेहतर होगा कि उस विषय का त्याग कर दें!
हाँ, तो हमने वो बढ़िया वाला बिलायती पानी मंगवा लिया था! चाय आ गयी थी सो चाय पीने लगे थे हम! कुछ एक फ़ोन भी आये थे, उनसे बात भी हुई थी!
"तो तिथि वही?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, अभी तो वही!" कहा मैंने,
"तो बाबा फिर, कल आने चाहियें?" बोले वो,
"हाँ, उम्मीद है!" कहा मैंने,
"कब तक?" बोले वो,
"तीन रात्रि तो ये, निष्पादन की हैं!" कहा मैंने,
"ये तो ठीक!" बोले वो,
"फिर तीन रात और!" बोला मैं,
"इसका अर्थ?" बोले वो,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
तो इस तरह हम बातें करने लगे, फिर सरला से भी बात कर ही ली! वो कल, पहली वाली साधिका को भेजने ही वाली थी! उसको एक दिन और एक रात, यहां रखना था, कुछ समझाना भी था और कुछ क्रिया की तैयारी भी थी! मैंने कहा था कि दूसरी वाली भी आ जाती तो ठीक ही था, परन्तु वो नहीं आ सकती थी कल, वो अगले दिन आनी थी! और मुझे यहां, 'क्रिया-शूल' लगने वाला था! खैर, ये साधना पूर्ण होती तो चार वर्षों तक आवश्यकता ही नहीं पड़ती जागृत करने की, बाद की बाद में ही देखी जाती!
"आ गया!" बोले वो,
"महेश?" बोला मैं,
"हाँ, आ रहा है!" बोले वो,
"आने दो!" कहा मैंने,
महेश आ गया अंदर, सामने मेज़ पर, रख दी, झोले से निकाल कर उसने बोतल! और पोंछ पसीना अपने अंगोछे से!
"कैसे?" पूछा मैंने,
"वो तो शुक्र है कि महंगी मिलती है!" बोला वो,
"तो?" कहा मैंने,
"नहीं तो साले पानी की जगह यही पियें!" बोला वो,
"ऐसी बात?" बोले शहरयार!
"भीड़ पड़ी है!" बोला वो,
"अब होगी ही!" कहा मैंने,
"आदमी पर आदमी चढ़ रहा है!" बोला वो,
"देख ले!" कहा मैंने,
''अरे सुन?" बोले शहरयार,
"हाँ?" बोला वो,
"साथ में कुछ लाया?" पूछा उन्होंने,
"सांझ को तो कर दूंगा जुगाड़!" बोला वो,
"क्या भला?" पूछा उसने से शहरयार ने,
"बोलो आप?" बोला वो,
"क्या लाएगा?" पूछा उसने,
"देख, ये निबटानी है, अब देख!" बोले वो,
"मुर्गा बनवा दूँ?" बोला वो,
"ये बढ़िया!" बोले वो,
"एक काम कर न?" बोले वो,
"क्या, बोलो?" बोला वो,
"मुर्गा तो ले आ!" बोले वो,
''और?" पूछा उसने,
"थोड़ी कलेजी डाल ले?" बोले वो,
"मुर्गे की?" पूछा उसने,
"हाँ, पित्त वाली!" बोले वो,
"ठीक!" बोला वो,
"समझा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कलेजी पहले!" बोला वो,
"शाबास!" कहा मैंने,
"हाँ यही!" बोले शहरयार!
"ठीक, जाता हूँ!" बोला वो,
"अपने लिए भी डलवा लियो!" बोले वो,
"हाँ! हाँ!" बोला वो,
और चला गया वहां से!
"चलो जी, हो गया जुगाड़!" कहा मैंने,
"लोगे?" पूछा उन्होंने,
"अभी?" बोला मैं,
"हम तो अमली!" बोले वो,
"और हम कमली!" कहा मैंने,
"लाया पानी!" बोले वो, और चले बाहर! मैंने बोतल उठायी, और, पैकेट से निकाल ली, रख दी, वहीँ, अब साथ में क्या हो, ये भी देखना था! खैर, अपने शहरयार साहब जुगाड़ी आदमी हैं, कुछ न कुछ तो लाते ही!
और वही हुआ, एक बड़ी सी ककड़ी ले आये! एक हाथ में नमक! और पानी! दो गिलास, स्टील के!
"वाह जी!" कहा मैंने,
"यही मिली, मैं तो यही ले आया फिर!" बोले वो,
"बढ़िया किया!" कहा मैंने,
"लो, गिलास लो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
रखे दोनों गिलास उधर, और खोला ढक्कन! दिया भूमि-भोग और प्रेत-भोग! लिया खट्वांग श्री का नाम! और खींच लिए अपने अपने गिलास! झट से ककड़ी तोड़ी, नमक लगाया और चबा ली! अब इस से बढ़िया मजा और कहाँ मिले! कहीं नहीं जी! शुद्ध देसी तरीका है ये!
तो ककड़ी के साथ ही हमने एक एक बड़ा सा, 'घन्टाल-पैग' गले से नीचे उतार लिया! मजा ही आ गया! ककड़ी तो कलाकन्द का सा मजा देने लगी! कहने को सिर्फ ककड़ी ही थी, लेकिन नमक के साथ और उस बिलायती पानी के साथ जो मजा बाँधा उसने, वो बस कमाल का ही था!
"वाह यार!" कहा मैंने,
"क्या!" बोले वो,
"ककड़ी ने तो कमाल कर दिया!" कहा मैंने,
इस से पहले वो कुछ बोलते कि मेरा फ़ोन बज, मैंने फ़ोन उठाया और देखा, ये बाबा का फ़ोन था, बाबा कल आने वाले थे! बाबा आते तो मेरी उस 'त्रैरात्रिक' साध्वी को भी लाते! अब मुझे इस साधिका के ठहरने और उसके लिए कोई उचित स्थान का प्रबन्ध करना था, सो तो कर ही लेता! तो कोई परेशानी की बात न हुई!
"कल?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तय?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''चलो!" बोले वो,
"लो, वो भी आ गया!" बोले वो,
"महेश?" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"आने दो!" बोला मैं,
आ गया वो, महेश उधर, सामान रख आया था, जो लाया था वो!
"ले आया?" बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
और पैसे देने लगा वापिस!
''अरे रख ले यार!" बोला मैं,
रख लिए उसने!
"कार्यक्रम शुरू?" बोला वो,
"और क्या!" बोले शहरयार!
"संग क्या मिला?" पूछा उसने,
"ये, ककड़ी!" कहा मैंने,
"भुंजवाने रखवा दी हैं, अभी लाया!" बोला वो, उठा, पसीना पोंछा और चला गया वापिस! लाने गया था भुनी हुई कलेजी! भुनी कलेजी वैसे भी बढ़िया लगती है! यदि पीलिया बिगड़ गया हो, तो भुनी हुई कलेजी खाने से फायदा होता है! कलेजी में कुछ ऐसे अवयव होते हैं, जो सीधे ही शक्तिवर्धक हुआ करते हैं! खैर, शाकाहारियों के लिए अपने ही कुछ भोज्य-पदार्थ हैं! मांस का खाना या न खाना ये व्यक्तिगत पसन्द ही है! तांत्रिक-कर्म में तो मांस का महत्व ही अधिक है!
"बनाऊं?" बोले वो,
"बनाओ!" कहा मैंने,
"या रुकूँ?" बोले वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"महेश लाने गया है!" बोले वो,
"तो डालो तो सही गिलास में!" कहा मैंने,
"फिर कहोगे, गिलास में पड़ी तो जम्म दिखाई दे है!" बोले वो,
"है तो सही बात!" कहा मैंने,
"ला रहा है!" बोले वो,
"वाह!" कहा मैंने,
महेश ले आया, और रख दी, शानदार ख़ुशबू उठ रही थी! झट से मैंने और उन्होंने एक एक टुकड़ा उठा लिया और सीधे दांतों के नीचे! मिर्चें तीखीं थीं लेकिन क्या फ़र्क़ पड़ता है!
"वाह महेश!" कहा मैंने,
"मजा आ गया यार!" बोले वो,
उठाये गिलास और एक बमकारा भोले बाबा का! अब जमी महफ़िल सही मायने में तो!
"तेरा माल कहाँ है?" पूछा उन्होंने महेश से,
"लाया हूँ!" बोला वो,
"तो हो जा शुरू?" बोले वो,
"चलो जी!" बोला वो,
और वो भी हो गया शुरू हमारे साथ ही!
"अरे हाँ?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो आप बता रहे थे कल, उस मधु के बारे में?" बोले वो,
"हाँ! अब नहीं है!" कहा मैंने,
"मधु नहीं है?" बोले वो,
"हाँ, पता नहीं क्या हुआ उसे!" कहा मैंने,
"फिर मिलना नहीं हुआ?" पूछा उन्होंने,
"सिर्फ दो बार!" कहा मैंने,
"ओह!" कहा उन्होंने,
"जब मालूम किया तो पता चला, अब नहीं है!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"सोते सोते ही प्राण गए उसके!" कहा मैंने,
"और उम्र क्या थी?" पूछा उन्होंने,
"महज़ पन्द्रह साल!" कहा मैंने,
"ओह, बच्ची!" बोले वो,
"हाँ, उम्र से!" कहा मैंने,
"कभी पूरी बात बताइये!" बोले वो,
"बताऊंगा!" कहा मैंने,
"अजीब सा रहस्य ही है!" बोले वो,
"हाँ, आज तक न समझ आया!" कहा मैंने,
"रहती कहाँ थी?" पूछा उन्होंने,
"मथुरा!" बोला मैं,
"और रहती तो बहुत फायदा होता!" बोले वो,
''सोचा तो यही था!" कहा मैंने,
"फिर भी, बताना!" बोले वो,
"हाँ, पक्का!" कहा मैंने,
"जो आपने बताया था, वो पढ़ था, तभी पूछा मैंने!" बोले वो,
"ठीक वैसा ही मामला है!" कहा मैंने,
"निबट लो, फिर बताना!" कहा उन्होंने,
दरअसल, मधु का मामला अपने आप में बड़ा ही अजीब था! ये था तो पुनर्जन्म से सम्बन्धित, लेकिन कुछ ऐसा, कि सबसे ही अलग! सबसे ही अलग! यूँ समझिये, कि एक अनजान सी भाषा, भाषा खरोष्ठी और बैक्टरिया के ज़माने की! उसने, वो सब पढ़ डाली थी, और उस समय के क्रम को, व्यवस्थित कर के रख दिया था! सच कहता हूँ, पूरा जीवन भी जी जाऊं तब भी वो सब पता न चले! मैंने कुछ नोट बना लिए थे, उन्हीं के बारे में पूछ रहे थे शहरयार साहब!
"हाँ, अवश्य ही बताऊंगा!" कहा मैंने,
"थोड़ा पता चलेगा!" बोले वो,
"जितना मैंने जाना!" कहा मैंने,
"वही सब तो!" बोले वो,
"आया अभी!" बोला महेश,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो बन गया होगा, आता हूँ!" बोला वो,
"ठीक, जल्दी आ!" कहा मैंने,
उन्होंने एक और 'ताबड' सा पैग बनाया और दिया मुझे, मैंने टुकड़ा उठाया कलेजी का, और उस गिलास को खींच मारा! मेरे पीछे पीछे उन्होंने भी खाली कर दिया!
"लाला!" बोला मैं!
"जी!" बोले वो,
"ये तो कम पड़ती दीखै!" कहा मैंने,
"तो चिंता क्यों! रखी हे, बची हुई!" बोले वो,
"वाह! फिर ठीक!" कहा मैंने,
इतने में महेश आ गया! एक बड़ा सा कटोरा ले आया था, उसने रख दिया वो उधर मेज़ पर, और जेब से चम्मच बाहर निकाल दीं! ख़ुशबू ऐसी कि पूछिये मत! सच बात है, देसी सामान का, देसी खाने का और देसी मसालो का कोई जवाब ही नहीं!
"लो जी!" बोला वो,
"वाह यार!" बोले शहरयार!
मैंने के चम्मच वो गाढ़ा सा रसा चखा! क्या स्वाद! शहरयार साहब ने भी चखा! और वो भी मेरी तरह ही मजा लेने लगे!
"सिल का मसाला है रे महेश?" बोले वो,
"इमामदस्ते का जी!" बोला वो,
"वाह! बेहतरीन!" बोले वो,
और झट से एक और पैग बना डाला! उन्होंने बनाया और मैंने उठाया, उठाते ही एक बोटी ली, और झट से सट्ट! तभी फ़ोन बज उठा मेरा! मैंने उठाया तो देखा, ये सरला का था! मैंने चालू किया और उस से बातें करने के लिए, बाहर चला गया! बातें हुईं, कोई ख़ास नहीं थी, बस इतना कि उसके अनुसार कल की रात्रि निशा को बिठाया जाए! मुझे कोई आपत्ति नहीं थी सो हामी भर दी! आ गया अंदर फिर!
"कौन?" पूछा उन्होंने,
"सरला!" कहा मैंने,
"इसे क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"अरे कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"तीन बार कर चुकी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई कमोबेशी रह गयी क्या?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, ऐसा कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"लो फिर!" बोले वो,
मैंने लिया गिलास, और आधा खाली कर दिया! रख दिया नीचे मेज़ पर ही! उन्होंने भी ऐसा ही किया!
"कल कुछ काम बताऊंगा!" कहा मैंने,
"जब मर्ज़ी!" बोले वो,
"समझ लो कल से ही शुरुआत है!" बोला मैं,
"कोई बात नहीं!" बोले वो,
"महेश?" बोला मैं,
"जी?" बोला वो,
"कोई गाड़ी मिलेगी कल?" पूछा मैंने,
"मिल जायेगी!" बोला वो,
"तो कल दस बजे मिल!" बोला मैं,
"ठीक है!" बोला वो,
"दूर नहीं जाना!" कहा मैंने,
"जहां मर्ज़ी जाओ!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"कम पड़े तो बताओ, ले आऊं?" बोला वो,
"है अभी तो!" कहा मैंने,
"सलाद कटवा लाऊं?" बोला वो,
"मिल जायेगी?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"तो पहले ही ले आता यार!" बोले वो,
"लाया अभी!" बोला वो,
"सुन?" बोले शहरयार!
"हाँ?" रुका वो और बोला,
"सिगरेट ले आना!" बोले वो,
"ले आऊंगा!" बोला वो,
और चला गया बाहर!
"माल तो बढ़िया बनाया!" बोले वो,
"हाँ, बढ़िया है!" कहा मैंने,
"अच्छा, एक और बात?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हम्म...चलो कल सही!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
हम बातें करते रहे, और अब धीरे धीरे ही चलते रहे अपने दौर में! महेश आया और सिगरेट ले आया था, तो सिगरेट फूंकने लगे हम फिर!
"कल कोई आ रहा है?" बोला महेश,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यहां?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ये जगह ठीक नहीं!" बोला वो,
"हाँ, पता है!" कहा मैंने,
"यहां कोई व्यवस्था नहीं!" बोला वो,
"देख लिया है!" कहा मैंने,
"और फिर साधिका को तो कोई लाता नहीं यहां!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
बड़ी अजीब सी बात कही थी उसने!
"आपको याद है, वो वल्लभ?" बोला वो,
"वो, उधर....अरे..कहाँ का....?" कहा मैंने,
"वो नेपाली?" बोला वो,
"हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
"उसके पास थी न एक साधिका?" बोला वो,
"याद नहीं!" कहा मैंने,
"थी एक!" बोला वो,
"फिर क्या?" पूछा शहरयार ने,
"वो यहां लड़-झगड़ बैठे थे!" बोला वो,
"ये तो हर जगह है!" कहा मैंने,
"अरे नहीं!" बोला वो,
"हुआ क्या था?" पूछा मैंने,
"यहां गोली-बारी हो गयी थी!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"किसने चलाई?" पूछा मैंने,
"आपस में भिड़ गए!" बोला वो!
"कमाल है!" कहा मैंने,
"इसीलिए कुछ नहीं ठीक यहां!" बोला वो,
"कितना समय हुआ?" पूछा मैंने,
"साल भर हुई!" बोला वो,
"लो जी!" बोले शहरयार!
''हद ही हो गयी!" कहा मैंने,
"इसीलिए, यहां ठीक नहीं!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
तो हमारी बातें होती रहीं! खूब बातें हुईं, आसपास की, और ये भी सोच ही लिया कि बाबा को तो यहां ठहरा सकते हैं, लेकिन अपनी साधिका को नहीं, ये ठीक जगह नहीं थी! और वैसे भी उलझने वाले बहुत ही होते हैं! जान न पहचान, मेरा तीर और मेरी कमान! बस, हो जाती है फिर गाली-गुफ्तार! तो उस रात, हम खा-पी कर, सो गए थे, अगले दिन काम बहुत था, इसीलिए हम सो ही गए!
अगला दिन!
करीब नौ बजे, महेश चला आया था, उसने गाड़ी का प्रबन्ध करना था, उसका कोई जानकार था, उस को ही लाता और हम चल पड़ते फिर, स्टेशन के लिए, यहां से काफी दूर था स्टेशन, वहाँ से बाबा को लेना था, साधिका को भी ठहराना था, काम था बहुत और समय भागे जा रहा था!
करीब दस बजे, गाड़ी आ गयी, और हम चल पड़े, स्टेशन पर गाड़ी आने का समय एक बजे का था, तो हम पौन घण्टा पहले ही पहुंच गए, वहां पता किया, तो गाड़ी एक घण्टे देरी से चल रही थी! अब इंतज़ार किया, कोई चारा तो था ही नहीं! हाँ, इसी बीच खाना ज़रूर खा लिया था, चाय-आदि ले, तैयार हो गए थे हम!
गाड़ी आयी, करीब दो बजे! बाबा से मिले और मैं अपनी साधिका से मिला! उनको ले, चल पड़े वापिस! साधिका को, एक विश्वस्त साधिका के पास ठहराया, शाम को मिलता, ये कह दिया था था उस से और बाबा को ले हम चल पड़े उधर ही, जहां हम ठहरे थे! जब वे फारिग हो गए, तो उनसे बातें हुईं!
"समस्त तैयारियां हो गयीं?" पूछा उन्होंने,
"जी, लगभग!" कहा मैंने,
"नैरोज?" बोले वो,
"प्रबन्ध हो गया!" कहा मैंने,
"स्थान?" पूछा उन्होंने,
"हो गया!" कहा मैंने,
"कब दिखाओगे?' पूछा उन्होंने,
"आप जब कहें?" कहा मैंने,
"सांझ को?" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
"ये उचित रहेगा!" बोले वो,
"जो इच्छा!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
और आ गया वहां से निकल मैं!
"हो गयीं बात?" पूछा शहरयार ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलना है?' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आज ही?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"महेश से कह दूँ?" बोले वो,
"बिलकुल!" बोला मैं,
"आया मैं!" बोले वो,
"रुको?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"मैं भी चलता हूँ!" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोले वो,
हम गए, महेश को ढूंढा, अब महेश न मिले! पूछताछ की तो पता चला, बाहर गया है, आ जाएगा आधे घण्टे में!
"आओ!" बोला मैं,
"चलिए!" बोले वो,
हम अपने कक्ष में आ गए! अब कुछ बातें कीं उनसे! ये ज़रूरी थीं, उनका काम बहुत था, मैं तो एक बार अंदर जाता, तो अंदर का ही हो जाता!
"बाबा से पूछना आप, कोई ज़रूरत हो तो!" कहा मैंने,
"पूछ लूंगा!" बोले वो,
कुछ देर तलक बातें कीं, आधे घण्टे में महेश लौट आया, उसको शाम सात बजे का कह दिया था, अब करीब आधा घण्टा बीत चुका था, तब मैंने शहरयार जी को भेजा बाबा के पास, वैसे तो परिचय करवा ही दिया था, इसलिए, भेज भी दिया था, वे गए, और दस मिनट बाद ही लौट आये!
"कुछ कहा उन्होंने?" पूछा मैंने,
"नहीं, कुछ ख़ास नहीं!" बोले वो,
"क्या बोले?" पूछा मैंने,
"एक कपड़ा मंगवाया है!" बोले वो,
"सफेद, सूती!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो ठीक है, चलते हैं, ये भी ले आएंगे और कुछ 'दाखरस' भी दे देंगे उन्हें!" कहा मैंने,
"ठीक! चलिए!" बोले वो,
तब महेश को बता, हम चले गए बाहर, बाज़ार जाते, और कुछ सामान ले आते, बाबा को कपड़ा मिल जाता और कुछ बढ़िया सा दाखरस तो फिर कोई कमी न रहती! सांझ को उनको स्थान भी दिखला ही देता मैं!
बाज़ार पहुंचे, पहले कपड़ा खरीद, और फिर वो दाखरस! उनके लिए भी और अपने लिए भी! कल की कल ही देखी जाती! थोड़ा कच्चा माल ले लिया, ये देते हम महेश को, तो बाबा का वो दाखरस, बवाल नहीं काटता! आराम से सो जाते बाबा! वैसे भी घाघ क़िस्म के हैं बाबा भी! किस कोने दबा लें वो दाखरस, पता भी न चले! जवानी में तो गिलास क्या, शायद मटकी की ज़रूरत पड़ती होगी उन्हें!
"एक काम करना?" कहा मैंने,
"बोलिये?" बोले वो,
"ये दाखरस, उन्हें खुद ही दे देना!" कहा मैंने,
''अच्छा, कपड़ा भी!" बोले वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"और ये कच्चा माल दे दूँ महेश को?" बोले वो,
"हाँ!" बोला मैं,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
"एक बात और, वो शायद शाम की बोलेन, तो बोल देना, स्थान देखने के बाद जो चाहें,. जैसा चाहें!" बोला मैं,
"ये ठीक!" बोले वो,
"चलो फिर वापिस!" कहा मैंने,
तो हम लौट आये, कच्चा माल दे दिया महेश को, और शहरयार जी, बाबा से मिलने चले गए! उन्हें कपड़ा भी दे दिया और ये भी पता चल गया कि दाखरस का आनन्द वो स्थान देखने के बाद ही लेंगे! खैर जी, जो हमारा काम था, वो निबटा दिया, अब आगे बाबा जानें!
शाम सात बजे करीब बाबा को हम लेकर चले! एक घण्टा लग गया, बड़ी ही भीड़ मिली हमें रास्ते में! किसी तरह से रास्ता बना, हम चल ही पड़े थे, सो पहुँच गए! इस स्थान पर जो संचालक जी थे, वो मेरे परिचित हैं, उनसे मिले और स्थान देखा, स्थान तो पहली बार ही पसन्द आ गया उन्हें! अब उन्हें कल आ जाना था यहां! यहीं उनकी देख-रेख में मुझे तब उस साधना का निष्पादन करना था! तो, बाबा को वापिस छोड़ा, उन्हें कोई दिक्कत न हो, महेश से कह दिया था हमने, बाबा को ठंडा पानी, सलाद आदि सब वहीँ मिल जानी थी! तब बाबा से आज्ञा ले, मैं अपनी उस मुख्य साधिका के पास चला! वहां आधा घण्टा लग गया पहुंचने में! और फिर, जा मिला! उसका पूरा ध्यान रखा गया था, मेरे लिए तो वही चूल की कील थी! उसी के सहारे मेरी नैय्या पर जा लगती! उसने कुछ बातें कीं, और मैंने सुनीं, फिर करीब सवा आठ बजे, हम वापिस हुए! अब आये बाबा के पास! महेश बैठा था साथ उनके!
"प्रणाम!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
"कोई समस्या तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं!" बोले वो,
"कोई कमी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"महेश?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोला वो,
"वो हमारा माल भी ले आ?" कहा मैंने,
"यहीं रखा है!" बोला वो,
और उठ कर, दे दिया! और हम भी बाबा के संग, महफ़िल जमा बैठे!
"वो कैलाश कहाँ है?" पूछा बाबा ने,
"वो नहीं हैं जी!" कहा मैंने,
"कहाँ गया?" पूछा उन्होंने,
"कहीं गए हैं दूर ही!" बोला मैं,
"कब?" पूछा उन्होंने,
"हफ्ता हुआ? क्यों महेश?" बोला मैं,
"हाँ, आठ दिन हो गए!" बोला वो,
"वापिस कब है?" पूछा उन्होंने,
"इतवार आ जाएँ!" बोला वो,
''और वो, सीतल?" बोले वो,
"वो यहीं है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बुलाऊँ?" पूछा महेश ने,
"ना!" बोले बाबा जी!
"कल मिल लेना!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और वो, क्या नाम है.....?" बोले बाबा,
"कौन?" पूछा मैंने,
"अरे वो रविंदर!" बोले वो,
"वो लखनऊ गया जी!" बोला महेश!
"कब?" पूछा उन्होंने,
"साल हो गया!" बोला महेश!
