"जान लूंगा!" कहा मैंने,
"जान लो!" बोला वो,
"तुम कब से हो यहां पर?" पूछा मैंने,'
"मैं?" बोला वो,
"हाँ, तुम?" कहा मैंने,
"नहीं जानता!" बोला वो,
"नहीं बताना चाहते!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"यहां भी विवशता!" कहा मैंने,
"निःसन्देह!" बोला वो,
"कुछ पूछ सकता हूँ?'' पूछा मैंने,
"पूछ ही रहे हो!" कहा उसने,
"हाँ, परन्तु, कुछ विशेष!" कहा मैंने,
"पूछना है?'' बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आवश्यक ही है?'' बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पूछो!" बोला वो,
"वो केवड़े की सुगंध!" कहा मैंने,
अब चुप हो गया वो!
"बताओ?" पूछा मैंने,
"यहां भी विवशता?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तुम शक्तिशाली हो, कोई संदेह नहीं!" कहा मैंने,
अब भी न बोला वो कुछ भी!
"परन्तु ये शक्तियां तुम्हारी कदापि नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ! नहीं हैं!" बोला वो,
"किसने दीं?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"सब पता है!" कहा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"एक पिशाच, ऐसा शक्तिशाली नहीं होता!" कहा मैंने,
"मैं भी नहीं था!" बोला वो,
"किसने बनाया?'' पूछा मैंने,
"असमर्थ हूँ!" बोला वो,
"बताने को?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"मैं जानता हूँ!" कहा मैंने,
"क्या?'' कड़क हो कर पूछा उसने,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"सही निर्णय है!" बोला वो,
"है न?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"अब कैसी विवशता?" पूछा मैंने,
"है!" बोला वो,
"मुझे बताओ?" कहा मैंने,
"नहीं बता सकता!" बोला वो,
"मुझे अब तुमसे कोई भय नहीं! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"विश्वास कर लूँ?" पूछा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
"तो स्पष्ट करो अपने आप को!" बोला मैं,
मेरे शब्द अभी ख़त्म भी न हुए थे कि वो प्रकट हो गया! धूसर सा रंग, फूले फूले से अंग! लम्बा-चौड़ा सा, योद्धा जैसा! एक बार विशेष थी, माथे पर, एक टीका था, केसरी रंग का, पूरे ललाट पर! ये ब्रह्म-पिशाच सा लगता था देखने में! चौड़े चौड़े नेत्र, काल स्वरुप! अस्थियां तो कहीं दिखे हीं नहीं! भारी-भरकम देह थी उसकी! एक भुजा से, किसी अश्व को भी उठा कर फेंक दे, ऐसा बल रहा होगा उसमे!
"तुम ही हो वो पिशाच!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तुमने ही आस्त्रिकाएं भन्जन कीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तुम ही हो वो, जो उन बाबा से संबंधित है!" कहा मैंने,
वो चौंक पड़ा! थोड़ा पीछे, हुआ!
"विवशता नहीं पूछ रहा!" कहा मैंने,
वो चुप्प! अवाक सा था!
"दो और आये थे न?" पूछा मैंने,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"तुम्हें बाँधने?" बोला मैं,
वो हंसा! मुस्कुराया!
"इतना दुः साहस कौन करेगा!" बोला वो,
"आये थे न? तुमने मारा उन्हें?" पूछा मैंने,
"हाँ, मारा!" बोला वो,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"मैं पराजित न हुआ!" बोला वो,
"एक विवशता तो समाप्त हुई!" कहा मैंने,
"तुम्हें भय नहीं?" पूछा उसने,
"किस बात का?'' पूछा मैंने,
"मैं प्राण हर सकता हूँ तुम्हारे, क्षण भर में!" बोला वो,
"नहीं हरोगे!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"मैं पराजित नहीं होऊंगा!" कहा मैंने,
वो जमकर हंसा! जी खोलकर!
"उम्मीद बंधी?'' कहा मैंने,
उसने सर हिलाया! कई बार!
"हाँ!" बोला वो!
"सत्य कह रहा हूँ!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"हाँ, इसीलिए बोला!" कहा मैंने,
"मैं पहला भी नहीं, अंतिम भी नहीं!" बोला वो,
"हाँ, सच कहा!" कहा मैंने,
"परन्तु.................." बोला वो,
"क्या?'' कहा मैंने,
"तुम्हें भूषक बनना स्वीकार होगा?" पूछा उसने,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"विचार कर सकते हो!" बोला वो,
"कैसा विचार?' पूछा मैंने,
"लौट जाओ!" बोला वो,
"अथवा?'' पूछा मैंने,
"अंत!" बोला वो,
"हाँ अंत!" कहा मैं,
वो फिर से हंसा!
"तुम्हारी इस दशा का अंत!" कहा मैंने,
"दशा?" बोला वो, चौंकते हुए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या समझते हो!" बोला वो,
"तुम जैसा परम शक्तिशाली पिशाच! और ये दशा!" कहा मैंने,
"मैं प्रसन्न हूँ!" बोला वो,
"दुर्दशा में?" पूछा मैंने,
"दुर्दशा!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैं बंधा हूँ!" बोला वो, अब थोड़ा सा, गम्भीर होते हुए!
"यही तो है दुर्दशा!" कहा मैंने,
"मैं क़ैद में हूँ!" बोला वो,
"ये तो मैं तभी जान गया था, जब मुझे पहली बार छोड़ा था तुमने!" कहा मैंने,
"मेरा दोष क्या था?'' पूछा उसने,
"ये नहीं जानता!" बोला मैं,
"बता सकता हूँ!" बोला वो,
''फिर?'' बोला वो,
"यदि तुम अंतिम हों तो!" कहा मैंने,
"ये तो सम्भव ही नहीं अब! तुमने ही तो कहा? और भला एक पिशाच, असत्य क्या और क्यों बोलेगा?" बोला मैं,
"क्या बोला?" बोला वो,
"यहीं, कि मैं पहला भी नहीं और अंतिम भी नहीं!! प्राणदान तो तुमने मुझे उसी क्षण दे दिया था!" कहा मैंने,
"प्रसन्न हुआ मैं!" बोला वो,
"अब बताओ!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"जो मैं जानना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
"क्यों लगता है, मैं सच बोलूंगा?' बोला वो,
"मुझे तो लगता है!" कहा मैंने,
"ऐसा विश्वास?" बोला वो,
"कम से कम एक पिशाच पर, तुम जैसे!" कहा मैंने,
"करोगे?" बोला वो,
"क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"लाँघो!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"लांघ जाओ!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"जानते हो, तुम्हारे प्राण नहीं लूंगा!" बोला वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"लांघ जाओ!" कहा उसने,
और मैं एक कदम आगे बढ़ा! जैसे ही बढ़ा कि जैसे धुंधलका सा छटा, जैसे, पौ फटने का ही समय हुआ हो! वो मुझे कुछ दिखाना चाहता था, मैं भी देखना चाहता था! नहीं काटी मैंने माया वो!
"उधर देखो!" बोला वो,
मैंने उधर ही देखा! एक गे बंधी थी, दो पेड़ लगे थे, एक बड़ा सा पेड़ था एक छोटा, और पीछे शायद नीम का एक पेड़ था, उधर, एक कुटिया थी, ये कुटिया, बड़ी सी सी थी, साथ में, एक जगह, एक मंच सा बना था, मिट्टी का, वो लीपा हुआ था गोबर और मिट्टी से ही!
"बाबा मेघसाल!" बोला वो,
"बाबा मेघसाल?" पूछा मैंने,
"हाँ, पूज्नीय बाबा मेघसाल!" बोला वो,
और दृश्य लोप! मैं, जहाँ था वहीँ का वही, वो सामने नहीं था मेरे! मैंने नहीं बुलाया, वो यहीं था, आसपास ही!
"बाबा मेघसाल? क्यों?'' आया वो, प्रकट हो कर!
"नहीं जानता!" बोला मैं,
"मैं ऋणी हूँ बाबा का!" बोला वो,
"ऋणी?" कहा मैंने,
"हाँ! ऋणी!" बोला वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"बताऊंगा!" कहा उसने,
और फिर से लोप हो गया! इस बार, विलम्ब हुआ, और वो, फिर से प्रकट हुआ!
"बताओ?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और जैसे ही बोलने लगा आगे कि........................
एक तीव्र सी गंध फिर से उभरी! जैसे आसपास केवड़े के फूल ही फूल घिरे हों! हो न हो, बाबा मेघसाल अवश्य ही जुड़े थे इस पिशाच से! इनका आपसी कोई न कोई संबंध तो था ही! हम ये क्रूरता समझ सकते हैं कि उसने मासूम लोगों की हत्या की, ऐसा प्रतीत हो सकता है, हम मानव के परिपेक्ष्य में देखें तो, लेकिन एक पिशाच और क्या करेगा, यदि ये स्थान उसके लिए पावन हो तो? कैसा दण्ड देगा? उसने कहा था कि वो चेताता था, तब दण्ड देता था! उसका दण्ड मृत्यु-दण्ड ही हो, समझा जा सकता है! अब वो स्थान पाँव, पावन कैसे? तो बाबा मेघसाल का वो स्थान दिखाकर, जैसे उसने अपने उस सजग 'मानवीय पहलू' के भी दर्शन करवा दिए थे! अर्थात, उसमे भी उस क्षण करूणा थी! मैं ये गुत्थी बस सुलझाने वाला ही था, कुछ फांसला था बाकी, तो ये पिशाच स्वयं ही बताने वाला था मुझे!
"तुम्हारे लिए ये स्थान पावन है न?" पूछा मैंने,
"अत्यन्त ही!" बोला वो,
"तुम ही यहां ये फूल रोपते हो?" बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
"पूछ सकता हूँ क्यों?'' पूछा मैंने,
"कौन नहीं रोपेगा!" बोला वो,
"अब एक माव और पिशाच का कैसा संबंध?'' मैंने जी को छीलने वाला प्रश्न किया था, ये ज़रूरी भी था, चंदन घिस कर सुगन्धित, स्वर्ण तप कर निखार पाता है! और एक शिष्य, गुरु-आज्ञा के वहन से पूर्ण होता है! ये तो मैं समझ ही गया था! एक पिशाच, जो, वहन कर रहा था या तो बाबा मेघसाल की आज्ञा या उनका क्रोध! कुछ तो था ही!
"संबंध है!" बोला वो,
"क्या भला?" पूछा मैंने,
"विश्वास करना होगा?" बोला वो,
"एक एक शब्द पर!" कहा मैंने,
"जैसा मैं कहूं!" बोला वो,
"अकाट्य रूप से!" बोला मैं,
"पुनः प्रति-प्रश्न नहीं!" बोला वो,
"जानता हूँ, दुःख पहुंचेगा!" कहा मैंने,
"निःसन्देह!" बोला वो,
"समझता हूँ मैं!" कहा मैंने,
"सच है!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
वो चुप हुआ....चुप्प......शायद मुझ से ऐसी आशना न हो उसे, कि प्रश्न मैं करूं, वो भी उत्तर जानते हुए भी! मैं मुस्कुराया फिर से!
"कि मैं अंतिम नहीं!" कहा मैंने,
उसने मुझे देखा! एक पिशाच को, किंकर्तव्यविमूढ़ सा!
"यही न?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"हाँ, शब्द, लघु नहीं?" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"मुझे तुम्हारे एक एक शब्द पर विश्वास है!" कहा मैंने,
"मैं पिशाच हूँ!" बोला वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
''एक पिशाच पर विश्वास?" बोला वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"वो क्यों?" बोला वो,
"जब एक पिशाच दो मनुष्यों पर विश्वास कर सकता है, तो मैं भला एक पर क्यों नहीं?" बोला मैं, मुस्कुराते हुए!
"है मानव! सत्य है ये!" बोला वो,
"आया हूँ मैं!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"अब परीक्षा न होगी!" कहा मैंने,
"कदापि नहीं!" बोला वो,
"मानते हो?' कहा मैंने,
"हाँ, कुछ माँगना है?'' बोला वो,
"तुम प्रसन्न हो इसीलिए?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"लौट जाओ!" बोला वो,
"तुम्हें यहीं छोड़ कर?" कहा मैंने,
"नियति है!" बोला वो,
"तुम्हारी भी न चली!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"चलने न दी गई, कहूं तो?" बोला वो,
"वो भी ठीक!" बोला वो,
"एक पिशाच का दर्द, व्यथा! ये कहेंगे हम मानव इसे!" कहा मैंने,
"समझता हूँ!" बोला वो,
"ऐसा ही है एक इतर योनि और मानव का स्नेह!" कहा मैंने,
"जान गया हूँ!" बोला वो,
"अकेले रह गए!" कहा मैंने,
"हाँ, हाँ! अकेला!" बोला वो,
"सही कहा न मैंने!" पूछा मैंने,
"निःसन्देह!" बोला वो,
"न बाबा मेघसाल हो होते, और न तुम ही यहां!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कब तक रहोगे?'' पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
मैं हंस पड़ा! एक एक खनक मेरी उसको आरी की तरह से चीर रही हो भले ही, परन्तु विषय ऐसा ही था! एक पिशाच, नहीं! पता!
नहीं पता! नहीं! ये उत्तर तो था ही नहीं! ये तो वो बोल ही नहीं सकता था कि उसे पता नहीं! उसे सब पता था, सब! क्या आरम्भ था और क्या अंत! सब पता था उसे! नहीं पता बोलकर, वो बस ध्यान ही बंटाना चाह रहा था! कुछ था जो वो जोह रहा था! एक बोझ था, रखना चाहता था नीचे, लेकिन मोह था उसे उस बोझ से! और ये थी उसकी दुर्दशा! बताए तो क्या बताए और छिपाए तो क्या!
"तुमने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"यहां तक कि प्रवृति भी!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"झूल गए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"झूल रहे हो आज तक!" कहा मैंने,
"सत्य!" बोला वो,
"कब तक?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"अब नहीं!" कहा मैंने,
वो अवाक रह गया!
"हाँ!" कहा मैंने,
न बोला कुछ भी!
"हाँ, मैं भी एक मनुष्य ही हूँ!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"तुम क्यों प्रकट हुए?" पूछा मैंने,
"जानते हो!" बोला वो,
"हाँ, जानता हूँ!" कहा मैंने,
"तुम, तब भी प्रकट हुए थे?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"तुम्हारे समय में, बरसों हुए!" बोला वो,
''और तुम्हारे लिए?'' पूछा मैंने,
"सदियाँ!" बोला वो,
"मानव नहीं हो!" कहा मैंने,
"बनना चाह!" बोला वो,
"क्या मिला?'' पूछा मैंने,
"मझे कोई समस्या नहीं!" बोला वो,
"असत्य नहीं कहते!" कहा मैंने,
"नहीं बोला!" बोला वो,
"क्या मिला?'' पूछा मैंने,
"सुख!" बोला वो,
"छाया से ही?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"मुझे सौंपा गया था!" बोला वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"यही पर्याप्त है!" बोला वो,
"बताना नहीं आवश्यक!" बोला मैं,
"नहीं!" कहा उसने,
"टीस है कहीं!" कहा मैंने!
"हाँ! टीस!" बोला वो,
"तब तक, मनुष्य के शत्रु थे तुम, स्वाभाविक है!" कहा मैंने,
चुप हो गया वो!
"इसीलिए सौंपा गया! है न?'' बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"द्वि-उत्तरेक प्रश्न है!" बोला वो,
"जो निकट हो!" कहा मैंने,
चुप! नहीं बोले वो! कैसा पिशाच था वो भी!
"सौंपने वाला चला गया!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"और तुम?'' बोला मैं,
"उनके अधिकार में था!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मुझ से पूछ गया...............!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
नहीं बोले वो कुछ भी!
"जाना चाहते हो? यही न?' कहा मैंने,
चौंक पर देखा उसने मुझे, उसी क्षण!
"तो फिर, गए क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
नहीं बोला कुछ! हैरान था कि कैसे, बताए जा रहा हूँ मैं! बता मैं नहीं, उसके उत्तर और मेरे प्रश्न! ये बताए जा रहे थे!
"कि ये कैसा मनुष्य?" बोला मैं,
"ये कैसा?" बोला मैं!
"मेरी मुक्ति!" बोला मैं,
"इतनी सहज?" कहा मैंने,
"इतनी सरल?" कहा मैंने,
"यही न??" कहा मैंने,
नहीं बोला वो कुछ भी!
"यही न? बोलो?' बोला मैं,
"हाँ! कि ये कैसा मनुष्य? ये कैसा? कैसा सरल? क्या तय करूं? किस और जाऊं? हाँ, पहले मुक्ति! उस क़ैद से मुक्ति! यही ना?'' बोला मैं!
"बताओ?" बोला मैं,
"तुम सब जानते हो!" बोला वो,
"नहीं, जान रहा हूँ!" कहा मैंने,
"सब जानते हो!" बोला वो,
"तुम मुक्त हो गए थे?" पूछा मैंने,
"हाँ! मुक्त हो गया था!" बोला वो,
"तुम फिर भी लौटे?" पूछा मैंने,
"हाँ! लौटा!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" कहा उसने,
"सब पता हे!" कहा मैंने,
"नहीं! नहीं पता!" बोला वो,
"सब पता है, छिपाओ नहीं!" कहा मैंने,
"जाओ! लौट जाओ! बस! अब और नहीं!" बोला वो,
"ये क़ैद पसंद है तुम्हें?" पूछा मैंने,
"जाओ! जाओ!" बोला वो
मैं भी कुछ देर चुप लगा गया! और........
"बाबा ने भी यही कहा न?" बोला मैं,
"क्या?" पूछा उसने,
"लौट जाओ!" कहा मैंने,
"हैं?" वो चौंका!
"बोलो?" बोला मैं,
"प..पता नहीं!" बोला वो,
"तुम तो बहुत पृथक हो!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"इतना तो कोई आज का पुत्र मान नहीं देता!" कहा मैंने,
''वे मेरे पिता समान थे!" बोला वो,
ओह....कहीं मेरे कर्ण ही सुनना न बंद कर देते! कहीं मैं, जड़ता को प्राप्त न हो जाता! कहीं मैं, मानव हो कर, शर्मिंदा हो, वहीँ न गिर जाता! मैं मानव! कैसा नीच! अधम! और एक ये! पिशाच! नैसर्गिक पिशाच! और पिता समान?
"मैंने शिष्यत्व ग्रहण किया उनसे!" बोला वो,
"उनके समीप रहने को!" कहा मैंने!
"हाँ!" बोला वो,
"बाबा भी सबकुछ जानते थे!" कहा मैंने,
"हाँ, जानते थे!" बोला वो,
"तुम भी!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"हाँ, नहीं! नहीं जानते थे!" कहा मैंने,
"हाँ, सच में ही नहीं जानते थे! या जानना भी आवश्यक नहीं था, या तुम जानते थे, इस से अंजान बने रहे!" कहा मैंने,
कुछ देर चुप रहा वो!
"मैं सबकुछ जानता था!" बोला वो,
"क्या....बाबा का अंत भी?" पूछा मैंने,
अब चुप वो! बिलकुल चुप!
"ये? वही स्थान है ना?" पूछा मैंने,
"हाँ" रुआंसे से गले से बोला वो!
"तुम्हारे पिता का स्थान?" पूछा मैंने,
झट से वो समीप आया!
"है न? तुम्हारे पिता का स्थान?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक एक कण!" बोला वो,
''और वो इमली का पेड़?" पूछा मैंने,
"ये! ये मेरे बाबा का पेड़! इसके नीचे, मुझे शिक्षण देते थे बाबा, रात में! वे डांटते, कभी कभी पीटते भी थे! ये! ये पिता का स्थान है! मेरे पिता मेघसाल का! मैं, उनका मानव-पुत्र था! हूँ! और रहूंगा! वे मेरे पिता थे!" बोला वो,
इतनी करुणा? एक पिशाच में? उस डांटते थे बाबा मेघसाल? शिक्षण? रात्रि-समय? जब कोई न होता था पास उनके?
"बाबा का परिवार?" पूछा मैंने,
"नहीं था!" बोले वो,
"कोई नहीं?" पूछा मैंने,
"बस मैं!" बोला वो,
"ओह....तभी लौटे तुम!" कहा मैंने,
"हाँ, मैं ऋणी था उनका! ऋणी!" बोला वो!
"मुक्ति का ऋण?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
'फिर?" पूछा मैंने,
"उनकी मुक्ति का!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, उनकी मुक्ति का!" बोला वो,
"तुमने सब 'दान' दे दिया?'' पूछा मैंने,
"दान नहीं, मेरा जो कुछ था, उनके दिए का अंश भी नहीं!" बोला वो,
"और तुम, अकेले रह गए!" कहा मैंने!
"हाँ, अकेला! अपने से अकेला? कदापि नहीं, बाबा से? हाँ! हाँ! मैं अकेला रह गया!" बोला वो, हँसते हुए! ज़ोर का, एक खोखला अट्ठहास लगाते हुए!
"नहीं! तुम अकेले नहीं हो! नहीं हो अकेले! अकेले तो हम जैसे मनुष्य होते हैं! तुम नहीं हो! मेरे पास इस संसार में, तुम्हारे लिए कोई शब्द नहीं, जिसका उदगार कर मैं तुम्हारे उस शिष्यत्व एवं पुत्रत्व के समक्ष रख सकूँ! हे पिशाच! तुम्हारा स्थान बहुत ऊँचा है! बहुत ऊँचा! तुमने तो वो कर दिखाया जिसे हम मनुष्य सदियों में भी न सीख सके! हमने ग्रन्थ रचे, सूक्तियां और न जाने क्या क्या! अमल किसी पर भी न किया! तुम धन्य हो हे पिशाच! तुमने बाबा मेघसाल की शिक्षा को जीया है, अमल में लाये हो! मेरा प्रणाम तुम्हें! मेरा प्रणाम स्वीकार कर, इस मनुष्य धन्य करो हे पिशाच!" कहा मैंने, मेरा गला रुंध आया था! शब्द नहीं बन पा रहे थे! मैं क्या मिसाल दूँ? कौन से शब्द लाऊं? कहाँ से लाऊं?
"जिस समय मुझे सौंपा गया, मुझ में, क्रोध था, अंदर तक खौल रहा था मैं! मनुष्य से कैसे प्रतिकार लेना है, सीख चुका था मैं,,,,,,,,,,,,,परन्तु....." बोलते बोलते रुका वो!
मैंने नहीं टोका उसे, अवसर दिया, जितना बताता, उतना ही उचित था, समय लिए तो समय दिया!
"एक रात..मुझे प्रकट किया उन्होंने......बताया गया था कि मैं प्रवृति से क्रूर हूँ, मनुष्यों का शत्रु हूँ, मुझे स्थान-कीलन पश्चात, सदियों तक दबा दिया जाए!" बोला वो!
"फिर?" मैंने जिज्ञासावश पूछा!
"मुझे प्रकट किया गया! मैं बंधा था, कुछ नहीं कर सकता था!" बोला वो,
"बाँधा गया होगा, समझता हूँ!" कहा मैंने,
"मैं क्रोध में था, तमतमाता हुआ! परन्तु वो? शांत! कोई भय नहीं! वे शांत थे! एक पिशाच सम्मुख है, कोई भय नहीं!" बोला वो,
"क्यों भयभीत होते? तुम उनके शत्रु ही नहीं थे!" बोला मैं,
"हाँ, यही पूछा था मुझ से, कि कब से क़ैद हूँ, बाँधा गया है, तुम शत्रु नहीं मेरे! यही कहा था बाबा ने भी!" बोला वो,
"तुमने विश्वास किया?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"उन्होंने मुझ से पूछा, कि यदि मुझे मुक्त कर दिया जाए तो सबसे पहला कार्य क्या करोगे?" बोला वो,
"क्या कहा? प्रश्न सच में ही उलझा हुआ और कठिन है!" कहा मैंने,
"मैंने कहा, सबसे पहले उसका सर धड़ से अलग करूंगा, जिसने मुझे बाँधा था!" बोला वो,
"अच्छा, यही कहा?" कहा मैंने,
"हाँ! यही कहा!" बोला वो,
"और बाबा ने क्या कहा?'' पूछा मैंने,
"मैं सन्न था! मेरे उस क्रूर रूप में भी वो शांत थे!" बोला वो,
"जबकि तुमने उन्हें ये समझा भी दिया था कि जो उसे क़ैद करेगा, उस सर धड़ से अलग कर दोगे तुम!" कहा मैंने,
"हाँ, यही आशय था!" बोला वो,
"बाबा पर कोई प्रभाव न हुआ!" कहा मैंने,
"हाँ, वे भयहीन ही थे!" बोला वो,
"क्यों? किस कारण से?" पूछा मैंने,
"बाबा ने भय का नाश कर लिया था!" बोला वो,
"ये किस प्रकार होता है?" पूछा मैंने,
"उनके अनुसार, स्वयं को जानकर!" बोला वो,
"स्वयं?" पूछा मैंने,
"हाँ, स्वयं!" बोला वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"बाबा ने कहा, कि सबसे बड़ा शत्रु, ये स्वयं ही होता है, सबसे बड़ा भय भी इसी स्वयं से होता है, इन्हें जीत लो, तो शत्रु पर विजय सदैव प्राप्त होगी, क्योंकि फिर कोई शत्रु ही शेष न होगा, स्वयं का भय, सबसे बड़ा भय है, इसे जीत लो, भय का नाश हो जाएगा!" बोला वो,
"प्रणाम बाबा मेघसाल!" मैंने हाथ जोड़, प्रणाम किया उन्हें!
मैं चुप हो गया! इतिहास ने कैसे, एक से बढ़ कर एक मनीषी अपने गर्भ में छिप रखे हैं! ये इतिहास, कभी कभी जब रुकता है, तो तब कुछ नज़र आता है! हम सभी एक जीता-जागता इतिहास ही तो हैं! एक अंश भर इसके! इस से अधिक क्या महत्व हमारा इस इतिहास के लिए!
"तब क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"बाबा ने मुझे मुक्त कर दिया क़ैद से!" बोला वो,
"तब तुम स्वतंत्र हो गए!" कहा मैंने,
"हाँ, उस लम्बी क़ैद से!" बोला वो,
"तब प्रतिकार नहीं किया उनसे?" पूछा मैंने,
"जिसका भय कुछ न बिगाड़ पाये, उसका मैं क्या बिगाड़ पाता! मुझे विश्वास नहीं हुआ! मैं स्वतंत्र हूँ अब! लौट सकता हूँ! प्रतिकार ले सकता हूँ! अब कोई रोक नहीं मुझ पर!" बोला वो,
"तो ऐसा किया क्यों नहीं?" बोला मैं,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बाबा मेघसाल! कितना जाना मैंने उन्हें? उन्होंने मुझे? मुझे प्रकट किया, कितनी देर? एक घट्य भी नहीं! और मुझ पर ऐसा विश्वास? वे तो वृद्ध थे! उठने के लिए भी, सहारा लेते थे!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
अब वो, फिर से चुप हो गया! एक पिशाच, बोले जा रहा था, मैं जानता था, उसका एक एक शब्द सच है! एक एक शब्द!
"मैंने इच्छा प्रकट की!" बोला वो,
"कैसी इच्छा?" पूछा मैंने,
"उन्हें स्वास्थ्य-लाभ होता, मैं कर सकता था, चाहता तो क्या नहीं कर सकता था उनके लिए! मेरी क़ैद से मुक्ति के समक्ष ये तो नगण्य ही था!" बोला वो,
"फिर? बाबा ने क्या कहा?" पूछा मैंने,
"प्रकृति के विरुद्ध कभी नहीं जाना चाहिए!" बोला वो,
"तुम नहीं गए!" कहा मैंने,
"आदेश था मेरे लिए!" कहा उसने!
"कैसा आदेश भला? तुम्हें शिष्यत्व ही कहाँ दिया?'' पूछा मैंने, मर्म को भेदे जा रहा था मैं उसके! आज बोलना था उसे!
"हाँ, मनुष्य, हामी चाहते हैं!" बोला वो,
"हाँ, यही तो नियम है?" कहा मैंने,
"मैंने निभाया नियम!" बोला वो,
"तुम्हें शिष्यत्व प्रदान किया?'' पूछा मैंने,
"हाँ! प्रदान किया!" बोला वो,
अब ज़रा अटका मैं! यहां कोई एक गलत है! या तो बाबा मेघसाल, या ये पिशाच या फिर मैं! कौन गलत है? उस समय तो निर्णय नहीं कर पाया मैं!
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"नौ वर्ष लगे!" बोला वो,
"नौ वर्ष?" पूछा मैंने,
"हाँ! नौ!" बोला वो,
"किसमे?'' पूछा मैंने,
"स्वीकार करने में!" बोला वो,
"स्वीकार करने में?'' मैंने चौंक कर पूछा!
"हाँ!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"एक रात्रि, मुझे आदेश हुआ!" बोला वो,
"उन्हें आदेश दिया?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कैसा आदेश?" पूछा मैंने,
"अपनी कुटिया में प्रवेश का!" बोला वो,
"क्या?? नौ वर्ष?" मैंने हैरत से पूछा!
"बाहर ही खड़ा रहा मैं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं अंदर आया!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मध्य-रात्रि थी वो!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मुझे शिष्यत्व प्रदान किया!" बोला वो,
"ओह.....फिर?" पूछा मैंने,
''एक क्षण में, समस्त विद्याएं प्रदान कर दीं!" बोला वो,
"उस रात और भी कुछ हुआ था!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"क्या?" बोला मैं,
"पुत्रत्व! मैं उनका धर्मपुत्र हो गया!" बोला वो,
"उन्होंने स्वैच्छिक मृत्यु चुनी!" कहा मैंने,
वो हैरान रह गया!
"है न?'' बोला मैं,
"तुम कैसे जानते हो?" बोला वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
वो चुपचाप खड़ा देखता रहा! अचम्भित था! कि वो ये कैसे न जान सका कि मैं क्या कहने वाला हूँ! बाबा मेघसाल ने कुछ दिया तो कुछ लिया भी! मैं ये जान ही गया था!
"उस रात्रि, तुम्हें क़ैद किया गया!" कहा मैंने,
वो चुप, कंपकपा सा गया!
"उस इमली के वृक्ष पर, जिसके नीचे तुम्हें, सिखाया जाता था! शिक्षण होता था! विद्याओं का नहीं! वो क्या? ये तुम जानते हो! तुम ही जानो! मुझे नहीं लाभ जानने से! हाँ, उस क्षण तक, बाबा ने तुमको परखा! तुम परख में जंच गए! बाबा ने सबकुछ सिखाया तुम्हें परन्तु............." इतना कह मैं चुप हो गया!
"परन्तु क्या? परन्तु क्या?" बोला वो,
अचानक से, वो इमली का वृक्ष प्रकट हुआ! वो समय, फिर से जीवंत हो गया! वो कभी इमली के वृक्ष को देखे, कभी उस दूर बनी कुटिया को! उस तालाब पर बनी एक कुटिया को! हाथ बढ़ाए! आगे जाए तो जा न सके!
"परन्तु क्या?" वो गिड़गिड़ाया! मेरे आगे पीछे हो!
"हे पिशाच! तुम्हारा कोई सानी नहीं! सच में कोई सानी नहीं! तुम्हें सबकुछ सिखाया परन्तु, स्वयं-मुक्त होना नहीं सिखाया!" कहा मैंने,
वो बेचैन हो! इधर उधर देखे!
"इसीलिए उम्हें क़ैद कर दिया!" कहा मैंने,
"जानता हूँ! मैं सब जानता हूँ!" बोला वो,
"और ये भी जानते हो, कि इन सभी हत्याओं का दोषी तुम्हें ठहराया जाता जा रहा है! वो हत्याएं, जो तुमने की ही नहीं!" कहा मैंने,
वो अवाक रह गया!
"हत्याएं तुमने नहीं, बाबा मेघसाल की रक्षण-रेखा ने कीं! कहीं तुम्हारा अहित न हो, पुनः क़ैद में न डाल दिया जाए! विद्या अंतर नहीं करती, न पक्ष ही लेती है! इसीलिए, तुमने, सारा दोष अपने ऊपर लिया, ताकि बाबा मेघसाल पर कोई छींट न आये! वाह रे पिशाच! मैं प्रणाम भी करूँ तो क्या धरातल हो मेरा!" बोला मैं,
वो चिल्लाया! दहाड़ा! बाबा मेघ! बाबा मेघ! क्षमा! क्षमा! चिल्लाए वो! बार बार!
कुछ क्षण बीते! कुछ ही क्षण! वो न बोला कुछ!
"अब लौट जाने का वक़्त है! मेरा भी और तुम्हारा भी! वो रक्षण-रेखा, काट दी है मैंने! पुकारोगे, नहीं आऊंगा, बुलाओगे नहीं आऊंगा! हाँ एक बार............पीछे ज़रूर देखूंगा...पलट कर!" कहा मैंने,
और मुड़ गया! चलता रहा सीधे, सीधे सीधे! रुका, पीछे देखा, वो इमली का पेड़, गायब था, हाँ, वो, खड़ा था अभी तक! मैं मुस्कुराया! झूठ बोला मैं उस से! दुबारा पलट कर देखने को! पलट कर देखा.........अब नहीं था वो वहां! जानता था, कहाँ गया होगा! और मैं, सीधे चलता चला आया!
"कुछ पता चला? काफी वक़्त हुआ?'' बोले शहरयार!
''आओ, लौटें अब!" कहा मैंने,
वे रुक गए, मैंने फिर से पलट कर देखा! मुस्कुराया, और वे, तेज चलते हुए, आ गए मेरे पास!
साधुवाद!!
ज्ञान, मान, मानवता, व्यवहार, भी में आप सर्वश्रेठ हो गुरुजी, सादर नमन, कोटिशः प्रणाम 🌹🙏🏻🌹