वर्ष २०१३ जिला मेरठ...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१३ जिला मेरठ की एक घटना, एक ख़ौफ़नाक पिशाच की क़ैद!

38 Posts
2 Users
0 Likes
314 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

  मैंने मुकेश के मोबाइल फ़ोन पर एक फोटो देखा, फोटो बड़ा ही वीभत्स था, फोटो में, धड़ नहीं दीख रहा था, बस सर ही था, ये करीब चालीस साल के पुरुष का था, पुरुष देहाती भी नहीं लगता था, कहाँ से आया था, कौन था, ये तो पुलिस ही जाने, जिसकी तफ़्तीश अभी चल ही रही होगी!
"ये फोटो कब की है?" पूछा मैंने,
"करीब चार महीने पहले की जी" बोले मुकेश!
"अच्छा, उसी जगह पर ली थी आपने?" पूछा मैंने,
"जी मैंने नहीं ली!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही किसी और ने ली थी, घूमते-घामते मुझे भी मिल गई" बताया उन्होंने,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"ये आपके गाँव से कितनी दूर है जगह?" पूछा मैंने,
"कोई एक किलोमीटर मान लो?" बोले वो,
"अच्छा, ऐसा कब से होता आ रहा है?" पूछा मैंने,
"गुरु जी, ये न जाने कब से है, पिता जी मना किया करते थे वहां जाने से, तो कभी नहीं गए हम तो, अपनी जवानी में भी नहीं, हाँ, कभ-कभार पास से गुज़र गए सो अलग बात है!" बोले वो,
"यानि काफी पुराने समय से?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, मान लो!" बोले वो,
"होता क्या है? अरे हाँ, वो पेड़?" बोला मैं,
"बताता हूँ" बोले वो,
फ़ोन की लाइट बंद हो गई थी, तब, उसको जेब में रख लिया, पानी का गिलास लिया और कुल्ला करते हुए जैसे, पानी पी लिया वो! फिर बाकि बचा पानी पी लिया, रख दिया गिलास नीचे!
"हाँ, वो पेड़?" पूछा मैंने,
"जी, देखने वाले कहते हैं, कि उन्होंने उस जगह पर, अचानक ही, एक पेड़ चमकता हुआ देखा है! खासतौर पर, बारिश के मौसम में!" बोले वो,
"क्या? पेड़ दीखता है? है नहीं क्या उधर पेड़?" पूछा मैंने,
"यही तो गुरु जी! वहां कोई पेड़ नहीं, एक कुआँ रहा होगा कभी, अब तो वो भी पट गया, कुछ नहीं है उधर!" बोले वो,
''रुको ज़रा! आपने कहा कि, देखने वालों ने, है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, देखने वालों ने!" बोले वो,
"कौन हैं वो देखने वाले?" पूछा मैंने,
"गाँव के ही हैं!" बोले वो,
"गाँव में ही रहते हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
''आपने देखा है वो पेड़ कभी?" पूछा मैंने,
"भगवान बचाए! जिसने देखा वो बताते हैं, मैंने नहीं देखा कभी!" कहा उन्होंने,
"बरसात के मौसम में, वहां, उस जगह पर, जहां अभी कोई पेड़ नहीं है, वहां एक पेड़ अचानक से दिखाई देता है! यही कहा न आपने?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, यही!" बोले वो,
अब मैंने देखा शहरयार जी को! वे भी हैरान!
"ये क्या चक्कर?" बोले शहरयार!
"ये ही तो ना पता?" बोले वो,
"अच्छा, सिर्फ चौमासे में ही दीखता है?" पूछा मैंने,
"ना जी! जब भी बरसात होती है तब!" बोले वो,
"अच्छा! समझा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"और कितने मरे होंगे उधर?" पूछा शहरयार जी ने,
"जी चार तो मरे ही हैं!" बोले वो,
"चार?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"बरसात थी तब?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी, फोटो ये रही, ज़मीन तो सूखी सी ही लग रही है!" बोले वो, और जेब से फ़ोन निकाल लिया, फोटो ढूंढी, और दिखा दी मुझे, ज़मीन तो सूखी ही थी!
"हाँ, सूखी ही है!" कहा मैंने,
"अच्छा, और कौन मरा?" पूछा शहरयार जी ने!
"गाँव की एक लड़की और उसका प्रेमी!" बोले वो,
"दोनों ही?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, और तो और दोनों के ही सर काट दिए थे उसने!" बोले वो,
अब ये उसने शब्द बोला उन्होंने, शायद दूसरी बार, अब कौन था ये उसने?
"कौन उसने?" पूछा मैंने,
"जिसका वो पेड़ है?" बोले वो,
"किसका पेड़ है?'' पूछा मैंने,
"देखने वाले बताते हैं, कि पेड़ इमली का है!" बोले वो,
"नहीं, मेरा मतलब, किसने मारा?" पूछा मैंने,
"जो पेड़ पर रहता है?" बोले वो,
''और कौन रहता है उस पेड़ पर?" पूछा मैंने,
"काला-प्रेत!" बोले वो,
"काला-प्रेत?" पूछा मैंने,
"हाँ गुरु जी!" बोले वो,
"किसी ने देखा है उस प्रेत को?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, देखा है!" बोले वो,
"आपने देखा है?" पूछा शहरयार जी ने,
"नहीं साब! मैंने नहीं!" बोले वो,
"और क्या बताते हैं देखने वाले?" पूछा मैंने,
"ये कि वहां एक लम्बा-चौड़ा सा आदमी रहता है, पेड़ पर, प्रेत, वो पूरे पेड़ पर घूमता है, कभी लेटता है, कभी बैठ जाता है, कभी उस पेड़ के चक्कर लगता है, कभी तने से लिपट जाता है, कभी उसके नीचे बैठ जाता है!" बोले वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"बताते तो यही हैं!" बोले वो,
"पुलिस ने जांच-पड़ताल तो की होगी?" पूछा मैंने,
"उनकी तो वो ही जाने!" बोले वो,
"कोई खबर तो निकली होगी?" पूछा मैंने,
"वही, कि दुश्मनी रही होगी, या, यहां लाकर काट डाला होगा, अब ये जगह तो वैसे ही काले-प्रेत की है!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"किसी की बात हुई है उस प्रेत से?" पूछा मैंने,
"नहीं पता जी!" बोले वो,


   
Quote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"अच्छा, तब आप ही क्यों चाहते हैं कि पता चल सके उस के बारे में?" पूछा मैंने,
"जी मैं अकेला नहीं, और भी हैं और फिर मेरी बात ये है, कि हमारे खेत उसी जगह पड़ते हैं, वहां कुछ और भी पेड़ हैं, वहां कुछ नहीं होता, सिर्फ, एक ही जगह है, जहां ऐसा होता आ रहा है!" बताया उन्होंने,
"मुकेश जी, मान लिया ऐसा होता आ रहा है, मैं मानता हूँ, कि उधर, एक ख़ास जगह, बारिश के समय कोई पेड़ दीखता है अचानक से, और वहां वो काला-प्रेत उन्हें मार डालता है, ज़्यादातर सर काट कर, लेकिन, क्या गाँव वालों ने, इसका कोई इलाज ढूंढा? मेरा मतलब, कोई जंतर-मंतर?" पूछा मैंने,
"किया होगा ज़रूर! हमने भी एक बार ऋषिकेश से एक बाबा बुलाये थे, उन्होंने उधर ही अपनी कुटिया भी डलवाई थी, पूजा-पाठ भी की थी, लेकिन कुछ नहीं कर पाये वो भी, बस इतना बताया कि वो जगह भुतहा है, और वहाँ कोई न जाए, बस, कोई नहीं जाता तभी से!" बोले वो,
"अच्छा? बाबा ने कुटिया डाल ली थी?" पूछा मैंने,
"हाँ, उनके साथ दो और बाबा भी रहे थे!" बोले वो,
"अच्छा, मतलब कोई पकड़ में नहीं आया?" पूछा मैंने,
"हाँ, कोई भी नहीं!" बोले वो,
"और उसके बाद, वहां हत्याएं हुईं, मेरा मतलब कभी कोई मरा उधर?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, करीब दो ढाई महीने तो नहीं मरा, लेकिन उसके बाद, खबर मिली कि वहां, किसी ट्रक-ड्राइवर की लाश मिली थी, सर उसका फटा हुआ था, ये ऊपरवाला हिस्सा, कटोरा, गायब था!" बोले वो,
"ओहो, तब फिर पुलिस आई होगी, जांच हुई होगी, इस बात को कितना वक़्त बीत गया?" पूछा मैंने,
"दो साल होने को आये, हाँ, पुलिस तो आई थी!" कहा उन्होंने,
"समझ गया, गाँव के बड़े-बूढ़े क्या कहते हैं?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, बस यही कि दूर रहो उस जगह से, वहां काला-प्रेत है!" बोले वो,
"अच्छा, समझ गया!" कहा मैंने,
"तो औरत हो या आदमी, सभी को मार डालता है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी! एक तो लड़का मर गया था, एक भाग निकला था, जो भागा था, उसने बताया कि एक पहलवान सा आदमी था, उसने मारा था उस लड़के के साथी को, पेड़ में टकरा टकरा कर!" बोले वो,
"हैं? वो जो लड़का बचा, वो है अभी?" पूछा मैंने,
"जी है!" बोले वो,
"क्या उम्र है अब?" पूछा मैंने,
"पंद्रह-सोलह होगी?" बोले वो,
"उस से बात हो जायेगी?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोले वो!
"और कोई, जिसने देखा हो ऐसा?" पूछा मैंने,
"हैं जी, बहुत हैं!" बोले वो,
"सारा गाँव ही परेशान है!" बोले शहरयार!
"हाँ, हमारे साथ ही जो गाँव है, वहां के लोग भी हैं, उन्होंने भी ऐसा ही देखा है, वहां भी मरे हैं दो चार आदमी!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने, हैरानी से!
"जी, एक तो देखो गुरु जी, नयी नयी शादी हुई एक लड़की की, जब ससुराल से घर लेकर आ रहा था मेहमान तब, उस जगह से गुज़रा होगा, अजी साहब क्या पूछो! दोनों ही चीर के रख दिए उस प्रेत ने!" बोले वो,
"ओह, दुःख की बात है!" कहा मैंने,
"दुःख की तो है ही!" बोले वो,
"फिर बालकों को समझाते फिरो!" बोले शहरयार!
"हाँ जी, क्या करें, बालक भी न मानें!" बोले वो,
"कोई बालक भी मरा क्या?" पूछा उन्होंने,
"ना जी, बालक तो कोई न, बस वो ही, जो दस बरस का था, बस वो ही!" बोले वो,
"किसी और तांत्रिक को दिखाया क्या?" पूछा मैंने,
"पिछले साल एक सरभंग बाबा आया था, उसने खूब जतन करें, चढ़ दिन जमा रहा वो उधर, और पन्द्रहवें दिन उसका कोई पता नहीं! मर गया या भाग गया कहीं, कुछ पता ही नहीं चला!" बोले वो,
"अरे?" कहा मैंने,
"भाग गया होगा जी!" बोले वो,
"हो सकता है!" बोले शहरयार!
"आप क्या करते हैं मुकेश जी?" पूछा मैंने,
"जी मैं सरकारी विभाग में हूँ, वहीं!" बोले वो,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
और तभी उस कमरे में, नन्द राम जी चले आये, नन्द राम जी मेरे जानकार हैं, काफी पुराने, दरअसल, हम उनके ही आमंत्रण पर यहां आये थे, आज दावत थी, नामकरण संस्कार की, नन्द राम जी के पोते की, तो वे आये थे अंदर, उनके साथ, प्रताप जी भी थे, वे भी मेरे जानकार थे, और ये मुकेश जी, इन्हीं नन्द राम जी के जानकार थे, बातों बातों में ही बात निकल पड़ी थी, नन्द राम जी ने मुकेश जी से कहा था कि कभी बुलाओ उन्हें या चले जाओ स्वयं मिलने, तो आज अवसर आया था!
"हाँ जी?" बोले नन्द जी!
"आओ, बैठो!" बोले मुकेश जी उनसे!
"कोई कमी-फमी तो ना है?" पूछा नन्द जी ने,
"नहीं जी! अभी तो शुरू भी न की!" बोले शहरयार!
"तभी तो कहूं? क्या बात है?" पूछा उन्होंने,
"ये पनि दूसरा भिजवा दो या लड़का बर्फ ले आये?" बोले शहरयार जी,
"है यार? फ्रिज सामने रखा है, कमी क्या पानी की? कमाल कर दिया यार तुमने तो? ये न अच्छी लगी जी!" बोले नन्द जी!
"अब मुकेश जी ने बात ही वो बताई कि कुछ ध्यान ही न रहा!" बोले नन्द जी!
"अच्छा, वो काले-प्रेत वाली?" बोले नन्द जी!
"हाँ जी, वो ही!" बोले मुकेश जी!
अब तक, प्रताप जी ने गिलास भर दिए थे हमारे, फिलहाल तो टमाटर, प्याज, खीरे, ककड़ी और चुकंदर से काम चलता, बाकि बाद में देखते!
"लो! शुरू तो करो!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
और हम सभी ने, अपने अपने गिलास उठा लिए, मैंने भूमि-भोग दिया, प्रेत-भोग दिया और गटक गया! सभी ने खाली कर दिए गिलास अपने अपने! मैंने तो झट से खीरे का टुकड़ा उठाया और चबा गया!
"मुकेश?" बोले नन्द जी,
"जी?" बोले वो,
"ये हमारे गुरु जी हैं, बताया था न? इनको बता देना जो भी बताना हो!" बोले वो,
"जी, जी!" बोले वो,
"ये मुकेश मेरे मामा जी का लड़का है गुरु जी!" बोले वो,
"अच्छा! फिर तो घर की बात ही हुई!" कहा मैंने,
"हाँ गुरु जी!" बोले नन्द जी!
"लो!" बोले मुकेश जी, तश्तरी आगे बढ़ाते हुए मेरे!
"हाँ, लो, आप लो!" कहा मैंने,
"प्रताप? कहाँ रह गया ये शाक़िर?" बोले नन्द जी!
"पता करता हूँ!" बोले वो, और लगा दिया शाक़िर को फ़ोन उन्होंने, दूसरी तरफ से फ़ोन उठा, तो कान पर लगाए बाहर चले गए वो!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

दो ही मिनट में वे लौट आये! आये और बैठ गए!
"हाँ? कहाँ रहा गया ये?" बोले नन्द जी!
"आ रहे हैं, गाड़ी की जगह नहीं मिल रही थी पार्क करने की!" बोले प्रताप जी,
"कहीं भी लगा देता?'' बोले वो,
"लगा दी, आ रहे हैं अब!" बोले वो,
और थोड़ी सी ही देर में, शाक़िर साहब भी आ गए! मसालेदार खाना लाये थे घर का बना हुआ! मुझे हैरानी हुई, मुझे लगा था कि कोई लड़का होगा शाक़िर, लेकिन शाक़िर साहब तो उन्हीं के उम्र के थे!
"कहाँ था यार?" बोले प्रताप!
"अरे यार, गाड़ियां इतनी हैं, कि पूछो ही मत! जैसे तैसे जगह मिली और लगाकर, अब आ रहा हूँ!" बोले वो,
"प्रताप, लड़के को बुला लो, बर्तन दे जाएगा?" बोले वो,
"हाँ, अभी!" बोले प्रताप और उठ चले बाहर!
"लो साहब! बढ़िया माल! देसी घी में पकाया है!" बोले शाक़िर जी!
"आ रही है ख़ुश्बू!" बोले शहरयार!
"और ये लो जी, मटन-मसाला!" बोले वो,
"आ हां!" बोले शहरयार जी!
उन्होंने खोला वो बड़ा सा डोंगा और एक टुकड़ा ले लिया! तोड़ा और खाने लगे!
"कैसा लगा साहब?" बोले शाक़िर जी!
"आपकी तारीफ़ न करूं!" बोले वो,
"क्यों जी?" पूछा शाक़िर साहब ने!
"तब आपकी बेग़म के साथ ना-इंसाफी होगी!" बोले वो हँसते हुए!
"सही बात है!" कहा मैंने,
और मैंने भी टुकड़ा ले लिया एक, खाया, क्या बेहतरीन मसाला! लज़्ज़त और कड़कपन! बेहद ही ज़बरदस्त! अब घर का तो घर का ही होता है!
"ये लो जी, गुरु जी, ख़ास आपके लिए!" बोले वो,
"अरे कितना ले आये?" पूछा मैंने,
"अजी साहब! छोडिए!" बोले वो,
उन्होंने खोला तो शाही-मटन सा लगा मुझे वो! दही में पकाया हुआ! मेवे-पिस्ते भरे हुए थे उसमे! मैंने एक चम्म्च से उठाया मसाला और खाया! शानदार! बेहद ही शानदार!
"कमाल कर दिया शाक़िर साहब!" कहा मैंने,
"ज़र्रानवाजी साहब!" बोले वो,
"शाक़िर साहब?" बोले शहरयार!
अब तक बर्तन आ चुके थे, शाकिर साहब, उन कटोरों में परोसने लगे थे मसाला!
"जी?" बोले वो,
"कहाँ से ताल्लुक़ रखते हैं आप?" पूछा उन्होंने,
"मुरादाबाद से साहब!" बोले वो,
"तभी! नहीं तो ऐसा नहीं खाया कभी!" बोले वो,
''सब इनायत है जी आपकी!" बोले वो,
"इनायत कैसी!" कहा मैंने,
"अरे गुरु जी?" बोले मुकेश जी,
"जी?" कहा मैंने,
"आ...आप पहले ये ले लें!" बोले वो,
मैंने और सभी ने, गिलास खाली कर लिए अपने अपने, साथ में वही, बेहतरीन ज़ायकेदार मटन!
"कुछ और भी बता रहा हूँ!" बोले वो,
"हाँ, क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"एक औरत है, हमारे गाँव में, कुम्हारन है, उसने भी कुछ बताया था, वो कुछ अजीब सा था!" बोले वो,
अब सभी मुकेश जी को ही देखने लगे!
"कैसा अजीब?" बोले शहरयार!
"उसने बतया था कि पेड़ तो उसने भी देखा था, और उसने उस पेड़ पर एक आदमी को भी देखा था, जो कि उसको आवाज़ दे रहा था!" बोले वो,
''आवाज़?" कहा मैंने, अचरज भरे स्वर से!
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"वो आदमी कह रहा था उस से कि उसका लड़का मरने वाला है!" बोले वो!
"हैं? मेरे मुंह से निकला,
"हाँ जी, और मर भी गया!", बोले वो,
"कैसे मरा?" पूछा शहरयार जी ने,
"बिजली के करंट से!" बोले वो,
"घर में?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, बाहर ही!" बोले वो,
"बाहर कहां?" पूछा मैंने,
"खेतों में, कहते हैं, टूटी हुई तार पर पाँव धर दिया और मारा गया!" बोले वो,
"ओह!" निकला मुंह से मेरे!
"अच्छा, एक बात बताइए?" बोले शहरयार जी!
"जी?" बोले वो,
और अब हमने अपने अपने गिलास उठाये, इस बार ये 'जगत-सुंदरी' कुछ ज़्यादा ही पड़ गई थी गिलास में, तो आधा कर दिया था!
"गाँव-देहात में, लोग ऐसी जगह पर, देवी-देवता बिठाल देते हैं, उस जगह नहीं बिठाले कोई?" पूछा उन्होंने,
लाख टके का सवाल था! गाँव-देहात में अक्सर ही, गाँव में घुसने से पहले ही, कोई देवी, देवता या सैय्यद बाबा आदि का स्थान दिखाई दे जायेगा!
"पिता जी बताते हैं, कि करीब चालीस बरस पहले, बिठाए थे, लेकिन उस दिन बहुत बारिश पड़ी थी, गारा ठहर ही ना रही थी, सांप, गहरा और पता नहीं क्या क्या जानवर वहां चले आये थे!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
'हाँ जी, जो पिता जी ने बताया था, बता दिया!" बोले वो,
"कितने बरस पहले?" पूछा मैंने,
"चालीस के आसपास?" बोले वो,
"मतलब ये रहस्य तभी से हैं!" बोला मैं!
"हांजी, उस से भी पहले से!" बोले वो,
ये मामला बड़ा ही अलग सा था! इनके अनुसार, बरसात के मौसम में, या मेह पड़ने के वक़्त, वहां वो पेड़ दिखाई देता है, अब जो गुजरता है वहां से, उसका सर कलम कर दिया जाता है! अभी तक जो मैंने जाना वो यही कि वो जगह, जहां वो पेड़ है, किसी प्रेत का वास है, जिसे ये लोग काला-प्रेत कहते हैं! और ये प्रेत बहुत ही पुराना है! इसको ना कोई पकड़ पाया, ना आज तक पकड़ा ही जा सका, क्योंकि वो बहुत ताक़तवर है! अब ये देखा जाए, तो अजीब सी ही बात थी! लेकिन जो फोटो मैंने देखा था वो ऐसा था कि, सर, गर्दन के ऊपर के हिस्से से काटा गया था, मतलब, उसका टेंटुआ नहीं था सर के साथ! क्या कह जाए? कोई अगर किसी की हत्या करेगा, तो इस तरह से, समय लगाकर, नहीं करेगा, करेगा तो कोई रंजिश ही होगी, जिसमे कोई, वो हत्यारा, पाने शत्रु को तड़पता देख, सुकून महसूस करे!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"समझ रहा हूँ मैं आपकी बात!" कहा मैंने,
"आप गुरु जी, आ जाओ कभी, बोलो तो मैं ले चलूँ, हमारे खेत है, बस थोड़ी दूर ही, कहीं कोई अनहोनी ना हो जाए, इसीलिए कह रहा हूँ!" कहा मैंने,
"सो तो ठीक है मुकेश जी, लेकिन कोई पक्की बात तो हो? आपने भी सुनी-सुनाई बात ही तो कही है? बुरा ना मानें!" बोले शहरयार!
"कैसी पक्की जी?" बोले वो,
"जिसने देखा हो उसे, कम से कम एक तो ऐसा हो?" बोले वो,
अब मैं चुप रहा, एकदम सटीक बातें कर रहे थे शहरयार जी! ऐसे तो ना जाने कितनी कहानियां हैं, कि फलां जगह ऐसा हुआ, फलां जगह वैसा, या हो रहा है, या होता है, सिर्फ किस्से-कहानियां ही! सच्चाई अलग हो होती है! कम स ेकम एक आदमी तो इसकी तस्दीक़ करे! कम से कम!
"अच्छा, एक मिनट!" बोले वो,
और उन्होंने फ़ोन निकाला जेब से, कुछ नंबर देखे, और फिर एक नंबर पर कॉल लगा दी, उठ कर चले वहां से,
"कोई ऊपरी मामला है!" बोले शाक़िर जी!
"हाँ, ऐसा ही कुछ!" बोला मैंने,
"गाँव-देहात में तो होता ही ऐसा!" बोले वो,
"हाँ, जितने मुंह, उतनी बातें!" बोले शहरयार जी!
तभी आये अंदर मुकेश जी, और फ़ोन मुझे पकड़ा दिया! तब मैंने बात की, अब बात की तो एक नयी ही बात सामने आ गई!
"ये कौन हैं?" पूछा मैंने,
"पड़ोसी ही हैं!" बोले वो,
"ये क्या कह रहे हैं?" बोले शहरयार!
''अजीब सी बात!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"इनका नाम है महिपाल, खेती करते हैं, कह रहे हैं इन्होने वहां, जिस दिन उस आदमी का सर काटा गया था, देखा था दृश्य!" बोला मैं,
"क्या? सर कटते हुए?" हैरत से पूछा उन्होंने,
"हाँ, कह रहे हैं वहां कोई नहीं था, जिसका सर कटा था, वो ऊपर उठा हुआ था हवा में, हाथ-पाँव चला रहा था, अचानक ही उसका सर नीचे आ गिरा! और जब धड़ नीचे गिरा तो धड़ भागा उल्टा, कुछ दूर जाकर, गिर पड़ा! ये महिपाल, इस दृश्य को देख घबरा गए थे, बाहग लिए घर की तरफ, बुखार चढ़ गया और एक महीने बाद जाकर, आराम आया, अब वो वहां से कभी नहीं गुजरते!" बोला मैं!
"धड़? भागते हुए?" बोले शाक़िर जी, झटका सा खाते हुए!
"हवा में लटका था?" बोले शहरयार जी!
"हाँ, हवा में! यही बताया!" बोले वो,
"किसी ने उठाया हो जैसे?" बोले शहरयार जी!
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"बुखार क्या, ये देख तो अच्छे से अच्छा धार छोड़ दे!" बोले वो,
"बिलकुल!" बोले शाक़िर जी!
"बाप रे!" बोले प्रताप जी, जो तब अंदर आये थे, जब मैं बात कर रहा था फ़ोन पर!
"क्या हो सकता है?" बोले शहरयार!
"कुछ नहीं कह सकता!" कहा मैंने,
"प्रेत?" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"या कोई जिन्न?" बोले मुकेश जी,
"जिन्न ऐसा नहीं करते!" कहा मैंने,
"ओह, अच्छा जी!" बोले वो,
"लेकिन प्रेत हवा में क्यों उठाकर मारेगा?" बोला मैं,
"क्यों?" बोले प्रताप जी!
"वो पीट पीट कर मारता है, जब इंसान गिर जाता है, बेहोश हो जाता है, छोड़ देता है उसे!" कहा मैंने,
"तब क्या है ये?" बोले शहरयार जी!
"नहीं बताया जा सकता! बिन देखे!" कहा मैंने,
"अच्छा, अच्छा? क्या कोई यक्ष या गन्धर्व?" बोले शहरयार जी!
"नहीं, वे ऐसा क्यों करेंगे!" कहा मैंने,
"हाँ ये भी है!" बोले वो,
"मुकेश?" बोले शहरयार!
"जी?" बोले वो,
"वो जगह तुम्हारे घर से कितनी दूर है?" पूछा मैंने,
"करीब एक किलोमीटर!" बोले वो,
"अच्छा! तुम्हारा रोज आना जाना है उधर?" पूछा शहरयार जी ने,
'रोज तो नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"जहां ये जगह है, ये हमारे खेत से दीखती है, उधर हमने, बाड़ लगा दी है, कोई जा ना सके, इसीलिए!" बोले वो,
"कभी रात में देखा उधर?" पूछा उन्होंने,
"दिन ढले कोई नहीं रुकता!" बोले वो,
"हाँ, समझता हूँ, डर के मारे!" कहा मैंने,
''हाँ जी, जान सभी को प्यारी!" बोले प्रताप जी!
"गुरु जी?" बोले मुकेश जी,
"हाँ जी?" कहा मैंने,
''एक बार दर्शन दो आप घर में!" बोले वो,
"अरे क्या दर्शन!" कहा मैंने,
"एक बार देख लो आप!" बोले वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"जी कब?" बोले वो,
"शहरयार जी बता देंगे!" कहा मैंने,
''अच्छा जी, जल्दी बताना आप!" बोले वो, शहरयार जी से,
"एक बात बताओ?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"कोई ऐसा है जिसने उसे देखा हो?" पूछा मैंने,
"लड़के हैं, बता देंगे!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मतलब, देखा है!" बोले शहरयार जी!
"देखा है जी!" बोले वो,
"चलो, बात करके, बताता हूँ!" बोले शहरयार जी!
"एक दिन पहले बताना, इंतज़ाम कर लूंगा!" बोले वो,
"कैसा इंतज़ाम?" पूछा मैंने,
"खान-पीन!" कहा उन्होंने,
"बड़ी चिंता करी आपने तो!" बोले शहरयार जी!
"जो आदमी हैं ना, कह दूंगा उनसे!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, फिर ढुंढेर ना करनी होगी!" कहा उन्होंने,
"सही बात!" कहा मैंने!
"हाँ जी?" आ गए नन्द जी!
"आइये जी!" बोले शाक़िर साहब!
"कोई कमी?" बोले वो,
"ना!" कहा शहरयार जी ने,
"सिगरेट है?" पूछा उन्होंने,
"है अभी तो!" बोले मुकेश जी!
"मंगवा लेता हूँ!" बोले वो!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

तो जी, हमने खाया-पिया, और फिर आराम करने के लिए, जहां हमारा इंतज़ाम किया गया था ठहरने का, चले गए! वक़्त ज़्यादा हो चला था, इसीलिए वहीँ रुक गए, वक़्त क्या जी, 'जगत-सुरा' के प्रभाव में कुछ ज़्यादा ही आ गए थे! महफ़िल सजी हो तो फिर क्या वक़्त और क्या रात! ऐसा ही हुआ था!
तीन दिन बीत गए, मुकेश जी का फ़ोन आया, वे पूछ रहे थे, उनके किसी जानकार के पास कुछ अहम जानकारी थी इस जगह के बारे में! अगर मिल लेते हम तो रास्ता आसान हो जाता! इतनी बात हुई थी और शहरयार जी ने उन्हें, उसी दिन आगे का कार्यक्रम बताना था!
"क्या कहते हो आप?" पूछा उन्होंने,
"आपकी क्या राय है?" पूछा मैंने,
"चलते हैं, थोड़ा बाहर भी चलेंगे तो यहां की कोफ़्त से बच जाएंगे!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"कब की कहूं फिर?" बोले वो,
"आज क्या वार है?" पूछा मैंने,
"आज हो गया शुक्रवार!" बोले वो,
"इतवार की कह दो!" कहा मैंने,
"ये ठीक रहेगा, मेरा मानना है!" बोले वो,
"ठीक, चलते हैं फिर!" कहा मैंने,
"ठीक, कह देता हूँ!" बोले वो,
"कह दो, तड़के ही निकल जाएंगे हम, सही समय तक, पहुंच ही जाएंगे!" कहा मैंने,
"हाँ, मैं इतवार सुबह ही आ जाऊँगा!" बोले वो,
"ये ठीक!" बोला मैं,
तो उन्होंने फ़ोन पर बात कर ली मुकेश जी से, हमारा इतवार का कार्यक्रम बन गया था, थोड़ा बाहर तफ़रीह करते तो अच्छा रहता, एक जगह पड़े पड़े तो कोफ़्त सी होने लगती है!
उनकी बात हो गई, कर दी गई इत्तला उन्हें, वे बड़े ही खुश हुए! उनका कहना था कि एक बार पता चल जाए तो अच्छा ही रहेगा! तब वे उधर एक बड़ी सी चहारदीवारी करवा देते! ना कोई आता और ना कोई जाता! ऐसे बहुत से लोग थे जो पैसा मिलाकर, ये काम करते! कम से कम इस समस्या से निजात तो मिल जाती!
मित्रगण! आया इतवार, और हम चले फिर! रास्ते में एक जगह रुक कर, चाय-नाश्ता किया, आलू-पूरी ही खींच डाले! चाय पी, कड़क पत्ती वाली! और फिर चल पड़े! ये जगह दिल्ली से करीब सौ किलोमीटर तो होगी, या इतनी ही करीब! उस तरफ, हस्तिनापुर की तरफ का रास्ता है, तो ये जगह, ऐसी जगहों से भरी पड़ी है! आज भी लोग खुदाई करते हैं तो कभी कुछ और कभी कुछ, मिल जाता है उन्हें! ये तो नहीं कहा जा सकता कि ये महाभरत के काल की हैं, लेकिन हड़प्पा सभ्यता के शहरों में से एक शहर यहां भी पड़ता था, मिट्टी के बर्तन, पुरानी सी वस्तुएं, आज भी मिल जाती हैं!
"इसी क्षेत्र में हैं ना वे सर्प?" बोले वो,
"कौन से?" पूछा मैंने,
"कई फनों वाले?" बोले वो,
"हाँ, हैं इधर ही!" कहा मैंने!
"ये वैसे भी पौराणिक क्षेत्र है!" बोले वो,
''हाँ, और आज भी, असली नगर, नीचे ही दबा पड़ा है! कहते हैं लोनी से लेकर यहां तक, कभी खेड़ा पलट हुआ था, इसीलिए यहां अभी भी, ज़मीन के नीचे सबकुछ है!" कहा मैंने,
"लोनी में तो कुछ सामान भी मिला था?" बोले वो,
"हाँ, विष्णु आदि की स्वर्ण-प्रतिमाएं आदि!" कहा मैंने,
"कमाल है!" बोले वो,
"हाँ! तो अभी भी बहुत कुछ है! उधर ही पास में, एक जगह है, आगे लोनी से, वहां खूब सामान निकला, लेकिन सब मिट्टी हो गया!" कहा मैंने,
"वो कैसे?" बोले वो,
"पीर बाबा की मज़ार छेड़ दी किसी ने!" बोला मैं,
"ओहो! तभी!" बोले वो,
"हाँ, लो अब, कर लो ठीक!" कहा मैंने,
''अब ना हो!" बोले वो,
"मतलब ही नहीं!" कहा मैंने,
आ गया मेरठ! अब यहां खाना खाया हमने! कुछ देर आराम किया, शिकंजी पी, और फिर से चल पड़े, अब तक, मुकेश जी का दो बार फ़ोन आ चुका था, हम उन्हें लगातार बताए जा रहे थे! अभी भी कम से कम, डेढ़ घंटा तो लग ही जाता! यहां भीड़ बहुत रहती है, मेरठ तो वैसे भी समृद्ध रहा है! आसपास के कस्बों, गाँवों से लोग खरीदारी करने आते हैं! और ट्रेक्टर! वो तो यहां की डी-लक्स सवारी है! जगह जगह मिल जाएगी ये सवारी! लगता है, कि ट्रेक्टर नहीं तो आदमी बेकार वहां! सारे काम ट्रेक्टर पर! ऐसा कोई काम नहीं जो ना कर सके वो! हमें भी कई मिले, हट के ही ना दें!
"आज छुट्टी है ना!" कहा मैंने,
"हाँ, देख लो!" बोले वो,
"हाँ, भीड़ है बहुत!" कहा मैंने,
"क्या करें!" बोले वो,
"कुछ नहीं, लोग चल रहे हैं, आप भी चलते रहो!" कहा मैंने,
"कोई रास्ता ही नहीं और!" बोले वो,
"हाँ, यही है बस!" कहा मैंने,
भीड़ से बचते बचाते, जगह बनाते हुए, हम निकल ही पड़े! रास्ते में अमरुद बिकने वाले मिले, बढ़िया बढ़िया अमरुद लिए, कटवाए और खाते चले गए! ऐसे अमरुद शहरों में नहीं मिलते, यहां तक आते आते अमरूदों की जान ही चली जाती है! फल कम और औषधि ज़्यादा हो जाते हैं!
इस तरह, हमें साढ़े तीन घंटों से ज़्यादा लग गए! और वहां पहुंचे जहाँ, मुकेश जी मिलते! मुकेश जी मिले, चाय ली गई, साथ में पकौड़ियाँ भी! मजा ही आ गया! मूंग-दाल और पालक की पकौड़ियाँ! चाय के साथ, साथ में तीखी हरी वाली चटनी! जीभ जले, चाय और जलाए, लेकिन मजा! पूछिए ही मत!
"यहां से कितना?'' पूछा शहरयार जी ने,
"कोई छह किलोमीटर बस!" बोले वो,
"तब तो पास ही है!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोले वो,
"और कुछ हुआ तो नहीं बाद में?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी, अभी तक तो नहीं, लेकिन कुछ फोटो मिले हैं, चाहो, तो देख लो!" बोले वो, मोबाइल निकालते हुए अपना!
"दिखाओ?" कहा मैंने,
''अभी!" बोले वो,
उन्होंने फोटो दिखाये! बड़े ही हौलनाक! बड़े ही खौफनाक! एक औरत को तो बुरी तरह से उधेड़ दिया गया था! आंत-गूदड़े सब बाहर! और उसका कटा सर, ऊपर रख दिया गया था! कोई कमज़ोर दिल वाला देखे तो उसके फोटो भी निकाले जाएँ और अगले दिन ही, फोटो पर माला चढ़ जाए!
''अरे बाप रे!" बोले शहरयार!
"बुरी तरह से मारा है!" कहा मैंने,
"ऐसा लगता है जैसे कुल्हाड़े से काट दिया गया हो!" बोले वो,
"हाँ, भयानक!" कहा मैंने,
''और ये देखो!" बोले वो,
"देखा!" कहा मैंने,
"इसका तो भेजा ही बाहर खींच दिया!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन मारेगा ऐसे भला?" पूछा उन्होंने,
"जी वही! काला प्रेत!" बोले मुकेश जी, हाथ साफ़ करते हुए अपने!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"मुकेश जी, कोई भी प्रेत काला या सफेद ऐसा नहीं होता, वो सामान्य सा मनुष्य ही होता है, परन्तु दीखता अलग है, आपके सामने से भी चला जाएगा तो आप समझ ही नहीं पाओगे! एक आम सा इंसान ही समझोगे! लेकिन उसके साथ कई ऐसी बातें हैं जो साफ़ साफ़ दीखती हैं!" बोले शहरयार!
"वो क्या? ये तो काम की बात रही!" बोले वो,
"बताता हूँ, मुझे गुरु जी से ही पता चला है! आओ, गाड़ी में बैठे और चलते हैं!" कहा उन्होंने,
"हाँ हाँ जी!" बोले मुकेश जी!
और हम अब गाड़ी में बैठ गए, मैं और शहरयार आगे और मुकेश जी पीछे!
"हाँ जी, अब बताओ!" बोले वो,
"प्रेत पानी नहीं पीता, मानस देह में हो, तब भी नहीं पीता, इसीलिए, गाँव-देहातों में, पहले पानी पिलाया जाता है, और फिर घी के साथ बूरा दिया जाता है घर आये मेहमान को, अब प्रेत घी-बूरा कभी नहीं खायेगा! वे समझ जाएंगे और पता चल जाएगा कि जो मेहमान बन कर आया है, वो असल में वही है या कोई 'रूपधरा', समझे आप! ये एक छोटी सी बात है, है तो वैसी सुनी-सुनाई ही, लेकिन काम आती है!" बोले वो,
"अच्छा जी? और जो भोग लेते हैं?" बोले वो,
"तो मंत्रों के कारण, प्रेत भोग लेता है दो तरीके से, या तो वो किसी पर सवार होगा, जो रस, स्वाद ग्रहण कर सके, या जिसने उस प्रेत से वचन बाँधा हो, उस पर आ के!" कहा उन्होंने,
"अरे! भगवान ही बचाए!" बोले वो,
"इसीलिए लोग इनसे बचते फिरते हैं!" कहा उन्होंने,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"ये बहुत ही उलझा हुआ है, कोई कोई प्रेत ऐसा, कि सामने ही आ कर, भोग ले ले!" बोले वो,
"अच्छा जी?" बोले वो,
"हाँ, होता है!" कहा उन्होंने,
"वो जो, रास्ता उतर रहा है ना? दाएं?" बोले मुकेश जी,
"हाँ?" बोले वो,
"बस यहीं उतार लो!" बोले वो,
"ठीक, ये....ये लो जी!" बोले वो और उतार ली गाड़ी नीचे, कच्चा-पक्का रास्ता था, लेकिन चला तो जा सकता था आराम से, धीरे धीरे! गाँव-देहात में रास्ते अभी भी खराब ही हैं! बनते हैं, बरसात में, सारी कलई खुल जाती है!
"यहां से कितना?" पूछा उन्होंने,
"बस, एक बम्बा पड़ेगा, उसके साथ ही साथ चलना है, बस आये फिर!" बोले वो,
"ठीक!" बोले वो,
और फिर पड़ गया एक बम्बा भी, उसके साथ ही साथ चल पड़े, और हम जा पहुंचे उनके घर! पूरा देहाती माहौल था यहां! मवेशी बंधे हुए, हमें ही देखते हुए! बालक बालिकाओं को तो जैसे खेल मिल गया! हमने गाड़ी एक तरफ लगा ली, और एक कमरे में जा बैठे!
पानी मंगवाया गया, पानी पिया हमने, फिर जूते खोल कमर सीधी करने के लिए, लेट गए! अब राहत मिली थी! मुकेश जी, हमें आराम करने को कह, चले गए थे, खाने की पूछ ली थी, भूख थी नहीं, रात में ही खाते अब हम खाना!
"वो फोटो देखी आपने?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, सभी, कौन सी?" पूछा मैंने,
"उस औरत वाली?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"उसको तो जैसे चीर ही डाला है!" बोले वो,
"हाँ, उसकी पसलियों में जो कटा-फटा सा है, लगता है कि किसी ने बड़े से कुल्हाड़े से मारा हो उसको, काटा हो!" कहा मैंने,
"हाँ, और ऐसे लगता है कि एक ही वार में, कमर से उसके दो हिस्से कर दिए गए हों!" बोले वो,
"हाँ! सही देखा आपने!" बोले वो!
"इसका मतलब जो कोई भी है, कोई इंसान भी, बड़ा ही बे-रहम दिल होगा! वो बालक की फोटो देख लो? सर कहीं और धड़ कहीं!" बोले वो,
"हाँ, बताओ बालक से क्या बैर?" कहा मैंने,
"हाँ, कोई दुश्मन भी ना मारे!" बोले वो!
"है तो कुछ ना कुछ गड़बड़ ही!" कहा मैंने,
"हाँ, एक बात और?" कहा उन्होंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"ये कहते हैं, कि इनके पिता जी के समय से ऐसा हो रहा है यहां, इसका मतलब, बहुत ही संगीन सा मामला है!" कहा मैंने,
"हाँ, ये बात मुझे भी खटकी थी!" कहा उन्होंने,
"लेकिन?" कहा मैंने,
"क्या?' बोले वो,
"इन सालों में, इतने लम्बे अर्से में, कोई भी ऐसा नहीं मिल पाया जो इसको पकड़ ले, या शांत करे? अगर कोई प्रेत ही है तो!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई तो मिला ही होगा?" बोले वो भी!
"आया हो, शायद इन्हें ना पता हो?" कहा मैंने,
"पूछते हैं!" कहा उन्होंने!
तब आवाज़ दी मुकेश जी को, एक लड़का आया, उसने बताया कि बाहर गए हैं, आ रहे हैं अभी!
"आने दो फिर!" कहा मैंने,
"हाँ, आते होंगे!" कहा उन्होंने,
हम फिर से अंदर आ गए! मैं फिर से लेट गया, इस बार वो भी चारपाई पर लेट गए!
"यहां देखो, कैसी शान्ति है!" बोले वो,
"हाँ, ऐसा लग रहा है कि कहीं एकांत में ही हों हम!" कहा मैंने,
"अपने यहां तो धांय ही धांय! जहां देखो शोर! पों-पीं! आदमी पागल ही हो जाए!" कहा उन्होंने,
"अब ये तो है!" कहा मैंने,
"यहां समय नहीं कटता बस!" कहा उन्होंने,
"हमारी आदतों के कारण!" कहा मैंने,
"हाँ यही बात है, लो आ गए!" बोले वे,
मुकेश जी आ गए थे, उनके साथ एक देहाती सा आदमी था, प्रौढ़ था, मेहनतकश आदमी था! उसने नमस्कार की तो हमने भी नमस्कार का उत्तर दिया!
"गुरु जी? ये है वो बृजपाल!" बोले मुकेश जी!
"जिनसे फ़ोन पर बात हुई थी?" पूछा मैंने,
"जी, वो ही!" बोले वो!
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"तो बृजपाल जी?" बोले शहरयार,
"हाँ जी?" कहा उसने,
"उस काले-प्रेत को देखा है आपने?" सीधे ही पूछ लिया, सीधे ही काम की बात!
"नहीं साहब!" बोला वो,
"नहीं?" मैं चौंका!
"नहीं, मैंने तो उस आदमी का हाल देखा था, बड़ी बुरी तरह से मारा था उस आदमी को, उस प्रेत ने.." बोला वो,
"प्रेत? आप कैसे कह सकते हो कि वो प्रेत ही था?" पूछा शहरयार ने,
"हवा में कौन उठाएगा और?" बोला वो,
"कैसे हवा में? हो सकता है कि उसे उछाला गया हो? आपने ना देखा हो उछालने  वालों" बोले वो,
"नहीं, कोई नहीं था वहां, वो अकेला ही था!" कहा उन्होंने,
"वो चीखा नहीं? एक बार भी नहीं?" पूछा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"नहीं साहब! वो चीखा नहीं! जैसे उसका गला ही बंद कर दिया गया हो!" बोला वो,
"ओहो, तो हाथ-पाँव नहीं मारे उसने?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, ऐसा लग रहा था कि वो भय से शायद पहले ही मर गया था!" बोला वो!
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"तो वो आदमी था कहाँ का?" पूछा मैंने,
"बाहर का था कहीं, आसपास का तो नहीं था!" बोला वो,
"तो वहां क्या करने आया था?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी, पता नहीं चला!" बोला वो,
"तो जब वो हवा में था, कितनी ऊपर था?" पूछा मैंने,
"कम से कम, दस फ़ीट ऊपर!" बोला वो,
"क्या? दस फ़ीट?' मैंने तो हैरानी से पूछा!
"हाँ जी, जैसे मैंने देखा तो मुझे लगा कि शायद पेड़ से कूदने वाला है, लेकिन ऊब उसके मुंह से खून निकला, तब समझ आया!" बोला वो,
"मुंह से खून भी निकला था?" पूछा मैंने,
"अजी! पिचकारी सी!" बोला वो,
"अच्छा? फिर?" पूछा मैंने,
"फिर तो अगले ही पल, उसका सर अलग जा गिरा, नीचे, सर पहले गिरा और फिर, धड़ ही आसपास! मैं तो भाग लिया!" बोला वो,
"कोई भी भाग लेता ये देख तो!" बोले शहरयार!
"हाँ, कोई भी, कोई भी जो पढ़ा-लिखा बनता हो, वो भी!" बोला वो!
"साहब, हमको तो पता है, कोई जाता नहीं उधर, ना ही किसी को जाने ही देते, लेकिन फिर भी, कहते हैं ना, जब मौत बुलाती है तो आदमी कहीं भी पहुंच जाता है!" बोले मुकेश जी!
''हाँ जी!" बोले शहरयार!
"और आप क्या कर रहे थे वहां?" पूछा मैंने,
"ये बात होगी कोई सुबह छह की, मैं खेत पर जा रहा था, पानी काटना था, तभी ये देखा मैंने!" बोला वो!
''समझा!" कहा मैंने,
"और वो पेड़? क्या वो पेड़ भी दिखा था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, पेड़ तो नहीं दिखा उस दिन!" बोले वो,
"इसका मतलब, चाहे पेड़ दिखे या नहीं, वहां पर हमेशा आदमी मारा ही जाता है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले मुकेश जी!
"अच्छा, वो जो कुम्हारन है?" बोला मैं,
"वो है जी, कहो तो बुलाऊँ?" बोले वो,
"जाते हुए मिल लेंगे!" कहा मैंने,
"आपकी राजी!" कहा उन्होंने!
"और किसी ने?" पूछा मैंने,
"हाँ, अरे बिरजू?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"देख, भान सिंह है क्या?" पूछा उन्होंने,
"अच्छा, भेजता हूँ!" बोला वो और चला गया!
"इसका मतलब कुछ ना कुछ अजीब सा चल रहा है उधर!" कहा मैंने,
"हाँ जी, बहुत ही!" बोले वो,
"कब ले चलोगे?" पूछा मैंने,
"आज ही चल लो?" बोले वो,
"चल लो फिर?" कहा मैंने,
"आया मैं अभी!" बोले वो,
वे चले गए बाहर, और शहरयार जी, कुछ सोचने लगे!
"क्या सोच रहे हो?" पूछा मैंने,
"कोई मारेगा अगर, तो इतनी क्रूरता से क्यों मारेगा?" बोले वो,
"यही तो?" कहा मैंने,
"इसका मतलब, कुछ ना कुछ तो है!" कहा मैंने,
"क्या कोई महाप्रेत हो सकता है?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं, नहीं लगता!" कहा मैंने,
''वो कैसे?" पूछा उन्होंने,
"महाप्रेत क्यों मारेगा? वो सबसे पहले चेतावनी देगा, तब देह भांजेगा! और स्त्रियों के प्राण नहीं लगा! इसकी तरह!" कहा मैंने,
"मतलब ऐसा हाल नहीं करेगा!" बोले वो,
"हाँ, नहीं करेगा!" कहा मैंने,
"तब तो कोई बड़ा ही पेंच है!" बोले वो,
"देखने से पता चले!" बोला मैं,
"देख लेते हैं चलो!" बोले वो!
"हाँ, कुछ पता तो चले!" बोला मैं,
तभी मुकेश जी आ गए! साथ में एक लड़का भी आ गया, सामान ले आये थे सारा! बड़ी जल्दी ही कर दी थी उन्होंने तो!
"इतने बजे ही?" पूछा शहरयार जी ने!
"अब क्या देर? हुई सांझ बस!" बोले वो,
"चलो कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा, बर्फ ये रखी, खीरे-टमाटर, ये रहे, और ये रहा भुना हुआ पनीर!" बोले वो,
"भाई वाह! भुना पनीर ना मिले दिल्ली में, आदत बिगाड़ोगे हमारी आप!" बोले शहरयार जी!
"आपका घर! आप बस हुक़्म करो!" बोले वो,
मैंने पनीर का टुकड़ा उठाया, चटनी से लगाया और खाया! वाह जी! कमाल कर दिया था, क्या बेहतरीन पनीर था!
"शहरयार?" कहा मैंने,
"हुक़्म!" बोले वो,
"ज़रा पनीर खा कर देखो!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो, और टुकड़ा उठा लिया पनीर का, खाया तो आँखें खुली रह गईं उनकी! भट्टा जैसी!
"घर का है?' पूछा उन्होंने, चबाते हुए पनीर को!
"हाँ जी, आप आ रहे थे, घर पर ही फाड़ लिया, अब भगवान की दया से, ढोर काफी हैं, सब पूरा हो जाता है!" बोले वो,
"मजे हैं साहब आप लोगों के!" बोले शहरयार जी!
"अजी आप जैसे आ जाओ हो, तो हमें भी ख़ुशी होती है!" बोले मुकेश जी!
"अब तो आ जाया करेंगे!" बोले शहरयार जी!
"बिलकुल जी! एक फ़ोन मारना बस!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"अच्छा, जो उस दिन चल रही थी, वही मंगा ली है, चार खम्बे!" बोले वो,
"चार?" बोले शहरयार!
"कम होगी तो हो जायेगा जुगाड़!" बोले वो,
"अरे मुकेश जी, कोई तैरना थोड़े ही है इसमें!" बोले वो,
तभी कमरे में वही लड़का आया, एक बड़ी सी तश्तरी में, फल-फ्रूट कटे हुए थे, ले आया था!
"इसकी क्या ज़रूरत थी!" बोला मैं,
"अजी कोई बात नहीं!" बोले वो,
रख गया था लड़का वो सामान, सब, संतरे, केले और, और दूसरे फल भी काट लिए गए थे, वो भी मोटे मोटे! ऊपर से चांट-मसाला बुरेक दिया गया था! अब और क्या
 चाहिए! लेकिन मेरा ज़ोर, उस भुने पनीर पर ही था!
और जी खुल गई बोतल! गिलास थे, प्लास्टिक वाले, अब इन प्लास्टिक वाले गिलासों ने, बड़ी अंदर तक पैठ बना ली है! कहीं भी मिल जाएंगे! शराबियों की पहचान ही बन गए हैं ये! तो हमारा पहला पैग पड़ा! मैंने और शहरयार जी ने, भूमि-भोग एवं प्रेत भोग दिया! और तभी बाहर आवाज़ हुई कुछ! मुकेश जी उठे और......


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

मुकेश जी बाहर गए और साथ में एक और आदमी को साथ ले आये! उसका परिचय भान चंद नाम से दिया! ये आदमी सीधा सा, इकहरे बदन का, सफेद दाढ़ी और मूंछों वाला था, लगता था ज़िंदगी के सभी बसंत, संघर्ष से ही काटे हैं! उसने नमस्कार की तो हमने भी की, उसको बिठाया वहां, उसके लिए एक गिलास भी बना दिया, और दे दिया उसको, उसने लिया और रख दिया मेज़ पर ही!
"गुरु जी?" बोले मुकेश,
"हाँ, कहिये?" कहा मैंने,
"ये हमारे पीछे ही रहते हैं, हमारे खेतों के साथ ही इनके खेत भी पड़ते हैं, ये चार भाई हैं, ये तीसरे नंबर पर हैं, इन्होने भी देखा है वो काला-प्रेत!" बोले मुकेश!
"हाँ जी, देखा है" बोला वो!
"अच्छा, कितने दिन पहले?" पूछा मैंने,
"कोई एक साल हो गया!" बोला वो,
"अच्छा, कैसे?" पूछा मैंने,
"उस दिन बारिश पड़ रही थी सुबह से ही, खेतों पर कोई न गया था, घर में ही थे हम सभी, बारिश थी तो आराम ही कर रहे थे, बारिश थमी करीब चार बजे, तब सोचा कि देख आएं, तो मैं अपनी कस्सी ले चल पड़ा था, दरअसल वहां एक तरफ की ज़मीन कुछ ऊँची सी है!" बोला वो,
"ऊँची? मतलब?" कहा मैंने,
"मतलब, एक तरफ से ढलान है!" बोला वो,
"अच्छा, तो गहरा खोद, पानी लगाया जाता है!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"तो जी, मैंने पानी लगाया, मुझे करीब दो घंटे से लग गए होंगे, तभी फिर से बादल बने और बारिश पड़ने लगी, मैं चला फिर वापिस ही घर के लिए, जब लौट रहा था, तब मैंने उस जगह देखा कुछ!" बोला वो!
"क्या देखा?'' पूछा मैंने,
"जैसे ही बरसात तेज सी पड़ी, एकदम से वहां मुझे लगा कोई पेड़ है! इमली का बड़ा सा पेड़, बहुत ही बड़ा, मोटा सा तना था उसका, पेड़ हरा-भरा था, बहुत ही ऊँचा सा पेड़!" बोला वो,
"इमली का?" मैंने चौंक कर पूछा!
"हाँ जी, इमली का, बड़ा सा पेड़!" बोला वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"अब हम बाप-दादा से सुनते आये थे कि वहां ऐसे मौसम में एक पेड़ नज़र आता है, ये पेड़ काले-प्रेत का है, इसके पास न जाया जाये, फौरन ही भाग लिया जाए!" बोला वो,
"तो आप भाग लिए?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं वहीं छिपकर, एक बिटोरे के पीछे छिपकर, देखता रहा कि ये काला-प्रेत है कौन? कुछ होगा, तो बीड़ी तो है ही, जला लूंगा, सुनते हैं कि बीड़ी जलाने से दूर रहते हैं प्रेत!" बोला वो,
"तो दिखा वो प्रेत?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, पांच मिनट में ही, डर लगने लगा मुझे! एक तो मैं अकेला, फिर बारिश, तो मैं, खेत के बीच से ही निकल कर, वहां एक मंदिर पड़ता है, वहीं चला गया था, लेकिन पेड़ दीखता है, ये मैंने देख लिया था, वो सच में ही दीखता है! पता नहीं कहाँ से प्रकट हो जाता है!" बोला वो,
"कौन से मंदिर गए थे, वहीँ है क्या?'' पूछा मैंने,
"कोई आधा किलोमीटर या कम होगा वो मंदिर!" बोला वो आदमी,
"ये मंदिर कितना पुराना है?" पूछा मैंने,
"बहुत पुराना है, अब तो मरम्म्त हो गई है उसकी, गाँव-देहात के लोग यहीं जाते हैं!" बोले मुकेश जी!
"कैसा है मंदिर? बड़ा है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, इतना भी बड़ा नहीं, हाँ, इतना है कि एक धर्मशाला बना ली है, बरात आदि ठहर जाती है यहां, कुछ कार्यक्रम हो, तो कर लिया जाता है!" बोले वो,
"ये मंदिर भी दिखाना हमें!" बोला मैं,
"बिलकुल जी!" बोले वो,
और फिर हमने जल्दी जल्दी अपना कार्यक्रम निबटा लिया, दरअसल, अब तो वो जगह देखी जाए तो कुछ राहत सी हो! ये तो तय था, कि यहां के प्रौढ़ तो इस बात की तसदीक़ कर ही रहे थे कि यहां एक जगह है, खेतों के पास, अक्सर बरसात के समय, वहां एक इमली का पेड़ प्रकट होता है, जिस पर वास है एक प्रेत का, जिसको ये काला-प्रेत कहते हैं, एक नहीं कई लोगों ने देखा भी है, वहां, समय मसय पर जघन्य हत्याएं होती रही हैं, और इस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिला है!
"चलें?" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी!" बोले मुकेश जी,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
"बाहर चल दिए हम, अब जाना था उस कुम्हार के घर, जिसकी औरत ने भी कुछ देखा था, इस काले-प्रेत के बारे में!
"क्या नाम है इस औरत का?'' पूछा शहरयार ने!
"रामो, इसी नाम से जानते हैं इसे!" बोले वो,
"क्या उम्र होगी?" पूछा मैंने,
"हमसे बड़ी है, तो पचास मान लो!" बोले वो,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
बतियाते हुए, हम आ गए उस कुम्हार के घर, बाग़, बकरियां बंधीं थीं, एक गाय भी, मिट्टी का ढेर और कच्चे बने बर्तन, घड़े, दीवले, जामा आदि बने थे, घर बड़ा ही अच्छा सा सजाया था, दीवारों पर, सफेद सी खड़िया से, आकृतियां बनाई गई थीं! घर में दो पेड़ भी लगे थे, एक शायद आंवले का था और दूसरा अनार का!
"रामो?" आवाज़ दी मुकेश जी ने,
रामो आई बाहर, पंखा झलते हुए, हमें देखा तो झट से सम्भली, दौड़ी और चारपाई बिछा दी, हम बैठ गए! कच्ची मिट्टी की सुगंध आ रही थी, सौंधी सौंधी! रामो सामने, एक तरफ बैठ गई! अब मुकेश जी ने बात छेड़ी और उनकी बातचीत शुरू हुई, उन्हीं की देहाती बोली में, हमें कुछ समझ आये और कुछ नहीं!
"रामो, क्या देखा था वहां?" पूछा मुकेश जी ने,
अब रामो ने जो बताया वो ये था,
शाम का वक़्त था, करीब चार बजे थे, सर्दी थी और अँधेरा छा सा गया था, रामो अपनी ही किसी रिश्तेदार के साथ आ रहे थे, दूसरे गांव से, वहां कोई सरकारी मदद मिल रही थी, जब वो थोड़ा सामान लेकर आ रही थीं, तो रास्ते में उन्हें वो जगह दिखाई दी, वे उस से बचने के लिए थोड़ा दूर से निकलीं.....


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

वे बच बच कर निकल ही रही थीं, कि रामो की नज़र उधर जा पड़ी! जैसे ही पड़ी वो रुक गई! उसने देखा, वहां तो लाशें बिछीं हैं? हर तरफ! उस जगह पर जैसे पाँव रखने की जगह न हो! और उनके बीच एक आदमी खड़ा है, लम्बा-चौड़ा सा! आदमी की शक्ल नहीं देखी थी उसने! अब चूँकि रामो रुक गई थी, उसकी रिश्तेदार, कुछ दूर तक तो चली, जब देखा रामो नहीं आ रही है, तो उसको आवाज़ दी उसने! रामो तो जैसे बहरी हो गई थी, उसके हाथों में रखा सामान भी, अब नीचे गिर पड़ा था! उसकी रिश्तेदार पलटी, और जब पलटी तो रामो को गश आ गया, वो गिर पड़ी!
जब उसे किसी तरह से घर लाया गया तब उसने सारी बात बताई! लोग तो जानते ही थे कि ये सब उसी काले-प्रेत के कारण हुआ है! जान बच गई ये शुक्र था, कोई अच्छे करम किये थे पिछले जन्म में जो जान बच गई! एक साल बीत गया, लेकिन रामो आज तक भूल न सकी वो दृश्य!
"उसको उन लाशों के बीच खड़ा देखा था?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कितने लाशें होंगी?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, सौ से ज़्यादा होंगी?" बोली वो,
"सौ से ज़्यादा?' पूछा मैंने,
"हाँ, एक के ऊपर एक रखी थीं!" बोली वो,
"उनके सर थे?" पूछा मैंने,
"नहीं सर एक तरफ रखे थे, धड़ एक तरफ..." बोली वो,
"अच्छा?'' कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोली वो,
"जो खड़ा था, उस रंग-रूप कैसा था?" पूछा मैंने,
"नहीं देख पायी" बोली वो,
"कद-काठी?" पूछा मैंने,
"लम्बा-चौड़ा" बोली वो,
उसने बताया कि मेरे कद से एक डेढ़ फ़ीट ज़्यादा, मतलब साढ़े छह या सात फ़ीट का दिखा था वो, जो भी था!
"कोई हथियार था उसके हाथों में?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तुम्हें देख रहा था?" बोला मैं,
"हाँ" बोली वो,
"कोई बातचीत हुई?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"उसने बुलाया?" पूछा मैंने,
नहीं" बोली वो,
"जो लाशें देखीं, वो मर्दों की थीं या सभी की?" पूछा मैंने,
"औरत, मरद और बच्चों की भी थीं!" बोली वो,
अब मैंने सोचा! सोचा कि उसने किसी को भी नहीं छोड़ा! न औरत, न आदमी और न ही बच्चे!
"उसके बाद कभी गईं उधर से?' पूछा मैंने,
"आज तक नहीं" बोली वो,
"एक साल पहले ना?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"चलें?" बोले शहरयार,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
और हम उसको नमस्ते कर, आ गए बाहर!
"सच बोल रही है?" बोले मुकेश!
"एकदम सच!" कहा मैंने,
"यकीन है?' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वैसे भी रामो की सभी इज़्ज़त हैं, ये भली औरत है!" बोले मुकेश!
"अच्छा है!" कहा मैंने,
"ये जो रास्ता है न?" बोले वो,
"कौन सा? दो है?" कहा मैंने,
"उधर वाला?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"इसी रास्ते पर है वो जगह!" बोले वो,
"अच्छा, चलो फिर!" कहा मैंने,
"हाँ, चल रहे हैं!" बोले वो,
"कई मार डाले उसे!" बोले वो,
"देख लिया मैंने!" कहा मैंने,
"एक बार तो दो मरे मिले!" बोले वो!
"दो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, दो आदमी!" बताया उन्होंने,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"मोटरसाइकिल पर होंगे, मोटरसाइकिल भी मिली, कम से कम आधा किलोमीटर दूर! जली हुई! टूटी हुई, जैसे एक्सीडेंट हुआ हो, और वो दो आदमी, उस पेड़ के नीचे कटे मिले, सर दूसरे खेतों में उनके!" बोले वो,
"बड़ा ही खतरनाक!" बोले शहरयार!
"कमाल की बात एक!" कहा मैंने,
"क्या जी?" बोले वो,
"कोई चीखा नहीं! मदद की गुहार नहीं लगाई!" कहा मैंने,
"यही तो!" बोले वो,
"हाँ, सच ही, जब ये मरा था न, जिसका अभी सर दिखाया था, उस से करीब दो सौ मीटर ही, खेतों में आदमी लगे थे काम पर, उन्हें कोई चीख नहीं सुनाई दी!" बोले वो,
"ये है कमल!" कहा मैंने,
"आ आओ, इधर से!" बोले वो,
"ये मछली-पालन हो रहा है?" बोले शहरयार!
'हाँ जी, एक ये, और एक आगे है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये, ये है रास्ता, आ जाओ!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"खेत भी दिखा दूंगा!" बोले वो,
"हाँ ठीक!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

 

हम उस रास्ते पर उतर गए, ये एक कच्चा-पक्का सा ही रास्ता था, शायद पहले कभी खरंजा डाला गया होगा, टूटी हुई सी ईंटें यहां-वहां पड़ी हुई थी, या फिर, अभी वो रास्ते बनने वाला ही हो, क्योंकि, जली हुई ईंटों के टुकड़े से भी पड़े थे! आसपास, खेती लगी थी, खलिहान भरे हुए थे, बीच बीच में ईख लगी थी, बड़ी बड़ी ईख, और पेड़ भी थे, बड़े बड़े शीशम आदि के! ऐसी हरियाली देख किसका मन नहीं प्रफुल्लित होगा! यहां आकर, भूमि का श्रृंगार देखने को मिलता है! शहरों में तो हमने, कुरूप कर दिया है इसे! बीच बीच में हमें वहां जल-पक्षी दीख जाते थे, खाते-पीते बगुले भी! हरियाली में उनका सफेद रंग और पीली चोंच-पैर साफ़ दीखते थे! तीतर दौड़े भागे जाते थे, पेड़ों पर बुलबुल दिखाई दे रही थीं! दर्ज़न-चिड़िया ने क्या खूब घोंसले बनाए थे खजूर के पेड़ों पर! बीच बीच में, नेवले भागे चले जाते थे इधर से उधर! यही अनुपम सुंदरता है प्रकृति की जिसका कोई सानी नहीं!
"यहां से!" बोले वो,
और उस रास्ते से, एक पगडण्डी मिली, यहीं से चलने को कहा था उन्होंने! ये पगडण्डी घूम जाती थी, दूसरी तरफ से कुछ शोर सा आ रहा था, जैसे वाहन गुजर रहे हों! बड़े बड़े पहियों की सड़क से होती हुई बातें साफ सुनाई पड़ रही थीं! कुछ लम्बे लम्बे से, तीखे हॉर्न भी सुनाई पड़ जाते थे!
"वहां कोई रास्ता है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, है!" बोले वो,
"पक्का लगता है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, गाड़ियां गुजरती है यहां से, ट्रक जैसे!" बोले वो,
"आइये!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम, उस पगडण्डी के साथ चलते चलते, एक खुले से मैदान में आ गए! उस मैदान के बीच में एक गढ्ढा था, ये काफी बड़ा सा गढ्ढा था, उसके चारों तरफ, पेड़ लगे थे, शीशम और रमास के! कुछ जंगली पेड़ पौधे भी! 
"वो उधर गढ्ढा है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"बनाया हुआ है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
'फिर?'' पूछा मैंने,
"बहुत पुराना है!" बोले वो,
"इसके अंदर क्या है?'' पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, झाड़-झंखाड़ ही हैं!" बोले वो,
"अच्छा, देखें?" कहा मैंने,
"देख लो!" बोले वो,
तब हम वहां चले, पहुंचे गड्ढे था, गद्दा क्या, वो तो एक छोटा स तालाब से था, जैसे अब सूख गया हो!
"ये कब से है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, है बहुत पुराना!" बोले वो,
"अपने आप बना?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी! अपने आप ही!" कहा उन्होंने,
गढ्ढा गोल था वो, बहुत बड़ा, अजीब सी बात थी, इन खेतों के बीच एक खुल मैदान, मैदान के पास कोई खेत नहीं, गद्दा वीरान ही पड़ा था, बड़ी अजीब सी बात थी ये!
"कोई आता है इधर?" पूछा मैंने,
"ढोर-बकरी ले कर आते हैं लोग, बस, और क्या रखा है इधर?" बोले वो,
"बरसात में पानी भरता है?" पूछा शहरयार जी ने,
"हाँ जी, भरता है! बालक, खूब मच्छी मारते हैं इसमें!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब तो सूखा है?'' बोले शहरयार जी!
"बरसात में ही भरेगा!" बोले वो,
मैंने आसपास नज़र दौड़ाई, वहां तो कुछ न था, एक जगह नज़र रुक गई!
"वो क्या है? मंदिर?" पूछा मैंने,
"हाँ, जो बताया था!" बोले वो,
"फिर तो दूर है गाँव से?" पूछा मैंने,
"नहीं, रास्ता है अंदर से!" बोले वो,
'अच्छा, छोटा रास्ता!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"एक मिनट, वो पेड़ वाली जगह कहाँ है?" पूछा मैंने,
"जी, उधर!" बोले वो,
"और उधर से सड़क कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"है जी दूर!" बोले वो,
"कितनी भला?" पूछा मैंने,
"ख़राब, वो, वो जो पेड़ है न? उतना!" बोले वो,
'अच्छा, करीब तीन सौ मीटर!" कहा मैंने,
"हाँ, ज़्यादा ही होगी थोड़ी!" बोले वो!
"अच्छा, समझ गया!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
ये गढ्ढा? जैसे इसने तो मेरे दिमाग में ही गढ्ढा बना दिया था! ये अपने आप बना था, क्या कोई भूकम्प आया था? या फिर, ये खोदा गया हो बहुत साल पहले? भूकम्प की आशंका थोड़ी फीकी सी लगती थी, क्योंकि, भूकम्प ऐसा होता कि जैसे गढ्ढा बना, तो आसपास भी बनते, और फिर, ऐसा गढ्ढा बनाने वाला भूकम्प तो भारी तबाही लाता! और अगर ये बनाया गया था, या कोई पुारना तालाब भी था, तो किस प्रयोजन से? तालाब या कुंड कहाँ होगा? किसी मंदिर के पास ही, ये पचास प्रतिशत सही हो सकता है, या हो भी सकता है, कि तालाब बनाने के लिए खोदा गया हो, किसी कारण पूरा न हुआ हो, और छोड़ दिया गया हो? सम्भव तो है!
"वो, उधर ही जाना है बस!" बोले वो,
"हाँ, चलिए!" बोले शहरयार जी!
तभी मुकेश जी एक खेत में उतर गए, हमें रुक जाने को कहा, पता नहीं क्या करने गए थे, जब आये तो हाथ में बड़ी बड़ी सी सेंध थीं उनके! मैंने जैसे ही पकड़ी, ऐसा मिठास वाली सुगंध कि जी किया, अभी खा जाऊं सारा, छिलके सहित ही!
"वाह जी!" बोले शहरयार!
"फूट है ये! बड़ी मीठी होती है!" बोले वो,
"हाँ, ये अब नहीं मिलतीं, बाज़ार में, शहरों में, लोग जानते ही नहीं, इसकी मिठास का तो कोई जवाब ही नहीं!" बोले शहरयार जी!
 

   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

तो ले चले हम वो फूट अपने साथ ही, उन्होंने बताया था कि खेत में एक झोंपड़ी बनी है उनकी, बस फिर क्या, यहीं छील मारते हम उन फूटों को! तो हम बातें करते करते आ गए उनके खेतों में!
"ये हैं जी, हम दो भाई हैं, दोनों के खेत हैं आधे आधे!" बोले वो,
"अच्छा है जी!" बोले शहरयार!
"यहां बैठ जाओ, आराम से!" बोले वो,
और एक टूटी-फाटी सी चारपाई डाल दी उसमे, हम बैठ गए उधर,वे तीनों फूट ले, चले गए थे धोने उन्हें!
"ये बढ़िया बनाई है!" कहा उन्होंने,
"हाँ, कामचलाऊ है, लेकिन बरसात आदि में, सामान रखने में, काम आती होगी!" कहा मैंने,
"हाँ, दरांती फंसी हैं, ये देखो!" बोले दिखाते हुए मुझे!
"हाँ, वो चारा काटने के लिए होंगी!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" बोले वो.
ले आये धोकर उन फूटों को मुकेश जी, रख दिया नीचे एक टूटा सा घड़ा, इसमें बीज डाल देते हम, फूट खाते हुए! तो मुझे दी, शहरयार को दी और एक खुद ने ले ली! हमने खानी शुरू कर दी! लाजवाब स्वाद था उनका! जब तक खाते रहे, एक शब्द नहीं बोले हम! इस तरह से निबटा दीं हमें! पानी ले ही आये थे बाल्टी में, तो पाने से हाथ धो लिए, और फिर से बैठ गए!
"वो जगह किधर है?" पूछा मैंने,
"उधर" बोले वो,
 इशारा करते हुए!
"सीध में यहां से!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
'आओ देखें?" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
और हम आहिस्ता आहिस्ता से, उस जगह के लिए बढ़ चले! यहां मैंने देखा, खेत में जगह छोड़ दी गई थी, बाड़ लगाई हुई थी, कुल मिलाकर, मुकेश जी ने, काफी लम्बी-चौड़ी बाड़ लगा दी थी!
"ये आपने ही लगवाई?" पूछा मैंने,
'हाँ जी!" बोले वो,
"ताकि कोई आ जा न सके!" बोले शहरयार,
"हाँ!" बोले वो,
"उसी कारण से?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"तो वहां कहाँ से जाना है?" पूछा मैंने,
"आओ, यहां से आओ!" बोले वो,
"चलो!" बोले शहरयार!
और हम बाड़ के साथ साथ, आगे चले, और फिर, बाड़ पार कर ली, अब फिर से घूमे, वहीँ आ गए, जहाँ, उस तरफ खड़े थे!
"वो देख रहे हो?' बोले मुकेश जी,
"उधर, खाली जगह?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही!" बोले वो,
"उसके पास, एक पेड़ है, देखो, गूलर का!" बोले वो,
"हाँ, है!" कहा मैंने,
"अब वो जगह उस पेड़ के पीछे है!" बोले वो,
'अच्छा! आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"कोई नहीं जाता वहां!" बोले वो,
हिचकिचा गए थे, दरअसल वो!
"आओ तो सही? आप गूलर के पेड़ के पास ही खड़े हो जाना?" बोला मैं,
"जाना खतरनाक है जी!" बोले वो,
"जानता हूँ, आओ, कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने,
"आपके रहते तो कुछ आना हो, लेकिन डर भी लगता है!" बोले वो,
"ठीक है, हम आते हैं!" कहा मैंने,
"ध्यान से?" बोले वो,
"चिंता न करो आप!" कहा मैंने,
"आप आओ!" कहा मैंने शहरयार जी से!
"हाँ चलो!" बोले वो,
"और ये, ये रख लो जेब में!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
मैंने उन्हें एक अभिमंत्रित कौड़ी दे दी थी, प्रेत होगा तो वार नहीं करेगा! इस से उनकी रक्षा हो जायेगी! मैंने एक तांत्रिक-आभूषण पहन ही रखा था, कुछ होगा तो आभास हो जाएगा!
तब हम चल पड़े उधर के लिए! आ गए उस गूलर के पेड़ तक! बहुत बड़ा पेड़ था वो! कच्चे गूलर लगे थे उसमे, नीचे गिरे पड़े थे पके हुए से, चींटियां, चींटे, तितलियाँ आदि थे वहां, उन पके हुए फलों से जूझते हुए!
"पुराना पेड़ है ये भी!" बोले वो,
"हाँ लगता तो है!" कहा मैंने,
"और वो जगह, वो होनी चाहिए!" कहा मैंने,
"वो खुली सी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलें?" कहा उन्होंने,
"रुको ज़रा!" बोला मैं,
"जी!" बोले वो,
मैंने कुछ देर जायज़ा लिया आसपास का! कुछ सवाल से उठे, कुछ का स्पष्टीकरण तो जंचा, लेकिन सभी नहीं!
"वो सड़क कहाँ है?" पूछा मैंने,
"कौन सी?" बोले वो,
"जहाँ वाहन चलते हैं!" कहा मैंने,
"उधर!" बोले वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"इस जगह से कुछ ही दूर है!" बोले वो,
"हाँ, है तो, लेकिन कोई सड़क से आएगा ही क्यों इधर? जैसे कई लोग मिले, जो आसपास के नहीं थे, वे क्यों आये होंगे इधर?" पूछा मैंने,
"अरे हाँ? कौन आएगा इधर?" बोले वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"कोई भी आदमी, सड़क से यहां तक  तो आएगा नहीं? अपने आप क्यों आएगा?" कहा मैंने,
"हाँ, सोचने की बात है!" बोले वो,
"कहीं कुछ न कुछ लालच तो दिया जाता होगा?'' कहा मैंने,
"हाँ, नहीं तो क्यों आएगा?'' बोले वो,
"अब लालच क्या हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, पुरुष को, कोई स्त्री दिखती हो?" बोले वो,
"मान लिया, फिर औरतें, बालक?" कहा मैंने,
"हाँ, अगर कोई स्त्री ही माना जाये कि पुरुषों को रिझा रही है, तो कोई स्त्री यहां क्यों मरेगी? क्योंकि, जो हमने सुना है, उसके अनुसार, कई औरतें भी मारी गई हैं!" कहा उन्होंने,
"और बालक?" कहा मैंने,
"ये कुछ न कुछ गड़बड़ तो है!" बोला मैं,
"हाँ, है तो सही!" बोले वो,
"आओ, चलते हैं उधर!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम, चल पड़े उस जगह के लिए! बड़ी अजीब सी जगह थी वो! एकदम से अकेली सी! सन्नाटा जैसे यहां वास करने लगा था! यहां खड़े होकर लगता था, कि कोई और भी है, जो नज़र रखे हुए है, जैसे कहीं छिपा है आसपास ही! और मौक़ा देख, एक बार में ही दबोच लेगा! ये जगह काफी लम्बी-चौड़ी जगह थी! खुली सी, बे-जान और उजाड़! यहीं होता आ रहा था, कई सालों से एक खेल! लोग मारे जाते थे, और उनकी सर कटी लाशें यहां से मिलती रही थीं! कारण आज तक समझ नहीं आया था, इसलिए हमें भी, यहां पुरानी ही धारणाओं का ही सहारा लेना पड़ रहा था! यहीं कहीं, बरसात के मौसम में, वो इमली का पेड़ एकदम से नज़र आता था! देखने वालों ने देखा था, अब नहीं था! अब तो जैसे वहां पर कोई घोंसला भी नहीं था! न कोई पक्षी और परिंदे भी!
"उधर होना चाहिए वो पेड़!" बोले वो,
"हाँ, पीछे ही रास्ता गुजर रहा है, वो पगडण्डी सी!" कहा मैंने,
"वो खेत की?" बोले वो,
"हाँ, शायद अब लोग आते ही न हों इधर!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"मुकेश जी ने, एक लड़के के बारे में बताया था, कि उसका साथी मारा गया था  याद आया?" पूछा मैंने,
"हाँ, उस दिन दावत में ज़िक़्र किया था उन्होंने" बोले वो,
"आओ, अभी और जानकारी जुटाते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और हम दोनों वहां से निकल लिए, अचानक ही, उन्हें कुछ दिखाई दिया, वे रुक गए और देखने लगे! मैं चूँकि आगे निकल गया था थोड़ा सा, उन्हें साथ न आते देख, रुक गया, पीछे देखा, वे एक तरफ ही देख रहे थे! मैंने देखने की कोशिश की तो देखा वो एक मिटटी का टीला सा था, अधिक बड़ा तो नहीं था, लेकिन था ज़रूर! मैं जा पहुंचा उनके पास!
"क्या देख रहे हो?" पूछा मैंने,
"यहां कुआँ है मुझे लगता है!" बोले वो,
"होगा, बताया तो था, कि वो अब पट चुका है!" कहा मैंने,
"मुझे लगा था कि , इस मिट्टी के नीचे है वो, आभास सा हुआ था!" बोले वो,
"सही आभास हुआ, है यहां कोई कुआँ!" कहा मैंने,
"आप देख रहे हो?" बोले वो,
"आपको दिख रहा है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"मुझे भी नहीं!" कहा मैंने,
"लेकिन एक पल को दिखा था!" बोले वो,
"एक पल को?" कहा मैंने,
"हाँ, एक पल को!" बोले वो,
"आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
और हम उस टीले तक पहुंचे, यहां मिट्टी ही मिट्टी थी, हर तरफ, शायद, गाँव वाले यहीं डाल देते हों मिट्टी! ये पीली सी मिट्टी थी, हल्की भूरी सी!
"यहां देखा था?' पूछा मैंने,
"हाँ, कुआँ, उसका मुहाना भी!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"सीढ़ी थीं, पूरे हुए को घेरती हुईं!" बोले वो,
"समझ गया, गोल सीढ़ियां जो कुँए को घेर रही थीं!" कहा मैंने,
"हाँ, वही!" बोले वो,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"इसे दिमागी वहम कहूं तो?" बोला मैं,
"वही ठीक है!" बोले वो,
"आप समझते हो न?" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोले वो,
"अब दीखता है?' पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
"ये हो सकता है, सम्भव है, कि आपने देखा हो, कहूं कि आपको दिखाया गया हो!" कहा मैंने,
"हाँ, सम्भव है!" बोले वो,
"तब इस प्रश्न का उत्तर अपने आप निकल आता है कि यहां क्यों आएगा कोई अजनबी!" कहा मैंने,
अब बड़ी ही हैरत भरी निगाहों से देखा उंन्होंने मुझे!
"समझ रहे हो?" कहा मैंने,
"हाँ, बिलकुल! बिलकुल!" कहा मैंने,
"मतलब ये, कि शायद, मरने वालों को कुछ दिखाई दिया हो? वो उसके पीछे गए हों? और उनको क़त्ल कर दिया गया हो, इस जगह!" कहा मैंने,
"समझता हूँ!" बोले वो,
"तो मुझे क्यों दिखा?'' बोले वो,
"इसलिए!" कहा मैंने,
और उन्हें अपने गले में पहना, एक आभूषण दिखाया! ये अभिमंत्रित है, और रक्षा कार्य करता है!
"अब समझे?" कहा मैंने,
''समझा!" बोले वो,
"रक्षण आपका भी हो रहा है, परन्तु, आपने कुछ देखा, मैं मानता हूँ, आपने कहा कुआँ, तो पता कर लेते हैं, कि उस मिट्टी के नीचे, कोई कुआँ है? अगर है, तो ये सामान्य सी बात है, और अगल नहीं, तो सच में ही इस बात की तसदीक़ हो जाती है, कि आपको, कुछ दिखाया ही गया था, और वो दिखाया था आपको उस काले-प्रेत ने, क्योंकि इधर, मुझे तो वो कुआँ भी नहीं दिख रहा जिसके बारे में बताया गया था! समझे?" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"आओ, पूछते हैं!" कहा मैंने,
और हम चले वहां से! और.........................!!!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

हम चल पड़े वापिस, ये ज़मीन जो हमने देखी थी, सामान्य ही थी, कुछ अजीब सा या कुछ अलग सा, नहीं दिखा था हमें तो, सूखी और उजाड़ सी ही थी, हाँ, शहरयार जी को  कुछ दिखा था, एक कुआँ, कुँए की सीढ़ियां भीं, ये वहम भी हो सकता था या वहाँ छाई हुई उस काले प्रेत की उपस्थिति भी! हम उसके क्षेत्र से बाहर रहे होंगे, नहीं तो हमे भी कुछ न कुछ आभास तो होता ही! मुझे नहीं हुआ था कोई भी आभास, मुझे तो वो जगह, एक आम सी जगह ही लगी थी, न कोई गंध थी, न कोई ताप! हाँ, शहरयार जी को कुछ आभास अवश्य हुआ था, क्या पता, जो लोग मरे थे, उन्हें भी कुछ आभास हुआ हो? एक सवाल था मेरे दिमाग में, कि ये जगह, उस सड़क से काफी दूर थी, यहां कौन आता सड़क से? और दूर आसपास के रास्ते जो गुज़र रहे थे वहां से, यहां से तो नहीं जाते थे, जो जाता भी होगा, तो कोई आता भी नहीं होगा! क्योंकि मुकेश जी के हिसाब से, यहां जो दो गाँव थे, वे इस जगह के बारे में जानते थे! मामला बड़ा ही उलझा हुआ सा लगा! अभी और जानकारी जुटानी थी, क्या पता कुछ न कुछ काम का निकल ही आये? अभी तक सिर्फ ये पुष्टि होती थी, कि यहां पर काला-प्रेत है और वो ही यहां, हत्याएं करता है! उसके मारने का तरीका ये है कि वो, सर काट देता है उस आदमी या औरत का, या फिर किसी का भी, जो उसकी हद के अंदर आता है! अब ये सवाल, कि कोई उसकी हद में आता ही क्यों है? बाहरी आदमी का तो पता नहीं, जो जानते हैं, वो भी क्यों चले आते हैं? बरसात में एक पेड़ नज़र आता है इमली का, वो क्या है?
तो हम बातें करते करते आ ये मुकेश जी के खेत पर! वो हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे, घबराए हुए तो नहीं थे, लेकिन कुछ परेशान से थे! समझ आती थी उनकी परेशानी, हम चले आये थे इधर, इस जगह, इसीलिए!
"आइये गुरु जी!" बोले वो,
"हाँ, चलिए!" कहा मैंने,
और हम उस झोंपड़ी में आ बैठे! थोड़ा पानी पिया हमने और आराम करने के लिए, ज़रा पांव पसारे, चारपाई भले ही झोलझाल भरी थी, लेकिन आराम तो किया जा सकता था!
"मुकेश जी?" बोला मैं,
"जी?" कहा उन्होंने,
"उस जगह कोई कुआँ भी है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, है!" बोले वो,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"उधर ही, अब तो पटा है!" बोले वो,
"किधर?" पूछा मैंने,
"वो मिट्टी पड़ी होगी, टीला सा बना होगा, वहीँ है!" बोले वो,
"उस टीले के नीचे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
इसका मतलब! इसका मतलब ठीक कहा था शहरयार जी ने! उन्होंने एक पल को, देखा था वो कुआँ! अब तो साफ़ था, साफ़ ये कि वहां अवश्य ही कोई है! कोई प्रेत! ये लोग सच ही कह रहे हैं! उस स्थान पर, अवश्य ही, किसी की सत्ता है! कोई तो है! अब कौन है? ये पता लगाना था! पता चलता तो समझ आता कुछ! तभी कुछ किया जा सकता था!
"तो कुआँ कब ढका?'' पूछा मैंने,
"इसे तो बीसों साल हुए!" बोले वो,
"आपने देखा था?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"कैसा था?" पूछा मैंने,
"कुआँ ही था?" बोले वो,
"नहीं, मेरा मतलब पक्का कुआँ था?' पूछा मैंने,
"हाँ जी, पक्का ही था, पत्थर लगे थे मुंडेर पर उसकी!" बोले वो,
"मतलब, गोल सी मुंडेर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी ऐसे ही!" बोले वो,
इसका मतलब, शहरयार जी को ठीक ही कुआँ दिखा था! एक पल को जो कुआँ दिखा था, वैसा ही कुआँ रहा होगा!
"तो वो ढक दिया गया?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्यों ढका गया?' पूछा मैंने,
"पानी खराब हो गया था उसका, और मेरी याद में, वो उजाड़ ही पड़ा था, पानी भी नीचे ही उतर गया था, तब गाँव वालों ने ही पाट दिया था उसे!" बोले वो,
"अच्छा! मतलब कई साल हुए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"आपकी याद में, ये बेकार कुआँ था?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"और था कब से वो?" पूछा मैंने,
"ये याद नहीं जी!" बोले वो,
"आपके जन्म से पहले का?" कहा मैंने,
"हाँ जी, बिलकुल!" बोले वो,
"कुआँ किसने खुदवाया ये भी याद नहीं होगा?" कहा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"गांव वालों ने ही खुदवाया होगा जी!" बोले वो,
"हाँ सही बात!" बोले शहरयार जी!
"पुरानी बातें हैं ये!" बोले वो,
"हाँ, पुरानी!" बोले शहरयार जी!
"और पुरानी बातों से ही कड़ी जुड़ेगी!" कहा मैंने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"अच्छा, वो लड़का है ना गाँव में? जिसका साथी मारा गया था?'' पूछा मैंने,
"है जी वो लड़का!" बोले वो,
"उस से मिलवाओ आप!" कहा मैंने,
"आज ही मिल लो, पड़ोस में ही है!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा मैंने,
"तो चलें फिर?" बोले शहरयार!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"हाँ, चलो!" बोले हम दोनों,
और हम तीनों ही, निकल पड़े वहां से, तभी कुछ आया मेरे दिमाग में!
"मुकेश जी?" मैं रुका और पूछा उन्होंने,
"जी?" बोले वो,
"मुझे ज़रा उधर का रास्ता दिखाओगे?' पूछा मैंने, इशारे से,
"उधर का?'' बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"आओ, वहां भी है रास्ता!" कहा उन्होंने,
"तो चलो, दिखाओ!" कहा मैंने,
"हाँ ठीक जी, देख लो!" बोले वो,
और हम मुड़ लिए, बाड़ तक पहुंचे, और बाड़ को पार करते हुए हम दूसरी तरफ चले आये! दूर दूर तक बस खेत ही खेत! खेतों में खड़े हुए पेड़! हरे-भरे! पगडंडियों पर लगी हुई बड़ी बड़ी दूब घास! सुनहरी हरी सी! छोटे छोटे से पौधे, पौधों पर लगे, दीन-दुनिया से बेखबर, छोटे छोटे से सफेद और पीले फूल! मैं उनको देखे जा रहा था, बेहद ही शानदार जगह लगी वो! मिट्टी! जिस भी रूप में हो, सुंदर ही लगती है! सूखी हो, तो सुंदर! गीली हो, तो सुंदर! इसे किस श्रृंगार की आवश्यकता! ऐसे ही इधर! तभी अचानक से, मेरी निगाह एक जगह पड़ी! मैं रुक गया! मैं रुका तो वे भी रुक गए!
"सांप है कोई?" बोले मुकेश जी,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर क्या है?" बोले शहरयार!
"एक मिनट!" कहा मैंने,
और फलांग मार के, दूर खेत की तरफ कूदा, अब उस पौधे को देखा, जिसे देख मैं रुक गया था, ये गैंदे का पौध था, फूल खिले थे उस पर! पीले पीले, बेहतरीन से फूल! पौध भी अच्छा-ख़ासा बड़ा ही था!
"अच्छा, फूल!" बोले मुकेश जी!
"फूल नहीं, पौधा!" कहा मैंने,
"पौधा?" चौंक के पूछा उन्होंने!
"हाँ, ये, ये पौधा!" कहा मैंने,
"गैंदा है ये तो!" बोले वो,
"हाँ, गैंदा ही है!" कहा मैंने,
"यहां तो कई हैं!" कहा उन्होंने,
"मतलब, किसी ने लगाए हैं?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी, अपने आप होते हैं ये तो!" बोले वो,
"अपने आप तो नहीं हो सकते!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई तो लगाएगा ही!" बोले शहरयार!
"मुकेश जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"यहां से मंदिर कितनी दूर है?" पूछा मैंने,
"कोई एक डेढ़ किलोमीटर, यूँ मानो कि हम आधे में होंगे?'' बोले वो,
"मंदिर से सूखे फूलों के बीज हवा में उड़ते चले आते होंगे?" बोले शहरयार!
"हाँ, सही कहा, इसका मतलब, हैवे यदि उत्तर की तरफ बहे तो! है न?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"तब, हवा दक्षिण की तरफ भी बहती होगी? है न?'' पूछा मैंने,
"बिलकुल, क्यों नहीं!" बोले वो,
"तब हमारा काम कुछ बढ़ गया है!" कहा मैंने,
"गुरु जी?" बोले मुकेश जी,
"एक जगह दिखता हूँ आपको!" बोले वो,
"कौन सी?" पूछा मैंने,
"है एक, आओ फिर!" बोले वो,
ये एक नया मोड़ था इस कहानी में! हो न हो, ये बेहद ही उलझा हुआ और पहेलियों भरा मामला था! अभी तो सिर्फ शुरुआत ही थी! भला खेत में, गैंदे के फूल कैसे आ गए? चलो मान लिया जाए कि मंदिर में ही इस्तेमाल किये गए फूलों के थे, लेकिन इसकी तसदीक़ ज़रूरी थी! मैंने वो पौधा देखा था, आसपास तक, वे फूलों के पौधे चलते चले गए थे! फूल भी बढ़िया वाले थे उसके! मोटे मोटे से प्यारे फूल!
"यहाँ से!" बोले वो,
और हम तब एक सूखी सी ज़मीन पर चलने लगे! ये ज़मीन भी वैसी ही थी, जैसी वो जगह थी, वो काले प्रेत वाली! और जब मुकेश जी रुके, तो मैं अवाक सा रहा गया! मेरे सामने एक विशाल सा पेड़ था, बरगद! का! बहुत ही विशाल पेड़! उसके आसपास, फूलों के पौधे लगे थे, गैंदे ही गैंदे! अब समझ आया कि वे खेतों में, फूलों के पौधे कहाँ से पहुंचे होंगे!
"ये फूल किसने लगाए?" पूछा मैंने,
"किसी ने नहीं!" बोले वो,
"कभी कोई मंदिर था यहां?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"लगाए भी किसी ने नहीं, और मंदिर भी नहीं?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"ये तो बहुत पुराना पेड़ है!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, बड़ा पुराना है!" बोले वो,
"यहां से कोई रास्ता था पहले!" बोले मुकेश!
मेरे कान खड़े हुए! मैं पलटा!
"रास्ता?' पूछा मैंने,
"हाँ जी, रास्ता था यहां से!" बोले वो,
"क्या हुआ फिर रास्ते का?" पूछा मैंने,
"लूट-खसोटी हुआ करती थी यहां, तो लोगों ने छोड़ दिया यहां से आना!" बोले वो,
"फिर?" बोले शहरयार!
"फिर तो, दूसरे गाँव के करीब से आने लगे!" बोले वो,
"बसावट के कारण!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"समझता हूँ, होता था ऐसा अक्सर!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"तो उस रास्ते का कोई नामोनिशान ही नहीं अब तो!" बोला मैं,
"हाँ जी, सब बदल गया!" बोले मुकेश जी!
मैंने फिर से पेड़ को देखा, पेड़ बड़ा ही विशाल था! कम से कम ढाई या तीन सौ सालों पुराना तो रहा ही होगा! उसके विशाल तने से, ऐसी शाखाएं ही ऐसी थीं कई कई पेड़ बन जाएँ! उसकी दाढ़ी नीचे ज़मीन में घुस कर तने का रूप ले चुकी थीं! दादी भी ऐसी विशाल की देखते ही अपने आप उस बड़े, बुज़ुर्ग पेड़ को प्रणाम करना अपने आप ही हो जाए! न जाने क्या क्या देखा होगा इस पेड़ ने! ये इधर सबसे पुराना हो इधर, लगता है!
"मुकेश जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"क्या ऐसा कोई और भी पेड़ है यहां?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, ये अकेला ही है!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
इस पेड़ ने मेरा जैसे दिमाग हिला दिया था, पेड़ तो पेड़, उसके नीचे वे लगे हुए गैंदे के पौधे! अब ये फूल, जहाँ-तहाँ लगे पड़े थे! हवा के संग उनके बीज चले जाते होंगे और वे फूट जाते होंगे! एक ही गैंदे का पौधा कई पौधों को लगाने के लिए काफी था! खुले में तो गैंदा, नमी वाली जगह में, हो जाया करता है! हमारे देश में, गैंदे का फूल पावन माना जाता है! पुराने समय से ही गैंदे का फूल, देवी-देवताओं को चढ़ाया जाता रहा है! ऐसी ही मालाओं के फूलों से ही बीज बनते हैं और वो फूट जाते हैं!
लेकिन इस जगह, न तो कोई मंदिर ही था, न कोई पिंडी, न कोई मज़ार आदि, तो फूल यहां तक कैसे चले आये? और वो भी इतने सारे? इस पेड़ के नीचे और आसपास? बस, यही था दिमाग में! मैंने पीछे देखा, वो गूलर  का पेड़ लगा हुआ था, और  वही जगह थी जहाँ वो हत्याएं हुई थीं! इन दोनों के बीच में जो फांसला था, वो कम से कम तीन सौ मीटर का रहा होगा, इस पेड़ की जगह से पूरब दिशा में!
"मुकेश जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"मुझे वो मंदिर दिखाओ ज़रा?" कहा मैंने,
''आइये" बोले वो,
"चलो!" बोला मैं,
चलते चलते, मैंने कई जगह वो गैंदे के फूल देखे, ये सभी हवा में उड़ आये बीजों के कारण लगे होंगे! चलते हुए हमें बीस मिनट लगे और एक तरफ, खुली सी जगह पर, एक छोटा सा मंदिर दिखा! बड़ा ही सुंदर सा मंदिर था वो! हम अंदर नहीं गए, शराब पी रखी थी और मंदिर का सम्मान सबसे पहले था! बाहर से देखा, अभी तो लगता था कि नया ही बनाया गया है! अंदर पौधे लगे थे उसमे, क्यारियां बनी हुईं थीं, गुलाब, गैंदा, चम्पा, सभी लगे थे! पेड़ भी थे अशोक, पीपल, जामुन के भी! छोटा सा मंदिर था, साथ में एक हॉल बना था, बरामदा सा, शायद, ब्याह-शादी के प्रयोग के लिए! एक नलका लगा था सरकारी! इस मंदिर को, लगभग देख ही लिया था हमने! खेतों में फूलों की बात समझ आ गई थी, शायद, यहीं से उड़कर जाते होंगे वो फूल! ये फूल काफी दूर तक फैले होंगे, आ गया था समझ में!
"ये है जी!" बोले वो
"बढ़िया!" कहा मैंने,
"गाँव वालों से जो बन पड़ती है, लगा देते हैं!" बोले वो,
"अच्छी बात भी है!" कहा मैंने,
"हाँ, अच्छा है!" बोले शहरयार जी!
"कल सूफी में देखते हैं!" कहा मैंने,
"सूफी?" बोले मुकेश जी!
मतलब नहा धोकर, बिना पिए हुए!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"हाँ, सुबह देखते हैं!" कहा शहरयार ने!
और हम फिर वापिस हो गए वहां से, कुछ सवाल थे, जवाब भी मिले कुछ के! और कुछ के अभी दबे ही थे!
तो हम लौट आये थे वापिस! आये, हाथ-मुंह धोए और ज़रा आराम करने के लेट गए! शहरयार जी पानी लेने चले गए थे, पानी ले आये तो पानी पिया हमने! और हम तीनों ही वहीँ आ बैठे!
"अरे हां?" कहा मैंने,
"जी?" बोले मुकेश जी,
"उस लड़के को बुला लीजिए!" कहा मैंने,
"हाँ, अभी लाया!" बोले वो, और चले गए बाहर!
"कुआँ था उधर!" बोले शहरयार!
"हाँ, पुराना रहा होगा कभी!" कहा मैंने,
"हाँ, जब बंद सा हुआ होगा, तब पाट दिया होगा!" बोले वो,
"हाँ, अब घर घर नलके लग गए, अब कौन जाएगा भला कुँए तक!" कहा मैंने,
"हाँ, सही बात! अब बचे भी कहाँ ये कुँए!" बोले वो,
"सब बंद से हो गए! पाट ही दिए गए!" बोला मैं,
तभी बाहर, चप्पलें खड़कीं, आया था कोई! मैं उठ बैठा! ये मुकेश जी और एक लड़का था, करीब सोलह साल का, पतला सा, मैले-कुचैले से कपड़ों में, शायद कोई काम करते हुए ही उसको बुला लाये थे बीच में!
"राम राम जी!" बोला वो लड़का,
"राम राम!" कहा हमने,
"क्या नाम है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"सचिन" बोला वो,
"अच्छा! सचिन एक बात बताओ?" पूछा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"तुम्हारा एक साथी मारा गया था, खेलते हुए, शायद तीन साल पहले?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, विजय नाम था उसका" बोला वो,
"हुआ क्या था?" पूछा मैंने,
"काले-प्रेत ने मार डाला उसको!" बोला वो,
"तुमने देखा था?" पूछा मैंने,
"हाँ, देखा था मैंने!" बोला वो,


   
ReplyQuote
Page 1 / 3
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top