अब ये कोई नयी ताक़त थी!
मुक़ाबले को तैयार!
"एक डंडा लाओ" मैंने कहा,
मुझे डंडा दे दिया गया!
"हाँ बे, अब बता?" मैंने पूछा,
वो फिर हंसा!
'जा! जा बेटा जा!" उसने कहा,
मैंने तभी एक डंडा उसके घुटने में मार दिया!
कुछ न हुआ उसे!
जस का तस!
उसने तभी मेरे हाथ से डंडा छीना और तोड़ दिया!
ये ताक़त भिड़ने को तैयार थी!
अब खेलना था खेल!
"शर्मा जी, सभी को हटा दो वहाँ से" मैंने कहा,
शर्मा जी ने सभी को हटा दिया वहाँ से, वे हट गए, लेकिन खड़े वहीँ रहे,
"हाँ, अब बता कौन है तू?" मैंने पूछा,
"तेरे जैसे न जाने कितने आये और कितने गए, समझा?" वो बोला
ये सच में ही ज़बरदस्त ताक़त थी!
भिड़ने को तैयार!
"तू नहीं मानने वाला, है न?" मैंने पूछा,
"कोशिश कर ले!" उसने कहा,
"साले इतनी मार लगाऊंगा कि छिपने की जगह नहीं मिलेगी तुझे!" मैंने कहा,
"तू मारेगा? और तेरे हाथ ही तोड़ दूँ तो?" उसने कहा,
"तू तोड़ेगा?" मैंने पूछा,
"हाँ!" उसने गर्दन हिला कर कहा,
"एक मौका और देता हूँ जल्दी बता कौन है तू?" मैंने कहा,
"नहीं बताता!" वो बोला,
अब तो हद ही हो गयी!
"ठीक है, अब देख तू!" मैंने कहा,
और अब मैंने इबु का शाही-रुक्का पढ़ना शुरू किया!
उसकी आँखें फैलीं!
घबराया वो!
इस से पहले कि इबु वहाँ हाज़िर होता वो चिल्लाया, "बताता हूँ! बताता हूँ!"
रुक्का आधा छूट गया! इबु नहीं हुआ हाज़िर!
"अब बता?" मैंने कहा,
उसने मुझे घूरा!
जैसे निगल जाएगा मुझे!
"बता ओ कुत्ते की औलाद?" मैंने कहा,
"मेरा नाम कर्ण सिंह है" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
'चौधरी कर्ण सिंह" वो बोला,
अब मैंने अवधेश जी की तरफ देखा और पूछा, "जानते को किसी चौधरी कर्ण सिंह को?"
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
"कौन सा कर्ण सिंह?" मैंने पूछा,
"मैं पडना का रहने वाला हूँ" उसने बताया,
"यहाँ क्या कर रहा है?" मैंने पूछा,
"इसने न्यौता हमे" उसने कहा,
"न्यौता?" मैंने पूछा,
"हाँ, यही आया था न्यौतने" उसने कहा,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"इस से पूछो" उसने कहा,
कैसे पूछता!
"कुल कितने हो तुम?" मैंने पूछा,
"इकतालीस" उसने कहा,
इकतालीस! पूरा झुण्ड!
इस लड़के दिनेश ने न्यौता उनको, लेकिन कैसे? और पता कैसे चले? एक एक से तो पूछा तो तीन चार दिन लग जाते!
अब मैंने फिर से शाही रुक्का पढ़ा! और इबु को हाज़िर किया! इबु के हाज़िर होते देख चौधरी की आँखें बाहर झूलने लगीं! इबु ने मुझे देखा और इशारा समझा! फिर तो एक एक को उसने पकड़ के बाहर खींचना शुरू किया! रोते चिल्लाते मार खाते वो बाहर आये सारे के सारे! इबु एक एक को लपेटता चला गया! और फिर लोप हुआ! सभी क़ैद हुए!
लेकिन अब तक दिनेश की हालत खराब हो चुकी थी! उसने उल्टियां कीं और फिर उल्टियों में खून आने लगा! उसने पेशाब, विष्ठा सब त्याग कर दी! और ऐसा हो गया जैसे बहुत बीमार हो!
अब मैं बैठ गया!
अवधेश जी को बुलाया!
"इसको साफ़ करो, मुझे मालूमात करनी है इस से" मैंने कहा और मैं शर्मा जी को लेकर बाहर आ गया!
"इतने सारे?" शर्मा जी ने हैरत से पूछा,
"हाँ, खुद बोला वो, इकतालीस" मैंने कहा,
"हैरत है" वे बोले,
"हाँ, मुझे भी" मैंने कहा,
"लेकिन उसने न्यौता कैसे?" उन्होंने पूछा,
"यही मैं सोच रहा हूँ" मैंने कहा,
"लड़का ऐसा लगता तो नहीं है?" वे बोले,
अनुभव क्र.५४ भाग २
By Suhas Matondkar on Monday, September 1, 2014 at 12:59pm
"हाँ" मैंने कहा,
"मर जाता ये लड़का तो" वे बोले,
"हाँ, मार देते इसे, खा जाते" मैंने कहा,
अब हम फिर से अंदर आये, घर में भय का माहौल था! मैं और शर्मा जी वहाँ बैठक में बैठ गए और अवधेश जी आ गए बाहर!
वे बैठे वहाँ,
"अब कैसा है वो?" मैंने पूछा,
"जी, सभी को अजीब सी निगाहों से देख रहा है" वे बोले,
"पहचान नहीं रहा?" मैंने पूछा,
"लगता नहीं" वे बोले,
"चलो मैं देखता हूँ" मैंने कहा,
अब हम अंदर चले,
वो लाचार सा बैठा था! गुमसुम!
"दिनेश?" मैंने पुकारा,
उसने ऊपर देखा,
"कैसे हो?" मैंने पूछा,
उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की,
"दिनेश?" अब मैंने फिर पुकारा,
कोई प्रतिक्रिया नहीं!
"सदमा लगा है इसको शायद" मैंने कहा,
मैंने शर्मा जी से कहा कि वो मुझे छोटा बैग दें, उन्होंने दे दिया तो मैंने उसमे से एक लौंग निकली उसका सर तोड़ा, माचिस की तीली सुलगाकर उसको जला दिया, और हाथ में रखकर चूरा बना दिया उसका,
"एक गिलास पानी लाइए" मैंने कहा,
पानी मंगवा लिया गया,
मैंने पानी में वो चूरा डाल दिया, और उसको अब अभिमंत्रित कर दिया,
"लीजिये, इसको पिला दीजिये" मैंने कहा,
उन्होंने दिनेश को पानी पिला दिया, उसने पानी पी लिया, कुछ विरोध नहीं किया, फिर वो लेट गया, आँखें बंद कर लीं, जैसे सोना चाहता हो,
"दिनेश?" मैंने आवाज़ दी,
"हाँ जी?" उसने आँखें बंद किये हुए ही जवाब दिया!
अभिमन्त्रण काम कर गया था! बाकी बचे प्रेतों के असरात ख़तम हो गए थे!
"कैसे हो?" मैंने पूछा,
"तबीयत खराब सी है" वो बोला,
"क्या हुआ?' मैंने पूछा,
"दर्द है बदन में" उसने कहा,
"ये कौन हैं?" मैंने अवधेश जी को सामने लाते हुए पूछा,
उसने आँखें खोलीं और बोला, "पिता जी हैं"
अब तसल्ली हुई अवधेश जी को!
"क्या हुआ था तुम्हे?" मैंने पूछा,
"क्या हुआ था" उसने पूछा,
"तबीयत खराब कैसे हुई?" मैंने पूछा,
"पता नहीं जी" वो बोला,
उसे सच में पता नहीं था!
और ये मेरे लिए मेहनत करने का चिन्ह था!
खैर, लड़का ठीक था, इस से मुझे सुकून हुआ! परिवार का एक सदस्य यदि बेकार हो चले तो सभी को दुःख झेलना पड़ता है, मैं समझ रहा था, अब उनकी ये परेशानी तो ख़तम ही सी थी, वे इकतालीस तो आ नहीं सकते थे, हां, कोई और आये तो उसका इंतज़ाम करना था और ये इंतज़ाम यहाँ से नहीं मेरे श्मशान से ही सम्भव था! फिर भी मैंने उस दिन उस मकान में कुछ कीलें अभिमंत्रित करके पांच जगह गाड़ दीं, अब कोई अशरीरी तो वहाँ प्रवेश नहीं कर सकता था!
जो करना था वो मैंने कर दिया था!
अब वहाँ से वापसी करनी थी, चौधरी से बात करनी थी कि आखिर कैसे न्यौता था दिनेश ने उनको? क्या कारण था,
अब मैंने अवधेश जी को बुलाया,
वे आ गए,
"एक तो इस लड़के को कहीं जाने नहीं देना बाहर" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"बाहर का कोई भी आदमी आये कुछ दे खाने को, तो नहीं खिलाना इसको" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"ये रोये, चिल्लाये, ध्यान नहीं देना" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"हाँ, एक बात और, हो सकता है कुछ और भी संगीन मामला हो, उसका पता मैं करूँगा आज, इसलिए कोई भी घर का सदस्य कहीं बाहर नहीं जाए, मेरा मतलब गाँव से बाहर" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब हम चले वहाँ से,
बाहर आये और उनसे विदा ली!
चले पड़े अपने स्थान की तरफ!
गाड़ी दौड़ पड़ी दिल्ली की ओर!
उलझा हुआ मामला था, जल्दी ही सुलझाना था, नहीं तो न जाने क्या हो!
वे बैठे वहाँ,
"अब कैसा है वो?" मैंने पूछा,
"जी, सभी को अजीब सी निगाहों से देख रहा है" वे बोले,
"पहचान नहीं रहा?" मैंने पूछा,
"लगता नहीं" वे बोले,
"चलो मैं देखता हूँ" मैंने कहा,
अब हम अंदर चले,
वो लाचार सा बैठा था! गुमसुम!
"दिनेश?" मैंने पुकारा,
उसने ऊपर देखा,
"कैसे हो?" मैंने पूछा,
उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की,
"दिनेश?" अब मैंने फिर पुकारा,
कोई प्रतिक्रिया नहीं!
"सदमा लगा है इसको शायद" मैंने कहा,
मैंने शर्मा जी से कहा कि वो मुझे छोटा बैग दें, उन्होंने दे दिया तो मैंने उसमे से एक लौंग निकली उसका सर तोड़ा, माचिस की तीली सुलगाकर उसको जला दिया, और हाथ में रखकर चूरा बना दिया उसका,
"एक गिलास पानी लाइए" मैंने कहा,
पानी मंगवा लिया गया,
मैंने पानी में वो चूरा डाल दिया, और उसको अब अभिमंत्रित कर दिया,
"लीजिये, इसको पिला दीजिये" मैंने कहा,
उन्होंने दिनेश को पानी पिला दिया, उसने पानी पी लिया, कुछ विरोध नहीं किया, फिर वो लेट गया, आँखें बंद कर लीं, जैसे सोना चाहता हो,
"दिनेश?" मैंने आवाज़ दी,
"हाँ जी?" उसने आँखें बंद किये हुए ही जवाब दिया!
अभिमन्त्रण काम कर गया था! बाकी बचे प्रेतों के असरात ख़तम हो गए थे!
"कैसे हो?" मैंने पूछा,
"तबीयत खराब सी है" वो बोला,
"क्या हुआ?' मैंने पूछा,
"दर्द है बदन में" उसने कहा,
"ये कौन हैं?" मैंने अवधेश जी को सामने लाते हुए पूछा,
उसने आँखें खोलीं और बोला, "पिता जी हैं"
अब तसल्ली हुई अवधेश जी को!
"क्या हुआ था तुम्हे?" मैंने पूछा,
"क्या हुआ था" उसने पूछा,
"तबीयत खराब कैसे हुई?" मैंने पूछा,
"पता नहीं जी" वो बोला,
उसे सच में पता नहीं था!
और ये मेरे लिए मेहनत करने का चिन्ह था!
खैर, लड़का ठीक था, इस से मुझे सुकून हुआ! परिवार का एक सदस्य यदि बेकार हो चले तो सभी को दुःख झेलना पड़ता है, मैं समझ रहा था, अब उनकी ये परेशानी तो ख़तम ही सी थी, वे इकतालीस तो आ नहीं सकते थे, हां, कोई और आये तो उसका इंतज़ाम करना था और ये इंतज़ाम यहाँ से नहीं मेरे श्मशान से ही सम्भव था! फिर भी मैंने उस दिन उस मकान में कुछ कीलें अभिमंत्रित करके पांच जगह गाड़ दीं, अब कोई अशरीरी तो वहाँ प्रवेश नहीं कर सकता था!
जो करना था वो मैंने कर दिया था!
अब वहाँ से वापसी करनी थी, चौधरी से बात करनी थी कि आखिर कैसे न्यौता था दिनेश ने उनको? क्या कारण था,
अब मैंने अवधेश जी को बुलाया,
वे आ गए,
"एक तो इस लड़के को कहीं जाने नहीं देना बाहर" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"बाहर का कोई भी आदमी आये कुछ दे खाने को, तो नहीं खिलाना इसको" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"ये रोये, चिल्लाये, ध्यान नहीं देना" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"हाँ, एक बात और, हो सकता है कुछ और भी संगीन मामला हो, उसका पता मैं करूँगा आज, इसलिए कोई भी घर का सदस्य कहीं बाहर नहीं जाए, मेरा मतलब गाँव से बाहर" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब हम चले वहाँ से,
बाहर आये और उनसे विदा ली!
चले पड़े अपने स्थान की तरफ!
गाड़ी दौड़ पड़ी दिल्ली की ओर!
उलझा हुआ मामला था, जल्दी ही सुलझाना था, नहीं तो न जाने क्या हो!
अब इंतज़ार था सुबह का, सो उस रात हम कुछ आगे की सोचते हुए और कुछ रणनीति बनाते हुए सो गए, सुबह उठे, फारिग हुए नित्य-कर्मों से और फिर चाय आयी, चाय पी हमने, साथ में कुछ हल्का-फुल्का खाया,
''आज चलना है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, आज चलते हैं" मैंने कहा,
"कितने बजे?" उन्होंने पूछा,
"अभी आठ बजे हैं, दस बजे चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
तभी अवधेश जी का फ़ोन आ गया, दिनेश रात में ठीक से सोया था, कोई दिक्कत नहीं हुई थी, हाँ था काफी निराश और भयभीत!
स्वाभाविक था!
अब शर्मा जी ने अवधेश जी को बता दिया कि हम यहाँ से दस बजे निकल रहे हैं उनके गाँव के लिए, वे प्रसन्न हो गए, दरअसल जितना शीघ्र हो सके उतना ही ठीक था, वो लड़का बहुत सजा पा चुका था!
मैंने तब अपना कुछ आवश्यक सामान बैग में डाल लिया और फिर कुछ सामग्री भी, इनकी आवश्यकता भी थी वहाँ!
और फिर मित्रगण, हम दस बजे वहाँ से निकल लिए अवधेश जी के गाँव की ओर!
करीब दो बजे हम वहाँ पहुंचे, रास्ते में बड़ी भीड़ मिली थी, इसी कारण देर हो गयी थी वहाँ पहुँचने में!
गाँव पहुंचे, फिर अवधेश जी के घर! वे मिल गए!
देर क्यों हुई, ये बताया उनको!
फिर हम बैठ गए बैठक में,
"अब कैसा है दिनेश?" मैंने पूछा,
"जी अब तो बहुत ठीक है आपकी कृपा से" वे बोले,
अब मैंने शर्मा जी को देखा,
शर्मा जी समझ गए और उन्होंने सारी बात बता दी अवधेश जी को, वे तो कुर्सी से ही उछल पड़े सुनकर! बस गिरने को तैयार!
"ये क्या किया इस लड़के ने?" माथे पर हाथ रखते हुए बोले वो,
"जल्दी ही सम्भल गए, नहीं तो सत्यानाश हो जाता" शर्मा जी बोले,
"आप न आते गुरु जी, तो न जाने क्या होता?" वे बोले,
"कोई बात नहीं, अब देर न कीजिये, मुझे उस से मिलवाइए" मैंने कहा,
"चलिए" वे उठे और बोले,
हम चले उनके पीछे!
दिनेश के कमरे में गए!
अकेला बैठा था कुर्सी पर!
हमे देख चौंक गया, फिर नमस्ते की उसने, हमने भी की,
"कैसे हो दिनेश?" मैंने पूछा,
"जी ठीक हूँ" वो बोला,
"पहले से बढ़िया हो?" मैंने मजाक किया!
"हाँ जी" वो गम्भीरता से बोला,
"मैं जो पूछूंगा उसका सही सही जवाब दोगे?" मैंने पूछा,
अब वो चौंका!
भान हुआ अपनी गलती का!
"ज..जी" उसने हामी भरी!
"खावक किसके कहने पे खींचा?" मैंने पूछा,
अब जैसे जुबां हलक में लौट गयी उसकी, काक समेत!
चुप!
"बताओ?" मैंने पूछा,
चुप!
"बताता क्यों नहीं, मर जाएगा तू" उसने पिता जी बोले,
चुप!
"नहीं बताओगे तो बहुत बुरा होगा!" मैंने कहा,
चुप!
आंसू छलकने लगे उसके!
पिता जी ने चुप कराया,
बुक्का फाड़ के रोने लगा!
"चुप! चुप!" शर्मा जी ने उसके सर पे हाथ फिरा कर चुप कराया उसको!
वो हुआ अब चुप!
"किसके कहने पर?" मैंने पूछा,
"किसी के कहने पर नहीं, मेरे पास एक किताब है, उसमे लिखा था ऐसा" उसने रोते रोते बताया,
"लाओ, वो किताब लाओ" मैंने कहा,
वो उठा और किताबों के ढेर से एक मोटी सी किताब निकाल लाया, 'तंत्र-मंत्र की विधियां सचित्र' ये शीर्षक था उसका, उसको किसी मुरादाबाद के किसी किताबी तांत्रिक ने लिखा था!
"इसमें से वो खावक वाला अध्याय निकालो" मैंने कहा,
उसने किताब ली, और निकाल दिया, मुझे दे दिया,
मैंने पढ़ा, मंत्र सही था, खावक भी सही था, लेकिन ये नहीं लिखा था कि जांच लें, कहीं कोई सिवाना या शमशान न हो उधर! न ये लिखा था कि खावक खींचने के बाद पीछे नहीं मुड़ के देखा जाता, ताकि कोई आये नहीं, न ये कि डाकिनी प्रकट होने पर क्या पूछेगी!
मित्रगण! ऐसा ही होता है! और ये मामला पहला नहीं था मेरे लिए, बहुत मामले हैं, जहां मौत भी हो गयी, परिवार खाक़ में मिल गए, औरतें बाँझ हो गयीं, लोग अंधे हो गए, फ़ालिज़ पड़ गयी आदि आदि! केवल एक नासमझी से!
मित्रगण, कभी भी कोई भी सिद्धि किताब आदि से पढ़कर अथवा इंटरनेट से पढ़कर और प्रेरित होकर न करें, सिद्धि से पूर्व एक संकल्प होता है, ये संकल्प एक सक्षम गुरु करवाता है, इस संकल्प के विषय में कहीं भी कुछ नहीं लिखा होता, संकल्प-समय में चौदह प्रकार के उप-संकल्प होते हैं, कारण, यदि किसी कारणवश साधना अधूरी छोड़नी पड़ जाये, कोई व्यवधान आ जाए तो भी आपका अहित नहीं होगा! कोई भी सिद्धि हो, सर्वप्रथम अपने ईष्ट की शरण में जाना होता है, यदि नहीं तो किसी गुरु शरण में और तब सिद्धि आरम्भ होती है! कई शब्द ऐसे हैं जो सिद्धियों में प्रयुक्त होते हैं, उनका अर्थ जानना आवश्यक है, कई शब्दों के उच्चारण विशिष्ट हैं वे जानना आवश्यक हैं! इसमें स्थान, मुहूर्त, योगिनी स्थिति, ऋतु-चक्र, सक्रांति आदि आवश्यक हैं! अब अपरिपक्व मस्तिष्क वाले लोग ये नहीं जानते और अर्थ का अनर्थ कर बैठते हैं, यदि आप किसी सोयी हुई, सुप्तावस्था में शक्ति को जागृत करते हैं तो आपको उसके कारण विशेष के अर्थ जानने चाहियें, शक्तियां किसी की नहीं, वे केवल मन्त्रों में बंधी हैं, बड़े बड़े साधक भी अपनी सिद्धि को वर्ष में एक न एक बार अवश्य ही जागृत करते हैं, ये मार्ग दीखता तो चमत्कारी है परन्तु है बहुत कठिन! प्राण सदैव हाथों पर रहते हैं, एक चूक और हाथ कटे!
इसी को साधना अर्थात साध+ना कहते हैं! और इसी प्रकार की समस्या में घिर गया था ये लड़का!
"तो खावक कब खींचा?" मैंने पूछा,
"जी, कोई तीन महीने हुए, उसमे लिखा था कि किसी निर्जन स्थान में जाकर खावक खींचना है, सो मैंने वहाँ खींचा" वो बोला,
"अच्छा, अब जानते हो वो क्या स्थान है?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वो चौंका कहते हुए,
"वो किसी समय का सिवाना है, जो अब नहीं उपयोग होता, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वहाँ प्रेत वास नहीं करते" मैंने स्पष्ट बताया,
घबरा गया वो!
"अच्छा, खेवक में क्या वस्तुएं उपयोग कीं?" मैंने पूछा,
"जी काजल और मांस" उसने कहा,
"कौन सा काजल?" मैंने पूछा,
"जो बाज़ार में मिलता है" वो बोला,
"वो काजल होता ही नहीं, खावक खींचने में स्वयं ही काजल बनाया जाता है, खावक खींचने से तीन दिवस पहले!" मैंने बताया,
एक और गलती!
"और मांस?" मैंने पूछा,
"जी मुर्गे का मांस लिया था" उसने बताया,
उसके पिता जी हैरान!
"मांस! मुर्गे का मांस! नहीं, मांस मुर्गे का नहीं, अपने हाथों से ही बलि-कर्म किया जाता है किसी चौपाये का, जो शाकाहारी हो, जिसने कभी संसर्ग ना किया हो!" मैंने बताया,
मित्रगण! अब ऐसी बातें, गूढ़ बातें कहीं नहीं लिखी होतीं, और लोग क्या से क्या कर बैठते हैं!
अब आप में से कई सोचेंगे कि मांस क्यों? तंत्र में मांस को सबसे शुद्ध माना गया है, इसमें कोई मिलावट नहीं हो सकती, मांस का कोई अन्य विकल्प भी नहीं, ऐसे ही रक्त! अन्य कोई विकल्प नहीं! इनकी एक विशेष गंध होती है जो तामसिक शक्तियों को विशेष रूप से पसंद है!
दिनेश ने बहुत बड़ी गलती की थी! अब वो बच तो गया था परन्तु डाकिनी के सेवक और सेविकाएं जागृत हो चुके थे, चालीस दिन की सिद्धि में ग्याहरवें दिन ऐसा ही हुआ करता है! और यही हुआ! प्रेतों को, डासर प्रेतों को बल मिला, डाकिनी सरंक्षण का और वे उसके साथ चले आये, उसको साधक समझ कर! अपने में से एक समझ कर!
"अवधेश जी, गलती तो ये कर चुका है, अब क्रिया अधूरी है और अब इसका निदान आवश्यक है, आप आज ही एक श्याम-अजः का प्रबंध कीजिये ताकि आगे की क्रिया रोकी जा सके, समय कम है इसका ध्यान रहे" मैंने कहा,
"जी अभी कह देता हूँ" उन्होंने कहा और उठ गए वहाँ से,
रह गया शून्य में ताकता दिनेश वहाँ!
"बेटे, बिन जाने कभी भी ऐसा नहीं करना चाहिए, वो तो हम आ गए, नहीं तो सूख जाता तू और ये घर भूतों का बसेरा बन जाता" उन्होंने समझाया उसे,
"जी गलती हो गयी" वो बोला,
"गलती हुई, तूने माना, लेकिन हमारे सामने नहीं, तेरे को वहीँ ले जायेंगे, वहाँ गलती मानना" वे बोले,
उसने हाँ में गर्दन हिलायी,
अब अवधेश जी आ गए,
"कह दिया है जी गुरु जी" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
और अब मैंने तैयारी शुरू की वहाँ खावक खींचने की, जो चल चुका था उसको शांत करना था, और इस लड़के को माफ़ी मांगी थी वहाँ! वहाँ एक क्रिया भी करनी थी छोटी सी, वे सभी प्रेत वहाँ आज़ाद भी करने थे, जिन्होंने कभी किसी को तंग नहीं किया था बस न्यौते जाने से चले आये थे!
"अवधेश जी, एक कमरा दीजिये मुझे" मैंने कहा,
