"हे ब्रह्म-पिशाच? मैंने तुझे मान दिया, तेरा सम्मान किया, लेकिन तू नहीं माना, अब मुझे विवश कर दिया तूने!" मैंने कहा,
मैं पलटा!
और बैठ गया अब अलख पर!
कपाली का आह्वान किया!
नेत्र बंद किये!
और जुट गया!
लगातार!
लगातार जाप करता रहा!
उसका अट्ठहास ज़ारी रहा!
निरंतर!
मैंने और गहन किये मंत्रोच्चार!
और फेंका अलख में भोग!
और!
कुछ भी न हुआ!
कपाली प्रकट ही न हुई!
ब्रह्म-पिशाच के समक्ष,
न प्रकट हुई!
अट्ठहास!
प्रबल अट्ठहास!
अब तो मामला उलझ गया!
उपहास!
उपहास का अट्ठहास!
कभी दायें!
कभी बाएं!
अभी सामने!
कभी पीछे!
छका रहा था मुझे!
मैं खड़ा हुआ!
और फिर से मंत्र पढ़ा!
और थाप मारी!
त्रिशूल उठाया,
और कपाल कटोरा भरा!
और फिर मदिरा परोसी!
गटक गया मैं सारी मदिरा!
और अब किया महानाद!
और बैठ गया!
मेरे सामने था वो ब्रह्म-पिशाच!
मुझे क्रोध चढ़ा!
भयानक क्रोध!
"साधक! कुछ नहीं होगा!" वो बोला,
और अट्ठहास!
भीषण अट्ठहास!
मैंने फिर से कूर्माक्षी-विद्या का संधान किया!
त्रिशूल को अग्नि से छुआ!
और कर दी नोंक सामने!
विद्या अग्नि वर्षा की तरह से उड़ चली!
और वो छिटका!
पीछे!
उछलता,
कूदता!
अट्ठहास करता!
बच गया!
वो बच गया!
नहीं आया लपेट में!
मैं गुस्से में भभक गया!
अब मैंने महा-शंड का सहारा लेना ही उचित समझा!
वो कहीं भी जा छिपता!
उसको ये विद्या खींच लाती!
फिर या तो वो क्षमा मांगता,
अथवा क़ैद होता!
पर!
सवाल ये था कि,
वो मुझे करने देगा ऐसा?
वो भांप गया!
अट्ठहास किया!
और वो वार किया!
भूमि थिरक सी गयी!
पेड़ हिल गया!
मेढ़ा रेंक पड़ा!
एक ही स्वर में!
मैंने त्रिशूल आगे किया!
और झेला उस वार को!
मैं खड़ा हुआ!
मदिरा ली,
और फिर,
मदिरा से एक चक्र बनाया!
मिट्टी उठायी!
जिव्हा के नीचे रखी!
और फिर बाहर निकाली!
अपने दोनों कन्धों पर लगायी!
अपने माथे से लगायी!
केश बाँध लिए!
और अब बैठ गया!
अघोर-पुरुष का नाद किया!
भुजाएं थहारीं मैंने!
जांघें पुष्ट कीं!
नाभि को पुष्ट किया!
माथे को पुष्ट किया!
त्रिशूल को नमन किया!
और अब जाप आरम्भ किया!
जैसे ही जाप के स्वर गूंजे!
वो चौंका!
जैसे सिट्टी-पिट्टी गुम हुई हो!
ये महा-शंड थी!
औघड़ी विद्या!
मैं खड़ा हुआ!
तांडवी मुद्रा में आया!
त्रिशूल लहराया!
डमरू बजाया!
और नृत्य मुद्रा में आया!
मदिरा पी!
औघड़राज का नाम लिया!
शक्ति का सृजन किया!
और तभी मुझ पर वार हुए!
तीक्ष्ण 'बाण'!
प्रहार के बाण!
अब मैंने अट्ठहास किया!
नेवला मुक्त होने को था!
सर्प का सर कुचलने को!
सर्प!
बहुत फुंकारा था!
त्रिशक्त-मंत्रों में मैं लिपटा,
नृत्य कर रहा था!
डमरू बजाता!
त्रिशूल लहराता!
जटाएँ हिलाता!
और अलख के चारों और भवरें डालता!
महा-शंड जागृत होने लगी!
अलख ने मुंह फाड़ लिया!
उसका वो अट्ठहास!
अब बंद था!
ताला पड़ चुका था!
और नेवला बाहर आने ही वाला था!
बस!
कुछ पल!
और कुछ पल!
अब वहाँ!
वहाँ जैसे चिंगारियां सी छूट पड़ीं!
जैसे चकमक पत्थर टकरा रहे हों!
मैं नहा उठा पसीने से!
वो राख जो लिपटी थी मुझ से,
चुभने लगी!
हाँ!
अब अट्ठहास नहीं हो रहा था!
मैंने अब उस ब्रह्म-पिशाच का मार्ग अवरुद्ध करने का कार्य किया!
भूमि पर,
त्रिशूल से तीन त्रिभुज बनाये,
एक के अंदर एक!
और फिर एक चिन्ह,
छोटे त्रिभुज के मध्य में!
वो भांप गया!
अब जैसे बौरा गया!
प्रहार पर प्रहार!
वार पर वार!
पर,
अब सब बेकार!
विद्या जागृत हो चुकी थी!
जैसे अग्नि अपने यौवन पर हो!
ग्रास करने को!
भक्षण करने को!
जैसे, किसी आसुरी को वर्षों से भोजन न मिला हो!
अलख लपलपाई!
और मेरे मंत्रोच्चार सघन हुए!
मैंने मदिरापान किया!
और मांस का एक टुकड़ा उछाल फेंका सामने!
मैंने टुकड़ा फेंका!
और वहाँ कटे नर-मुंड गिरने लगे!
एक के बाद एक!
जैसे किसी वृक्ष से फल गिर रहे हों!
ढप्प! ढप्प!
कुछ मेरे कंधे से टकरा कर गिरे!
ये कौन लोग थे?
पता नहीं!
हाँ,
वे सभी,
जिसका ग्रास किया था इस,
व्रह्म-राक्षस ने!
वो पल में प्रकट हो!
और पल में लोप!
पिंजरे में क़ैद सिंह सा वो,
तड़पे!
गुस्सा हो!
चिल्लाये!
चिंघाड़े!
दहाड़े!
सांप फुफकार रहा था!
और अगले ही पल!
अगले ही पल!
नेवला आज़ाद था!
नेवले की तरह तड़प रही थी महा-शंड विद्या उस ब्रह्म-पिशाच का भक्षण करने को!
मैंने,
औघड़राज का नाम लिया!
और जम कर तीन थाप मारे!
और विद्या चल पड़ी!
चारों दिशाओं को कीलती हुई!
नभ और भूमि,
व्योम और शून्य,
सबको कीलती हुई!
बढ़ चली!
औ फिर!
फिर एक चीख!
नेवले ने दबोच लिया था सर्प का फ़न!
लिपट गया पाश में!
मैंने कपाल आगे किया!
महानाद किया!
और पड़ गया पाश!
हो गया क़ैद!
महा-षंड विद्या ने कर दिखाया,
असम्भव को सम्भव!
मैं आगे बढ़ा!
वो खड़ा था!
भूमि पर!
अशक्त!
लाचार!
क्रोध गायब!
मद समाप्त!
अब एक प्रेत से अधिक सामर्थ्य नहीं था उसमे!
किसी विवश प्रेत जैसा!
मैंने त्रिफाल उठाया!
आगे गया!
और सम्मुख हुआ!
वो मुझे देखे!
और मैं उसे!
वो लाचार था!
वो नहीं माना था!
अब ज़बरदस्ती मनाना पड़ा उसको!
मैं चाहता तो उसको सजा देता,
चाकरी कराता!
दास बनाता!
पेड़ों पर असमय फल उगवाता!
अपना आसन बिछवाता!
नहीं!
नहीं!
"हे ब्रह्म-पिशाच! प्रणाम!" मैंने सर झुकाते हुए कहा!
वो मुस्कुराया!
हंसा!
मैंने तभी,
भद्दशूल विद्या से उसका पाश काट दिया!
कर दिया मुक्त!
उसमे शक्तियां लौट आयीं!
वो मेरे सामने था!
चाहता,
तो मेरा मस्तक काट देता!
उसी क्षण!
वो आगे आया!
मेरे सामने!
"प्रणाम!" वो बोला,
एक राजा जैसी आवाज़!
एक कड़क आवाज़!
उसने मुझे छुआ!
वो राख सब गायब हुई!
मैं पहले जैसा हुआ!
नवजीवन सा संचार हुआ!
"साधक! मैं जा रहा हूँ!" वो बोला,
मैंने देखा,
और अपना त्रिशूल गाड़ दिया नीचे!
"मुझे जब स्मरण करोगे, मैं प्रत्यक्ष हो जाऊँगा! ये मेरा वचन है! मैंने तुम्हे जांच लिया! तुम्हारे जैसे साधक सदा बने रहें, इस से अच्छा कुछ नहीं! जाओ! लौट जाओ! जैसा चाहोगे, वैसा होगा!" वो बोला!
और!
प्रकाश!
आँखें चुंधिया गयीं!
नेत्र खोले!
तो सब समाप्त!
न कोई नर-मुंड!
न कोई अलख-अग्नि!
सब समाप्त!
मैं लौट पड़ा!
मेढ़े को खोल दिया!
वो भाग छूटा!
मैं वापिस हुआ!
स्नान किया!
रात्रि के तीन बज चुके थे!
मित्रगण!
सब सही हो गया!
श्रुति का रूप-रंग निखार गया!
दाम्पत्य जीवन सुखी हो गया,
उसको मातृत्व सुख भी मिलने वाला है!
अब सब सही है!
मुझे ये घटना आज भी याद है!
वो कभी नहीं आया लौट के!
और कौसानी में ही है!
वहीँ वास है उसका!
हाँ,
मैंने कभी नहीं बुलाया उसको!
वो श्रुति,
वो अनुज,
वो प्रबल ब्रह्म-पिशाच,
मुझे याद हैं आज भी!
------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------
हे पूजनीय औघड श्रेष्ठ आपके चरणों में कोटिशः नमन, आजकल कोई विरला मानवश्रेष्ठ ही किसी के लिए इतना करता है , आपको बारम्बार साष्टांग प्रणाम 🌹🙏🏻🌹