वर्ष २०१३ जिला अम्ब...
 
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वर्ष २०१३ जिला अम्बाला की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बीमार सी हो जाती थी,

 इतना कि,

 उठा भी नहीं जाता था उस से!

 ये सब उस ब्रह्म-पिशाच की माया का प्रभाव था!

 "श्रुति?" मैंने पुकारा,

 उसने मुझे देखा,

 हाथ आगे बढ़ाया,

 मैं आगे गया,

 और उठाया उसको,

 सहार दे,

 खड़ा किया उसको,

 और फिर बाहर लाया,

 बाहर अनुज बैठा था,

 थड़ी पर,

 हमे देखते ही,

 आ गया हमारे पास,

 "ले जाओ इसको" मैंने कहा,

 "जी" वो बोला,

 और सम्भाला उसको,

 फिर ले गया उसको कक्ष में,

 अब मैं चला स्नान के लिए,

 स्नान किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और फिर आया कमरे में,

 जहां शर्मा जी और अनुज के पिता जी बैठे थे,

 मुझे देख खड़े हुए वे,

 मैं बैठा,

 और बता दिया उनको अब तक का सारा हाल,

 वे चिंतित हुए,

 "अब कैसे होगी?" अनुज के पिता जी ने पूछा,

 "ये ऐसे नहीं मान रहा, मैं करूँगा कुछ" मैंने कहा,

 "जी, बचा लो हमे गुरु जी" वे बोले,

 "मैं पूरा प्रयास करूँगा" मैंने कहा,

 "आप ही का सहारा है जी" वे बोले,

 "घबराइये नहीं" मैंने कहा,

 हिम्मत बंधाई उनकी,

 मैंने बताया कि राह कठिन तो है,

 परन्तु असम्भव नहीं!

 उस रात भी कुछ नहीं हुआ,

 कोई आहट नहीं,

 कोई दिक्कत नहीं!

 कोई परेशानी नहीं!

 आराम से सोये हम,

 अनुज भी और श्रुति भी,

 स्नान आदि से फारिग हुआ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 फिर चाय नाश्ता किया सभी ने,

 मैंने रोक कर रखा था सभी को वहीँ,

 न जाने कब क्या हो जाए!

 दिन आगे बढ़ा!

 बजे ग्यारह!

 और अनुज आया भागता हुआ मेरे पास!

 "क्या हुआ?" मैंने पूछा,

 "वो....वो........श्रुति" वो बोला,

 मैं भागा वहाँ,

 श्रुति को देखा,

 अपने बाल खोले,

 वो चौकड़ी मार बैठे हुए थी!

 ऊपर देख रही थी,

 "श्रुति?" मैंने कहा,

 उसने मुझे देखा,

 फिर हंसी!

 मैं समझ गया!

 आमद है ये उसी की!

 मैंने फ़ौरन अनुज से बाहर जाने को कहा,

 वो भार गया,

 मैंने तभी कमरा बंद किया,

 पीछे देखा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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श्रुति अपने वस्त्र फाड़ रही थी,

 फाड़ दिए थे,

 हंसते हुए!

 "श्रुति?" मैंने कहा,

 और वो ठहाके लगाए!

 एक एक करके सारे वस्त्र उतार दिए!

 और फिर भागी मेरी तरफ,

 जैसे ही आयी,

 मैंने दी एक लात दबा कर!

 वो नीचे गिरी!

 चिल्लाई!

 और फिर से भागी मेरी तरफ!

 मैंने फिर से एक और लात मारी!

 वो नीचे गिरी!

 फिर उठी,

 और फिर से आयी,

 मैंने फिर से एक लात और मारी!

 अब हंसते हुए,

 वो नीचे बैठ गयी!

 अब मैंने फ़ौरन से एक मंत्र पढ़ा,

 और फूंक दिया उस पर!

 वो चिल्लाई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 तड़प उठी!

 सर फोड़ने लगी,

 चारपाई से!

 कभी उठती,

 और कभी बैठ जाती!

 मैंने एक चादर ली,

 और लपेटा उसे,

 खींचा,

 और ले गया खींच कर अपने क्रिया-स्थल में!

 यहाँ लाकर,

 धक्का दिया उसको,

 और फिर भस्म उठाकर,

 एक मंत्र पढ़ा,

 और फेंक दिया उस पर!

 वो अकड़ी जैसे!

 पेट से घुटने लगा लिए उसने!

 दर्द के मारे कराह उठी!

 "कहाँ है? कहाँ है तू?" मैंने पूछा,

 और तभी!

 तभी वो प्रकट हुआ!

 गुस्से में!

 आते ही,


   
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श्रीशः उपदंडक
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श्रुति में जान आ गयी!

 खड़ी हो गयी!

 और गाली-गलौज!

 ताली पीटे!

 हँसे!

 चिल्लाये!

 "मैं मार दूंगा तुझे!" वो बोला,

 मैं तैयार था!

 उसका मुकाबला करने के लिए!

 "इसको छोड़ दो!" मैंने कहा,

 "नहीं छोडूंगा!" वो बोला,

 "छोड़ना होगा" मैंने कहा,

 "नहीं छोडूंगा!" वो बोला,

 मैंने तभी त्रिशूल उखाड़ा!

 और किया उसकी तरफ!

 विद्या का संधान किया!

 और उछाल दी सामने!

 उसने मुकाबला किया,

 डटा रहा!

 साध ली विद्या उसने!

 वो नीचे उतरा!

 और देखा उसने श्रुति को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 श्रुति तो जैसे उसी का इंतज़ार कर रही थी!

 मुझे लगी गालियां देने!

 "चला जा, चला जा!" मैंने कहा,

 ठहाका!

 अट्ठहास!

 "तुझे पाठ पढ़ाता हूँ मैं!" वो बोला,

 और हाथों से एक मुद्रा बनायी!

 अविरुम्ब-मुद्रा!

 और कर दी मेरी तरफ!

 मैंने त्रिशूल किया आगे!

 विद्या टकरायी!

 और मैं खिसकने लगा पीछे!

 पीछे!

 और पीछे!

 आखिर में ज़ोर पड़ा!

 और मैं गिर पड़ा नीचे!

 फिर से उठा,

 उसने फिर से मुद्रा बनायी,

 फिर से मेरी ओर उछाल दी,

 मुझे टकरायी,

 और मैं टकराया दीवार से!

 चक्कर सा आ गया मुझे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मैंने फ़ौरन ही वारुणी-विद्या का संधान किया,

 मंत्र पढ़े,

 और कर दिया त्रिशूल आगे!

 वो लोप!

 लोप हो गया!

 और धड़ाम से नीचे गिरी श्रुति!

 मैं भागा!

 उसको उठाया,

 उसके मुंह से रक्त निकलने लगा था,

 मैंने भस्म ली,

 अभिमन्त्रण किया और उसके माथे से लगा दी,

 वो ठीक हो गयी!

 और बैठी रही!

वो लोप हो गया था!

 और श्रुति अब उसकी माया से बाहर थी,

 अर्थात, अब वो जल्दी ही नहीं आने वाला था,

 वो खेल खेलता जा रहा था,

 और मैं यहाँ बस, उसके खेल में,

 हिस्सेदारी कर रहा था,

 कुछ न कुछ तो अवश्य ही करना था,

 कुछ ऐसा,

 जिस से इस ब्रह्म-पिशाच से पीछे छूटे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस लड़की का,

 इस लड़की की देह का द्रव्य तेजी से,

 अपघटित हुए जा रहा था,

 चिकित्सीय रूप से भी,

 अब उसकी हालत दयनीय हो चली थी,

 इसीलिए अब शीघ्रता से कुछ न कुछ अवश्य ही करना था!

 मैंने श्रुति को उठाया,

 चादर उढ़ाई,

 सहारा दिया,

 और ले आया बाहर,

 अनुज को आवाज़ दी,

 और फिर उस से कह दिया कि वो ले जाए उसको कक्ष में,

 आराम करे,

 कुछ खाना-पीना हो,

 तो बता दे,

 वो ले गया उसको,

 और मैं वापिस हुआ अपने कक्ष की ओर,

 वहाँ,

 शर्मा जी और अनुज के पिता जी बैठे हुए थे,

 मुझे देखा,

 तो चिंतित हुए,

 "क्या रहा?" शर्मा जी ने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "वही सब" मैंने कहा,

 "अब कैसे होगी?" उन्होंने पूछा,

 "शर्मा जी?" मैंने कहा,

 "जी?" वे बोले,

 "ऐसे बात नहीं बनेगी" मैंने कहा,

 "जी, फिर?" वे बोले,

 "रात्रिकाल क्रिया आवश्यक है इसमें" मैंने कहा,

 "आपका अर्थ, मसानी-क्रिया?" उन्होंने पूछा,

 "हाँ" मैंने कहा,

 "अच्छा!" वे बोले,

 "आप सामान का प्रबंध करवाइये आज, मैं आज रात ही ये क्रिया करूँगा" मैंने कहा,

 "मैं करता हूँ" वे बोले,

 और फिर मैं,

 उठा,

 और गया श्रुति को देखने,

 लेटी पड़ी थी श्रुति,

 अनुज वहीँ बैठा था,

 मुझे देखा,

 तो खड़ा हो गया,

 "कुछ खाया इसने?" मैंने पूछा,

 "नहीं" वो बोला,

 "श्रुति?" मैंने आवाज़ दी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 वो हिली,

 मुझे देखा,

 "कुछ खा लो" मैंने कहा,

 उसन यहाँ कह दी,

 मैं बाहर गया,

 सहायिका को बोला,

 और खाना लाने को कहा,

 सहायिका खाना ले आयी,

 रख दिया,

 और अनुज से मैंने कहा," अनुज खिला दो इसको, भूख लगी हो तो तुम भी खाना खा लो"

 "जी" वो बोला,

 और मैं फिर बाहर आ गया,

 अपने कक्ष में आया,

 और लेट गया,

 कुछ फ़ोन किये,

 शर्मा जी और अनुज के पिता जी,

 सामान लेने चले गए थे,

 मेढ़े के लिए मैंने फ़ोन कर दिया था,

 वो शाम तक आ जाने वाला था,

 रसूल साहब पहुंचा जाने वाले थे उसको,

 दो ढाई घंटे बीते,

 सामान आ गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ये सामान भी बस दिल्ली में एक ही जगह मिलता है,

 इसको बंजारा-बाज़ार कहा जाता है,

 यहाँ ऐसा तांत्रिक-सामान उपलब्ध रहता है,

 दिल्ली के आसपास के सारे औघड़ और तांत्रिक यहीं से ये सामान खरीदते हैं,

 साधारण आदमी देख ले,

 तो गश खा जाए!

 खैर,

 सामान आ गया,

 सामान बढ़िया था,

 आज की रात मसानी-क्रिया करनी थी!

 श्रुति को मैं बिठा नहीं सकता था,

 तो मैंने एक तरीक़ा सोचा,

 मैं उठा,

 गया अनुज के पास,

 "अनुज, श्रुति को स्नान कराओ, ये तो ये कटोरा, इसमें उसके स्नान का पानी भर लेना, जब वो स्नान करे तो उसके बदन से गिरता पानी इसमें डालना, कटोरा उसकी पीठ से सटाना, बिलकुल नाभि के पीछे की तरफ" मैंने कहा,

 उसको और समझाया कि कैसे,

 "जी" वो बोला,

 और मैं वापिस हुआ,

 शाम को रसूल साहब आ पहुंचे,

 मेढ़ा लाये थे,

 बढ़िया मेढ़ा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर हुई शाम!

 स्नान का पानी आ गया,

 मेढ़ा, एक जगह बाँध दिया गया,

 और मैं उस पानी को लेकर,

 चला गया अपने क्रिया-स्थल में!

 वहाँ इसको अभिमंत्रित किया,

 और भस्म को अभिमंत्रित किया,

 और फिर एक चुटकी भस्म,

 चटा दी मैंने श्रुति को,

 अब कम से कम वो उस ब्रह्म-पिशाच की उस माया से,

 कुछ समय के लिए सुरक्षित थी!

 अब वो पानी,

 श्रुति का अंतःवस्त्र,

 उसक केश,

 उसके नख,

 और उसका झूठा पानी,

 ये सब लिया मैंने,

 क्रिया-स्थल में गया,

 वहाँ मैंने,

 समस्त आवश्यक विद्यायों का संधान किया!

 आज अपने दादा श्री की एक विशेष प्रदत्त विद्या का संधान किया,

 महा-शंड विद्या!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ये तो यक्ष, गांधर्व आदि से भिड़ने में भी समर्थ है!

 ऐसा नहीं कि वे काट नहीं कर सकते इसकी,

 कर सकते हैं,

 परन्तु इस विद्या का सम्मान करते हैं!

 इसीलिए,

 प्राण बचे रहते हैं!

 ये विद्या स्व्यं श्री महा-औघड़ द्वारा सृजित है!

 श्री श्री दत्तात्रेय द्वारा पोषित है!

 इसका वार अचूक और अमोघ है!

 रिक्तता इसको पसंद नहीं!

 कार्य करती है,

 और लौट आती है!

 जो साधक इसका संधान करता है,

 भूत-प्रेत स्वतः ही उसके दास हो जाते हैं!

 इसका प्रशिक्षण,

 किसी योग्य गुरु द्वारा ही होता है,

 अन्यथा,

 परिणाम बहुत भयानक हुआ करते हैं!

 महा-शंड श्री औघड़नाथ के मणिबंध की शक्ति है!

 सारा संधान हो गया,

 अब एक सहायक की मदद से,

 मैं इसारा सामान उठाया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और बाहर,

 अपने श्मशान में आ गया,

 उसी कीकर के पेड़ के नीचे,

 जिसे मैंने बोया था!

 ये आज विशाल है,

 इसके भरण-पोषण मैंने संतान की भांति किया है!

 मुझे बहुत प्यार है इस से!

 जब ये झूमता है,

 तो आनन्द आता है मुझे!

 इसके फूल,

 और फलियां,

 मैं दूर दूर तक वितरित करता हूँ,

 अपने जानकारों को!

 इसके कई बीजों से उगे,

 कई कीकर आज कई स्थानों में हैं!

 ये उस श्मशान में मेरा स्थान है!

 वहाँ, नांद है,

 भेरी है,

 अलख है!

 दीप-स्थान है!

 और एक चबूतरा है!

 जहां मैं बैठता हूँ!


   
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