वर्ष २०१३ जिला अम्ब...
 
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वर्ष २०१३ जिला अम्बाला की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 चिल्लाये!

 पीछे भागे!

 अंदर न आये!

"अनुज, अंदर लाओ इसको" मैंने कहा,

 अनुज ने पूरी जान लगा दी,

 लेकिन वो अंदर नहीं आयी!

 रोती रही!

 चिल्लाती रही!

 वहाँ तो कोई सुन भी लेता,

 यहाँ कोई नहीं सुनता उसकी!

 "श्रुति?" मैंने कहा,

 उसने मुझे देखा तो सही,

 लेकिन अंदर नहीं आयी,

 अब मैं उठा,

 गया वहाँ तक,

 "उठाओ इसे?" मैंने कहा,

 और हम दोनों ने उसको उठाया अब!

 और ले आये अंदर!

 वो बार बार उठ के भागे!

 अनुज समझाए,

 न माने!

 मैंने भी समझाया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं मानी!

 तो ऐसे लोगों के लिए हम,

 खम्ब का प्रयोग करते हैं!

 एक खम्भ गड़ा है वहाँ,

 उसी क्रिया-स्थल में,

 "उठाओ इसको" मैंने कहा,

 और उसको उठाया अब!

 और फिर उसकी ज़ोर-ज़बरदस्ती रोक कर,

 बाँध दिया उसको!

 "अब बाहर जाओ अनुज" मैंने कहा,

 अनुज बेचारा, हैरान!

 परेशान!

 ये क्या हो गया उसकी पत्नी को?

 ठीक होगी भी या नहीं?

 यही सोचे!

 अब मैं बैठा आसन पर,

 त्रिशूल गाड़ा!

 चिमटा साथ रखा!

 और खड़खड़ा दिया!

 और फिर मन्त्रों से अभिमंत्रित भस्म छिड़क दी उस लड़की पर!

 भस्म पड़ी,

 और वो चिल्लाई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कराह पड़ी!

 और नीचे बैठने को झुकी!

 "बुला?" मैंने कहा,

 वो रोये!

 छोड़ दो!

 जाने दो!

 रहने दो!

 मर जाउंगी!

 यहीं मर जाउंगी!

 माफ़ कर दो!

 जाने दो!

 "श्रुति?" मैं चिल्लाया!

 उसने देखा मुझे!

 "बुला उसे?" मैंने कहा,

 उसने झटका खाया!

 सर नीचे झुका लिया,

 और फिर निढाल सी हो गयी!

 "श्रुति?" मैंने कहा,

 निढाल!

 "श्रुति?" मैंने फिर से पुकारा,

 कोई जवाब नहीं!

 और फिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 झटके से सर उठाया!

 आँखें चौड़ी किये हुए!

 दांत भींचे हुए!

 गुर्राती सी!

 अटपटी भाषा बोलती हुई!

 थूकते हुए!

 और फिर अट्ठहास!

 ठहाका!

 मेरे स्थान में,

 मेरे क्रिया-स्थल में,

 केवल दो ही अट्ठहास कर सकते हैं!

 एक ब्रह्म-राक्षस और एक ब्रह्म-पिशाच!

 और झमझमाता हुआ वो प्रकट हुआ!

 श्वेत वस्त्रों में!

 देव-पुरुष जैसा!

 आभूषणों से युक्त!

 सीने पर वक्ष-ढाल धारण किये हुए!

 भुज-बंध बांधे!

 सघन केश लिए!

 केश कन्धों से आगे झूले थे!

 उसके चौड़े वक्ष पर!

 जांघे उसकी पेड़ के तनो के सामान!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 भुजाएं मजबूत!

 मदमत्त हाथी को भी थामने वाली उसकी भुजाएं!

 कोई देख ले तो गश खा जाए!

 उसने फिर,

 देखा अपनी प्रेयसी को!

 और अगले ही पल!

 रस्सियां टूट गयीं!

 वो आज़ाद हो गयी!

 मैं दौड़ कर बैठ गया अलख पर!

 अलख में भोग दिया!

 और वो नीचे उतरा!

 "चला जा! चला जा! तुझे कहे देता हूँ मैं, ये प्रेयसी है मेरी, यदि इसको क्षति पहुंची, तो तेरा वंश-नाश कर दूंगा मैं!" वो बोला,

 सत्य!

 सत्य कहा था उसने!

 ब्रह्म-पिशाच का मारा,

 ऐसे ही मरता है!

 ग्यारह पुश्तों तक ये श्राप लगा देता है!

 अर्श से फर्श पर!

 राजा से रंक!

 औघड़ से भिखारी!

 ये है सक्षम!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 है इसमें ऐसी क्षमता!

 मात्र देखने से ही घात-दृष्टि लगा देता है!

 क्रुद्ध होने पर तो सर्वनाश कर देता है!

 मुझे सम्भल के चलना था!

 बहुत सम्भल के!

 मैं खड़ा हुआ!

 "तुझे जाना होगा!" मैंने कहा,

 वो हंसा!

 अट्ठहास!

 प्रबल अट्ठहास!

 आया आगे!

 और थामा उसने श्रुति को!

 और स्राव शुरू!

 ये है ब्रह्म-पिशाच की माया!

 स्त्री को चरमोत्कर्ष की सी अनुभूति होने लगती है,

 इसी कारण से,

 वो और,

 और,

 समर्पित होती जाती है!

 इसी का लाभ उठाते हैं ये ब्रह्म-पिशाच!

 उसने खींच कर अपने से ही लगाया,

 श्रुति उसकी नाभि तक ही आये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "जा! जहां से आया, वहीँ जा!" मैंने कहा,

 उसने छोड़ा उसे!

 आगे आया,

 "आज के बाद, यदि फिर से इसे तंग किया, तो भस्म कर दूंगा तुझे!" वो बोला,

 मैं हंसा!

 तेज हंसा!

 और फिर बैठ गया अलख पर!

 "सुन! तुझे अंतिम चेतावनी देता हूँ.." मैंने इतना ही कहा,

 और आग के शोले भड़क भड़क के निकलने लगे अलख से!

 अट्ठहास!

 भयानक अट्ठहास!

 और मेरी अलख!

 शांत!

 मुरझायी!

 और फिर बुझ गयी!

 मैं खड़ा हो गया!

 त्रिशूल उखाड़ लिया!

 और हो गया मुस्तैद!

 वो मुझे देखे,

 और मैं उसके!

 अब मैंने कल्पाज्ञी-विद्या का संधान किया!

 और फेंक दिया थूक सामने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 भूमि पर!

 वो उड़ चला!

 दूर!

 बहुत दूर!

 सम्भव है कौसानी ही चला गया हो!

 और अगले ही पल!

 अट्ठहास!

 प्रबल अट्ठहास!

 लौट आया वो!

 आ गया वापिस!

 बहुत हठी था!

 हठ उनका बहुत उग्र होता है!

 यही हुआ!

 हार नहीं मानने वाला था वो!

अट्ठहास!

 प्रबल अट्ठहास!

 हर तरफ!

 पूरा क्रिया-स्थल गूँज उठा!

 ईंटों पर लगा रेत भी झड़ने लगा!

 ऐसा अट्ठहास!

 कान फटने लगे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 शोर हुआ,

 जैसे मनों पानी फूट पड़ा हो किसी घड़े से!

 ऐसा अट्ठहास!

 मैं खड़ा था!

 कूष्माण्ड-विद्या जागृत किये!

 और अगले ही पल वो हुआ प्रकट!

 महाप्रबल!

 महा-शक्तिशाली!

 क्रूर!

 और क्रुद्ध!

 "जा यहाँ से!" मैंने कहा,

 अट्ठहास!

 खूब ज़ोर से!

 "जा! जहां से आया, वहीँ जा!" मैंने कहा,

 "मुझे जानता है?" वो गर्राया!

 "हाँ!" मैंने कहा,

 "कौन हूँ मैं?" वो बोला,

 हँसते हुए!

 "ब्रह्म-पिशाच!" मैंने कहा,

 "हाँ! हाँ! मैं हूँ ब्रह्म-पिशाच!" वो बोला,

 छाती ठोकते हुए!

 "और तू?" उसने पूछा,

 अट्ठहास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 खौफनाक अट्ठहास!

 "एक मनुष्य!" वो बोला,

 ठहाका लगाते हुए!

 "एक मनुष्य!" उसने कहा,

 उपहास उड़ाते हुए!

 "मेरा क्या कर लेगा तू?" वो बोला,

 "बस! रुक जा!" मैंने कहा,

 अट्ठहास!

 और अब मैंने त्रिशूल आगे किया!

 विद्या का आरोहण किया,

 और विद्या संचालित की!

 उस से टकरायी!

 और अपने हाथ से,

 उसने उसको ऐसे झुका दिया,

 जैसे कि,

 कोई मोम का डंडा!

 कुछ न हुआ!

 अट्ठहास!

 दोगुना अट्ठहास!

 मैंने फिर से,

 एकमुखी-विद्या का संधान किया,

 आरोहण किया,


   
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 और फिर संचालन!

 उस से टकरायी!

 वो चला अब दूर!

 जूझा!

अनुभव क्र. ७२ भाग २

By Suhas Matondkar on Saturday, September 27, 2014 at 10:45pm

 और फिर से खड़ा हो गया!

 अपने सामर्थ्य से,

 वो काट रहा था मेरी विद्याएँ!

 ऐसा केवल यही,

 या एक ब्रह्म-राक्षस ही कर सकता था!

 अट्ठहास!

 प्रबल अट्ठहास!

 तभी!

 उसने अपने हाथ से एक मुद्रा बनायी!

 ओद्युत्!

 ओद्युत् विद्या!

 और कर दी मेरी तरफ प्रेषित!

 मैंने त्रिशूल आगे किया,

 विद्या टकरायी!

 त्रिशूल गरम हुआ!

 और विद्या शांत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कम्पकुन्जिनी ने झेल लिया उसे!

 अब मैं हंसा!

 अट्ठहास लगाया!

 उसने यक़ीन नहीं हुआ!

 ओद्युत् विद्या कट गयी थी!

 नहीं तो मेरे शरीर के,

 परखच्चे उड़ा देती!

 मैं बच गया था!

 उसने फिर से मुद्रा बनायी,

 एक विशेष मुद्रा!

 डुम्बावाहिनी मुद्रा!

 मैंने तभी,

 अष्टरोधन विद्या जागृत की!

 उसने संचालित की,

 और कर दिया,

 अपना हाथ मेरी तरफ!

 मैं खड़े खड़े ही सिहर गया!

 मैंने त्रिशूल आगे किया!

 त्रिशूल से टकरायी!

 त्रिशूल काँप उठा!

 और मैं जैसे भूमि में धंस चला!

 लेकिन डटा रहा!


   
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मेरी विद्या ने सामूल नष्ट किया उसकी विद्या को!

 और मैं संयत हुआ!

 वो चकित!

 हैरान!

 अवाक!

 कैसे हो गया ये?

 कौन है ये?

 कैसे डट गया?

 इतना सामर्थ्य कैसे?

 कौन है ये औघड़?

 वो नीचे हुआ,

 और सामने आया!

 कुछ सोचा!

 मुझे देखा!

 "चले जाओ तुम" वो बोला,

 "नहीं, तुझे जाना होगा!" मैंने कहा,

 "मैं नहीं जाऊँगा!" वो बोला,

 "तो मैं भी नै जाऊँगा!" मैंने कहा,

 वो,

 झटके से पीछे हुआ!

 दोनों हाथों से मुद्रा बनायी!

 और अपने अंगूठियां छुआई,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंजुल बनाया,

 और ऊपर किये हाथ!

 वैसुकुंड-विद्या!

 क्या बात है!

 ऐसा कोई औघड़ नहीं जो ये विद्या नहीं चाहेगा!

 ये मिल जाए,

 तो फिर देवता के स्तर की शक्ति प्राप्त हो जाए!

 मैंने तभी,

 तभी गोरखी-चक्रिका खींच मारी!

 और भूमि पर अपने पांवों के अंगूठे उठाकर,

 खड़ा हो गया!

 उसने विद्या चलायी,

 मेरी रेखा,

 जली!

 आंच!

 लपटें!

 परन्तु!

 ऐसे बुझी,

 जैसे किसी ने पानी डाला हो उस पर!

 विद्या का शमन हुआ!

 और वो हैरान!

 झम्म से लोप!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 लोप हो गया!

 मैं अब संयत हुआ!

 तैयार!

 चाक-चौबस्त!

वो लोप हो गया था!

 चला गया था!

 मैंने प्रतीक्षा की,

 काफी देर तक,

 नहीं आया,

 चला गया था!

 मैंने अपना त्रिशूल गाड़ दिया वहीँ,

 हाँ, उसके जाते ही,

 श्रुति गिर पड़ी थी नीचे,

 कमज़ोर सी,

 बीमार सी,

 कराहने लगी थी,

 वो जब मौजूद होता था,

 वो शक्ति होती थी उसके अंदर!

 रूपवान हो जाती थी!

 शरीर शक्ति से भर जाता था,

 और जब वो चला जाता था,

 तो अशक्त,


   
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