किसी भी पकड़ में नहीं था!
घर भी सामान्य ही था,
कुछ भी अलग या पारलौकिक नहीं था!
अब जांच करना अत्यंत आवश्यक था!
मैंने अब घर के सभी सदस्यों से मिलना शुरू किया,
सभी से मिला,
और फिर मैंने उस लड़की को बुलाया, जिसे ये दिखायी देता था, बात करता था, वो आयी, और बैठा गयी सामने,
नज़रें न मिलाये!
अपने आप में ही सिमटे!
शांत और बेचैन सी!
फिर मैंने ही बात शुरू की,
"क्या नाम है आपका?" मैंने पूछा,
"श्रुति" उसने बताया,
"तो आपको दिखायी देता है वो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कितने दिन से?" मैंने पूछा,
"चार महीने हो गए" वो बोली,
यानि के शादी के दो महीने के बाद से!
"कैसा दीखता है वो?" मैंने पूछा,
"राजा सा" वो बोली,
"कैसा राजा सा?" मैंने पूछा,
"उसने राजाओं के समान वस्त्र पहने हैं, आभूषण भी वैसे हैं" वो बोली,
"अच्छा, इंसान ही है?" मैंने पूछा,
"इंसानों से अधिक मजबूत, लम्बा-चौड़ा और ताक़तवर है" वो बोली,
अब ऐसा कौन?
कोई प्रेत-माया?
या फिर कोई प्रयोग?
कोई वशीकरण प्रयोग?
अभी तक कोई खुलासा नहीं!
"कुछ नाम बताता है अपना?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"क्या कहता है?" मैंने पूछा,
अब वो थोडा सकुचाई!
मैं समझ गया!
कोई निजी बात थी!
खैर,
नहीं पूछा,
तभी कमरे में एक सुगंध सी आयी,
और कमरे में सिर्फ दो लोगों को वो सुगंध आयी!
एक मैं,
और एक,
श्रुति!
श्रुति के तो हाव-भाव बदल गए!
अब अधिक विश्वस्त और केंद्रित हो गयी!
अर्थात वहाँ किसी की मौजूदगी थी!
"श्रुति?" मैंने कहा,
चुप!
मैंने फिर से पुकारा!
फिर से चुप!
मैं हुआ खड़ा अब!
और सभी को निकाला अब बाहर,
शर्मा जी को भी!
वे निकल गये,
"श्रुति? कोई है यहाँ?" मैंने पूछा,
उसने घूरा मुझे अब!
दांत भींचे उसने!
माथे पर शिकन पड़ीं!
त्यौरियां चढ़ीं!
मैं समझ गया!
मैंने फ़ौरन ही कलुष-मंत्र पढ़ा!
वो मुझे ही घूर रहे थी!
कलुष-मंत्र से अपने नेत्र पोषित किये!
और नेत्र खोले!
और मेरे सामने!
सामने!
खड़ा था,
एक ब्रह्म-पिशाच!
इस से पहले कि मैं कुछ और पढ़ता,
कुछ करता,
उसने मुझे उठाया,
मेरे बाल पकड़ते हुए,
और फेंक दिया बाहर!
दरवाज़े से बाहर!
मेरी कहनियाँ टकरायीं फर्श से,
और एक में फ़ौरन ही सूजन हो गयी!
ये देख सभी भागे उठाने मुझे!
ब्रह्म-पिशाच!
एक अत्यंत शक्तिशाली और वीभत्स पिशाच होता है!
माथे पर उसके, एक चिन्ह होता है,
केश घुंघराले हुआ करते हैं!
राजाओ के समान वस्त्र धारण करता है!
आभूषण धारण करता है!
थी!
प्रबल!
विद्यायों का महा-ज्ञाता!
और सबल होता है!
मैं उठा,
वे सभी घबराये!
अंदर बैठी श्रुति मुझे देख,
हंस रही थी!
मेरी कोहनी,
उलटे हाथ की,
नहीं हिल रही थी,
फ़ौरन ही मुझे अस्पताल ले जाया गया,
वहाँ एक्स-रे हुआ,
हड्डी नहीं टूटी थी,
दवा दे दी गयी,
और मैं फिर से उनके घर आ गया,
अब प्रश्न ये,
कि ये ब्रह्म-पिशाच,
श्रुति के पीछे लगा कैसे?
कैसे रीझा?
ये जानना बहुत ज़रूरी था,
बहुत ज़रूरी!
जहां उसकी जान खतरे में थी,
श्रुति की,
वहीँ अब वो मुझे भी अपना शत्रु मान बैठा था!
मैंने उसी रात वहाँ से जाने की सोची,
और हम वहाँ से निकल दिए,
हम पहुंचे अपने एक जानकार के पास,
ये एक गाँव था,
यहीं थे हमारे जानकार,
मैंने उनको बताया,
और फिर रात्रि वहीँ रहा!
अगले दिन मैंने श्रुति के घर में फ़ोन किया,
उनको बताया,
और वापिस हो गया दिल्ली के लिए,
अब यहाँ से मैं संचालन करता अपनी क्रिया का!
वहाँ ब्रह्म-पिशाच था,
ये निश्चित हो ही गया था!
अब इसका दमन करना था!
राह कठिन थी!
लेकिन बीड़ा उठा लिया था!
और मैं फिर तैयारियों में लग गया!
और इसी सिलसिले में मैंने श्रुति के प्री को बुला लिया दिल्ली एक दिन,
वे आ गए!
बात हुईं उस से इस बारे में!
"क्या चार महीने पहले, शरू कहीं गयी थी बाहर?" मैंने पूछा,
दिमाग पर ज़ोर लगाया,
"हाँ! अपनी बुआ के घर गयी थी, उनकी बेटी की शादी थी, मैं भी गया था" वो बोला,
''अच्छा!" मैंने कहा,
मैं और पूछा,
"कहाँ गए थे?" मैंने पूछा,
"कौसानी" वो बोला,
कौसानी!
सम्भव है!
यहीं से लगा हो वो उसके पीछे!
"कौसानी से आते ही उसने अपना व्यवहार बदला?" मैंने पूछा,
"कुछ कुछ" वो बोला,
"एक बात और, क्या आपके सम्बन्ध सामान्य ही रहे उसके बाद?" मैंने पूछा,
"नहीं जी, उसके बाद तो कभी नहीं" वो बोला,
और कारण!
कारण यही ब्रह्म-पिशाच!
मैंने कुछ बातें और भी पूछीं,
और फिर वे चले गए!
जो जानना था,
जान लिया था!
रही अब ये समस्या!
तो अब सशक्तिकरण आवश्यक था!
वो मुझ पर वार कर चुका था,
तो अब वो खतरनाक था!
इसीलिए मैंने,
अब अपनी प्रबल विद्यायों का संधान करना आरम्भ किया!
मुझे इसमें तीन दिन लगे!
लेकिन मैंने क्लिष्ट विद्याएँ सींच लीं,
और कर लिया पोषित!
अब होना था द्वन्द!
एक औघड़ का,
और एक ब्रह्म-पिशाच का!
ये कोई हंसी-खेल नहीं था!
उसने मुझे क्षमा भी नहीं करना था,
उसके लिए मैं शत्रु था,
और शत्रु को समाप्त करना उसका उद्देश्य था!
एक मात्र उद्देश्य!
मैंने सभी आवश्यक क्रियाएँ कीं!
कुछ और विशेष विद्यायों का भी संधान किया!
इस मामले से शर्मा जी को अलग रखना था!
तंत्राभूषण आदि को वो ब्रह्म-पिशाच भेदने में सक्षम था!
ज़रा सी असावधानी में ही वो हमारी आत्माओं को दास बना लेता! सदियों के लिए! इसीलिए, हर क़दम सध के रखना था!
अब हमे जाना था वहीँ!
अनुज के यहाँ!
सो,
उनको फ़ोन किया,
बताया,
और हम चल दिए!
मित्रगण!
इस बार सामना एक ब्रह्म-पिशाच से था!
विद्यायों में लड़ाई थी!
वो नैसर्गिक रूप से शक्तिशाली था!
परन्तु!
परन्तु उसकी एक कमज़ोरी भी थी!
जो मैंने पकड़ी थी!
श्रुति!
हाँ!
श्रुति!
ये थी कमज़ोरी!
वो रीझा था उस पर!
एक विशेष बात!
जिस स्त्री का गर्भाशय अस्थिर रहता है,
अर्थात,
उसमे कोई दोष होता है,
और योनिप्रदेश उत्तल होता है,
उसी पर रीझा करता है ये ब्रह्म-पिशाच!
जितना उस से संसर्ग करता है,
उतना ही वो स्त्री और सुंदर, सुगठित और रूपवान होती जाती है!
आयु का प्रभाव नगण्य रहता है!
इसी कारण से स्त्रियों को भारी चांदी की तगड़ी बाँधने का प्रचलन हुआ करता था!
गाँव-देहात में आज भी ऐसा देखा जा सकता है!
इस से गर्भाशय स्थिर और दोषरहित होता है!
और योनिप्रदेश सामान्य अवस्था में बना रहता है!
हाँ, संतान हो किसी स्त्री के,
तो ये नहीं रीझा करता!
तो अब हम चले!
सारा सामान तैयार था,
गाड़ी में रखा,
और निकल पड़े!
रास्ते में मैंने इक्कीस जगह चिन्ह लगाए!
ताकि मेरा आने का रास्ता साफ़ रहे!
जिस से कि मेरा कोई भी अंश या चिन्ह शेष न रहे!
ये विद्यायों से बाँधा गया था!
पहला चिन्ह,
मेरे श्मशान में,
और,
आखिरी अनुज के घर में था!
कुल इक्कीस!
हम घर में घुसे!
माहौल शांत था!
तभी वही सुगंध आयी!
अर्थात!
वो ब्रह्म-पिशाच जान गया था कि मैं वापिस आया हूँ!
"अनुज?" मैंने कहा,
"जी?" वो बोला,
"श्रुति को बुलाओ" मैंने कहा,
श्रुति को बुलाया गया!
मुझे देख,
कुटिल रूप से हंसी!
आँखों में चमक आयी!
मैंने,
तभी अपना रुद्रमाल धारण कर लिया!
और सभी को कक्ष से बाहर कर दिया!
और दरवाज़ा बंद कर लिया!
वो अब हंसी!
दंतमाला दिखायी उसने!
और बैठ गयी!
"वो आने वाला है!" वो बोली,
ताली पीट के!
"अच्छा! बुलाओ उसे?" मैंने कहा,
"आएगा! ज़रूर आएगा!" वो बोली,
"बुलाओ!" मैंने कहा,
मैं जानता था,
वो अपने आपे में नहीं है!
उसका शरीर,
मस्तिष्क,
सब संचालित कर रहा है वो!
किसी भी पल,
आ धमकता!
परन्तु मैं तैयार था!
आज तैयार हो कर आया था मैं!
कोहनी में दर्द तो था,
लेकिन अब उतना नहीं,
हाँ,
गरम पट्टी बाँध रखी थी!
"बुलाओ?" मैंने कहा,
अब उसका चेहरा तमतमाया!
आँखें हुईं लाल!
त्यौरियां चढ़ गयीं!
पुतलियाँ फ़ैल गयीं!
साँसें हो चलीं तेज़!
नथुने लगे फड़कने!
और फिर!
एक सुगंध!
जैसे बेल-पत्थर के फूलों की सी सुगंध!
फिर जैसे,
कच्चा बांस का पेड़ चरमराया हो!
मैं हिला!
जैसे नाव पानी की लहरों में उठती है और फिर,
नीचे लग जाती है,
ऐसे!
और सामने!
सामने मेरे प्रकट हुआ!
वो राजसिक ब्रह्म-पिशाच!
क्रुद्ध!
जैसे कोई,
क्रुद्ध देव!
कोई गुस्सैल देव-पुरुष!
मैं खड़ा हुआ!
वो मुझे घूरे!
एकटक!
और मैं उसे,
दम साधे!
"तुझे जाना होगा!" मैंने कहा,
वो हंसा!
भयानक हंसी!
केवल मुझे ही सुनायी दी!
"जाना होगा!" मैंने कहा,
मुझे बताया था,
मेरे दादा श्री ने कि,
कैसे सम्मुख होना होता है किसी ब्रह्म-पिशाच से!
मैंने वैसा ही किया था!
मेरे दादा श्री ने दो ब्रह्म-पिशाच बांधे थे!
एक वर्ष चाकरी करवायी थी उनसे!
पर,
उस समय मैं था नहीं उनके साथ!
हाँ, बताया था मुझे उन्होंने!
गूलर के पेड़ पर फल उगवा देते थे वो उनसे!
बड़े बड़े फल!
ऐसा सुना था मैंने!
वो,
भूमि से एक फुट ऊपर खड़ा था!
तेज चलते पंखे में भी,
उसके वस्त्र नहीं हिल रहे थे!
उसका एक केश भी नहीं!
हाँ,
वो क्रुद्ध था!
तभी वो चीखा!
और मेरे गले में पड़ा वो रूद्रमाल टूट गया!
दाने बिखर गये उसके!
मैं खतरे में पड़ा!
मैंने फ़ौरन ही धूषमांगी विद्या का संधान किया!
वो फ़ौरन ही पीछे हुआ!
फिर लोप!
फिर प्रकट!
और फिर लोप!
फिर से प्रकट!
फिर से लोप!
चारों तरफ!
अट्ठहास!
ठहाके!
और फिर से चीखा!
कान के पर्दे फट चले!
मैंने हाथ रखा कान पर!
पर मेरे,
तंत्राभूषण सुरक्षित रहे!
जागृत हुई विद्या,
भिड़ रही थी उसके प्रहार से!
वो फिर से लोप हुआ!
और फिर से प्रकट!
और फिर से लोप!