लौट आई कमरे में अपने, ज़रा गौर से सुनने के लिए कान लगाए, तो कोई आवाज़ नहीं, शायद, मुग़ालता हुआ था उसे, उसने कुछ सुना ही नहीं था, शायद, कोई सिसकी नहीं थी, तो इस तरह, समझा लिया खुद को! वही, इंसानी दिमाग़ में आये हुए, फ़ितूर को, दबा लिया गया, एक बार फिर!
तो, लेट गयी बिस्तर पर वो! कीं आँखें बंद! और आई नींद उसे! कुछ ही पल गुजरे होंगे, कि आँखें खुलीं! कुछ याद आया उसे! आँखें खुल गयीं, नींद, ग़ायब हो गयी! वो उठ गयी! और बैठी अपनी मेज़ के सामने, कुर्सी पर, और चालू किया अपना लैप-टॉप, गुमुसलुक! यही ढूँढा उसने! आई तस्वीर गुमुसलुक की! ठीक वैसी ही जगह! वो रंगहीन पानी! वो, बिछे पत्थर से! जिनके ऊपर, पानी बस, कुछ ही इंच था! कोई खड़ा हो उस पर, तो लगे, कि पानी पर खड़े हैं! ऐसे ही हैं उसके पत्थर! जैसे किसी ने मोज़ाइक के मानिंद, वो पत्थर सजाये हैं! ठीक पानी के नीचे, फर्श की तरह!
उस पानी की गुनगुनाहट याद हो उठी उसे! वो हवा! और वो ख़ुश्बू! सब यादें, ताज़ा हो उठीं! उसने उन तस्वीरों को छू कर देखा! जैसे, अपने तस्सवुर में, हक़ीक़त पेश हुई हो! काफी देर तलक, निहारती रही वो उस पानी को! लगा कि, जैसे खुद ही महसूस कर रही हो उस पानी को! पांवों की उँगलियों में जुम्बिश सी महसूस हुई! उंगलियां, अलग अलग हो चलीं! उस गुनगुनाहट ने, जैसे उसके पाँव, सेंक दिए हों!
बहुत देर तलक, सच में, बहुत देर तलक, वो ऐसा महसूस करती रही! दीवार पर लगी वो घड़ी, जैसे अपनी आँखें फाड़, अपनी धड़कनें जो कच-कच कर, आगे बढ़ रही थीं, रोक ली हों जैसे! घड़ी जैसे, उसे ही देख रही थी! सामिया ने, एक नज़र डाली उस पर, पौने दो का समय था उस वक़्त, तो किया अपना लैप-टॉप बंद, और चली बिस्तर की ओर! लेट गयी! आँखें बंद करे, लेकिन आँखें बंद न हों! कुछ दिमाग़ में चले ही जा रहा था! कुछ आता दिमाग़ में, उलझता, और चला जाता, और फिर नया फ़ितूर! करवटें बदले वो! और, फिर कीं आँखें बंद! ज़बरदस्ती! नींद तो जैसे आज लुका-छिपी खेल रही थी! कभी पलकें भारी और कभी कागज़ के मानिंद, उड़ चले!
ज़द्दोज़हद! खूब लड़ी वो अपने आप से! और इस तरह, करीब तीन बजे, पार पायी उसने! आ गयी नींद उसे! सो गयी सामिया!
अगला दिन,
दोपहर,
दफ्तर में बैठी थी सामिया, उमा, अदालत में गयी थी उस वक़्त, पिता जी, कहीं बाहर थे, अकेली ही थी वो, कमाल तो ये, कि कोई फाख्ता अब न आता था अंदर, ये हैरत की बात थी! उसे इसका ख़याल तो आता, लेकिन वो, मगज़मारी न करती! होगी कोई वजह!
काम ख़तम हुए उस दिन के, चार बजे का वक़्त था उस दिन, उमा आ गयी थी वापिस दफ्तर में, और उमा ने, शिकंजी वाले से शिकंजी मंगा ली थी, दोनों ही, शिकंजी पी रही थीं, आज जाना था जल्दी उमा को, शादी की तैयारी थी!
"सामिया?" बोली उमा,
"हाँ?" सवाल में जवाब!
"परसों आना है!" बोली उमा,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोली सामिया,
"बहुत ख़ुशी होगी मुझे!" बोली उमा,
"ज़रूर! छोटी बहन की शादी है!" बोली सामिया,
"हाँ!" कहा उमा ने,
तो उस शाम वापिस हुई वो, अपने घर के लिए!
एक दिन बाद,
शादी का दिन,
रात का वक़्त!
सभी मौजूद थे शादी में! सभी, घरवाले, सामिया के! और सामिया, दिखे, सबसे अलग! सुंदर! जैसे उस दिन, सजाया ही उसे खुद, खुद उस अबज़ैर ने! ऐसी सुंदर दिख रही थी! कोई नज़र ऐसी न बची थी, जिसने न देखा हो उसे!
तो, निबटी शादी से वो, उमा ने तो आने ही न दिया उसे, भाव्या की डोली उठने तक! सामिया भी खुश थी! डोली विदा हुई, तो उसके बाद, चली वापिस सामिया! अपने पिता जी के साथ! रात भर जागी थी, घर आई, हाथ-मुंह धोये, कपड़े बदले और चली सोने!
देर तलक सोयी वो! दो बज गए थे दिन के, माँ ने ही जगाया था उसे, आज दफ्तर नहीं जाना था, इसीलिए, कोई काम था नहीं!
शाम हुई,
और फिर आयी रात,
वक़्त अपना किरदार, कभी नहीं भूलता!
चाहे कोई आये, या, कोई जाए!
सुबह, फिर दोपहर, और फिर शाम, और, रात!
वक़्त का ये, रोज़मर्रा का दख़ल है!
रात का वक़्त!
खाना खा लिया था सामिया ने, काम में लगी थी, कल के काम के लिए, देर रात सोने चली, तब करीब एक बजे का वक़्त रहा होगा!
रात एक बजे,
वो सोने चली, और कुछ याद आया!
उस वक़्त, जाग ही रही थी वो, बस, आँखें बंद थीं उसकी, यूँ कहें कि पलकें झपका रखी थीं उसने! हाँ, तो कुछ याद आया!
वो धुंध!
वो, सुबह से पहले का वक़्त!
वो सर्द माहौल!
वो गुंबद!
वो चार रास्ते!
वो रात की रानी की ख़ुश्बू!
वो आहट!
आहट!
हाँ, सबसे अहम थी वो आहट!
वो चल पड़ी थी उस आहट के करीब जाने को!
"कौन है?" एक सवाल!
और जवाब, कहीं अँधेरे में!
"कौन है वहाँ?" एक और सवाल!
और जवाब, आया ही नहीं!
बढ़ चली अँधेरे की तरफ!
सर्द हवा!
उसकी छुअन!
"कौन है? बताइये?" एक और, बेमायनी सवाल!
हवा चली!
उसके कपड़े, चिपक चले उसके बदन से!
रोएँ खड़े!
ठंडी उंगलियां!
ठंडे पाँव!
ओंस से भीगी घास!
"कौन?" फिर से एक सवाल!
और जवाब!
किसी और के पास!
लेकिन, बोले कोई नहीं!
हटे पीछे कोई!
असोस! असोस थी ये जगह!
वो खंडहर! वो सर्द माहौल!
खंडहर, लेकिन बोलते पत्थर! बोलते, क्या बोलते?
बोलते कि, सामिया! सामिया!
लेकिन! लेकिन, ये ख़्वाब नहीं था! जो गुजरा हो उसके साथ! या, अबज़ैर के असरात इसकी वजह हों! नहीं! क़तई नहीं! ये तो तस्सवुर था! तस्सवुर, सामिया का! ख़्वाब में, बागडोर, अबज़ैर की हुआ करती है, सामिया की नहीं! लेकिन, इसीलिए, अमलन, ये महज़ तस्सवुर था सामिया का! कहा जाए, तो ये तस्सवुर, सामिया का ही था, उसका खुद अपना! ख़्वाब, सोते हुए आता है, और तस्सवुर, तसल्लीबख़्श, दिमाग़ की उपज हुआ करता है! वो सो नहीं रही थी, जाग रही थी, हाँ, बस, आँखें ही बंद थीं उसकी! तो ये तस्सवुर हुआ! अपने तस्सवुर में, वो चले जा रही थी उस आहट के करीब! उस आहट के, जो थोड़ा दूर, अँधेरे में क़ैद थी! वो आगे चली, ओंस भरी घास से, पाँव ठिर्रा गए थे उसके! गीले हो चले थे उसके पाँव! घास की नोंक, अब चुभने सी लगी थीं उसको! और पांवों में, टीस सी उभरने लगी थी!
वो चली आगे!
"कौन है?" फिर से पूछा उसने,
और अब भी, कोई जवाब नहीं!
"जवाब दीजिये?" बोली वो,
कोई जवाब नहीं!
हवा फिर से चली!
और इस बार तो, उसके कपड़े जैसे, हवा नोंच ही ले जाए! कस के पकड़ लिए उसने! हाथ भींच लिए अपने!
"सामने तो आओ?" बोली वो,
शायद, अब, बहुत हो चुका था! शायद!
"आओ?" बोली वो,
ये हालत, बड़ी अजीब सी होती है, दिमाग़, दो किनारों के बीच बहे जा रहा होता है! ये हालत, कुछ ऐसी होती है, कि जैसे मानिए आपके पाँव उखड़ रहे हों! और पकड़ने के लिए, आपके पास, बस आपका ही बदन हो! जैसे, आपके पाँव ही रोकें आपको उखड़ने से! ठीक वैसी ही हालत थी!
"कौन है? बताओ?" बोली वो!
कोई जवाब नहीं आया!
हमेशा की तरह!
वो आगे बढ़ी, इस दफा, तेज क़दमों से, चढ़ी सीढ़ियां और जैसे ही आई वहाँ, रुक गयी! कोई नहीं था वहाँ! पीछे से आवाज़ आई थी, जैसे कोई भाग लिया हो वहां से!
और इसके साथ ही,
आँखें खुल गयीं!
वो उठ बैठी!
बदन, सर्द हो उठा था उसका!
रोएँ, अभी तक खड़े थे!
वो हवा, उसे अभी तक जैसे, छू रही थी उसे!
चुपचाप सी बैठी रही!
तस्सवुर में ही अभी तक डूबी थी वो!
"सामने क्यों नहीं आता वो?" आया सवाल ज़हन में!
"क्या वजह है?" फिर से पूछा,
खड़ी हो गयी वो!
"अच्छा! चलो!" बोला दिमाग़!
"हाँ, कोई भी हो! उसे क्या?" दी दलील दिमाग़ ने!
"क्या हांसिल होगा उस से?" एक और दलील!
"कोई भी हो, है तो सोच ही!" एक और दलील!
बैठ गयी कुर्सी पर!
लगा ली कमर पीछे!
कर लीं आँखें बंद!
"लेकिन........" उछला सवाल!
"वो, है कौन?" सवाल!
"अबज़ैर?" आया जवाब!
"हाँ, अबज़ैर ही होगा!" दिमाग़, दरकिनार करता हुआ, आगे बढ़ा!
"अबज़ैर? तो सामने क्यों नहीं आता?" अबकी बार, दिल बोला!
"सामने क्यों नहीं आता?" दिल की हूक!
"वजह क्या है?" दिल की चूक!
"एक बार, आये तो सही?" दिल की कसक!
"उस से होगा क्या?" दिमाग़ बोला!
"कुछ भी नहीं! ऐसे ही!" बोला दिल!
"किस वजह से?" दिमाग़ की दलील हुई पेश!
"अरे! ऐसे ही!" बोला दिल!
"कोई तो बात होगी?" टटोला दिमाग़ ने!
"कहा न! ऐसे ही!" दिल ने, की ज़रा नज़र-बचाई!
चुप!
कुछ लम्हात के लिए!
आँखें बंद!
लेकिन दिमाग़ जागा हुआ!
और दिल,
दिल, अंदर ही अंदर, बनाये बुलबुले!
बुलबुले बनें, और फूटें!
बनाये, और फूटें!
आवाज़ हो!
आवाज़,
अंदर ही अंदर, कुछ कहे!
जो कहे, दिमाग़, उसे दरकिनार करे!
लेकिन दिल!
दिल,
अपनी ही ज़ुबान में बोले!
दबी-दबी सी ज़ुबान!
कुछ आहें!
कुछ सवाल!
छोटे सवाल,
और उनके जवाब,
उसके वजूद से भी बड़े!
खुल गयीं आँखें!
हुई खड़ी!
चली बाहर,
रसोई तक गयी, पानी पिया,
और पानी का एक घूँट, मुंह में ही रखे,
फिर से कुछ सोचे!
सोचे नहीं, दिल सुचवाये!
वही सवाल!
बार बार!
सामने क्यों नहीं आता वो?
किस लिए?
कोई वजह?
अबज़ैर! अबज़ैर, एक बार, आओ तो सही सामने!
ख़्वाब, अब जीने को बोले दिल!
कशमकश, ज़द्दोज़हद! पशोपेश! दिल-ओ-दिमाग़ में छिड़ी जंग!
और जब दिल और दिमाग़ में जंग छिड़ा करती है, तो दिल, अक्सर ही, जज़्बात का सहारा ढूंढ लिया करता है! और ये जज़्बात, उसकी ढाल बन जाया करते हैं! अब दिमाग़, दिमाग़ के पास जज़्बात नहीं हुआ करते, वो तो बस क़ुदरत के बनाये हुए क़ानून के मुताबिक़ ही फैंसला लिया करता है, ये अलग बात है, कि अक्सर इंसान, अपने जज़्बात में बह कर, दिमाग़ को अनसुना कर दिया करता है! कहने का मतलब है कि, इस से सामिया भी अलहैदा नहीं थी! होती भी कैसे! एक हसीन ख़्वाब, उसका बहा ले गया था, और जब, ख़्वाबों का सिलसिला, रुका, तो उसने ज़हन ने, तस्सवुर का दामन थाम लिया!
वो लेट गयी बिस्तर पर, और, कर लीं आँखें बंद, उसकी घड़ी, दीवार पर लटके-लटके, उसकी हालत बयान कर रही थी! कुछ बेसब्री सी थी, कुछ ख़लिश सी!
खैर, आँखों में, नींद की ख़ुमारी ने घर किया, और नींद के आग़ोश में चली गयी वो! अब न ख़्वाब और न वो तस्सवुर! अभी तो बाजी दिमाग़ ने मार ली थी!
अगला दिन,
अगली दोपहर के बाद का वक़्त,
"सामिया?" बोली उमा,
"हाँ?" दिया जवाब सामिया ने,
"चुप चुप सी क्यों हो?" पूछा उमा ने,
"नहीं तो?" बोली चौंकते हुए सामिया,
"नहीं, हो तो, क्या बात है?" पूछा उमा ने,
"नहीं तो?" बोली सामिया,
"आज चेहरे पर वो रौनक नहीं सामिया?" बोली उमा,
"ऐसा तो कुछ नहीं?" बोली वो,
"ऐसा ही है!" कहा उमा ने,
"आपको क्यों लगा ऐसा?" पूछा सामिया ने,
"तुम कभी इतनी संजीदा नहीं हुआ करतीं!" बोली उमा,
हाँ! ये बात तो सही पकड़ी उमा ने!
वो कभी, इस क़दर संजीदा नहीं हुआ करती थी!
आज तो वो, जैसे किसी खोजबीन में लगी हुई थी!
"रात को नींद नहीं आई क्या ठीक से?" पूछा उमा ने,
"नहीं तो?" बोली सामिया,
"तो हो सकता है, मेरा वहम हो!" बोली उमा,
"हो सकता है!" बोली मुस्कुरा कर,
"अच्छा सुनो, वो ज़ाहिद आया था तुम्हें पूछने, जब तुम कोर्ट में थीं, तब!" बोली उमा,
"अच्छा, कुछ कह रहा था?" पूछा सामिया ने,
"नहीं, बस पूछ रहा था!" बोली वो,
चुप हो गयी सामिया, फिर से, खो गयी अपने ही ख़यालों के दरिया में!
"वैसे, लड़का हर लिहाज से बेहतर है!" बोली उमा,
सुना नहीं सामिया ने!
"सामिया?" ज़रा ज़ोर से बोली उमा,
"हाँ? क्या कहा?" पूछा उसने,
"कहाँ खोयी हुई हो?" उमा ने पूछा,
"कहीं नहीं?" बोली वो,
"मैंने कहा कि हर लिहाज से ज़ाहिद एक अच्छा लड़का है!" बोली उमा,
अब समझी मतलब सामिया!
"हूँ" बस, इतना ही कहा,
"संजीदा है, और जिस तरह से वो तुम्हें देखता है, कुछ समझती हो तुम?" पूछा उमा ने,
"क्या?" पूछा सामिया ने,
"वो मुहब्बत करता है तुम्हें, अंदर ही अंदर, लेकिन, कह नहीं पाता!" बोली उमा,
सामिया!
कुछ न समझ आया!
बस एक अलफ़ाज़, मुहब्बत!
और कुछ नहीं!
"कभी ग़ौर नहीं किया?" पूछा उमा ने,
और सामिया,
सामिया कहीं उलझ गयी थी!
कहीं और, पता नहीं कहाँ!
हाँ, उस वक़्त, उस लम्हे, वो नहीं थी वहाँ!
और तभी, वो शिकंजी वाला आया वहाँ! रख दिए दो गिलास मेज़ पर, और चला गया वापिस,
"लो!" बोली उमा,
न सुना सामिया ने,
"सामिया? सामिया?" बोली दो बार उमा,
"अ...हाँ?" दिया जवाब!
"लो, ये लो!" बोली उमा,
ले लिया गिलास, और आज, स्ट्रॉ नहीं फेंका! उसी को, होंठों से भींच लिया!
"आज कोई न कोई तो बात है सामिया!" बोली उमा,
"नहीं तो?" बोली सामिया,
"न, अब मेरा वहम नहीं!" कहा उमा ने,
"वो कैसे?" पूछा सामिया ने,
"कहीं खोयी हुई हो तुम!" बोली उमा,
"नहीं, कहीं नहीं" बोली धीरे से!
"आज स्ट्रॉ भी नहीं फेंका?" बोली उमा,
और सामिया ने, स्ट्रॉ फेंक दिया तभी, कूड़ेदानी में!
कुछ ही पल बीते होंगे कि, ज़ाहिद आया अंदर! आया और बैठ गया उनके साथ ही, हैरत ये, कि सामिया को पता ही नहीं चला!
"शिकंजी मंगवाऊँ?" पूछा उमा ने,
"हाँ, पी लूँगा! बोला वो, देखते हुए, सामिया को!
उमा ने, लगा दिया फ़ोन, और कह दिया उसे, एक शिकंजी लाने को,
"गर्मी तो बढ़ती ही जा रही है!" बोला वो,
"हाँ, बुरा हाल है!" बोली उमा,
"सामिया?" बोला ज़ाहिद,
"आज पता नहीं कहाँ खोयी हुई है सामिया!" बोली उमा,
"सामिया?" बोला ज़ाहिद,
"हूँ?" बोली सामिया, चौंक पड़ी थी!
"कहाँ खोयी हुई हो भई?" पूछा उसने,
"कहीं नहीं!" बोली सामिया,
"वो, ज़रा कुछ बात करनी थी मुझे तुमसे!" बोला वो,
"बताओ?" बोली सामिया,
"एक केस आया है और...." बता दिया उसको उसने,
"अच्छा, फिर?" बोली सामिया,
"अब इसमें क्या किया जाना चाहिए?" पूछा ज़ाहिद ने,
"उमा बता देंगी!" बोली सामिया,
और शिकंजी वाला आया, रख गया गिलास!
ज़ाहिद को, उसका जवाब थोड़ा अटपटा सा लगा!
"चलो, फुर्सत से बात करूंगा!" बोला वो,
सामिया ने गिलास खाली किया, और रख दिया,
"अब चलती हूँ मैं!" बोली सामिया,
वे दोनों, देखते ही रह गए उसे!
अपना हेलमेट उठाया, और चली बाहर!
निकले अपनी स्कूटी और चली घर के लिए वापिस!
आ पहुंची घर,
सामान रखा एक तरफ,
हाथ-मुंह धोये अपने, पानी पिया, कपड़े बदले, और सीधा अपने कमरे में जा पहुंची! कुर्सी पर बैठी, कमर लगाई उसकी पुश्त से, और आँखें कीं बंद!
कैसी हालत!
कैसी हालत!
न यहां की,
और न वहां की!
न खुदी से जुड़े!
न खुदी से अलग हो!
न यहां सुकून!
न वहां सुकून!
न खुद को माने,
न खुद को जाने!
एक ऐसा, ज़हनी सिलसिला, जो एक ख़्वाब से शुरू हुआ था, अब दिल-ओ-दिमाग़ पर हावी होने को था! दिमाग़ की सभी दलीलें, खोखली होने को थीं! दिमाग़ की दीवारें अब चरमराने लगी थीं! ये हालत, और भी ज़्यादा नागवार और बेहद मुश्किल हुआ करती है, जब दिल इस ज़हन को, हांकने लगता है! कुछ, पाने की चाह, कुछ अपनाने की अनजान चाह! ये चाह, आह में बदलते, देर नहीं लगाती!
वो बैठी थी कुर्सी पर! और तस्सवुर ने अब लग़ाम पकड़ी! हांकने लगा उसके दिमाग़ और जिस्म को! वो जा पहुंची, एक अनजान, लेकिन एक बेहद ही शानदार जगह पर!
खुबानी के, लदे हुए पेड़!
पेड़ों के पत्तों का वो चटख, तोतई रंग!
उनके, सोने से चमकते हुए शानदार तने!
नायाब परिंदे! अनोखे रंग वाले! क़िस्म-क़िस्म के अनोखे रंग!
घुटनों तक आती, हरी, मुलायम, मखमली सी घास!
फूल ही फूल! लाल, नीले, पीले, बैंगनी! कोई रंग बाकी न था!
वो एक, खलिहान में खड़ी थी! हवा चलती तो, उसके बदन में जैसे नशा भर जाया करती थी! अलमस्त हवा, बावरी सी, उसके बदन का कोना कोना चूमे! वो आगे बढ़ी, एक ढलान थी नीचे, वो चढ़ी ऊपर, और ढलान से जब नीचे झाँका तो एक इमारत सी देखी उसने! इमारत का रंग, नीला था, सुनहरे रंग से जैसे, पूरा लीपा गया हो वो! बीच में एक बड़ी सी गुंबद थी! वो आगे बढ़ी! और आगे! फूल और बूटे जैसे झुक झुक कर, उसका खैरमक़दम कर, एहसानमंद होने को मज़बूर हों! उसके पांवों से टकराते वे फूल, जैसे मुस्कुरा पड़ते थे! हवा चलती थी, तो बदन में नशा हिलोरें मारे!
वो आ खड़ी हुई उस इमारत के क़रीब! ग़ौर से देखा उसे! नीले रंग का चमकदार पत्थर लगाया गया था उस पर! वो इमारत जैसे, इब्तिसाम(मुस्कुराते हुए) उसके पांवों की छुअन के लिए, न जाने कब से, इंतज़ार में बैठी थी! उसने, एक पत्थर को हाथ लगाया, पत्थर, बेहद ठंडा था, उस पत्थर में, उसको उसका अक्स चमकता दिखा! उन पत्थरों के बीच, लकीरों में, जैसे सोना भरा गया था! उन सैंकड़ों पत्थरों में, सैंकड़ों ही अक्स उभर गए थे!
वो चली आगे, दाखिल हुई इमारत में!
फर्श ऐसा सुंदर, कि ऐसा महीन काम, इंसानों के बस में तो नहीं था! फर्श पर ऐसे चित्र, फूलों के, पत्तों के, परिंदों के, जैसे सब ज़िंदा हों! ऐसा ज़िंदा और बोलता काम था वो!
दीवारों पर, शीशे लगे थे, बड़े बड़े, आदमक़द शीशे! वो आगे चली! एक गलियारा आया! गलियारा पार किया उसने! ठीक सामने, पत्थरों की जालियां बनी थीं! वैसी नक्काशी, कोई ख़्वाब में भी नहीं सोच सकता! उसमे, गोले बने थे, त्रिभुज बने थे, अष्ट-भुज बने थे! सभी, एक दूसरे से मिले हुए! ऐसा नायाब काम, सच में, इंसानों के बूते से बाहर है! उसने झाँका उसमे से, तो हवा का एक मस्त झोंका आया! उस झरोखे के पार, भी कुछ था! उसने रास्ता ढूँढा, और आ गयी उस तरफ! यहां, फर्श, सफेद पत्थरों का था!
उसको उस फर्श में, अपना अक्स ऐसे लगा, जैसे वो भी ज़िंदा हो! वो आगे बढ़ी! और आई एक जगह! यहां एक दीवार थी, उसकी कमर तक, वो चली उधर, हुई खड़ी! और देखा सामने!
वो हैरान!
आँखें जैसे, पलक मारना भूल गयीं!
बदन में जैसे, झुरझुरी सी दौड़ चली!
सामने का नज़ारा ऐसा था, कि कोई अगर उसे देख ले, तो क़ायनात के आखिरी लम्हे तक, वहीँ का हो कर, वहीँ का कैदी होकर रह जाए!
सामने, एक झील थी, उस झील में, कई ज़ज़ीरे थे! उन ज़ज़ीरों में, क़ुदरत ने अपना सबकुछ जैसे, वहीँ लाकर रख दिया था! उनके किनारे, सफेद और सुनहरी पत्थरों से सजे थे! वहाँ, पेड़ लगे थे, बड़े बड़े पेड़! वो झील, समंदर लगती थी! जहाँ तक देखो, नीला ही रंग बिखरा था! पानी ऐसा साफ़ था, कि यक़ीन से परे!
"कितनी सुंदर जगह है!" निकला मुंह से उसके,
नज़रें, एक ज़ज़ीरे पर पड़ीं! वहां, उसकी पहाड़ियों पर, नीला रंग बिखरा था! वे फूल थे नीले रंग के! चटख नीला रंग था उनका!
"कौन सी जगह है ये?" मन में सवाल उठा!
उफ़्क़(क्षितिज) के कोने भी दीख पड़ते थे!
"क्या इसी को जन्नत कहा जाता है?" एक और सवाल!
"ये आ'ज़ुर है!" आई एक आवाज़!
वो चौंक पड़ी! झट से पीछे देखा! एक बेहद सुंदर लड़की थी वो! फिरोज़ी रंग की पोशाक़ पहने! मज़बूत कद-काठी वाली! रंग उसका, शफ़्फ़ाफ़! बाल उसके, सुनहरे! और आँखें उसकी, नीली! नक़ाब पहने थी वो! नक़ाब के किनारों पर, सोने का बारीक़ काम था!
आगे बढ़ी वो!
और चली आई पास सामिया के!
"आप?" पूछा सामिया ने,
"ता'हिज़ा!" बोली वो, खनकती हुई आवाज़ थी उसकी! और सामिया, उसके कंधों से भी नीचे आ रही थी!
"ता'हिज़ा!" बोली सामिया!
"जी! और आप, सामिया!" बोली वो,
"जी! आप कैसे जानते हैं?" पूछा सामिया ने,
"मैं जानती हूँ आपको सामिया! ये, ये हमारा गाँव है! आ'ज़ुर है! और आपका हम खैरमक़दम करते हैं सामिया!" बोली वो,
"क्या ये जगह इस ज़मीन पर ही है?" पूछा सामिया ने!
"जी सामिया! इसी ज़मीन पर! आप तो देख ही रही हैं!" बोली वो,
देख तो रही ही थी वो!
ये तो सच ही था!
"आएं सामिया!" बोली वो, हाथ बढ़ाते हुए, सामिया की तरफ!
"जी!" बोली सामिया,
और ता'हिज़ा, ले चली उसको संग अपने! ले आई एक बाग़ में! और बाग़ में, पड़े एक बड़े से झूले पर, बिठा दिया! सामिया के मुताबिक़, वो झूला, हमारे, जो डबल-बेड होते हैं, उसका चौगुना था! उस पर, मैरून रंग की एक चादर सी पड़ी थी! और गद्दा ऐसा था, कि आम आदमी तो आधा धंस ही जाए उसमे!
झूला, सोने का बना था शायद! और दो बड़ी सी मीनारों के बीच लगा था!
सामिया, आसपास देख रही थी! छोटे और बड़े, बेरों के पेड़ लगे थे वहां! और धूल का तो नामोनिशान तक नहीं था! ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू!
तभी, एक और लड़की आई वहाँ! वो कुछ लेकर आई थी एक बड़ी सी तश्तरी में! दो गिलास रखे थे, और एक सागर सा रखा था! उस लड़की ने, एक पीले रंग का कोई शरबत उन गिलासों में डाला, और रख दिया!
उठाया ता'हिज़ा ने एक गिलास!
"लीजिये!" बोली वो,
लिया गिलास उसने, हाथ में, वजनदार गिलास था वो! बक़ौल सामिया, उसमे कम से कम डेढ़ लीटर शरबत रहा होगा!
"पीजिये, ये शरबा है!" बोली ता'हिज़ा!
लगाया मुंह से, और जो स्वाद उसे आया, वो इस जहां का तो हरगिज़ नहीं था! सामिया ने घूँट भरे! उस शरबा में, खुबानी का गूदा आता था मुंह में, और मिठास ऐसी थी कि, मन बार बार उसको पीने को करे!
तो कुछ देर में, शरबा पी लिया सामिया ने! अब जितना भी पिया गया!
वो लड़की, गिलास उठा, तश्तरी में रख, चली गयी वापिस!
"वो बहन है मेरी, छोटी, सा'ईज़ा!" बोली वो,
"आप दोनों, एक जैसे ही लगते हैं!" बोली सामिया!
"हाँ! ऐसा तो है!" बोली वो,
"आपको कुछ चाहिए, तो बे-तक़ल्लुफ़ हो, बताएं!" बोली वो,
"नहीं, कुछ नहीं!" बोली सामिया!
"आइये, आपको कुछ ग़ैब का मुज़ाहिरा करवाएं!" बोली वो, और हुई उठ खड़ी!
अपना हाथ आगे कर, उतार लिया सामिया को भी!
और ले चली उसको एक अलग जगह!
रुकी ता'हिज़ा एक जगह!
"ये देखें!" बोली वो,
वो एक गड्ढा था! उसमे जैसे बादल क़ैद थे! वो बादल, घूम रहे थे उसमे! सामिया को कुछ समझ नहीं आया! उसने कभी ऐसा देखा ही नहीं था!
"ये क्या है?" पूछा सामिया ने!
"ये दखलदोज़ है सामिया!" बोली वो,
दखलदोज़?
कभी नहीं सुना?
ये क्या होता है?
भौंहों में, शिकन सी पड़ गयीं सामिया के!
ता'हिज़ा ग़ौर से, सामिया को देखते रही! चुपचाप!
"बताएं?" बोली ता'हिज़ा!
"जी!" कहा सामिया ने,
"वो ख़्वाब! वो तस्सवुर! आपको याद है?" बोली ता'हिज़ा!
आँखों ने, जवाब दे दिया! हाँ! सब याद है!
"ख़्वाब पर क़ाबिज़ हो सकते हैं हम, लेकिन सामिया, आपके तस्सवुर पर नहीं!" बोली ता'हिज़ा!
न समझी कुछ! मतलब, समझ नहीं पड़ा!
"ये वो जगह है सामिया, जहाँ से, आप यहां तक आये हैं!" अब दिया जवाब सामिया को!
इस से पहले कि वो कुछ समझ पाती, कुर्सी की टेक से, सर, एक झटके में लुढ़का उसका, और खुल गयीं आँखें! आँखें खुलते ही हुई खड़ी! गयी भागी हुई रसोई तक! खोला फ्रिज और झट से, निकाली बोतल! आज नहीं लिया गिलास! ढक्कन खोला बोतल का, और उसकी धार, मुंह में डाली! पिया कई घूँट पानी उसने! और रखा फिर वापिस, उस बोतल को, ढक्कन लगा कर! जैसे ही वापिस मुड़ी, मुंह में एक स्वाद सा आया, उसी शरबा का! खोला फिर से फ्रिज से, निकाली वही बोतल और देखा उसे! पानी ही था! और कुछ नहीं! चली अपने कमरे की तरफ, बैठी कुर्सी पर, और अब जोड़ी कड़ियाँ उसने उस तस्सवुर की! मुंह में वो स्वाद, अभी तक था, उसे याद हो आया वो स्वाद! वो शरबा और वो ता'हिज़ा! उसकी छोटी बहन सा'इज़ा! उठी वो, घड़ी देखी, साढ़े छह का समय हो चला था! वो कुर्सी पर, बैठे बैठे ही सो गयी थी! वो तस्सवुर किये हुए!
आ'ज़ुर! यही नाम निकला मुंह से उसके! ये गाँव है उन दोनों बहनों का! क्या वो सच में वहाँ गयी थी? क्या वो दखलदोज़, सच में ही था? क्या ख़्वाब और तस्सवुर, उसी के रास्ते से वहां तक जाते हैं? ये कौन सी दुनिया है? हमारी इस दुनिया से एकदम अलग? वो कौन सी दुनिया है? वो जगह तो, जन्नत है! और उसने बताया था कि ये जगह, हक़ीक़त में है! इसी ज़मीन पर! लेकिन अब है, तो है कहाँ? वो दोनों बहनें भी, हमारी तरह नहीं थीं! ऐसी सुंदर औरतें, नहीं देखी उसने कभी! उनका शफ़्फ़ाफ़ बदन और आवाज़, खनकती हुई आवाज़, उनके बोलने का लहजा, सब अलग! कौन हैं वो? कहाँ बसते हैं ऐसे लोग, इस ज़मीन पर?
सोच का बोझ, ज़्यादा हो गया! वो उठी, और चली छत की ओर, पौधों को पानी भी देना था और मछलियों को चारा भी डालना था! तो चली छत पर, पहुंची, कमरा खोला, मछलियों का चारा लिया, और आहिस्ता आहिस्ता से, चारा खिलाने लगी उन्हें! मछलियों में भगदड़ मच गयी! चारा मुंह में डालतीं और भाग लेतीं कोने में!
चारा खिला दिया उसने, और फिर पौधों को पानी देने लगी! पानी देती और कभी कभी, अपने तस्सवुर को भी जांच लेती! कभी चेहरा संजीदगी से भर जाता, और कभी, पौधों पर ध्यान दे देती! जब पानी दे दिया उसने, तो कमरे में जा कर, लेट गयी! और फिर से सोचने लगी, वहीँ के बारे में! कर लीं आँखें बंद! उस समय, पौने आठ का वक़्त हुआ था!
अब आँखें बंद कीं, तो फिर से वही सोच हावी हुई! उसका तस्सवुर, जहां से टूटा था, वहाँ से ही, फिर से शुरू हो गया!
"सामिया?" ता'हिज़ा हाथ पकड़े, बोली सामिया से!
"हाँ?" बोली वो,
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"नहीं, कुछ नहीं!" बोली वो, और मुस्कुरा पड़ी!
"आएं ज़रा!" बोली वो,
"चलिए!" कहा सामिया ने,
अब जहाँ वो ले गयी उसे, वो जगह ख़ियाबां(पुष्प-वाटिका) से भरी थी! नीले फूल लगे थे वहां, उनमे, पीले रंग की धारियां थीं! बेहद ही सुंदर फूल थे वो!
एक साफ़, खुली जगह पर ले आई उसे! वहां, बिस्तर बिछा था, मसनद रखे थे बड़े बड़े!
"बैठिये सामिया!" बोली वो,
सामिया, आराम से, जा बैठी!
"सामिया?" बोली वो,
"जी?" बोली सामिया,
"आपने सवाल किया था न? कि हम कौन हैं?" बोली ता'हिज़ा!
"अ...ह...हाँ" बोली, आँखें झुका कर सामिया!
"बताएं?" पूछा सामिया से!
"हूँ" बोली वो,
"हम ज़ामिन(विश्वास दिलाने वाला) हो कर कहते हैं......हम........इंसान नहीं हैं....हम इफरित हैं........" बोली ता'हिज़ा!
सब समझा दिया ता'हिज़ा ने उसे!
सामिया, कुछ समझी और कुछ नहीं!
"आप हमारे मेहमान हो, हम अपने वजूद की क़सम खा कर कहते हैं कि आपको, हमसे कोई डर नहीं, आप, यहां हक़ से आएं! हक़ से कहें! हमें, इंतिहाई ख़ुशी होगी!" बोली ता'हिज़ा!
सामिया ने, जैसे ही नज़रें उठायीं और देखा सामने, तो, वहाँ, बहुत सी सुंदर इफरित लड़कियां और औरतें, उसी को देख रहे थे, मुस्कुराते हुए!
सामिया भी नहीं डरी! डरती भी क्यों! अब तो ता'हिज़ा ने उसको यक़ीन दिला दिया था! आप, अपने आपको, हम में से ही, सबसे ख़ास मानिए, ऐसा कहा ता'हिज़ा ने!
और तब, सा'इज़ा ने हाथ आगे बढ़ाया, थामा सामिया ने, और ले चली उसको कहीं! कमाल ये, कि सामिया, इतनी जल्दी घुल-मिल गयी, जैसे बरसों से पहचान हो उसकी उस से! उस जगह से! उन लोगों से!
"सामिया?" आई आवाज़! किसी ने हिलाया उसे!
आँखें खुलीं उसकी,
ये माँ थीं उसकी!
"सो गयी थी?" पूछा माँ ने,
"हाँ, आँख लग गयी थी!" बोली वो,
"चाय बनी हुई है, आ जा!" बोली माँ,
"आती हूँ" बोली वो, और चल पड़ी बाहर,
माँ ने दरवाज़ा बंद किया और चलीं वो भी नीचे!
"ले!" बोली माँ,
ले ली चाय, रख ली, सोफे की बाजू पर,
"तेरे से एक बात पूछूं?" बोली माँ,
"हाँ माँ?" बोली सामिया,
"सच सच बताना?" बोली माँ,
"आप पूछिए तो?" बोली वो,
"तुझे, ज़ाहिद पसंद है?" पूछा माँ ने,
"किस लिए?" पूछा सामिया ने,
"उसके पिता जी कई बार कह चुके हैं कि उनके घर-कुनबे को, सामिया बहुत पसद है!" बोली माँ,
"नहीं माँ!" बोली सामिया,
"नहीं?" चौंकी माँ!
"हाँ, नहीं!" बोली वो,
"क्या कमी है उसमे?" पूछा माँ ने,
"मुझे नहीं पता" बोली वो,
"कोई और पसंद है?" बोली माँ,
"नहीं" बोली वो,
"अब उम्र है तेरी!" बोली माँ,
"मुझे नहीं करनी शादी" बोली वो,
"क्या?" बोली माँ,
"हाँ, नहीं करनी" बोली वो,
"दिमाग़ खराब है क्या?" माँ हुई अब गुस्सा!
"नहीं माँ, मैं तैयार नहीं अभी" बोली वो,
"तैयार?" पूछा माँ ने,
"हाँ" बोली वो,
"क्या कमी है?" पूछा माँ ने,
"दिमागी तौर से तैयार नहीं हूँ" बोली वो,
"क्या करना है?" पूछा माँ ने,
"मैंने इम्तिहान देने हैं अभी" बोली वो,
"वो तो शादी के बाद भी दे सकती है?" बोली माँ,
"नहीं माँ" बोली वो,
"मान जा बिटिया!" बोली माँ,
"नहीं माँ" बोली वो,
"अच्छा, रुक जाएंगे ज़ाहिद के घरवाले, ठीक?" पूछा माँ ने,
"नहीं" बोली वो,
"ज़ाहिद से नहीं करनी?" पूछा माँ ने,
"नहीं करनी" बोली वो,
"पसंद नहीं है?" बोली माँ,
"हूँ" बोली वो,
और अब चाय का घूँट भरा उसने!
"अरे, घर अच्छा है, खानदानी लोग हैं!" बोली माँ,
अब, कप उठाया उसने, और चल पड़ी अपने कमरे की तरफ!
पहुंची, रखा कप मेज़ पर, और कुर्सी खींच, बैठ गयी!
तभी फ़ोन बजा उसका!
उसने उठाया, देखा, ये ज़ाहिद का था, बजने ही दिया,
फ़ोन, कई बार बजा, नहीं उठाया उसने!
चाय खत्म की, कप रखा एक तरफ,
और निकाली एक फाइल, पलटने लगी उसके सफे!
एक घंटा, लगभग, बीत चुका था, उस फाइल को खंगाल दिया था सामिया ने! फिर वो फाइल रख दी अपनी अलमारी में, और चली माँ के पास, अब खाने का वक़्त था! तो उसने खाना खाया और फिर छत पर चली गयी टहलने! थोड़ा टहली और फिर उसके बाद, अपने कमरे में दाखिल हो गयी! कुछ देर तक, टी.वी. देखा और फिर बंद कर, लेट गयी!
उस रात वो आराम से सोयी, कोई तस्सवुर नहीं और कोई ख़्वाब भी नहीं! सुबह, रोज़मर्रा की तरह ही उठी, अपने रोज़मर्रा के काम निबटाए और रोज़मर्रा की तरह, अपने दफ्तर चली गयी!
दफ्तर पहुंची, तो उमा से मिली, पिता जी आज नहीं आने वाले थे, वो आज फिर किसी काम से बाहर थे, और वैसे भी कुछ ज़्यादा काम नहीं था उस दिन, बस दो जगह पेश होना था, वो दो आदमी, जो मुक़द्दमे में शरीक़ थे, आ चुके थे, तो उन दोनों की पेशी हुई और तारीख़ मिल गयी! वे आदमी वापिस हुए और सामिया अपने चैम्बर में वापिस हुई! आज का काम तो ख़तम हुआ था!
आ बैठी थी वो अपने कमरे में, उमा अभी बाहर थी, किसी से बातें कर रही थी, थोड़ी ही देर में, उमा भी आ गयी अंदर, सामिया उस वक़्त अखबार पढ़ रही थी!
दिन के कोई साढ़े बारह बजे थे, कमरे में वो शिकंजी वाला आया, उसके गिलास रखे थे पिछले दिन के, वही लेने आया था, उमा ने आज उस से, दो गिलास मौसमी का जूस मंगवाया!
"जूस, चलेगा?'' पूछा सामिया से उसने,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोली सामिया,
"दो जूस भिजवा दो!" बोली उमा, उस लड़के से,
उस लड़के ने गरदन हिला, हाँ की, और चला गया!
"आज तो मौसम में कुछ राहत है!" बोली उमा,
"हाँ, आज गर्मी कम है!" बोली सामिया,
"सुबह से बादल बने हैं इसीलिए शायद!" बोली उमा,
"हाँ!" कहा सामिया ने,
"पड़ जाए बारिश, तो चैन मिले!" बोली उमा,
"हो सकता है, पड़ जाए, बाहर धूप भी नहीं है!" बोली सामिया,
तभी वो लड़का, दो गिलास ले आया, रख दिए मेज़ पर, और चला गया,
सरकाया उमा ने गिलास सामिया की तरफ,
"लो सामिया!" बोली उमा,
"हाँ" बोली वो, और ले लिया गिलास,
रोज की तरह, स्ट्रॉ फेंक दिया कूड़ेदानी में, और गिलास के मुंह पर लगा, फॉयल-पेपर भी हटा दिया, वो भी फेंक दिया!
"इस साल, एग्जामिनेशन होंगे, भरा तुमने?" बोली उमा,
"पिछले साल नहीं निकला था, इस साल निकलेगा, तो भर दूँगी!" बोली वो,
"भर दो, सिलेक्शन हो जाए तो क्या कहने!" बोली उमा,
"कोशिश तो है!" बोली वो,
तो रोज़मर्रा की, दफ्तर वाली बातें ही होती रहीं! कोई चार बजे, सामिया वापिस लौटी घर! घर पहुंची तो माँ ने खबर दी उसको एक बहुत बढ़िया!
"अरे सुन?" बोली माँ,
"हाँ माँ?" बोली वो,
"अज़ीज़ का फ़ोन आया था, वो छह महीने के लिए तुर्की जा रहा है, कोई ट्रेनिंग है उसकी, वहाँ जाने से पहले, घर भी आएगा!" बोली माँ!
अज़ीज़, सामिया के सबसे बड़े भाई!
सामिया ने सुना, तो बेहद खुश हुई! बेहद खुश!
"पिता जी को बताया?" पूछा माँ से,
"हाँ, उसने खुद ही फ़ोन कर दिया था तेरे पिता जी को!" बोली माँ!
मुस्कुरा उठी सामिया!
गयी अपने कमरे में! रखा सारा सामान! हाथ-मुंह धोये, अपने कपड़े बदले, और फिर बैठ गयी कुर्सी पर!
"तुर्की?" उसने दिमाग ने उछाला ये नाम!
थोड़ा संजीदा हो उठी!
इस नाम से, थोड़ा संजीदा!
"क्या ये इत्तफ़ाक़ है?" सवाल कौंधा!
हो भी सकता है!
"महज़ एक इत्तफ़ाक़?" फिर से सवाल!
अब क्यों नहीं?
दिमाग़ ने सवालात दबा दिए फिर!
पहले आ जाएँ भाई, फिर बात करेंगे इस बारे में!
कुर्सी से उठी, और बिस्तर पर जा लेटी वो!
कुछ देर, छत को निहारा!
और कुछ याद आया उसे!
वो नक्काशी! वो खूबसूरत सी बड़ी गुंबद! वो आ'ज़ुर गाँव! एक के बाद एक, तार जैसे अपने आप जुड़ने लगे! बदल ली करवट! और तभी बजा उसका फ़ोन! वो उठी, फ़ोन उठाया, ये ज़ाहिद का था, कुछ सोच कर, उसने दबा दिया ओके का बटन!
"सामिया?'' बोला ज़ाहिद,
"हूँ?" बोली सामिया,
"आज जल्दी चली आयीं?" पूछा उसने,
"नहीं तो, चार बजे निकली थी मैं?" बोली वो,
"एक बात पूछनी थी?" बोला वो,
"पूछो?" बोली वो,
"अजमेर शरीफ़ में ज़ियारत के लिए जा रहे हैं हम लोग, साथ चलोगी?" पूछा ज़ाहिद ने,
"नहीं जा पाउंगी" बोली वो,
"कुछ कर रही हो क्या?" पूछा,
"कब जाना है?" पूछा सामिया ने,
"इस इतवार को!" बोला वो,
"नहीं, मैं अभी हो कर आई हूँ" बोली वो,
"चल लेतीं.......तो......." बोलते बोलते रुका ज़ाहिद,
कुछ पल ऐसे ही बीते!
"ज़ाहिद?" बोली सामिया,
"हाँ?" बोला वो,
"मैंने अपनी माता जी से बात कर ली है" बोली वो,
"क्या बात?" पूछा ज़ाहिद ने,
"तुम्हें लग जाएगा पता" बोली वो,
"डराओ मत! बताओ?" बोला ज़ाहिद,
"ज़ाहिद, जो आपका मतलब है, उस से मैं इत्तफ़ाक़ नहीं रखती" बोली वो,
और काट दिया फ़ोन!
समझा दी अपनी मंशा!
समझा दिया कि, अब वो न फ़ोन करे उसे!
बता दिया कि, वो नहीं पसंद उसे!
जतला दिया कि, उसको तंग न करे!
एक तल्ख़ लहजा!
एक अलग ही जज़्बा!
किस वजह से?
कोई ख़ास वजह?
यही सवालात, ज़ाहिद के ज़हन में, नाच उठे!
तो एक तरह से, ज़ाहिद का पत्ता तो साफ़ हो गया था, या ऐसा भी कह सकते हैं, कि साफ़ कर दिया गया था! ये तो खैर, शुरू से ही दीगर था कि ज़ाहिद जैसा सामिया के बारे में सोचता है, वैसा सामिया उसके लिए नहीं सोचती, ये अलग बात है कि वे दोनों साथ साथ ही पढ़े थे, वक़ालत की त'आलीम भी साथ साथ ही हांसिल की थी, लेकिन सामिया को कभी उस से दिली लगाव न हुआ था, जैसा उस ज़ाहिद के साथ था! अब ज़ाहिद को भी उसने साफ़ साफ़, दो टूक, अल्फ़ाज़ों में अपना मतलब पेश-ए-नज़र कर दिया था!
खैर, उस रात भी कोई ख़्वाब नहीं आया और न ही कोई तस्सवुर ही किया! रात में खाना खाने के बाद, आराम से सोयी वो और सुबह आराम से ही उठी! नहायी-धोई, पौधों में पानी दिया और उन मछलियों को चारा भी खिला दिया!
नाश्ता किया, दोपहर का खाना लिया और चल दी दफ्तर, पहुंची वो, उमा दफ्तर में ही थी, चश्मा लगाए, किसी क़ानून की किताब में खोयी हुई थी, दोनों में नमस्कार हुई, सामान रखा सामिया ने, और बैठ गयी, अपनी डायरी निकाली, तो आज सिर्फ एक ही काम था, वो भी उसने करीब ग्यारह बजे तक निबटा लिया था, वो वापिस चैम्बर पहुंची, तो एक सहायक वक़ील बैठा था वहाँ, सामिया आई तो उस से नमस्कार हुई, और उसके बाद, चला गया वो वापिस अपने काम से!
कुछ ही देर में, ज़ाहिद वहाँ आया, दोनों में कोई बात तो न हुई, बस आँखों से ही देखा एक दूसरे को, उसके बाद ज़ाहिद बैठ गया उसके सामने,
सामिया नज़रें नीचे झुकाये, अखबार के हरफ़ों को, बाँचती रही!
"सामिया?" बोला ज़ाहिद,
"कहो?" बोली वो,
"इतनी सख़्त तो न बनो?" बोला वो,
"ज़ाहिद?" बोली वो,
"हाँ?" धीमे से लहजे में कहा उसने,
"समझदार को इशारा काफी होता है" बोली वो,
"जानता हूँ" बोला वो,
"तो?" बोली वो,
"मैं मुहब्बत करता हूँ तुमसे!" बोला ज़ाहिद, दस साल में, पहली बार!
"लेकिन मैं नहीं" सीधा सा जवाब!
"कोई बात नहीं!" बोला वो,
अब कुछ न बोली वो,
"मैं अब नहीं पूछूंगा तुमसे, कभी भी, कुछ भी नहीं" बोला वो,
"यही बेहतर है" बोली वो,
उठ गया वो, और चल दिया बाहर!
सामिया पर कोई बोझ न पड़ा, वो वैसी ही बैठी रही, जैसे कुछ हुआ ही न था! पढ़ती रही अखबार! करीब बीस मिनट के बाद, उमा आ गयी अंदर! बैठ गयी!
"आज और कोई काम तो है नहीं?" बोली सामिया,
"हाँ!" बोली उमा,
"तो मैं चलूँ फिर?" पूछा सामिया ने,
"कोई काम है क्या?" पूछा उमा ने,
"हाँ, भाई आने वाले हैं, अगले हफ्ते, सोचा कुछ खरीद ही लूँ!" बोली सामिया!
"कहीं घूमने का इरादा है क्या!" पूछा उमा ने,
"नहीं! ऐसे ही!" बोली सामिया,
"ठीक है!" बोली उमा,
उठी सामिया, उठाया अपना सामान, और चल पड़ी बाहर, पहले बाज़ार जाती, वहां से कुछ सामान खरीदती और फिर घर के लिए जाती!
तो ऐसा ही किया उसने, सामान खरीदा और घर की राह पकड़ी!
आ गयी घर, सामान रखा, माँ से मिली, और फिर अपने कमरे में चली! बैठ गयी कुर्सी पर, और कुछ फाइल्स जो लायी थी वो, रख दीं अलमारी में!
आज बदन में आलस सा भरा था, दो-तीन बार जम्हाई भी आयीं उसे, तो बिस्तर पर लेट गयी वो, आँखें कर लीं बंद, कुछ देर हुई, कुछ पल बीते, और लग गयी आँख!
अब जब आँख लगी, तो दिमाग़ के दूसरे हिस्से में हुई झनझनाहट!
जा पहुंची!
जा पहुंची एक शानदार जगह!
ये एक खुला मैदान था!
लाल रंग के शानदार फूल खिले थे! बड़े बड़े!
पेड़ लगे थे वहाँ, जिन पर पीले रंग के फूलों के गुच्छे थे!
घास का रंग, हल्का हरा और घास, इंच बराबर हो होगी!
कुहांसा भरा था वहां, कुहांसा जैसे, पूरे मैदान में, पसरा हुआ हो!
मौसम सर्द था! कहीं पास से, पानी बहने की आवाज़ आ रही थी!
वो पलटी, और चली उस जगह के लिए, आवाज़, करीब आने लगी उसके!
सहसा ही, उजाला हुआ, कुहांसा हटा और उसने वहां एक झरने को बहते हुए देखा! उसका सफेद पानी, ऐसा सुंदर लगे कि जी करे, उसको निहारते ही रहो! उस झरने के गिरने से, फुहारें उड़ रही थीं! जहाँ वो फुहारें पड़ रही थीं, वहाँ के पौधे और फूलों के पौधे, झाड़ियाँ सभी बेहद खुश हों, ऐसा लग रहा था! बिन मुस्ककाये न रह सकी सामिया!
वो थोड़ा सा दायें चली!
दायें चली, तो देखा, एक पेड़ लगा था वहां! उस पेड़ पर, माल्टा जैसे फल लगे थे! काफी बड़े बड़े थे वो! उनकी खटास भरी मिठास की ख़ुश्बू फ़ैल रही थी! वो गयी उसकी तरफ! वो फल, काफी नीचे तक लगे थे, संतरी रंग के वो फल, बेहद सुंदर लग रहे थे!
वो और आगे बढ़ी!
नज़र पड़ी उसकी एक तरफ!
वहाँ झाड़ियाँ थीं!
पीले रंग के फूलों से लदी हुईं!
और उनके बीच बीच में, कुछ लाल और गुलाबी फल लगे थे, वो आगे बढ़ी! उन्हें देखा, तो वो चैरी थीं! अपनी मिठास के मारे फूल कर कुप्पा हुए हुईं थीं!
तभी उसे, कुछ आवाज़ें आयीं!
वो बढ़ चली उस तरफ!
जब आई उधर, तो एक ढलान थी! उतर गयी ढलान!
सामने, एक तालाब था! और तालाब किनारे, पेड़ लगे थे!
सभी पेड़ों पर, फल लगे थे, खुबानी, आलू-बुखारे वग़ैरह!
"कितना सुंदर है ये सब!" बोली मन ही मन!
सच में वो जगह, सच में ही सुंदर थी!
उस तालाब के पानी में, डूबे पत्थर, एकदम साफ़ दीख पड़ते थे!
पानी, ग़ज़ब का साफ़ था!
वो बैठी उसके पास!
डाला पानी में हाथ!
पानी ठंडा था बहुत!
उसने दोनों हाथों में पानी लिया, और देखा,
जैसे ही देखा, वो चौंकी!
उसका रूप-रंग, नैन-नक्श, सब बदल गए थे!
वो अब किसी जन्नत की हूर जैसी लगती थी!
खुद को देखा,
तो मुस्कुराहट आ गयी होंठों पर,
होंठ, खून की गरमी से, भर गए, सुर्ख लाल हो उठे!
और वाक़ई, वो सच में बेहद सुंदर लग रही थी! उसका हुस्न जैसे उफ़ान चढ़ा था! उस पानी में अपना अक्स देख वो क्या कोई भी बुत-ए- हुस्न अपने आपको अर्जमन्द(सर्वोच्च) समझे! उसने एक मर्तबा नहीं, कई मर्तबा अपने आप को देखा उस पानी में! हवा चलती, तो उस तालाब की लहरें जैसे, उसके क़दमों को चूमने के लिए मचल उठतीं! वो खड़ी हुई, तालाब के संग संग चली वो! एक जगह पर, एक पेड़ लगा था, उस पर, नारंगी लगी हुई थीं! नारंगी के फूलों की महक ने साँसें गरम कर दी थीं उसकी! दोस्तों! ये हाल सामिया का ही नहीं था, हम में से अगर कोई भी, एक बार उस मंजर के दीदार कर ले, तो वो इस जहां से उठ जाए! उठ जाए का मतलब यहां ये पेश होता है कि इस जहाँ से वो अलहैदा हो जाए क़तई! दिमाग़ और ख़यालों में बस, ऐसी खूबसूरती चस्पा हो जाए! वो और आगे बढ़ी!
और ठिठक कर रह गयी!
सामने एक इमारत बनी थी!
नायाब और खूबसूरत!
आरा-ओ-रौशन! (आरा मायने सजावट, बेहतरीन)
जैसे, आसमान में एक छेद हुआ हो, और उस छेद में से, ख़ुर्शीद(सूर्य) का सारा जलाल, रौशनी लिए, बस उसी इमारत पर पड़ रही हो! वो सोने जैसी चमक रही थी!
हमारी ज़मीन, चाहे कितनी भी सुंदर हो, यहां से अब्तर(कम) ही है! यही ख़याल आया उसके ज़हन में! पाँव ठहर न सके! बढ़ते चले उस इमारत के जानिब!
वो उस इमारत तक पहुंची!
सफेद, चौकोर पत्थरों से त'आमीर हुई थी वो!
छू कर देखा!
जैसे, बदन की गरमी, उँगलियों तक पहुंची हो, और फिर उस दीवार ने सोख ली हो वो गर्मी! सर्द हो उठा बदन उसका!
वो आगे बढ़ी!
दाखिल हुई अंदर!
ज़मीन पर, काले रंग के पत्थरों में, पीले रंग की नक्काशी की गयी थी! उसमे तारे बने थे! पहाड़, परिंदे, तालाब के नक्श! वो देखती ही रह गयी!
और आगे बढ़ी! यहां एक कमरा था!
उसने उस चौखट को देखा!
चौखट, बेहद बड़ी और चौड़ी थी!
उस चौखट में, रंग-बिरंगे पत्थरों से सजावट की गयी थी!
अंदर दाखिल हुई!
दीवारों पर, चटख लाल रंग बिखरा था!
छत, पीले रंग के पत्थरों से बनी थी!
उस कमरे में, झरोखे बने थे! बेहद ही बारीक़ कारीगरी थी उनकी!
वो आगे बढ़ी!
कालीन पर पाँव पड़ा! बैंगनी रंग का कालीन था वो! लाल रंग के फूल बने थे उसमे! बेहद ही मुलायम! और बेहद ही आरामदेह!
असीर(कैदी) हो गयी वो!
इस अल-ओ-आरा की! (कला और सजावट)
वो बढ़ी झरोखों की ओर!
झाँका बाहर!
बाहर तो, छोटे छोटे से, गोल गोल, तालाब से बने थे!
उनके किनारों पर, फव्वारे लगे थे!
फव्वारे, फूट रहे थे और जब उनका पानी उन रंग-बिरंगे पत्थरों पर पड़ता, तो फुहारें, उन पत्थरों का रंग चुरा लेतीं!
होंठों पर, मुस्कान फ़ैल गयी!
मन, मचल उठा वहाँ तक जाने को!
निकली बाहर वहां से,
घूम कर गयी और जा पहुंची उन छोटे छोटे तालाबों तक!
वो तालाब, बस नाम के ही तालाब थे!
गहरे नहीं थे!
बस डेढ़ फ़ीट ही रहे होंगे!
फव्वारों का पानी उनमे भरता तो था, लेकिन उनमे बनी नालियों से, फिर से वापिस लौट जाता था!
दोस्तों! ऐसा, फ़ारसी कला में हुआ करता है!
फव्वारों का चलन, फ़ारस से ही आया है!
वो देख रही थी, उन फव्वारों को!
और अचानक ही, एक आवाज़ से, आँख खुल गयी उसकी!
सारा मंजर, ग़ायब हो गया, पल भर में ही!
उसने अपने साथ, किसी को बैठे पाया!
"क्या बात है?" पूछा हिना ने!
"कुछ नहीं!" बोली सामिया, उठते हुए,
"आजकल तू बदल गयी है!" बोली हिना,
"कैसे?" पूछा सामिया ने, बाल ठीक करते हुए!
"अकेले अकेले रहती है!" बोली वो,
अकेले!
हाँ! सही पकड़ा हिना ने!
अब वो, सच में अकेले ही रहने लगी थी!
"ऐसा नहीं है" बोली सामिया,
"तू बताएगी?" बोली हिना,
मुस्कुरा पड़ी सामिया!
"चल पानी ला दे!" बोली सामिया,
"लायी!" बोली और चली!
ले आई पानी,
तब तक, अपने बालों में, गाँठ लगा ली थी उसने!
गिलास में डाला पानी, और दिया उसे!
"ले!" बोली हिना,
पानी लिया, और पिया,
उसी गिलास में, हिना ने भी पिया!
"तू कहाँ खोयी रहती है?" पूछा हिना ने,
"कहीं नहीं?" बोली सामिया!
"कहीं तो?" बोली हिना,
"कहीं नहीं!" कहा सामिया ने,
"एक मिनट रुक?" बोली हिना,
"क्या हुआ?" पूछा सामिया ने,
"रुक तो?" बोली वो,
उठी हिना, और सर देखा सामिया का! निकाल लिया कुछ!
"ये तो नीम्बू का फूल लगता है!" बोली हिना,
चौंक पड़ी सामिया!
देखा फूल उसने!
ये नीम्बू का नहीं, नारंगी के फूल की एक पंखुड़ी थी! सफेद और पीले रंग की!
"कहीं गयी थी क्या?" पूछा हिना ने,
"नहीं तो?" बोली सामिया,
"तो ये? यहां तो कोई पौधा नहीं इसका?" बोली हिना,
"मुझे क्या पता?" बोली सामिया!
और इस दफा, पहली बार झूठ बोली वो, किसी से! बकि, वो जानती थी, कि वो पंखुड़ी, कहाँ से आई थी, उसके सर में!
हाँ! पहली बार बोला झूठ! लेकिन क्यों? शायद दो वजूहात हों इसकी! पहली, कि वो ये बताना नहीं चाहती थी किसी को भी कि दरअसल वो अपने तस्सवुर के जहां और जगहों के बारे में, क्योंकि, कोई यक़ीन तो करेगा ही नहीं! और दूसरी वजह ये, कि उसके मन में अब कहीं कोई चोर आ छिपा था! और वो नहीं चाहती थी कि, वो चोर, पकड़ा जाए! और बेकार में अलामत पेश आये! अब क्या माक़ूल वजह रही हो, ये तो आप ही सोचें!
तो हिना को भी समझा दिया कि रास्ते में आते जाते कहीं गिर गया होगा वो फूल उसके सर पर! और अटक गया होगा बालों में! हिना को यक़ीन आखिर, दिला ही दिया था उसने! हिना को मानना ही था, या यूँ कहा जाए, मनवा ही दिया गया!
तो हिना करीब एक घंटे बाद, वापिस चली गयी थी, और अब, सोच के दरिया में डूबने का वक़्त था! उस सामिया के लिए! उसने मेज़ पर रखी वो पंखुड़ी उठायी, और रखी हाथ पर, और याद आया वो नारंगी का पेड़! ये तो अब पक्का था कि ये पंखुड़ी उसी पेड़ की थी!
बदन, हल्का हो उठा उसका, उसी वक़्त!
सर्द सा एहसाद दौड़ गया रीढ़ की हड्डी में!
कोई छू लेता उसे तो, बरफ़ के मानिंद होता उसका जिस्म!
वो धम्म से जा बैठी कुर्सी पर! हाथ में, वही पंखुड़ी, वो उठी, और मेज़ पर रख दी वो पंखुड़ी, अब तो गुमसुम हो चली थी! चल पड़ी छत पर जाने के लिए! पहुंची वहां! और कमरा खोला, मछलियों ने जैसे पहचान लिया उसे! उनमे, उछल-कूद शुरू हो गयी! थोड़ा सुकून मिला उसे उन्हें देख कर, डालने लगी चारा! और आज भगदड़ न मची उनमे! वो जैसे, संजीदगी से, उको ही देखे जा रही थीं! उसे लगा तो अजीब सा, लेकिन इसका जवाब भी जल्दी ही ढूंढ लिया उसने! बाहर आई, और पौधों को पानी दिया, लेकिन, सोच, कहीं और ही अटकी थी उसकी!
रात का वक़्त! खाना खा लिया था उसने!
आज रात, आँखों में नींद न थी! अचानक ही उसकी नज़र पड़ी उस मेज़ पर रखे फूल की उस पंखुड़ी पर! अब न था वो वहां!
वो उठी! मेज़ पर देखा, ढूँढा! नहीं थी वो!
मेज़ के दायें बाएं देखा, न थी वो!
नीचे देखा, झुक कर देखा, न! न थी वो!
वो तो जैसे, वापिस चली गयी थी, जहाँ की थी वो!
हैरत में पड़ गयी!
बैठी कुर्सी पर! आँखें बंद कर लीं! सोचने लगी कुछ! और कुछ देर बाद, बिस्तर पर आ लेटी, लेकिन आज, आँखों में नींद न थी!
वो, ऐसे झंझावत में फंस चुकी थी, कि, जहाँ से निकलना ठीक वैसा ही था कि और धंसना! कैसे निकाले खुद को?
क्या करे वो?
और तब!
तब उसे शुरुआत का ख़्वाब आया! वही ख़्वाब! ये सिलसिला, अबज़ैर से शुरू हुआ था! बस! अब कुछ हल निकलना चाहिए! ठीक है, आज अबज़ैर से ही बात की जाए! इतना ही सोचा था, कि कमरे में, ख़ुश्बू फ़ैल उठी!
वो पहचान गयी वो ख़ुश्बू!
आँखें हुईं बंद!
और किया फिर से तस्सवुर! झाँका हो जैसे, उस दखलदोज़ से बाहर उसने! जैसे वो बादल, उड़ा ले जा रहे थे उसको अपने संग! वो घूमते हुए बादल!
वो जा पहुंची!
समंदर का किनारा!
समंदर के किनारे, वो सफेद रंग के पहाड़!
सफेद रंग की चमकती हुई रेत!
नीले रंग के फूलों से सजी वो जगह!
उसने क्षितिज को देखा! लालिमा छायी थी! समंदर के परिंदे, जहां-तहाँ उड़ रहे थे! उनकी आवाज़ें, जैसे देह में सुकून भर देती थीं!
"सामिया!" वही आवाज़!
वही, एक सुरीली सी आवाज़!
पीछे मुड़ी वो, देखा, आसपास! कोई न था!
"सामिया!" फिर से आई आवाज़!
वो दौड़ी पीछे! पीछे, एक छोटी सी पहाड़ी के टुकड़े के पीछे!
वहां, कोई था, कोई खड़ा हुआ!
ठिठक गयी वो!
ग़ौर से देखा! लेकिन उस हरियाली और पौधों, पेड़ों के साये को, उसकी नज़रें न भेद सकीं! हवा कुछ तेज़ थी! समंदर की तेज हवा! नमी भरी! कपड़े जैसे उसके, भीगने लगे और जा चिपके जिस्म के कोने कोने से!
"सामिया! तुमने, मुझे याद किया! मैं, ख़्वाहिशमंद था सामिया! तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ!" आई आवाज़!
सामिया ने, उसी तरफ देखा!
बढ़ी आगे थोड़ा!
बाल, फड़फड़ाने लगे थे!
वो एक हाथ से उन्हें संभालती और दूसरे हाथ से अपने कपड़े संभालती!
"रुको सामिया! रुको!" बोला वो,
रुक गयी सामिया!
और तब!
तब उस साये में से, निकला एक शख़्स!
गोरा-चिट्टा!
लम्बा-चौड़ा!
खुली पोशाक़ पहने! हरे रंग की!
बाल, कंधों से नीचे तक!
सुनहरी बाल!
वो चलता आ रहा था! धीरे! धीरे!
वो आ रहा था, और सामिया की आँखें, उसी से जम गयीं थीं!
बला की मर्दाना खूबसूरती थी उसमे!
गले में, नीले रंग का एक कपड़ा बाँधा था उसने!
ये कपड़ा, उसके मुंह को ढके हुआ था!
सर पर, एक टोपी थी!
वो आया करीब!
और रुक गया!
नज़रें नीचे कर लीं अपनी!
जैसे, शर्मिंदा हो!
और सामिया, उसको देखती ही रह गयी!
उसके चौड़े कंधे और मांस-पेशियों से भरे बाजू!
सामिया तो, उसकी छाती तलक ही आती!
उठाया अपना चेहरा अबज़ैर ने!
उसकी खूबसूरत, चमकती हुई नीली आँखों से, सामिया की आँखें टकराईं!
दिमाग और दिल! जैसे कुछ देर के लिए, सोचना और धड़कना भूल बैठे!
जब इंसानी खूबसूरती, किसी ऐसी ही खूबसूरती से टकराया करती यही, वो अपने आप ही, वो जैसे झुक जाया करती है! इंसान की यही फ़ितरत है! हम इंसानों में होड़ लगती है! उसके लिए, हम पता नहीं क्या क्या कर बैठते हैं और जब अंजाम, मन-मु'आफ़िक़ नहीं आता, तो ग़मज़दा हो जाया करते हैं! उस लम्हे, सामिया के जिस्म में और रगों में बहता गरम लहू, जैसे हिलोरें मारने लगा था! जैसे कोई पुर'अमन(शांत) दरिया, हवा के तूफ़ान से भिड़ कर, और दोगुने जोश-ओ-ख़रोश से उस मुक़ाबला करता है, ठीक वैसे ही, उसकी रगों का लहू, उफ़ान खा बैठा था! दिल, ऐसे धड़क रहा था कि जैसे, तूफ़ान में, हिचकोले खाती हुईं किश्तियाँ!
वो आगे बढ़ा! थोड़ा सा, अपना एक क़दम बढ़ाया उसने आगे!
और देखा, सामिया की आँखों में!
कुछ पढ़ रहा था वो उसकी आँखों में!
चाहता, तो वो उसी लम्हे, सामिया उसी की हो जाती! कोई रोक नहीं पाता उसे! कोई भी तो नहीं!
"सामिया?" बोला वो, एक इल्तज़ा भरे लहजे का सवाल था उसका!
और तब, सामिया के गले में अटके अलफ़ाज़, आये ज़ुबान पर!
"कौन हो आप?" पूछा उसने,
"मैं, अबज़ैर!" बोला वो,
"मुझे क्यों बुलाते हो?" पूछा सामिया ने,
"नहीं, मैं नहीं बुलाता सामिया!" बोला वो,
"सबसे पहले, तुमने ही बुलाया था न?" पूछा उसने,
"नहीं सामिया!" बोला वो,
"तो फिर?" पूछा उसने,
"तुम खुद ही चली आयीं!" बोला वो,
खुद ही? वो, खुद ही?
"पूछो कि कैसे?" बोला अबज़ैर,
आँखों में घूर के देखा अबज़ैर को उसने!
अबज़ैर, भले ही इफरित था, लेकिन, काँप के रह गया उसकी नज़रों को देखकर!
"उस रोज, इस सर्द रात में..........." बोला वो,
"हाँ?" बोली सामिया,
चुप अबज़ैर!
"बोलिए?" बोली वो,
"उस रात, वो ख़्वाब, मेरा दिया नहीं था............" बोला वो,
"तो?" समझ नहीं आया उसे!
"जिसने ख़्वाब पेश किया, वो कोई और था सामिया......" बोला अबज़ैर,
"कोई और? कौन?" पूछा सामिया ने,
"अब वो नहीं है यहां" बोला वो,
नहीं है?
उसने ख़्वाब पेश किया,
और अब वो, यहां नहीं है?
ये क्या मतलब हुआ?
किसने ख़्वाब दिया?
ज़रा ये तो बताएं?
"कौन था फिर?" पूछा सामिया ने,
"कोई और, जो तुम्हें पाना चाहता था, वो नापाक़ इरादे वाला था सामिया, उस रोज से पहले, तुम्हें कभी नहीं देखा था मैंने, सामिया!" बोला वो,
अब मित्रगण!
जो मामला सामने आया वो ये, कि सामिया पर कोई नापाक़ जिन्न रजु हुआ था! इत्तफ़ाक़न, ये उस वक़्त गुजरते हुए, उस इफरित ने जान लिया, इफरित, इंसानों से, कम ही रजु हुआ करते हैं! तो अब मामला ये, कि सामिया का पीछा छुड़ा दिया था अबज़ैर ने! अब और कोई ऐसा हादसा पेश न आये, इसीलिए, अबज़ैर, उसको देखा करता था! तो अब यहां कहानी फंस गयी थी!
"यक़ीन करें मेरा" बोला वो, सर झुका कर!
सामिया ने जो सुना, उस पर उसे यक़ीन हुआ या नहीं, हाँ, इतना ज़रूर हुआ, कि जब सामिया की नींद खुली, तो न उसे अब कोई ख़्वाब ही याद था, और न कोई तस्सवुर किया उसने! ज़िंदगी, आम ढर्रे पर आ गयी! इस तरह, सात महीने बीत गए!
उसे अब कुछ याद न था! कुछ भी याद नहीं!
कौन अबज़ैर? और कौन वो दो बहनें!
कौन सी वो जगह और कौन सी वो इमारतें!
सब भूल गयी थी वो!
अब न ख़्वाब ही आते थे और न कोई ऐसा तस्सवुर ही किया जाता!
अबज़ैर कहाँ था?
कुछ पता नहीं!
सामिया ने, वक़ालत में और आगे बढ़ने का फैंसला लिया, उसने इम्तिहान देने के लिए, पर्चा भर दिया, और पढ़ाई में जुट गयी! ये उसका सपना था और ये सपना उसे पूरा करना ही था! वो न्यायाधीश बन जाए, इसीलिए खूब मेहनत कर रही थी!
सामिया के बड़े भाई ने, तुर्की में अपना प्रशिक्षण पूरा कर लिया था और वहीँ वो अब नौकरी भी करने लगे थे! वे घर आते और तुर्की की खूबसूरती बयान करते!
वो दोपहर थी!
सर्दी का मौसम था!
सामिया, अपने पिता जी के साथ, शहर से बाहर थी!
जब वो वापिस हो रहे थे, तब अचानक ही सामिया को चक्कर आया, और वो गिर पड़ी, नाक से खून बहने लगा था, उसको फौरन ही अस्पताल में दाखिल करवाया गया, इलाज और जो टेस्ट हुए, उनके मुताबिक़, सामिया के दिमाग में एक ट्यूमर था, ये ट्यूमर कई रक्त-वाहिकाओं के बीच था, और उसके ऑपरेशन में, उसकी जान जाने का पूरा खतरा था.......
सारा परिवार सकते में आ गया था,
खूब ज़ियारतें कीं,
खूब पढ़ायी करवाई गयी,
मुल्ला-मौलवी, तंत्र-मंत्र सब करवा लिए गए,
लेकिन नतीजा, सिफ़र का सिफ़र,
बड़े भाई को जैसे ही खबर लगी, वो फ़ौरन ही दौड़ा चला आया, सामिया के इलाज के लिए, चाहे जो भी करना पड़े, वो सब करने को तैयार थे,
कहते हैं न!
ये वक़्त है!
और वक़्त के दरिया में,
कब तूफ़ान आहट दे दे,
कब किश्ती साथ छोड़नेलगे,
कुछ पता नहीं!
सामिया, कहाँ से कहाँ धकेल दी गयी थी उस वक़्त के दरिया में!
उसके खूबसूरत जिस्म पर, अब सूजन चढ़ने लगी थी,
आँखें, खुलती ही न थीं,
और आवाज़, जैसे बोलना भूल गयी थी सामिया.............
बहती नदी में ठहराव आ जाए तो नदी की रूह फ़ना होने लगती है, और वो भी जब, जब वो नदी बहती, इठलाती, इतराती आगे बढ़े! उसका ये ठहराव, उसके अँधेरे मुस्तक़बिल की गवाही देती है! यही तो हुआ था, बहती हुई वो नदी, ऐसी ठहरी, कि उसके सारे ख़्वाब, उम्मीदें, जैसे ख़ाक़ हो चली थीं! बिस्तर पर लेटी, अपने कमरे में क़ैद, जैसे बचे हुए दिन काट रही थी! कब दिन हुआ और कब रात, अब नहीं पता चलता था, कौन आ रहा है और कौन नहीं, ये भी नहीं पता चलता था! उसके माँ-बाप, आंसू बहते, बाप से तो अपनी गुड़िया की हालत देखी ही न जाती, और माँ, माँ रोज खुदा से ये गुहार करती, कि सामिया की जान बख़्श दी जाए और बदल में, उनकी जान को, उसी लम्हे ले लिया जाए, माँ रोते रोते बेहाल होती, और वो हिना, उसके तो मुंह पर जैसे ताला लग चुका था, वो घंटों उसके पास बैठी रहती, माथे पर हाथ फिराती और मन के अंदर ही अंदर, वो भी गुहार लगाती कि अगर एहि लिखा है क़िस्मत में तो, उसको भी सामिया से पहले ही उठा लिया जाए, हिना जब भी आती, आंसू लिए आती और जब जाती, आंसू लिए ही जाती! सभी, आपसी रिश्तेदार वहीँ घर में आ कर, ढांढस बंधाये करते उनका, बस, यही कर सकते थे वो, और यही वो करते!
सामिया के भाई, दिन-रात उसके इलाज के लिए, मारे मारे भागते फिरते, कभी कहाँ और कभी कहाँ, उन्होंने दूसरे मुमालिक़ में भी बात की थी, लेकिन अभी तक, कोई तस्सलीबख्श जवाब न मिला था!
वक़्त की रेत, मुट्ठियों से खिसके जा रही थी, सामिया की हालत, दिन-ब-दिन गिरती जा रही थी, डॉक्टर्स ने उसको ज़्यादा से ज़्यादा तीन या हद से हद छह महीने का ही वक़्त मुक़र्रर किया था!
सामिया के सपनों का, जो उसने, देखे थे, कुछ कर गुजरने का, कुछ बनने का, उस कांच में अब दरारें पड़ चुकी थीं, वो कब दरक जाए, कोई पता न था!
और इसी दौरान, एक दिन, सामिया के बड़े भाई के पास, एक फ़ोन आया, ये फ़ोन इंग्लैंड से था, वहाँ उनके एक जानकार, नवेद अहमद ने ये फ़ोन किया था, अहमद साहब की बड़ी बहन, एक डॉक्टर थीं, अहमद साहब ने, सामिया के बारे में बातें कीं थीं उनसे, और उनक बड़ी बहन, समायरा ने, सारे ज़रूरी कागज़ मंगवा लिए थे, अब बस इंतज़ार था तो उनके जवाब का!
दो हफ्ते बीत गए, एक एक दिन, एक एक बरस बराबर बीतता, सामिया की हालत ऐसी हो गयी कि जैसे कोई ज़िंदा लाश, उसके सर के बाल गिरने लगे, मांस की जगह, हड्डियां नज़र आने लगीं, वजन आधा हो गया, अब आँखें भी न खुलती थीं, कहें सही सही तो बस, मशीन के सहारे ही वो ज़िंदा थी.........
और कोई दो हफ्तों के बाद,
आया जवाब, समायरा का, वहाँ उसने, सभी कागज़ दिखाए थे दूसरे, विशेषज्ञों को, उन सभी के मुताबिक़, अस्सी फ़ी सदी, इस बात की संभावना थी कि ऑपरेशन के दौरान, सामिया की मौत हो जाए, और अगर ठीक भी हुई, तो साड़ी ज़िंदगी, उसको बिस्तर पर लेटकर ही बितानी होगी, इस खबर ने तो और तोड़ कर रख दिया सभी को, अब तो आंसू भी सूख चुके थे, अब जो बहता वो सिर्फ खून था!
घर में बातें हुईं, सलाह-मशविरा हुआ, और ये फैंसला लिया गया कि, सामिया को इलाज के लिए, ले जाया जाए इंग्लैंड, अब जो होगा वो खुदा के हाथ में है, उसकी रजा के बग़ैर तो एक पत्ता भी नहीं हिलता, मांग लेंगे भीख उस से, सामिया की ज़िंदगी की, आगे उस खुदा की मर्ज़ी, लेकिन इलाज में, कोई कमी नहीं बरती जायेगी.....
हो गयी तैयारियां, और कोई बीस दिनों के बाद, वे उसको ले जाने वाले थे इंग्लैंड, सामिया के बड़े भाई, पहले से ही तमाम इंतज़ामात करने, पहुँच चुके थे वहां, पैसा अब पानी की तरह से बहना शुरू हुआ था, उनको पैसे की कोई चिंता या फ़िक़्र नहीं थी, बस किसी भी तरह, उनकी लाड़ली सामिया, ठीक होकर, घर लौट आये, यही सभी की कामना थी!
जिस रोज सामिया को ले जाया गया, उसी रोज, उमा, ज़ाहिद और हिना, सभी आये थे, ऐसा कोई नहीं था जिसकी आँखों में आंसू न हों, वो जिसको देख रहे थे जाते हुए, काश कि लौट आये, लौट आये ठीक होकर, बस, यही चल रहा था उन सभी के ज़हन में!
और इस तरह, सामिया के माँ-बाप और छोटा भाई, पहुँच गए इंग्लैंड, वहाँ जाकर भरती करा दिया गया उसे, उसी दिन से तीमारदारी और इलाज, शुरू हो गया, सामिया, लम्हा दर लम्हा, मौत के पास खिंचे जा रही थी! टेस्ट हुए, कई और विशेषज्ञों ने उसका परीक्षण किया, उसका ट्यूमर, कभी भी फट सकता था, और यही सबसे बड़ा फ़िक़्र का वाइज़ था!
एक रात..........
सामिया का कमरा,
सामिया अकेली ही थी,
हाँ, मशीनों से घिरी हुई, मशीनों से, कुछ आवाज़े ही आती थीं, ये आवाज़ें, ज़ाहिर करती थीं, कि अभी साँसें बाकी हैं सामिया की!
बजे होंगे करीब दो,
"सामिया!!" किसी ने फुसफुसा के पुकारा!
सामिया, दवा के नशे में थी, और अब तो सुनती भी कम ही थी, तो न सुना!
"सामिया!!" बोला कोई,
फिर से अनसुनी!
उसी लम्हे,
कमरे में तेज ख़ुश्बू फ़ैल उठी!
तेज, वैसी ही, ठीक वैसी ही!
वो ख़ुश्बू, पहुंची सामिया के नथुनों में!
नथुनों में पहुंची,
तो बदन में, ज़रा सी जुम्बिश हुई!
उसने गर्दन हिलायी,
की बायीं तरफ!
आँखें खोलने की कोशिश की,
ज़रा सी आँखें खुलीं!
खुलीं, तो देखा किसी को!
किसको?
बस!
सामिया के होंठों पर, एक हल्की सी मुस्कान आई!
जिसको देख रही थी वो,
वो भी मुस्काया!
आया करीब!
फेरा माथे पर हाथ!
और, चूम लिया माथा उसने उसका!
सामिया के बदन में, जैसे झटका सा लगा!
और अगले ही पल!
और उसी लम्हे, आँखें पूरी खुल गयीं सामिया की! वो, मुस्काये जाए! देखे जाए, अपने बाएं खड़े अबज़ैर को! और अबज़ैर, उसके माथे पर हाथ रख, चुप खड़ा हो, लेकिन मुस्कुराते हुए! फिर अबज़ैर न हाथ हटाया अपना! लिटा दिया सामिया को!
"आओ सामिया!" बोला वो,
और हुआ गायब!
अब वो साथ था सामिया के! सामिया उसी के साथ थी! जिस जगह वो पहुंचे, वो एक नायाब जगह थी! हरे रंग के बड़े बड़े पेड़ लगे थे, इतने मोटे कि दस आदमी भी भर न सकें उनको अपनी गिरफ्त में! आज सामिया का हाथ पकड़ा था उसने! वो लिए जा रहा था उसे! और जाकर रुका, एक इमारत के सामने! वो इमारत, पीले रंग की थी! नीले और काले रंग के पत्थरों से सजी थी!
"आओ!" बोला वो,
और ले चला साथ अपने!
अंदर, एक जगह, एक छोटा सा तालाब था, और हैरत की बात ये, कि उसमे एक झरना सा गिर रहा था, ये झरना कहाँ से गिर रहा था, ये नहीं देख पायी समैया!
"जाओ सामिया! उतर जाओ इसमें!" बोला वो,
सामिया का हाथ छोड़ा उसने!
उतर गयी उस तालाब में, वो तालाब गहरा नहीं था, बस घुटने तक ही पानी था उसमे! जैसे ही पानी में वो उतरी, पानी दूधिया हो गया और ठीक वैसा ह उसका रूप!
"ये रूह-फ्लाज़ी है सामिया!" बोला वो,
इसका मतलब था कि इस से बदन तो क्या रूह में भी कोई दोष हो, तो वो भी यहीं खत्म हो जाएगा! भीग चुकी थी सामिया उस बौछार में!
"आओ, हाथ पकड़ाओ!" बोला वो,
भीगी हुई सामिया ने, हाथ बढ़ाया उसकी तरफ!
अबज़ैर ने हाथ थामा उसका, और खींच लिया बाहर! जैसे कोई नाज़ुक कली उठायी हो! जैसे ही सामिया बाहर निकली, उसी लम्हे वो सूख गयी!
"आओ!" बोला वो,
ले चला एक तरफ!
जहाँ लाया, वो एक शीश-महल सा था!
उसके एक एक शीशे में, अक्स था सामिया का!
"आओ सामिया! वापिस चलें!" बोला वो,
वापिस?
इतने दिन बाद तो ऐसा सुकून मिला उसे?
अब वापिस?
नहीं, कुछ देर और!
"नहीं सामिया! और नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा सामिया ने,
"फिर न जा सकोगी!" बोला हल्के से वो!
बढ़ा दिया हाथ अपना सामिया ने, पकड़ा हाथ अबज़ैर ने, और लगा लिया सीने से अपने, तबी, सामिया की नज़र, उन शीशों पर पड़ी, अभी तक, उन शीशों में, सामिया का वो ही अक्स, क़ैद था!
वो देखने लगी उन्हें!
"बस, यही है मेरा सामिया!" बोला वो!
इतना ही बोला था, कि सामिया की आँखें खुलीं!
खुलते ही, अपने आपको देखा उसने!
न कोई निशान! न कोई दाग़-धब्बा!
वो मशीनें, अब बंद पड़ी थीं!
वो कहाँ है? ये कौन सी जगह है?
उठ बैठी बिस्तर से!
देखा आसपास! कुछ समझ न आया!
पर्दा हटा, बाहर झाँका खिड़की से, अँधेरा, बस सड़कों पर लगी, बत्तियां जल रही थीं!
ये कौन सी जगह है? मैं कहाँ हूँ?
अब भागी बाहर की तरफ!
इत्तफ़ाक़न, सामिया के बड़े भाई, पानी पीने उठे थे!
देखा आते हुए सामिया को! कुछ न समझ सके! बस भाग लिए!
भाई के गले लग गयी सामिया!
भाई के आंसू बह निकले!
इस से, औरों की भी आँखें खुल गयीं, सो कौन रहा था? सभी कच्ची नींद में थे! निकले कमरे से बाहर!
करिश्मा! ये तो करिश्मा था! खुदा ने उनकी सुन ली थी!
माँ का बुरा हाल!
बाप का बुरा हाल!
हलचल हुई, तो डॉक्टर्स आ गए! सामिया को तंदुरुस्त देखा, तो सब हैरान! ऐसा क्या हाउ? किसने किया ये ना-मुमकिन काम?
फौरन ले जाया गया उसे अंदर! किये गए टेस्ट!
और जो होना था, वही हुआ! सामिया के बदन में अब ना कोई ट्यूमर था और ना कोई अन्य रोग! डॉक्टर्स तो दांतों तले ऊँगली दबा गए! फिर से टेस्ट हुए, और फिर से वही नतीजा!
जिसने सुना, वही हैरान!
जिसने देखा, वही असमंजस में!
जब हिन्दुस्तान खबर की गयी,
तो जैसे घर में ईद मन गयी!
सभी ऐसे खुश, ऐसे खुश कि कोई हद ही नहीं!
सामिया खुश थी! बहुत खुश!
लेकिन वो अब जानती थी! जानती थी कि, ये नवाजिश किसने की है!
अबज़ैर!
वो, दूर से, खड़ा खड़ा, सामिया को खुश देख, उसके माँ-बाप और भाइयों को खुश देख, सबसे ज़्यादा खुश था! सबसे ज़्यादा खुश!
मित्रगण!
ये केस, आज भी उस अस्पताल में, अनोखा ही है! इसके बाद, जब सामिया हिन्दुस्तान आई, तो और भी कई जाँच की गयीं, शायद, मेडिकल-साइंस को कोई ऐसा सूत्र मिल जाए, जिस से सभी का भला हो! और सामिया ने, कभी मना नहीं किया! अपना पूरा सहयोग दिया!
तो सामिया, अब हिन्दुस्तान वापिस आ गयी थी.......
आ गयी थी वापिस हिंदुस्तान सामिया! और इस तरह, दो महीनों में सबकुछ सामान्य हो गया! लेकिन न भूली वो, तो उस अबज़ैर को! शायद उसके दिल में कहीं तो जगह बना ली ही थी अबज़ैर ने! उस आखिरी मुलाक़ात के बाद, अबज़ैर दुबारा कभी नहीं लौटा था! न ख़्वाब में, और न ही अबज़ैर ने ही कुछ किया!
वक़्त आगे बढ़ा, और सामिया ने, फिर से इम्तिहान दिए, इम्तिहान देने के बाद, उसने कामयाबी हांसिल की! आज सामिया एक जज साहिब हैं!
ये पिछले बरस की बात है, एक रात, सामिया को अपने दिल में कुछ ख़लिश सी महसूस हुई! ख़लिश, इस से पहले कभी न महसूस हुई थी उसे! उस रात, उसने तस्सवुर किया! और उसी लम्हे, वो जा पहुंची!
जा पहुंची उसी सर्द जगह! जहां वो सबसे पहले पहुंची थी! वो गुंबद के नीचे थी और तब वो, उस जगह को पहचान गयी! वो बढ़ चली आगे, और फिर रुकी!
होंठों पर मुस्कान आई उसके!
हवा ऐसी सर्द, कि रोंगटे खड़े हों!
"अबज़ैर!" बोली वो,
अब तक तो, अबज़ैर ही बुलाया करता था उसे, उसका नाम लेकर! लेकिन आज, आज उसने बुलाया था अबज़ैर को!
और तब, उस अँधेरे से, चला आया निकल कर बाहर, अपने संग, सुनहरा उजाला लिए हुए अबज़ैर! नज़रें मिलीं!
"मेरे पास आओ अबज़ैर!" बोली वो,
अबज़ैर, ठिठके हुए क़दमों से आगे बढ़ा!
थोड़ा आगे बढ़ी वो!
चंद हाथों का फांसला था बस, दोनों के बीच!
और सामिया ने, नज़रों में देखा ग़ौर से अबज़ैर की!
अबज़ैर, बार बार नज़रें झुकाये!
आगे बढ़ी, और कस लिया अपनी बाजुओं में अबज़ैर को!
"शुक्रिया अबज़ैर!" बोली वो,
अबज़ैर के मजबूत बाजू, जकड़ गए सामिया के इर्द-गिर्द!
मित्रगण!
ये आखिरी मुलाक़ात थी उन दोनों की!
आखिरी!
अबज़ैर ने क़ौल दिया कि एक बार, एक बार, एक बार और, वो आएगा सामिया से मिले! आप समझ सकते हैं कि कब!
और उसके बाद, अबज़ैर, कभी नहीं आया! न ख़्वाब में! न तस्सवुर में!
हाँ, याद है आज भी सामिया को वो अबज़ैर!
लेकिन सामिया समझदार है! बेहद समझदार! उसने भी कभी न बुलाया अबज़ैर को! न कभी, वो सफेद फाख्ता ही आया! न वो ख़ुश्बू ही!
ये कैसी मुहब्बत है अबज़ैर की?
शायद, हम इंसान, इंसानी तक़ाज़ों से ही सोचें!
...................................................................................
"वो, वो देखिये! वो हैं सामिया!" बोले आज़म साहब!
और मैं, उस शफ़्फ़ाफ़ रंग वाली, बेहद सुंदर, एक हूर जैसी औरत को देख, दंग रह गया! वो इस जहां की नहीं लगती!
पिछले साल, आखिरी बार देखा मैंने उसे! उसके बाद कभी नहीं! हाँ, आज़म साहब, पिता समान हैं उसके लिए, आज़म साहब ने ही, ये पूरा वाक़या मुझे सुनाया था, मैंने बस, अपने अल्फ़ाज़ों में, उसको यहां लिखा है!
लेकिन जब उस अबज़ैर के बारे में सोचता हूँ, तो समझ सकता हूँ, मुहब्बत का एक अहसास, क्या से क्या कर सकता है! कितना भारी हो सकता है! ये दुनिया बदलने का माद्दा रखता है! सामिया, अबज़ैर! उदाहरण हैं इस पक्ष में!
साधुवाद!
