वर्ष २०१३ जयपुर की ...
 
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वर्ष २०१३ जयपुर की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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ये कोई पुराना सा खंडहर था! पुराना सा! धुंआ ही धुंआ था वहाँ! धुंआ, यूँ कहें कि धुंध सी थी वहाँ! और एक अजीब सी शान्ति! कोई आवाज़ नहीं, कुछ भी नहीं! वो अकेली थी उस समय! ठंडी धुंध, उसके बदन से छू रही थी, और जहां ज़्यादा छूती, वहां रोएँ खड़े हो जाते थे, अपने दोनों हाथ, बाजुओं में छिपाए हुए, छाती पर बांधे, वो चुपचाप देख रही थी सामने! पांवों में कुछ न था, ज़मीन ठंडी थी बहुत, जैसे, सीलन हो, सीलन, ओंस की! वो पत्थर का सा फर्श था! पांवों के तले में, वो ओंस, उसके पांवों को, जैसे चाट चाट कर, बेजान किये जा रही थी! उसने गरदन घुमायी अपनी, अँधेरा था उस जगह, गरदन घुमा, अपने आसपास देखा, सर्द था माहौल वहाँ और एक असीम सी शान्ति! कभी-कभार, ऐसी शान्ति, असीम शान्ति, ख़ौफ़ को जन्म दिया करती है! यही था वो! उसके साथ, वो ख़ौफ़ज़दा थी उस वक़्त!
"कहाँ हूँ मैं?" सवाल किया अपने आप से, मन ही मन!
आसपास देखा, वहीँ ठहरे ठहरे!
"ये कौन सी जगह है?" फिर से सवाल किया एक!
और एक सवाल, जैसे कोई बेल थी! एक सवाल की बेल, जिसमे और सवालों के पत्ते गुंथे थे! उसके ज़हन में, ये पत्ते, फ़ड़फ़ड़ा रहे थे!
"कोई है?" आवाज़ दी, अपने मन में! ज़ोर से चिल्लाई वो, अपने मन में, लेकिन वो आवाज़, छाती में ही घुट कर रह गयी थी! बाहर, न निकल पायी थी वो उसकी चिल्लाहट!
सहसा ही, एक ज़ोरदार सी आवाज़ हुई! सामने, ठीक सामने! पंख फड़फड़ाते हुए, कोई परिंदा उड़ा था! शायद कोई कबूतर या फाख्ता रहा होगा! उसे याद नहीं था कि उस वक़्त, क्या बजा है! घड़ी थी नहीं उसके पास, उसके कपड़े, गले से लेकर, पाँव तक, एक ही थे! ऐसे कपड़े? वो नहीं पहनती थी वैसे कपड़े! तो फिर? वो है कहाँ?
हिम्मत जुटाई, थोड़ा आगे बढ़ी, जब बढ़ी, तो ठंडे पानी में पाँव डूबा, सिहर गयी वो! और सहसा ही, फलांग कर, आगे बढ़ गयी! जब बढ़ी, तो सामने देखा, धुंध की चादर बिछी थी! धुंध के पर्दे, जैसे आपस में टकरा रहे थे! सर्द माहौल में, उसका बदन तो क्या, रूह भी सर्द हो चली थी!
हवा का झोंका उठा! उसके कानों और सर के बीच में से, जैसे चीरते हुए चला गया वो झोंका! उसने, हाथ खोले अपने, और कानों पर ढुलके अपने बाल फिर से कानों की सतहों के पीछे धकेल दिए! अब तलक तो, होंठ भी सूख चुके थे! बस, कंपकंपी का इंतज़ार था उसके बदन को!
"कोई है?" फिर से चिल्लाई मन में!
कोई उत्तर नहीं! आवाज़, फिर से घुट गयी, छाती में!
"मैं, कहाँ हूँ?" फिर से सवाल किया!
और फिर से, कोई जवाब नहीं मिला!
अकेली थी वो! हाँ, नितांत अकेली!
"कोई है यहां?" फिर से चीखी!
और फिर से कोई जवाब नहीं! हमेशा की तरह!
क़दम आगे बढ़े उसके! और ठिठक कर रुकी वो! एक सुगंध! एक भीनी सी सुगंध! नथुने भर उठे उसके! ये सुगंध? कैसी है? आगे बढ़ी और! और क्या देखा!
देखा, रात की रानी लगी हुई है उधर! हर तरफ! हर तरफ! उसके उफनते यौवन की फुहार की सुगंध थी वो! बेहद सुकून देने वाली सुगंध! आगे बढ़ी वो! और क्या देखा!
देखा, एक गुंबद! एक गुंबद बनी थी! यहां चाँद की चांदनी, जैसे उस पर मैहर कर, उस धुंध की चाँद को फाड़ कर, जैसे, रास्ता दिखाने चली आई थी! वो गुंबद! गोल! सुंदर! नीले रंग के पत्थरों से ढकी हुई थी! जैसे, उस पत्थर की पत्तियां, चीर चीर कर, उस पर चिपका दी गयीं हों! वो आगे बढ़ी! आ गयी गुंबद के नीचे! उसने कुछ देखा! देखा, उस गुंबद से, चार रास्ते जा रहे हैं, या शायद, दूर अँधेरे से, आ रहे हैं! उसने गुंबद के अंदर, छत को देखा! बेहतरीन नक्काशी की गयी थी! सुराही और कमल के फूल बने थे! सोच में डूबी वो! फिर से एक सर्द हवा का झोंका उठा! इस दफा, हाथों के बीच से गुजरता हुआ, छाती से टकरा गया! सिहर उठी वो! उस झौंके में, एक सर्द नश्तर सा था! जो, बस छाती चीरने से, बस ज़रा ही चूक गया था!
"कोई है? मैं अकेली हूँ? कोई है? मदद कीजिये?" इस बार आवाज़ में, एक गुहार सी थी! गुहार! एक इल्तज़ा भरी!
धुंध के बादल बने! पर्दे हिले धुंध के! और वे पर्दे, उसके जिस्म से जा चिपके! पूरा जिस्म, सर्द हो गया! वो झुक गयी! बचने लगी! लेकिन, जैसे, वो पर्दे, आमादा थे उसके जिस्म से चिपकने के लिए!
"मैं कहाँ हूँ?" मन ही मन, एक और सवाल!
और कोई जवाब नहीं, हमेशा की तरह!
चांदनी की वो किरण, अब साथ छोड़ने लगी! धुंध, गहरी होने लगी! स्याह! और घनी! और स्याह! अब दिल, घबराया! अब हुआ एहसास, अकेले होने का! पहले तो जिस्मानी तौर पर अकेली थी, अब रूह भी अकेली होने लगी!
ये सब? है क्या? मैं हूँ कहाँ? कौन लाया? और क्या ये, हक़ीक़त है? ये है क्या?
बेशुमार सवाल, और जवाब सिफ़र!
जैसे, एक भरी-पूरी किताब, और सफ़ों पर कोई रौशनाई नहीं!
खाली! कोरे सफ़े!
फिर से आवाज़ हुई! कोई परिंदा उड़ा! ये कबूतर था! वो डरी नहीं! आखिर में, कोई और तो था संग उसके! उसने आसपास देखा! एक जगह, सामने, बायीं तरफ, लगा, कोई है! लेकिन कौन? बढ़ चली आगे! पाँव फिर से सर्द होने लगे! धंध के पर्दे, फिर से जिस्म से चिपक कर, कसने लगे बदन को!
तेज क़दमों से, आगे बढ़ी! और आगे! और अचानक!
अचानक से रुकी वो! रुकी!
ये क्या? मैं कहाँ हूँ? ज़मीन कहाँ है इसके आगे?
घबरा गयी वो! इस बार, सहम गयी बुरी तरह से! न रूकती, तो नीचे गिर जाती! आगे, खायी थी! और खायी में, था घुप्प अँधेरा! बस, इक्का-दुक्का बार, वो पानी, वो ख़ौफ़नाक काला पानी, पहचाना जाता था, जब चाँद का अक्स उस पर पड़ता तो! पीछे हटी वो! लौटी पीछे!
ये क्या?
वो गुंबद?
कहाँ गयी वो गुंबद?
वो रास्ते? कहाँ गए?
वो खंडहर? कहाँ गया?
मैं हूँ कहाँ?
कोई तो बताये? कहाँ हूँ मैं?
और फिर क़दमों की आवाज़!
आ रही थी दूर से! जैसे, कोई चला आ रहा हो उसकी तरफ! बदन झरमराया उसका! आँखें और खुली, पुतलियाँ, और बड़ी हुईं! अँधेरे को चीरती उसकी आँखें, लग गयी उस आहट पर! और तभी!
तभी आहट बंद!
कोई रुक गया था!
आगे न बढ़ रहा था वो!
कौन है? कौन है?
मन में ढेर से सवाल!
दिल की धड़कन, हद तोड़े!
साँसें, साथ छोड़ें!
वो चली, आहिस्ता से, धीरे धीरे, उस जगह, जहां वो आहट बंद हुई थी! कौन है वहाँ? कौन? आगे बढ़ी! तो कोई पीछे हटा! आहट आई! वो आगे बढ़े और कोई पीछे हटे!
"कौन है? रुको?" चीखी वो!
सन्नाटा! घोर सन्नाटा!
आवाज़, तो बस, उस धुंध की!
धुंध की आवाज़?
हाँ! हाँ! धुंध की आवाज़!
जब अकेलापन हो, तब सुनाई देगी वो आवाज़!
और इस वक़्त तो, सामिया को, वो आवाज़, साफ़ सुनाई देने लगी थी!
"रुको?" फिर से बोली! आगे बढ़ी! और कोई पीछे हटा!
"सुनो? रुको?" फिर से बोली वो, इस बार, सर्द से लहजे में!
आगे बढ़ी! और इस बार!
इस बार, कोई पीछे न हटा! जैसे, रुक गया था वो!
क़दम, आगे बढ़ चले उसके, बस में होता, तो भाग ही लेती! आगे बढ़ी, मन में सवाल लिया! ढेर से सवाल! सवाल, जो घूम रहे थे उसके इर्द-गिर्द!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो आगे बढ़ती रही, मन में, कुछ सवाल लिए! वो जगह, वो माहौल, वो एहसास, वैसी धुंध, वो गुंबद! कभी न देखी थी उसने, कभी नहीं! अपनी ज़िंदगी में तो कभी नहीं! और अगर कहा जाए कि कभी कल्पना में भी नहीं, न ही किसी ख़ास किताब में, कुछ तस्वीरों में, तो वो भी नहीं! सर्द हवा का झोंका आया! काँधे पर पड़े बाल, झूल गए! होंठों को गिरफ्त में लेते हुए, गरदन तक जा पहुंचे! हाथ खोले अपने, और अपने बाल ठीक किये, आधे आधे, अपने दोनों कंधों पर रख लिए, होंठों की फलकों में क़ैद, कुछ बाल, अपनी उनलगी और अंगूठे से पकड़ कर, निकाल लिए! और फिर से आगे बढ़ी वो! पूरे बदन में, रोएँ खड़े थे उसके! गरदन से छूते बाल, ऐसे लगते थे जैसे बर्फ की फुहारें पड़ रही हों! वो आगे चली, और सामने, स्याह अँधेरे में कुछ आहट हुई!
"सुनो?" बोली वो,
किसी ने सुना?
हाँ, शायद, सुना! वो आहट, ज़रा सी कमज़ोर हुई, ज़रा सी, लगता था कि जैसे कोई पीछे हुआ हो!
"मेरी मदद करो?" वो बोली,
अपने दोनों हाथ, अपने छाती में धँसाते हुए! और रुकी!
"कोई है वहाँ?" पूछा उसने,
कोई जवाब नहीं आया!
एक आवाज़ भी नहीं! नहीं! कोई आवाज़ नहीं!
और जो आ रही थी, आवाज़, वो सामिया की साँसों की आवाज़ ही थी!
कसमसा उठी थी वो अब! और अगले ही लम्हे, भाग पड़ी! वहीँ! उसकी आहट के पास!
और फिर!
फिर, आँखें खुल गयीं उसकी! आसपास हड़बड़ा के देखा उसने! माहौल बदल गया था! न सर्द एहसास था, और न वो धुंध ही! समझ गयी वो सारा माजरा! ये एक ख़्वाब था! एक ख़्वाब! कभी कभी, कोई कि ख़्वाब, कितना हक़ीक़त बन जाया करता है, ये मालूम चला था उसे! घड़ी देखी उसने, सुबह के पांच बजने को थे! बाहर, घर में, हलचल, रोज़मर्रा की, होने लगी थी! वो उठ बैठी! एक अंगड़ाई ली! और अपने दोनों हाथ बांधे उसने! जैसे ही हाथ छुए बाजुओं से, रोएँ खड़े थे उसके! शायद, सुबह की खुमारी थी वो!
सामिया, वक़ालत की पढ़ाई आकर, अब प्रैक्टिस कर रही थी, अपने पिता जी के यहां, उसके पिता जी, एक रसूखदार और मु'अ'ज़्ज़िज़ वक़ील थे! बेहद ईमानदार और बेहद ही सुहृदय! गरीब-ओ-गुरबा के, मुफ्त में मुक़द्दमे लड़ा करते थे और जीतते भी थे! सामिया के दो भाई और थे, दोनों ही भाई, विदेश में पढ़ रहे थे, परिवार, समृद्ध था, सुसंस्कृत था! अज़हर साहब ने, कोई कोताही न बरती थी अपनी औलाद की परवरिश में! अव्वल दर्ज़े की पढ़ाई और इख़्लाक़ से नवाजा था उन्होंने! और उनके सिखाये हुए इख़्लाक़ उनकी औलाद में साफ़ दिखाई देते थे!
अब जहां तक बात है सामिया की, सामिया, बेहद सुंदर, सुसंस्कृत और खुले दिल वाली थी, किसी का दुःख न देखा जाता था उस से! जैसा बन पड़ता, जो बन पड़ता, मदद कर ही दिया करती थी! उसकी वक़ालत की पढ़ाई, चंद महीने पहले ही खत्म हुई थी, उसी के बाद से, अपने पिता के दफ्तर में, काम-काज संभालने लगी थी, प्रैक्टिस करने लगी थी! नए विचारों वाली तो थी, वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी रखती थी वो अपने दिमाग में, लेकिन उस रात जो सपना आया था उसे, उस सपने ने, जैसे उसे सोचने को मज़बूर कर दिया था!
कौन सी जगह थी वो? क्या वो कोई पहाड़ी थी? क्या वो कोई टीला था? और फिर वो वहाँ थी ही क्यों? सुना है, सपनों में भविष्य की झलक दिखाई देती है, तो इस वजह से देखा जाए, तो वो सपना अच्छा तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, उस सर्द रात में, उस धुंध के गुबार में, वो अकेली थी, एकदम अकेली! थे कोई अगर सांस वाले, तो बस वो कबूतर! और कोई नहीं! और वो आहट? वो आहट किसकी थी? कौन था वहाँ? कोई तो था ही न? वो, उसके क़दमों की आवाज़? और हाँ, उसका पीछे हटना? वो क्या था? कौन था वो?
"लो सामिया!" एक आवाज़ आई उसे, टूटी उसकी तन्द्रा, आई बाहर उस से,
सामिया, पिता जी के दफ्तर में, एक छोटे से कमरे में बैठी थी, सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए, उमा ने कहा था उसे, शिकंजी लायी थी वो!
"शुक्रिया!" बोली सामिया,
उमा, अज़हर साहब के एक अज़ीज़ दोस्त की बेटी थी, वो एक साल पहले से प्रैक्टिस कर रही थी अज़हर साहब के यहां!
"क्या बात है? तबियत ठीक नहीं?" पूछा उमा ने,
चेहरे पर आये हुए, कुछ अलग ही सोच के भाव, पढ़ लिए थे उमा ने, सामिया के चेहरे पर!
"नहीं, ठीक है तबियत तो!" बोली सामिया!
"लो, ये शिकंजी लो, गर्म हो जायेगी नहीं तो!" बोली उमा,
"हाँ, लेती हूँ" बोली सामिया,
उठाया गिलास, उसमे पड़ा स्ट्रॉ निकाल कर, कूड़ेदानी में डाल दिया, और लगा लिया गिलास होंठों से!
"आज तो गर्मी बहुत है!" बोली उमा,
सुना नहीं सामिया ने, होठों से हटाये गिलास में, पानी में बन कर फूट रहे बुलबुलों को देख रही थी वो! उमा ने कनखियों से देखा था उसे!
"हाँ, गर्मी तो है" बोली नज़रें मिलाते हुए सामिया उस से!
उमा ने शिकंजी खत्म कर ली, गिलास रख दिया एक जगह, और कुछ फाइल्स उठा, चली गयी बाहर! और सामिया, धीरे धीरे शिकंजी पीती रही!
और तभी, पंखों की फड़फड़ाहट सी गूणी, कमरे में, एक फाख्ता घुस आया था! अलमारी पर बैठ, गरदन उचका उचका, देखे जा रहा था, जैसे सामिया ही वो केंद्र हो, उसकी नज़रों का! गिलास खत्म किया अपना, रखा मेज़ पर, और देखा फ़ाख्ते को!
हाँ! यही तो था शायद कल! उस सपने में! हाँ, ऐसा ही फाख्ता था वो! और तभी, फिर से एक और फाख्ता अंदर आया! ठीक वहीँ बैठा, जहां पहला वाला बैठा था! तभी कमरे में, गिलास लेने आया वो शिकंजी वाले, एक लड़का, दोनों फ़ाख्ते चौंके, और फुर्र से उड़ गए बाहर! लड़के ने गिलास उठाये और चला गया बाहर, अपनी घड़ी पर नज़र डाली सामिया ने, दो बजकर दस मिनट हुए थे दोपहर के, अब उसको एक अदालत में जाना था, कुछ कागज़ निकलवाने थे, वो उठी, अपने कपड़े ठीक किये, और एक फाइल उठा, चल दी बाहर, अदालत जाने के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो शाम का वक़्त था, अपने घर की छत पर बने, एक कमरे में, आराम से पाँव पसारे बैठी थी सामिया, कमरे में, एक्वेरियम रखा था, जिसमे, छोटी छोटी रंग बिरंगी मछलियाँ तैर रही थीं, कुछ सुनहरी, कुछ काली और कुछ एकदम पीली! एक छोटा सा समुद्र क़ैद था उस एक्वेरियम में, मूंगा-चट्टान का रूप दिया गया था उसे! उसमे एक गोताखोर भी था, जो अपनी स्कूबा-डाइविंग की पोशाक में था और उसके मुंह पर लगे पाइप से, ऑक्सीजन, बुलबुलों के रूप में पानी में मिल रही थी! वो गोताखोर भी, ऊपर-नीचे होता था उस समय! शानदार एक्वेरियम था वो! उसमे चांदी के रंग की, चार मछलियाँ थीं, ये मछलियाँ, सामिया को बेहद पसंद थीं! वो उन्हीं को घूर रही थी, उठी वो, मछलियों का चारा उठाया, उस एक्वेरियम का ढक्कन खोला और चारा डालने लगी, आहिस्ता आहिस्ता! चारे को देख, मछलियों में भगदड़ मच गयी! एक एक दाना मुंह में पकड़े, भाग लेतीं दूर! ताकि कोई छीन न सके उनका दाना! ये देखना, सामिया को बेहद पसंद था! पसंद इसलिए, की ये नन्हीं जानें उसी के ऊपर तो पल रही थीं! वो मुस्कुराती और चारा डालती जाती! चारा डाला और वापिस आ बैठी अपनी कुर्सी पर! खिड़की से बाहर झाँका, शाम का धुंधलका छाने लगा था, संध्या-यौवना, अपना घूंघट ओढ़ चली थी! अब तो रात्रि-देवी का आगमन शेष था! जब ये दो वक़्त मिलते हैं, तो इंसानी ज़हन में एक बदलाव होता है! उसके विचारों को ठोस आधार मिलता है, वो विचार, जो दिन-भर उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं दिमाग के मैदान में, अब शांत हो, निर्णय-कूप में कूद कर, डूबने लग जाते हैं! कुछ ऐसा ही था सामिया के साथ! कुर्सी की पुश्त से अपनी कमर सताए, उस कुर्सी की दोनों बाजुओं को अपने हतहों की गिरफ्त में लिए हुए, चंद लम्हों के लिए, अपनी आँखें बंद कर ली थीं उसने!
कुछ लम्हे, आगे खिसके!
कुछ और! और, फिर कुछ और...........
कुछ सोच, माथे पर शिकन उभरीं! फिर, पहले जैसा हो गया माथा! एक लम्बी सी सांस! और!
और फिर एक फड़फड़ाहट!
आँखें खुल गयीं! और नज़रें ढूंढने लगीं उस फड़फड़ाहट का वाइज़!
एक फाख्ता! बेहद सुंदर! गुलाबी आँखें लिए! अपनी मुड़ी हुई चोंच और उसको हिलाते हुए! अपनी गरदन उचकाते हुए! गरदन उचकाता और पाँव उठाता अपना! और फिर, अपनी ही ज़ुबान! अपनी ज़ुबान में वही घुग्घी की सी आवाज़! एक बार! दो बार! बार बार!
कितनी मीठी थी वो आवाज़! उस सुंदर से फ़ाख्ते की आवाज़! उसकी वो नज़ाक़त से भरी आवाज़! होंठों के किनारे फैले उसके! भरे हुए गालों पर, लालिमा उभर आई! अपनी ठुड्डी के नीचे अपना हाथ रखा उसने, सहारा देते हुए चेहरे को! और आँखें बंद कीं उसने, बंद नहीं कीं! खुद बंद हो गयीं! वो खो गयी उसकी आवाज़ में! खो गयी, जैसे, सारा बदन झूम उठा हो उसका! रोम रोम में जैसे, एक नशा भर गया हो! कुछ लम्हें ऐसे ही!
तभी यकायक, फड़फड़ाहट गूंजी! आँखें खुलीं, फाख्ता, उड़ कर बाहर चला गया! आवाज़ खो गयी! सामने, रशीदा खड़ी थी, उनकी नौकरानी, चाय ले आई थी वो, इसी वजह से वो फाख्ता उड़ गया था!
"चाय!" बोली रशीदा,
हाथ के इशारे से, मेज़ पर रखने को कहा उसने, रशीदा ने चाय रखी, कुछ कागज़ और अखबार उठाये, और चली गयी बाहर, उठी वो सामिया, नंगे पाँव ही, बाहर की तरफ चली, कुछ ढूँढा उसने, चारों तरफ देखा, लेकिन वो फाख्ता, न था वहाँ! गौर से देखा, न! कहीं नहीं था! वापिस हुई! बैठी कुर्सी पर, और उठायी चाय! लगाया कप होंठों से, और लिया एक छोटा सा घूँट!
फ़ोन बजा, उठाया, एक सहेली का था, बातें हुईं उस से, लेकिन आज, वो एक नहीं, दो सामिया थीं! एक सामिया, अपने आप में उलझी थी, और दूसरी, दूसरी ने अपनी सहेली से बात की थी! तो वो दो क्यों हुई? कोई वजह?
हाँ! वजह! वो फाख्ता! फाख्ता, जो अभी उड़कर बाहर चला गया था! कल वही तो था उसके संग! उस बियाबान में, धुंध में, उस गुंबद के पास! वही तो था!
गुंबद?
धुंध?
बदन के रोएँ खड़े हो गए! चाय, अब गर्म न लगे, जल्दी जल्दी गटक गयी! अपने बाजू देखे, रोये, हल्के हल्के, सुनहरे बालों को कसे हुए! रोएँ! खड़े हो चले थे! और फिर एक हवा का झोंका! रोज ही तो आता है? नया क्या? लेकिन नहीं! ये खोंका, ये झोंका तो वही था! सर्द! रात की रानी की ख़ुश्बू लिए! सर्द सा! जैसे उसके बदन से लिपटने को आया था! सोख लेना चाहता था उसके बदन की आतिश! हाथ देखे, पोर की तरफ से, जैसे ठंडे पानी में, हाथों की उंगलियां, गड्ढे बना लेती हैं, लकीरों जैसे, पपोटे बना लेती हैं, ऐसी हो गयीं थीं उंगलियां!
वो खड़ी हुई! और चली बाहर!
रुकी! मौसम गर्म! लेकिन बदन? सर्द!
हाँ, सर्द! रोएँ अब भी खड़े थे!
उसने, बाजू बंद किये! मोड़ लिए हाथ, भींच लिए छाती में! देखा अपने हाथों को!
और फिर एक आवाज़!
वही आवाज़! पंखों की फड़फड़ाहट! वही फाख्ता! दूर, दीवार की मुंडेर पर, बैठा हुआ, देख रहा था सामिया को!
ऐसा कैसे हो सकता है?
गर्म मौसम में, ऐसा सर्द एहसास क्यों?
क्या कोई इंसान, कोई भी इंसान,
जीता है ऐसा सपना?
नहीं! तो फिर, ये क्या है?
नज़र पड़ी फ़ाख्ते पर! फाख्ता, बेहद सुंदर सा, देख रहा था सामिया को!
बदन में आई झुरझुरी! लगा, सर्द दिसंबर की कोई रात है, शाम कोई! शाम और रात का वक़्त! जब सर्दी अपने हुस्न को और निखारती है! ठीक वैसा ही वक़्त! आँखें बंद हुईं! पाँव, जमने लगे! ज़मीन, गीली लगने लगी! कुछ लम्हे रुके, वक़्त ठहर गया!
कुछ लम्हे.........
कुछ.........
"सामिया?" आई एक आवाज़!
किसी के क़दमों की आवाज़!
आँखें न खुलीं सामिया की!
और एक आवाज़! पंख फड़फड़ाने की आवाज़!
अब खुलीं आँखें! सामने, उसकी चचेरी बहन खड़ी थी!
"यहां क्या कर रही है? छत गरम नहीं लग रही? दी भर सूरज से तपी है?" बोली हिना,
सच में! पाँव तप गए थे सामिया के! गरम हो चले थे! लेकिन? कुछ लम्हे पहले?
"आ? कमरे में चल?" बोली बहन उसकी,
चल पड़ी सामिया! भौंहों में आये पसीने, टप से, गालों पर गिर पड़े! साफ़ किये हाथो से! और बैठ गयी कुर्सी पर!
"क्यों खड़ी थी वहाँ?" पूछा बहन ने,
क्यों खड़ी थी! क्या बताये! उसे खुद नहीं पता!
"कुछ देख रही थी क्या? ऐसी गर्मी में, कैसे खड़ी थी तू? चप्पल भी नहीं?" बोली हिना,
बाहर झाँका उसने, वो मुंडेर देखी, अब न था वो फाख्ता वहाँ!
"पानी लाऊँ?" पूछा हिना ने,
"अ...हाँ!" बोली सामिया!
"लाती हूँ" बोली हिना, और चली बाहर,
वो क्यों खड़ी थी?
क्या हुआ था?
वो सर्द हवा का झोंका, क्या था?
उसे सर्दी लग रही थी, क्यों?
उसके बदन के रोये?
वो कैसे महसूस कर रहे थे सर्दी?
क्या ऐसा होता है?
क्या कोई जीता है अपना सपना?
फिर?
क्यों खड़ी थी वो?
"ले!" बोली हिना, पानी डालते हुए बोतल से, गिलास में, दे दिया पानी सामिया को!
पानी लिया उसने, गिलास पकड़ा, ठंडा गिलास! और लगाया गिलास मुंह से, फिर पिया पानी!


   
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गले में ठंडा पानी उतरा तो कुछ एहसास लौटा! उस सर्द रात का! उस अँधेरे का! उस सन्नाटे का! उस धुंध के पर्दों का! उस ठंडे पानी का! वो सर्द एहसास, सहसा याद हो उठा फिर से! पानी कब खत्म हुआ, पता ही नहीं चला! हिना, टकटकी लगाये गिलास में खत्म होते पानी को देखे जा रही थी!
"ले और ले ले!" बोली हिना,
गिलास कर दिया उसकी तरफ, और हिना ने, गिलास, फिर से भर दिया! गिलास, हल्के हल्के, भारी होता चला गया, कस गयीं हाथों की पेशियाँ इस से सामिया की! और लगाया उसने गिलास फिर से मुंह से, गिलास का पानी, फिर से खत्म होना शुरू हुआ! हिना फिर से देखे जाए!
"बहुत प्यास लगी थी तुझे तो?" पूछा हिना ने!
हल्की सी मुस्कुराई सामिया, कितना मुश्किल होता है न, एक वक़्त में दो जगह होना! यही तो हो रहा था सामिया के साथ!
रख दिया गिलास मेज़ पर, उठा लिया हिना ने, बोतल उठायी, और बोतल से पानी पिया हिना ने, लगा दिया ढक्कन फिर से,
"नीचे चल रही है?" पूछा हिना ने,
"अभी, बाद में" हल्के से बोली सामिया,
"ठीक है" बोली हिना, और बोतल गिलास उठा, चली गयी बाहर, अब बाहर अँधेरा छाने लगा था, वो उठी, और चली बाहर, जला दी बत्ती बाहर की, छत पूरी, दूधिया रौशनी से नहा गयी, आ गयी वापिस कमरे में, फिर से बैठ गयी कुर्सी पर, टेक लगाई और एक हतः में, अपना चेहरा रख लिया!
और फिर से वहीँ जा पहुंची, उसी सर्द रात! वो, सर्द हवा के झोंके, वो गुंबद, गुंबद पर नज़रें टिक गयीं, वो नीले रंग के पत्थर से! वो गुंबद में हुई नक्काशी, वो कमल और सुराही की नक्काशी! ऐसी सुंदर जगह, कभी न देखी थी उसने! बस, खड़ी ही रही, रात की रानी की मनमोहक ख़ुश्बू नथुनों में भरती चली गयी! उसने नज़रें दौड़ायीं इधर उधर! कोई नहीं था!
हाँ, उसने गौर किया, धुंध छंटने लगी थी, अब कुछ कुछ साफ़ दीखने लगा था, शायद, शायद, ये सुबह की आमद थी, इसका मतलब हुआ की, वो सुबह से थोड़ा पहले ही पहुंची थी वहाँ! क़दम ज़रा से आगे बढ़े, अब पानी नहीं था, जैसे सूख गया था वो, हाँ, फर्श ठंडा था, फर्श चौकोर पत्थरों से बना था, बीच बीच में, नीले रंग के अष्टकोण जैसे सुंदर पत्थर लगे थे उसमे! सुबह कुछ और खिली! धुंध छँटती चली जा रही थी! उजाला, होने लगा था, दूर उसकी नज़र पड़ी, हरियाली थी, चारों तरफ! और दूर ही, एक पहाड़ी पर, चार बड़ी सी मीनारें दीख रही थीं, वो जैसे आसमान से बातें कर रही थीं, उनके शीर्ष जैसे बादलों में छिपे थे! वो जगह, जहाँ वो थी, बहुत ऊंचाई पर थी! उसकी नज़र, अपने कपड़ों पर पड़ी! सुनहरे रंग के चमकदार कपड़े थे वो! उनमे पीले रंग के फूल चिपके थे, ये फूल, सोने की तारों से बने लगते थे, छाती पर, चांदी के रंग का कपड़ा था, जिसमे, नीले रत्न जड़े थे, बेहद सुंदर! छोटे छोटे! हाथों में, कंगन थे, रत्नों से जड़े हुए! हर ऊँगली पर, हिना लगी थी, महीन सी, बालों जैसी लकीरें बनी थीं, जैसे, किसी ने, तसल्ली से उनको सजाया हो उसके हाथों पर! वो आगे बढ़ी! वहीं के लिए, जहां से कल रात, एक आहट आई थी! वो चली आगे, तो नरम, मखमली घास ने, जो रंग में सुनहरी-सफेद सी थी, क़दम चूम लिए उसके! उसकी नज़र अपने पांवों पर पड़ी! पांवों पर, हिना सजी थी, गोल-गोल से वृत्त बने थे, एक एक वृत्त में, अनगिनत वृत्त बने थे! ऐसी सजावट उसने पहले कहीं नहीं देखी थी! वो आगे चली, जैसे आगे चली, एक क्यारी पड़ी, क्यारी के दोनों और सफेद रंग के बड़े बड़े फूल लगे थे, उनके बीच का मांसल भाग, गाढ़े पीले रंग का था, एक रूपये के सिक्के के बराबर, फूल शफ़्फ़ाफ़ सफेद थे, उनकी ख़ुश्बू, ख़ुश्बू ऐसी जैसे जन्नत से आई हो! ऐसी ख़ुश्बू उसने, पहले कभी नहीं सूंघी थी! वो आगे चली! आगे, आगे चली तो सीढ़ियां पड़ीं! सीढ़ियां पीले और नीले रंग के पत्थरों से बनी थीं! अब तक, उजाला हो चुका था, ज़मीन का वो टुकड़ा, जन्नत का सा शानदार टुकड़ा लगता था! ऐसी जगह, ऐसी जगह का तो वो तस्सवुर भी नहीं कर सकती थी और न ही कभी किया था!
वो सीढ़ियों पर खड़ी थी! हैरतज़दा! अपनी ही सोच में क़ैद! सवालों के बेलों में लिपटी हुई!
उसने पीछे देखा, हवा का एक बेहद प्यार सा, झोंका उसके बदन को चूम गया! न चाहते हुए भी, होंठों पर मुस्कराहट आ ही गयी! पीछे देखा उसने, तो फूलों के उस बाग़ ने उसका मन मोह लिया!
"ये कौन सी जगह है?" अपने आप से पूछा उसने!
अब जवाब कौन दे!
"कोई तो बताये? ये कौन सी जगह है?" सवाल, और फिर सवाल!
पीछे से, पंखों की फड़फड़ाहट की आवाज़ आई! वो चौंकी! एक पौधे की शाख पर, एक फाख्ता झूल रहा था! फाख्ता! सफेद रंग का! दूधिया सफेद! उसके गले में पड़ा काला डोरा, सुनहरी रंग का था, जिसको, एक काले रंग की डोरी ने, कस रखा था! उसकी आँखें, गुलाबी, और चोंच हरे रंग की थी! पंजे, सफेद! बेहद सुंदर! ऐसा फाख्ता उसने कभी नहीं देखा था! होंठों पर मुस्कुराहट फ़ैल गयी! और वो फाख्ता, हवा से झूलती हुई शाख पर, झूलता रहा!
वो आगे बढ़ी! उस फ़ाख्ते के करीब जाने को! फिर रुक गयी! कहीं, उड़ ही न जाए! हवा का झोंका आया, और गर्दन के पिछले भाग को, चूम कर चला गया! उसने पीछे देखा! नज़रें, ढूंढने लगीं कुछ!
"सामिया?" आवाज़ आई एक!
सामिया, चेहरे को हाथ में टिकाये, बैठी थी, आँखें बंद किये!
"सामिया? सो रही है क्या?" आवाज़ फिर से आई!
अब खुलीं आँखें! हड़बड़ाहट में सामने देखा!
वो बाग़? वो फूल? वो फाख्ता? वो हवा के झोंके? कहाँ गए?
"बेटी? सो गयी थी क्या?" आई आवाज़!
निकली अपनी नीम-बेहोशी से! हुए होश क़ाबिज़!
ये माँ थीं, वही आई थीं ऊपर! सर पर हाथ फिराया उसके!
"क्या बात है?" माँ ने पूछा,
"कोई बात नहीं माँ" बोली धीरे से, गला खुश्क हो गया था उसका!
"बैठे बैठे ही सो गयी?" पूछा माँ ने,
"नहीं तो माँ?" बोली सामिया!
"आँखें बंद! हाथ में चेहरा थामे?" पूछा माँ ने,
"वो ऐसे ही!" बोली सामिया!
"चल, नीचे चल, खाना तैयार है!" बोली माँ,
"चलो!" बोली सामिया,
नीचे ले आई माँ उसे! आई और बैठ गयी, फिर उठी, हाथ-मुंह धोये, पोंछे और फिर खाना खाया, खाना खाने के बाद, चली अपने कमरे में, कुछ फाइल्स संभाल कर रखीं, फ़ोन बजा, किसी सहेली का था, बातें हैं उस से, और फिर चला लिया टी.वी. बदले चैनल्स, कुछ अच्छा न लगा, कर दिया बंद! जा लेटी बिस्तर पर! छत को घूरा! तो गुंबद याद आई! वो नक्काशी! वो सजावट! वो नीला रंग! और फिर पूरा नज़ारा आँखों ही आँखों में तैर गया!
"कुआँ सी जगह है ये?" फिर से वही सवाल!
हालांकि, अभी तक इसका जवाब न मिला था, लेकिन सवाल ज़िंदा था और मायने भी रखता था!
वो जा पहुंची थी उस ज़मीन के टुकड़े में!
मित्रगण!
ऐसा ही होता है! ये इंसान का ज़हन है ही ऐसा! आसान और सुकून देने वाली हर शय को अपना बना लेना चाहता है! अब वो शय चाहे पैसा हो, चाहे इज़्ज़त, चाहे हुस्न और चाहे कोई शख्स! यहां सामिया, उस ज़मीन से जैसे मुहब्बत कर बैठी थी! वो भी तब, जब उस जगह का उसने कभी तस्सवुर भी न किया था! और जब किया भी था, तो महज़ ख़्वाब में! हक़ीक़त की ज़िंदगी में तो कभी नहीं, कोई सवाल ही नहीं! अब कहा जाए, तो उसके वो सवाल बेमायनी तो हरगिज़ नहीं! वो जानना चाहती थी की वो जगह कौन सी है? और उसको कौन ले कर आया उस जन्नत के टुकड़े में! ये इंसानी फ़ितरत है! सवाल खुद ही पैदा करना, और उनके जवाब ढूंढना! लेकिन, वहाँ कौन था जो जवाब देता?
कोई था?
हाँ! याद है न वो आहट!
कोई तो था! लेकिन फिर से सवाल एक, और अहम भी,
की वो आया क्यों नहीं सामने? सामने, उस सामिया के?
नहीं अाना था सामने, तो उसको वो एहसास करवाया ही क्यों?
अब ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब, हर कोई जानना चाहेगा! गाहे-बगाहे कुछ नहीं हुआ करता! आप आजमा लें, कभी कुछ नहीं होता! उसकी कुछ वजूहात कुआ करती हैं! सवाल दिमाग में पैदा होते हैं, और उनके जवाब, कौन ढूंढता है? दिमाग ही!
तो अब सामिया, बार बार, उस जगह के बारे में ही सोच रही थी! लग सकता है सभी को, कि ये कोई जिन्नाती-चाल है! नहीं! ये जिन्नाती चाल नहीं है!
तो फिर क्या है?
इसका भी पता चलेगा, होगा खुलासा! खुलासा, खुलासा तो सामिया के लिए इस वक़्त, सबसे ज़रूरी है! मानते हैं न आप?


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब रात का वक़्त था! रात, जो अब गहराने को थी, जज़्ब कर लेने को थी! आग़ोश में भर लेने को थी सामिया को! और सामिया, अपने उस बिस्तर पर, सीधी लेटी, छत को घूरे जा रही थी! अब देखने वाले को तो यही लगेगा कि उसकी आँखों और उस छत के दरम्यान और कुछ न था! उसकी नज़रें, सीधे छत से ही लगी थीं! लेकिन! उसकी आँखों और छत के दरम्यान, बहुत कुछ घट रहा था! फूल खिले हुए थे, सफेद रंग के! सुनहरी-सफेद घास, उसके कदमबोसी को तैयार थी! सर्द हवा के झोंके, बहे जा रहे थे! वो जन्नत का टुकड़ा, एक अलग ही उजाले में, नहा रहा था! दूर पहाड़ियों पर, धूप अपनी चादर फैलाये हुए थी, और जो उन पहाड़ियों के बदन के हिस्से, जो उस चादर में न छिप सके थे, कुम्हलाते हुए से, अंगड़ाइयां भर रहे थे! वो चार मीनारें, जो सफेद बादलों में छिपी थीं, अब उनका नीला और पीला रंग, फैला रही थीं! इतना सबकुछ चल रहा था उसकी आँखों और उस छत के बीच! अपलक! एकटक! नीम-बेहोश हो जैसे!
सहसा, सीधे पाँव के मध्य, किसी ने जैसे अपनी ऊँगली से सहलाया हो उसे! उसने पाँव उठाया, गुदगुदी का सा एहसास हुआ! शायद, चादर का कोई कोना, उड़ कर छू गया था उसे, उस तेज चलते हुए पंखें की हवा से! नज़र हटीं, वो जन्नत का टुकड़ा, छिप गया कहीं! वो उठ बैठी! पाँव देखा, हाँ, शायद, चादर ने ही छुआ था उसे! बिस्तर पर ऊपर बैठी वो, कमर, लगाई दीवार से, तकिया रख लिया गोद में, अब दोनों कोहनियां टिका दीं उस पर, और अपने हाथों में, अपना चेहरा थाम लिया! उसे, ख़ुश्बू आई, ख़ुश्बू, ठीक वैसी ही, वैसी, जैस एउ जन्नत के टुकड़े में खिले फूलों से आती थीं! लेकिन ये आ कहाँ से रही थी, उसने चेहरा हटाया, ख़ुश्बू, हट गयी, पता नहीं, शायद, सोच में से आई हो! फिर से चेहरा थामा उसने! ख़ुश्बू, फिर से उठी! उसने फिर से चेहरा उठाया, और अपने हाथ सूँघे! सीधे हाथ की उँगलियों से वो ख़ुश्बू आ रही थी! आँखें बंद ही हो जातीं! लेकिन ये ख़ुश्बू, यहां कैसे? अचानक से याद आया! पाँव! जैसे पाँव छुआ था उसका किसी ने! उसने तभी पाँव उठाया, अपने उलटे हाथ से, वहीँ छुआ, छुआ और हाथ सूंघा! वही ख़ुश्बू! इस दफा तो ख़ुश्बू, भभक उठी! आँखें बंद हो गयीं उसकी! कमर दीवार से जा लगी! और सर, हाथों में टिक गया!
अँधेरा! स्याह अँधेरा! आँखों की पलकों के भीतर, स्याह अँधेरा!
और तभी, जैसे उसका बदन हल्का हुआ! हवा की तरह से हल्का! और बह चला, किसी अब्र के टुकड़े की तरह, हवा के संग संग!
जा रुकी! जा रुकी एक सुहानी सी जगह पर! एक झील का किनारा! सुनहरे कण थे उस रेत के! ठंडे कण! वो बैठी हुई थी, झील को निहारते हुए! पानी, ऐसा साफ़, ऐसा साफ़ कि कोई रंग अपना वजूद ढूंढ ही नहीं सकता था उसमे! उसने आसपास देखा! ऐसी सुंदरता! लेकिन? फिर वही सवाल! ये कौन सी जगह है? क्या ये हक़ीक़त है? क्या इस ज़मीन पर, ऐसी भी कोई जगह है? अगर है, तो कहाँ? और? और?
उसे लाया कौन यहां?
वो कैसे आई यहां?
कौन लाया? कौन है वो?
"सामिया!" एक आवाज़ आई!
एक सुरीली सी, मर्दाना आवाज़!
उसने अपने चारों तरफ देखा! तेजी से घूमी वो!
लेकिन! कोई नहीं था वहाँ!
"कौन है? किसने आवाज़ दी मुझे?" निकला मुंह से उसके, बरबस ही!
कोई नहीं था वहाँ! कोई भी तो नहीं! वो चली आगे! आगे, जहां से आवाज़ आई थी उसे!
"सामिया!" फिर से आवाज़ गूंजी!
वो पीछे घूमी! पश्चिम का सूरजा, चमक रहा था! और उस सूरज की रौशनी को ढके, अपने पीछे लिए सूरज को, कोई खड़ा था! कोई तो था!
वो ठिठक गयी!
रुक गयी वहीँ के वहीँ!
उसके क़दम, रेत के कणों में धंस गए! पाँव की उँगलियों के बीच, रेत उभर आई! जैसे, उसकी कदमबोसी की हो रेत के कणों ने!
और वो, वो जो खड़ा था वहाँ! उसके कपड़ों से लटकी कुछ फीतें, दक्खन दिशा में फ़ड़फ़ड़ा रही थीं! उसके बाल, उड़ रहे थे, लेकिन चमक ऐसी थी, कि उसका न चेहरा ही दीखता था और न पूरा बदन ही!
"आओ सामिया! मेरे पास आओ!" आई आवाज़!
डरी, सहमी सी, सामिया ठिठकी हुई, देख तो रही थी, लेकिन क़दम न साथ दे रहे थे!
"डरो नहीं सामिया! आओ! आओ मेरे पास!" बोला वो!
आँखें बंद कर लीं सामिया ने!
ज़ोर से साँसें चलने लगीं!
और जब आँखें खोलीं, तो वो अपने कमरे में थी!
सबकुछ खत्म! जैसे कोई सपना! कोई हसीन सपना!
और वो आवाज़! उसका सुरीलापन! और उसका बुलाना! वो सब याद हो चला!
जैसे, कोरे सफे पर, कुछ उकेर दिया हो! उकेर, हाँ, उभरा हुआ! जिसे सिर्फ, सामिया ही छू सकती थी! वो झट से खड़ी हुई! कानों में अभी तक, वो आवाज़ गूँज रही थी! वो! जिसमे खुद उसका नाम था! वो चली आगे, कमरा खोला, रसोई में गयी, पानी की बोतल ली, गिलास लिया, चली अपने कमरे में, बैठी, घड़ी देखी, पौने बारह बज चुके थे! गिलास में पानी डाला, बोतल रखी, लगाया गिलास होंठों से! और कुछ ही घूँटों में, पानी हलक़ से नीचे उतार लिया! रख दिया गिला मेज़ पर, बोतल भी रख दी, ढक्क्न बंद कर! फिर बैठी अपने बिस्तर पर! कानों में, वही आवाज़ गूँज रही थी!
कौन था वो?
और वो जगह?
वो जगह कौन सी थी?
कौन ले गया था उसे वहाँ?
वो कौन था?
उसे नाम कैसे पता मेरा?
वो झील?
वो सूरज की चमक?
और वो, वो, जो उसे बुला रहा था, कौन था?
शायद! शायद, खुद उसने ही रचा था वो ख्वाब! शायद!
लेकिन, वो उन जगहों पर कैसे पहुंची, जो उसने कभी देखी भी नहीं?
ये क्या माजरा है?
ये क्या कहानी है?
वो झील!
उसकी सुंदरता!
वो रंगहीन पानी!
वो ठंडे रेत के सुनहरी कण!
वो सब क्या है?
क्या ये सच है?
क्या ऐसा होता है?
फिर से वही सवाल!
क्या कोई अपना सपना जीता है?
ये क्या हो रहा है उसके साथ?
वो कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है?
और आज?
आज तो बुलाया था उसे किसी ने!
लेकिन?
वो है कौन?
कौन है वो?
लेट गयी यही सोचते सोचते! अब आँखें बंद न हों! होती भी कैसे! उसने जो देखा था अभी, वो कैसे भूल सकती थी! ऐसी खूबसूरत जगह! कहीं है क्या? इस ज़मीन पर? या ये महज़ एक ख़्वाब है?
अब डर लगे!
नहीं! काश ये ख़्वाब न हो!
हक़ीक़त ही हो!
हक़ीक़त?
नहीं नहीं! वो नहीं सोच सकती ऐसा कुछ भी!
हाँ, एक ख़्वाब! एक हसीन ख़्वाब! आ गयी होंठों पर एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब रात का वक़्त था! रात, जो अब गहराने को थी, जज़्ब कर लेने को थी! आग़ोश में भर लेने को थी सामिया को! और सामिया, अपने उस बिस्तर पर, सीधी लेटी, छत को घूरे जा रही थी! अब देखने वाले को तो यही लगेगा कि उसकी आँखों और उस छत के दरम्यान और कुछ न था! उसकी नज़रें, सीधे छत से ही लगी थीं! लेकिन! उसकी आँखों और छत के दरम्यान, बहुत कुछ घट रहा था! फूल खिले हुए थे, सफेद रंग के! सुनहरी-सफेद घास, उसके कदमबोसी को तैयार थी! सर्द हवा के झोंके, बहे जा रहे थे! वो जन्नत का टुकड़ा, एक अलग ही उजाले में, नहा रहा था! दूर पहाड़ियों पर, धूप अपनी चादर फैलाये हुए थी, और जो उन पहाड़ियों के बदन के हिस्से, जो उस चादर में न छिप सके थे, कुम्हलाते हुए से, अंगड़ाइयां भर रहे थे! वो चार मीनारें, जो सफेद बादलों में छिपी थीं, अब उनका नीला और पीला रंग, फैला रही थीं! इतना सबकुछ चल रहा था उसकी आँखों और उस छत के बीच! अपलक! एकटक! नीम-बेहोश हो जैसे!
सहसा, सीधे पाँव के मध्य, किसी ने जैसे अपनी ऊँगली से सहलाया हो उसे! उसने पाँव उठाया, गुदगुदी का सा एहसास हुआ! शायद, चादर का कोई कोना, उड़ कर छू गया था उसे, उस तेज चलते हुए पंखें की हवा से! नज़र हटीं, वो जन्नत का टुकड़ा, छिप गया कहीं! वो उठ बैठी! पाँव देखा, हाँ, शायद, चादर ने ही छुआ था उसे! बिस्तर पर ऊपर बैठी वो, कमर, लगाई दीवार से, तकिया रख लिया गोद में, अब दोनों कोहनियां टिका दीं उस पर, और अपने हाथों में, अपना चेहरा थाम लिया! उसे, ख़ुश्बू आई, ख़ुश्बू, ठीक वैसी ही, वैसी, जैस एउ जन्नत के टुकड़े में खिले फूलों से आती थीं! लेकिन ये आ कहाँ से रही थी, उसने चेहरा हटाया, ख़ुश्बू, हट गयी, पता नहीं, शायद, सोच में से आई हो! फिर से चेहरा थामा उसने! ख़ुश्बू, फिर से उठी! उसने फिर से चेहरा उठाया, और अपने हाथ सूँघे! सीधे हाथ की उँगलियों से वो ख़ुश्बू आ रही थी! आँखें बंद ही हो जातीं! लेकिन ये ख़ुश्बू, यहां कैसे? अचानक से याद आया! पाँव! जैसे पाँव छुआ था उसका किसी ने! उसने तभी पाँव उठाया, अपने उलटे हाथ से, वहीँ छुआ, छुआ और हाथ सूंघा! वही ख़ुश्बू! इस दफा तो ख़ुश्बू, भभक उठी! आँखें बंद हो गयीं उसकी! कमर दीवार से जा लगी! और सर, हाथों में टिक गया!
अँधेरा! स्याह अँधेरा! आँखों की पलकों के भीतर, स्याह अँधेरा!
और तभी, जैसे उसका बदन हल्का हुआ! हवा की तरह से हल्का! और बह चला, किसी अब्र के टुकड़े की तरह, हवा के संग संग!
जा रुकी! जा रुकी एक सुहानी सी जगह पर! एक झील का किनारा! सुनहरे कण थे उस रेत के! ठंडे कण! वो बैठी हुई थी, झील को निहारते हुए! पानी, ऐसा साफ़, ऐसा साफ़ कि कोई रंग अपना वजूद ढूंढ ही नहीं सकता था उसमे! उसने आसपास देखा! ऐसी सुंदरता! लेकिन? फिर वही सवाल! ये कौन सी जगह है? क्या ये हक़ीक़त है? क्या इस ज़मीन पर, ऐसी भी कोई जगह है? अगर है, तो कहाँ? और? और?
उसे लाया कौन यहां?
वो कैसे आई यहां?
कौन लाया? कौन है वो?
"सामिया!" एक आवाज़ आई!
एक सुरीली सी, मर्दाना आवाज़!
उसने अपने चारों तरफ देखा! तेजी से घूमी वो!
लेकिन! कोई नहीं था वहाँ!
"कौन है? किसने आवाज़ दी मुझे?" निकला मुंह से उसके, बरबस ही!
कोई नहीं था वहाँ! कोई भी तो नहीं! वो चली आगे! आगे, जहां से आवाज़ आई थी उसे!
"सामिया!" फिर से आवाज़ गूंजी!
वो पीछे घूमी! पश्चिम का सूरजा, चमक रहा था! और उस सूरज की रौशनी को ढके, अपने पीछे लिए सूरज को, कोई खड़ा था! कोई तो था!
वो ठिठक गयी!
रुक गयी वहीँ के वहीँ!
उसके क़दम, रेत के कणों में धंस गए! पाँव की उँगलियों के बीच, रेत उभर आई! जैसे, उसकी कदमबोसी की हो रेत के कणों ने!
और वो, वो जो खड़ा था वहाँ! उसके कपड़ों से लटकी कुछ फीतें, दक्खन दिशा में फ़ड़फ़ड़ा रही थीं! उसके बाल, उड़ रहे थे, लेकिन चमक ऐसी थी, कि उसका न चेहरा ही दीखता था और न पूरा बदन ही!
"आओ सामिया! मेरे पास आओ!" आई आवाज़!
डरी, सहमी सी, सामिया ठिठकी हुई, देख तो रही थी, लेकिन क़दम न साथ दे रहे थे!
"डरो नहीं सामिया! आओ! आओ मेरे पास!" बोला वो!
आँखें बंद कर लीं सामिया ने!
ज़ोर से साँसें चलने लगीं!
और जब आँखें खोलीं, तो वो अपने कमरे में थी!
सबकुछ खत्म! जैसे कोई सपना! कोई हसीन सपना!
और वो आवाज़! उसका सुरीलापन! और उसका बुलाना! वो सब याद हो चला!
जैसे, कोरे सफे पर, कुछ उकेर दिया हो! उकेर, हाँ, उभरा हुआ! जिसे सिर्फ, सामिया ही छू सकती थी! वो झट से खड़ी हुई! कानों में अभी तक, वो आवाज़ गूँज रही थी! वो! जिसमे खुद उसका नाम था! वो चली आगे, कमरा खोला, रसोई में गयी, पानी की बोतल ली, गिलास लिया, चली अपने कमरे में, बैठी, घड़ी देखी, पौने बारह बज चुके थे! गिलास में पानी डाला, बोतल रखी, लगाया गिलास होंठों से! और कुछ ही घूँटों में, पानी हलक़ से नीचे उतार लिया! रख दिया गिला मेज़ पर, बोतल भी रख दी, ढक्क्न बंद कर! फिर बैठी अपने बिस्तर पर! कानों में, वही आवाज़ गूँज रही थी!
कौन था वो?
और वो जगह?
वो जगह कौन सी थी?
कौन ले गया था उसे वहाँ?
वो कौन था?
उसे नाम कैसे पता मेरा?
वो झील?
वो सूरज की चमक?
और वो, वो, जो उसे बुला रहा था, कौन था?
शायद! शायद, खुद उसने ही रचा था वो ख्वाब! शायद!
लेकिन, वो उन जगहों पर कैसे पहुंची, जो उसने कभी देखी भी नहीं?
ये क्या माजरा है?
ये क्या कहानी है?
वो झील!
उसकी सुंदरता!
वो रंगहीन पानी!
वो ठंडे रेत के सुनहरी कण!
वो सब क्या है?
क्या ये सच है?
क्या ऐसा होता है?
फिर से वही सवाल!
क्या कोई अपना सपना जीता है?
ये क्या हो रहा है उसके साथ?
वो कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है?
और आज?
आज तो बुलाया था उसे किसी ने!
लेकिन?
वो है कौन?
कौन है वो?
लेट गयी यही सोचते सोचते! अब आँखें बंद न हों! होती भी कैसे! उसने जो देखा था अभी, वो कैसे भूल सकती थी! ऐसी खूबसूरत जगह! कहीं है क्या? इस ज़मीन पर? या ये महज़ एक ख़्वाब है?
अब डर लगे!
नहीं! काश ये ख़्वाब न हो!
हक़ीक़त ही हो!
हक़ीक़त?
नहीं नहीं! वो नहीं सोच सकती ऐसा कुछ भी!
हाँ, एक ख़्वाब! एक हसीन ख़्वाब! आ गयी होंठों पर एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ख़्वाब! हाँ, ख़्वाब! कितना अजीब होता है न! अपने ही दिमाग़ में उपजी एक अनजान फ़सल! अपने ही सब्ज-बाग़! वो मुस्कुरा उठी थी! शायद, ये जानकर, कि क्या खूब खेल दिखा रहा था उसका उसको उसका का दिमाग़! पानी पी लिया था, अब जा लेटी थी बिस्तर पर! बायीं तरफ लेटी थी, सामने दीवार थी, और एक दरवाज़ा, पंखे की हवा में उड़ता पर्दा, अपने होने की भी गवाही दे देता था कभी-कभार! सामने, दीवार पर, एक चित्र टंगा था, ये फ्रेम में था, उसमे, रंग-बिरंगे फूल बने थे, एक गुलदस्ता था उसमे, और पीले रंग के उभरे हुए फूल, असली होने का सा आभास देते थे!
सामिया, न सोने की कोशिश कर रही थी और न ही जागने की ही ललक थी, ये एक ऐसी हालत हुआ करती है, जिसमे जागने का लुत्फ़ ही अलग हुआ करता है! पलकें, नींद की खुमारी ओढ़ लेटी हैं, लेकिन आँखें, जागने को तैयार रहा करती हैं, दिमाग़ में कुछ चल ही रहा होता है! सहसा, उसे कुछ याद आया! वो उठ बैठी उसी वक़्त! याद आया उसे, वो झील का किनारा, वो सुनहरे कणों वाला रेत, ठंडा रेत! पांवों की उँगलियों से निकलता और बाहर झांकता वो रेत! और वो एक आवाज़!
"डरो नहीं सामिया! आओ मेरे पास!" दिमाग़ में आवाज़ गूंजी!
एक सुरीली सी आवाज़! मर्दाना आवाज़!
अब सवाल उठा! ज़हन में सवाल उठा! कौन था वो? वो जो कोई भी है, मुझसे वाबस्ता कैसे? कैसे पता मेरा नाम उसे? और वो जगह? वो क्या है? अब सवाल, तो सवाल के पत्ते फूटे! नए नए सवाल!
लेट गयी वो! आँखें बंद कीं अपनी उसने! कुछ पल बंद ही रखीं! जैसे आँखों में, वहीँ का तस्सवुर जाग उठा हो! ज़द्दोज़हद! कुछ अलसायापन! करवटें बदले! पाँव हिलाये, एक ही लय में! कभी इधर, कभी उधर!
कशमकश! उलझन! सवाल! जवाब कोई नहीं!
और इस तरह, पलकों के रास्ते नींद की खुमारी, आँखों में चढ़ी! सो गयी वो! पाँव, शांत हो गए! नींद में चली गयी वो!
अगली सुबह, उसके पिता जी का दफ्तर! कुछ ज़रूरी कामकाज! रोज़मर्रा के कागज़ रंगीन हुए!
दोपहर!
उस दोपहर, अकेली ही थी वो! पंखों की फड़फड़ाहट गूंजी! झट से आँखें, सुरमयी आँखें, उस फड़फड़ाहट पर जा टिकीं! सफेद फाख्ता! झट से खड़ी हो गयी वो! सफेद फाख्ता? ठीक वैसा ही? उसने तो उस ख़्वाब से अलग, कहीं और नहीं देखा था सफेद फाख्ता! ये कहाँ से आया? ये क्या?
और वो फाख्ता! उसे ही देखे! गरदन मटकाए! एकटक, सामिया को निहारे! बेहद सुंदर था वो! और सामिया, उसे ही देखे! निहारे! जी कर, छू लूँ उसे! आगे बढ़ी वो! वो मेज़ पर बैठा था, न डरा वो! वहीँ बना रहा! आगे बढ़ी वो! हाथ बढ़ाया अपना आगे, फाख्ता, बिना हिले-डुले, उसे ही देखे! उसकी गुलाबी आँखें, फैलीं! हाथ आगे बढ़ा, और फाख्ता आगे सरका! हाथ लगाया उसे! बर्फ सा ठंडा! उसके हरे पंजे, ठंडे! मुलायम सा! जैसे रुई! जैसे किसी बादल का टुकड़ा! होंठों पर, मुस्कुराहट दौड़ आई!
"सामिया?" एक आवाज़!
पिता जी की आवाज़!
नज़रें हटीं! पीछे देखा, दूसरे कमरे से आई थी आवाज़ पिता जी की! मुड़ी पीछे, फ़ाख्ते को देखा, फाख्ता, जैसे असमंजस में था!
"सामिया?" फिर से आवाज़ आई!
"आती हूँ!" बोली वो, और चल पड़ी पीछे!
मुड़ने से पहले, फ़ाख्ते को देखा! वो नदारद! नहीं था वो वहाँ!
कुछ न समझी सामिया! चल पड़ी पीछे! पहुंची पिता जी के पास! उनके कमरे में!
"वो दर्शन लाल की फाइल कहाँ है?" पूछा पिता जी ने, फाइलों के ढेर के पीछे से!
"यहीं है!" बोली वो,
"पूरा छान मारा, यहां तो नहीं है?" बोले वो,
"उमा को पता होगा?" बोली वो,
"ये फाइल्स उमा ने ही निकाली हैं!" बोले वो,
थोड़ी पशोपेश में पड़ी वो!
"देखती हूँ, कहीं वहाँ तो नहीं?' बोली वो,
"हाँ, देखो ज़रा?" बोले वो,
चल पड़ी वापिस, आई अपने कमरे में, ढूंढीं फाइल्स उसने, और मिल गयी, एक नीले रंग की फाइल! दर्शन लाल की ही फाइल थी वो! ले चली पिता जी के पास!
"ये रही!" बोली वो,
"लाओ, ढाई बजे का वक़्त है इसमें, जाओगी?" पूछा उस से,
"चली जाउंगी" बोली वो,
"ठीक है, रख लो!" बोले वो,
ले ली फाइल, ले चली अपने कमरे में! रखी फाइल मेज़ पर, और तभी उमा आ गयी! बैठी सामने, रखीं फाइल्स अपनी जगह! और दराज़ बंद की!
"चाय पिओगी?" पूछा उमा ने,
"नहीं, ढाई बजे का वक़्त है!" बोली वो,
"कहाँ जाना है?" पूछा उमा ने,
"कोर्ट नंबर दो सौ तेईस में" बोली वो,
"दर्शन लाल?" पूछा उमा ने,
"हाँ" बोली वो,
"अच्छा" कहा उमा ने,
तो दोस्तों!
बजे ढाई, और चली सामिया कोर्ट में, तारीख पड़ गयी अगली, नोट कर ली अपनी डायरी में, फाइल उठायी और चली वापिस, अब कोई काम न था उसे, चली आई अपने कमरे में! उमा वहीँ बैठी थी, बात कर रही थी किसी से फ़ोन पर! बैठ गयी सामिया,
"अब कोई काम नहीं?" बोली उमा,
"न" बोली सामिया,
"तो चलो ज़रा, बाज़ार जाना है!" बोली उमा,
"किसलिए?" पूछा सामिया ने,
"कुछ लेना है, वहीँ से घर छोड़ दूँगी?" बोली उमा,
"ठीक!" बोली सामिया,
तो दोनों चली बाज़ार, की खरीदारी और फिर, उमा ने घर छोड़ा उसे! पिता जी को बता ही आई थी वो, आई घर, हाथ-मुंह धोये, अपना सामान रखा, कपड़े बदले और फिर अपने कमरे में चली! कुछ देर टी.वी. देखा, और फिर माँ ने चाय भिजवा दी, चाय पी, और लेट गयी!
आराम करने के लिए, लेट गयी!
लेटी तो आँखें बंद कीं!
आँखें बंद हुईं, तो कुछ शुरू हुआ!
जैसे कि पर्दा हटा और उसके पीछे का मंजर साफ़ हुआ!
वहीँ धुंध!
वहीँ धुंध के पर्दे!
वही अँधेरा, स्याह अँधेरा!
वही सर्द हवा के झोंके!
वही जगह!
वही गुंबद!
वही धुंधलका!
पलकों के नीचे, आँखें नाच उठीं उसकी!
वही आहट!
चली उस तरफ!
घास पर, ओंस जमी थी! पाँव, ठंडे हो चले!
"कौन है?" आवाज़ दी!
कोई जवाब न मिला!
"बताओ?" पूछा उसने,
रोएँ खड़े!
आगे बढ़ी!
"कौन है?" बोली फिर से! रुकी ज़रा!
आहट! कोई हटा पीछे!
सर्द हवा का झोंका टकराया!
बदन से, कपड़ा चिपक उठा! ठंडक लिए!
आगे बढ़ी वो! हाथ बांधे, आँखें चौड़ी किये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो बढ़ रही थी आगे! धीरे धीरे, नज़रें सामने टिकाये हुए! हालांकि, अभी धुंधलका था, लेकिन वो बढ़ रही थी उस आहट की ओर! कोई तो था वहाँ! कोई तो! वो रुकी उधर! देखा सामने!
"कौन है?" निकला उसके मुंह से,
कोई जवाब नहीं मिला!
थोड़ा सा आगे बढ़ी वो!
"बताइये? कौन है?" पूछा उसने,
अब भी, कोई जवाब नहीं!
"कौन है, बताइये?" पूछा उसने,
अब भी कोई जवाब नहीं आया!
वो और आगे बढ़ी, सर्द हवा का झोंका आया, गरदन को चूमता, अपनी गिरफ्त में भरता, निकल गया! वो रुकी, और कोई पीछे सरका!
"बताइये? कौन है?" पूछा उसने,
न! कोई जवाब नहीं आया!
"ये.............कौन सी जगह है?'' पूछा उसने,
"असोस!" गूंजी आवाज़ एक! ठीक वैसी ही! वही आवाज़, वही रौबदार सा लहजा! वही सुरीली सी आवाज़!
"मैं यहां कैसे आई?" पूछा उसने,
"मैं लाया!" आई आवाज़!
ठिठकी वो! मैं? कौन मैं? क्यों ले कर आया वो, उसे वहाँ?
"कौन हैं आप?" पूछा उसने,
"तुम नहीं जानती!" आई आवाज़!
"बताइये फिर?" पूछा उसने,
"जान जाओगी!" आई आवाज़!
चुप खड़ी हुई! कुछ लम्हे!
"मुझे क्यों लाये आप इधर?" पूछा उसने,
"सामिया, तुम मुझे पसंद हो!" आई आवाज़!
पसंद? क्या सुना उसने?
थोड़ा सा तिथि को, दिमाग़ दौड़ाया! साँसें थामी अपनी!
"आप हो कौन?" पूछा उसने,
"अबज़ैर!" बोला कोई!
अबज़ैर? ऐसा कोई नाम, नहीं सुना था उसने आज तक! सुना क्या, पढ़ा भी नहीं था कहीं! अबज़ैर! ये कैसा नाम?
हैरतज़दा थी वो! और अब परेशान भी! माथे पर, सिलवटें पड़ने लगी थीं! असोस? अबज़ैर? ये सब, ये सब है क्या?
आया झोंका एक! और उसका वो कपड़ा, जो गले में पड़ा था, उड़ा और ढक लिया चेहरा उसका! उधर चेहरा ढका, और इधर आँख खुली!
आँखें खुलीं, तो आलम, सन्नाटे का! लेटी रही वो वैसे ही! आवाज़ आये, तो बस घड़ी की, जो सामने दीवार पर लगी थी, पांच बजकर तेईस मिनट हुए थे उसमे! वो उठी, कपड़े ठीक किये, और चली रसोई की तरफ, खोला फ्रिज, निकाली पानी के बोतल, उठाया गिलास, डाला पानी, पिया, और गिलास, सिंक में रख दिया, बोतल को ढक्क्न लगा, वापिस रख दी फ्रिज में! चली अपने कमरे की तरफ! जैसे ही घुसी, सर्द झोंके ने उसके बदन को पोशीदा कर दिया! सिहरन सी चढ़ गयी उसे!
वो बैठ गयी, सोफे पर, टांगें, मेज़ से सटा दीं, मेज़ पर, पत्रिका पड़ी थी, वही उठा ली, पलटे सफे उसके, और कर दी खत्म, सफे पलट पलट कर!
अबज़ैर! असोस!
अचानक से याद आये ये नाम!
लगा ली कमर कुर्सी की पुश्त से, और कीं आँखें बंद! अबज़ैर! असोस! उस जगह का नाम, असोस है, और जो उसको लाया था वहाँ, वो है अबज़ैर!
लेकिन?
वो है कौन?
उसने कहा था कि वो नहीं जानती उसे!
और, जान जाओगी?
ये कैसे कह सकता है कोई!
आखिर वो, है कौन?
क्यों लाया था वो उसको वहाँ?
और हाँ!
पसंद! उसने कहा था कि सामिया, तुम मुझे पसंद हो!
इसका क्या मतलब हुआ?
अब लगी दिल में एक चिंगारी!
और ये चिंगारी, अब एक बड़ा सा अलाव बनने की तैयारी में थी! बस, उसे, सामिया की सोच का जलावन चाहिए था! जितना सोचेगी सामिया, उतनी ही ये आग, दहकने लगेगी!
"सामिया?" आई आवाज़ एक!
वो उठी, चली बाहर, ये हिना थी, चली आई अंदर ही! कॉलेज से हो आई थी हिना!
"आज जल्दी आ गयी?" पूछा हिना ने,
"हाँ, आज काम नहीं था" बोली अनमनी सी सामिया,
"अच्छा, अच्छा किया!" बोली वो,
मेज़ पर रखे पिस्ते उठा लिए हिना ने, छील कर, खाने लगी,
"क्या बात है?" पूछा हिना ने,
"क्या हुआ?" पूछा सामिया ने,
"तू कल से, बड़ी ही चुप चुप सी है, क्यों?" पूछा हिना ने,
"नहीं तो?" बोली सामिया,
"तू क्यों बोलेगी?" बोली हँसते हुए हिना!
मारा अपना कंधा उसके कंधे से!
"ऐसा कुछ नहीं!" बोली सामिया!
"तू कल छत पर थी, गुमसुम, अकेली! है न?" बोली हिना,
"हाँ, चारा डाल रही थी मछलियों को" बोली वो,
मुस्कुरा हंसी हिना!
"देख, कुछ न कुछ तो है!" बोली हिना,
"क्या?" बोली सामिया,
"जब कोई गुमसुम हो, अकेला रहे, तो समझो, कहीं और गुमशुदा है वो, है न?" बोली हिना,
"तू क्या समझ रही है?" बोली सामिया,
"अब बता भी दे?" बोली शरारत से हिना!
"क्या बात दूँ?" पूछा सामिया ने,
"नाम?" बोली हिना,
"किसका नाम?" पूछा सामिया ने,
"जहां घूम रही है तू?" बोली हिना,
"पागल है क्या?" बोली सामिया!
"ले! अब पागल भी कह दिया तूने तो मुझे!" बोली हिना!
"अरे, ऐसा कुछ भी नहीं!" बोली सामिया!
"झूठ?" बोली हिना,
"नहीं?" बोली सामिया,
"झूठ?" फिर से पूछा,
"सच!" बोली सामिया!
"चल मत बता! चल ही जाएगा पता!" बोली हिना!
"तू ज़्यादा दिमाग़ मत दौड़ा!" बोली सामिया!
"नहीं दौड़ा रही!" बोली हिना,
"और तू सुना?" बोली सामिया,
"कुछ नहीं, वही सबकुछ!" बोली हिना,
"शारिक़ भाई कैसे हैं?" पूछा सामिया ने,
"अब ठीक है, फिजियोथेरेपी चल रही है" बोली हिना,
"हाँ, वो ज़रूरी है" बोली सामिया,
"हाँ, हो जाएंगे बिलकुल ठीक एक महीने में" बोली हिना, छिलके इकट्ठे करते हुए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हिना से बातें होती रहीं उसकी! हिना, रोज ही आ जाती थी सामिया के पास, सामिया के चाचा जी की लड़की थी हिना, सामिया से बेहद लगाव था उसको! साथ ही खेली थीं दोनों बहनें, इसीलिए, कोई छुप-छिपाव नहीं था उनके बीच! इसीलिए छेड़ रही थी हिना सामिया को!
शाम बीती, रात हुई, पिता जी ने कुछ काम दिया था उसे कुछ, वहीँ करने में मशगूल थी वो, उस समय रात के नौ बजने को थे, माँ ने खाना भिजवा दिया था, खाना खाने के बाद, फिर से काम करना शुरू कर दिया था उसने, तो रात ग्यारह बजे वो, काम से फ़ारिग हुई! और करीब साढ़े ग्यारह बजे, वो सोने के लिए लेट गयी! कुछ देर तक नींद नहीं आई उसे, कोशिश की, और फिर से वही नाम याद आ गए उसे! असोस नाम की वो जगह, और अबज़ैर! ये नाम, उसने दिमाग़ के दरिया में, तैरते रहे बहुत देर तक! और फिर करीब डेढ़ घंटे के बाद, उसको नींद आई!
फिर से, उसके दिमाग़ में एक तस्वीर बनी! एक खूबसूरत तस्वीर!
वो एक हसीन जगह थी! बेहद हसीन! जिस जगह वो खड़ी थी, उसे लग रहा था कि वो जैसे पानी पर खड़ी है! वो पानी उसकी कदमबोसी कर रहा है! पानी, गुनगुना था इस दफा! उसे लगा, वो तैर रही है, खड़े खड़े!
दूर एक झरना भी था, सफेद लकीरें बनी थीं उस खूबसूरत पहाड़ पर! ये लकीरें, गिरती हुईं पानी की धारें थीं! वहाँ की खूबसूरती ऐसी थी कि जैसे सच में वो जन्नत का ही कोई बेशक़ीमती टुकड़ा हो! वहाँ और कोई नहीं था, बस वो अकेली! उसका साया जब उस रंगहीन पानी पर पड़ा, तो अपने कपड़े देखे उसने! दूध से सफेद! शफ़्फ़ाफ़ और चमकदार! उसकी किनारियों पर, सोने की तारों से बनी झालर लगी थीं!  उसने छू कर देखे वो! बेहद मुलायम और शानदार कपड़े थे उसके! हवा चली! और उस पानी पर, उसकी छुअन से, लहरें बन गयीं! दौड़ चलीं पानी पर! वे लहरें, चारों ओर दौड़ कर, फिर से वापिस लौटीं! लौटीं, सामिया के क़दम चूमने को! चक्कर सा बनाते हुए, उसके पांवों के चारों ओर खेलती रहीं वो!
तभी आवाज़ आई उसे एक!
ये किसी फ़ाख्ते की आवाज़ थी! उसने पीछे देखा! एक पौधा लगा था, कोई चार फ़ीट ऊंचा, उसका तना सफेद रंग का था! वो चली उसकी तरफ! देखा उस पौधे को! हैरत की बात ये थी कि उस पौधे पर, पत्ते नहीं थे! एक भी नहीं! बस सफेद फूल! बड़े बड़े! जिनके बीच से, धागे से निकले थे, पीले रंग के! ऐसे सुंदर फूल तो उसने कभी देखे क्या, सोचे भी नहीं थे! उसने नज़रें दौड़ायीं! जगह जगह पहाड़! बेहद सुंदर पहाड़, और पहाड़ों से गिरते झरने! और झरनों पर बनते इन्द्रधनुष! सबकुछ ऐसा था कि जो उस जगह को देख ले, तो क़यामत तक वहाँ से लौटे नहीं! हाँ, वो फाख्ता, उस पौधे पर बैठा था! सफेद रंग का फाख्ता, उन सफेद फूलों के बीच, खुद भी फूल समान ही लग रहा था! वो अपनी जुबां में बोला कुछ! और उड़ चला वहाँ से, एक दूसरे पौधे पर जा बैठा! पीछे देखा उसने, पलटकर, जैसे, सामिया का इंतज़ार कर रहा हो वो! सामिया चल पड़ी उसकी तरफ! उसकी निगाह नीचे पड़ी, ओंस जैसी बड़ी बड़ी बूँदें गिरी हुई थीं ज़मीन पर! वो बूँदें, जैसे पारे की बनी हों! हवा कि हल्की सी भी सरसराहट होती, तो काँप जाती थीं! और हाँ, एक एक बूँद में, उसका अक्स झलक रहा था! जैसे वहाँ, सैंकड़ों, हज़ारों और लाखों सामिया उन बूंदों में क़ैद हों! ये नज़ारा देख, मुस्कुरा पड़ी वो! और तभी वो फाख्ता अपनी बोली बोला! ध्यान बदला सामिया का, वो बढ़ चली उसकी तरफ! फाख्ता, इस पौधे से उड़ता और दूसरे पर जा बैठता! जैसे, लिए जा रहा हो वो उसे किसी अनजान जगह! और तभी, वो फाख्ता, आगे उड़ चला! थम गयी सामिया! कुछ पल, उसकी नज़रों ने, उस फ़ाख्ते को ढूँढा!
और तब!
"सामिया!" वही आवाज़! वही सुरीली सी आवाज़!
वो पलटने को जैसे ही हुई पीछे,
"नहीं सामिया! पीछे नहीं देखना!" आई आवाज़!
नहीं देखा उसने, नहीं देखा, अपने हाथों के अंगूठों के नाख़ून से, अपने उंगलियां खरोंचने लगी वो! और फिर, भारी क़दमों की आवाज़ हुई! जैसे कोई आ रहा हो उसके पीछे! कोई आया, और उसके पीछे आ कर रुक गया!
"सामिया!" बोला कोई!
सामिया चुप!
पीछे देखना नहीं था! नहीं तो वो हसीं ख़्वाब टूट जाता!
लेकिन!
मन में फिर से सवाल जागे!
एक सवाल में से, कई सवाल निकल फूटे!
"ये कौन सी जगह है? यही न?" बोला कोई!
"हाँ!" मन ही मन में बोली हाँ!
"ये गुमुसलुक है सामिया!" बोला वो,
गुमुसलुक?
ये कौन सी जगह है?
कभी नहीं सुना?
कौन से मुल्क़ में है ये गुमुसलुक?
"जान जाओगी सामिया! जान जाओगी!" बोला वो,
और वो, थोड़ा और करीब हुआ सामिया के!
सामिया ने साया देखा उसका! वो तो उसके कंधों से भी नीचे थे! हालांकि, सामिया की लम्बाई, औसत से ज़्यादा है है! फिर भी, वो उसके कंधों से नीचे ही थी! वो साया, भारी-भरकम से इंसान का था! उसने जो कपड़े पहने थे, उस साये में जो देखा, वो ढीले-ढाले से थे! और हाँ, कई कई बार तो उसका साया, सामिया के साये को, ढक ही लेता था!
"आँखें बंद करो सामिया?" बोला वो!
बस एक लम्हे का शायद दसवां लम्हा बीता होगा!
"खोलो आँखें?" बोला वो,
आँखें खोलीं सामिया ने!
और जो देखा, वो लफ़्ज़ों से परे है!
शानदार बाग़! खुबानी से लदे पेड़!
पीले और बैंगनी रंग के बड़े बड़े फूल!
गहरे तोतई रंग की लम्बी लम्बी घास!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू!
ऐसी ख़ुश्बू कि नथुनों में जाए, तो आँखें बंद हो जाएँ!
"ये अय'वली है सामिया!" बोला वो,
अय'वली? कौन सी जगह?
ये नाम भी नहीं सुना?
क्या ये इसी ज़मीन पर है?
फिर से ज़हन में सवाल उठे!
"सवाल बहुत है ज़हन में तुम्हारे!" बोला कोई,
हाँ! सवाल तो हैं!
"जवाब मिल जाएंगे सामिया! जल्दी ही! बहुत जल्द!" बोला कोई,
खड़ी रही सामिया!
खड़ी रही!
साया ढूंढने लगी वो! अब कोई साया नहीं!
कुछ लम्हों का, इंतज़ार! ऐसे लम्हे, बीते नहीं बीतते!
सो नहीं बीते!
मुड़कर देखा पीछे!
अब कोई नहीं था वहाँ! कोई भी नहीं!
था तो, वो खूबसूरत बाग़! वो रंग-बिरंगी ज़मीन! वो ख़ुश्बू!
उसने चारों तरफ देखा! हर तरफ! क़ुदरत की निहायती बेहतरीन कारीगरी!
"क्या नाम बताया था?" मन में पूछा,
"इस जगह का नाम क्या था?" डाला दिमाग़ पर ज़ोर!
हाँ! हाँ! याद आया! आया याद! अय'वली!
और पहले वाली जगह का क्या नाम था?
क्या नाम बताया था?
वो सुंदर सी, सफेद फूलों वाली जगह?
क्या नाम था?
माथे में शिकन उभरीं! डाला ज़ोर दिमाग़ पर!
''हाँ! आया याद! गुमुसलुक!" निकला मुंह से उसके!
"गुमुसलुक! हाँ! गुमुस............" आँखें खुल गयी अचानक से,
"लुक" और वो अलफ़ाज़, खुली आँखों के दौरान, मुंह से निकला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसकी नज़र, घड़ी पर गयी, चार बजने को थे, वो उठ बैठी, उसके बाद, नींद नहीं आई उसे! हाँ, बदन में अलक़त सी मची रही, जैसे, कोई सर्द जगह से, एक झटके से, तपते रेगिस्तान में फेंक दिया गया वो, बदन से, गर्मी फूट रही थी उसके, सोचा, नहा ही लिया जाए, अमूमन, छह बजे, वो नहा लेती थी, लेकिन आज वजह कुछ और थी, उसने अपने कपड़े उठाये और चल पड़ी गुसलखाने, उसने टब भरा पानी का, और उतर गयी उसमे, लेटी और कर लीं आँखें बंद, पानी सुकून दे रहा था, बदन के रोम रोम को जैसे ठंडक पहुंचा रहा था! अभी कुछ समय ही बीता था कि, गुसलखाने में, माहौल सर्द सा होने लगा! जैसे, बाहर कोहरा छाया हो या फिर, ओंस टपक रही हो! जो पानी, अभी कुछ देर पहले, सुकून दे रहा था, वो अब बदन को जैसे काटने लगा था, पानी, बेहद ठंडा हो चला था! उसने जल्दी जल्दी स्नान किया, उसके तो बदन में झुरझरी उठने लगी थी, दांत, किटकिटाने तक लगे थे! कुछ माजरा समझ न आया उसे, शायद, छत पर रखी टंकी का ही पानी ज़्यादा ठंडा हो गया होगा या फिर, रात में मौसम ठंडा रहा होगा! यही जवाब ढूँढा उसके दिमाग़ ने! खैर, हो गया स्नान, कपड़े पहन लिए, और चल पड़ी छत पर, सुबह सुबह, छत पर घूम लिया करती थी सामिया, पुढां को, पानी भी दे दिया करती और मछलियों को चारा भी, ये नियम था उसका, तो उस समय तक, पांच बज चुके थे,
वो छत पर पहुंची, पानी देना शुरू किया पौधों को, हवा चल ही रही थी, बाल अभी गीले थे उसके, तो हाव जब भी टकराती बालों से उसके, तो झुरझुरी सी छुड़ा देती थी उसकी! पानी दिया, चारा दिया और घूम भी ली!
दोपहर,
दोपहर में, अपने पिता जी के दफ्तर में बैठी थी वो, अकेली ही थी, पिता जी, किसी काम से आज बाहर गए हुए थे, बस उमा ही वहां और कुछ दफ्तर के कर्मचारी, अकेली बैठी थी, तो अचानक से दिमाग़ में कुछ आया! असोस! गुमुसलुक और अय'वली! उसने कागज़ पर नाम लिख लिए, उठी, और अपने कंप्यूटर तक गयी, इंटरनेट चालू ही था, अब उसने ये शब्द डाले उसमे, की ज़रा खोज, शब्दों में हेर-फेर किया, और इस तरह, एक जगह का पता चल गया! उस जगह का नाम, गुमुसलुक था, फिर, असोस भी मिल गया! और फिर, अय'वली भी! ये तीनों ही जगह, तुर्की में हैं! तीनों ही प्राचीन जगह हैं, और बेहद सुंदर भी! वो हैरान थी! बेहद हैरान!
ऐसा कैसे मुमकिन है?
वो वहां कैसे पहुंची?
और वो, अबज़ैर?
हक़ीक़त में कौन है वो?
माथे पर रखा हाथ उसने!
कैसे मुमकिन है ये?
जो जगह उसने देखी नहीं, वो कैसे पहुंची वहाँ?
सांस निकली मुंह से, एक लम्बी सी! आँखें बंद कर लीं उसने! और बैठे रही! कुछ देर तक!
"क्या देख रही हो?" आई आवाज़, ये उमा की आवाज़ थी, देखने लगी थी वो भी कंप्यूटर में, उसने पढ़ा, देखा, गौर से!
"तुर्की?" बोली उमा,
"हूँ?" टूटी ज़रा तन्द्रा उसकी!
"तुर्की है न ये?" पूछा उमा ने,
"हूँ" बोली सामिया,
"तुर्की जा रही हो क्या?" पूछा उमा ने, संजीदगी से!
"नहीं नहीं!" बोली सामिया,
"जगह तो देखो, कैसी सुंदर है!" बोली उमा,
जगह तो देखो?
सामिया तो देख ही आई थी! ये तीनों जगह! वो तो बस, पुख्ता जानकारी ले रही थी! ये तीनों जगहों के नाम तो उसने कभी सुने ही नहीं थे, देखने की तो बात ही छोडो!
"पानी कैसा साफ़ है!" बोली उमा,
"हूँ" बोली सामिया!
पानी! वो तो खड़ी थी उसके बीच!
आया याद उसे! वो गुनगुना सा पानी!
"चलो, छोडो फिर!" बोली उमा,
और लगा ली कुर्सी से कमर, उठाया फ़ोन, और मिलाया किसी को, ये शिकंजी वाले का फ़ोन था, दो शिकंजी मंगवा ली थी उसने!
"आज गर्मी बहुत है!" बोली उमा,
"हूँ" दिया जवाब सामिया ने,
"क्या बात है सामिया?" पूछा उमा ने,
"क्या हुआ?" पूछा सामिया ने,
"तबीयत ठीक नहीं तुम्हारी?" पूछा उमा ने,
"ठीक है, ऐसा क्यों लगा?" पूछा सामिया ने,
"हूँ, हूँ में जवाब दे रही हो, इसीलिए पूछा!" बोली उमा, मुस्कुरा कर,
"नहीं, ठीक हूँ मैं!" बोली सामिया,
तभी शिकंजी वाला आ गया, रख गया दो गिलास,
"लो" बोली उमा, गिलास, सरकाते हुए सामिया की तरफ,
"लेती हूँ" बोली सामिया,
और ले लिया गिलास, स्ट्रॉ निकाला और डाल दिया कूड़ेदानी में! और पीने लगी! तभी एक फाख्ता आया अंदर! पंख फड़फड़ाता हुआ!
उमा उठी, उठाया अखबार और किया गोल उसे, एक रूलर सा बनाते हुए!
"क्या कर रही हो?" पूछा सामिया ने,
"इन्होने नाक में दम कर रखा है!" बोली उस फ़ाख्ते को, वो अखबार दिखाते हुए!
"बैठे रहने दो, चला जाएगा!" बोली सामिया,
"गंदगी मचाते हैं ये!" बोली वो,
"चला जाएगा!" बोली सामिया,
और तभी, उड़ गया वो फाख्ता, चला गया बाहर!
बैठ गयी उमा!
"अंदर भागते हैं!" बोली उमा,
"गर्मी से बचने के लिए!" बोली सामिया,
"हाँ, लेकिन पंखा चल रहा होता है, टकरा जाए तो खूनम-खान हो जाएगा यहां!" बोली उमा,
अब कुछ न बोली सामिया, एक घूँट और भरा शिकंजी का!
"ढाई बजे, जाओगी?" पूछा उमा ने,
"अश्वनि कुमार के यहां?" पूछा सामिया ने,
"हाँ?" बोली उमा,
"चली जाउंगी" बोली सामिया,
"वो रखी है फाइल, चली जाना!" बोली उमा,
"ठीक!" बोली सामिया,
उमा ने गिलास खाली किया और रख दिया, सामिया अभी पी रही थी, आराम आराम से,
"एक रिश्ता आया है सामिया!" बोली उमा,
"किसका?" पूछा सामिया ने,
"मेरी छोटी बहन का!" बोली उमा,
"मुबारक हो!" बोली सामिया!
"बात बननी चाहिए!" बोली उमा,
"तो बन ही जायेगी!" बोली सामिया,
"लेकिन लड़के वाले ज़रा भारी जेब वाले हैं!" बोली उमा,
"तो क्या हुआ? भाव्या किसी से कम है क्या?" बोली सामिया,
और किया गिलास अपना खत्म!
"देखो अब!" बोली उमा,
"हो जायेगी बात! बन जायेगी!" बोली सामिया,
ढाई बजने को था, उठायी फाइल, और चल पड़ी अदालत के लिए! गयी, आधा घंटा अंदर रही और काम-काज निबटा, आई बाहर, बाहर आयी, तो मुंडेर पर, दूर, एक फाख्ता दिखा उसे! सफेद रंग का! ठीक वैसा ही!
वो रुक गयी! देखने लगी उसे ही! और वो फाख्ता, उस भीड़ में, बस, उसी को देख रहा था! जैसे, नज़रें अपनी जमा दी हों उस पर!
"वकील साहब आ गए क्या?" आई आवाज़ किसी की, वो पलटी तभी, आवाज़ की तरफ...


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये ज़ाहिद था, सामिया के साथ ही पढ़ा करता था, और वकालत की पढ़ाई भी, साथ ही की थी उन्होंने, उसके पिता जी और बड़े भाई, वहीँ वकालत किया करते थे, और ज़ाहिद भी, सामिया की तरह ही प्रैक्टिस कर रहा था!
"वो तो रात तक आएंगे!" बोली सामिया,
"अच्छा, वो पापा का काम था न? उसके बारे में पूछना था!" बोला वो,
और चलने लगे साथ साथ वे, उतरने लगे सीढ़ियां, साथ ही साथ!
"उसके बारे में, आप उमा जी से पूछ लो?" बोली सामिया,
"अब हैं वो उधर?" पूछा ज़ाहिद ने,
"हाँ, हैं अभी दफ्तर में ही" बोली सामिया,
"ये तो अच्छा रहा!" बोला वो,
और दोनों ही, चल पड़े सामिया के पिता जी के दफ्तर के लिए, वहाँ पहुंचे, ज़ाहिद ने बातें कीं उमा से, और सामिया, दूसरे कमरे में जा बैठी!
थोड़ी देर बाद, सामिया के पास, ज़ाहिद आ बैठा! जैसे ही ज़ाहिद आया, एक फाख्ता भी अंदर आ गया!
"इन्होने तो क्या दफ्तर, क्या घर, क्या मकान-दुकान, अपना कब्ज़ा कर रखा है!" बोला ज़ाहिद!
हुस खड़ा, "हुशह!" बोला वो,
"बैठे रहने दो?" बोली सामिया,
"कट जाएगा पंखे से!" बोला वो,
"नहीं, जैसे आया है, चला भी जाएगा!" बोली सामिया,
बैठ गया नीचे, रख दी अपनी फाइल्स मेज़ पर,
"और सुनाओ सामिया!" बोला वो,
"सब ठीक!" बोली वो,
"इस इतवार खाली हो?" पूछा उसने,
"अभी नहीं कह सकती!" बोली वो,
"सोचा, कहीं घूम ही आते हैं?" बोला वो,
"इतवार को?" पूछा उसने,
"हाँ?" बोला वो,
"अभी नहीं कह सकती!" बोली वो,
तभी वो फाख्ता, पंख फड़फड़ाता हुआ, चला गया बाहर!
"चला गया!" बोली सामिया,
"हाँ भई! बड़ा समझदार है!" बोला वो,
"और क्या!" बोली वो,
फाइल्स उठायीं ज़ाहिद ने, दबाईं बगल में,
"अगर कुछ काम न हो, तो बता देना, मैं शनिवार को फ़ोन कर लूँगा!" बोला वो,
"ठीक है" बोली सामिया,
और ज़ाहिद, उठकर, चला गया बाहर,
इधर ज़ाहिद गया, उधर एक और फाख्ता अंदर आया! इस बार, वही, सफेद रंग का! ये सफेद रंग का फाख्ता, बेहद सुंदर लगता था! आँखों से आँखें मिलाता था वो सामिया से! सामिया देखती रही उसे! और वो सामिया को!
कुछ देर ऐसे ही चला, और वो फाख्ता, उड़कर, चला गया बाहर! सामिया, देखती रही उसको जाते हुए!
कोई पांच बजे, सामिया और उमा, चलीं अपने अपने घर की ओर, उमा भी अपनी ही गाड़ी लाती थी और सामिया अपनी स्कूटी, तो दोनों चल पड़ीं वापिस घर अपने!
एक जगह, रास्ते में, स्कूटी रोकी उसने, कुछ खरीदना था घर के लिए, वो सामान खरीदा, और निकली दुकान से बाहर, और जैसे ही बाहर आयी, स्कूटी पर, वही सफेद फाख्ता बैठा था! उसे हैरानी हुई बहुत! सामिया ने सामान रखा, तो एक दुकान के साथ लगे, पेड़ की शाख पर बैठ गया वो! देखता रहा सामिया को! और सामिया उसे!
सामान रखा उसने, और की स्टार्ट स्कूटी, फाख्ता, वहीँ बैठा रहा, उसी को देखता रहा, जब सामिया चली आगे, तो उड़ चला वो भी!
जब घर पहुंची वो, और लगाई स्कूटी अंदर, नज़र गयी छत पर, छत पर लगी स्टील की ग्रिल पर, वहाँ, वही फाख्ता बैठा था! अब तो होंठों पर मुस्कुराहट आ गयी उसके! दफ्तर से लेकर यहां तक, पीछे किया था उस नन्हीं सी जान ने!
वो चली अंदर, सामान दिया माँ को, और धोये हाथ-मुंह अपने, पोंछें, और अपने कमरे में चली! कपड़े बदले, और तभी याद आया वो फाख्ता! वो झट से चली छत की ओर! वो फाख्ता, एक गमले में लगे, गुलाब के फूलों के बीच, बैठा था! सामिया आगे बढ़ी! फाख्ता उसे ही देखे! न हिले, न ही उड़े! उसने हाथ बढ़ाया अपना, धीरे से! बिलकुल धीरे से! फाख्ता फुदका, और ठीक उसकी कोहनी के पास आ बैठा! गुलाबी आँखें, अपनी, लगा दीं सामिया की आँखों से! और सामिया, ले चली उसे एक कमरे में, ले आई, पंखा चलाया, बैठी, और हाथ फिराया उसके बदन पर! फाख्ता शांत सा, बैठा रहा, देखता रहा उसको! और सामिया, उसके सर को, अपने हाथ के अंगूठे से, सहलाती रही!
"तुम ही थे न, दफ्तर में?" बोली सामिया!
फाख्ता, चुप और शांत!
"बाज़ार में?" बोली वो!
हाथ फिराते हुए उसके पंखों पर!
"और फिर यहां तक आ पहुंचे!" बोली वो, मुस्कुराते हुए!
उठी वो! हाथ में थामे उस फ़ाख्ते को!
"चलो, अब जाओ!" बोली वो,
फाख्ता उड़ा, उड़ता ही गया! नहीं देखा पीछे!
और सामिया, देखती ही रही उसे! जब तक, ओझल न हो गया वो! चला गया था वो! अब चली नीचे सामिया, नीचे आई तो हिना आई हुई थी, सामिया की माता जी से बातें कर रही थी वो, सामिया को देखा, तो चली सामिया के पास!
और दोनों ही आ गयीं कमरे में! आ बैठीं दोनों ही!
"इतवार को क्या कर रही है?" पूछा हिना ने,
"कुछ नहीं? क्यों?" बोली सामिया,
"चल, अजमेर जाना है, शाम तक आ जाएंगे!" बोली वो,
"क्या काम है?" पूछा सामिया ने,
"ऐसे ही जाना है!" बोली वो,
"ऐसे ही?" बोली सामिया,
"अरे, मम्मी के साथ जाना है!" बोली वो,
"काम क्या है?" पूछा सामिया ने,
"काम मम्मी को है, हम घूम लेंगे?" बोली वो,
"अभी तो पता नहीं, कि इतवार को खाली होउंगी भी या नहीं!" बोली वो,
"अगर हो न, तो चलना!" बोली हिना,
"ठीक है!" बोली वो,
"चल लेना!" बोली वो,
"हाँ हाँ!" बोली सामिया,
"कहीं ऐन मौके पर मुकर जाए?" बोली हिना,
"नहीं!" कहा उसने,
"अभी दो दिन हैं!" बोली हिना,
"हाँ!" कहा सामिया ने,
"काम निबटा ले अपने!" बोली वो,
"हाँ!" कहा उसने,
तभी कामवाली आई, और रख गयी चाय, चाय का कप उठाया हिना ने, और दिया सामिया को! सामिया ने ले लिया कप!
दोनों ने चाय पी ली, और हिना, चली गयी वापिस!
और सामिया, अब बिस्तर पर लेट गयी!
सहसा ही!
उसे वो तीन जगह याद हो आयीं!
याद ही नहीं, वो तो देख भी आई थी उन्हें!
और हाँ! वो अबज़ैर! वही तो घुमा रहा था उसे!
लेकिन?
असल में ये अबज़ैर है कौन? सामने क्यों नहीं आता?
क्या वजह है? कोई तो वजह होगी, कोई तो वजह?


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ! तो अब ये सवाल बेहद उलझन पैदा कर रहा है कि ये, अबज़ैर, आखिर है कौन? मैंने लिखा था कि ये एक अलग ही शय है, ये जिन्नात से भी अधिक ताक़तवर और खतरनाक हुआ करते हैं! जिन्नात इनका मुक़ाबला नहीं कर सकते! अब मैं इसका खुलासा कर रहा हूँ, हालांकि, मुझे ये बहुत बाद में पता चला था, मैं बताता हूँ आपको! आप ये तो जानते ही हैं कि जिन्नात आतिश से बने हैं! आतिश से सिर्फ जिन्नात ही नहीं बने, ये चार हैं जो आतिशी हैं! पहला इफरित, दूसरा जिन्नात, तीसरा करीन और चौथा मरीद! ये चारों ही आतिश से बने हैं! और ये चारों ही, बेपनाह ताक़त के मालिक हुआ करते हैं! इफरित, बेहद शान-ओ-शौक़त पसंद हुआ करते हैं, ताक़त की तो कोई थाह ही नहीं! इल्मात में अव्वल हुआ करते हैं! ये पढ़ाई आदि भी किया करते हैं! इनका अवाम और रहन-सहन जिन्नात जैसा ही हुआ करता है, इनके भी अपने गाँव-देहात हुआ करते हैं! इफरित की कहानियां, किस्से, चर्चे अरबी भाषा बोलने वालों लोगों में आम हैं! रेगिस्तान में रहने वाले कई क़बीले, गाँव आदि, इनके बारे में जानते हैं! इफरित के सामने, बाकी तीन, कहीं नहीं ठहरा करते! जिन्नात के बारे में तो आप जानते ही हैं, अब करीन, ये जिन्नात से नीचे हैं, ये भी ताक़तवर हुआ करते हैं, लेकिन ये इंसानों के संग मेल-मिलाप नहीं किया करते, दूर ही रहा करते हैं, इनके गाँव, अक्सर सूखे पहाड़ों पर हुआ करते हैं, और मरीद, ये सबसे नीचे हैं इस आतिश से पैदा हुई शय में, ये अक्सर इंसानों की मदद कर दिया करते हैं, हाँ, रजु नहीं हुआ करते, इंसानों से दूरी बना कर रहा करते हैं!
तो ये अबज़ैर, एक इफरित था! जैसा मैंने बताया आपको, ये इल्मात के जानकार हुआ करते हैं, इनमे जो इल्मात की ताक़त हुआ करती है, वो जन्म-जात हुआ करती है, ये किसी से भी टकराने का माद्दा रखते हैं, ज़िद्दी, गुस्सैल और खूंखार हुआ करते हैं! एक आम इफरित का कद, करीब चौदह फ़ीट का हुआ करता है, ये आलीशानता पसंद करते हैं! हीरे, रत्न और सोने आदि से कढ़े और जड़े कपडे पहना करते हैं! ऊपर ये अचकन जैसा कपड़ा और नीचे एक खुली सलवार जैसी पोशाक़ पहनते हैं, नीला और पीला रंग, इन्हें पसंद है, सर पर, टोपी पहनते हैं, जिसमे हमेशा ही बीच में, एक कोन हुआ करता है! ये बेहद सुंदर, मज़बूत जिस्म के, शफ़्फ़ाफ़ रंग के, सुनहरे बालों वाले, नीली और गुलाबी से आभा वाली आँखों वाले, और चौड़े कंधों वाले होते हैं! इंसान इन्हें देखे, तो इंसानी देह सुलगने लगती है! और ख़ाक़ हो सकती है! अमूमन, ये इंसानों से दूरी बना कर रखते हैं, लेकिन कभी-कभार किसी इंसान पर रजु भी हो जाते हैं! अबज़ैर एक ऐसा ही इफरित था! जो, उस सामिया पर रजु हुआ था! अब क्यों हुआ था? कैसे हुआ था? ये सब बाद में ही पता चलेगा!
तो उस दिन शनिवार था, करीब ग्यारह बजे, ज़ाहिद आया था सामिया के पास, पूछने कि कल वो अगर खाली हो, तो घूम कर आया जाए कहीं! सामिया, कोई पांच मिनट पहले ही, एक अदालत से पेशी में हाज़िर हो कर आई थी, बैठी थी अकेली ही!
"सामिया?" आवाज़ दी ज़ाहिद ने,
समिया पलटी, और देखा ज़ाहिद को, बैठने का इशारा किया, ज़ाहिद, बैठ गया कुर्सी पर,
"पानी पिलाओ ज़रा!" बोला वो,
सामिया उठी, और पानी डालकर दे दिया उसे, पानी पिया ज़ाहिद ने और गिलास पकड़ा दिया वापिस,
गिलास रखा, और बैठ गयी कुर्सी पर,
"हाँ सामिया? कल खाली हो?" पूछा उसने,
"नहीं ज़ाहिद, कल मुझे जाना है हिना के साथ अजमेर!" बोली सामिया,
"ओह......अच्छा, कोई बता नहीं, बाद में देखते हैं" बोला ज़ाहिद, थोड़ा चेहरा उतर गया था उसका,
और तभी, पंखों की फड़फड़ाहट!
एक फाख्ता आया था अंदर! आते ही, अलमारी पर जा बैठा!
"तुम्हारे यहां घोंसला तो नहीं रख दिया?" बोला ज़ाहिद!
"नहीं!" बोली सामिया,
"ये तो बे-रोक-टोक आते हैं यहां!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" बोली सामिया,
अब फ़ाख्ते ने, अपनी बोली बोलनी शुरू की!
"लो! ये तो गाने भी लगा!" बोला ज़ाहिद!
"हाँ, अच्छा है न?" पूछा सामिया ने,
"पता नहीं!" बोला वो, मतलब न ही था उसका!
वे दोनों ही देखने लगे उसे! और फ़ाख्ते ने, अब गाना बंद किया! सामिया को देखने लगा!
"ये तो तुम्हें देख रहा है!" बोला ज़ाहिद!
"हाँ, अक्सर आता है ये यहां!" बोली वो,
"हमसे अच्छा तो इसका नसीब है! वाह मियाँ! नसीब वाले हो!" बोला फ़ाख्ते से ज़ाहिद!
थोड़ा झेंप गयी सामिया उसका ये मज़ाक सुन कर!
"चलता हूँ, फिर कभी देखते हैं!" बॉल ज़ाहिद, खड़ा होते हुए,
अपनी गरदन हिलायी सामिया ने, हाँ में,
"अच्छा सामिया!" बोला वो,
और बढ़ा दिया अपना हाथ आगे, चाहता था कि सामिया हाथ बढ़ाये अपना! न बढ़ाया हाथ सामिया ने! थोड़ा झेंपा वो, और चला गया वापिस!
वो जैसे ही निकला, फाख्ता भी उड़ गया, चला बाहर!
और तभी आई उमा अंदर! आज देर से आई थी वो, दरअसल, उसकी छोटी बहन को देखने वाले आये थे घर पर! आई, बैग रखा, और निकाला एक डिब्बा! खोला उसे, लड्डू थे उसमे! लायी सामिया के पास!
"लो सामिया!" बोली उमा!
"बात बन गयी?" बोली सामिया! उठाते हुए एक लड्डू!
"हाँ! जैसे तुमने बोला था सामिया! बात बन गयी! भाव्या पसंद आ गयी उन्हें!" बोली ख़ुशी के मारे!
"मैंने कहा था न!" बोली इतराते हुए सामिया!
"हाँ! हाँ सामिया!" बोली उमा, डिब्बा रख दिया सामने उसके!
"तो शादी कब है?" पूछा सामिया ने,
"सोच रहे हैं, अगले महीने को अच्छा मुहूर्त निकले, तो कर दें!" बोली उमा,
"अच्छा! तो निकलवाओ मुहूर्त?" बोली सामिया!
"हाँ, पिता जी जाएंगे कल!" बोली उमा!
"अच्छा, बढ़िया!" बोली सामिया!
"और लो न?" बोली उमा,
"बस! दो खा लिए!" बोली उमा,
"और खा लो!" बोली एक और देते हुए!
अब लेना ही पड़ा सामिया को!
कुछ देर बाद, एक फाइल उठायी सामिया ने, और चली गयी बाहर, एक अदालत में जाना था उसे, वहाँ उसे एक घंटा लग गया, और फिर वो वापिस आई, जब वापिस आयी, तो पिता जी भी आ चुके थे!
"वो इनायत अली वाला काम हुआ?" पूछा पिता जी ने,
"हाँ, हो गया" बोली सामिया,
"वो फाइल दो मुझे?" बोले वो,
सामिया ने फाइल, अलमारी से निकाली और दे दी,
"बैठो!" बोले वो,
बैठ गयी वो,
अब कुछ समझाया सामिया को उन्होंने, कल काम था दूसरे शहर में, तो सामिया को समझा दिया था उन्होंने, सामिया ने डायरी में लिख लिया सबकुछ,
कुछ देर बाद, पिता जी चले गए, अब सामिया कोई कोई काम नहीं था, सोचा, घर ही चला जाए, उमा से बात की, और चल दी वापिस घर के लिए! आज कोई फाख्ता नहीं आया था! न वो सफेद वाला और न वो देसी वाला, हालांकि, सामिया ने, उसको ढूँढा ज़रूर था!
आई घर, माँ से मिली, और हाथ-मुंह धोये, फिर अपने कमरे में चली गयी, कपड़े बदले, और बैठ गयी कुर्सी पर, कुछ काम लायी थी दफ्तर से, उसी में लगी रही!
और तभी बजा फ़ोन उसका, उठाया उसने, ये उसके बड़े भाई थे, साजिद! भाई से बातें हुईं, भाइयों से बहुत प्यार था सामिया को! और भाइयों की तो जान थी सामिया! खूब बातें हुईं और फिर फ़ोन, माँ को दे आई!
कोई छह बजे,
हिना आई, बैठी उसके साथ,
"कल? हूँ?" बोली हिना,
"हाँ, हाँ!" बोली सामिया!
हंस पड़ी हिना! खुश हो गयी थी बहुत!
"मजा आएगा सामिया! बहुत मजा!" बोली हिना!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो वो रात, आराम से कटी! उस रात कोई ख़्वाब नहीं आया! कहीं नहीं गयी वो घूमने अपने ख़्वाब में! नींद भी जल्दी आई थी, और उठ भी जल्दी ही गयी थी, नहा-धोकर तरो-ताज़ा भी हो गयी थी! कुछ ही देर में, चाय-नाश्ता भी कर लिया था, करीब आठ बजे, हिना आ गयी थी सामिया के पास, सामिया ने अपना बैग उठाया और अपनी मम्मी और अपने पापा को बता ही दिया था उसने, और चली गयी हिना के साथ! शाम तक वापसी हो ही जानी थी! तो करीब साढ़े आठ बजे, हिना, उसकी मम्मी, सामिया, गाड़ी में बैठ चुके थे, चालक ने गाड़ी आगे बढ़ा दी थी! और इस तरह कोई ग्यारह बजे, वे पहुँच चुके थे, जहां उन्हें जाना था, ये हिना के मां का घर था, हिना की मम्मी आई थीं मिलने उनसे, खूब मेहमान-नवाजी हुई सभी की! और फिर, करीब बारह बजे, हिना, उसकी मेरी बहन और सामिया, निकल पड़े बाज़ार के लिए! कुछ ज़रूरी खरीदारी करनी थी, सो उसी के लिए निकलीं वो! सामान ले लिया था उन्होंने, और कुछ हल्का-फुल्का खा भी लिया था वहीँ, बाज़ार में! और उसके बाद, वो घूमने चल दीं, जहां थोड़ा बैठा जा सके! तो एक उद्यान उन्हें दिखा, लोग अक्सर आते हैं यहां, बालक खेल भी करते हैं, तो वे तीनों बहन, जा बैठीं एक जगह! जो सामान खरीदा था, उसी को ठीक ढंग से रखा उन्होंने, पानी पिया और कुछ देर आराम किया!
कुछ ही लम्हे बीते होंगे, कि एक तेज ख़ुश्बू उठी वहां! जैसे ही, वो ख़ुश्बू, नथुनों में पहुंची सामिया के, उसने हैरानी से इधर उधर देखा! आगे, पीछे, दायें बाएं!
"क्या हुआ सामिया?" पूछा हिना ने,
"क्या तुम्हें कोई ख़ुश्बू आई? आ रही है? तेज ख़ुश्बू?" पूछा सामिया ने!
उन दोनों ने, तेजी से साँसें अंदर खींचीं!
"नहीं तो?" बोली हिना,
"ऐसा कैसे हो सकता है? मुझे तो आ रही है?" बोली सामिया,
"हमें तो कोई ख़ुश्बू नहीं आ रही?" बोली हिना,
"अरे बहुत तेज है!" बोली सामिया,
"अच्छा? कैसी है?" पूछा हिना ने,
"जैसे चंदन कि तेज ख़ुश्बू हो!" बोली आँखें बंद करते हुए!
"हो जाता है ऐसा कभी कभी!" बोली हिना,
"लेकिन ये तो लगातार आ रही है?" बोली सामिया!
"न, हमें नहीं आ रही!" बोली दोनों!
तभी एक पेड़ पर, सामिया की नज़र पड़ी! उस पेड़ कि एक शाख पर, वही सफेद फाख्ता बैठा था! सामिया को ही देखते हुए!
"वो देखो?" बोली सामिया,
"क्या है?" बोली हिना,
"वो सफेद फाख्ता!" बोली सामिया, इशारा करते हुए उसकी तरफ ही!
"सफेद? वहाँ तो काला भी नहीं? खाली पड़ी है शाख?" बोली हिना!
"पागल है क्या? वो देख, यहां से देख!" बोली सामिया,
हुए हिना वहाँ, देखा गौर से, कुछ न दिखा!
"दिखा?" पूछा सामिया ने,
"न, कुछ नहीं है!" बोली हिना,
"अंधी हो गयी है क्या? वो सामने ही तो बैठा है? देख, वो चला उड़ कर!" बोली सामिया, इशारा करते हुए!
"कहाँ उड़ा?" पूछा दोनों ने!
"उड़ गया! पता है, मेरे दफ्तर से लेकर, घर तक आया था ये! और कमाल ये कि ये यहां भी आ गया! एक परिंदा, ऐसा कैसे कर सकता है?" बोली सामिया!
अब न बोलीं दोनों कुछ!
चुपचाप ही देखती रहीं उसे!
"पहले ख़ुश्बू! फिर फाख्ता! कमाल है सामिया!" बोली हिना,
"अब तुझे नहीं दिखा, ख़ुश्बू नहीं आई, तो मैं क्या करूँ!" बोली सामिया,
"कुछ नहीं, अब चल, चलें!" बोली हिना,
"चल!" बोली सामिया,
और जी, बात आई-गयी हो गयी!
ख़ुश्बू भी गयी, और फाख्ता भी!
चल दीं घर की तरफ! और कुछ ही देर में जा पहुंचीं! सामान रखा, और फिर खाना भी खा लिया! फिर कुछ देर आराम! और इस तरह, वे सब, चार बजे तक, वापिस हो गए, जयपुर के लिए! ढाई घंटे में जा पहुंचे! हिना अपने यहां और सामिया अपने यहां!
"क्या ले आई सामिया?" माँ ने पूछा,
"ये सामान है, और ये, सूट-सलवार हैं, नज़मा के लिए!" बोली सामिया!
"ये अच्छा किया! बेचारी पर कपड़े नहीं थे!" बोली माँ,
"हाँ, इसीलिए ले लिए!" बोली वो,
"बहुत अच्छा किया!" माँ ने कहा, और वो थैली, रख दी एक तरफ!
उठी सामिया, और चली गुसलखाने, धोये हाथ-मुंह, पोंछें, बदले कपड़े, और सीधा अपने कमरे में चली! अपना लाया सामान, अपनी अलमारी में रखा, और लेट गयी बिस्तर पर!
वो फाख्ता?
वहाँ भी आ गया?
या कोई और था?
लगता तो वही था?
अरे नहीं! कोई और होगा!
नहीं?
तो फिर, उन दोनों को क्यों नहीं दिखा?
बदल ली करवट! जब जवाब नहीं होता हमारे पास, तो अटकलें लगाते हैं हम! और किसी न किसी तरह, उसका जवाब पा ही लेते हैं, अब भले ही वो सटीक न हो!
थक तो गयी ही थी, सो, जल्दी ही, बदन ढीला हो गया, और पलकें बंद हो गयीं!
कुछ ही देर में, आँखों के दीदे, पलकों के नीचे, नाच उठे! वो कहीं जा पहुंची थी!
वो जहाँ थी, वो सागर का किनारा था! पश्चिम में, सूरज लालिमा बिखेरता हुआ, जैसे समंदर में, गोता लगाने ही वाला था! अलमस्त हवा चल रही थी! जैसे छूट कर आई हो किसी क़फ़स से! हवा चलती, तो उसके बाल उड़ते! वो अपने लटों को, बारम्बार, संभालती! मौसम ठंडा तो नहीं था लेकिन हल्का सा सर्द था! वो नज़ारा बेहद सुंदर था! समंदर के रेत पर, बह कर आये, सीपी और शंख, प्रवाल आदि पड़े थे! वो सोने जैसे चमक रहे थे! समंदर की रेत,  और उसके कण जैसे चांदी जैसे रंग के थे!
"सामिया!" आई आवाज़ उसे!
आवाज़ में लरज थी, जैसे किसी ने, शरमा कर, बड़ी हिम्मत जुटा कर, वो नाम बोला वो!
"नहीं, पीछे नहीं देखना सामिया!" आई आवाज़!
"सामिया! वो पानी, पानी! मचल रहा है तुम्हारी कदमबोसी करने को!" बोला कोई!
और अगले ही लम्हे! पानी कि एक लहर उठी, और रेत को चूमती हुई, आ लिपटी सामिया के क़दमों से! ठंडा पानी क़दमों से लगा, तो सिहर सी गयी सामिया!
"वो देखो सामिया! वो ज़ज़ीरा!" बोला कोई,
सामिया ने देखा, एक टापू था, छोटा सा! पेड़ों से घिरा हुआ!
"आओ सामिया!" बोला वो,
सामिया ने आँखें मूंदी ही थी, कि अगले ही लम्हे, वो उस ज़ज़ीरे पर खड़ी थी! रेत के कण चमक रहे थे! अलमस्त हवा, उसके बाल उड़ाए जा रही थी! सामिया, हिम्मत न जुटा सकी कि अपने बाल ठीक कर ले! पता नहीं क्यों! आसमान में, लाल से और पीले से बादल जैसे आपस में बतिया रहे थे! समंदर की रेत, उनकी चमक से, लाल लग रही थी!
सहसा, कोई उसके पीछे आया! रुका!
"सामिया!" बोला वो,
और उसने, ज़रा सा छुआ सामिया के बालों को! अगले ही लम्हे, उसका रंग, शफ़्फ़ाफ़ हो उठा! उसके बदन से, ख़ुश्बू उठने लगी! बाल, सही कर दिए गए थे उसके, और कोई, पीछे हुआ!
"मैं कौन हूँ?" बोला कोई,
सामिया का दिल धड़का! तेज! बहुत तेज!
"है न सामिया?" पूछा किसी ने,
सामिया, क्या बोले!
पत्थर सी बनी, सुनती रही!
"है न सामिया?" बोला फिर से वो!
अब, हल्के से, सर हिलाया उसने! पूछा मन ही मन, कि हाँ!
"मैं अबज़ैर हूँ सामिया!" बोला वो,
जानती थी वो!
लेकिन?
"कौन अबज़ैर? है न?" पूछा किसी ने,
फिर से सर हिलाया, दिया जवाब में एक सवाल! हाँ!
"सामिया! मैं चाहता हूँ तुम्हें बताना, लेकिन..............." इतना बोल, चुप हो गया वो!
इंतज़ार!
इंतज़ार किया सामिया ने!
हाथों के अंगूठों से खुरच-खुरच कर, उंगलियां लाल कर लीं!
लेकिन इंतज़ार!
इंतज़ार ही रहा!
"सामिया! बता दूंगा, बता दूंगा, एक रोज! बता दूंगा!" बोला कोई,
और हटा पीछे की तरफ वो!


   
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फिर कुछ लम्हों तक, सन्नाटा पसरा रहा! या तो समंदर की आवाज़ आती, या फिर, सामिया के दिल की धड़कन की आवाज़! कुछ और लम्हात आगे बढ़े! और तब, सामिया ने चेहरा घुमाना चाहा अपना! देखने को, कि अबज़ैर वहां है, या चला गया?
"नहीं सामिया! नहीं!" बोला वो!
चौंक पड़ी वो, वो आवाज़ सुनकर!
"अभी नहीं सामिया! वो वक़्त नहीं आया अभी!" बोला वो,
वक़्त?
कौन सा वक़्त?
किस वक़्त के ज़िक्र किया अबज़ैर ने? न समझी वो!
"मैंने..........." और इतना ही बोल, चुप हो गया वो!
न कह सका वो! कह ही नहीं पाया! अलफ़ाज़ अटक के ही रह गए गले में उसके! अब देखिये! ऐसी बे-पनाह ताक़त का मालिक, अटक कर रह गया! जिसके आगे, क़ायनात की हर चीज़ डोल जाए, क़हर बरपा दे! वो अटक के रह गया! ये है, मुहब्बत की वो नाज़ुक बेड़ी, जिसमे जो एक बार फंसा, तो निकलना दूभर हुआ! एक इफरित, एक मिट्टी की बुत से मुहब्बत कर बैठा!
हवा चली! तेज! सामिया के कपड़े झरझरा गए! बदन में, पनाह लेने लगे! उसके क़दम उखड़ने से लगे उस रेत में! संभाला उसने अपने आपको! किसी तरह!
"सामिया!" बोला वो,
सामिया चुप! लेकिन कान, वहीँ, पीछे की ओर ही लगे रहे!
"सोच रही हो, क्या ये हक़ीक़त है?" बोला वो,
हाँ! यही तो सोच रही थी वो!
"क्या कोई, अपने ख़्वाब जीता है, जीते-जी? यही न?" पूछा फिर से उसने!
चुप! सामिया चुप! अबज़ैर, वही बोल रहा था, जो सवाल ज़हन में थे उसके!
"क्या ये, सब, हक़ीक़त है या फिर महज़ एक ख़्वाब? यही न?" पूछा उसने,
यक़ीनन! यक़ीनन! यही चंद सवालात थे उसके ज़हन में!
"सामिया! ये हक़ीक़त है! अमलन है! ये उतना ही सच है, जितना उस उफ़्क़(क्षितिज) में, रखा वो आफ़ताब!" बोला वो,
क्या? क्या सुना उसने? ये हक़ीक़त है?
दिल में धड़कन बेलग़ाम हो गयी!
बदन की नसों में बहता लहू, जैसे जम गया!
पेशानी पर, पशोपेश के पसीने छलक उठे!
एक ही लम्हे में, माहौल सर्द से, आतिश हो उठा!
और उसी लम्हे!
वो उठ बैठी!
उसकी धड़क ऐसे चले, जैसे तेज बहता नदी का पानी!
घड़ी की कच-कच भी न सुनाई दे!
पंखें की पंखड़ियों की भी जैसे आवाज़ दब के रह गयी!
वो सब, हक़ीक़त कैसे हो सकता है?
कैसे? कौन यक़ीन करेगा अगर किसी को बताया जाए तो?
तभी उसके पाँव, ठंडे हुए हैं, ऐसा लगा उसे, उसने छू कर देखा उन्हें, हाँ! वो ठंडे थे! जैसे, गीले हुए हों और पंखें की हवा में, अब सूख कर, ठंडे हो रहे हों! उसने हाथ देखे अपने, और जो देखा, वो उसे देख, खड़ी हो गयी!
उसके हाथों में, रेत के, महीन महीन कण थे! जो चमक रहे थे! ऐसा कैसे हो सकता है? वो अपने बदन के साथ, इतनी दूर, कैसे जा सकती है? सोच का जाना तो मुमकिन है, लेकिन बा-बदन? ऐसा कैसे मुमकिन है?
किसको बताये वो?
किसको?
कौन यक़ीन करेगा उस पर?
नहीं, कोई भी यक़ीन नहीं करेगा उस पर!
बल्कि, उसको ही पागल कहा जाएगा, मज़ाक उड़ाया जाएगा उसका! मखौल बन कर रह जाएगा उसका ज़िक्र करना भी!
हैरान! और परेशान!
दिल और दिमाग़ में अब, कोर्ट-कचहरी हो गयी!
दिल, इसे एक हसीन ख़्वाब और हक़ीक़त माने, और दिमाग़, दलीलों के पेंच कसे! फंस के रह गयी सामिया! और फिर! कुछ सोचा उसने! सोचा कुछ पुख्ता! अगर ये हक़ीक़त है, तो उसे ही पूछना होगा! पूछना होगा अबज़ैर से! अगर ये हक़ीक़त है, तो इसके पीछे हक़ीक़त क्या है? और अगर ये महज़ ख़्वाब है, तो अब वो परेशान है इस ख़्वाब से! नहीं चाहती वो ऐसा ख़्वाब! यही सोचा! और लेट गयी! लेकिन अब न आई नींद उसे! और वैसे भी, अब कुछ काम वग़ैरह भी संजोना था कल के लिए, खाना भी खाना था!
तो सामिया, लग गयी अपने काम-काज में, लेकिन, रह रह कर, उसे सब याद आता रहा! बीच बीच में ध्यान टूट जाता उसका, कभी किसी जगह, और कभी किसी जगह!
अब अबज़ैर का असर, हावी होने लगा था उस पर! जंग का पहला फाटक, भेद डाला था अबज़ैर ने! अबज़ैर का जितना ख़याल आता, सवाल और गाढ़े हो जाते! उतना ही पुख्ता हो जाता, अबज़ैर का गिर्दाब(बवंडर)! घेर लेता अपनी गिरफ्त में सामिया को!
रात!
उस रात!
करीब ढाई बजे! सामिया, सो रही थी! उसकी आँखों के दीदे, नाच उठे पलकों के बीच! सुनाई दिया कुछ संगीत सा! संगीत, कोई पुराना सा संगीत! कोई पुराना सा वाद्य बज रहा था! वो संगीत, हवा में तैर रहा था! और वो खुद, एक कमरे में थी! कमरा बेहद आलीशान था वो! छतों पर, बेल-बूटे बने थे! रंग-बिरंगे! जैसे, एकदम असली हों वो बेल-बूटे! दीवारों पर, नक्काशी बनी थी! ऐसी महीन जालियां थीं, कि बाल भी पार न जा सके एक! दूर से देखने पर, सामने का नज़ारा दीखता था, और पास आने पर जैसे, वो एक महीन सा कपड़ा हो! ऐसी नक्काशी, कहीं न देखी थी सामिया ने!
हवा चली! और उस महीन से झरोखे में से पार को, सामिया के बदन को चूमती हुई चली गयी! वो कमरा, बहुत बड़ा था, उसके बीचों बीच, एक बड़ा सा गुलदस्ता रखा था, उसमे बेहद सुंदर और नायाब फूल सजे थे! जो उसने कभी देखे ही न थे! एक दीवार पर, पर्दे लगे थे, पर्दे, सोने की तार हों वो रस्सियाँ, उनसे बंधे थे, शायद, दुनिया में जितने भी रंग होंगे, वे सब रंग उन पर्दों में थे! एक एक पर्दे की ऊंचाई, करीब पच्चीस-तीस फ़ीट की रही होगी!
उस कमरे में से, दो रास्ते बाहर की तरफ जाते थे! वो चली, तो पांवों में जैसे मखमल छुआ हो, ऐसा लगा! संतरी रंगे के कालीन थे वो! उसके पांवों की उंगलियां और एड़ियां, धंस गयीं थीं उसमे! वो चली एक रास्ते के लिए, चौखट तक पहुंची वो, चौखट ऐसी थी, कि उसमे भी नक्काशी की गयी थी! बे-हिसाब से सूरज बने थे उसमे, जिसके किरणों को दिखलाने के लिए, पीले रंग का इस्तेमाल किया गया था! और दरवाज़ा, दरवाज़ा दो किवाड़ों वाला था, लाल रंग की लकड़ी के बने थे, ऐसे चमक रहे थे कि जैसे कांच के बने हों! वो अपने आप में खोयी हुई आगे बढ़ी!
जैसे ही बाहर आई, नज़रों ने क्या देखा!
दूर तलक सफेद और बैंगनी फूलों से भरी ज़मीन थी वो!
बीच बीच में, कई क़तारों में, खुबानी के पेड़ लगे थे!
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू फैली थी वहाँ!
ये ख़ुश्बू किसी को भी मदमस्त कर सकती थी! किसी को भी! चंदन और गुलाब की जैसे मिली हुई ख़ुश्बू थी वो!
आसमान नीला चमक रहा था! सफेद बादल छाये थे! और ऐसे लगते थे कि, जैसे हाथ बढ़ाओ और पकड़ लो!
"सामिया!" आई आवाज़ उसे!
उसने चारों तरफ देखा! ढूँढा किसी को!
"सामिया! तुम यहां आयीं, मैं तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ!" आई आवाज़ उसे!
हवा बह उठी!
ख़ुश्बू, फ़ैल उठी!
फूल, जैसे चहक उठे!
"सामिया!" आई आवाज़, इस मर्तबा, पीछे से!
कोई चल के आ रहा था उसके पास! और, कुछ दूरी पर रुक गया वो!
"नहीं सामिया! अभी नहीं!" बोला वो,
नहीं घूमी पीछे फिर!
"सवालात! है न सामिया?" बोला वो,
हाँ!
कहा मन ही मन!
"मिल जाएंगे जवाब तुम्हें सामिया!" बोला वो,
कब?
पूछा मन ही मन!
"बहुत जल्द!" बोला वो,
और बढ़ा थोड़ा आगे वो!
"तुम बेहद सुंदर हो सामिया!" बोला वो,
जिस लहजे में बोला वो, वो लहजा, जैसे टीस भरा था! जैसे, तड़प रहा हो वो, जैसे अब सब्र नहीं रखा जा रहा हो उस से! जैसे, बाँध अब बस, टूटने को ही हो!
और सामिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और सामिया! चुप! खड़ी ही रही! अलफ़ाज़ ही न निकले! बस इंतज़ार करने लगी अबज़ैर के बोलने का! और अबज़ैर, बेचैन! बेखुद सा! बेखुद! हाँ, खुदी से अलहैदा! अलहैदा ही खड़ा था! बस, निहारता जाता था सामिया! को!
"सामिया! उस रोज का इंतज़ार है मुझे, जिस रोज मुझे, दिल से आवाज़ दोगी तुम! सच कहता हूँ, उसी लहू तुम्हारे पास होऊंगा मैं!" बोला वो,
ये क्या कह गया वो!
सामिया पर, जैसे ठंडे पानी की बौछार पड़ गयीं हों!
वो तो, सिहर सी उठी! बदन से, सर्द सिसकारी सी छूट गयी ये सुनकर उसके!
"सामिया! अब न आऊंगा तुम्हारे पास मैं! न आऊंगा, जब तक, तुम खुद मुझे नहीं बुलाओगी!" कह गया वो!
एक एक अलफ़ाज़, बेहद भारी लगा था सामिया को! समझ तो गयी थी, कि ये इज़हार-ए-मुहब्बत है अबज़ैर का! और अबज़ैर, जलावन तो ले आया था, रख दिया था जलावन दिल में सामिया के, चिंगारी बस, सामिया को लगानी थी और हवा, वो अबज़ैर दे देता!
"अब इजाज़त लूँगा!" बोला वो,
और खुल गयीं आँखें सामिया की!
पल भर को तो, कुछ समझ ही नहीं आया उसे! पूरा का पूरा ख़्वाब, एक धागे की तरह से, एक छोर से, दूसरे छोर तक, पल भर में ही नाप लिया! याद आ गए उसे अलफ़ाज़ वो! अबज़ैर के वो कशिश भरे अलफ़ाज़! वो उठी, एक झटके से, घड़ी देखी, चार बज चले थे, आँखों से, नींद रुख़सत हो चली थी, और पलकों पर, अब उसके कोई निशान बाकी भी न थे!
वो उठी बिस्तर से, चली बाहर, घुसी रसोई में, कांपते हाथों से, फ्रिज खोला, उसमे से बोतल निकाली, गिलास उठाया, और डाला पानी उसमे, एक कुछ ही घूँटों में, पानी खत्म कर दिया! दो गिलास पानी पिया  उसने! बोतल, ढक्क्न लगा, फिर से फ्रिज में रख दी, गिलास, वहीँ रख दिया, और धीमे से क़दमों से, चली अपने कमरे में सामिया!
बैठ गयी कुर्सी पर! चार बजे थे, घड़ी देखी थी उसने!
"अब नहीं आऊंगा मैं?" यही बोला था न अबज़ैर?
क्यों?
क्या मैंने कुछ कहा?
क्या कोई गलती पेश आई उस से?
क्यों नहीं आएगा वो?
ये, उथला सा पानी था दिल के समंदर का!
जो ऐसे बचकाना से सवालात पूछ रहा था!
गहराई में क्या है, ये तो सामिया ही जाने!
खैर,
सुबह हुई, और सुबह तलक, वो ख़्वाब, और वो अलफ़ाज़, चिपके रहे दिमाग़ी ज़मीन से! कई मर्तबा कोशिश की, लेकिन हटे ही नहीं! जैसे उन्होंने जड़ें पकड़ ली हों!
दोपहर का वक़्त था को!
सामिया, अपनी एक फाइल में उलझी थी, कुछ देर बाद ही, उसको पेश होना था किसी मुक़द्दमे के सिलसिले में, उसी की तैयारी में थी, उमा आई एक अदालत से, और बैठ गयी वहीँ!
"वो, सामिया?" बोली उमा,
"हाँ?" देखा उमा को, और पूछा,
"मुहूर्त निकल गया! अगले महीने की, नौ तारीख को है शादी!" बोली उमा!
"अरे वाह! मुबारक हो!" बोली सामिया! मुस्कुरा कर!
"तुमने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ!" बोली उमा,
"करने वाला तो उपरवाला है!" बोली वो,
"हाँ, लेकिन ज़रिया तुम ही बनीं!" बोली उमा!
मुस्कुरा के रह गयी सामिया!
तो साहब,
पेशी में गयी वो, और उस मुक़द्दमे में, बहस की तारीख पड़ गयी! सामिया के पिता जी के लिए, ये इज़्ज़त का मुक़द्दमा था! हार जाते, तो बहुत बे-इज़्ज़ती होती उनकी वकीलों में! दोपहर बाद सामिया के पिता जी आये तो उन्हें खबर दी गयी, अब वे जुट गए उस मुक़द्दमे की तैयारी में! बहस की तारीख जल्दी की ही पड़ी थी, और काम बहुत था!
उस दिन, एक बात पर गौर किया सामिया ने, उस रोज, सारा दिन, कोई भी फाख्ता नहीं आया अंदर! ये कमाल की बात थी, नहीं तो दिन में, कई मर्तबा वो आया करता था! उस रोज तो क़तई नहीं!
और जब सामिया, वापिस घर आ रही थी, वो भी कोई फाख्ता नहीं, कोई सफेद वाला फाख्ता भी नहीं! ये अजीब तो था, लेकिन इसके लिए माथा फोड़ा जाए, ऐसा कुछ नहीं था!
तो मित्रगण!
छह रोज गुजर गए! न कोई ख़्वाब है आया, और न कोई फाख्ता ही दिखा! सामिया भी, अब सामान्य सी ही हो चली थी, उसने कभी ज़ोर न दिया!
ठीक सातवें दिन, दफ्तर में, एक फाख्ता घुसा! वही, सफेद वाला फाख्ता! सामिया देखती रह गयी उसे! उसने सामिया को देखा, और फिर से उड़ गया!
इस तरह दस दिन और बीत गए! फाख्ता, नहीं आया!
उमा की बहन की शादी को अब पांच दिन बचे थे, वो छुट्टी पर चली गयी थी, सारा काम, अब सामिया को ही करना पड़ता था!
और इस तरह, दो दिन के बाद, वो दिन भी आ गया, जिस दिन मुक़द्दमे में बहस थी! सामिया और उसे पिता जी, और अन्य दो सहायक वकील, तैयार थे!
उस दिन, दोपहर में, अदालत में बहस शुरू हुई! बहस, को दो घंटे हो चले थे, और विरोधी पक्ष का पलड़ा, अब भारी पड़ने लगा था! तभी!
तभी, सामिया की नज़र, बाहर पड़ी, गैलरी में, वो सफेद फाख्ता बैठा था, एक जंगले पर! और यहीं से, सामिया के पिता का पलड़ा भारी पड़ता गया! ठीक सासधे चार बजे, फैंसला सुरक्षित रख दिया गया! अब चिंता तो थी ही, कि जज साहब ने क्या फैंसला लिखा होगा! लेकिन अब तो फैंसला, सुरक्षित रख दिया गया था, दो दिन बाद, फैंसला, सुनाया जाना था!
वे लोग बाहर आये!
सामिया ने वो जंगल देखा!
वो फाख्ता, अभी भी वहीँ बैठा था! देख रहा था सामिया को! और फिर, उड़ चला वो! चला गया! वे लोग, चले वापिस दफ्तर के लिए! आये दफ्तर! बैठे सभी!
"बहस तो अच्छी हुई!" बोली पिता जी,
"हाँ जी!" सहायक वकील ने कहा,
"लेकिन दलीलें उनकी भी माक़ूल ही थीं!" बोले वो,
"हाँ जी, लेकिन आपने अच्छा जवाब दिया!" बोला सहायक!
तो इस तरह, चाय-पानी हुआ, और शाम को, पिता जी और सामिया चले घर के लिए वापिस! पहुँच गए घर!
तीन दिन बाद!
फैंसले का दिन!
और जो फैंसला आया! वो ठीक वैसा ही था, जैसे सामिया के पिता जी चाहते थे! वो जीत गए थे! यूँ कहिये कि, अँधेरे कुँए में से, एक सुईं ढूंढ ही लाये थे!
भीड़ लग गयी वकीलों की!
शाबासी हुई! तारीफ़ की गयी!
आज तो उनकी ज़िंदगी का ये, सबसे अहम दिन साबित हुआ! ज़ाहिद भी आया था, उसके पिता जी भी, उस दिन तो जम कर, दावत हुई! घर में, रात को दावत भी रखी गयी!
उसी रात,
दावत अपने ज़ोर पर थी! ज़ाहिद, अपने पिता जी के साथ आया था, सामिया से बातें कर रहा था! सामिया बहुत खुश थी! आज उसके पिता जी ने वो मुक़द्दमा जीत लिया था!
"कमाल कर दिया आपके पिता जी ने तो!" बोला ज़ाहिद!
"मेहनत भी बहुत की!" बोली वो,
"हाँ, लगता था कि मुश्किल पड़ेगा!" बोला वो,
"हाँ!" बोली वो,
देर रात तक, दावत चली! ज़ाहिद भी चला वापिस अपने पिता जी के साथ! और सामिया, हाथ-मुंह धो, अपने कमरे में चली आई!
बैठी कुर्सी पर!
तो आई उसको कुछ आवाज़!
आवाज़!
जैसे किसी ने सिसकी भरी हो!
जैसे कोई, सुबका हो!
वो बाहर चली, सब ठीक था!
माँ के पास चली, सब ठीक,
पिता जी अभी जागे थे, वो भी ठीक!
कामवाली सो गयी थी, वहाँ भी ठीक!
तो, सुबका कौन?
किसने भरी सिसकी?
समझ न आया उसे कुछ भी!


   
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