मैं और शर्मा जी, आगे बढ़ चले, तभी एक चीख गूंजी! चारों तरफ गूँज पड़ी! और उसके बाद, कोई आवाज़ नहीं हुई! हमने एक घंटा इंतज़ार किया, कोई आवाज़ नहीं! अब रात में ही मुआयना करते! तभी कुछ पता चलता!
तो हम वापिस हो लिए! घर आये वापिस, हाथ-मुंह धोये , खाना खाया और फिर आराम किया, आज रात जागना ही था, उम्मीद थी, कि वो पिच्छल-पैरी दीख जाए! तो तभी निर्धारित करें कि आगे होता क्या है! क्या व्यवहार रहता है उसका! अभी तक तो मेरे लिए वो बस एक क़िस्से-कहानी में ही थी, सामने देखूं तो कुछ पता चले! रात में खाना खाया! भरवां टिंडे थे, दही, दाल, कोरमा आदि, पेट भर के खाया! पानी पिया और फिर थोड़ा आराम किया, तीन टोर्च मंगा ली थीं, दुशाला भी और साथ में ले जाने के लिए दो कुल्हाड़ियाँ भी, ज़रूरत पड़ती तो लकड़ियाँ काट, आग जला लेते! और वैसे ही, ये सभी मूल रूप से देहाती ही थे! हमसे कहीं ज़्यादा तज़ुर्बा था उनके पास! हना, रात के लिए एक बड़ा सा तिरपाल रख लिया था हमने, और इस बार फिर से, एक बार जंगल में ही रात बितानी थी! बस बारिश ही न पड़े! इसी की खैर मना रहे थे! थोड़ी देर में, शम्सू भी आ गया, साथ में कोई छह फ़ीट का बांस, और चार पाये लाया था, कुन्दे थे वो, उसके अनुसार रात को गिरती ओंस, और सुबह हो जाता बुखार! बात सही थी उसकी! हमने सामान आपस में बाँट लिया और चल पड़े! जैसे ही घर से निकले, अँधेरे ने आँखें बिछा, ख़ैर-मक़दम किया हमारा! घरों में चूल्हा-चौकी निबट चुका था, अब लोगबाग भी सोने की तैयारी में थे! एक टोर्च जला ली थी, उसी के सहारे, हम टपर-टपर आगे बढ़ते गए! जैसे ही गाँव से निकले बाहर! ऐसी हवा चली कि पसलियों में घुस नाम पूछें बार बार! दुशाला ओढ़ लीं हमने! तब जाकर राहत पड़ी!
पड़ी नदी, आया पुल, वो पार किया, शम्सू आज दूसरे रास्ते से ले जा रहा था, हमें पूठ वाले तालाब पर जाना था, उस छोटे तालाब पर, बड़े तालाब जाना नहीं था, इसीलिए रास्ता बदल लिया था अपना! यहां से, शम्सू के मुताबिक़ रास्ता आधा ही हो जाता!
"अहमद साहब?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो,
"आज कितने दिनों बाद रात बिताओगे जंगल में!" पूछा मैंने,
"बहुत साल गुज़र गए!" बोले वो,
"कितने?" पूछा मैंने,
"फ़िरोज़?" बोले वो,
"कोई दस साल से ज़्यादा हो गए जी!" बोले फ़िरोज़!
"फ़िरोज़?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"डर तो न लग रहा?" पूछा शर्मा जी ने,
"न जी! क़तई न!" बोले वो,
"बस फिर क्या है!" बोले शर्मा जी!
तो इस तरह, हम पहुँच गए वहां! रखा सामान नीचे!
"वहां ठीक है!" बोले फ़िरोज़,
वो साफ़ जगह थी, रेत थी सफेद सी! रात में भी चमक रही थी!
"ठीक है!" बोले अहमद साहब,
"शम्सू?" बोले वो,
"हाँ?" बोला वो,
"चल यहां लगा दे ये टबोकरा!" बोले वो,
"अभी लो!" बोला वो,
अंधियारी रात! चन्द्रमा छिपे हुए थे बादलों में! झाड़ियों में से, अजब-अजब आवाज़ें आएं! मैंने तो मंझीरों की, झींगुरों की, हल्लुओं की आवाज़ ही सुनी थी! हल्लू के कीड़ा होता है, जुगनू जैसा, बस वो चमकता नहीं है! आवाज़ निकालता है, और चुपके से, ज़बरदस्ती कर, मादा-जुगनू से समागम कर लेता है! जुगनुओं के साथ ही, उसके भी बच्चे पलने लगते हैं! हल्लू की मादा किसी काम की नहीं होती! होती भी है तो कोई कोई ही अंडे दे पाती है! वो आवाज़ करता है, करक-करक की सी! रात में! और खासतौर पर, बरसात के बाद!
लेकिन यहां!
यहां तो मैंने पहली बार य-य-य-य की सी अलग ही आवाज़ सुनी! एक त्रू-त्रू सी! एक, जैसे कोई डकार ले! घर्रर! एक, पीं-पीं से!
सर चकरा गया! समझ ही नहीं आया ये कैसी आवाज़ें हैं! जानवर की तो छोड़ो, ये कीड़ों की अजब आवाज़ें ही आदमी का दिल बैठा दें!
लग गया टबोकरा!
और हम घुस गए उसमे! हवा चल रही थी बर्फीली सी! अंदर राहत मिली!
"बहन**!!" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये कौन सा जानवर आवाज़ कर रहा है पीं पीं सी?" बोले वो,
मैं हंस पड़ा बहुत तेज!
"जानवर नहीं है ये!" बोले फ़िरोज़!
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"ये एक मेंढकी है! छोटी सी, लाल रंग की!" बोले वो,
"इतनी तेज आवाज़ में पीपनी?" बोले वो,
"हाँ जी! यहां औरत बुलाती है आदमी को, कि घर सजा हुआ है!" बोले वो और हँसे!
"घर सजा रही है कि हमारी सुजा रही है!" बोले वो, हँसते हुए!
सभी हंस पड़े उनकी इस बात पर!
"अरे चुप हो जाओ बहन की ***!!" बोले वो,
फिर से हँसे सभी!
"और ये बहन** य य य?" बोले वो,
"ये एक कीड़ा है जी!" बोले वो,
"इसने क्या दारु पी ली है?" बोले वो, हँसते हुए!
फिर से हँसे सारे हम!
"ऐसी ही आवाज़ निकालता है ये, अपने पंखों पर अपने पाँव रगड़ता है!" बोले वो,
"अच्छा, ये बुला रहा है किसी औरत को!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोले वो,
"और ये घर्र घर्र सी?" पूछा उन्होंने,
"ये एक छछूंदर है जी!" बोले वो,
"साली, डकरा रही है!" बोले वो,
फिर से हँसे!
"हमारे यहां के कीड़ों को यहां छोड़ दो, रात वालों को, तो ज़िंदगी भर हमे गालियां देंगे!" बोले वो,
"हाँ! सही कहा!" बोले अहमद साहब!
हम बज गए ग्यारह!
अब सब शांत था वहाँ! बस वो कीड़े ही चिल्ला रहे थे!
"क्या बजा?" पूछा फ़िरोज़ ने,
"ग्यारह!" कहा मैंने,
"मैं लेट जाऊं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, लेटो!" कहा मैंने,
जगह बनाई, और लेट गए!
"अहमद साहब?" बोला मैं,
"जी?" कहा उन्होंने,
"आप भी लेटो?" कहा मैंने,
"लेट जाऊँगा!" बोले वो,
"कर लो आराम!" बोले शर्मा जी,
"अच्छा जी!" बोले वो, और लेट गए!
"शम्सू?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"पानी बढ़ा दे?" कहा उन्होंने,
"अभी" बोला वो,
निकाला पानी झोले से, और बढ़ा दिया हमारी तरफ,
लिया शर्मा जी ने, और पिया!
"पियोगे?" पूछा,
"हाँ, लाओ!" कहा मैंने,
"लो!" बोले वो,
और मैंने पानी पिया!
तभी आवाज़ गूंजी के! हंसने की!
"श्ह्ह्ह्ह्ह्ह!" बोला मैं,
ये आवाज़ सुन, शम्सू खिसका अंदर!
अहमद साहब, जाग बैठे!
"आओ?" कहा मैंने,
और मैंने जगह बनाई बाहर जाने की,
"आया!" बोले शर्मा जी,
और आ गए बाहर!
मैं हुआ खड़ा, देखा उस टबोकरे के पीछे!
"वहीँ है क्या?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
फिर से आवाज़ आई! खनकती हुई हंसी!
"उधर ही है शायद!" बोले वो,
"हाँ, यही लगता है!" बोला मैं,
"आगे चलें?" पूछा उन्होंने,
"हाँ! आओ!" कहा मैंने,
मैं और शर्मा जी, घास पर चल रहे थे, कुछ दीख नहीं रहा था सामने, अँधेरा बहुत था, पानी पर पड़ती कुछ कुछ चांदनी जब परावर्तित होती, तो रेत को भी संग में चमका देती थी, लेकिन ये चांदनी कम, उसकी लुका-छिपी ज़्यादा थी!
"टोर्च जलाऊँ?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, मैं कुछ देखना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उन्होंने,
मैंने जवाब न दिया!
"वो क्या?" दुबारा पूछा,
"कि ये है क्या बला?" कहा मैंने,
"लेकिन है कहाँ?" बोले वो,
"वहां, उस जंगल में!" कहा मैंने,
"वो तो पता है!" बोले वो,
"रुको अभी!" कहा मैंने,
वैसे एक बात है! शर्मा जी कभी नहीं घबराये! कभी भी नहीं, चाहे कुछ दिखा हो उन्हें, चाहे नहीं! जो मैंने कह दिया, वो आखिर हाँ उनकी! मुझे ऐसा हिम्मती इंसान कभी नहीं मिला, एक मिला भी था, वो भी हिम्मत वाला ही था, लेकिन सोने के कुछ सिक्कों और कंगनों के पीछे ईमान बेक दिया उसने! मैंने भी कभी दुबारा उस से मुलाक़ात नहीं की! आज सुना ही, बरबाद है, जुए-सट्टे में, करोड़ों लगा दिए, अब जुआ किसी का सगा नहीं हुआ! उसका भी नहीं होना था! दो प्रॉपर्टीज़ उसने बनाई थीं, सब खत्म! एक बेटे की सड़क हादसे में मौत हो गयी, तब गया था मैं, पांच साल होने को आये, मैं नहीं मिला उस से! न वो अपना ईमान बेकता और न ऐसा होता उसके साथ! लेकिन शर्म अजी, ये सोने के सिक्कों पर ऐसे चले जैसे कोई पत्थरों पर चलता है! बहुत सी ऐसी जगह हैं, जहाँ अकूत धन गड़ा है, लेकिन वो किसी और का है! हमारा नहीं! हम लेंगे, तो सिर्फ बरबादी के सिवा, कुछ न मिलेगा! अब जो रूखी-सूखी मिल रही है, उसी में आनंद है! आकांक्षाएं जितनी पालोगे, नींद उतनी ही उड़ेगी! चैन न मिलेगा, तारें जोड़ी जाएंगी! एक पूरी होगी, तो उसकी शाखें फूट जाएंगी! बस! पाले खान याद होगा आपको, वो मुल्तान वाले सेठ जी? आज पाले की हालत ऐसी है, कि मुझे कुछ धन मिलता है, तो उसके माता-पिता और बहन के लिए, कपड़े-लत्ते, राशन आदि के लिए दे दिया करता हूँ! क्या करूँ, नहीं देखा जाता!
हंसी की आवाज़ फिर से गूंजी!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"टोर्च जलाओ ज़रा?" कहा मैंने,
"जलाता हूँ!" बोले वो,
टोर्च जलायी!
सामने डाली रौशनी!
वो घने पेड़, स्याह अँधेरे में, जैसे ज़िंदा हो गए!
घास दिख रही थी, जगह जगह!
अब हंसी न गूंजी!
"श्ह्ह्!" कहा मैंने,
"आगे चलो!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम आगे चले,
"रुको?" कहा मैंने, उनका कंधा पकड़ते हुए!
रुक गए वो!
"श्ह्ह्ह!" फिर से कहा,
पेड़ों पर जैसे हवा ने चोट की!
खड़खड़ा उठे पेड़!
सांय-सांय सी हवा चली!
और दुशाला फटने को हो हमारी!
"आंधी?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"बैठो नीचे!" कहा मैंने,
हम दोनों नीचे बैठ गए!
"बंद कर दो टोर्च!" कहा मैंने,
बंद कर दी,
सामने, फिर से अँधेरा!
अँधेरे का जो पेट फाड़ा था, कुछ देर पहले, फिर से सिल गया था!
इस बार, हंसी गूंजी! एक अलग सी हंसी! ऐसी हंसी, जैसे जब कोई औरत बेहद ही खुश होती है, जैसे उसकी मन-मुराद पूरी हो जाती है! एक लम्बा सा स्वर!
एक बात बताता हूँ,
उस हंसी से मैंने कुछ जाना,
जाना कि जैसे वो अकेली नहीं है! और उसकी उम्र, मुश्क़िल-बा-मुश्क़िल बीस ही रही हो! लेकिन अफ़सोस! मैं बहुत कम जानता था इस शय के बारे में, मैंने पूरा हिन्दुस्तान छान मारा, मुझे ये शय कभी न मिली! कुछ भी शय मिलीं, लेकिन उनका बस नाम ही बदला था, गुण-भाव नहीं!
लेकिन ये?
स्याह अँधेरा!
जंगल का ये सघन इलाक़ा!
और वो अकेली?
अकेली?
नहीं, अब तो जैसे लगता था, वो किसी के साथ है! कोई है उसके साथ, लेकिन वो दूसरा या दूसरी, कौन है, इसका आभास नहीं था मुझे, न कोई स्वर, न कोई हंसी!
इस बार एक अलग ही स्वर गूंजा!
जैसे, कोई स्त्री काम-पीड़ित हो जैसे एक लम्बे समय से, और उसे, कामास्वादन प्राप्त हुआ हो, ऐसा स्वर! ये सब क्या था? पता नही!
"ये, हो क्या रहा है?" पूछा शर्मा जी ने,
"पता नहीं!" बोला मैं,
मेरा दिमाग़, घोड़े के मानिंद, कुलांचें भर रहा था उस वक़्त!
"ये तो जैसे, समागम की तरह है जैसे सम्भोग-क्रिया?" बोले वो,
"हाँ, यही लगता है!" कहा मैंने,
"कहीं को, दुरभागी तो नहीं लपेटा गया?" बोले वो,
दुरभागी!
हाँ!
यही तो था वो दूसरा!
हाँ, पकड़ लिया था शर्मा जी ने उसे!
हाँ! कोई दुरभागी था उसके साथ! काम-लिप्त! अपनी मृत्यु को वरण करने वाला, शीघ्र ही! कोई शिकार! इस बदकार-शय का!
आ गया समझ!
मैं हुआ खड़ा! वो भी!
"चलो आगे!" कहा मैंने,
और हम, चल पड़े,
रास्ते में, कोई परेशानी नहीं थी, रास्ता सीधा और साफ़ था!
काम-आह गूंजी!
"रुको!" बोला मैं,
रुके हम और इंतज़ार क्या!
फिर से एक काम-आह!
"इधर!" कहा मैंने,
"ये तो चढ़ाई है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम चढ़े अब ऊपर, अब आवाज़ें थोड़ा साफ़ हुईं!
इसका मतलब, हम पास में ही थे अब!
फिर से, आहें!
फिर से, जैसे कोई स्त्री, पुरुष-गमन कर रही हो, मर्दन कर रही हो, ये उचित होगा कहना, ऐसी आवाज़ें आने लगीं!
"जल्दी!" कहा मैंने,
"ये बहन के ** कांटे हैं यहां!" बोले वो,
"यहां से आओ?" बोला मैं,
और हम दौड़े उधर!
रुके, वो एक टीला था,
एक और आह!
"ये है क्या?" बोले वो,
"पास ही है!" कहा मैंने,
एक हल्की सी हंसी!
"रुको!" बोला मैं,
"रुक गया!" बोले वो,
पीछे देखा, हमारा वो तम्बू, दूर था हमसे बहुत!
और तब!
तब एक पुरुष की आवाज़ गूंजी! शब्द समझ न आया! शब्द था, 'यनिज़ार!"
"क्या?" बोले शर्मा जी,
"पता नहीं क्या है ये?" कहा मैंने,
फिर से औरत की आह!
"इधर!" बोला मैं,
दायें था मेरा मतलब!
"चलो!" बोले वो!
हम दायें भागे, और एक झटके से रुके! अब नीचे की तरफ कोई रास्ता नहीं था! ऊंची ऊंची घास, पौधे और पत्थर, और कुछ नहीं!
"यहां तो रास्ता ही नहीं?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, अब क्या करें?" कहा मैंने,
"और कहीं से देखते हैं!" बोले वो,
"चलो, देखें!" कहा मैंने,
और तब मैंने, रास्ता ढूंढना शुरू किया, शर्मा जी भी ढूंढने लगे थे, लेकिन कोई रास्ता नहीं, जहाँ से था, वहाँ बड़ी बड़ी घास लगी थी, घास क्या, ऐसा घझेरा था, कि या तो उसमे घुसो या फिर कहीं और से चलो!
"कोई रास्ता नहीं है!" बोले वो,
और तब एक और आवाज़ गूंजी! कामाहत सा स्वर!
इस बार, हमारे पीछे से?
हम दोनों, दौड़ के पीछे भागे, लेकिन वहाँ तो, घुप्प अँधेरा! वहां कोई नहीं था! खूब देखा हमने, कुछ न दिखा!
"ये क्या हो रहा है?" बोले वो,
"रुक जाओ!" कहा मैंने,
वे आ गए मेरे पास,
"मैं कलुष प्रयोग करता हूँ!" कहा मैंने,
और तब कलुष मंत्र चलाया मैंने, नेत्र किये पोषित, खोले नेत्र, तब भी कुछ नहीं! चारों तरफ, बस अँधेरा ही अँधेरा!
हम वहीँ रुक गए, करने लगे इंतज़ार! अब कोई आवाज़ नहीं! कुछ नहीं! सब शांत! जैसे खेल खत्म हो गया था! दस मिनट, बीस मिनट, आधा घंटा और एक फिर, कुछ नहीं, सब शांत! घडी देखी, तो बारह बजकर, पैंतीस मिनट!
"खत्म!" बोले वो,
"यही लगता है!" कहा मैंने,
"ये तो छका रही है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या किया जाए?" बोले वो,
"कुछ समझ नहीं आ रहा!" कहा मैंने,
"चलो, वापिस चलें!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
और हम हुए वापिस फिर, आ गए उस तम्बू तक, वे तीनों हमारी ही बाट जोह रहे थे! हमें सकुशल देखा, तो चैन पड़ा उन्हें!
"कुछ दिखा?" पूछा अहमद साहब ने,
"ना, बस आवाज़ें!" कहा मैंने,
"यहां न आयीं आवाज़ें!" बोले वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"यहां तो तब ही आई थीं जब आप गए थे यहां से, उसके बाद तो सन्नाटा ही है!" बोले वो,
अब इसका क्या मतलब हुआ?
ये हो क्या रहा था? क्या कोई बड़ा ही खेल था ये? या कुछ और? सर घूम के रह गया था उस वक़्त तो!
"पानी पिलाओ अहमद साहब!" कहा मैंने,
"आ जाओ अंदर!" बोले वो,
और हम अंदर चले तब, पिया पानी, बैठ गए!
"हवा सर्द है बहुत!" कहा मैंने,
"हाँ जी, रात में ऐसा ही होता है!" बोले वो,
"चली, साढ़े बारह तो हो गए, अब सुबह होने में क्या देर?" कहा मैंने,
"हाँ, पांच-साढ़े पांच घंटे!" बोले शर्मा जी,
और तभी!
तभी जिअसे कोई हमारे उस तम्बू के पीछे से भागकर गया! मैं फौरन ही बाहर भागा, मेरे पीछे शर्मा जी भी दौड़े, कोई भागे जा रहा था उधर! मैं भी दौड़े जा रहा था! मेरे पीछे शर्मा जी, मैं रुका, भागने वाला नदारद हो गया था!
अब तक शर्मा जी, आ चुके थे मेरे पास!
सांस थामी,
"कुछ दिखा?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, कुछ नहीं!" कहा मैंने, साँसें बांधते हुए!
"कोई तो था?" बोले वो,
"हाँ, कोई तो था!" कहा मैंने,
"ये क्या पहेली है?" बोले शर्मा जी,
"उधर मारो रौशनी!" कहा मैंने,
मारी उधर रौशनी, टटोला, कुछ नहीं!
तभी फिर से आवाज़ हुई! भागने की!
"उधर!" बोले वो,
और हम दौड़ पड़े उधर के लिए!
"यहां!" बोले वो,
हम वहीँ के लिए दौड़े!
रुके, कोई नहीं!
"ये है कौन?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"रुको, वो!" बोले वो,
सामने देखा, कोई खड़ा था!
"ये कौन है?" पूछा उन्होंने,
एक तो अँधेरा था, हमें बस कोई चालीस फ़ीट दूर खड़ा नज़र आ रहा था! साफ़ कुछ दीख रहा नहीं था, बस कोई कपड़ा ही हिल रहा था, आवाज़ कोई थी नहीं उस वक़्त!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम दोनों आहिस्ता से सम्भल कर, चल पड़े आगे, अब जो भी होगा, चल जाएगा पता! जैसे ही हम करीब दस फ़ीट रह गए, वो जो कोई भी था उछला, और घूमता हुआ और दूर जा खड़ा हुआ!
अब तो हम चकित रह गए! अगर ये वही शय है, तो है काफी दमदार! ऐसा कोई प्रेत नहीं करता!
"आओ!" बोला मैं,
"चलो जल्दी!" बोले वो,
और हम भाग लिए वहां के लिए! दौड़े! एक बार को तो, टोर्च भी गिर गयी थी, वो उठायी, और तब मैं फिसल गया! घास में पाँव उलझ गया था मेरा! उठाया शर्मा जी ने, और हम फिर से दौड़े!
हम जैसे ही आये कोई दस फ़ीट, वो पीछे भागी! वो औरत थी! साफ़ साफ़ देखा था उसको! वो एक औरत ही थी! हम भागे आगे आगे, अब पेड़ों के बीच खड़े थे! रुके, हांफ रहे थे बुरी तरह! गला सूख गया था हमारा, पानी था नहीं! सांस बनायी अपनी हमने और मारी रौशनी हर तरफ! कोई नहीं था, बस, गहन जंगल! और कुछ नहीं!
"कहाँ गयी?" बोले वो,
"पता नहीं!" मैं हाँफते हुए बोला!
वो रौशनी मारते रहे!
मेरी दुशाला फंस गयी थी गले पर मेरे, वो सुलझाई, गर्मी लगने लगी थी अब तो! मैंने उतार कर, कंधे पर रख ली!
''वो देखो!" बोले वो,
ठीक सामने, करीब बेस फ़ीट दूर, वो अपनी कमर लगाये खड़ी थी एक पेड़ से, पाँव दीख नहीं रहे थे उसके, मुझे वही तो देखने थे!
"चलो!" बोला मैं,
हम फिर से दौड़े!
भागे तेज तेज!
दुशाला गिरी, मेरे मुंह से निकली गाली! उठायी वो, और फिर से दौड़े! जहां वो खड़ी थी, हम आ गए थे वहां, लेकिन वो न थी उधर!
"कहाँ गयी?" बोले वो,
"यहीं होगी!" कहा मैंने,
"ये क्या छिपम-छिपायी खेल रही है हमसे?" बोले वो,
"नहीं! वो हमें बुला रही है!" कहा मैंने,
"बुला रही है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, अपने ठिकाने पर!" बोला मैं,
"तो कहाँ गयी?" बोले वो, हर तरफ, रौशनी मारते हुए!
बड़ा ही अजीब सा मामला था! इसका मतलब इस शय का साबका इंसान से पड़ता ही रहता था, और ये, इंसानी फ़ितरत से पूरी तरह वाक़िफ़ थी! हम इंसान तो थे, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे! समझ तो हम भी रहे थे उसका खेल! दरअसल, वो हमें अंदर तक ले जाना चाह रही थी, अंदर, दूर जंगल तक, जहां शायद उसका ठिकाना हो! अमूमन उसका कोई ठिकाना नहीं होता, ये तो लगातार घूमती ही रहती है! ऐसे ही, एक और गाँव में, मुझे इसके बारे में बताया था, लेकिन वो इसको पिच्छल-पैरी न कह कर, कुलादु-डायन कह रहे थे! उनके मुताबिक़ ये इंसान का ख़ून चूस लेती है उनके बदन से, और सिर्फ, मर्द ही इसका शिकार बनते हैं औरतों को ये दिखती भी नहीं! इसकी प्यास कभी नहीं खत्म होती, इसे मौक़ा मिले तो सौ हों या ज़्यादा, कम ही पड़ेंगे! ऐसी ऐसी बातें सुनने को मिली थीं! अब वो सामने आये, तो कुछ पता पड़े!
"थोड़ा आगे चलो!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और तभी, जैसे चूड़ियाँ बजी हों, ऐसी आवाज़ आई!
हम रुक गए ठिठक कर! लगा दिए कान!
"कुछ सुना?" पूछा मैंने,
"हाँ, चूड़ियों की आवाज़!" बोले वो,
"कौन है?" मैंने चीख कर पूछा!
कोई जवाब नहीं आया!
"सामने आ?" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
"आगे चलो!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम धीरे धीरे आगे बढ़े!
और कोई औरत, दौड़ते हुए, बाएं से दायें गुजरी!
हम भागे उधर! वहां पहुंचे, तो कोई नहीं!
अब तो दिमाग घूमने लगा था मेरा! खूब छका रही थी वो शय हमें! सामने आती, पल भर के लिए, और गायब हो जाती!
तभी सामने के पेड़ पर हुई कड़कड़!
हम भागे उधर, पेड़ से पत्ते झड़ रहे थे!
मारी रौशनी आसपास! कहीं कोई नहीं!
तभी मेरे दिमाग में कुछ उपजा! एक झटके से!
"टोर्च दिखाना?" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
अब मैंने की टोर्च ऊपर! और जैसे ही की, बड़ा ही ख़ौफ़नाक मंजर आया नज़र! वो एक औरत ही थी! पेड़ पर, करीब पंद्रह फ़ीट ऊपर, पेड़ को हाथों में लपेटे नीचे हमें ही देख रही थी! उसके बाल लटक रहे थे सर से! पाँव अब भी नहीं दिखा रहे थे!
वो हंसी! और बिना पलक मारे, हमें ही देखती रही!
और और उसे वैसे देख लेता, तो छाती पकड़, ज़मीन पर झूल जाता!
सांसें तो खैर हमारी भी अटक गयी थीं! ऐसा मंजर नहीं देखा था मैंने, ये तो जानलेवा मंजर था! उसकी वो खनकती हंसी, अब बेहद ही हौलनाक लगने लगी थी!
मैं उसके चेहरे पर रौशनी मार रहा था, वो न आँखें झपकती थी, न कोई हरकत करती थी, चुपचाप हमें ही देखे जा रही थी!
"कौन है तू?" पूछा मैंने,
उसने सर हिलाया, कुत्ते की तरह, जैसे कुत्ता एक तरफ कान करके सुनता है!
"कौन है तू?" पूछा मैंने,
"निज़ा? अ? अ? निज़ा?" बोली वो,
निज़ा? इसका क्या मतलब था?
कुछ पल्ले न पड़ा हमारे तो!
"नीचे उतर?" कहा मैंने,
"निज़ा? अ? अ? अ? अ?" बोली वो,
"नीचे आ?" मैं चिल्लाया!
उसने खाया एक झटका, और हमारे ऊपर ही कूद पड़ी! मेरे सर से उसकी जांघ टकराई, और शर्मा जी से, कूल्हा, धैड़ से पछाड़ खा गए हम!
उसका ऐसा वजन, ऐसा वजन जैसे मानो कोई घोडा गिरा हो हम पर! और बदबू! ऐसे भयानक बदबू जैसे उसके ज़ख्म सड़ गए हों, कीड़े पड़ गए हों! थूकना पड़ा हमें! टोर्च भी गिर गयी थी, उसका शीशा टूट गया था, हम एक झटके से उठे, मेरा सर घूम गया था और शर्मा जी का कंधा, नचका खा गया था! उठे, और देखा चारों ओर!
"कहाँ भगा गयी?" बोला मैं,
"यहां भागी थी!" बोले वो, कंधे को दबाते हुए!
"चलो उधर!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम दौड़ पड़े उस तरफ! रुके, देखा उसे, नहीं मिली कहीं!
"नी:::::::::::ज़ा!" आई आवाज़, फुसफुसाने की!
हम हुए मुस्तैद!
"नी::::::::::::ज़ा!" फिर से एक फुसफुसाहट!
"उधर से!" बोले शर्मा जी,
"चलो!" बोला मैं,
और हम भागे! भागे, तो वहाँ कीचड़ थी! रुकना पड़ा हमें! रौशनी मार, पानी देखा, पानी काफी दूर तक फैला था!
"ओहो!" बोले वो,
"रुको!" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"सामने देखो!" कहा मैंने,
ठीक सामने! एकदम सामने, पानी के ऊपर, वो खड़ी थी, करीब तीस फ़ीट दूर! वो पानी पर खड़ी थी! कमाल था! उसके बदन पर कोई कपड़ा नहीं था! अपने दोनों पांवों को आपस में फंसा कर! हमारी तरफ ही नज़र थी उसकी!
"ये है क्या चीज़?" बोले वो,
"सामने आये, नज़दीक तो पता चले!" मैं बोला हल्के से!
तभी वो हिली!
हमारी नज़रों ने बाँधा उसे!
वो पानी पर, छप छप चल रही थी!
कभी कहाँ, कभी कहाँ! बालों को पीछे कर रखा था उसने!
"ए?" मैं चिल्लाया,
वो रुक गयी! नीचे झुकी! और घुटनों पर हाथ रख, खड़ी हो गयी, चेहरा हमारी तरफ किये हुए! देखने में तो किसी डाकिनी, चुड़ैल से कम नहीं लग रही थी! डील-डौल भारी था उसका, स्तन भी बहुत बड़े थे, सामान्य से तीन या चार गुना, कमर भी भारी थी, जांघें, बहुत ही मांसल थी उसकी, बाजू भी मजबूत थे उसके, वहाँ से इतना ही दिख रहा था हमें!
"तू है कौन?" पूछा मैंने,
"निज़ा? अ? अ? अ? अ?" बोली वो,
आवाज़ मीठी थी उसकी! लुभावनी सी! जैसे किसी मासूम की हो! वो हुई खड़ी, अब अब खोले उसने अपने पाँव! और अब देखे उसके पाँव!
गाँव वाले सही कहते थे! एकदम सही! उसके पाँव उलटे थे! हमारी तरफ एड़ियां थीं उसकी, पिंडलियाँ भी, पंजे पीछे की तरफ थे, घुटनों से नीचे, जैसे काट कर लगा दिए हों! वो उछली और आई हमारे सामने! करीब आठ फ़ीट दूर! पानी छिटका और हमारे ऊपर पड़ा!
अब देखा करीब से! हैरत की बात थी एक! उसके सर के केशों के अलावा, और कोई केश नहीं था उसके पूरे बदन पर! शरीर गोरा था, चिट्टा और स्निग्ध सा! उसका कद करीब, सात फ़ीट का होगा!
"ए?" बोला मैं,
उसने सर हिलाया अपना!
"कौन है तू?" पूछा मैंने,
"निज़ा? अ? अ? अ? अ?" फिर से बोली,
इसकी निज़ा नहीं समझ आई मुझे!
"ये तेरा नाम है?" पूछा मैंने,
"निज़ा? ऐं?" बोली वो,
"इधर आ?" बोला मैं,
"निज़ा? निज़ा?" बोली वो,
"ओ निज़ा? इधर आ?" बोला मैं,
"निज़ा? ऐं? अ? अ?" बोली वो,
उसने अपने केश, हटा लिए अपने स्तनों से, और होने लगी पीछे, हम एकटक देखते रहे उसे, ये हैं क्या? यही सोचते रहे, खड़े खड़े!
मैं और शर्मा जी, उसको एकटक खड़े देखते रहे! वो अब बिलकुल भी नहीं हिल रही थी! हाँ, उसके केश हिल रहे थे! वो अभी भी हमारी टोर्च की रौशनी की जद में थी, इसीलिए हम उसे देख पा रहे थे!
एकदम से, वो उछली! और उड़ी हो हवा में, ठीक वैसे, पीछे चलती चली गयी! न पाँव ही हिले और न वो चली ही थी! और हो गयी नज़रों से ओझल!
"कहाँ गयी?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं मुझे!" कहा मैंने,
मैं आसपास, उधर दूर तक, रौशनी मारता रहा! लेकिन वो थी ही नहीं! अँधेरे में चले गयी थी शायद!
"वो सामने गयी है!" बोले वो,
"हाँ, लेकिन पानी है उधर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"निज़ा? यक, हूँ?'' आई आवाज़!
हम पलटे!
वो हमारे पीछे खड़ी थी! करीब आठ फ़ीट दूर! अब देखा उसे हमने ध्यान से! वो तो बला की खूबसूरत थी! सभी स्त्रियोचित शारीरिक कटाव-गठाव थे उसमे! उसका चेहरा गोल और बेहद सुंदर था! होंठ सुर्ख लाल थे! रंग बेहद गोरा था उसका! और वो, हमें देख रही थी! पलकें नहीं बंद करती थी, बस सर नीचे कर, उठा लेती थी!
"कौन ही तू?" पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
चेहरे से केश हटाये उसने!
और बढ़ी आगे थोड़ा!
अब भय तो लगा, मैंने फौरन ही, प्राण-रक्षा मंत्र पढ़ दिया! अपने कंधे फूक लिए और शर्मा जी के कंधे भी फूंके! उसका कोई भरोसा नहीं था, अगल मल्ल-युद्ध की सी स्थि बनती, तो निःसंदेह हमें वो ऐसा फेंटा मारती कि कई दिनों तक, बदन उसी का नाम लेता!
"कौन ही तू?" मैंने फिर से पूछा,
"यक? निज़ा!!" बोली वो,
इसकी निज़ा ने तो नाक में दम कर दिया था! वो निज़ा शब्द से क्या कहना चाहती थी, समझ ही नहीं आ रहा था!
"निज़ा?'' बोला मैं,
वो झुक गयी, और झुक कर, अपने स्तन हिलाने लगी! कहीं झुक कर हम पर हमला ही न कर दे, इसीलिए हम तैयार हो गए थे!
"थोड़ा पीछे हटो!" कहा मैंने,
हम हटे कुछ पीछे, चार-पांच क़दम!
"नी? निज़ा! अ? अ?" बोली वो,
ये थी कोई कोई ऊपरी-शय ही!
लेकिन कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था!
वो एक झटके से उछली हमारे ऊपर! हम फिर से गिरे, और वो, दौड़ते हुए गायब हो गयी! हम उठे, कोई चोट नहीं आई थी! मैंने तभी देह-रक्षा मंत्र पढ़ा! दो बार उसने हम पर ऐसा हमला किया था!
"कहाँ गयी?" पूछा मैंने,
"उधर!" कहा मैंने,
"नी:::::::::::ज़ा!" आई आवाज़!
"उधर, चलो!" कहा मैंने,
हम भाग कर वहाँ गए!
और जैसे ही उसको देखा, ठिठक कर रुक गए!
उसके तो वस्त्र थे अब, बदन पर!
वो हमारी टोर्च की रौशनी से डरती नहीं थी!
दमखम दीखता था उसमे!
वो एक पेड़ के साथ खड़ी थी! उसने, एक लबादा सा पहना था, जैसे भेड़ की खाल से बनाया जाता है, जिस पर बाल रहते हैं, वैसा, वो लबादा नीचे कमर तक था! हाथों में चूड़ियाँ थीं, पता नहीं, कांच की थीं या धातु की! नीचे, एक घाघरा सा था, पीले रंग का! गले में भी आभूषण पहने थे! और गले तक, एक पीला कुरता या कुरती थी!
इस से पहले मैं कुछ आँकलन करता, वो बढ़ी हमारी तरफ!
"शर्मा जी, मेरे पीछे!" कहा मैंने,
वो नहीं आ पाये, इतने लम्बे लम्बे डिग भरे उसने, कि पहुँच गयी थी हमारे करीब! आमने सामने हुए हम तीनों! बेहद सुंदर थी वो! बेहद सुंदर! गोरा रंग, लालिमा से भरा! सुर्ख लाल, पपोटेदार होंठ और चिबुक में एक गड्ढा!
"निज़ा?" बोली वो,
और बढ़ाया हाथ अपना उसने मेरी तरफ!
मेरे पांवों में आये पसीने!
एक तो वो लम्बी इतनी थी, कि मुझे ही गरदन ऊपर कर, उसको देखना पड़ रहा था! ऊपर से उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया था! मैंने नहीं बढ़ाया! वो और आगे आई, अपने हाथ की ऊँगली से, मेरे माथे पर खरोंचा! ऐसा खरोंचा कि मुझे उसकी ऊँगली हटानी पड़ी! सर पीछे कर लिया था मैंने! उसने हाथ फिर से आगे किया, मैंने उसका हाथ जैसे ही पकड़ा, मेरे शरीर में जैसी खून जमने लगा! कंपकंपी छूट गयी! मैं पीछे हो गया तभी के तभी!
"कौन है तू?" पूछा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
वो एक झटके से नीचे बैठी!
मेरे पाँव को छुआ, जूते को, टटोला!
और फिर अपना पाँव आगे किया! चक्कर सा आ गया मुझे तो! चितकबरी त्वचा थी उसकी, एड़ियों पर, लेकिन, पाँव बेहद सुंदर थे, मतलब पंजे उसके!
मेरा दूसरा पाँव भी टटोला उसने,
फिर शर्मा जी के पाँव टटोले! मैं शर्मा जी का हाथ पकड़, पीछे हुए, तो वो उकडू चलते ही आगे हुई! शर्मा जी का कुछ अहित न हो, मैं चल ज़रा दूर उनसे दूरी बना!
मैं करीब दो मीटर दूर गया होऊंगा! वो ऐसे उकडू चली कि तीन डिग में ही आ पहुंची मेरे पास! मुझ से आँखें मिलायीं, मुस्कुराई!
मैं कैसे मुस्कुराता! मैं तो नज़र रखे हुआ था उस पर!
"निज़ा! निज़ा! निज़ा!" बोलते बोलते उठी वो,
और जैसे ही उठी वो!
उसने पकड़े मेरे बाजू, मेरे बाजू, पसलियों से चिपका दिए, और उठा दिया मुझे हवा में! मैं कम से कम नौ फ़ीट पर था, मेरा सर! ऐसी जान उसमे!
"ए?" चीखा मैं,
हंसी वो!
"ए?" मैं फिर से चीखा!
वो खिलखिलाकर हंसी!
वो मुझे, किसी गुड्डे की तरह से, कभी इधर, कभी उधर करती!
"ए? उतार मुझे?" बोला मैं,
वो हँसे!
मैं जितना चिल्लाऊं, उतना हँसे!
तभी शर्मा जी ने, उसके बाल पकड़े और खींचा! उसने छोड़ा मुझे नीचे, मैं धम्म से आ खड़ा हुआ! उसने शर्मा जी को घूरा!
"निज़ा?" बोली वो,
"ए?" बोला मैं,
उसने मुझे देखा!
और लपकी मेरी तरफ!
लिपट गयी! चिपक गयी!
भर लिया मुझे बाजूओं में!
"निज़ा! निज़ा!" बोली वो,
मैं तो गिरने को हुआ, लड़खड़ा सा गया!
"ए? छोड़?" चीखा मैं!
भींचे ही जाए!
मेरा सर उसके वक्ष-स्थल में जा धंसा! उसका कोई आभूषण लगातार चुभे मुझे!
और अचानक ही,
छोड़ दिया मुझे!
बैठ गयी नीचे,
अपने पाँव किये आगे! जैसे दिखा रही हो!
कैसा अजीब बदन था उसका!
उसके पाँव देखो, तो लगे, कोई उल्टा लेटा है, उसका सर देखो, तो लगे, उसके पाँव तोड़ दिए गए हैं! उसने दो बार अपने पाँव मारे ज़मीन में! और लकड़ी के किसी फट्टे की तरह से, खड़ी हो गयी!
बढ़ी मेरी तरफ, मैं हुआ पीछे!
वो और बढ़ी, मैं और पीछे!
एक बात तो तय थी! वो डर नहीं रही थी! उसको डर था ही नहीं! शायद, वो आदी थी इंसानों की! हाँ, वो डरा रही थी, ये भी मैं नहीं कह सकता, हो सकता है, ये उसकी अंदरुनी फ़ितरत ही हो! तो वो आगे बढ़ी, और मैं पीछे हटा!
"निज़ा?" बोली वो, इस बार उसके लहजे में कुछ कोमलता थी!
मैं उसको देखता रहा, वो मुझे,
वो आगे बढ़ी, और थोड़ा सा,
"रुक?" कहा मैंने,
रुक गयी वो!
"निज़ा?" बोली फिर से, इस बार भी वही लहजा!
वो एक झटके से आगे बढ़ी आगे! बिलकुल मेरे से सटते हुए, उसका भारी वक्ष-स्थल मुझे छू रहा था! वो सांस नहीं ले रही थी!
"हमसे गुस्सा हैं आप?" बोली वो,
क्या?
मैंने खाया एक झटका!
मैं तो ऐसा जैसे खून रिस गया हो मुंह से मेरे पूरे बदन का!
जैसे गरम गरम पिघले लौह में मुझे झोंक मारा हो!
अब क्यों लगा झटका?
क्योंकि जो शब्द उसने बोले थे, जिस लहजे में बोले थे, जिस आवाज़ में बोले थे, वो मेरी एक बेहद करीबी साधिका के थे!
इसलिए खाया मैंने झटका!
"जानते हैं न मेरा आशय?" बोली वो,
वही लहजा! वही शब्द! वही शत-प्रतिशत आवाज़!
मैं आँखें बंद कर लूँ, तो सामने मेरे, मेरी वही साधिका है, ऐसा समझिए!
क्या चलन था उसका!
क्या चाल थी उसकी!
क्या प्रहार था उसका!
अब समझ में आया कि, क्यों कोई भी पुरुष उसके संग संसर्ग करने को आतुर हो जाता है! ये नस दबाती है! वो नस, जो अंदर ही अंदर जलती रहती है!
ऐसा दूसरी शक्तियां करती तो हैं, लेकिन उनका आशय कुछ और होता है, भय दिखाना! और इसने, इसने तो वो शब्द, आवाज़ और लहजा, जैसे चुरा ही लिए हों!
"सु....." इस से पहले कि कुछ बोलती वो,
"चुप! बदकार!" कहा मैंने,
उसे कुछ समझ नहीं आया शायद!
"सुनेंगे नहीं?" बोली वो ऐसे, जैसे डर गयी हो!
हू-ब-हू उसी साधिका का लहजा!
वो भागी वहां से! जैसे किसी से डर गयी हो! ऐसे लम्बे डिग भरे, कि यहां जा और वहाँ जा! मैं नहीं भागा उसके पीछे! पांच मिनट वहीँ देखता रहा!
और तब शर्मा जी आये मेरे पास,
"डर गयी क्या?" पूछा उन्होंने,
मैंने कोई जवाब नहीं दिया,
जो कुछ मैंने उसके मुंह से सुना था, उसने तो अंदर तक कंपा ही दिया था मुझे!
"क्या बात है?" पूछा उन्होंने,
मैं वहीँ देखे जा रहा था!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"शर्मा जी!" कहा मैंने,
"हाँ, बताओ?" बोले वो,
"ये बहुत खतरनाक शय है!" बोला मैंने,
"कैसे?" पूछा उन्होंने,
अब मैंने उन्हें बताया सबकुछ!
"ये सोच पर क़ब्ज़ा करती है, दिमाग़ बाँध लेती है!" बोले वो,
"हाँ, और इसका शिकार, और कुछ सोच नहीं सकता!" बोला मैं,
"नी::::::::::::::::::::::::::ज़ा!" फिर से आई आवाज़!
मैंने एक झटके से बाएं देखा!
वो लेटी थी उधर, इस बार वस्त्रहीन, आभूषणहीन!
"आप यहीं रुकना!" कहा मैंने,
और मैं बढ़ा उसकी तरफ!
मुंह में जपते हुए तुराक्षी-मंत्र! जब मंत्र पूर्ण हुआ, तो नीचे झुका, और एक चुटकी मिट्टी जिव्हा के नीचे रख ली, मंत्र रोपित हो गया!
वो काम-मुद्रा की, चौंसठ-संहिका की मुद्रा में लेटी थी! काम में एक सौ नौ मुद्राएं हैं, इनमे से सम्भोग-मुद्रा अभी आरम्भ नहीं होतीं! ये, चन्द्र की कलाओं द्वारा संख्याकृत होती हैं! जिस रात, चन्द्रमा पूर्ण होते हैं, अर्थात, पूर्णिमा को, तब सम्भोग-मुद्रा पूर्ण होती है! माह में दो दिन, अपनी प्रेयसि अथवा पत्नी के संग ये मुद्रा पूर्ण होती है! खैर छोड़िये, ये विषय से पृथक हो जाएगा!
चौंसठवीं मुद्रा!
इस मुद्रा में, स्त्री बायीं तरफ से लेटती है, अर्थात, बायीं तरफ की पसलियों की तरफ से, अपने सर को, अपने हाथ से थामे हुए, एक जंघा से, वो अपने नितम्ब को कूर्म-रूप में मौद्रित कर, योनि को छिपाती है! अब पुरुष, उसकी देह में स्थित, चौबीस उन केन्द्रों को एक एक कर, उन्मत्त करता है, जब, स्त्री अपनी योनि को छिपा न सके, विवश हो जाए, तो वो, स्खलन की ओर कुछ ही क्षणों में आतुर हो, पुरुष-गमन करती है! इस मुद्रा से, यदि स्त्री, गर्भ धारण कर ले, तो उसकी वो संतान, चतुर्दिक विख्यात, सूर्य समान तेजस्वी और कुबेर समान धनवान, चन्द्र समान सुंदर होती है! ये है, चौंसठवीं-मुद्रा! अक्सर, प्राचीन मंदिरों में, ये सभी मुद्राएं, काम-बाला द्वारा पत्थरों में बनाई गयी हैं!
तो मैं,
उसके पास जा खड़ा हुआ!
"निज़ा! अ? अ? अ?" बोली वो,
"तू है कौन?" कहा मैंने,
"निज़ा! निज़ा!" बोली वो,
इसकी निज़ा निज़ा ने मेरी अमन-ओ-फ़िज़ा को रौंद डाला था!
"बता?" पूछा मैंने,
"निज़ा!" बोली वो, जैसे शरमा गयी हो, आँखों पर हाथ रख लिया!
फिर से निज़ा!
ये है क्या निज़ा?
हर प्रश्न का उत्तर, ये निज़ा!
"सुन?" बोला मैं,
वो बस हँसे!
"सुन?" मैं चिल्लाया!
वो उसी क्षण उठ बैठी!
"बता मुझे?" मैंने पूछा,
"निज़ा? अ?" बोली वो,
सच कहता हूँ! वो अगर कोई प्रेतनी होती, तो उसका वो हाल करवाता मैं, कि निज़ा शब्द सुनते ही कुँए में छिप जाती!
"ओ निज़ा?" बोला मैं,
"यीकी! निज़ा! अ?" बोली वो,
अरे क्या करूँ?
कोई बताये मुझे, ये निज़ा क्या है?
ये अ? ये क्या है?
कोई भाषा है क्या?
"नी:::::::::::::ज़ा!" बोली वो,
और एक झटके से ही, मेरे सामने आ बैठी!
"निज़ा? अ?" बोली वो,
और हंसने लगी!
खिलखिलाकर!
हे भगवान!
तूने इसे बनाया तो है,
लेकिन किसलिए?
क्या औचित्य इसका?
"यीकी, निज़ा, ई?" बोली,
"यीकी?" बोला मैं,
उसने झट से मेरा हाथ पकड़ा, और अपने बाएं स्तन पर रख दिया! मैं हटाऊँ, तो हटाने न दे! हँसे, आँखें खुले ही, ज़ोर ज़ोर से हँसे!
"यीकी? अ?" बोली वो,
और मैंने इस झटके से खींचा हाथ, कि मैं पीछे ही गिर पड़ा!
मैं सम्भल के खड़ा हो गया था! लेकिन नज़र, उसी पर बनाये हुए थे! ये को भी शय थी, अपने आप में एक अलग ही शय थी! ऐसी शय, मैंने कभी न देखी थी! न उसे कोई भय था, न ही कोई चिंता! ये कमाल की बात थी! ऐसा कैसे सम्भव है? वो ऊपरी-शय है, तो इसमें मानवेत्तर गुण कैसे? और यदि मानव ही है, तो इतनी विशेष क्यों? हैरत पर हैरत!
"निज़ा, यीकी, अ?'' बोली फिर से वो!
अब वो मेरे सामने खड़ी थी, हैरत इस बात की कि अब दुर्गन्ध नहीं थी उसमे, बल्कि एक अलग सी ही, मादक गंध थी! हमारी छह इन्द्रियाँ सक्रिय रहा करती हैं सदैव! छठी, इंगित करती है मात्र! परन्तु, हमारी तीन और इन्द्रियाँ हैं! ये इन्द्रियाँ सदैव जागृत नहीं होतीं! ये हैं, उद्लुप, करंग और सामेप! इस विषय में कहीं लिखा हो, पता नहीं, नहीं कह सकता! उद्लुप उस समय कार्य करती है, जब हम सुप्तावस्था में रहते हैं, मूर्छा में, चेतनारहित स्थिति में! इसको मस्तिष्क संचालित करता है! मस्तिष्क का पृष्ठ भाग! इसका कार्य है, उस अवस्था में, शरीर में आवश्यक द्रव्यों का सु-संचालन! जैसे, मूर्छित व्यक्ति का मुख कभी नहीं सूखता! सूख जाए, तो तालू से चिपक जाएगा, परिणामस्वरूप सांस लेने में अवरोध होगा! इसी समय, इस अवस्था में, नसिका से, एक द्रव्य निकलता है, ये द्रव्य, मुख में आता है और मुख में, गीलापन बना रहता है! मूर्छित अवस्था में, पुरुष के अंडकोषों में, आवलन(लगातार हिलते रहना) बना रहता है, यदि ये नहीं हो, तो अंडकोषों के स्नायु, तंत्रिकाओं को क्षति पहुंच सकती है! ये उद्लुप इसे सक्रिय करे रहती है!
अब करंग! करंग एक ऐसी इंद्री है, जो हमारी रीढ़ में स्थित है, ये संचालित मस्तिष्क के, दायें भाग में स्थित एक द्रव्य-कूप से होती है! इसी इंद्री से, हमारा जीव-समय संचालित होता है! जैसे, कब जागना है, कब सोना है, कब शरीर को आराम चाहिए और कब शारीरिक क्रिया करनी चाहिए!
और तीसरी है सामेप, ये इंद्री, पुरुष और स्त्री में, वयस्क होने पर सक्रिय होती है! ये इंद्री, मूलतः जनन हेतु कार्य करती है! स्त्री में भी और पुरुष में भी, पुरुष और स्त्री कि रीढ़ के तीसरे खंड से इसका संचालन होता है! मस्तिष्क से निकले द्रव्य को, यहीं संचरित किया जाता है! यही कारण है, कि उस समय, शरीर में एक रासायनिक-क्रिया आरम्भ हुआ करती है! ये क्रिया और इसका प्रभाव, पुरुष में कम और स्त्री में अधिक हुआ करती है! पुरुष में इसका प्रभाव उसकी जनननेद्री में कसाव और तनाव लाती है, और स्त्री में, ये योनि-मुख पर सूजन सी ला देती है! इस क्रिया को, नियंत्रित किया जाना ही, ब्रह्मचर्य कहलाता है! इसे ही ब्रह्मचर्य-पालन कहते हैं! ऐसा नहीं, की कोई कहे कि वो ब्रह्मचारी है, और उसके लिंग में तनाव आये, तो भी ब्रह्मचर्य का खंडित हो जाना कहा जाता है! यति का अर्थ यही हुआ करता है! जैसे श्री लक्ष्मण यति, श्री हनुमान यति! इसी प्रकार, कुल छत्तीस इन्द्रियाँ इस देह को संचालित किया करती हैं!
तो, उस समय मेरी सामेप इंद्री जागृत नहीं हुई थी, मुझे उसके साथ संसर्ग करने की कोई इच्छा नहीं थी! न मैं ऐसा महसूस ही कर रहा था! हाँ, इतना अवश्य ही, कि मुझे उसके शरीर का बनाव अच्छा लग रहा था! यदि, वो ये शय न होती तो यक़ीनन वो किसी काम-बाल से कम नहीं थी!
"निज़ा!" बोली वो,
और मेरे कंधे पर हाथ रखा!
"निज़ा? अ?" बोली वो,
अब मैं कुछ नहीं बोल रहा था, मैं जानना चाहता था कि वो करती क्या है, क्या है उसका उद्देश्य?
"अ? निज़ा?" बोली वो,
उसने अगले ही क्षण उसने मेरा गला पकड़ लिया, अपने बड़े से हाथ से, मेरा गला पकड़ा, यदि वो दबाती तो मैं, प्रहार करता उस पर!
"निज़ा?" बोली वो,
मैं चुप रहा!
"यीकी? अ?" बोली वो,
और बैठ गयी नीचे! मेरे हाथ पकड़े हुए! मुझे खींचा, और मैं उसके ऊपर आ गिरा! उसने, दबा लिया मुझे अपनी टांगों में, ऐसी पकड़, ऐसी पकड़ जैसे दो घोड़ों के बीच में फंसा होऊं मैं!
"निज़ा! आ! अ?" बोली फिर से,
मैंने निकलने की, ज़द्दोज़हद की, और उसने छोड़ दिया मुझे! मैं उठा और हटा पीछे! वो झट से खड़ी हुई! और कूद पड़ी मेरे ऊपर! ढक लिया मुझे उसने! और ले लिया मुझे गिरफ्त में अपनी! अब उसने दबाया मुझे, मुझे मेरी पसलियों में दबाव महसूस हुआ!
"ए?" चीखा मैं,
वो न सुने!
"ए?" बोला मैं,
न सुने!
मुझे ले लिए नीचे, और चढ़ बैठी मेरे ऊपर!
"हट? हट जा?" मैंने चिल्लाया!
वो न हटे, मेरे बाल पकड़े! खींचे!
और तभी, उसका सर पीछे हुआ! शर्म अजी ने उसके बाल खींच लिए थे! वो चीखी, और दूर जा उछली! मैं उठा और तभी वो फिर से उछली! इस बार उछलते हुए, शर्मा जी के कंधे को पकड़, उठा ले गयी, और फेंका उन्हें! वे गिरे नीचे, मुंह के बल! मैं दौड़ के वहां गया! शर्मा जी के माथे पर चोट लगी थी, सूजने लग गया था! मैंने आव देखा न ताव! खेंचा सुरक्षा घेरा!
"आप यहीं रहना अब!" बोला मैं,
और निकला खुद घेरे से बाहर!
वो, वो सर नीचे झुकाये, दोनों हाथ और पाँव, किसी चौपाये जानवर की तरह से बैठी हुई थी! अब मुझे क्रोध चढ़ गया था! उसने शर्मा जी पर वार किया था!
"हरामज़ादी? कुतिया?" चिल्लाया मैं,
उसने सर ऊपर किया, और एक कराह सी छोड़ी मुंह से!
उठायी मैंने मिट्टी!
की अभिमंत्रित!
और बढ़ चला उसकी तरफ!
वो हुई खड़ी, बढ़ी आगे!
और मैंने फेंकी मिट्टी उसके ऊपर!
पछाड़ खायी उसने! जा गिरी पीछे!
और जो चिल्लाई, कान फाड़ दिए उसने!
उसकी चीख, बिन सांस के थी, गूँज गयी!
"बदकार?" बोला मैं,
और चला उसकी तरफ!
पहुंचा, और दी एक लात उसके चेहरे पर!
चीख बंद! और अगले ही पल, हो-हो कर चीखने लगी!
दी एक और लात!
वो उठी हवा में, और लगाई छलांग! मेरे कंधों के ऊपर से, कूद गयी!
चीखी वो!
और मैं बढ़ा आगे!
वो दौड़ी!
किसी भैंसे की तरह!
जैसे ही आई मेरे पास, मैं हट गया!
वो उसी क्षण पलट गयी, चीखते हुए, कूदी मेरे ऊपर!
मैं गिरा नीचे, लेकिन मैं इस बार मंत्रों में बंधा था, कुछ न हुआ!
वो उछली!
और एक पेड़ से जा लिपटी!
मैं भागा उसकी तरफ!
उसको देखा!
सर नीचे और पाँव ऊपर!
आँखें, दूधिया सफेद हो गयी थीं उसकी!
मुंह खोल रखा था उसने!
लाल मुंह था उसका!
"हरामज़ादी?" चीखा मैं!
वो पेड़ पर चढ़ी थी! बड़ी ही ख़ौफ़नाक लग रही थी! पेड़ को कस के जकड़ा था उसने! आँखें दूधिया सफेद! बाल नीचे लटक रहे थे! अगर उसके स्तन न होते, तो वो किसी वेताल से कम नहीं लग रही थी! वेताल में तो ऐसा बल होता है कि पूरा पेड़ ही जड़ से उखाड़ दे!
"आ नीचे? बदकार?" चीखा मैं,
वो मुंह फाड़े अपना!
"आ नीचे, कुतिया?" चीखा मैं!
वो हुई थोड़ा नीचे! लार सी टपकी उसके मुंह से, मैं हटा फौरन ही!
"माँ की **! आ नीचे! आ, दिखाता हूँ तुझे कि मैं हूँ क्या?" चिल्लाया मैं!
उस समय तो ऐसा क्रोध था मुझे, कि वो सामने होती तो यमत्रास से बींध डालता उसको!
वो चीखी! बुरी तरह से! आँखें दूधिया से लाल हो गयीं उसकी!
"आ नीचे? साली, कमीनी?" चीखा मैं,
वो उड़ी! मारी छलांग उसने! और सीधा मेरे ऊपर से, उछल मेरे पीछे आ खड़ी हुई! मैं घूमा तेजी से! वो अपने उलटे पांवों को जोड़, एक साथ मिला, खड़ी हुई थी! हाथ दोनों पीछे किये, उसका चेहरा, उस समय बड़ा ही भयंकर था! उसके अब चेहरे का रंग, काला पड़ गया था! उसके होंठ, बूढ़ी स्त्री की तरह से, नीचे लटक रहे थे!
मैं बढ़ा उसकी तरफ! और वो हुई पीछे!
"रुक?" चीखा मैं,
वो एक हंसी, हंसी!
एक खिसियानी सी हंसी!
"बहन की **! वार करती है? कर? कर वार? मुझ पर कर?" बोला मैं,
और मैं भागा उसकी तरफ! मेरे हाथ में आ जाती, तो राख ही कर देता उसे! वो पीछे हटी, और गोल गोल घूमने लगी! बहुत तेज तेज!
"खः खः खः ऐन्द्रार्किजयत त्रष्टुम् महाभद्राणी एरम एरम..........................................." जपा मंत्र!
उठायी मिट्टी, की अभिमंत्रित, कुलशाविका मंत्र से अभिमंत्रित किया उसे! कुलशाविका विद्या, सरल है, अत्यंत ही सरल! एक रात श्मशान, नौ टुकड़े कलेजी के, एक डिबिया सिन्दूर की, आधा मीटर काला कपड़ा और एक चाक़ू! बस! एक है मंत्र, इसको बस, एक सौ एक बार पढ़ना है, और ये विद्या सिद्ध! चिता समक्ष पढ़ना है, जपोपरांत, कलेजी के नौ टुकड़ों को, उस चिता से निकाली लकड़ी पर भून लेना है, नौ बार मंत्र पढ़ने हैं! बस! हो गयी सिद्ध!
अब मिट्टी उठाइये! और नौ बार, फूंक दीजिये ये मंत्र नौ बार पढ़ने के बाद! और इसका अभीष्ट देखिये आप! प्रेत हो, महाप्रेत हो, चुड़ैल हो, गण्ड-चुड़ैल हो, पिशाच हो, ये मिट्टी पड़ते ही, ऐसे चीखेगा कि अपनी नैसर्गिक शक्ति से हाथ धोने लगेगा!
मैंने एक शब्द लिखा, गण्ड-चुड़ैल! ये भीषण प्रकृति वाली चुड़ैल है! ये मनुष्य का मांस खाती है, विशेषकर यकृत! इसके साधक की एक पहचान है, वो होता तो औघड़ ही है, लेकिन उसको, ज़र्राट कहा जाता है, इसे औघड़-समुदाय में नहीं रखा जाता! हाँ, तो पहचान, पहचान ये, कि वो अपने गले में, स्त्री की श्रोणि-स्थल की अस्थि धारण करता है! ये त्रिभुज के आकार की और तीन छेद वाली होती है! यदि वो ये नहीं धारण करेगा, तो गण्ड-चुड़ैल उसका ही यकृत-भक्षण कर देगी! मृत्यु के समय, ये ज़र्राट, अपना यकृत इसके भक्षण करने की अनुमति दे देते हैं! उनका विश्वास है कि अगले जन्म में वे, अपनी यात्रा यहीं से आरम्भ करेंगे! गण्ड-चुड़ैल, जिस रूप में आप चाहो, उसी रूप में संसर्ग करती है! मनोच्छा पूर्ण करती है! बंगाल में इसके बहुत से साधक हैं, इसको पूजने वाले साधक ज़र्राट, आपको कालीघाट पर मिल जाएंगे! और जो इसकी साधिका होती है, वही, किसी भी पुरुष को, कुछ अभिमंत्रण कर, खिला दे कोई पदार्थ तो, रूप-परिवर्तन विद्या बन जाती है! आपने सुना ही होगा, फलां को मक्खी बनाया, मेंढक बनाया, चूहा बनाया आदि आदि! मेरे मार्ग में ये कथन और नियम है, कि कोई भी ज़र्राट साधक या साधिका मिले, तो उसका नाश किया जाए! मैंने ऐसी दो साधिकाएं और एक साधक का नाश किया, ये अर्थ नहीं कि मार दिया, बल्कि उनको रिक्त कर दिया!
अब घटना!
तो वो, सामने खड़ी थी, मुंह खोले अपना! मैं बढ़ चला था आगे! कुलशाविका विद्या से अभिमंत्रित मिट्टी लेकर! और जैसे ही फेंकी, वो दूर जा उछली! बच गयी!
अगले ही पल,
ठीक मेरे सामने! करीब चार फ़ीट पास!
"हरामज़ादी?" चीखा मैं,
वो उड़ी!
हवा में देखा उसे!
और हुई गायब!
गायब?
ये कैसे? कैसे हुआ ये?
गायब?
इसका अर्थ, ये त्रैराशिक है!
अब समझा मैं!
मैं भागा शर्मा जी के पास! उनके माथे पर, एक गूमड़ उठ आया था, दायीं आँख भी सूजने लगी थी!
"कैसे हो?" पूछा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
वो जानते हैं! जानते हैं कि उन्हें अगर खरोच लगी, तो मैं फिर बिफरा! नहीं छोड़ूंगा! नहीं छोड़ूंगा!
"दर्द है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
लेकिन था!
बस मुझसे झूठ बोले वो!
"ईईईईईईए!!" गूंजी एक आवाज़!
मैं हुआ खड़ा!
देखा पीछे, सामने वही थी! इस बार वस्त्रों में! मैं था तो गुस्से में, लेकिन बढ़ा आगे! चला उसकी तरफ! उठायी मिट्टी, की अभिमंत्रित! और बाँध ली मुट्ठी!
आया मैं सामने उसके!
"निज़ा, अ?" बोली वो,
"तेरी माँ की **!" बोला मैं,
और फेंक दी मिट्टी उसके ऊपर!
पर ये क्या?
क्या?
कोई असर नहीं?
उस पर, उस मिट्टी का, कोई असर नहीं?
कुलशाविका असफल?
ऐसा कैसे हो सकता है?
"निज़ा, अलल, नि, अलू!" बोली वो,
ये क्या बोली वो?
न आया समझ!
"ए?" बोला मैं,
और तभी, वो झुकी, बैठ गयी नीचे,
जोड़ लिए हाथ अपने, जैसे, क्षमा मांग रही हो!
"निज़ा! अलल!" बोली वो,
"अलल?" बोला मैं,
"निज़ा अलल!" बोली वो,
"अलल?" कहा मैंने,
और वो, दोनों हाथ जोड़, सामने लेट गयी मेरे!
"कुत्ती? तेरी बहन की **!!" बोला मैं,
और दी एक लात सर पर खींच कर!
"अलल, निज़ा!" बोली वो,
लेटी ही रही! न उठी, मेरी लात का, कोई असर ही नहीं हुआ!
उस समय रात के डेढ़ बज रहे होंगे, दुनिया अपनी दुनिया में मग्न थी और हम यहां इस जगह, वीराने में मग्न थे!
"निज़ा?" बोली वो,
मैं झुका नीचे, और देखा उसको,
वो हाथ से जोड़े बैठ गयी थी!
"अलल? ज़ी , निज़ा?" बोली इस बार धीरे से,
मुझे बेहद गुस्सा आ रहा था उस पर, मैंने आव देखा न ताव, उसके केश पकड़े, और खींचने लगा! लेकीन वो? वो तो किसी दीवार की तरह से जमी थी नीचे! बेहद भारी! जैसे कोई बड़ा सा पत्थर! कोई असर ही न पड़ा उस पर तो!
उसने, सर उठाकर अपना, देखा मुझे, अपने केश पकड़े, और दिया एक झटका! मैंने भी उसके केश पकड़े हुए थे, मैं भी आगे को धक्का खा, गिरा उसके ऊपर ही!
"निज़ा? यीकी?" बोली वो,
मैंने अपना संतुलन बनाया और उठ खड़ा हुआ! वो भी, किसी लकड़ी के फट्टे के समान उठी! और ठीक मेरे सामने!
"निज़ा! निज़ा!" बोली वो,
और दौड़ चली पीछे! न रुकी फिर! दूर जंगल में लौट गयी थी! मैं चला शर्मा जी के पास, उनके घेरे के अंदर आया, सूजन बढ़ गयी थी उनकी!
"कैसे हो?" पूछा मैंने,
"ठीक हूँ!" बोले वो,
"दर्द है काफी?" पूछा मैंने,
"हाँ, है तो सही!" बोले वो,
"आओ चलो!" कहा मैंने,
"वापिस?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो कहाँ गयी?" पूछा उन्होंने,
"लौट गयी!" कहा मैंने,
"आ गयी तो?" बोले वो,
"तो देखा जाएगा!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम दोनों, लौटने लगे वहाँ से! पूरे रास्ते में कोई नहीं दिखा हमें! न वो औरत न उसकी कोई चीख ही सुनाई दी!
जब हम वहां पहुंचे, तो सभी जाग रहे थे, शर्मा जी को देखा, तो हुए चिंतित! अब सारी कहानी खोली हमने कि हुआ क्या था? वे सभी गौर से सुनते रहे और अंदर ही अंदर भयभीत भी हो गए थे!
अब तलक ढाई से ऊपर का वक़्त हो चला था, हमें आराम भी करना था, नहीं तो पूरा दिन ही ऊंघते ऊंघते बीतता!
"आप सोइये?' बोले अहमद साहब,
"हाँ, हम जागे हैं!" फ़िरोज़ बोले!
"हाँ, और क्या?" बोले अहमद साहब,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और बनायी जगह, और लेट गए!
नींद सुबह के साढ़े पैंच बजे खुली, शर्मा जी की सूजन अब कम हो गयी थी, अब कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं था!
"चलें अब!" बोले फ़िरोज़,
"हाँ!" कहा मैंने,
कुल्ला-किया और दातुन भी कर ली थी हमने!
सामान बाँधा, और सभी ने उठाया! और चल पड़े हम वापिस!
"घर चल कर, फिटकरी का पानी मंगवा दूंगा!" बोले अहमद साहब,
"हाँ, उस से ये सूजन भी खत्म हो जायेगी!" बोला मैं,
"आज फिर आना है क्या?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, आज तैयारी से!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
बातें करते करते, हम आ गए घर वापिस,
अब नहाये-धोये, चाय-नाश्ता किया,
फिटकरी वाला पानी मंगवा लिया गया,
उस से चेहरा धो लिया था, सिंकाई कर ली थी चोट की! और उसके बाद किया आराम! अब और कोई था नहीं अब, इसीलिए सोने चले गए थे हम!
दोपहर बाद नींद खुली, तब खाना खा लिए था हमने, आज अहमद साहब को जाना था कहीं, तो आज रात को वे नहीं जा सकते थे हमारे साथ वो!
शाम को, मैंने तैयारी शुरू की! सारा ज़रूरी सामान ले लिया! और इस तरह, हम चार लोग, रात को, चल पड़े वहीँ! आज उसको छकाना था, कल उसके दिन था और आज हमारा! आज उसे दिखाता कि मानव चाहे तो क्या कर सकता है!
तम्बू, कल की तरह से लगा दिया गया,
मैंने अपना सामान निकाल लिया था,
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"ये पहनो!" कहा मैंने,
"लाओ!" बोले वो,
लिया और पहन लिया वो कंठ-माल!
"ये लो!" कहा मैंने,
उन्होंने लिया, और गले में धारण कर लिया!
मैंने भी अपने तंत्राभूषण धारण कर लिए थे!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम चल पड़े, रात वाली जगह!
एक साफ़ जगह, सामान रख दिया, गाड़ दिया त्रिशूल, बिछा दिया आसन, लगा ली सामग्री!
"लो!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"नौ-कदमी कर आओ!" कहा मैंने,
"अभी आया!" बोले वो,
वो गए, और एक वृत्त खींच लिया, आ गए वापिस फिर!
"ये दीपक जलाइए!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और जला दिया!
"निज़ा?" आई आवाज़, वही आवाज़,
"आप यहीं रहना!" बोला मैं,
और चल पड़ा बाहर वृत्त के!
"अलल?" फिर से आई आवाज़!
ये आवाज़, सामने के जंगल से गूंजी थी!
"सामने आ?" बोला मैं,
"निज़ा!" बोली वो,
लेकिन नज़र न आये!
"सामने आ?" मैं चिल्लाया!
हंसी वो!
बेहद तेज!
छन्-छन् की तेज आवाज़ हुई!
और जैसे कोई दौड़ा हो!
कोई दौड़ा हो सामने!
"सामने आ?' मैंने फिर से कहा,
हंसी!
फिर से हंसी!
मैं आगे बढ़ा, थोड़ा आगे,
"निज़ा!" आई आवाज़ फिर से!
वो आवाज़ें तो दे रही थी, लेकिन नज़र नहीं आ रही थी! मैं बार बार टोर्च ऊपर-नीचे करता था, लेकिन वहां पेड़-पौधों के सिवाए और कुछ भी नहीं था! उस रोज हवा तेज थी! हवा में उड़ती उसकी आवाज़ें कभी साफ़ टकरातीं कानों से और कभी लगता जैसे कहीं बहुत पीछे से आवाज़ आई है! मुझे आगे बढ़ना पड़ा!
"निज़ा!" आई आवाज़!
और तब मैंने एक झटके से देखा उस तरफ! वो एक पेड़ के साथ लगी खड़ी! आज उसके वस्त्र वही थे, जो कल थे!
"ए? इधर आ?" कहा मैंने,
हंस पड़ी, लेकिन आई नहीं!
"सुन?" बोला मैं,
और बढ़ा आगे मैं तब!
"रुक?" बोला मैं,
मुझे देख, वो और अंदर जा रही थी जंगल में!
"रुक जा?" बोला मैं,
नहीं रुकी वो, दौड़ पड़ी अंदर! मैं उस पेड़ के पास आ खड़ा हुआ, अंदर नहीं जाना चाहता था मैं उस जंगल के!
मैं काफी देर खड़ा रहा वहां, अब कोई आवाज़ नहीं, मैं लौटा वहाँ से तब! और तभी कुछ फिंका मेरे सामने! मैंने टोर्च की रौशनी मारी उस चीज़ पर, समझ न आया कि है क्या, मैं आगे चला तब, और जो देखा, वो किसी शिशु का सर था!
मैंने झटके से पीछे देखा!
एक और टुकड़ा फिंका!
मैंने उसे भी देखा तो ये किसी शिशु की टांग थी!
तो क्या ये, मृत शिशुओं का जो कि दबा दिए जाते हैं, उनका भक्षण करती है? यदि ऐसा ही है, तो ये बेहद ही खतरनाक शय है!
मैंने फिर से पीछे देखा,
"निज़ा?" बोली वो,
और, फिर से एक और हिस्सा फेंक दिया उसने!
अब मैं लौटा शर्मा जी के पास!
आया घेरे में, और बैठ गया अंदर! अब यहीं से करना था शेष काम! वो आई भागी भागी! और सीधा हमारी ओर दौड़ते हुए! और जैसे ही घेरे से टकराई, मारी चीख और जा पड़ी पीछे दूर!
ये कण्टिका-घेरा है! ये नहीं टूट सकता!
वो फिर से उठी, और चली हमारी तरफ! इस बार भी टकराई और इस बार भी जा पड़ी दूर! वो फिर से हुई खड़ी! और बढ़ी हमारी तरफ!
लेकिन इस बार टकराई नहीं वो! वो हमारे घेरे के चारों तरफ घूमती रही! कभी चली, कभी उछलती! कभी गुर्राने की सी आवाज़ करती और कभी चीखने लगती!
फिर वो बैठ गयी सामने!
सर झुका लिया अपना,
हिलाने लगी अपना सर!
और उठाया सर अपना उसने अपना!
वो एक वृद्धावस्था वाली स्त्री में बदल गयी! ये थी उसकी वास्तविकता! किसी सुंदर स्त्री का रूप घरती थी वो! शिकार के लिए!
"निज़ा!" बोली अपनी वृद्ध आवाज़ में!
हम चुपचाप उसको देखते ही रहे!
हमने कुछ नहीं किया, हम तो उसका खेल देखना चाहते थे! सर फिर से किया नीचे अपना, हिलाया सर, और शांत हुई!
उठाया सर, तो फिर से एक नया रूप!
इस बार सुंदर-सजीली स्त्री का रूप!
"हरामज़ादी! छद्मा!" बोला मैं,
वो वृद्ध सी आवाज़ में हंसी! काफी तेज!
और अचानक से, लेट गयी! एक तेज झटके से घूमी और कर ली पीठ हमारी तरफ! पाँव उसके उठ गए थे!
सन्नाटा!
वो किसी लाश की तरह से पड़ी थी नीचे!
अचानक से हरकत हुई! मैंने रौशनी डाली उस पर! उसके बदन के आसपास से, द्रव्य बह रहा था, चारों तरफ! उसके वस्त्र गीले हो गए थे, तभी रक्त की गंध उठी! अब आया समझ, उसके बदन से वो द्रव्य, रक्त बह रहा था!
वो द्रव्य बहते बहते, इतना बहा कि पिचाकरियां छूटने लगीं! जैसे जैसे पिचकारियाँ छूटतीं, वैसे वैसे उसके बदन में से कड़क-कड़क की आवाज़ें आतीं!
ये है क्या बला?
इतनी अजीब सी क्यों है?
माना कि ऊपरी शय है लेकिन, इसकी बनावट?
ऐसे अजीब क्यों?
इसमें रक्त कहाँ से आया?
और ये सब किसलिए?
ऐसे कई सवाल ज़हन में कूदने लगे मेरे!
अचानक से वो उठ बैठी!
अपने बदन को देखा!
और अगले ही पल, रक्त चाटने लगी अपना!
हुई खड़ी! गुस्से से हमें देखा! उठी हवा में, और दौड़ पड़ी जंगल के लिए! इस बार मैं पीछे नहीं गया, हाँ उठकर, उसका ज़मीन पर पड़ा रक्त देखा, एक लकड़ी से टटोला, बदबू मार रही थी उसमे से बहुत!
वापिस आया, बैठा!
"ये क्या अजीब सी शय है?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैंने तो आज तक नहीं देखा ऐसा!" बोले वो,
"मैं भी पहली बार ही देख रहा हूँ!" कहा मैंने,
"ये रक्त है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब रक्त कहाँ से आया?" पूछा उन्होंने,
"मैं खुद हैरान हूँ!" बोला मैं,
तभी सामने से दौड़ा आया कोई!
आया और गिरा हमारे सामने!
जी मैंने देखा वो, कि वो कोई सूखी सी लाश थी!
चेहरा-मोहरा कुछ नहीं था!
बस हड्डियों के सिवा! हड्डियां भी, बेढंग रूप से मुड़ी-तुड़ी थीं!
"ये किसने फेंका?" बोले शर्मा जी,
"उसी ने!" कहा मैंने,
"ये कोई पुरानी सी लाश लगती है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैं उठा,
और चला बाहर!
पहुंचा लाश तक,
सब देखा उसे, उसमे तो कुछ शेष नहीं था! बस यूँ कहो कि, किसी कंकाल के ऊपर कपड़ा चिपका दिया हो!
"औरत है या मर्द?" पूछा उन्होंने,
"मर्द है!" कहा मैंने,
"कोई शिकार?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
उठा मैं,
आया वापिस, बैठ उधर!
"ये धमका रही है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"करो इसका क़िस्सा खत्म अब!" बोले वो,
"पूरी कोशिश कर रहा हूँ!" कहा मैंने,
हाँ! बात सच ही थी, अब इसका क़िस्सा खतम करने का समय आन पहुंचा था! इस गाँव के लिए, और दूसरे गाँवों के लिए इसका जीना, या यहां रहना, हमेशा के लिए ही खतरनाक था! यूँ तो तंत्र में ऐसी बहुत सी शक्तियां हैं जो बड़ी से बड़ी शक्ति को धूल चटा दे! उनका वजूद ही समाप्त कर दे! बहुत सी, परन्तु ऐसा करना, उस अम्बरवाले की अमानत में ख़यानत करने जैसी बात होती है! सब उसकी रजा से ही होता है, आज मेरे पास को कुछ है, उसका श्रेय मेरे आदरणीय गुरु श्री एवं, उस अम्बरवाले को ही जाता है! कच्ची मिट्टी को कैसा रूप देना है, इसमें उस अम्बरवाले का बहुत बड़ा हाथ है, हाथ ही नहीं पूर्ण श्रेय है!
अब मैं आगे बढ़ा! पढ़ा, जाम्बिक-मंत्र! उखाड़ा त्रिशूल अपना, आया औघड़ रूप में! किया एक नाद! जाम्बिक-मंत्र, माता जाम्बिकी श्री का है, ये माँ श्री महा-विकराला की सहोदरी हैं!
भागा आगे! और तभी वो सूखी हुआ लाश उड़ती से चली! ज़मीन से टकराती हुई, जैसे आंधी खेल रही हो उस से! हड्डियां बिखर गयीं उसकी तो!
"हे?" चिल्लाया मैं!
उस लाश का मुंड, एक पेड़ से टकराया! चूरा बन गया उसका! कपाल-भौंगर, ज़मीन पर बिखरते चले गए!
"क्या खेल दिखाती है?" बोला मैं,
हवा ज़ोर से चली!
मेरी आँखें बंद हुईं!
एक बार को तो, हवा पाँव उखाड़े!
"आ? सामने आ?" चीखा मैं,
और तब!
ठीक सामने!
सामने से, वो ज़मीन पर लेटी हुई, चली मेरी तरफ!
जैसे कोई भारी-भरम सांप चल कर आ रहा हो ज़मीन पर!
मैंने ताना अपना त्रिशूल!
श्री भगवान, त्रि-मुख का मंत्र पढ़ा!
और दौड़ पड़ा सामने की तरफ!
मित्रगण!
साधक को, अपने मंत्र, मंत्र-ईष्ट पर ठीक वैसा ही विश्वास होना चाहिए, जैसे अपने माता-पिता पर होता है, कि वो, कदापि अहित नहीं करेंगे अपनी संतान का! जब मंत्र चलता है, तो आपकी श्वास-शक्ति से चलता है! अब आप ही उसको प्राण नहीं देंगे, तो कोई भी मंत्र कार्य करेगा ही नहीं!
आपने जानते हैं? 'ॐ नमो शिवायः!' इसका सात्विक जप कैसे होता है? नहीं जानते होंगे! या जानते भी हों, तो क्षमा चाहूंगा!
पांच घूँट, स्वच्छ जल, पीजिये!
छठे घूँट को, मुख में ही रखिये!
वो, कंठ में न गिरे!
अब, श्री भगवान सूर्य का मंत्र पढ़ें,
मंत्र है, ॐ श्री मार्ताण्डये नमः!
ये पढ़ना है वो जल मुंह में रखे हुए!
इस से आप, श्री सूर्य भगवान का, सृष्टि के परम-पालक का अपमान न करेंगे!
तदोपरांत, जल का वो घूँट, बाहर निकाल दीजिये,
वो भी अपने पांवों पर गिराकर!
और तब, उत्तर दिशा में मुख करे,
ॐ श्री आद्ये माँ उमाये नमः!
इसका एक बार जप करें!
ये, आज्ञा हुई उनकी!
अब चूंकि श्री शिव, गृहस्थ हैं, अतः, माँ उमा ही, संचालक हैं!
अब पढ़िए आप ये मंत्र ॐ नमो शिवायः!
अब फलित होगा ये मंत्र!
अब देगा ये अपना शीर्षोच्च फल!
एक प्रकरण सुनाता हूँ, सुनिए!
एक समय, यही कोई बारह या तेरह साल पहले, एक पंडित जी थे, नाम था कुलदीपक! बड़ा नाम था जी उनका, केदारनाथ के पास के एक गाँव में रहा करते थे! जो बोल दिया, वो ऋषि-वाणी! सत्य, हो ही हो!
एक बार,
एक दिल्ली के लाला जी गए, बड़े परेशान थे, कि घर-बार में सब बढ़िया है, लेकिन बेटी का रिश्ता कहीं टिकता ही नहीं? बात बनती है, फिर बिगड़ जाती है, पता नहीं कारण क्या है? अब लाला जी को, किसी ने पंडित जी का पता दिया, कि भाई, वहां जाओ, अवश्य ही कोई मार्ग निकलेगा! अब क्या था, सेठ जी दौड़े!
पहुंचे जी गाँव,
पूछते-पाछते!
आखिर, पहुँच गए!
दिन के दो का समय था उस समय, तो पंडित जी, जैसे ही पहुंचे, देखा, बड़े लोग आये हैं, उनका क्रमांक तो शायद, शाम तक ही आये! अब हुआ क्या जी! भीड़ और बढ़े! हटे एक भी आदमी नहीं! पता चला, पंडित जी, जंगल गए हैं, अपनी कपिला-गैय्या को चारा खिलाने! अब लाला जी ने बिठाई जुगत!
पहुँच गए जी, पंडताइन तक! और बोले,
"धन्न भाग हमारे, जो आपके दरसन हुए!" बोले लाला जी,
"कैसे दरसन?" बोली पंडताइन!
"अजी पंडत जी के?" बोले वो,
"तो जा, उस से ही बात करना!" बोली वो,
तो जा?
उसी से बात करना?
लाला जी को आया चक्कर!
"वैसे गए कहाँ हैं?" पूछा लाला जी ने,
"गया होगा चराने गैय्या को, और कहाँ?" बोली वो,
गया होगा?
होगा?
ये क्या सुन रहे हो लाला जी!
लाला जी, लौटे,
वापिस अपनी कतार में!
आये पंडत जी, और तब, भीड़ छंटनी हुई शुरू!
और तब आया नंबर लाला जी का!
"आओ जी!" बोले पंडत जी,
लाला जी, साथ लाये सामान को रखते हुए बैठ गए!
"दिल्ली से आये हो?" पूछा पंडत जी ने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"बताओ, क्या समस्या है?" बोले पंडत जी,
अब लाला जी तो वैसे ही सन्न थे! समस्या क्या बूझते!
"पंडत जी?" बोले लाला जी,
"हाँ जी?" बोले पंडत जी,
अब बताई सारी बात!
ये, कि गया होगा,
उस से कर लेना बात आदि आदि!
सुन,
पंडत जी हँसे!
"सुनो लाला जी!" बोले वो,
"जी?" बोले लाला जी,
"पिछले जनम में, मेरी पत्नी, एक भैंस थी, और मैं कौवा! उसकी गर्दन पर एक घाव था! मैं बैठता, और उसे नोंच नोंच, उसका मांस खाता! मेरा पेट भरता! लेकिन उसका घाव, भरने नहीं देता! घाव और बढ़ा, और फैला, एक दिन, ये, बीमार हो, मर गयी! तब तो सभी गिद्ध, चील, आदि आदि ने मांस खाया इसका, चमड़ा इसका, किसी काम का बचा नहीं था, तो मरने से पहले, इसने मुझे श्राप दिया, बाकी आप देख ही रहे हो!" बोले पंडत जी!
अब आई बात समझ!
आशा करता हूँ, आप मित्रगण भी समझ गए होंगे ये दृष्टांत!
इस दृष्टांत का अर्थ था कि व्यक्ति को अपने पाप-कर्मों का फल भुगतना ही होता है! कोई भी, किसी के पाप नहीं वहन कर सकता! न ही ये स्थानांतरित किये जा सकते हैं! हाँ, पुण्य अवश्य ही फलदायी होते हैं! जो ये आशीर्वाद होते हैं, ये ऐसे ही पुण्य फलों की संचित पूँजी होते हैं! इसीलिए पहले के आशीर्वाद फलित भी हुआ करते थे! महाराज शांतनु ने तो, अपने पुत्र देवव्रत को, इच्छायु का वरदान ही दे दिया था! ये हैं पुण्य-फल और उनकी महिमा!
अब ये जो, शय है, न जाने कैसे पाप-फल भुगत रही है! है तो रचनाकार की एक रचना ही!
अब अजीब है, खतरनाक है, तो ये इसके गुण हैं, नैसर्गिकता है!
हाँ, तो वो ज़मीन पर, सांप सी चली आ रही थी! मैं भागा आगे! वो हुई खड़ी! मेरे चीख! दौड़ी मेरी तरफ! और जैसे ही टकराने को हुई वो, मेरे त्रिशूल का फाल सीधा उसके सीने में जा घुसा!
मैंने झटके से निकाला! और जैसे दुबारा घोंपने को हुआ, वो उठी ऊपर, और मुझे पार करती हुई, मेरे सर से ऊपर उठ कर, जा खड़ी हुई पीछे! मैंने पलट के देखा, उसके सीने से रक्त बह रहा था, उसने भी देखा और फिर से दौड़ी मेरी तरफ, "ईईईइ!" चिल्लाती हुई! मैंने किया सम्मुख वो त्रिशूल! और जैसे ही टकराई वो, मेरे त्रिशूल का फाल, उसकी गरदन के आरपार हो गया! मैंने खींचना चाहा उसे, न निकल सका! छूट गया, वो उस फाल को, पकड़े हुए, नीचे बैठती गयी! मैं दौड़ा और पकड़ा अपना त्रिशूल, खींचा बाहर! निकला, तो मैं थोड़ा दूर खड़ा हो गया! देखने लगा उसे! वो अपनी गरदन पकड़, जीभ निकाल, आँखें फाड़े, नीचे अपने पांवों के सहारे, घुटनों पर बैठी हुई थी!
"गर्र गर्र!!" चिल्लायी वो!
गरदन से फव्वारा छूट पड़ा खून का!
उठी, और देखा घूर के मुझे उसे!
अगले ही पल, पलटी पीछे और जा भागी जंगल में!
मेरी टोर्च गिर गयी थी, शुक्र था, अभी जल रही थी, मैंने दौड़ के उठायी वो! डाली रौशनी सामने ही!
कुछ देर ढूँढा उसे, न दिखी,
तो मैं वापिस हुआ, अचानक से देखा मैंने कुछ! त्रिशूल पर, खून का एक भी छींटा नहीं पड़ा था! ये कैसे सम्भव था?
सकते में पड़ा, मैं वापिस हुआ!
आया घेरे में,
"घायल हुई है?" बोले वो,
"लगता है, लेकिन?" बोला मैं,
"क्या लेकिन?" पूछा उन्होंने,
"ये देखो?" कहा मैंने,
त्रिशूल का फाल दिखाया मैंने उन्हें, उन्होंने देखा, और पड़े हैरत में!
"ऐसा कैसे हो सकता है?" बोले वो,
"गर्र!" आवाज़ गूंजी बहुत तेज!
मैं उठा,
सामने देखा,
कोई नहीं था!
"आप एक दीया जला लें, ओट लगा कर!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और मैं चला आगे फिर से!
पढ़ा मैंने तब यमरूक मंत्र!
किया फाल अभिमंत्रित!
लगाया माथे से! और बढ़ चला आगे!
टोर्च की रौशनी डाली सामने! ठीक सामने, वही खड़ी थी, इस बार वस्त्रहीन! हाँ, इस बार गले में भी कोई, कैसा भी आभूषण नहीं था!
मैं बढ़ा आगे!
"निज़ा?" बोली वो,
मैं रुक गया तभी! पीछे देखा, दीया जला लिया था उन्होंने!
अब बढ़ा मैं आगे! वो पिच्छल-पैरी मुझसे दूरी बनाये! जहां मैं चलूँ, वो दूर हो!
"बढ़ आगे?" बोला मैं,
"निज़ा?" बोली वो,
"आ?" बोला मैं,
उसके स्तनों में घाव तो थे, लेकिन रक्त नहीं था, गरदन पर भी निशान बने थे, लेकिन वो ठीक है बिलकुल, ये पता चल रहा था!
"आ?" चीखा मैं,
"निज़ा?" बोली वो,
मैं रुका!
वो रुकी!
"आ?" बोला मैं,
"निज़ा?" बोली वो,
मैं बढ़ा आगे! वो पीछे हुई!
ऐसे बात नहीं बनने वाली थी! मैंने त्रिशूल के फाल को नीचे लगाया, और एक मंत्र पढ़ते हुए, बनाने लगा घेरा! उसने उसे गौर से देखा! मैं खींचते चला गया!
और तब,
तब मैं रुका!
"ओ औरत?" बोला मैं,
"निज़ा!" इस बार गुस्से से बोली वो,
हुई पीछे! और, उसके पाँव हुए ऊपर, पांवों ने, पेड़ को जकड़ा, और इस तरह, ऊपर चढ़ती चली गयी वो!
मैं देखता ही रह गया उसे!
"बदकार?" चीखा मैं,
वो बीच में जाकर रुक गयी!
"नीचे आ?" बोला मैं,
एक झटके से! एक झटके से वो कूद पड़ी नीचे! मैं तैयार था, किया फाल ऊपर! और उसका जबड़ा बिंधता चला गया! चिरता हुआ! खून की पिचकारियाँ फूट पड़ीं! और वो, भरभरा के नीचे गिरी! अब आँखें बंद थीं उसकी! कोई हरकत नहीं थी बदन में! उसका चेहरा विकृत हो गया था, एक आँख बाहर निकल आई थी, एक तरफ का जबड़ा, कानों के नीचे तक चिर गया था!
मैं आया उसके पास!
और एक लात मारी उसके पेट पर! खींच कर! कोई हरकत नहीं की उसने! मैं हटा पीछे! और देखता रहा उसको!
पंद्रह मिनट!
बीस मिनट!
आधा घंटा!
और तभी, वो एक झटके से हुई खड़ी! हैरत ये, उसका कोई नुकसान नहीं हुआ था! उसका जबड़ा ठीक, उसकी गरदन ठीक! स्तन ठीक! अब मेरी हैरत में इजाफा हुआ!
ये क्या बला है?
ऐसा कैसे सम्भव है?
"निज़ा?" बोली वो,
मैं उठा!
और बढ़ा उसकी तरफ!
वो न हटी, एक रत्ती भी न हटी! मैं पहुंचा पास उसके! हुआ आमने सामने, मैंने त्रिशूल किया आगे, और हाथों की जकड़ बनायी उस पर!
"निज़ा? अ?" बोली वो,
"तू है क्या?" बोला मैं,
"निज़ा? अ? अ?" बोली वो,
और अगले ही पल,
नीचे झुक गयी! अपने सर को, मेरे पांवों के बीच रख दिया उसने!
"निज़ा?" बोली वो,
मैंने पीछे हटा!
"निज़ा?" बोली वो,
मैं फिर से पीछे हटा, वो आगे बढ़ी!
"रुक जा?" बोला मैं,
रुक गयी वो! मुझे देखा!
उसके चेहरे के भाव बदले! भावों में, कुछ नरमी आ गयी थी!
"निज़ा!" बोला मैं,
उसने सर हाँ में हिलाया अपना!
"निज़ा!" बोली वो,
"उठ?" कहा मैंने,
वो न उठे!
"उठ?" चिल्लाया मैं,
न उठी!
मैं चला पास उसे, कुछ दूर रुका!
"निज़ा!" बोला मैं,
हाँ में, फिर से सर हिलाया अपना उसने!
"निज़ा, यीकी!" बोली वो,
इस बार उसने इशारा किया एक तरफ, जंगल के अंदर!
"यीकी!" बोली वो,
और उठ खड़ी हुई! इशारा किया फिर से,
"निज़ा, यीकी!" बोली वो,
क्या अर्थ हुआ इसका?
अच्छा! कुछ समझा!
"आ! चल उधर!" कहा मैंने!
मैंने एक फैंसला ले लिया था अब! उसने इशारा किया था एक जगह के लिए! इस से शायद, निज़ा का कुछ खुलासा हो जाए, इसीलिए लिया था मैंने ये फैंसला! मैं आगे आगे चल रहा था और वो, दौड़ी दौड़ी आई, आ गयी मेरे पास! अब साथ साथ चलने लगी मेरे!
"निज़ा! निज़ा!" बोली वो,
इस निज़ा ने बहुत छकाया था मुझे! न जाने किस बला का नाम था ये निज़ा! वो अकेली थी, ये तो साफ़ था, नहीं तो उसके साथ कोई होता, तो अवश्य ही आता अभी तक!
"निज़ा! अलल!" बोली वो,
और अब जिस तरह से पेश आ रही थी वो, लगता नहीं था कि ऐसी मासूमियत भी रखती है ये! साथ ऐसे चल रही थी, जैसे मुझे कुछ दिखाने जा रही हो! कुछ ऐसा, जो उसको बेहद पसंद था!
"निज़ा?" बोला मैं,
"निज़ा!" बोली वो,
ये लफ़्ज़ मैंने इतनी मर्तबा सुन लिया था कि अगर मैं सो रहा होऊं और कोई मेरे कान में ये लफ़्ज़ कह दे, तो मैं भले ही ख़्वाबों में उड़ रहा हूँ, चौंक कर उठ ही पड़ता!
अचानक ही, उसने मेरा कंधा पकड़ा! मैं रुक गया,
"निज़ा?" बोली वो, एक तरफ इशारा करते हुए,
मैंने रौशनी डाली उधर ही, वहाँ पर, पेड़ों का एक झुरमुट सा था, और कुछ पेड़, टूटे पड़े थे, तभी उसने मेरा हाथ पकड़ा, और ले चली मुझे ठेल! मैं चलता रहा उसके साथ! मैंने अपना त्रिशूल अपने बाएं हाथ में पकड़ रखा था, ज़रा सी भी गलत हरक़त पेश करती वो, तो घुसेड़ देता फिर से त्रिशूल!
वो भाग ली आगे आगे! और मैं उसके पीछे पीछे! वो करीब सौ मीटर भागी होगी! मैं आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ा!
पहुंचा उसके पास!
"निज़ा!" बोली वो, इशारा करते हुए एक जगह!
मैंने रौशनी डाली उधर!
ये एक गड्ढा सा था, अपने आप ही हुआ था वो गड्ढा, शायद कोई पेड़ उखड़ा होगा वहां से!
"निज़ा?" बोला मैं,
"अलल, निज़ा?" बोली वो,
और कूद पड़ी गड्ढे में! मैं नहीं कूदने वाला था उसमे! मैं बैठा उस गड्ढे के किनारे पर, और अंदर डाली रौशनी! रौशनी में मैंने देखा, उसमे फ़टे कपड़े, गुदड़ियाँ, चीथड़े से पड़े थे, कपड़े औरतों के थे! और रौशनी डाली, तो कुछ औरतों के ज़ेवर भी दिखाई पड़े!
"निज़ा!" बोली वो,
वो बैठी, और कुछ ऊपर फेंका! मैंने देखा उसे, वो एक बर्तन था, चीनी-मिट्टी का! फिर कुछ और फेंका, ये एक गडुआ था, छोटा सा, था मुड़ा-तुड़ा! फिर से फेंका कुछ, ये कपड़े थे किसी महिला के, अंदर पहनने वाले, बस, यही था सामान!
"निज़ा!" बोली वो,
"ये है निज़ा?" पूछा मैंने,
वो एक झटके में, मेरे पास कूद आई! मैं तो टकराते टकराते बचा उस से! नहीं तो गिर ही जाता गड्ढे में! उसने वो गडुआ उठाया, और मेरी तरफ बढ़ाया!
"निज़ा! निज़ा!" बोली वो,
मुझे? मुझे दे रही थी वो? क्या यही है इसकी निज़ा?
वो, फुर्ती से वो कपड़े और सामान सा उठाने लगी! उठा लिया तो ले आई मेरे पास!
"निज़ा!" बोली वो, मुझे वो सामान देते हुए!
मैंने सामान को नहीं देखा!
उसकी आँखों को देखा मैंने!
क्या यही है वो पिच्छल-पैरी?
वो खतरनाक पिच्छल-पैरी?
क्या शुरू से, मैं ही गलत था?
उसका आशय क्या था?
क्या मैंने ही आशय गलत लिया था?
क्या ये सामान ही निज़ा है?
"निज़ा!" बोली वो,
दोनों हाथों से, मुझे दिया वो सामान!
मैं खड़ा हुआ, वो भी!
"निज़ा!" बोली वो,
उस क्षण, वो मुझे बेहद मासूम सी लगी!
"सुपू, सुपू!" बोली वो,
और एक ज़ोरदार झटके के साथ, पीछे उछली! हो गयी जंगल में लोप! मैं वहीँ, ठिठक के खड़ा रहा! उसके लौटने का इंतज़ार किया! वो नहीं लौटी! कभी नहीं लौटी फिर! मैं उस सामान को वहीँ छोड़, वापिस हो गया! शर्मा जी को बताया मैंने! वो भी हैरत के शिकार हो गए!
ये रहस्य, रहस्य ही बना हुआ है आज तक! उसके वो शब्द, याद हैं मुझे आज भी! क्या वो, वही थी? या कोई और पिच्छल-पैरी थी? और फिर, वो गयी कहाँ? फिर से किसी जंगल में? हाँ! शायद! और वो निज़ा, वो सामान! जो उसे जंगल में भटकते हुए मिला हो! हाँ, शायद!
इसके पंद्रह रोज बाद, अहमद साहब ने बताया कि गड्ढे से और भी कुछ सामान निकला था, कुछ टूटे हुए बर्तन, कुछ पुराने कपड़े, कुछ सोने-चांदी के ज़ेवर और एक बेहद पुराना सा रिवॉल्वर भी!
निज़ा! यही था निज़ा! यही देना चाह रही थी वो मुझे!
ये दुनिया है, क्या क्या अजूबे हैं इस दुनिया में, कौन जाने! अभी तो हमने बस, बस खोजना शुरू ही किया है! हो सकता है, इस प्रकार की अन्य शयों के बारे में भी पता चले!
साधुवाद!
