मित्रगण! यूँ तो हर सभ्यता में, स्थानीय निवासियों में, किवदंतियां, कहानी, क़िस्से, मिथक प्रचलित हैं! अब ये महज़ इत्तफ़ाक़ हो, ऐसा सम्भव नहीं! कुछ न कुछ सच्चाई अवश्य ही रहा करती है! ये हो सकता है, कि मुँहज़बानी में, उनमे फेर-बदल हो जाए! चार फ़ीट, दस फ़ीट हो जाए, काले से सफेद हो जाए! लेकिन कुछ मूल अवश्य ही रहा करता है!
ऐसी ही एक किवदंती है, एक ऐसा अस्तित्व, जो असत्य नहीं है! इसे कहते हैं पिच्छल-पैरी! जैसा नाम, वैसी ही हुआ करती है ये! इसके पाँव, घुटनों के नीचे से, उलटे होते हैं, अर्थात, पाँव के पंजे पीछे और एड़ियां आगे! लेकिन चलने में, इसे कोई दिक्कत नहीं होती! आप पहचान ही नहीं कर सकते कि इसके पाँव उलटे हैं! ये स्थानीय वेश-भूषा ही धारण किया करती है! रूप में बेहद सुंदर, कामुक और मनमोह लेने वाली होती है! इसकी हंसी की खनखनाहट, बेहद लज़ीज़ सी लगा करती है! आयु में, ये बीस वर्ष के आसपास दिखा करती है, देह मांसल और गुदाज़ होती है इसकी, रंग, चिट्टा-सफेद, ऐसी कि हाथ लगाओ मैली हो! इसके केश लम्बे, घुंघराले, चमकदार, स्याह होते हैं, जो कि नितम्बों तक झूलते रहते हैं! आँखों में आकर्षण होता है, और देह में मादकता! किशोरों से लेकर, वयस्क पुरुषों पर आसक्त हुआ करती है, जितनी बार सम्भोग करती है उनके साथ, वो किशोर या पुरुष, निखरता जाता है, लेकिन एक समयांतराल पश्चात, वो किशोर या पुरुष, रक्ताल्पता के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाता है!
गाँव-देहातों में, किशोर से लेकर पुरुष तक, एक पत्थर पहना करते हैं, एक ताबीज़ में रख कर, इस पत्थर को, जुरज कहा जाता है, कहते हैं, जो ये धारण करता है, उस से दूर रहती है ये पिच्छल-पैरी! इसका वजूद, पूरे भारत में नहीं है, कहीं कहीं है, खासतौर पर, जम्मू-कश्मीर, चेनाब नदी के आसपास के जंगलों में! हाँ, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान में, इसका वजूद है! वहां के लोग डरते हैं इस से! कुछ समय पहले, पाकिस्तन में ही, कुछ पर्वतारोही एक ही रात में गायब हो गए थे, और बाद मे, उनकी लाशें मिलीं, उनकी लाशें सफेद पड़ी थीं! नाख़ून काले और देह में रक्त ही नहीं था! वहां के स्थानीय निवासियों ने, उन पर्वतारोहियों को पहले से ही चेता दिया था, नहीं माने वो, अफ़ग़ानिस्तान में भी ऐसा होता आ रहा है! अब सरकार भी सतर्क हुई है पाकिस्तान में, और स्थानीय-प्रशासन भी!
और ये, एक ऐसी ही पिच्छल-पैरी की घटना है!
एक जानकार हैं मेरे अमानतुल्लाह साहब! लकड़ी का कारोबार है उनका! तीन बेटे हैं, वे सभी कारोबार में ही हाथ बंटाते हैं, अमानतुल्लाह साहब का एक बार दिल्ली आना हुआ, तो उनसे मुलाक़ात हुई, उन साहब के साथ, उनके एक रिश्तेदार, जनाब अहमद साहब भी थे! अहमद साहब ने ही इस पिच्छल-पैरी के बारे में बताया था! रसूख वाले इंसान हैं, पढ़े-लिखे हैं, शॉल, कालीन का कारोबार है उनका, वो भला अनर्गल बातें क्यों करते! और मेरा भी, इस पिच्छल-पैरी से साबका, उसी दिन, उस कहानी के रूप में पड़ा था!
"किसी ने देखा है उसे?" पूछा मैंने,
"हाँ, मैंने देखा है, मेरे छोटे भाई हैं, उन्होंने देखा है!" बोले अहमद साहब!
"बताइये?" पूछा मैंने,
"वो एक शाम की बात है, मैं और मेरे भाई, शहर से आये ही थे गाँव, गाँव में कुनबा है, आना ही पड़ता है, जब हम गाँव में आये, तो उसी रात को, गपशप करते वक़्त, इस शय का ज़िक्र आया! गाँव के एक लड़के ने, उस पिच्छल-पैरी को देखा था!" बोले वो,
"लड़के को कैसे पता चला?" पूछा मैंने,
"लड़के ने पाँव देख लिए थे उसके!" बोले वो,
"वो कैसे भला?" पूछा मैंने,
"लड़के ने बताया कि वो दोपहर में, अपने जानवर चरा रहा था, तभी उसे एक नाले में, कुछ आवाज़ें सी आयीं, वो उस तरफ चला...." बोले वो,
"कैसी आवाज़ें?" पूछा मैंने,
"जैसे कोई नहा रहा हो?" बोले वो,
"अच्छा! तो लड़का, वहाँ चला!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
तभी चाय आ गयी, चाय ले ली मैंने, साथ में, कुछ नमकीन भी!
"हाँ जी?" पूछा मैंने,
"तो जी, लड़का चला उस तरफ!" बोले वो, मट्ठी चबाते हुए!
"अब आप जानो हो, जवान लड़का था, और कोई औरत नहा रही हो, तो छिप कर देख रहा था वो!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने, चाय की चुस्की भरते हुए,
"तो जी, वो हरामी लड़का, देखता रहा! औरत बड़ी सुंदर! नज़रें ही न हटे उस से! वो कमर तक पानी में डूबी थी, और जब बाहर निकली, और जो देखा उसने, बस चीख ही न निकली उसकी, डर के मारे! भाग लिया जी वो!" बोले वो,
"अच्छा, तभी बताने लायक बच गया!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर साहब?" पूछा मैंने,
"अब जी गाँव में फ़ैल गयी बात! कोई सोये नहीं, दिन में कोई निकले नहीं! रात में पहरे लगें लोगों के!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"उसके बाद, महीने बीत गए, तब क जा चुकी होगी वो और कहीं!" बोले वो,
"अच्छा, आपने कैसे देखा?" पूछा मैंने,
"अब हम कहाँ मानने वाले थे! हमने सोची, ढोंग-ढकोसला है ये! ऐसा कुछ नहीं होता!" बोले वो,
मैं हंसा उनकी बात पर!
"फिर जी?" पूछा मैंने,
"मैं, और मेरा भाई फ़िरोज़, एक शाम, घूमने निकले जी बाहर!" बोले वो,
"गाँव से बाहर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर?" कहा मैंने,
अब जो उन्होंने बताया, उसे मैं लिखता हूँ यहां!
वो जब बाहर निकले थे, तो उनके पास, अपने बचाव के लिए, बस एक कुल्हाड़ी ही थी! वो टहलते रहे, घूमते रहे! जब वो वापिस हो रहे थे, तो नीचे, जहाँ एक पहाड़ी नदी बह रही थी, उस पर पुल था एक, छोटा सा, उसकी मुंडेर पर, उनकी तरफ पीठ कर, एक औरत बैठी थी, हैरत की बात, उसने अपने ऊपर के कपड़े, उतार रखे थे! और अपने कंधे पर रखे हुए थे! उन्हें बड़ी हैरत हुई!
"फ़िरोज़?" फुसफुसाए वो,
"हाँ?" बोला फ़िरोज़, धीरे से,
"अबे ये कौन है?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं!" बोले फ़िरोज़,
"गाँव की तो ना है?" पूछा उन्होंने,
"ना, वो भी ऐसे?" बोला फ़िरोज़,
"कहीं...........ये........वो तो नहीं?" घबरा के बोले वो!
"कौन?" बोले फ़िरोज़,
"अबे, जो उस लड़के ने देखी थी?" बोले वो,
अब फ़िरोज़ के भी हाथ-पाँव कांपे!
"श्ह्ह्ह्ह!" बोले अहमद साहब,
"ऐसे ही खड़े रहो!" बोले फ़िरोज़!
अब उन्हें लग गया करीब एक घंटा! वो औरत उस पुल पर बैठी रही, कभी दायें देखती, कभी बाएं! और फिर, उठी वो, कपड़े बगल में दबाये, और चली बाएं, जंगल की तरफ! और जब उसके पाँव देखे, तो गिरते गिरते बचे दोनों!
आधा घंटा हुआ,
"चलें?" पूछा अहमद साहब ने,
"चलो!" बोले फ़िरोज़ साहब!
और वे दोनों, आव देखा न ताव!!
भाग लिए वहाँ से!
न देखा पीछे मुड़कर!
और इस तरह, वे अपनी जान बचाते हुए, हुए गाँव में दाखिल!
"तो आपने स्वयं देखा था उसे?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"कुछ और जो बताने लायक हो?" पूछा मैंने,
"और जी..." अपनी दाढ़ी में हाथ फेरते हुए बोले वो,
"कुछ ऐसा, जो कुछ अलग ही हो?" कहा मैंने,
"जी एक तो पाँव, पाँव उलटे थे उसके!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"और तब सब इंसानी ही था!" बोले वो,
"कद-काठी?" पूछा मैंने,
"करीब छह फ़ीट!" बोले वो,
"रंग-रूप?" पूछा मैंने,
"दूध सा सफेद!" बोले वो,
"बाल?" पूछा मैंने,
"बहुत लम्बे! नीचे तक!" बोले वो,
"और चाल उसकी?" पूछा मैंने,
"कोई फ़र्क़ नहीं जी!" बोले वो,
"ये कब की बात होगी?" पूछा मैंने,
"हो गए कोई छह महीने!" बोले वो,
"उसके बाद कोई खबर आई?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, दो-तीन खबरें आयीं!" बोले वो,
"वो सभी गाँव में ही हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"बात कर लेंगे वो?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोले वो,
"तब तो ठीक है!" कहा मैंने,
"अब बताएं, कब तशरीफ़ ला रहे हैं?" बोले वो,
"श्री नगर से कितना है?" पूछा मैंने,
"है जी, सुबह चलो तो शाम तक पहुंचेंगे, रास्ते भी खराब हो जाते हैं!" बोले वो,
"हाँ जनाब? आप बताएं?" बोला मैं,
"जब आपका दिल करे!" बोले अमानतुल्लाह साहब!
"और जो साथ ही ना चल पड़ो?" बोले वो,
"आप कब वापिस जाएंगे?" पूछा मैंने,
"हैं अभी, छह दिन और!" बोले वो,
"फिर तो ठीक है! साथ ही चलते हैं आपके!" बोला मैं,
"ये हुई न बात कुछ!" बोले अहमद साहब!
"अब चलूँगा मैं!" बोला मैं,
"खाना खा कर जाते?" पूछा अमानतुल्लाह साहब ने!
"खाना खा लेंगे! अब तो अहमद साहब के यहीं कड़ाही चढ़ा लेंगे!" बोला मैं,
"इंशाअल्लाह!" बोले वो,
"अच्छा जी, खुदा-हाफ़िज़!" कहा मैंने,
"खुदा हाफ़िज़ साहब!" बोले वो, गले मिले, और मैं चला आया वापिस!
उसी शाम, शर्मा जी से बात हुई मेरी, और हम मिले, मैंने उन्हें, सबकुछ बताया! उन्हें भी हैरानी हुई! अजीब सा ही लगा मामला!
"वैसे इस शय का कहीं ज़िक़्र है?" पूछा उन्होंने,
"इसका तो नहीं, पर इसी से मिलता-जुलता होता है एक प्रेत, झुझलू, इसको अलग अलग नाम से पुकारा जाता है, इसी की प्रेतनी, ठीक ऐसा ही किया करती है, और उसके पाँव भी उलटे ही होते हैं!" बोले वो,
"आपने देखी?" पूछा उन्होंने,
"देखा तो नहीं, सुना ज़रूर!" कहा मैंने,
"तो ये भी कोई ऐसी ही प्रेत होगी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो, अब देख लेंगे!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लेकिन एक बात?" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"क्या ये जो हमारे पास 'अस्त्र-शस्त्र' हैं, वो काम करेंगे?" पूछा उन्होंने,
"क्यों नहीं! वो सभी प्रकार के अशरीरी पर काम करते हैं! वो कोई अनोखी नहीं!" बोले वो,
"और एक बात!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"क्या इनमे, प्रेत भी होता है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
"हम्म! क्या श्री श्री श्री जी से पूछें?" बोले वो,
"हाँ, उनकी अनुमति बिना तो असम्भव ही है कहीं जाना!" कहा मैंने,
"हाँ, पूछ लें आप!" बोले वो,
"लगाइये फ़ोन!" कहा मैंने,
उन्होंने फ़ोन लगा दिया,
सुरभि है एक लड़की वहां, उसने फ़ोन उठाया, और हमारी बात करवा दी! श्री श्री श्री जी ने, सुना तो था, परन्तु कभी सामना ना किया था, और मुझे, उन्होंने कहा, सुझाव दिया कि, माँ भद्रकाली का पूजन करूँ, यहना से जाते समय, भोग लगाऊँ, और अनुमति लूँ! और फिर, ऐसा ही किया मैंने! माँ का खप्पर भर दिया रक्त से! अनुमति ले ली माँ से!
उस पूजन में, मेरे साथ, शर्मा जी भी बैठे थे! उसी रात, मैं और शर्मा जी, पूरे धुत्त! पूरे टुल्ल! मसान को भोग दिया जाने वाला था, कि एक औघड़, यदुवेन्द्र आया! वो भी टुल्ल! चला ही नहीं जा रहा था उस पर! गिरता तो कुछ पकड़ता! हँसता, गाली-गलौज करता खुद को ही, और आ गया!
"आ भई!" बोले शर्मा जी,
"बहन की ** आज ज़्यादा चढ़ गयी!" बोला वो,
"अबे, मादर**! नीचे से भी ले ली क्या?" बोले शर्मा जी,
मैं ऐसे हंसा, ऐसे हंसा, की नीचे ही लेटना पड़ गया!
"है! ऐसा कैसे हो सकता है?" बोला वो औघड़!
"दिखाऊं? हो उल्टा, तेरी माँ की **! हो उल्टा! मैं दिखाता हूँ!" बोले वो,
वो ऐसा हंसा! कि गिर गया नीचे!
"अरे ओ रांड के जीजा?" बोले शर्मा जी,
"आदेश?" बोला वो,
"जा, लेकर आ!" बोले शर्मा जी,
"है? मारोगे मुझे?" बोला वो,
"देखेगा नहीं?" बोले वो,
"है? माफ़ करो!" बोला हाथ जोड़कर वो!
"अच्छा सुन ओये, क्या नाम है तेरा? **वेन्द्र?" बोले वो,
"है? क्या नाम ले रहे हो?" बोला वो,
"अबे सुन, तेरी माँ का **! पानी लेकर आ!" बोले वो,
उठा वो औघड़! हंसा!
"जा माँ के **!" बोले वो,
"जा तो रहा हूँ?" बोला वो, और चला गया, हिलता-डुलता!
"इसकी क्यों फाड़ते रहते हो यार?" पूछा मैंने, हँसते हुए!
"इसकी? इस **वेन्द्र की?" बोले वो,
"हाँ, इसकी!" कहा मैंने,
"ऐसे ही! आदमी बढ़िया है!" बोले वो,
वो ले आया था पानी! हमने थोड़ी और चढ़ाई, हो गए पूरे टुल्ल, न पता चला, कब लेटे और कब सो गए! रात में बाहर ठंडक थी, नींद बढ़िया आती है ऐसी ठंडक में! तो पता ही न चला, भोजन कर ही लिया था, तो, इत्मीनान से, ज़मीन को गद्दा बना, सो गए थे! सुबह, जब आँख खुली, नशा टूटा तो पता चला कि कल रात तो भूमि-मैय्या के पालने में सोये थे हम!
खैर,
मैंने अपनी तैयारियां कर ली थीं, अब हमारे पास जुरज पत्थर तो थे नहीं, हम तो अपने ही तंत्राभूषण प्रयोग करते! अब बात ये थी, कि हमने कभी इस पिच्छल-पैरी का सामना कभी किया ही न था! मालूम ही न था कि करना क्या होता है! सबसे अल्प यदि ज्ञान था, तो इसके बारे में ही! शेष तो हम अहमद साहब के बताये अनुसार पर ही अमल कर रहे थे!
बाकी, हमें पता चलता कुछ तो वो बस गाँव में जाकर ही, उन लोगों से! तब ही जान सकते थे उसके विषय में! हालांकि, वो किवदंतियां अधिक और सत्य कम होगा, लेकिन कुछ न कुछ सत्य का पुट तो अवश्य ही रहता है उसमे!
और इस तरह वो दिन भी आ गया! हमने अपना सामान बाँध लिया, शर्मा जी ने अपना बैग लिया और मैंने अपना! रख ली थीं आवश्यक वस्तुएं! और हम, जा पहुंचे थे, रेलवे-स्टेशन, जहाँ हमें, अमानतुल्लाह और अहमद साहब मिलने वाले थे! वो शाम का समय था, भोजन तो अब गाड़ी में ही करना था! अहमद साहब के रिश्तेदार आये हुए थे वहां, उनसे मिले हम, बेहद ही बढ़िया लोग हैं वो! वो तो पूरा खाना लाये थे, हमारा भी! अब इस से बढ़िया और क्या हो सकता था!
शाम के कुछ बाद ही गाड़ी छूटी, और हमारा सफर हुआ शुरू! रात करीब आठ बजे, हमने भोजन करना आरम्भ किया! कीमा-करेला बहुत बढ़िया बनाया गया था! साथ में, शोरबे वाला गोश्त! लज़ीज़ और बढ़िया! कहो कुछ भी, गोश्त तो मुस्लिम ही बनाना जानते हैं! साबुत मसाले! पिस्ते पिसे हुए! शुद्ध देसी घी में पका हुआ खाना! रोटियां दूध में गूंदी हुईं, मुलायम और बेहतरीन! मैंने और शर्मा जी ने, मजे मजे में, कुछ ज़्यादा ही खा लिया था! लेकिन खाना ऐसा बढ़िया था कि मन न भरे!
"ये कीमा-करेला लाजवाब है अहमद साहब!" बोले शर्मा जी,
"शुक्रिया!" बोले वो, सामान उठाते हुए,
"जिसने भी बनाया, उसको शुक्रिया कहना हमारा!" बोले शर्मा जी,
"बिटिया है, उसने ही बनाया है!" बोले वो,
"बेहद शानदार! बिटिया राज करे!" बोले वो,
और उसके बाद, खोली एक डिबिया उन्होंने! बधाई आगे!
"नौश फरमाएं!" बोले वो,
डिबिया में झाँका, तो चांदी के वर्क में जड़े, पान थे, देसी पत्तों वाले पान! ख़ुश्बू फ़ैल गयी उनकी, क्या बेहतरीन!
"अरे वाह! वाह!" बोला मैं!
लिया मैंने पान, रखा मुंह में, गुलकंद की क्या बेहतरीन ख़ुश्बू! गुलाब की ख़ुश्बू! अब पान का अपना अलग ही स्वाद होता है! इसके स्वाद का, ज़ायक़े का, कोई तोड़ नहीं! मुग़ल तो चले गए, लेकिन ये पान छोड़ गए! हिन्दुस्तान में, पान आज भी वैसे ही उगाया जाता है जैसे कि मुग़लिया वक़्त में उगाया जाता था! कई मुमालिक़ में, हिन्दुस्तान से पान जाता है! पूरा पाकिस्तान, हिन्दुस्तान के पान का ज़ायक़ा उठाता है! जब पाकिस्तानी हिन्दुस्तान आते हैं, तो पान के इतने सस्ते दाम देख, हैरत में पड़ जाते हैं! क्योंकि वहां पान, महंगा मिलता है! कई पाकिस्तानी जानकार हैं हमारे, वे जब भी आते हैं, तो उनके लिए, बढ़िया पान ले जाते हैं हम! पूरे सफर में याद करते हैं वो, जब पान का बीड़ा उठाते हैं तो!
रात हुई, और हम सोये फिर, गाड़ी कभी धीरे होती, कभी तेज, हम भी गाड़ी के साथ ही हिलते जाते, नींद कई बार खुलती! फिर से सो जाते!
हुई सुबह, हुए जी फारिग, चाय-नाश्ता भी कर लिया, और कोई दस बजे करीब हम पहुँच गए श्री नगर! वहां से, जनाब अमानतुल्लाह साहब के कॉटेज पर पहुंचे, मौसम बेहद ही खुशगवार था उस रोज! आसमान में हल्की हल्की बदलियाँ छायी थीं! हवा में क्या ठंडक थी! हमने किया स्नान-ध्यान वहां! चाय पी हमने, और कुछ देर आराम किया, भोजन किया दोपहर में, तो इस तरह हम, उस दिन और रात, वहीँ ठहरे!
अगले दिन, सुबह ही, अमानतुल्लाह साहब के बड़े बेटे से मुलाक़ात हुई, वो वहीँ रहते हैं, ज़िया-उल-इस्लाम नाम है उनका, बेहद ही शालीन स्वभाव के इंसान हैं वो! उनके उर्दू बोलने का अंदाज़ ऐसा ज़बरदस्त है, ऐसा ज़बरदस्त है कि पूछिए ही मत! जी करता है, सुनते ही जाओ! सुनते ही जाओ!
उस दिन उनके घर पर भोजन किया हमने, और कोई एक बजे, उन्होंने, अपने ड्राइवर को, भेजा हमें ले जाने को, अहमद साहब के साथ! उनके गाँव तक! अपनी ही जीप दी उन्होंने, बोलेरो, वहाँ यही चला करती हैं! अमानतुल्लाह साहब, वहीँ रह गए थे! उन्हें काम था!
तो हम निकल पड़े! बाहर का नज़ारा ऐसा, कि जैसे जन्नत के किसी कोने से हो कर गुजर रहे हों हम! सुंदर वादियाँ! सुंदर पहाड़ियां, सुंदर नदियां, बादल जो छाये हुए थे उन वादियों पर! पेड़-पौधे, फूल और शानदार हरियाली!
"नज़ारा देखो!" कहा मैंने,
"शानदार!" बोले शर्मा जी,
"वो गाँव हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले अहमद साहब!
"क्या बात है!" बोले शर्मा जी,
"अरे शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" पूछा उन्होंने,
"यहीं डाल लें एक झोंपड़ा?" कहा मैंने,
"मैं तो कब से कह रहा हूँ!" बोले वो,
हंस पड़ा मैं! वो भी!
"अब बताओ, है कि मुक़ाबला?" बोले वो,
"मतलब ही नहीं!" कहा मैंने,
करीब चार घंटे चले हम, और फिर एक क़स्बे में आ कर रुके! गाड़ी एक, छोटे से ढाबे के सामने लगा दी!
"आओ जी, चाय पी लें!" बोले अहमद साहब!
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
हाथ-मुंह धोये! पानी पिया, और जा बैठे अंदर!
"भाई वाह!" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो देखो, सिगरी!" बोले वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"यहां तो यही है जी!" बोले अहमद साहब!
"इसकी चाय बहुत बढ़िया लगती है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, धुंए की वजह से!" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
तभी आया वो ड्राइवर, उस्मान नाम था उसका, चौबीस-पच्चीस का रहा होगा, हंसमुख और शालीन!
"लो साहब!" बोला वो,
मिठाई थी वो, कश्मीरी मिठाई, पिस्ते कूट कर बनायी गयी थी, खजूर का स्वाद था उसमे, लेकिन थी बढ़िया, कराची-हलवे जैसी!
"बढ़िया है!" बोले शर्मा जी,
"गाँव में खिलवाएंगे आपको जनाब!" बोले अहमद साहब!
तो चाय पी हमने, साथ में वो मिठाई भी खायी, और फिर से चल पड़े, एक बात, पानी बहुत बढ़िया था वहाँ का, शायद वादियों का और पहाड़ों का पानी था, यही वजह थी उसकी! यहां का मिनरल-वाटर भी बेकार था उसके सामने! वहां के घने बालों वाली बकरियां बेहद शानदार थीं, ऐसे ऐसे रंग उनके, जैसे उनको रंगा गया हो! वे रास्ते के बीच में आ कर खड़ी हो जाती थीं, जैसे मुआयना कर रही हों उस वाहन का, जो बढ़ा चला आ रहा था उनकी तरफ! कान खड़े किये, बीच रास्ते में आ जाती थीं! कई बार तो, उतर का हटाना पड़ता था उन्हें!
"बड़ी ज़िद्दी हैं ये तो!" बोला मैं,
"हाँ जी!" बोला उस्मान!
"ये क्या है? दुम्बा?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, दुम्बा!" बोला वो,
"बड़ा मज़बूत सा है!" कहा मैंने,
"मज़बूत ही होता है ये!" बोले वो,
"पहाड़ी बकरा है न?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला उस्मान!
"बाल बड़े शानदार है!" कहा मैंने,
"ऐसे ही होते हैं जी इनके!" बोले वो,
गाड़ी दौड़े जा रही थी सरपट! ऐसे ऐसे दृश्य आते थे कि बस, सबकुछ छोड़-छाड़ यहीं बस लिया जाए! भाड़ में गयी दुनियादारी! अब बस ज़िंदगी यहीं काट दी जाए! सच ही कहा था ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने, जब वो हिन्दुस्तान में, पहली मर्तबा दाख़िल हो रहा था कि इस दुनिया में अगर कहीं जन्नत है, तो बस यहीं है! यही हैं! कश्मीर में, आज तक प्रकृति ने वहीँ रंग-रूप संजो के रखा है! बड़े दुःख की बात है कि कश्मीर भी आज, आतंकवाद से पीड़ित है, ये सब सियासी खेल है, वहाँ के आप किसी भी जन-मानस से पूछिए, उसे नहीं चाहिए ये आतंकवाद, वो सब अमन-ओ-चैन से रहना पसंद करते हैं! कोई नहीं चाहता कि उनके जीवन में ऐसे भी पल आएं कभी! हालांकि, वहाँ के समुदाय में आपसी सामंजस्य है, फिर भी कुछ क़बीलाई लोग, अपने स्वभाव के कारण, अक्सर कैसा कुछ अंजाम दे दिया करते हैं, जिसे किसी भी तौर से न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता! खैर, छोड़िये, इस सियासी खेल से बाहर निकलते हैं!
सेब के दरख्त, अखरोट के दरख्त, और बहुतायत में दिखने वाले चीड़ के दरख्त! ऐसा सुक़ून देते हैं नज़रों को, आँखों को, जी को, कि बस! यहीं ठहर जाएँ! जब बाबर ने, हिन्दुस्तान को फ़तह किया, तो जैसा तुज़्क-ए-बाबरी में लिखा है, एक जगह ख्वाफ़ी खान लिखते हैं कि, बाबर ने ज़मीन को देखा, इसकी सुंदरता को देखा, यहां के पेड़-पौधों को देखा, फूलों को देखा, फलों को देखा, तो कहा, कि यहां क़ुदरत ने नियामत बख्शी है, लेकिन कुछ कम है, वो फरगाना से, जहां से आया था, उसने बीज मंगवाए! तरह तरह के बीज! सेब के पौधे लगवाये, गुलाब के पौधे लगवाये, संतरे, मौसमी, नीम्बू, अखरोट, पिस्ते, मेवे, अंगूर, अनार, पपीता, दशहरी आम, चौंसा आम, गुलबिया आम, सफेदा आम, निजाम आम, सिन्दूरिया आम, जामुन, लोकाट, पुदीना, धनिया, क़िस्म क़िस्म के फूल, गुलदार पेड़, छायादार पेड़, ख़ुशबूदार फूलों के पौधे, तरह तरह की वनस्पतियाँ मंगवायीं उसने और उनका रोपण हुआ इस हिन्दुस्तान में! आज देखिये, दुनिया का, सुनिए में, हमारा मुल्क़, बस ऐसा एक ही है, जहां सेब भी मिलता है और नारियल भी! मसाले भी! कोई कमी नहीं है! उसने बाग़ लगवाये, नहरें बनवायीं, सड़कें बनवायीं, मुग़लों ने ही, सरायों की नींव डाली! आप दिल्ली में देखिये, सराय काले खान, युसूफ सराय, सराय काले खान, ज़िआ सराय, कालू सराय, लाडो सराय, कटवारिया सराय, सराय रोहिल्ला आदि आदि, इनके पीछे मुग़लों का ही श्रेय है! जब शाहजहाँ, दिल्ली आये और दिल्ली को राजधानी का दर्ज़ा दिया, तब चार चाँद लगा दिए गए दिल्ली को! अब कश्मीर में, शालीमार और निशात बाग़, इनको देखिये! इतने सालों बाद भी, आज तक वो बाग़, अपनी खूबसूरती से सभी का मन मोह लेते हैं! इस से पता चलता है, कि मुग़ल, प्रकृति से कितना प्रेम किया करते थे! इसका नज़ारा आप देखिये, एक बार देख लेंगे, तो वहीँ के हो कर रह जाएंगे! वहां के रंग-बिरंगे परिंदे, उनकी चहचाहट, उनकी खूबसूरती! वहाँ के पेड़-पौधे! ऐसे खूबसूरत हैं कि बस अब तो शेष जीवन, यहीं किसी कोने में काट लिया जाए!
मैं इसे, बला की खूबसूरती कहता हूँ! एक बार एक नज़र पड़ जाए, तो हमारे आधुनिक शहर, श्वेत-श्याम नज़र आने लगते हैं! कोफ़्त होती है रहते हुए इसमें!
हम करीब चार घंटे और चले थे, अब भूख लगने लगी थी, तो उस्मान ने, एक छोटे से क़स्बे में ले जा कर, गाड़ी लगा दी, ये एक छोटा सा ढाबा था! ढाबा कम, घर ज़्यादा, हाथ-मुंह धोये और अंदर जा बैठे, खाने के लिए, उस्मान ने पूछा था हमसे, कि गोश्त चलेगा? हमने कहाँ कि हाँ, तो मंगवा लिया गया गोश्त! बढ़िया खबूस रोटी! बस फिर क्या था, पिल पड़े! साथ में, मक्खन और बढ़िया लज़ीज़ स्वाद! गाढ़ा गाढ़ा, लज़ीज़ शोरबा! सालन ऐसा, कि तश्तरी भी चाट लो! एक और बढ़िया बात, जैसे ही खत्म हो, और परोस दिया जाए! उनके अनुसार, आप पेट भर के खाइये! कमी न रहे बस! तो साहब, बहुत खाया, मजा आ गया! आराम करने के लिए, बाहर, चारपाई पड़ी थीं, बड़ी बड़ी चारपाइयां! किये पाँव सीधे और कमर सीधी! सामने का नज़र ऐसा, जैसे हम किसी दूर-दराज के गाँव में आ गए हैं! रंग-बिरंगे कपड़ों में लड़कियां, महिलाएं, पुरुष, वृद्ध, बालक-बालिकाएं, और उलटे हाथ पर, एक सरकारी स्कूल! उसके साथ ही, एक खूबसूरत मस्जिद! मस्जिद से बाहर आते, छोटे छोटे बालक, तख्तियां लिए हाथों में, मदरसा था वो दरअसल! ये मेरा देश है, मेरा देश! सीना फख्र से तन जाता है! मेरा देश! विविधता! परन्तु एकता! मस्जिद के साथ ही, एक, महादेव का मंदिर! घंटों की आवाज़, बड़ी मधुर लगती थी!
"सुनो?" बोले शर्मा जी,
"हाँ?" कहा मैंने,
"ये ही है जन्नत!" बोले वो,
"सच बात है!" कहा मैंने,
"कितनी खूबसूरत जगह है!" बोले वो,
"अजी, बला की खूबसूरत!" कहा मैंने,
"सच में!" बोले वो,
हमने करीब पौने घंटे आराम किया, और फिर से आगे चले!
"देखिये!" बोले अहमद साहब,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"जंगली गाय!" बोले वो,
"बड़ी अजीब सी है?" कहा मैंने,
"कुछ कुछ नील गाय सी है!" बोले शर्मा जी!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये कम नज़र आती हैं!" बोले अहमद साहब,
'अच्छ, वो क्यों?" पूछा मैंने,
"शर्मीली होती है!" बोले वो,
"अच्छा! इंसान से दूर रहती है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
गाड़ी बढ़ती गयी आगे!
एक जगह, रास्ता खराब मिला, आराम आराम से निकले हम!
"ये पत्थर गिरते रहते हैं जी, ऊपर पहाड़ से!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बारिश में तो रास्ता ही बंद!" बोले वो,
"सुरक्षा के मद्देनज़र!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
और थोड़ी देर में ही, बरसात की बौछारें पड़ने लगीं!
"बारिश?" बोला मैं,
"यहां ऐसा ही होता है मौसम!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
कुछ देर बाद, बारिश बंद!
"कमाल है!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
फिर से बकरियां!
"ये बहुत हैं यहां!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले वो!
साँझ घिर आई! और हवा में शीतलता आ बैठी! कपड़ों में, वो शीतलता, आ घुसी! गाड़ी के शीशे बंद करने पड़ गए! अब तो सामने की विंड-स्क्रीन पर भी, वाईपर चलाना पड़ रहा था! इसे कहते हैं मौसम की तुनकमिजाजी! दिन में ऐसा बढ़िया मौसम था की पूछिए मत! और अब साँझ को ऐसा मौसम, की कंबल मांगे देह! कपड़े ठंडे हो चले थे! दूर पहाड़ियों की चोटियां, अभी तक सूरज की चमकदार धूप में नहायी थीं! और हम अब सर्दी के मारे अंदर ही अंदर, कुड़क रहे थे!
"वो बैग ले लीजिये, उसमे हैं गर्म दुशाला! निकाल लीजिये, ओढ़ लीजिये, दो हैं!" बोले अहमद साहब, भांप गए थे की हम मौसम की लपेट में हैं!
"अरे निकालना शर्मा जी!" कहा मैंने,
"हां जी, ऐसा मौसम हो गया है जैसे दिसंबर का महीना!" बोले वो, बैग खोलते हुए!
"ये लो!" बोले वो,
"लाओ यार!" कहा मैंने,
झट से खोली दुशाला और ओढ़ ली फौरन! अब पड़ी कुछ राहत! हाँ, दुशाला से एक बात याद आई! जानते हैं आप मित्रगण? जानते ही होंगे! की कौरव सौ थे? ये तो सभी जानते हैं, लेकिन कम ही जानते होंगे कि वे एक सौ एक थे! हाँ! एक सौ एक संतान! एक सौ एक वाली संतान, उनकी प्रिय बहन थी दुःशाला! मात्र एक ही बहन, जिसके पतिदेव थे, राजा जयद्रथ! राजा जयद्रथ को भगवान शिव का वरदान मिला था! कि वो उस शत्रु का विनाश कर सकेगा जिसका विनाश असम्भव लग रहा हो! जयद्रथ ने, उसी वरदान का लाभ उठाते हुए, अर्जुन-पुत्र, अभिमन्यु का वध किया था! अभिमन्यु, श्रापित देव थे, वे भगवान श्री चन्द्र देव के ज्येष्ठ पुत्र थे! अनुष नाम था उनका! जब अर्जुन ने सुना कि अभिमन्यु का वध उनके ही जीजा श्री ने किया है, तो भयंकर क्रोध आया, और जयद्रथ का वध, श्री कृष्ण की कूट-नीति से ही सम्भव हो सका! आप जानते हैं? अर्जुन के पास ऐसा कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं था जो जयद्रथ का वध कर सके! जयद्रथ, जब तक सूर्य आकाश में ठीके रहेंगे, उसका कोई वध नहीं कर सकता था! अतः घनेरी करनी पड़ी, माया से, श्री कृष्ण को! साँझ ढल आई थी, सूर्य छिपा दिए गए थे, तब जाकर, जयद्रथ का वध हो सका! ये छल देख कर, एक और घूँट पी लिया था अश्वत्थामा ने, और ऐसे ही कारणों से, छल-विद्या का प्रयोग कर, उसने, सारी पांडव-सेना का नाश किया, एक एक महाभट्ट योद्धा को काट डाला! उस समय जयद्रथ इसी कश्मीर के राजा थे! म्लेच्छों से उन्होंने युद्ध किया और अपना राज्य आगे बढ़ाया! म्लेच्छ कौन हैं? म्लेच्छ, उस समय के क़बीलियाई आदिवासी जाति, जनजाति के लोग थे! ये भीषण योद्धा थे! कभी इनका पूर्ण नाश न हुआ! मरना-मारना, जैसे, इनके खून में बसता था, बाद में ये म्लेच्छ, इकट्ठे हुए और सैन्य-संचालन में, पारंगत होते गए!
अब अर्जुन, अर्जुन को बहुत दुःख पहुंचा था, बहुत दुःख, वो अर्जुन का सबसे प्रिय पुत्र था, उसको उत्तराधिकारी बनना था अर्जुन का! जब दुःख कम न हुआ, तो श्री कृष्ण ने, उसको स्वर्ग में, ले जाकर, अभिमन्यु से मुलाक़ात करवानी पड़ी! अर्जुन रोये! बेटे को पकड़ने को पड़े, गले लगाने को, लेकिन तब, अनुष पहचान नहीं सके उन्हें! और तब, सारा भेद खोला श्री कृष्ण ने! जब असलियत आई समझ, तब जाकर अर्जुन उस संताप से मुक्त हुए! महाभारत के ऐसे कई प्रकरण हैं, जिन्हे बताया ही नहीं गया है, बस वही बताया गया है, जिस से, ये एक महा-काव्य तो हो ही, धर्म-काव्य भी बन जाए!
कुंती के भेद, द्रौपदी के भेद, अर्जुन के भेद आदि आदि, कभी न बताये गए! कश्मीर में, पांडव कभी न ठहर सके अपने अज्ञातवास में, कारण, ये भूमि उस समय, अरहंगासुर, त्रिहंडिकासुर जैसे महाभीषण असुरों की भूमि थी! एक असुर, अष्टभंगासुर ने, यहां भीम को पछाड़ दिया था बाहुबल में!
ये भी नहीं बताया गया! खैर, छोड़िये, अब वापिस, इस घटना पर चलते हैं!
तो अब सर्दी से राहत मिल गयी थी! दुशाला बड़ी ही गरम थी, काफी बढ़िया थी वो!
"अभी और कितना अहमद साहब?" पूछा शर्मा जी ने,
"यूँ लगाओ, अभी बजे हैं आठ, ग्यारह तक मानो!" बोले वो,
"ठीक, तब तक एक आद झपकी ले लें!" बोले शर्मा जी,
"बड़े शौक़ से!" बोले वो,
मुझे भी जम्हाईआं आ रही थीं, मैं भी टेक ले, आँखें बंद कर, सो ही गया!
करीब साढ़े ग्यारह बजे, नीदं खुली!
हम पहुँच गए थे गाँव उनके!
उतारा सामान हमने, और चल पड़े साथ में उनके!
"आ जाइए!" बोले वो,
हम चले साथ साथ!
पहुंचे एक कमरे में, आये दो पड़के, सलाम हुई, सामान लिया हमारा उन्होंने, और अहमद साहब, हमें ले चले एक कमरे में! हम पहुंचे,
"यहां लेटो जी!" बोले वो,
मैं बैठ उस बिस्तर पर!
"अच्छा, खाने का बताओ?" बोले वो,
"भूख तो है नहीं?" बोला मैं,
"थोड़ा बहुत?" बोले वो,
"दो दो रोटी!" कहा मैंने,
"अभी लगवाता हूँ!" बोले वो, और चले बाहर कमरे के,
थोड़ी देर में ही लगा दिया गया खाना!
"आओ जी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
खाना खाया हमने, दो दो रोटी ही बस!
"किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो, तो इसको आवाज़ दे देना, यासिर नाम है इसका!" बोले वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
अब वे चले गए, शब्बा-खैर कहते हुए!
और हम घुसे अब कंबल में!
"ठंड है यहां तो?" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"कमाल है!" बोला मैं,
"खुला है न!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब चुपचाप लेटो सुबह तक!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा!
"हाँ, सुबह देखते हैं!" कहा मैंने,
सो गए जी हम!
सुबह हुई,
करीब सात बज रहे थे,
हाथ-मुंह धो लिए थे,
फारिग भी हो ही लिए थे!
"ठंड है यार!" कहा मैंने,
"वो दुशाला ओढ़ लो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैंने उठायी दुशाला, ओढ़ी, और मारी बुक्कल!
अब मिला आराम थोड़ा!
आया यासिर अंदर!
"आ बेटे!" बोले शर्मा जी,
रख दी चाय, मिठाई, नमकीन और पिस्ते-मेवे!
चाय पी जी हमने, साथ में लाया हुआ वो पिस्ता-मेवा भी खाया! अखरोट बेहद शानदार था, उसकी मींग बेहद बड़ी और मुलायम थी! अखरोट का तेल, किसी भी कैंसर को खत्म करने का दम रखता है! इसकी लकड़ी तो आप जानते ही हैं, बेहद मज़बूत होती है, जितना पानी डालो, उतनी कड़क होती जाती है! बंदूक आदि की बट इसी से बनाई जाती है आज भी! कश्मीरी घरों में, इस लकड़ी की कीलों से फट्टे ठोके जाते हैं! लकड़ी से बने घर, जल्दी ही गरम हो जाते हैं और मज़बूत भी रहते हैं, पहाड़ों में अक्सर भूकम्प आदि के झट लगते हैं, ये लकड़ी के घर, ऐसे झटकों को बर्दाश्त कर लिया करते हैं! बढियां नावें जो होती हैं, उनके पैंदे अखरोट की लकड़ी से ही बनाये जाते हैं! तो चाय पी ली, और घुस गए फिर से बिस्तर में! शर्मा जी ने बाहर झाँका खिड़की से! हवा का ताज़ा, ठंडा झोंका अंदर आया!
"रिमझिम हो रही है!" बोले वो,
"बारिश?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"यार ये बारिश काम खराब करती है हमेशा!" कहा मैंने,
"तो करें भी क्या अब?" बोले वो,
कर दी खिड़की बंद, बैठ गए बिस्तर पर, ओढ़ लिया कंबल!
"हाँ, अब करें भी क्या?" कहा मैंने,
तभी अहमद साहब आ गए अंदर!
"आइये अहमद साहब!" बोला मैं,
"सलाम आलेकुम!" बोले वो,
"वालेकुम अद सलाम साहब!" बोले हम दोनों!
"बाहर देखा?" बोले अहमद साहब,
"हाँ, बारिश हो रही है!" कहा मैंने,
"अभी बंद हो जायेगी!" बोले वो,
"फिर तो ठीक है!" बोला मैं,
वो कमरा बेहद बढ़िया था, जैसे अंग्रेजी राज का हो, कालीन पड़ा था, मसनद रखे थे, दीवार पर, चित्रकारी सी थी, लकड़ी की मूर्तियां भी रखी थीं!
"ये सारा आपका ही है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, दो भाई हैं हम, पुश्तैनी है सब!" बोले वो,
"बहुत शानदार जगह है!" कहा मैंने,
"बारिश बंद हो जाए, तब देखिये आप!" बोले वो,
"हाँ!" कहा शर्मा जी ने,
"वैसे हिन्दू आबादी है यहां?" पूछा मैंने,
"है जी, दो बड़े मंदिर भी हैं नीचे घाटी में, पड़ोस में गाँव है, वो सारा ही हिन्दू है!" बोले वो,
"अच्छा! बढ़िया बात है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, हमारी तो साथ मिल-बैठ है, अब गुजारा कहाँ है एक दूसरे के बिना? यहां जितने भी सरकारी दवाखाने हैं, डॉक्टर्स जो हैं सब हिन्दू ही हैं! बड़े नेकदिल हैं जी! रात-बे-रात, बारिश, आंधी-तूफ़ान, कुछ भी हो, फौरन ही दौड़ पड़ते हैं!" कहा मैंने,
"और जो कश्मीरी पण्डत हैं, वो?" पूछा शर्मा जी ने,
"बताता हूँ शर्मा जी! जो उधर वाला कश्मीर है न?" बोले वो,
"वो, पी.ओ.के.?" बोले शर्मा जी,
"जी! वहां से भगा दिए सारे, ज़मीन छीन ली, अब आदमी की जान बचे तो क्या चाहिए, कुछ यहां आ गए, कुछ दूर चले गए! लेकिन इसका सियासी खेल ज़्यादा बना दिया सरकारों ने!" बोले वो,
"हाँ, ये बात तो है!" कहा मैंने,
"अब देखो जी, ये हमारे बाप-दादा की ज़मीन है, अब कैसे छोड़ दें इसे? ऐसे ही उन हिन्दू भाइयों को मज़बूर किया गया, क्या करें, सुनवाई कहीं है न!" बोले वो,
"सही कहा अहमद साहब!" कहा मैंने,
"यहां गाँव में, आप देखो, कह नहीं सकते, आप जान ही नहीं सकते कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान, पहनावा एक, बोली एक! अब किसे ज़रूरत है दंगा-फसाद फैलाने की?" बोले वो,
"बजा फ़रमाया आपने अहमद साहब!" बोले शर्मा जी,
तभी यासिर आया अंदर,
"यासिर, बोल बेटे?" बोले अहमद साहब,
"वो पराशर आये हैं!" बोला यासिर,
"अच्छा! आया मैं!" बोले वो, उठे और चले!
"अहमद साहब, साफ़-दिल इंसान हैं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ये तो है ही!" बोला मैं,
और तभी अहमद साहब के साथ, एक बुज़ुर्ग से शख्स आये अंदर! नमस्कार हुई उनसे, बैठ गए, जैसे ही बैठे, यासिर पानी ले आया, हम सभी ने पिया पानी!
"ये हैं हमारे अज़ीज़ दोस्त, पराशर साहब!" बोले अहमद साहब,
"अजी कैसे साहब! यार हैं जी!" बोले वो,
दरअसल, जिन्हें मैं बुज़ुर्ग समझ रहा था, वे अहमद साहब की उम्र के ही थे, किसी किसी पर वक़्त कुछ भारी होकर चलता है, पराशर जी, उन्हीं में से एक हैं!
अब बात छिड़ी उस पिच्छल-पैरी की!
पता चला, कोई तीन दिन पहले, एक लड़के को दिखी थी वो! लड़का गाँव का ही था, अफज़ल नाम था लड़के का, लड़का तभी से बीमार है, सोलह साल की उम्र है उसकी!
"बारिश बंद हो जाए तो मिलें उस लड़के से?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले अहमद साहब,
"पराशर जी?" कहा मैंने,
"जी? हुक्म!" बोले वो,
"अरे साहब! कहाँ का हुक्म, शर्मिंदा न करें!" बोला मैं,
"जी, बताएं!" बोले वो,
"क्या कभी आपका साबका पड़ा?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"कभी नहीं?" पूछा मैंने,
"न जी!" बोले वो,
बाहर से तभी, आवाज़ आई भौंकने की, और एक मज़बूत सा कुत्ता, लाल रंग का, आ गया अंदर! सीधा प्रश्र जी के पास!
"अरे! यहां तक आ गए तू!" बोले पराशर जी!
"पालतू है?" पूछा मैंने,
वो कुत्ता, लेट गया था, अपना सर रख कर, उनकी गोद में, और वे, हाथ फ़िर रहे थे उस पर!
"पालतू क्या जी! बचपन से ये घर में ही पला है, बहुत प्यार मानता है मुझ से!" बोले वो,
"सच है जी, ये जानवर अनोखा ही है!" बोले अहमद साहब!
अब वो कुत्ता भी ऐसा था, जैसे कोई बछड़ा!
"हाँ जी! आ गया ढूंढते ढूंढते!" बोले वो,
कुत्ते ने हमें देखा, हमने उसे!
"क्या हाल हैं बेटे!" बोले शर्मा जी,
आँखें बंद कर लीं उसने!
"आप से बात नहीं करेगा वो!" मैंने कहा शर्मा जी से!
"अहमद, शाम को घर आ, मेहमानों के साथ!" बोले पराशर जी!
"हाँ, पक्का!" बोले अहमद साहब,
और पराशर साहब, नमस्ते कर, चल दिए, वो कुत्ता भी, आगे आगे चल पड़ा उनके!
"यासिर?" पूछा मैंने, बैठते हुए,
"ये बत्तखें कैसी?" पूछा मैंने,
"पीछे एक ताल है, वहीँ गयी हैं!" बोला वो,
उसका लहजा, कश्मीरी था, आराम से पहचाना जा रहा था!
"पालतू हैं जी!" बोला वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"गाँव वालों की!" बोला वो,
"अच्छा! तो पहचानते कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"पाँव में छल्ला पड़ता है जी, जैसे हमारा नीला, उनका पीला!" बोला वो,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"और जी, वो खुद ही आ जाती हैं अपने आप!" बोला वो,
"समझ गया मै!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"तुम्हारी कितनी हैं?" पूछा मैंने,
"पचास से ज़्यादा हैं जी!" बोला वो,
"अच्छा! वाह! अण्डों की मौज है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"देसी बत्तख है न?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"बढ़िया!" कहा मैंने,
बत्तख का अंडा बहुत काम का होता है! अक्सर, सर्दी में, या बीमारी में, बच्चों की पसलियां चलने लगती हैं, ठंड लग जाती है बच्चों को, नाक चलने लगती है, छाती घरघराने लगती है, तब इस अंडे की, ज़र्दी की मालिश कर दीजिये, बच्चे की छाती पर, रात में तीन बार, दिन में तीन बार! हो गया जी ठीक बच्चा! कोई सर्दी नहीं, कोई ठंड नहीं!
अक्सर, बुज़ुर्ग लोग, घुटने, पाँव, कोहनी या जोड़ों के दर्द से परेशान रहते हैं, इसकी ज़र्दी में, एक चम्मच आप सिरका मिला लीजिये, कर दीजिये मालिश, और बाँध दीजिये कपड़ा! फौरन ही आराम! नियम से करें तो दर्द भी ठीक रहता है!
स्त्री गर्भवती होती है, तो अक्सर, बालक पेट में होने से, बाहरी चमड़ी में, निशान पड़ जाते हैं, जी बाद में भद्दे से प्रतीत होते हैं, तो क्या करना है, छठे माह में, इस ज़र्दी के साथ, हुक्के वाले तम्बाकू का पानी ले लें, या रात को किसी बर्तन में, हुक्के वाले तम्बाकू को इसमें डाल दीजिये, एक चम्मच, इस पानी में ये ये ज़र्दी मिला लें, और उस पानी से पेट की मालिश कर लें! सातवें महीने नहीं करना है, उस माह में, बालक का अंदरूनी विकास होता है, इसलिए, आठवें में, नौवें में, करें, प्रसव बाद, कैसा भी दाग शेष नहीं होगा! मालिश हफ्ते में एक बार करें बस!
याददाश्त कमज़ोर पड़ रही हो, विस्मृति-दोष हो, तो इस ज़र्दी में, दखनी मिर्च के दो दाने पीस लें, नमक मिला लें, और आमलेट के रूप में सेवन करें, रात को! माह भर में असर देखिये आप!
तभी शर्मा जी भी उठ आये!
"अमा क्या कर रहे हो?" पूछा उन्होंने,
यासिर गया भागा भागा, और ले आया एक और मूढ़ा!
"बैठो!" कहा मैंने,
बैठ गए वो!
"कुछ नहीं यार!" कहा मैंने,
"यासिर?" बोले शर्मा जी,
"जी?" कहा उसने,
"बेटे पानी पिलवा दे!" बोले वो,
"अभी लाया जी!" बोला वो, और चल पड़ा अंदर!
आया यासिर, दिया पानी उसने, हमने पिया पानी, रख दिए गिलास वापिस!
"यासिर?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोला वो,
"बेटे, ये अहमद साहब क्या लगते हैं तुम्हारे?" पूछा उन्होंने,
"जी ताऊ जी हैं!" बोला वो,
"अच्छा! तुम फ़िरोज़ के लड़के हो?'' पूछा उन्होंने,
"जी!" बोला यासिर!
"अच्छा! और तुम्हारे घर में कौन कौन हैं?" पूछा उन्होंने,
"तीन भाई, माँ और अब्बू!" बोला यासिर!
"फ़िरोज़ भाई कहाँ हैं?" पूछा उन्होंने,
"शहर गए हैं!" बोला वो,
"अच्छा! पढ़ते हो बेटे?" पूछा उन्होंने,
"जी!" बोला वो,
"कितनी में?" पूछा,
"बारह में!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया! शाबाश बेटा! खूब पढ़ो!" बोले वो,
"जी!" बोला वो,
"अहमद साहब कहाँ गए?" पूछा मैंने,
"बाज़ार तक!" बोला वो,
"अच्छा!" बोला मै,
तभी उसका भाई नासिर आ गया था, खाना लाया था वो बनवा कर! कुनबा उनका वहीँ हैं, तो वहीँ से लाया था!
"खाना खा लीजिये?" बोला नासिर,
"अहमद साहब आ जाएँ?" बोला मै,
"कह के गए हैं!" बोला वो,
"अच्छा, ठीक है!" कहा मैंने,
"मै लगाता हूँ!" बोला वो,
कोई पांच मिनट में, आया वो वापिस,
"आ जाइए!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम उठे और यासिर ने, हाथ धुलवा दिए हमारे, कपड़ा था ही, तो पोंछ भी लिए!
हम चले एक कमरे की तरफ!
दस्तरख्वान बिछा था, बर्तन रखे थे! हम बैठ गए!
उठाया एक डोंगा हमने, उसका ढक्कन!
"अरे वाह!" बोले शर्मा जी!
भरवां तोरई थीं वो!
क्या बेहतरीन ख़ुश्बू उठी थी!
"लीजिये!" बोला यासिर,
मैंने देखा, ये सलाद थी!
दूसरे डोंगे का ढक्कन उठाया तो ये मुर्ग़ा था! लाल रंग! गाढ़ा गाढ़ा!
"वाह!" बोले शर्मा जी,
अब बर्तनों में, डाल ली दोनों ही सब्जियां!
एक और डोंगा किया आगे, उठाया ढक्कन! तो दही!
मुंह में पानी छलक आया!
"यासिर?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"तुम भी खा लो, दोनों भाई?" बोले वो,
"आप खाइये न!" बोला वो,
"हम तो खा ही रहे हैं!" बोले वो,
"इत्मीनान से खाइये!" बोला वो,
अब हमने लीलना शुरू किया खाना!
केसर का इस्तेमाल होता है वहां!
इसीलिए रंग बेहद लाल और शोरबा आदि ज़ायकेदार होता है!
"दही लीजिये?" बोला नासिर,
"लेते हैं बेटा!" बोले शर्मा जी,
क्या लज़ीज़ खाना था!
पेट भर के खाया! जब तक दम न घुटा, उठे ही नहीं!
और खा लिया जी खाना भी हमने!
और उसके बाद फिर आराम किया!चार बजे करीब आये थे अहमद साहब, उनसे मिले हम, वो हमें ले जाने आये थे उस लड़के से मिलाने के लिए, जो बीमार हो गया था, उस पिच्छल-पैरी को देख!
"अभी आराम करेंगे या चलें?" पूछा उन्होंने,
पान की डिबिया आगे बढ़ा दी थी, मैंने एक बीड़ा रख लिया मुंह में, और एक शर्मा जी ने!
"आराम क्या करना! चलते हैं!" कहा मैंने,
"तो चलिए!" बोले वो,
"चलो!" बोले शर्मा जी,
जूते पहने, रुमाल उठाये और चल पड़े!
"खाने में कोई कमी तो न थी?'' पूछा उन्होंने,
"अरे नहीं साहब! क्या बेहतरीन खाना था!" बोला मैंने,
"मै कह कर गया था कि कोई कमी न हो!" बोले वो,
"अरे नहीं!" कहा मैने,
गाँव बड़ा ही सुंदर है अहमद साहब का! एक तो ऊंचाई पर है, और हरियाली ही हरियाली! पेड़ ही पेड़!
"देखो जी!" बोले वो,
"मंदिर!" कहा मैंने,
"हाँ जी, शंकर जी का है!" बोले वो,
"अच्छा, पुराना लगता है!" बोला मै,
"हाँ जी, हमारे बाप-दादा के समय से है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आइये, इधर को!" बोले वो,
"सलाम आलेकुम!" बोले एक जानकार उनके!
"सलाम! अरे कैसे हैं आप!" बोले वो,
"बढ़िया! आप?" पूछा उन्होंने,
"बढ़िया!" बोले अहमद साहब,
"कब आना हुआ?" पूछा उनके जानकार ने,
"रात ही आये!" बोले वो,
"और ये साहिबान?" पूछा उन्होंने, सलाम करते हुए,
"जानकार हैं हमारे, दिल्ली से आये हैं!" बोले वो,
"अच्छा अच्छा! खाना हो गया?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोले वो,
"आओ घर, मेहमानों को भी लाओ!" बोले वो,
"अभी तो काम है, आएंगे!" बोले वो,
अब उनके जानकार, चले वहां से, हमसे बड़ी अदबी से मिले!
"ये हैं मेहबूब साहब!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"इनके बेटे करते हैं काम, श्री नगर में!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैने!
"आओ, यहां से, सम्भल कर!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और उतर लिए एक जगह के लिए!
और एक घर के बाहर आ खड़े हुए हम, दरवाज़ा लगा था!
"आलम? ओ आलम?" बोले वो, दरवाज़े पर खटखटाते हुए!
खुला दरवाज़ा, एक लड़की थी वो, उसने घूंघट कर रखा था!
"है आलम?" पूछा उस लड़की से,
लड़की ने हाँ में सर हिलाया,
"आ जाओ जी!" बोले वो,
और चल पड़े हम अंदर! कमरे तो बहुत दूर बने थे वहाँ! वो अहाता ही बहुत बड़ा था! लड़की आगे आगे, कर दिया इशारा एक कमरे की तरफ!
"आलम?" बोले वो,
"जी आया!" आई आवाज़!
और एक तीस साल का इंसान आया उठ कर! सलाम किया, हमसे भी, और ले चला दूसरे कमरे में!
हम बैठ गए कुर्सियों पर, पानी लाया गया, पानी पिया!
"कहाँ है नज़ीर?" पूछा उन्होंने,
"अंदर है जी!" बोला आलम,
"कैसा ही अब?" पूछा उन्होंने,
"बुखार है अभी भी!" बोला आलम,
"दिखा ज़रा?" बोले वो,
"आइये!" बोला वो,
अब चले हम उसके साथ साथ, पहुंचे एक कमरे में, बैठा था एक लड़का कुर्सी पर, अहमद साहब को देख, हो गया खड़ा, किया सलाम!
"कैसा है लड़के?" पूछा अहमद साहब ने,
"बुखार है!" बोला वो,
"ये है जी वो लड़का!" बोले वो,
"डर गया है! इसी वजह से बुखार है!" कहा मैने!
"अबे जवान हो कर डर गया?" बोले अहमद साहब!
"एक कागज़ दो!" कहा मैंने,
"ला आलम?" बोले वो,
आलम ने एक कागज़ दे दिया, पेन शर्मा जी से ले लिया, अब कागज़ पर, एक रुक्का लिख दिया, दम किया और लड़के के माथे पर फेरा!
"इसको जेब में रखो!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"बैठ जाओ!" कहा मैने!
बैठ गया वो!
"क्या देखा था?" पूछा मैंने,
"वो" बोला वो,
"अबे क्या वो?" बोले अहमद साहब!
"वो औरत!" बोला लड़का,
"कैसी थी?" पूछा मैंने,
"पाँव उलटे थे उसके!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तू क्या करने गया था?" पूछा अहमद साहब ने!
"बकरी घेरने!" बोला वो,
"अच्छा, फिर?" बोले अहमद साहब,
"करीब दस दिन हुए?" अहमद साहब ने पूछा,
"हाँ!" बोला आलम,
"कितने बजे थे?" पूछा मैंने,
"चार बजे होंगे!" बोला वो,
"क्या कर रही थी वो?" पूछा मैंने,
"बैठी थी" बोला वो,
"कहाँ?" मैंने पूछा,
"पेड़ के नीचे" कहा उसने,
"नज़र कैसे पड़ी?" पूछा मैंने,
"मेरी नज़र पड़ी!" बोला वो,
"हाँ, कैसे?" पूछा मैंने,
"पेड़ से सर लगा बैठी थी!" बोला वो,
"तुम्हें देखा उसने?" मैंने पूछा,
"ना" बोला वो,
"बैठी कैसे थी?" पूछा मैने,
बता दिया उसने, कि उकडू!
"क्या पहना था?" पूछा मैंने,
"लाल रंग के कपड़े" बोला वो,
"कहाँ देख रही थी?" पूछा मैंने,
"सर नीचे था उसका" बोला वो,
"चेहरा नहीं देखा?" मैने पूछा,
"नहीं!" बोला वो,
"भाग लिए फिर?" मैने कहा,
"हाँ जी!" बोला वो,
कोई काम की खबर नहीं! ऐसा कुछ भी नहीं, जिस से कुछ सूत्र हाथ लगे!
"ठीक है!" कहा मैने,
वहाँ से तो कुछ हाथ न लगा, एक तो लड़का घबराया हुआ बहुत था, उस से बोले न बन रहा था, और दूसरा ये की वो शरमा भी रहा था, बता भी नहीं पा रहा था, मैंने उसको एक रुक्का दे दिया था, इस से उसका वो डर ज़रूर खत्म हो जाता! बुखार भी टूट जाता! हम वापिस हो लिए थे वहां से, आ रहे थे अहमद साहब के साथ!
"वो जो मैंने आपको बताया था, जिस लड़के ने देखा था उसको, उस से मिलना है?' पूछा उन्होंने,
"वो जो नहाते हुए देख रहा था?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"हाँ, मिलवा दीजिये!" कहा मैंने,
"आइए फिर!" बोले वो,
"चलें!" कहा मैंने,
हम मुड़े और उनके साथ चले पड़े, गाँव की उस खूबसूरत गली में चले जा रहे थे, वहां के घर ऐसे थे, जैसे अक्सर पुर्तगाल और स्पेन के समुद्री क्षेत्रों में हुआ करते हैं! बड़े बड़े घर, सफेद रंग के! पांवों में आ रही बजरी, फिसलें नहीं, इसमें मदद कर रही थी! घर ऐसे बढ़िया की जैसे, की बड़ा सा खिलौना! आते जाते गाँव के बाक और बालिकाएं! उनके सुंदर चेहरे! वे लोग, जो दूर से ही देख, सलाम भेज देते थे! छोटे छोटे बालक सलाम बोलते या कोर्निश करते, तो बहुत प्यार आता उन बालकों पर! बचपन जैसे शाही ठाट, कहाँ मिलता है दुबारा! बचपन का वो लाड-प्यार, दुलार वो अल्हड़पन, वो मलंग रहना, न खाने की चिंता, न पीने की, न स्वाद की, न कोई चिंता, न कोई फिक्र! बस अपना खेल, दोस्त और अपने खिलौने! न कोई छोटा बड़ा, न कोई काला-गोरा, न मोटा-पतला, न ऊंचा-छोटा, कुछ नहीं, न हिन्दू, न मुसलमान! उन बच्चों को देख, यही सोचे जा रहा था मैं, तीन छोटे बच्चे, एक और बच्चे को दबोच के गिरा रहे थे नीचे! और सभी हंस रहे थे, गिराने वाले भी, और गिरने वाला भी! हँसता-खेलता बचपन, और बच्चे, तो वैसे भी किसी को मुस्कुराने पर मज़बूर कर दिया करते हैं! कैसा भी दुखी इंसान हो, वो भी मुस्कुरा जाता है!
"देख लो अहमद साहब, बचपन!" कहा मैंने,
"अजी क्या कहने! इस से बड़ा कोई नहीं!" बोले वो,
"हाँ जी! शर्मा जी?" बोला मैं,
"बचपन से बड़ा कुछ नहीं!" बोले वो,
"कोई चिंता नहीं इन्हें!" बोला मैं,
"कैसी चिंता! इन्हें मालूम ही नहीं!" बोले अहमद साहब!
"हाँ जी!" बोला मैं,
"जब हम बच्चे थे, तो ऐसे ही खेल करते थे, कोई चिंता नहीं, घर गए तो खा लिया जो मिला, फिर से अपने दोस्त! फिर से खेल! चाहे चौबीसों घंटे खिला लो!" बोले वो,
"सही कहा आपने, चाहे रात हो या दिन!" कहा मैंने,
"हाँ! वो पिट्ठू-गेंद, वो गुल्ली-डंडा! कैसा हसीन वक़्त था वो भी! घरवाले बुला रहे हैं, और वहाँ, कांटूल भुगत रहे हैं हम!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! सच कहा था उन्होंने! गुल्ली-डंडे में, जब पिदना पड़ता है, तब कांटूल भुगतने पड़ते हैं! मैं भी जा पहुंचा था, एक खेत में, जहां हम भी ऐसे ही खेल करते थे!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आपने भी कांटूल भुगते हैं?" पूछा मैंने,
"क्या पूछो! भुगते? बल्कि जब घर जाया करते थे, तो उधार रह जाते थे! जब खेलने आये तो फिर से, वहीँ से भुगतो!" बोले वो,
हम तीनों ही हंस पड़े! बचपन की यादें, आज भी हंसा रही थीं! सच में, क्या वक़्त था वो! मिट्टी में खेलना, लोटना, किसे चिंता! चोट लगी कोई, तो मिट्टी ही मल ली, फिर ठीक! और आज देखो, 'मिट्टी में नहीं खेलो, दूर रहो, इन्फेक्शन हो जाएगा!' ये है आज का ज़माना! हमारे ज़माने को देख लो, मित्रगण, आपके भी, घुटनों, कोहनियों पर, निशान होंगे चोटों के! ये स्मृति-चिन्ह हैं बचपन के! जो अब स्थायी-रूप से चिपके हैं!
"वो रहा जी घर!" बोले वो,
"अच्छा जी!" कहा मैंने,
और हम जा पहुंचे, दरवाज़ा खुला था, अंदर झाँका, कोई नहीं था, आवाज़ दी, एजाज़ नाम के किसी लड़के को! कोई आया भागा भागा! सलाम हुई, ये एजाज़ ही था! अंदर बुला लिया था उसने!
बैठे हम एक बड़े से पलंग पर!
"चाचा?" बोला एजाज़,
"हाँ?" बोले वो,
"तक़लीफ़ क्यों की, बुला लिया होता मुझे?" बोला एजाज़,
"कोई बात नहीं बेटा!" बोले वो,
पानी आया, और हमने पानी पिया!
"बैठ एजाज़!" बोले वो,
"जी!" बोला वो,
एजाज़ करीब बीस बरस का रहा होगा!
"सुन?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"वो जो औरत तूने देखी थी, उनके बारे में बता इन्हें!" बोले वो,
"हाँ भाईसाहब, मैंने देखी थी!" बोला वो,
"कैसी थी?" पूछा मैंने,
"बड़ी सुंदर थी!" बोला वो,
"क्या पहने थी?" पूछा मैंने,
"लाल रंग के कपड़े थे उसके, कलश जैसे!" बोला वो,
कलश, एक जनजाति है, जो ऐसे रंग-बिरंगे कपड़े पहनती है! सुंदर होते हैं कलश लोग! मैं पहले भी लिख चुका हूँ उनके बारे में!
"पानी में थी वो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, कमर तक!" बोला वो,
"अच्छा, नहा रही थी?" पूछा मैंने,
"जी, लेकिन चुब्बक नहीं मार रही थी!" बोला वो,
"खड़ी थी इसका मतलब!" कहा मैंने,
"हाँ जी, कमर मेरी तरफ किये!" बोला वो,
तभी एक लड़की, दूध ले आई, साथ में मुलायम से खजूर!
"लीजिये भाई साहब!" बोला एजाज़,
हमने दूध का गिलास ले लिया, और एक खजूर भी उठा लिया! खजूर खाया, तो बड़ा मीठा! चाशनी में डुबो के रखा था शायद!
"कितनी लम्बी होगी?" पूछा मैंने,
"मेरे से तो लम्बी होगी!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"तो पाँव कैसे देखे उसके?" पूछा मैंने,
"मैं तो जी, एक पत्थर के पीछे से देख रहा उसे..." बोला वो,
"हरामी है जी ये!" बोले अहमद साहब!
हंस पड़े हम सभी! एजाज़ भी!
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"करीब आधा घंटा पानी में रही वो, और फिर निकली बाहर!" बोला वो,
"तुम्हारी तरफ आई?" पूछा मैंने,
"न जी, सीधी चली!" बोला वो,
"मतलब कमर तुम्हारी तरफ?" बोला मैं,
"जी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी, जब वो किनारे पर आई, तब देखे मैंने पाँव उसके!" बोला वो,
"उलटे?" बोला मैं,
"जी! एकदम उलटे!" बोला वो,
"सही चल रही थी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, पाँव उठा कर!" बोला वो,
तभी, एजाज़ ने, हमारे गिलासों में, और दूध भर दिया! मना करने के बावजूद भी!
"तो कहाँ गयी वो?" बोला मैं,
"अंदर, जंगल में!" बोला वो,
"उम्र क्या होगी उसकी?" पूछा मैंने,
"कोई बीस या बाइस?" बोला वो,
"और बदन कैसा था?" पूछा मैंने,
"अजी, भरा हुआ!" बोला वो,
"उसके बाद नहीं देखा कुछ!" कहा मैंने,
"पसीना चू गया था जी उसको देख कर, मैं तो भाग पड़ा!" बोला वो,
सच बात है, कौन रुकता!
"कुछ और बात?" पूछा मैंने,
"बस जी!" बोला वो,
"यूँ कहते हैं, कि उड़ भी जाया करती है वो!" बोला वो,
"किसी ने देखा?" पूछा मैंने,
"न जी!" बोला वो,
"तो सुनी-सुनाई बात है!" कहा मैंने,
"मैंने आँखों से देखा है जी!" बोला वो,
"उड़ना?" पूछा मैंने,
"न जी! वो न!" बोला वो,
दूध हुआ खत्म, रख दिए गिलास!
"चाचा?" बोला एजाज़,
"बोल?" बोले वो,
"खाना बनवा दूँ?" पूछा उसने,
"खाना अब तैयार होगा घर में!" बोले वो,
"आज यहां खा लो, जो?" बोला वो,
''एक ही बात है!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
हम उठे, एजाज़ बाहर तक आया छोड़ने, फिर सलाम कर, वापिस हुआ!
"ये लड़का हिम्मत वाला है!" बोले शर्मा जी!
"हरामी है जी!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! वे भी!
और हम, लौट पड़े, कुछ जानकारी मिल ही गयी थी!
तो हम लौट आये थे वापिस! घर आये तो आराम किया, दूध इतना पी लिया था कि आँखें भारी हो गयी थीं! इसीलिए थोड़ा आराम किया, दूध अपने आप में ही एक पूर्णाहार है! यही कारण था! तक़रीबन आठ बजे, मैंने शर्मा जी और अहमद साहब से एक मंत्रणा की!
"अहमद साहब?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"ये जो दो शख्स हैं, इन्होने उसे देखा, आपने भी देखा, एक बात एक समान थी उनमे!" कहा मैंने,
"वो क्या जी?'' पूछा उन्होंने,
"वो ये, कि नदी, या नाला कोई!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"उन दोनों ने देखा, तो नाला था वहां, आपने फ़िरोज़ साहब के साथ देखा, उसे, तो पुल था वो, है न?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"इसका मतलब ये हुआ, कि वो पानी के करीब रहती है!" कहा मैंने,
"मतलब तो यह निकला!" बोले वो,
"पाकिस्तान में, वो अक्सर कुन्हार नदी के आसपास देखी जाती है!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोले वो,
"हाँ, मैंने पढ़ा भी है और सुना भी है!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"वहाँ एक जगह है, नारन या नरना, वहाँ के लोग यही बताते हैं! मेरे हैं एक जानकार, उन्होंने भी इस बात की तस्दीक़ की!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"तो एक बात साफ़ हुई कि उसको नदी, नाले पसंद हैं!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"अब एक और बात, पाकिस्तान में, खैबर-पख्तूनवा के निवासी एक और मजेदार कहानी सुनाते हैं उसके बारे में!" बोला मैं,
''वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"वो कहते हैं कि, उसकी लम्बाई करीब बीस से पच्चीस फ़ीट की रहती है! बाल खुले होते हैं, रंग काला होता है, हाथों में, इंसानी मांस के टुकड़े होते हैं, आँखें गड्ढे में धंसी हुई होती हैं, आँखें, लाल होती है, देह पर एक भी कपड़ा नहीं होता और, रात को अक्सर जंगल में उसके हंसने की आवाज़ें आती हैं!" बताया मैंने,
"अरे रे!" बोले वो,
"आपको क्या लगता है?" पूछा शर्मा जी ने,
"मुझे ये असलित कम और कहने ज़्यादा लगती है!" कहा मैंने,
"हाँ! यही होगा!" बोले शर्मा जी!
"एक बात बताइये?" कहा मैंने,
"जी?" बोले अहमद साहब,
"गाँव के आसपास कितने ऐसे नदी नाले हैं?" पूछा मैंने,
उन्होंने गिनना शुरू किया, एक एक करके,
"जी पांच!" बोले वो,
"पांच?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"इसका मतलब, खोज में समय लगेगा!" कहा मैंने,
"नहीं जी, तीन तो आसपास ही हैं!" बोले वो,
"अच्छा! फिर ठीक है!" कहा मैंने,
"और आज शाम तलक, फ़िरोज़ भी आ जाएगा!" बोले वो,
"अच्छा! फिर ठीक है!" बोला मैं,
तभी अंदर आया नासिर,
"हाँ बेटे?" बोले अहमद साहब,
"खाना आ गया है!" बोला वो,
"लगा दे बेटे, यहीं लगा दे!" बोले वो,
"अभी!" बोला नासिर, कर चला बाहर,
थोड़ी देर में ही खाना लग गया, वही लज़ीज़ खाना! अब कश्मीर में गोश्त तो रोज का ही भोजन है, तो आज भी गोश्त ही था! भुना हुआ गोश्त, सालन में पड़ा हुआ! ख़ुश्बू ऐसी, कि कटोरा पकड़ ही खा जाओ! दही, शामी-कबाब, टिक्के, हरी चटनी के साथ! मजा ही मजा!
खूब खाया जी हमने! ताबतोड़ जिसे कहते हैं वैसे खाया! एक महीना वहाँ रुक जाएँ तो चेहरा लाल हो जाए! ऐसा बढ़िया खाना!
खाना खा लिया, और फिर आराम किया, नींद आई और सोये हम! रात में कंबल न हो तो कुकड़ी जम जाए! और कंबल में ऐसी मस्त नींद आये कि पूछिए ही मत!
अगला दिन,
हम फारिग हुए, गरम पानी मिल जाता था, नहाये-धोये!
फिर नाश्ता किया, नाश्ते में, चाय, गाढ़ी वाली, और नमकीन! घर के बने, शकरपारे! देसी घी से लबरेज! अब हमारे देसी खाने का कोई तोड़ है ही नहीं!
कोई दस बजे का वक़्त था वो,
"अहमद साहब?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"आओ, ज़रा वो जगह दिखाओ, जहां उन्होंने देखा था उसे!" कहा मैंने,
"अभी चलते हैं, फ़िरोज़ भाई आने वाला है!" बोले वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"रात देर से पहुंचा वो!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बता रहा था कि रास्ता खराब पड़ा है!" बोले वो,
"जिस से हम आये थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"वैसे तो ठीक था?" कहा मैने,
"यहां ये ही दिक्कत ज़्यादा है!" बोले वो,
कोई आधा घंटा बीता,
हम अंदर ही बैठे थे, कि, अंदर आये अहमद साहब, अपने भाई फ़िरोज़ को लेकर! सलाम हुई, और फिर बातचीत!
"हाँ जी, हमने देखी थी वो!" बोले फ़िरोज़!
"हाँ, बताया हमें अहमद साहब ने!" बोला मैं,
"बड़ी ही खतरनाक शय है जी!" बोले वो,
"हाँ, चला पता!" कहा मैंने,
"तो आप पकड़ेंगे उसे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, देखना है बस!" बोला मैं,
"हमें तो डर लगता है जी!" बोले वो,
"आप पीछे रहना!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और तब आ गया खाना! तो खाना खाया!
"नासिर?" बोले फ़िरोज़,
"हाँ जी?" बोला वो,
"वो मठा?" बोले वो,
"है!" बोला वो,
"लेकर आ!" बोले वो,
मठा मंगवाया, क्या घी उसमे! नमक और मिर्च, ज़ीरा और राई पीसी हुई!
"ये घर का ही है जी!" बोले वो,
"मजा है!" बोले शर्मा जी,
"मैंने कही, कि मठा निकाल लेना आज!" बोले वो,
"बढ़िया बहुत!" कहा मैंने,
"गाँव की चीज़ें हैं जी!" बोले वो,
"हाँ, शहर में कहाँ?" कहा मैंने,
"नासिर?" बोले वो,
"हाँ जी?" आया वो अंदर,
"और डाल?" बोले वो,
अब एक गिलास और!
पेट हुआ फटने को!
"और ले लो जी?" बोले वो,
"अब जगह नहीं है!" कहा मैंने,
"पानी है, पता भी नहीं चलेगा! नासिर?" बोले वो,
"बस फ़िरोज़ साहब!" कहा मैंने,
और वापिस करवाया वो मठा! नहीं तो गले तक भर जाता पेट!
खाना खा लिया था, मठा पी लिया था, डकार ऐसी आयीं जैसे पता नहीं घर से ही भूखे चले थे! उसके बाद आराम किया, देह खुलने लगी थी मठा पी कर! आराम किया तो आँखें भारी हुईं, और फिर उसके बाद सो गए, नींद खुली कोई ढाई बजे जाकर, अहमद साहब बाहर ही बैठे थे, कुछ काम कर रहे थे, बही-खाता सा बांच रहे थे! शर्मा जी ने पानी मंगवाया था, मैंने भी पानी पिया! अहमद साहब आ गए हमारे पास, बैठे!
"कैसी रही झपकी!" बोले वो,
"बढ़िया!" कहा मैंने,
"चाय मंगवाई है!" बोले वो,
"अरे वाह!" बोले शर्मा जी,
चाय आई और हमने चाय पी!
"चलें अहमद साहब?" पूछा मैंने,
"हाँ, फ़िरोज़ को बुलवा लूँ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
उन्होंने नासिर को भेज दिया, फ़िरोज़ को बुलवाने के लिए! फ़िरोज़ भाई आ गए तो वो हमारे साथ चले फिर! हम गाँव से बाहर आये, क्या नज़ारा था! क्या बढ़िया धूप खिली थी वहाँ! मनमोहक, प्यारे फूल खिले हुए थे हर तरफ! लाल, नीले, पीले! छोटे-बड़े! परिंदे उछल-फांद रहे थे! परिंदों के रंग देख, मैं तो चकित था!
"ये हालिम है!" बोले वो,
एक परिंदे की तरफ इशारा करते हुए!
"फाख्ता जान पड़ता है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, सुनहरा लाल है ये!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये यहां आता है उधर से, सीमा पार करके!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यही दिखेगा आपको बस!" बोले वो,
"हाँ, पहली बार देखा आज!" बोले वो,
"वो देखो, पीली गुड़सल!" बोले वो,
बड़ी ही प्यारी थी! सर पर जैसे कंघी चलायी हो, ऐसी लग रही थी!
"आपके यहां पीले चोंच वाली, काली होती है!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोला मैं,
"और वो देखो, कैसा पनकौवा है!" बोले वो,
''अरे? काला-पीला?" बोला मैं!
"हाँ जी, पहाड़ी परिंदे हैं ये!" बोले वो,
हम आगे बढ़े चले जा रहे थे, आई एक नदी सी, पुल बना था उस पर, वो रुक गए उधर!
"ये है जी वो जगह!" बोले वो,
"और हम वहाँ खड़े थे, ऊपर!" बोले फ़िरोज़,
"और यहां, इस मुंडेर पर बैठी थी वो!" बोले अहमद साहब,
मैंने देखी वो जगह, नीचे झाँका, करीब दस फ़ीट नीचे पानी बह रहा था!
"और वो गयी किधर?" पूछा मैंने,
''आओ जी!" बोले वो,
अब किया पुल पार, आया एक रास्ता, पगडंडी बनी थी उधर!
"वो यहां तक आई थी, और यहां हुई खड़ी, और यहां से नीचे उतर गयी, वहां, जंगल में चली गयी थी फिर!" बोले वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
हम पगडंडी पर चलते हुए, उस जगह आ गए, सामने घना जंगल था, चीड़ के पेड़ लगे थे, और भी बड़े बड़े पेड़ थे वहाँ! ऐसा ही पेड़ दिखा मुझे, बहुत पवित्र पेड़ माना जाता है वो वहाँ, चिनार का पेड़! इसका संबंध, माँ भवानी से जोड़ा जाता है, इस पेड़ का कश्मीरी नाम, बूइन या बूइं है, जिसका संस्कृत अर्थ, भवानी ही होता है! कश्मीरी संत श्री लल्लेश्वरी(लल्ला देद या देड) ने इसका नाम रखा कश्मीरी भाषा में, जिस शिहिज मोएज कहा जाता है! जिसका अर्थ है, शांत, मातृत्व से पूर्ण माता श्री! कश्मीर का नाम भी इसी प्रकार रखा गया है, इस भाषा में ये मएज कशीर है, इसी से कश्मीर नाम रखा गया है! चिनार का ये पेड़, हर तबके में, सम्मानिय है, इसको काटा नहीं जाता! अपितु इसकी देखभाल की जाती है! कश्मीर में और भी बहुत से पेड़ हैं, देवदार, इसका मूल नाम है देवदारु, अर्थात देवताओं का पेड़! एल्म, एल्म श्री गणेश जी से जोड़ा जाता है, ये भी पवित्र पेड़ है यहां! शहतूत, अखरोट और भी बहुत शानदार पेड़ हैं यहां! जो अधिकाँश, बस यहीं मिलते हैं!
"ये चिनार है न?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले फ़िरोज़!
"और वो देवदार!" कहा मैंने,
"बिलकुल जी!" बोले वो,
"क्या शानदार पेड़ हैं!" बोले शर्मा जी!
"आओ जी!" बोले अहमद साहब,
अब हम वापिस हुए, पुल पार किया, और बाएं मुड़ गए, चलते ही रहे! एक जगह रुके, वहां नदी में पानी कम था, चमकीली मछलियाँ घूम रही थीं उसमे!
"ये कश्मीरी रोहू है जी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"गरम होती है बहुत!" बोले वो,
"अच्छा!" बोले वो,
"ये काँटा भी मारती है जी!" बोले वो,
"अच्छा? रोहू तो नहीं मारती?" कहा मैंने,
"ये मारती है, इसकी कमर पर होता है काँटा, बुखार चढ़ा देती है ये!" बोले वो,
वो थीं भी काफी, बड़ी बड़ी!
"तो पकड़ते कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"जाले से!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आज बनवा दूँ मच्छी?" बोले वो,
"अरे वाह!" बोला मैं,
"बनवा दूंगा!" बोले वो,
और कह दिया फ़िरोज़ को उन्होंने!
"चलें जी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आ गए हम एक खुली जगह!
नदी चौड़ी हुई वहां!
बड़े बड़े पत्थर पड़े थे आसपास!
"ये है जगह वो!" बोले फ़िरोज़,
"अच्छा!" बोला मैं,
"वो एजाज़ वाली?" पूछा मैंने,
"हाँ हाँ!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां थी वो, बीच में खड़ी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और ठीक सामने चली गयी थी!" बताया उन्होंने,
यानि की जंगल में!
जंगल पसंद है उसे!
वहीँ से आती-जाती होगी!
अब जंगल भी घना था!
"आओ जी!" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
वो आगे आगे, हम पीछे पीछे!
तभी सामने एक जानवर दिखा, अजीब सा! हमें देख रुक गया था वो! हम उसे देख!
"ये कौन सा जानवर है?" पूछा मैंने,
"मरखोर!" बोले वो,
"बड़ा ही अजीब है!" कहा मैंने,
कुछ देर बाद, वो मरखोर, चला गया वहां से!
"पहाड़ों से उतर आते हैं ये!" बोले वो,
"ये मांस खाता है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी, लोग डरते हैं इस से!" बोले वो,
वो चला गया था, काफी देर हुई!
"अब चलो!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
हम चल पड़े आगे आगे अब! वो पीछे हमारे!
मुझे अभी भी वो मरखोर याद आ रहा था! अजीब सा ही जानवर था वो! पहली बार ही देखा उसे मैंने, मुझे तो कोई बिज्जू सा लगा रहा था वो!
हम उसी तीसरी जगह पर आ पहुंचे! ये जगह बेहद शानदार थी! मैंने तो ऐसी जगह या तो चित्रण में, या सीनरी में ही देखी थी! वहीँ एक झोंपड़ा डाल लिया जाए तो कैसा आनंद मिले ज़िंदगी का! पास में ही नदी है, गाँव है, कमी क्या! दूर दूर तक फैला मैदान, हर तरफ, मुलायम हरी हरी घास! चमकदार पत्थर! बहती ही, साफ़ नदी! दूर एक जगह पुल कसा था उस पर! देवदार के पेड़ लगे थे आसपास! ताज़ा हवा! रंग-बिरंगे फूल! हरियाली ही हरियाली, जहां तक नज़र डालो वहीँ तक!
"क्या शानदार जगह है!" कहा मैंने,
"सच में, जन्नत है ये तो!" बोले शर्मा जी,
"अहमद साहब से कह कर, डाल लो एक बड़ा सा झोंपड़ा!" कहा मैंने,
"वाक़ई!" बोले वो,
"लग रहा है हम इसी ज़मीन पर हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"नज़ारा देखो!" कहा मैंने,
"आँखें बंद करने का मन नहीं हो रहा!" कहा मैंने,
"वो जो पेड़ लगा है न?" बोले अहमद साहब,
"हाँ?" कहा मैंने,
"यहां बैठी थी वो!" बोले वो,
"आना ज़रा!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले शर्मा जी,
हम चले उड़ पेड़ की तरफ, वहाँ पहुंचे,
"यहां?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले अहमद साहब,
"यहां से पार गयी थी वो?" पूछा मैंने,
"अजी वो तो भाग लिया था न?" बोले वो,
"अच्छा!" बोले वो,
मैंने तब उन दोनों भाइयों को हटाया वहाँ से, वे वापिस चले और एक जगह बैठ गए, मैंने तब, कुरंग-मंत्र का प्रयोग किया, वहां की मिट्टी उठायी, अभिमंत्रण किया, और सूंघी, कोई गंध नहीं, बस मिट्टी की ही गंध!
"कुछ पता चला?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
फेंक दी मिट्टी मैंने तब, हाथ धोने, नदी की तरफ चला, हाथ धोये, मुंह पोंछा, और वापिस हुआ! आया पेड़ तक,
"अब कैसे करना है?" पूछा उन्होंने,
"जंगल!" कहा मैंने,
"जंगल?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैने,
वे हंसने लगे!
"इतना छोटा है जंगल?" बोले वो,
"आपने कुछ बातों पर गौर किया?" पूछा मैंने,
"जैसे?" बोले वो,
"ये नदी!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"पानी!" कहा मैने,
"हाँ, तो?" बोले वो,
"उसको पानी पसंद है!" कहा मैंने,
"और अंदर जंगल में, तालाब तो होंगे ही?" कहा मैने,
"अभी पूछ लेते हैं!" बोले वो,
और बुला लिया अहमद साहब को अपने पास,
"जी?" बोले वो,
"अहमद साहब?" बोला मैं,
"फरमाएं?" बोले वो,
"वहां सामने, कोई तालाब है?" पूछा मैंने,
"दो हैं!" बोले वो,
"तो कल देखें वो?" बोला मैं,
"ज़रूर!" बोले वो,
"कितनी दूर होंगे?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं, तीन-चार किलोमीटर!" बोले वो,
"फिर तो ठीक है!" कहा मैंने,
"अब चलें वापिस?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले अहमद साहब,
और हम चल पड़े वापिस!
"एक तालाब छोटा है जी, और एक बड़ा!" बोले अहमद साहब,
"अच्छा, पास में कौन सा है?" पूछा मैंने,
"बड़े वाला!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
बातें करते करते, वापिस हो लिए थे हम फिर! आ गए थे अपनी जगह! यासिर से चाय के लिए कह दिया था अहमद साहब ने!
"तो कल सुबह ही निकल लें?" बोले शर्मा जी!
"हाँ, ये सही रहेगा!" कहा मैंने,
"ठीक है! सुबह खीर बनवा दूंगा!" बोले वो,
"ये तो बढ़िया, अहमद साहब!" बोले वो,
चाय ले आया था यासिर, फिर चाय पीने लगे!
और फिर आराम!
रात को खाना खाया, मछली बनाई थी, लज़ीज़ मछली! हल्की सी बरसात हुई थी रात को!
सुबह हुए फारिग, और किया नाश्ता, खीर आई थी, पेट भर खा गए हम तो!
और सुबह कोई आठ बजे ही, फ़िरोज़ साहब भी आ गए, साथ में उनके एक और आदमी था, उस से सलाम हुई और उससे परिचय हुआ, उसका नाम, शम्सुद्दीन था, शम्सू बोलते थे, उसके जंगल की अच्छी जानकारी थी!
और हम, उसी वक़्त चल पड़े वहाँ से, फ़िरोज़ साहब, एक बड़ा सा चापड़ ले आये थे, काम आता ये, कुछ काटने-पीटने में!
शम्सू आगे आगे चलता रहा, हम भी साथ साथ चलते रहे, पुल पार किया और एक छोटी सी पगडंडी पकड़ ली, पहाड़ी पगडंडी थी! कुछ जंगली से फल मिले, पीले से रंग के, इमली जैसे, वो खाए, खट्टे-मीठे थे! जंगल में, पहचान हो, तो सबकुछ मिल जाता है! यहां तक कि एंटी-बायोटिक भी! जड़ी की पहचान हो बस!
और जड़ियाँ! जड़ियां तो यहां बहुत हैं!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"यहां एक से बढ़कर एक जड़ियाँ हैं!" बोला मैं,
"वो तो है ही!" बोले वो,
"हाँ, बहुत हैं!" बोला मैं,
"रामायण में जो संजीवनी आई थी, वैसी वैसी जड़ियाँ हैं यहां!" बोले वो,
"हाँ! और जानते हो?" बोला मैं,
"क्या?" कहा उन्होंने,
"यूनानी दवाएं, तिब्बिया या तिब्ब, यहीं की जड़ियाँ हैं वो!" बोला मैं,
"बड़ी ही माफ़िक़ होती हैं!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोले अहमद साहब,
"ये देखो आप!" बोले फ़िरोज़,
"ये है, गुलसार!" बोले वो,
एक पौधा था वो, हरी-सफेद सी पत्तियों वाला!
"मोच आ जाए, तो इसके पत्ते कूट कर लगा लो, सुबह तक मोच गायब!" बोले फ़िरोज़!
"अरे वाह!" बोले शर्मा जी,
"और ये देखो!" बोले फ़िरोज़,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
एक पौधा था वो भी, उस पर, शीशम जैसी फलियां लगी थीं!
"ये है, काश्ता!" बोले वो,
"किस काम आता है?" पूछा मैंने,
"अर्श हो, भगंदर हो, सब ठीक! इसके बीज भून के चबाये जाते हैं!" बोले वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
और चल पड़े हम आगे,
"और ये देखो!" बोले वो,
एक जंगली बेल थी वो, पत्ता ऐसा, जैसे धनिये का उसका!
"ये क्या है?" पूछा शर्मा जी ने,
"ये खोजर है, बुखार हो, तो इसके पत्तों का काढ़ा पी लो, बुखार ठीक!" बोले वो,
तो हम, तिब्ब-दवाइयाँ देखते हुए, बातें करते हुए, आगे बढ़ते रहे! शम्सू ने एक अहम बात बताई! हालांकि, शम्सू ने उसे देखा तो नहीं था, लेकिन एक नयी जानकारी दी थी, अब तक की सबसे अहम जानकारी! उसने बताया कि पिच्छल-पैरी, एक छलावे के रूप जैसा काम करती है! अर्थात, मानिए आप कि, आप जंगल में जा रहे हैं, आपको जल्दी से, सूरज ढलने से पहले गाँव पहुंचना है, और आपको है देर, तब ये पिच्छल-पैरी, आपसे मिलती है, आपसे मधुर बातें करती है, इस पिच्छल-पैरी में, एक ऐसी नैसर्गिक शक्ति है कि पुरुष डावांडोल हो जाता है! उसके अंदर का काम, सशक्त हो, भड़क जाता है! तब, पुरुष मना नहीं कर पाटा, और संसर्ग के बाद, वो व्यक्ति अपने आपको, गाँव के बाहर ही पाता है! मतलब ये, कि वो दूरी को पल भर में खतम कर सकती है! और यदि ऐसा है, तो हमारा सामना, अवश्य ही इस संसार की एक अत्यंत ही विलक्षण शक्ति से है! दूसरी अहम बात, वो संसर्ग क्यों करती है? उसे क्या आवश्यकता? तो मित्रगण, अब यहां पर एक रहस्योद्घाटन होता है, क्या आप जानते हैं, कि पुरुष के वीर्य में, एक अमरत्व का अंश है? एक ऐसा अंश, जिस से व्यक्ति अमर हो सकता है? आप कहेंगे कि ये कैसा मज़ाक किया! मैं दावे के साथ कहता हूँ! विज्ञान उसे ढूंढेगा! मुझे पूर्ण विश्वास है! एक दिन ऐसा होगा, और मनुष्य ही नहीं, पूरे प्राणी-जगत में, नर-वीर्य में, ऐसा अंश मौजूद है! तंत्र की काम-शाखा में ऐसे कई प्रयोग हैं, जिस से आप, अप्रत्याशित देख सकते हैं! जुड़वां-संतान कैसे पैदा होती है? कई बार तीन और चार भी! ऐसा कैसे? और फिर, देह में, न पुरुष के, न स्त्री के कोई दोष हो, उन्हें संतान नहीं होती! होता है न ऐसा? आप जानते ही होंगे! तंत्र कहता है, सब सम्भव है! जब पाषाण में, उसका पसीना, शिलाजीत बन कर फूटता है, तो ये क्या कम चमत्कार है? वो भी, किरकिरा न हो?
अब देखिये, आप बाज़ार में, आप देखते होंगे कि शिलाजीत इतने में खरीदो, यहां से खरीदो, ये असली है, ये नकली है, हम प्रमाण दे रहे हैं, जांच करवा लो आदि आदि! आप ये जान लें, अच्छी तरह से, इस संसार में, मात्र तीन जीव हैं, तो शिलाजीत को पहचान सकते हैं! एक बंदर! एक लंगूर! और एक कौवा! बस! और कोई नहीं! शिलाजीत की कोई गंध नही! कम से कम, हम मानव नहीं सूंघ सकते, एक श्वान भी नहीं! जब कि उसकी नाक, इस संसार में, सबसे अव्वल है गंध में!
शिलाजीत, हर पत्थर में नहीं बनता, जिस पत्थर की नसें बाहर खुलती हैं, उसमे बनता है ये! अर्थात जिस पत्थर में, रन्ध्रांश होते हैं उसमे! अब होता क्या है, जब बंदर, लंगूर इसे खाते हैं तो उनकी विष्ठा से ही, ये प्राप्त किया जाता है! अन्य कोई और तरीका नहीं! अब इसके गुण! शिलाजीत पुरुषों में, पौरुष का संचार करता है! स्त्रियों में, रजोनिवृति नहीं होने देता! ये दो प्रकार है है, अलहब और रजहब! सिर्फ, रजहब ही काम का है! अलहब, विष होता है, ये भाप बन, उड़ जाता है! इसे वानर नहीं खाते!
हाँ मित्रगण!
एक और प्रश्न मैं आपसे पूछूंगा! वो ये, कि आपने वराहावतार का नाम तो अवश्य ही सुना होगा! क्या कारण था ऐसा, कि स्वयं भगवान विष्णु जी को, एक वराह का रूप लेना पड़ा? उत्तर दें अवश्य ही!
और अब घटना!
तो हम, आगे बढ़ते जा रहे थे, नज़ारा खूबसूरत था! आँखों में बसाने वाला! मन करे, बस, यहीं का हो कर रह जाऊं!
"अहमद साहब?" कहा मैंने,
"जी, सरकार!" बोले वो,
"कैसे सरकार! अरे अहमद साहब, आप भी बस!" बोला मैं,
"जनाब, हम भी कौन से साहब हैं!" बोले वो,
हंस पड़े हम सब!
बेहद शरीफ, मिलनसार और हंसमुख शख्स हैं दोनों ही! अहमद साहब भी और फ़िरोज़ साहब भी! उनका रूप-रंग ऐसा ही, जैसे आप पुराने ज़माने के, किसी फ़ारसी को देख रहे हों! होंठों पर मुस्कुराहट, आँखों में तेजी! और दिल में, ईमानदारी!
"आप जन्नत में रहते हैं!" कहा मैंने,
"बंदा-नवाज़ी है जी आपकी!" बोले वो,
"आप मानिए न?" कहा मैंने,
"हुज़ूर, एक से हज़ार तक मानी!" बोले वो,
और हम सब हँसे फिर!
"शम्सू?" बोले वो,
"जी?" शम्सू रुका और बोला,
"अरे वो तेरी लड़की ठीक है अब?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"इसकी लड़की को, सांप ने काट लिया था, इलाज करवाया!" बोले वो,
"शम्सू?" कहा मैने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"कौन सा सांप था?" पूछा मैंने,
"काला तरा!" बोला वो,
"फन वाला न?" पूछा मैंने,
"जी जी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"लो जी!" बोले फ़िरोज़ साहब!
सामने एक तालाब आया नज़र!
बड़ा ही खूबसूरत!
सूरज की किरणें, नाच रही थीं पानी पर!
"वाह!" बोले शर्मा जी,
"शानदार!" कहा मैंने,
"बचपन में, खूब गोते मारे जी यहां!" बोले फ़िरोज़,
"है ही ऐसा!" बोला मैं,
"इसके किनारे, शहतूत लगते हैं! शाही वाले!" बोले वो,
शाही!
मतलब कि छह इंच वाला शहतूत!
उसकी ख़ुश्बू!
पूछो ही मत!
"अरे अहमद साहब?" बोले शर्मा जी,
"कहें शर्मा जी?" बोले वो,
"कहीं टिक जाओ अब!" बोले शर्मा जी,
"बस, आगे ही!" बोले वो,
हम आगे चले, रुके, एक पेड़ के नीचे, जा बैठे!
"वाह वाह!" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"हवा! आराम!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये लो जी!" बोले अहमद साहब!
"हाँ!" कहा मैंने,
उठाया एक बीड़ा, रखा मुंह में!
"ये खुद ही बनाओ हो?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"वल्लाह! बेहतरीन!" बोले शर्मा जी,
"बस लग गया था जी शौक़ पान का!" बोले वो,
"अमा! शाही शौक़ है!" बोले शर्मा जी,
हंस पड़े सब हम!
"और क्या!" बोले शर्मा जी,
"वो कैसे?" पूछा मैंने,
"एक यही है शौक़, जो एब नहीं है!" बोले वो,
"हाँ, बजा फ़रमाया!" बोले फ़िरोज़!
"अजी पान की क्या पूछो!" बोले शर्मा जी,
अपने चांदनी-चौक वाले लहजे में बोले वो!
"भाई शर्मा जी?" बोले फ़िरोज़,
"जी?" बोले शर्मा जी,
"आप इंसान बढ़िया हो!" बोले वो,
"अच्छा जी!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने भी,
"अब तालाब को देख लो आप!" बोले अहमद साहब,
"अभी देखते हैं!" कहा मैंने,
पान का ज़ायक़ा बढ़िया था, केसर लगा पान, सादी-पत्ती, वो भी हाथ की बनायी हुई! भई वाह!
"आओ!" कहा मैने,
उठे शर्मा जी,
"चलो!" बोले वो,
"तालाब तक चलो!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम दोनों, चले तालाब की तरफ! शायद कुछ पता चले!
तो हम उस तालाब के पास आ गए थे! पानी झिलमिला रहा था उसका! रुई जैसे बादलों का रूप छलक रहा था उसमे, जब हवा चलती, तो पानी की जैसे वो इठलाती कन्या, अपने बदन को सहलाने लगती थी! उसकी वो लहरें, पानी के तल पर, रेखाएं खींचती हुईं, कनारे तक ले आती थी! पानी किनारे तक आता, तो मिट्टी जैसे लपकने को पड़ती थी! कुछ पक्षी, आते हुए उस पानी से बचने के लिए, फुदक पड़ते थे! बगुले, सफेद और एक और पक्षी था बगुले की तरह ही, सर पर, स्पाइक-कट बना था उसके, तन्मयता से एक पाँव उठाकर, खड़े थे! अचानक ही, विद्युतीय तेजी से पानी में चोंच घुसेड़ते और किसी मछली के बच्चे को, अकाल-मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता! ये सब प्रकृति है! और ये सब उसके खेल!
कुछ और छोटे छोटे पक्षी, पानी के कनारे बह आये, कीट-पतंगों को शिकार बनाते थे, उन्हें अपनी चोंच में दबा, चल पड़ता था वापिस वो, अपने चूज़े का पेट भरने, जिसकी भूख अब बढ़ती जा रही थी!
थोड़ा मुआयना किया, आसपास घूमे, लेकिन कोई पद-चिन्ह न मिले! हाँ, कुछ जानवरों के तो थे, जैसे छोटे हिरणों के, गीदड़ों के, और कुछ अनजान! लेकिन मुझे एक भी किसी मनुष्य का या मिलता-जुलता न मिला था!
"कुछ नहीं है यहां!" कहा मैंने,
"चलो फिर!" बोले वो,
"हाँ, लौटो!" कहा मैने,
"हाँ, दूसरे पर चलते हैं!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैने,
और हम लौट पड़े, आये वहां तक, बैठ गए!
"कुछ दिखा?" पूछा फ़िरोज़ साहब ने,
"नहीं!" कहा मैने,
"चलो दूसरे पर!" बोले वो,
"रुको! ज़रा ये खा लो!" बोले अहमद साहब,
खोला एक झोला, और उसमे से, खजूर और मेवों से बने लड्डू निकाले!
"अरे वाह!" बोला मैं,
"डाल लाया था, रास्ते के लिए, और ये पानी!" बोले वो,
"मजा आ गया!" बोले शर्मा जी,
"चलो जी!" कहा मैने,
"हाँ!" बोले फ़िरोज़,
"वैसे है कितनी दूर?" पूछा शर्मा जी ने,
"बस कोई डेढ़ किलोमीटर!" बोला शम्सू,
"चलो फिर तो!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े, लड्डू खाते रहे, आगे बढ़ते रहे!
आ गया जी वो तालाब!
और उस तालाब के आसपास, बड़ा ही सघन सा जंगल!
ऐसा लगता था कि जैसे यहां कोई उल्का-पात हुआ हो, और ये तालाब बन गया हो! किनारे अंदर धंसे थे उसके! आसपास, पेड़ लगे थे, जहां से हम अंदर, वहाँ दाखिल हुए थे, वो रास्ता भी संकरा ही था!
"ये है जी, वो ताल!" बोला अहमद साहब!
"ये तो एकदम अलग-थलग है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"आप यहीं बैठो!" बोला मैं,
"हाँ, हो आओ!" बोले वो,
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हमारे साथ साथ, शम्सू भी चल दिया!
तालाब, था तो बड़ा, छोटा दीखने में ही लगता था!
"एक किलोमीटर परिधि तो होगी इसकी?" बोले शर्मा जी,
"ज़्यादा ही होगी!" बोला मैं,
"यहां कोई आता नहीं!" शम्सू बोला,
मैं ठिठका! रुका!
"क्यों?" पूछा मैंने,
"इसके पूठे का ताल कहते हैं, यहां जानवर हैं बहुत!" बोला वो,
"कुछ और भी?" पूछा मैंने,
"कहते हैं भूत हैं यहां!" बोला वो,
"भूत?" पूछा मैंने,
"हाँ, भूत!" बोला वो,
"किसी ने देखा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"बहुत लोग हैं!" बोला वो,
"गाँव के ही?" पूछा मैंने,
"हाँ, और इधर, इधर एक गाँव है, वहाँ!" बोला वो,
उसने तो भड़का दी चिंगारी!
अब निकालो कोई जानकारी!
मैंने फौरन ही, देख-मंत्र चलाया! बहुत देखा! हर तरफ! कुछ नहीं! भूत तो छोड़ो, एक जानवर भी नहीं! लिया मंत्र वापिस!
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" आये वो और बोले,
"इसका एक चक्कर काटते हैं!" बोला मैं,
"चलो!" बोले वो, धुंआ छोड़ते हुए!
बीड़ी सुलगा ली थी उन्होंने, शम्सू ने दी थी!
"शम्सू?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"एक काम करो!" बोला मैं,
"बताओ?'' बोला वो,
"तुम यहां से जाओ, ऐसे, ऐसे घूमते हुए, हम ऐसे जाते हैं, मिल जाएंगे बीच में!" बोला मैं,
"ठीक है!" बोला वो,
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"आ गया, चलो!" बोले वो,
और हम चल पड़े!
उस तालाब के चारों ओर का चक्कर लगाने!
कोई बीते दस मिनट!
"हाओ! हाओ!" दी आवाज़ किसी ने,
मैंने पीछे मुड़कर देखा, ये शम्सू था, हाथों के इशारे से बुला रहा था हमें!
"कुछ मिला है इसे!" बोले वो,
"तो चलो!" बोला मैं,
और हम, बढ़ चले तेज क़दमों से उधर के लिए! शम्सू बैठा था नीचे, अहमद साहब और फ़िरोज़, आ रहे थे वहां के लिए!
और हम पहुंचे वहाँ! वे दोनों भी पहुँच गए!
"क्या है शम्सू?'; पूछा मैंने,
"देखो!" बोला वो,
अब जो मैंने देखा, वो मेरे होश उड़ा गया! मैं नीचे बैठा भी, शर्मा जी भी!
"ये, तो पाँव का निशान है?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इतना बड़ा?" बोले वो,
"हाँ!" बोला मैं,
मित्रगण!
ये पाँव का निशाना था एक, वहां और भी थे, अभी तलाशना था उन्हें! लेकिन ये पाँव का निशान, कम से कम पंद्रह इंच का था! अंगूठा, चिपका था उँगलियों से, उनमे कोई रक्त-स्थान नहीं था, कम से कम आधा इंच धंसा था वो रेत में! वो जिसका भी था, विशाल और मजबूत देह वाला होगा!
"ये तो उसी का है!" बोले फ़िरोज़,
"किसका?" पूछा मैंने,
"उसी औरत का!" बोले वो,
आँखों में खौफ, और आँखें आसपास दौड़ाते हुए!
"इतना बड़ा पाँव?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही हैं उसके पाँव!" बोले वो,
"हाँ जी, बड़े मजबूत पाँव हैं, घोड़े की तरह!" बोले अहमद साहब!
घोड़े की तरह! मजबूत!
"एक मिनट!" कहा मैंने,
और देखा आसपास,
"यहना आओ शर्मा जी!" बोला मैं,
वे आये दौड़े दौड़े!
"ये देखो!" कहा मैंने,
उन्होंने गौर से देखा!
एक पाँव और दूसरे पाँव के बीच में, एक मीटर का फांसला होगा!
"लम्बी-चौड़ी औरत है!" बोले वो,
"हाँ, और देखो!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"निशान, यहां तक आये, बस, फिर गायब?" बोला मैं,
"अरे हाँ?" बोले वो,
"अब या तो वो उड़ गयी! या हवा में तैर गयी!" कहा मैंने,
"एक ही बात है!" बोले वो,
अब तक, अहमद साहब, फ़िरोज़ और शम्सू भी आ गए थे वहां, उड़ने की बात सुनी, तो ऊपर देखने लगे वे तीनों!
वो निशान, वहां तक आकर गायब हो गए थे, इसका मतलब, वो यहां आई थी, निशान फिर से जाँचे गए, और उनकी साफ़ छाप देखकर, पता चला, कि ये ताज़ा ही हैं, चूंकि पिछली रात बारिश हुई थी, उसमे ये निशान खराब हो जाते, अब इसका अर्थ ये हुआ, कि ये निशान, गीली रेत पर ही बने होंगे, और इसका मतलब निकला, करीब सुबह पांच बजे के बाद! और अब बज रहे थे दस! इसका मतलब, हम पांच घंटे की दूरी पर थे उस से! अब तो आया जोश! शर्मा जी भी भर उठे जोश में, लेकिन वो तीनों, अब ख़ौफ़ज़दा हो चले थे! उनका ख़ौफ़ज़दा होना लाजमी भी था! कोई किसी को कितना ही समझा लें, बहला ले, लेकिन इंसानी फ़ितरत में पैबस्त ये ख़ौफ़ हटता नहीं! मैं तो बस मुँहज़बानी उनको समझा सकता था, इसके सिवाय और कुछ नहीं कर सकता था!
"अब क्या करना है?" पूछा फ़िरोज़ ने,
"इंतज़ार!" बोला मैं,
"उसका?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मैंने,
"वो आएगी दुबारा?" पूछा उन्होंने,
"उम्मीद तो यही है!" कहा मैंने,
मैंने कहा और उनके पाँव धंसे जैसे ज़मीन में!
"कुछ होगा तो नहीं?" पूछा शम्सू ने,
"नहीं, यक़ीन रखो!" कहा मैंने,
उन्होंने फौरन ही, दरूद-शरीफ़ आय'त पढ़ी!
उन्होंने पढ़ी, तो मैंने भी पढ़ी! ये बहुत काम की आय'त है! डर लगा रहा हो, तबीयत खराब हो, तिजारत में नुक़सान हो रहा हो, दिमाग़ में अमन न हो, तो ये आय'त फौरन ही मदद-ओ-इमदाद करती है! लेकिन इस आय'त को पढ़ने से पहले, निहायत ही साफ़-सफाई से रहना पड़ता है!
खैर,
"आओ वहां बैठते हैं!" बोले अहमद साहब,
"हाँ, वो जगह बेहतर है!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले शर्मा जी,
और हम चल पड़े उस जगह के लिए, छांवदार जगह थी वो, नरम मुलायम घास, हरियाली ही हरियाली चारों तरफ! और मिट्टी भी साफ़! लग जाए तो झाड़ दो, एक निशान भी नहीं!
"यहां बैठो!" बोले फ़िरोज़!
"हाँ जी!" का मैंने,
और हम सब, टिक गए वहां! बैठ गए! अहमद साहब ने पानी दिया हमें, और हमने पानी पिया!
"गाँव में इसे बदकार-शय कहते हैं!" बोले अहमद साहब,
"हाँ, और दूर रहते हैं इस से!" बोले वो,
"देखो ये, ये पहनते हैं लोग यहां!" बोला शम्सू,
उसने ताबीज़ दिखाया था, जिसमे जरुज पत्थर था!
"बचाव होता है इस से?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"देखो, यहां जंगल ही जंगल हैं!" बोले अहमद साहब,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब ऐसे में वो कहाँ हो?" बोले वो,
"माना! लेकिन कर लेते हैं इंतज़ार!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और बढ़ा दी पान की डिबिया मेरी तरफ, मैंने उठा लिया एक बीड़ा और रख लिया मुंह में!
"लो शर्मा जी!" बोले वो,
"ज़रूर!" बोले शर्मा जी,
उठा लिया बीड़ा और सरका दिया मुंह में!
हमें करीब हो गए दो घंटे, शर्मा जी, लेट गए थे, फ़िरोज़ साहब, सर के नीचे कोहनी लगाये, सो गए थे, अहमद साहब और शम्सू, बातें कर रहे थे! मैं भी सो गया फिर!
कोई एक घंटा सोया था मैं! शर्मा जी अभी तक खर्रांटे बजा रहे थे! शम्सू, अपने चापड़ से, घास काट रहा था, थोड़ी थोड़ी, वक़्त को धक्का दे रहा था! फ़िरोज़ साहब अभी तक सोये थे, अहमद साहब, एक पेड़ की टेक लगाये, सामने देख रहे थे!
"कुछ आया नज़र शम्सू?" पूछा मैंने,
"क्क्च!" जीभ की आवाज़ करते हुए, सर न में हिलाया उसने!
"शर्मा जी? ओ शर्मा जी?" मैंने उन्हें हिलाते हुए कहा,
"ह?" वे चौंके, आसपास देखा,
"उठो?" कहा मैंने,
उठे धीरे धीरे!
"पानी है?" बोले वो,
"शम्सू?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"झोले में से पानी देना ज़रा?" बोला मैं,
वो उठा, गया झोले तक, और ले आया पानी! दिया मुझे!
"ये लो!" दिया पानी मैंने,
उन्होंने जम्हाई पूरी की अपनी, और फिर पानी पिया, ये एक कैन था, पानी लाये थे इसमें अहमद साहब! उन्होंने पी लिया पानी, तो मुझे दिया, मैंने भी पिया!
कैन रख दिया मैंने एक तरफ,
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ" बोले वो,
"रात को आएं?" बोला मैं,
"आ जाओ!" बोले वो,
"अहमद साहब से पूछो?" कहा मैंने,
शर्मा जी ने आवाज़ दी उन्हें, इस से फ़िरोज़ भी जाग गए! शम्सू बीड़ी सुलगा रहा था!
आये अहमद साहब, बैठ गए,
"सुनो अहमद साहब?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोले वो,
"रात को आना होगा यहां!" कहा उन्होंने,
"रात को?" बोले चौंक कर, फ़िरोज़ साहब!
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"यहां जानवर होंगें!" बोले फ़िरोज़!
अपने डर को, जानवर नाम दे दिया था उन्होंने!
"डर लगा रहा है?" बोले शर्मा जी,
"अब देखो जी, लगता तो है ही!" बोले वो,
अब शम्सू भी आ बैठा था! बीड़ी ले आया था शर्मा जी के लिए, दे दी थी बीड़ी-माचिस!
"आओगे?" बोले शर्मा जी,
"आ जाएंगे!" बोले वो,
"डर हो, तो रहने दो!" बोले वो,
"जब आप हो, आलिम साहब हैं, तो फिर कैसा डर?" बोले वो,
"तो ठीक है!" बोले वो,
"शम्सू? हूँ?" पूछा,
"हाँ हाँ!" बोला वो,
तो बात हो गयी तय! अब रात को आते, आराम से, खाना खाने के बाद!
"तो चलो फिर!" बोले शर्मा जी,
"चलो!" बोले अहमद साहब,
और हम चलने को हुए,
जैसे ही चलने को हुए, एक आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा!
"श्ह्ह्ह्ह्ह!" कहा मैंने,
जो जहां था, वहीँ ठहर गया!
कान लगा दिए सभी ने!
आवाज़, जंगल में से, पश्चिम दिशा से आ रही थी! आवाज़, जैसे, कोई औरत हंस रही हो! किसी से बातें कर, हंस रही हो!
"ये तो वो ही लग रही है!" बोले अहमद साहब!
"यहीं रुको!" बोला मैं,
"हम तो हिलें भी नहीं!" फुसफुसाए फ़िरोज़!
"शम्सू?" बोले अहमद साहब,
"हाँ?" बोला वो,
"श्ह्ह्ह्ह्ह! धीरे बोल!" बोले वो,
"हाँ?" अब धीरे से बोला वो,
"इधर आ?" बोले वो,
वो आ गया!
"यहीं रुक!" बोले वो,
एक तेज आवाज़ गूंजी! तेज हंसी! परिंदे उड़ चले उस आवाज़ से!
"या...........!" बोले फ़िरोज़!
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"चलो!" कहा उन्होंने,
और हम चल पड़े उस तरफ, जहां से आवाज़ आ रही थी!
"मेरे साथ ही रहना!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोले वो,
"चलते रहो!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने!
