"चलो" कहा मैंने,
और हम चले! जितना आगे बढ़ें, तालाब, उतना ही दूर हो! "रुको! पीछे हटो!" कहा मैंने, हम हटे पीछे, उठायी मिट्टी, पढ़ी, और फेंकी, अब कोई तालाब नहीं! "ये क्या?" बोले वो, "माया का खेल!" कहा मैंने, "तो क्या यहां हर चीज़माया है?" बोले वो, "शायद!" कहा मैंने, हैरत में पड़ गए वो, "वो देखना?" बोले वो, "ये क्या है?" बोला मैं,
और चले वहाँ, अब कोई कुआं नहीं! मिट्टी का ढेर! "यहां से निकलो अभी!" कहा मैंने,
और हम वापिस हुए, एक पत्थर के पास आ खड़े हुए! हम हो गए थे एक पत्थर के पास खड़े, सामने जहां पिंडियां थीं, वहां तो माया अपने रूप में बुलंदी पर थी, पता नहीं, वो पिडियां भी असली थीं या नहीं? पेड़ हरे-भरे थे, पहला केले का पेड़ मैंने यहीं देखा था, अन्यथा, इतने स्थान पर हो आये थे, कहीं नहीं देखा था! "वो देखना?" बोले वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "वो, उधर?" बोले ऊँगली के इशारे से, मैंने देखा वहाँ, कोई पेड़ के पीछे छिपा था! उसका बस एक कंधा दीख रहा था, "आना ज़रा?" कहा मैंने,
हम एक तरफ से चलते गए, तो वो एक लाश थी, कमर से ऊपर का हिस्सा था, पेड़ से लटका था, आंतें ज़मीन तक बिखरी थीं उसकी! "ये तो कटा हुआ है?" बोले वो, "हाँ, आधा" कहा मैंने, "वो देखो, वहाँ भी!" बोले वो, "अरे हाँ!" कहा मैंने, कम से कम पचास ऐसे ही कटी हुई लाशें थीं वहाँ! "उधर जाओ!" आई आवाज़! हर तरफ देखा, कोई भी नहीं! कमाल की बात थी! "चलो उधर!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वहाँ से, यहां तो एक मैदान था, उसमे जगह जगह गड्ढे हुए पड़े थे! जगह जगह! दूर दूर तक! मैंने एक लकड़ी ली, और एक गड्ढे तक गया, उसमे लकड़ी डाली, और दबाया, तो फच्च से खून का फव्वारा फूटा! वहाँ लाशें दबाई थीं! कैसा भयानक दृश्य था! हर तरफ गड्ढे ही गड्ढे! सभी में लाशें! फुरफुरी छूट जाए! साधारण तो गिर ही जाए वहाँ! ठंडी सी हवा चली! लेकिन एक बात, बदबू नहीं थी वहां! इसी काल-खंड को पिरो दिया था बाबा खंज ने अपने तिलिस्म में! इसी तिलिस्म में, एक एक पात्र अपना किरदार निभा रहा था! "ठहरो?" आई आवाज़! सामने से ही, एक कद्दावर सा बाबा खड़ा था, कोई पचास बरस का! मालाएं धारण की थीं, मनकों वाले भुजबंध थे! क्रूर और गुस्सैल लगा रहा था वो, उसके केशों में मिट्टीजमी थी, "कौन है तू? तेरी कैसे हिम्मत हुई?" गर्राया वो!
"मेरी छोड़! तू कौन है?" कहा मैंने, "मुझे नहीं जानता?" बोले वो, "नहीं जानता!" कहा मैंने, "मैं जस्सा हूँ, इस खताल का मालिक हूँ मैं!" बोला वो, "होगा, होगा कभी! अब नहीं!" कहा मैंने, अब उसने गाली-गलौज की, तो मैंने भी की! वो बैठ गया वहाँ पर, की आँखें बंद!
और कुछ ही पलों में, औरतों की आवाजें आने लगी चारों तरफ! ये मनुष्य नहीं थीं, न ही प्रेत! ये कुछ और था! कोई महासिद्धि! "शर्मा जी?" बोला मैं, "जी?" बोले वो, "आप बैठो"कहा मैंने,
और मैंने वो अस्थि-दंड निकाल लिया! काला धुंआ उठा! भक्क काला! स्पष्ट था, ये कोई सिद्धि ही थी! वहां, रूपवान, बारह स्त्रियां प्रकट हुई! मैं उनको देख, समझ गया कि वो,
द्वादश-शाकंडी हैं! अत्यंत क्रूर, और महातामसिक! मानव रक्त और मानव मांस के लिए सदैव लालायित! इसकी इतनी हिम्मत?
ये दवादश-शाकंडी प्रकट करे? अब देख औघड़ का क्रोध! मैंने तोड़ी एक जटा, पढ़ा मंत्र,
और थाप दे, प्रकट किया अहिराक्ष!
उसका अट्टहास हआ! जस्सा की ऑखें खुलीं!
द्वादश-शाकंडी, चिपकी एक दूसरे से! अहिराक्ष का नाम लिया मैंने, 'जय हो, जय हो' बोलते हुए, मैं नाच उठा!
और भूमि पर, भम्म की आवाज़ हुई! सब हिले! सब के सब!
और द्वादश-शाकंडी, लोप! अहिराक्ष भी लोप! खड़ा हुआ जस्सा! "तू है कौन?"बोला वो, मैंने परिचय दिया अपना! "क्या चाहता है?"बोला वो, "बाबा खंज से मिलना!" कहा मैंने, "तेरे बस में नहीं!" कहा उसने, "दिन्ना मुक्त हुआ!" कहा मैंने, "क्या?" बोला वो, "हाँ जस्सा!" कहा मैंने,
आया मेरे पास, मुझे देखा! बैठा, और अपने गले से एक माल निकाला, अस्थि-माल! "आ! आ बेटा आ!" बोला वो, मैं झुक गया, उसने, मेरे गले में वो माल पहना दिया, खड़ा हआ, आंसू निकले उसके, और लगा लिया मुझे गले से! "मैं दिन्ना का बड़ा भाई हूँ बेटे!" बोल बो,
ओह! अब समझा! "आ! इधर आ! वो देखा, वो पेड़ है न?" बोला वो, "हाँ?" कहा मैंने, "बेटे, वहाँ जा, निकाल खतखेड़ी! और ये, अस्थि-दंड, टिका दे!" बोला वो, "जाता हूँ!" कहा मैंने, "और सुन?" बोला वो, "जाना नहीं ऐसे!" बोला और धुंआ हुआ! जाना नहीं ऐसे? मतलब? पता नहीं क्या था वो! "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, और हम चले, पहुंचे वहाँ, वो पेड़, बहुत पुराना था, पिलखन का पेड़ था, सैंची लिपटी थीं उस से! "क्या बोले, खतखेड़ी?" बोले शर्मा जी, "हाँ!" कहा मैंने, "वो क्या है?" बोले वो, "अस्थि-दंड का पात्र!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले वो. "हाँ, लेकिन यहां कहाँ?" बोला मैं, "यहां तो कुछ नहीं?" कहा उन्होंने, "एक मिनट! पिलखन! पिलखन का मूलभूत गुण!" कहा मैंने, "क्या मतलब?" बोले वो, "पिलखन श्राप ग्रस्त है!" कहा मैंने, "नहीं समझा!" बोले वो, "फोड़े हैं उसको!" कहा मैंने,
और पत्ता तोड़ा उसका, दिखाया उन्हें! "लेकिन यहां तो कुछ नहीं?" बोले वो, "है!" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, "नीचे!" कहा मैंने, "नीचे?" बोले वो, "हाँ! देखो!" कहा मैंने,
और तब मित्रगण! आपुद्ध विद्या का संधान किया मैंने! माँ बगुलामुखी का स्मरण किया, और वो अस्थि दंड, काहिलोकेश्वर के रूप में छुआ दिया! मिट्टी तो जैसे फट पड़ी!
और उसी पल,नज़र आया एक वस्त्र! "इसे खींचो!" कहा मैंने, उन्होंने खींचा, और!
और निकला एक पात्र! स्वर्ण का, सूतल जैसा, कोई एक फुट बड़ा! "निकाल लो इसे!" कहा मैंने,
और निकाल लिया! रखा नीचे, स्वर्ण से बना वो पात्र, बेहद सुंदर था! उसकी कील में., मैंने वो अस्थि-दंड, टिका दिया! चीख-पुकार सी मच गयी एकदम!
और ठीक सामने मिटटी के गड्ढों के पार, नज़र आया कुछ, धुंध सी जम गयी थी वहाँ! माहौल सर्द और भयावह सा हो चला था! सन्नाटा सा पसर गया था, एक भी
आवाज़ नहीं आ रही थी! हम आगे बढ़े, "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, "चलिए"बोले वो,
और हम चल दिए आगे, बस हमारे जूतों की आवाज़ आ रही थी,
या फिर मेरे बैग में रखे सामान की आवाज़! जो नज़र आया था, वो एक चबूतरा था, गोल बना हुआ था, उसके ऊपर नौ पिंडियां बनी थीं, "नौ!" कहा मैंने, "हाँ हैं तो नौ ही" बोले वो, "और ये विशेष सी बनी लगती हैं" कहा मैंने, "हाँ, नीचे देखिये, थड़ी सी भी बनी है" बोले वो, "हाँ, थड़ी है" कहा मैंने, "कहीं ये बाबा खंज के परिवार वालों की तो नहीं?" बोले वो, "हो सकता है" कहा मैंने,
और तभी उन पिण्डियों में से, धुआं सा उठा, हम पीछे हट गया, सुरक्षित रहने के लिए, यहां वैसे ही सबकुछ अप्रत्याशित था! कभी कुछ और कभी कुछ!
और एक पिंडी उनमे से, हिली, वो झुक गयी, और गिर गयी नीचे, धुआं बंद, मैं आगे बढ़ा, उस पिंडी को देखा, उठाया, पत्थर से बनी थी, और फिर मैंने उस जगह को देखा, जहां से ये पिंडी गिरी थी निकल कर, वहां कुछ था, कुछ न कुछ तो अवश्य, मैंने हाथ बढ़ाया, और उसमे हाथ डाला, एक थैली सी हाथ में आई, उठाया उसको, और खोला, इसमें तो भस्म थी, किसी की चिता की राख! मैंने बंद कर, वहीं रख दी, "निकालो उसे!" आई आवाज़, ये बाबा दरम् थे! पीठे खड़े हए, मैंने पीछे देखा, वे आ रहे थे, "निकाल लो" बोले वो, मैंने निकाल ली,
आये पास मेरे,और एक एक पिंडी पर हाथ रख, उन्होंने सभी के नाम गिना दिए!
"ये अलिया, ये राजो, ये जस्सा, ये दिन्ना, ये चंदगी, ये बाबा भैराल, ये रूदी, ये रज्जू
और ये मैं!" बोले वो, मैं सन्न रह गया! शर्मा जी भी अवाक रह गए! "और नरसिंह?" पछा मैंने, "राजो के डेरे पर!" बोले वो, क्या क्या छिपा था वहाँ! "और ये जो तुम्हारे हाथ में है, ये है अलिया!" बोले वो, "और बाबा खंज?" पूछा मैंने, "उनकी भस्म कहीं नहीं! उनकी भस्म में ही तो ये तिलिस्म है! ये सब रचा था बाबा खंज ने!" कहा उन्होंने! दिमाग में हथौड़े बज उठे! "बाबा? आप यहां नहीं थे, ठीक, लेकिन फिर आप यहां कैसे?" पूछा मैंने, "मैंने स्व-दाह किया था। मैं जानबूझकर, इस तिलिस्म का मोहरा बना! कि कभी न कभी, कोई तो आएगा, इसे भेदने को!" बोले वो, लेकिन अभी भी, कुछ प्रश्न बाकी थे! "सुनो, ये अंतिम चरण है! ये बहुत भयावह होने वाला है! तैयार रहो और हाँ, अब राजो को जगाओ, उधर देखो, वहाँ!" बोले वो,
और झपक से लोप! मैं खड़ा खड़ा सोचता ही रह गया! राजो को जगाऊँ? किसलिए?
खैर, जगाता हूँ, और मैंने वो पिंडी, राजो की हटा ली, और निकाल ली भस्म की थैली! "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, और थैली पकड़ा दी उन्हें! मैं आ गया उधर, जहां भेजा गया था! बहुत खूबसूरत जगह थी, हरियाली ही हरियाली! पेड़, पौधे, लताएँ!
एक जगह बैठ गए हम,
और कुछ लकड़ियाँ इकट्ठी की हमने, फिर आरम्भ की क्रिया, भस्म रख ही दी थी निकाल कर, कोई बीस मिनट बीते, कि कोई प्रकट हुआ! एक, दो, तीन, चार! चार स्त्रियां प्रकट हुईं, उनमे से एक विशेष थी, यही थी राजो! साढ़े छह फ़ीट की रही होगी वो, सुगठित देह थी उसकी, नग्न थी, गौर वर्ण था, गले में मालाएं धारण किये हुए थी! कमरे में कमर-माल, पांवों में, माल, भुजाओं में भुज-बंध! कोई परम शक्तिशाली साधिका प्रतीत होती थी! न जाने क्यों, मेरे हाथ
जुड़ गए उसे देखकर, सर झुका दिया, एक अलग सा ही भाव उत्पन्न हो गया था! वो चली आगे, वे दूसरी स्त्रियां वहीं खड़ी रहीं, अब हम भी खड़े हो गए, अब हुए आमने-सामने, चंदन लपेटा था बदन पर, सुगंध आ रही थी, "ये खताल है न?" पूछा उसने, "हाँ!" कहा मैंने,
"और बाबा भैराल?" पूछा उन्होंने, "पता नहीं" कहा मैंने, "पता करो?" बोली वो, "कैसे?" कहा मैंने,
"दरमू से पूछो?" बोली वो, "वे बता देंगे?" कहा मैंने, "हाँ, बता देंगे!" बोली वो, "राजो?" आई आवाज़!
और राजो भागी किसी की तरफ! ये दरमू बाबा थे! राजो ने जाते ही चरण-स्पर्श किया उन्हें! अब मैं चौंका! ये क्या हुआ? ये हो क्या रहा है? ये मुझे बड़ा अटपटा सा लगा, उस समय! मैं और शर्मा जी हैरान थे! अब आये बाबा दरम् हमारे पास, मेरे कंधे पर रखा हाथ, मुस्कुराये! "सेगुड! चल! अब देर न कर! कर दे भंग! मैं बहुत प्रसन्न हूँ तुझ से!" बोले वो, मैं असमंजस में पड़ा था! "ये, राजो! यही न? ये मेरे रिश्ते में है! और सुन सेगुड! न मैं इस डेरे का हूँ, न उस डेरे
का, मेरा डेरा कहीं और था!" बोले वो, "कौन सा रिश्ता?" कहा मैंने, "बाबा भैराल! भैराल से है मेरा रिश्ता!" बोले वो, "कैसा रिश्ता?" पूछा मैंने, वे मस्कराये, मेरे कंधे पर हाथ रखा, "भैराल मेरे काका के बेटे हैं, बड़े!" बोले वो, अच्छा! तो ये है रिश्ता, करीब का रिश्ता था! "अब क्या करना है मुझे?" पूछा मैंने, "दिन्ना की भस्म उठाओ, उसे बुलाओ!" कहा उन्होंने! "एक प्रश्न और!" कहा मैंने, "क्या जैसल भी इसी तिलिस्म में कैद है?" पूछा मैंने,
"नहीं! वो तो जा चुकी!" बोले वो, "तो दिन्ना कहाँ गया है?" पूछा मैंने, "उसको ढूंढने!" बोले वो, "और जब न मिलेगी तो?" पूछा मैंने, "वही होगा! बाबा भैराल की खताल पर कोहराम मचायेगा वो!" बोले बाबा! अब समझा! कैसे दिन्ना कहर बरपाएगा! कैसे कहर टूटेगा! "उसे बुलाओ! उसे कैद करो!" बोले वो, "कैद करो?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "किसलिए?" पूछा मैंने, "तभी तो इस तिलिस्म का आखिरी मोहरा हाथ आएगा!" बोले वो, "बाबा खंज!" कहा मैंने, "हाँ! बाबा खंज!" कहा उन्होंने! पीछे लौटे,मझे देखा, और फिर सभी लोप! रह गए हम वहां, ठगे से! बिन घोड़े, चाबुक उठाये! "चलो, जल्दी करो!" बोले शर्मा जी, "हाँ!" कहा मैंने,
और फिर गया पिण्डियों तक, उखाड़ी एक, और निकाली भस्म! हुआ वापिस, उसी जगह, और की आरम्भ फिर से क्रिया! इस बार दिन्ना को बुलाना था, हाज़िर करना था! मैंने चलाये मंत्र, और क्रिया में जुटा! कोई दस मिनट में ही, वहाँ करीब दस लोग प्रकट हुए, दिन्ना भी उन्हीं में था, वो सारा सामान उठाये! "क्यों बुलाया है?" बोला वो, "जैसल मिली?" पूछा मैंने, चौंक पड़ा वो! "तुम कैसे जानते हो उसे?" पूछा उसने,
"मैं सब जानता हूँ अब!" कहा मैंने, "किसने बताया?" पूछा उसने, "बाबा दरम्ने!" कहा मैंने, वो आगे आया अब, क्रोध में भड़क गया था, न जाने क्यों! मैं भी खड़ा हुआ तब! चला आगे, हुआ आमने सामने! "मुझे जैसल को ढूंढना है, मुझे जाने दो!" बोला वो, "अब जैसल कहीं नहीं!" कहा मैंने, उसने हाथ बढ़ाया गुस्से से आगे, मेरी गरदन पकड़ने को, लेकिन मेरे तंत्राभूषणों के प्रभाव से, हटा लिया पीछे हाथ! "दिन्ना! तेरी वजह से सब बांह गए! तू भी! अब देर न कर! खुल जाने
दे!" बोला मैं, "मुझे जैसल चाहिए, नहीं तो किसी को बख्शेंगा नहीं!" बोला क्रोध से! "जैसल नहीं मिलेगी तुझे दिन्ना अब! वो छूट चुकी!" कहा मैंने, "ऐसा नहीं हो सकता!" बोला वो, "ऐसा ही है!" कहा मैंने, "तू जानता है मैं कौन हूँ?" बोला गरज के, "जानता हूँ! तुझे मारा गया बाबा भैराल के इशारे पर!" कहा मैंने, "नाम न लो उस * ** भैराल का!" चीख के बोला वो, "क्या हुआ था?" पूछा मैंने, "वो * * * * * चंदगी! कलंक!" बोला वो, "बताओ तो सही?" कहा मैंने, "मैं जा रहा हूँ, जाने दो मुझे!" बोला वो, "तू समझ नहीं रहा कि मैं क्या कह रहा हूँ?" बोला मैं, "हट जा मेरे सामने से!" बोला वो, "नहीं तो क्या करेगा दिन्ना?" पूछा मैंने, "तू अंजाम देखेगा?" बोला वो, "हाँ!" कहा मैंने, "तो देख फिर!" बोला वो,
औ शर्मा जी उठे हवा में! अपने हाथों से अपना गला पकड़े!
मैं भागा उनकी तरफ! वो मारे ठडे खड़ा खड़ा! मैंने तुरंत ही एवांग-कलिका पढ़ी, और स्पर्श किया, वे नीचे गिरे!
गहरी साँसें ली, गले पर निशान पड़ गए थे! मैंने तभी अपना भुज-बंध खोला, और थमा दिया उनके हाथों में,
और अब मुड़ा उसकी तरफ, वो गौर से देख रहा था मुझे! और अब आया मुझे क्रोध! मैंने उठायी भस्म! पढ़ी कुवल-तात्रिका!
और फेंक दी भूमि पर! एक बड़े से घेरे में, आग लग उठी! उनके चारों और वे भाग कर बीच में हए! अब न लोप हो सकते थे, और न कोई वार ही कर सकते थे! होश उड़ गए सभी के! तब मैंने त्रिशालिका का स्मरण कर, फेंक दी भस्म उस घेरे में!
वे सिकुड़े, आग का वो घेरा सिकुड़ा और झम्म से कैद! मैं लौटा पीछे, शर्मा जी खड़े हो गए थे, "कैसे हो?" मैं उनके निशान देखते हुए बोला, "ठीक हूँ" बोले वो, "आओ!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, "रुक! रुक!" बोले दरम् बाबा!
आ रहे थे धीरे धीरे! मुस्कुराये, मुझे देखते हुए!
किसी ने नहीं जगाया था उन्हें आज तक!
"उनके जागते ही, ये तिलिस्म, ख़त्म हो जाएगा!" बोले वो,
"और उन्हें ये पता चला कि दिन्ना को कैद किया है मैंने तो?" पूछा मैंने, "जागते ही, सब जान चुके होंगे वो!" बोले वो, "तब?" कहा मैंने, "घबराओ नहीं! जाओ!" बोले वो, "जाता हूँ बाबा!" कहा मैंने, "जाओ! मैं देख रहा हूँ!" कहा उन्होंने,
अब कुछ राहत मिली! चलो, बाबा दरमू का साथ मिला! वो मुड़े पीछे, और झट से लोप हुए! । मैंने अपने गले में पहना वो धागा, पकड़ के देखा, गुरु-नमन किया, गुरु-स्मरण किया, और चल पड़ा उस टीले की ओर! जैसे ही टीले पर चढ़ने को हुआ, रोने के स्वर गूंजे! वो पूरा स्थान गूंज उठा सीत्कारों से! चीखों से! भागते-दौड़ते इंसानों के कदमों की
आवाज़ से! "ये क्या हो रहा है?" बोले शर्मा जी, "पता नहीं, शायद सभी मौजूद हैं यहां!" कहा मैंने, बड़ी ही तेज तेज चीखें गूंज रही थी वहाँ, चारों ओर! "आओ, चढ़ो!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और हम चढ़ पढ़े, करीब दस मीटर ऊंचा था वो, बड़ी मुश्किल से चढ़े हम, झाड़ियाँ पकड़ पकड़! ऊपर आये, तो एक चबूतरा बना था, गोले, बीच में एक गड्ढा था, छत अब नहीं बची थी उसकी! स्तम्भ अवश्य ही थे उसके शेष! "ये है बाबा खंज का चबूतरा!" कहा मैंने, और प्रणाम किया उन्हें! माथा लगाया उनके चबूतरे से! "हाँ, ये हैं आखिरी मोहरा!" बोले वो, और शर्मा जी ने भी वैसा ही किया! "सामान लाओ!" कहा मैंने, "ये लो" बोले वो, मैंने कुछ सामान उस चबूतरे के गड्ढे में रखा,
और फिर एक जगह जाकर बैठ गया! अब एक घेरा खींचा, और बिठा दिया उसके बीच उन्हें, उन्हें हिलना भी नहीं था! बस देखना था! यदि बाहर निकलते, तो फेंक दिए जाते दूर!
और फिर किया मैंने मंत्रोचार! शराब की बोतल निकाली, उस से एक त्रिभुज खींचा! मिट्टी गंदी उस से,और तीन गेंद बनायीं,मंत्र पढ़ा, रख दी तीनों गेंद एक एक कोने पर! अब श्री वपधारक को नमन किया! जपे मंत्र! और आरम्भ की क्रिया! शराब के तीन कुल्ले किये! शराब पी, सुप्त विद्या जागृत हुईं!
और कोई एक घंटे के बाद! वहाँ ताप बढ़ा! टीला हिला! वे तीनों गेंदें हिली! मैंने सँभाली! कोहरा सा छाया! मैं खड़ा हो गया!
और उस कोहरे में से, एक भीमकाय बाबा प्रकट हए!
और तभी, तभी उस स्थान पर, दूधिया सा प्रकाश नीचे ज़मीन पर फ़ैल गया! सारे स्थान पर! तिलिस्म,भेदा जा चुका था! सफेद दाढ़ी! पेट तक, रुक्ष सफेद केश! गले में मालाएं ही मालाएं! कानों में कुंडल! भुज-बंध, कलाई बंध! अस्थि ही अस्थियां! कद करीब सात फ़ीट, वजन कम से कम डेढ़ सौ किलो के आसपास तो होगा ही! आज कोई देख ले, तो गश खा जाए देखते ही उन्हें! छाती के सफेद बाल, लाल रंगे हए थे! भस्म मल रखी थी उन्होंने, माथे पर, त्रिपुण्ड रचा था माथे पर!! सुनहरा सा प्रकाश उनके माथे से निकल रहा था!
जैसे कोई दिव्य मंडल घूम रहा हो उनके सर के चारों ओर!
और एक बड़ा सा त्रिशूल! शायद मैं तो उठा भी न पाऊँ उसे! मैंने सर झुकाया, "प्रणाम बाबा!" कहा मैंने, कुछ न बोले वो, एकटक, मुझे ही देखते रहे! "प्रणाम बाबा!" कहा मैंने, "कौन हो तुम?"भारी सी आवाज़ में पूछा उन्होंने, मैंने सारा परिचय दे दिया उन्हें अपना! हाथ जोड़े, सब बताता रहा! "किसलिए आये हो?" पूछा उन्होंने, मैंने वो सब भी बता दिया! "तो ये सब तुमने भेदा? दरमू के कहने पर?" बोले वो, "जी बाबा!" कहा मैंने, "जानते हुए भी, कि ये मैंने रचा था?" पूछा उन्होंने, "वहाँ सैंकड़ों मासूम आज भी तड़प रहे हैं बाबा! अपनी मुक्ति के लिए!" कहा मैंने, "दिन्ना को कैद किया?" पूछा उन्होंने, "हाँ बाबा!" कहा मैंने, "जानते हुए भी कि वो मेरा पुत्र है?" बोले वो, "हाँ बाबा!" कहा मैंने, "तो तुम दंड के भागी हो!" बोले वो, "नहीं बाबा! कैसा दंड?" पूछा मैंने, "तुमने सोहिता भंग की!" बोले वो, "करनी ही पड़ी!" कहा मैंने, "इसीलिए दंड के भागी हो!" बोले वो, अब मैं घबराया! इस प्रकरण में पहली बार मैं घबराया! कैसा दंड? कौन सा दंड मिलेगा मुझे?
क्या आज प्राण यहीं उड़ जाएंगे? मेरे संग, वे शर्मा जी भी? पसीने भी नहीं टपके भय के आगे! "मैंने कोई सौहिता भंग नहीं की बाबा!" कहा मैंने, "की है!" कहा उन्होंने! "क्षमा कीजियेगा बाबा! कैसे की है मैंने?" पूछ मैंने, "तुमने, प्रेत-दाह किया! तुमने कैद किया दिन्ना को!" कहा उन्होंने, "तो ये सोहिता-भंग की मैंने? क्या स्व-रक्षण नहीं करता मैं?" पूछा मैंने, "यहाँ कौन आया?"बोले वो, "जी मैं" कहा मैंने, "युग बदल जाते हैं, परन्तु सोहिता नहीं!" बोले वो, "क्षमा कीजिये बाबा! आपने इस तिलिस्म को रचा! सभी को कैद कर दिया! तड़पते रहने के लिए! क्या ये सोहिता का उल्लंघन नहीं है?" पूछा मैंने, "नहीं! ये मेरी इच्छा पर निर्भर करता है!" बोले वो, "तो जैसी मेरी इच्छा थी, मैंने किया!" कहा मैंने, "बहुत बढ़ लिए आगे तुम! अब अंत!" बोले वो, "ठीक है बाबा! जानता हूँ, एक पोखर, सागर से बैर नहीं ले सकता! परन्तु, मुझे जो न्यायसंगत लगा, मैंने किया! और करुंगा भी! आप तय कीजिये मेरा दंड! मुझे भी मेरे गुरु श्री की आन है, अंतिम श्वास तक, रक्षण करूंगा अपना!" कहा मैंने, "बस!" बोले वो,
और त्रिशूल पर, बजायीं अपनी उँगलियों की अंगूठियां! मेरा जैसे बदन हल्का हआ नीचे से! जैसे मेरे पांवों की जान निकली हो! मेरे हाथ सूजने लगे! और नाखूनों से रक्त बहने लगा! मैंने लिया गुरु श्री का नाम, मंत्र पढ़ा और थूका नीचे! उसी क्षण, मैं सामान्य हो गया! उन्होंने फिर से देखा मुझे! मेरी आँखों के समक्ष अँधेरा छाने लगा, प्रत्येक वस्तु, चार चार दिखने लगी!
मैंने फिर से गुरु श्री का नाम लिया, और थूका! मैं फिर से ठीक! बाबा ने फिर से मुझे देखा, थोड़ा मुड़े, पाँव की हल्की सी थाप दी,
और मैं चला पीछे की ओर उड़ता हुआ! फिर से नाम पुकारा गुरु श्री का, और मंत्र पढ़ा, जैसे ही फट्ट कहा, सामान्य हो गया! कूद पड़ा था मैं, कोई डेढ़ फ़ीट से नीचे!
आ गया फिर से वहीं! अब बाबा रुके! थोड़ा सा आगे आये! मैंने धाणक चला दिया था तब तक! बाबा ने थाप दी,
और मेरे सामने की सारी मिट्टी, कंकड़, पत्थर, झाड़ियाँ, सब मेरी ओर चल पड़े! धाणक ने छितरा दिए सब वे! कोई इधर, कोई उधर! वे मुस्कुराये! और थोड़ा आगे हुए! त्रिशूल दूसरे हाथ में लिया! "तुमने रेभक को धाणक से काटा! हम प्रशंसा करते हैं तुम्हारी, ये तुम्हारे उच्चारण
की कला है!" बोले वो, मैंने हाथ जोड़ लिए! "जाओ! लौट जाओ!" बोले वो, "नहीं बाबा!" कहा मैंने, "क्यों?" पूछा उन्होंने, "इन सबकी मुक्ति आवश्यक है!" कहा मैंने, "जीवित नहीं रहना चाहते?" पूछा उन्होंने, "यदि न भी रहूँ, तो भी पथ से भटकूगा नहीं!" कहा मैंने, "जाओ! मूर्ख न बनो!" बोले वो, "नहीं बाबा!" कहा उन्होंने,
और अगले ही क्षण, उन्होंने कुछ पढ़ा, और देखिये
जिन जिन को मैंने कैद किया था, वे सब वहाँ प्रकट हो गए थे! सभी बाबा खंज को देख हैरान! मझे देख हैरान! दिन्ना तो जा लेटा था पांवों में उनके! बाबा ने फिर से नेत्र बंद किये और ज़ोर से 'फू' की, वे सब लोप! एक साथ सभी के सभी! बाबा ने उनको कैद से छुड़ा, अपना सामर्थ्य दिखा दिया था, साथ के साथ, मुझे समझा भी दिया था,
और चेतावनी भी दे डाली थी! और अगले ही पल बाबा ने गुस्से से, कुछ बोलते हुए, ज़मीन पर दी थाप! हम तो उछल गए! पीछे जा पड़े! शर्मा जी भी घेरे से बाहर आ गए! अब बनी प्राणों पर! "जाते हो या नहीं?" बोले वो, "नहीं!" कहा मैंने, उन्होंने हाथ ऊपर किया, मुट्ठी बंद कर, मैंने तभी शर्मा जी का हाथ पकड़ा, और शाकंटा नामक आसुरिक विद्या का संधान कर लिया!
जैसे ही बाबा ने हाथ आगे किया, आग का बड़ा सा बवंडर चला हमें लीलने! हमसे टकराया, लेकिन गुजर गया, हमें बिना आहत किये!
ये देख, बाबा कुछ पल को हैरान रह गए! "ये कौन सी विद्या है?" पूछा उन्होंने, "शाकंटा बाबा!" कहा मैंने, "शाकम्भ!" बोले वो,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने, हम खड़े हो गए थे, दोनों ही हाथ जोड़े। बाबा ने फिर से देखा हमें, त्रिशूल को पटका ज़मीन पर, और मेरे तंत्राभूषण,
एक एक कर,खुलते चले गए! वो बाबा दरम्वाला माल भी! अब जैसे मैं निहत्था हो चला था सहसा कुछ याद आया! बाबा डार! मैंने पत्थर लिया,
और बाबा डार को स्मरण किया! खींची एक रेखा, ज़मीन पर, जैसे ही खींची, उसमे से चिंगारियां फूट चलीं! बाबा खंज भी देखते रहे उसे! अब जोड़े हाथ मैंने, और खोले नेत्र अपने, शरीर पर पांच जगह शूपण किया! अब मैं तैयार था! यही रेखा, मेरे तंत्राभूषण थे अब! "वैवर्त साधा है?" पूछा उन्होंने, "नहीं बाबा! अभी आयु नहीं उतनी!" कहा मैंने, "जानता हूँ!" बोले वो, "मान जाइए बाबा, विनती करता हूँ आपसे!" कहा मैंने, "इसका कोई औचित्य शेष नहीं!" बोले वो, "मैं आपसे दवन्द नहीं लड़ सकता! क्षमा करें!" कहा मैंने, "मैं तो लड़ रहा हूँ! मुझे पराजित करो! और ऐच्छिक कार्य पूर्ण कर लो!" बोले मुस्कुराते हुए! "क्षमा! मैं नहीं लड़ सकता!" बोला मैं,
और तभी थाप दे भूमि को, मेरे सामने के मिट्टी फट पड़ी! गड्ढा हो गया उसमे! और निकले कीट-पतंग बाहर! बिच्छू-कातर और न जाने क्या क्या! मैंने तभी एक लकड़ी उठायी, और मंत्र पढ़, एक घेरा खींच दिया उस से! वो कीड़े-मकौड़े जैसे ही टकराये उस रेखा से, वापिस गड्ढे में जा पड़ें! विहकाल मंत्र से ऐसा हो रहा था! विहकाल मंत्र, श्मशान में, मात्र एक रात में, एक घंटे में सिद्ध हो जाता है, एक बलि द्वारा सेवित है, इसको चलाते समय, सिद्ध होने पर, आरम्भ का एक अक्षर
और अंत का एक अक्षर, पढ़ना होता है, मंत्र जागृत हो जाता है,
और अब कोई भी कीड़ा-मकौड़ा आपको नहीं काटेगा! तो वे कीड़े-मकौड़े, अब वापिस गड्ढे में गिर रहे थे! वे गिर गए, और गड्ढा धसक गया! भप्प से मिट्टी उडी, और मुझे खांसी उठी!
और अगले ही पल, बाबा लोप हो गए! ये क्या? कहाँ गए? मैंने तभी दुहित्र मन्त्र से नेत्र पोषित किये, नेत्र खोले, तो कोई नहीं! खड़ा हुआ, तो चबूतरे पर सामान नहीं वो! मैं झुका, और जहाँ बाबा खड़े थे, वहां की मिट्टी ली हाथ में,
और अब खम्भर मंत्र जपा, इस मंत्र से आपके मस्तिष्क में एक दर्पण सा खुल जाता है,
और आपको ऐच्छिक वस्तु या व्यक्ति दीख पड़ता है! लेकिन! इस बार ऐसा नहीं हआ! मुझे मात्र बादल ही दिखे!
नीले आकाश में, सफ़ेद सफ़ेद बादल! मैं वापिस जा बैठा, और तभी वो टीला डगमगाया! जैसे के तरफ को ढह जाएगा, पत्थर, लुढ़कने लगे थे उसके, पौधे उखड़ने लगे थे उस तरफ के, मैं उठा, शर्मा जी को उठाया, बैग पकड़ा, और लिए हम भाग! जिस रास्ते से आये थे, वहाँ अब आग सुलग रही थी, रास्ता बदला, और उन पौधों के बीच से हम भाग लिए नीचे की तरफ! आये नीचे, टीले एक तरफ झुक गया था!
और फिर पड़ा शांत! मैंने बैग रखा, वहां का तो भूगोल ही बदल चुका था!
जो खंडहर जहां था, वो वहाँ नहीं था अब! जैसे स्थान बदल लिया था उसने तभी मेरी बायीं तरफ एक सुनहरा प्रकाश कौंधा! बाबा फिर से प्रकट हुए, बैठे हुए, एक आसन पर! हाथों में मालाएं थीं, वे अब ऊपर कर ली थी!
और तभी मेरे कानों में, यूप-वेला की ध्वनि गूंजी! किसी महा-विद्या की चपेट में आ चुके थे हम!
भड़ाम! भड़ाम! हम दोनों ही गिर पड़े,
और फिर उठे हवा में, फिर से गिरे। कमर में पत्थर चुभ गए! बड़ा दर्द हुआ! और तब तक मैंने, करुक्षा का जाप कर लिया था! थूका! कुछ न हुआ!
हम फिर से उठे, फिर से भूमि से टकराये! मेरी, एवंतिका, कालेषी, द्वपमंडा, इलुक्षिका विद्याएँ न चलीं। हम प्रीति पर पड़े थे, उठे तो उठा न जाए! तब मुझे, महागण का स्मरण हुआ, और पढ़ दिया मत्र चीख चीख कर! बाबा की महा-विद्या कट गयी तभी के तभी! हमारी हालत ऐसी हो गयी, जैसे कोई श्वान कीचड़ में नहा के आया हो! बाबा ने फिर से पैशाचिक विद्या का प्रयोग किया, मैंने हरवबंदिका से भेदा उसे! बाबा ने त्रिकता-शोषि का प्रयोग किया, मैंने लोहण्डी से भेदा उसे! बौमिक्सा विद्या टकराई हमसे,
और हमने पछाड़ खायी! मैंने मिट्टी उठायी, घुटनों पर बैठा,
और उरुमहेश मंत्र से काटा उसको बाबा फिर से लोप! मैं चारों तरफ देखू उन्हें! शर्मा जी का हाथ न छोडूं!
और तब! तब एक महा-भयानक अट्टहास गूंजा! अब अँधेरा होने को था, दीखे कुछ साफ़ नहीं, अब बहुत बड़ी मुश्किल थी!
और तभी, शून्य में से एक महाभट्ट प्रकट हुआ! ये सिद्धि-बल था बाबा का! खोल दिया था पिटारा उन्होंने!
उसकी मंशा मैं जान गया था! मैंने अहिराक्ष का ध्यान किया, मंत्र लड़ाया,
और जैसे ही वो महाभट्ट दौड़ा हमारी तरफ, खड्ग ले, उसकी खड्ग के टुकड़े-टुकड़े हो गए!
वो कभी किधर दिखे, कभी किधर! कभी ऊपर,
और कभी नीचे! अहिराक्ष महा-आसुरिक वीर है! कैसा भी महाभट्ट योद्धा हो, पछाड़ कर ही दम लेता है, और यहां भी ऐसा ही हुआ था! अहिराक्ष ने उसका मान और बल, खंडित कर दिए थे! वो लौट गया था, और अहिराक्ष भी! अब मुझे कुछ तसल्ली हुई! मैं जानता था कि बाबा खेल
खिला रहे हैं! परख रहे हैं। और ये परख ही वास्तविक द्वन्द है! अभी तो शक्ति-परीक्षण था, इसके बाद न जाने और क्या क्या हो! हम एक वृक्ष ने नीचे खड़े थे, और वहीं से सबकुछ देख भी रहे थे। तभी दो महाभालिनि प्रकट हुईं! साक्षात काल रूपा! लम्बी जीभ लटकाये हुए, हाथों में तलवार लिए, मुंड-माल लिए! टांगें चौड़ा कर, बढ़ी आ रही थीं हमारी तरफ! मैं तभी झुका, और शर्मा जी को पीछे किया, इनसे तो मैं भी निबट सकता था, ये तिमिर से सृजित होती हैं। इनका अस्तित्व क्षणिक होता है! मैंने मिट्टी ली, पढ़ी,माँ कालरात्रि का स्मरण किया, भवभूति-विद्या से पोषित किया उसे, और बढ़ गया आगे! दोनों ही चिल्लाई, और मैंने फेंकी मिट्टी! मिट्टी पड़ते ही, धुंआ हो गयीं!
और मैं हुआ पीछे फिर, भन्न से बाबा फिर से प्रकट हुए। इस बार दो सहायक औघड़ भी ये संग उनके! वे दोनों सहायक औघड़, आ रहे थे मेरे पास! मैं भी चला उनके पास, मिला बीच में ही, "क्या चाहते हो?" एक बोला, "बाबा जानते हैं!" कहा मैंने,
"वो सम्भव नहीं!" बोला वो ही, "तो कह दो बाबा को, मुझे दंड दें! मैं तैयार हूँ!" कहा मैंने, "मूर्ख न बनो?" बोला वो, "ये मूर्खता है, तो मैं मूर्ख भला!" कहा मैंने, "क्यों व्यर्थ में प्राण खोते हो?" बोला वो, "इस के विषय में मैं ही जानूँ! आदरणीय!" कहा मैंने, वो हंस पड़े दोनों! "तुम्हें कोई क्षति हो, इस से हमें कोई लाभ नहीं!" बोला वो, "हानि या लाभ, वो, ऊपर, वो देखता है, मुझे तो, जिस राह पर चल रहा हूँ, वही दिख रही है!" कहा मैंने, "इतना हठ उचित नहीं!" बोला वो, "हठ नहीं है, बस कर्तव्य है!" कहा मैंने, "ये कैसा कर्तव्य है भला?" पूछा उसने, "ये भी मैं ही जान!" कहा मैंने, "वो देखो!" बोला वो, और भूमि फट पड़ी! अथाह धन-दौलत आ गयी बाहर! सोना ही सोना! बहुमूल्य रत्न ही रत्न! इतना, कि आँखें फ़टी रह जाएँ। इतना स्वर्ण, कि पंद्रह पुश्त भी न निबटा पाएं। जहां तक देखो, वहाँ तक! अकूत धन-दौलत! जैसे साक्षात कुबेरराज का स्वर्ण! उनका ही स्वर्ण-कोष! "लो! आगे बढ़ो! ले जाओ! सारा तुम्हारा! अक्षत भी होगा ये!" बोला वो, अक्षत! जो समाप्त ही न हो! मैं हल्का सा हंसा!
देखा उसे! "आदरणीय! क्या इसका मोल, उस शिशु से अधिक है, जो लाशों पर बैठ, एक कटे हाथ को चबा रहा था, किलकारियाँ मारते हुए? नहीं! ये तो मिट्टी का एक कण भी नहीं!" कहा मैंने, अब बोलते नहीं बना किसी पर! "धन! अक्षत! तनिक सोचो!" बोला एक, "नहीं आदरणीय!" कहा मैंने, "नहीं?" बोला वो, "नहीं!" कहा मैंने, उसने भूमि को देखा,
और भूमि वापिस पट गयी! दफन हो गया वो धन! "सुनो! सिद्धियां! वो देखो!" बोले वो, तो सामने ही कुछ दूरी पर, एक अत्यंत ही रूपवान सुंदरी खड़ी थी! बेहद सुंदर! "ये श्रुतमालिनि है! जानते हो?" बोला वो, "हाँ, जानता हूँ! मुझे वाक-सिद्धि प्राप्त होगी!" कहा मैंने, "हाँ! सत्य!" कहा मैंने, "और वो! सुताहिषी! जानते हो?" बोला वो, "हाँ! मुझे फिर देख के लिए किसी मंत्र की आवश्यकता नहीं! अच्च-दृष्टि!" कहा मैंने, "हाँ! सत्य!" बोला वो, मैं हंस पड़ा! कैसा लालच! सिद्धियों का लालच! प्रदत्त शक्तियां! "वो देखो! कामनयनि! जानते हो?" बोले वो, "हाँ आदरणीय! जानता हूँ, काम में कोई मानव-स्त्री मुझे स्खलित नहीं कर पाएगी!
परमोच्च सुंदरी भी क्षुब्ध ही रहेगी!" कहा मैंने, "हाँ! इस से नए सोपान चढ़ोगे!" बोले वो, "हाँ! जानता हूँ!" कहा मैंने, "और ये! तरुकिशा! वरण कर लो इन सभी का! हम तुम्हें आशीष देते हैं!" बोला वो, तरुकिशा, सिद्धि-मार्ग को प्रशस्त करने वाली! सदैव सहायिका के रूप में संग रहने वाली! कोई दैहिक कष्ट नहीं होगा! ऐसा अतुलनीय लालच! कोई आराम से फंस जाता! ले लेता इनको, धन को, और 'सुधार' लेता जीवन! चैन से जीवन-यापन होता! सिद्धियों के सोपान चढ़ता! लेकिन नहीं! नहीं! जीते जी मौत है ये तो! वो भी अपमानजनक मौत! भीख! माना बहुमूल्य भीख है! लेकिन ये तो नहीं सिखाया था मुझे मेरे गुरु श्री ने? मेरी तो गरदन ही उड़ा देंगे श्री श्री श्री बिना भेरी के!
और जब प्रेत बनूंगा! तब क्या हाल होगा? मैं तो डर गया सोच कर ही! "बोलो?" पूछा उसने! "नहीं आदरणीय! नहीं!" कहा मैंने, "महामूर्ख मनुष्य!" बोलते हुए हंसा वो!
और वे सुन्दरियां लोप हो गयी!
"तो पूर्ण हुआ जीवन!" बोला वो, "ऐसा ही सही!" कहा मैंने, वे दोनों लोप हुए, और बाबा खंज के पास प्रकट हुए! कुछ वार्तालाप हुआ, और फिर तीनों ही लोप! अब कोई महा-आपदा टूटेगी इसका मुझे संज्ञान था, अतः में तैयार था, अपने गुरु श्री का नमन कर, मैं आगे बढ़ने वाला था, पीछे हटने का अब कोई सवाल ही शेष नहीं बचा था! हाँ, बाबा दरमू का कोई पता नहीं था, अबकी तो वो आये भी न था! अँधेरा छा गया था, और तभी सामने प्रकाश कौंधा! आँखें चुंधिया गयीं हमारी, लेकिन उस प्रकाश में, मैंने और शर्मा जी ने, उस स्थान पर, हज़ारो लोगों को देखा, और उन सबसे आगे खड़े थे बाबा खंज! हम, उन हज़ारों लोगों से घिरे खड़े थे, कोई स्थान रिक्त न था! मैंने तब रौमिला-महाविद्या का संधान किया, और जैसे ही वो मिट्टी भूमि पर मारी फेंक कर! कुछ न हुआ! मेरी विद्या चली ही नहीं! उसके बाद, एवांग, अभ्प, केवाची, नरभरी, प्रेत-दाह आदि विद्याएँ भी निरस्त हो चली! प्रभावहीन! अब मैं जान गया था, की बाबा खंज ने, मुझे ही उन विद्याओं सहित, स्तम्भित कर डाला है! मन में भय उठा, और तब, तब वे हज़ारों लोप हुए, और बाबा खंज, प्रकट हुए हमारे सामने! मुस्कुराते हुए! उनकी मुस्कुराहट देख, जीवन की एक आस जगी! पर मन में भय ऐसे व्याप्त था, की वो आस भी फीकी और झूठी ही लगे! अब बाबा ने मेरा इतिहास खंगाल डाला, बाबा अजराल, नौमना, बाबा डार आदि आदि के विषय में, सब बता डाला, मैने उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था, ये भी बता डाला! "तो साधक! पुत्र! मैं कौन होता हूँ तुम्हारा अहित करने वाला! तुम्हें दंड देने वाला!" बोले वो, मेरी तो जान निकलते निकलते बची! सीने में घुटी सांस जैसे आगे चल पड़ी!
आँखों ने सब देखा, और जल बहने लगा! मैंने पोंछा भी नहीं! पोंछता, तो अपमान हो जाता उसका! मैं और शर्मा जी, भाग कर उनके पास पहुंचे,
और जा लेटे उनके पांवों में, लेटे रहे! और तब, उन्होंने उठाया, और लगा लिया अपने चौड़े सीने से! "दरमू?" बोले वो,
और दरमू प्रकट हुए! हम हटे, बाबा दरमूको देखा, बाबा दरमू हाथ जोड़े खड़े थे, आये आगे, और बाबा के चरण छू लिए! "दरम्! तुम्हारा बलिदान व्यर्थ जाना ही नहीं था! इसीलिए, तुम्हें इस
तिलिस्म से मुक्त रखा गया था, जैसा तुमने इच्छा की थी! तिलिस्म भेदने की कुंजी, तुमने इस साधक को दी, और ये साधक, निःस्वार्थ आगे बढ़ता रहा, भयहीन हो कर, इसने अपने कर्तव्य-पथ पर चल कर, कर्तव्य का उदाहरण दिया! मैं प्रसन्न हूँ दरम्! बोलो क्या अपेक्षा है?" बोले वो, "बाबा! अब सभी को मुक्ति चाहिए! सभी यहां हैं, बस बाबा भैराल नहीं, इतिहास में जो है, सो हुआ, अब आगे बढ़ने का समय है, बाबा!" बोले वो, बाबा मुस्कुराये! थोड़ा आगे बढ़े,
और हुए खड़े, भूमि पर, पाँव का अंगूठा टिकाया, "अवश्य!" बोले बाबा खंज!
और तभी श्वेत सा प्रकाश फूटा! और वहाँ, उजाला व्याप्त हो गया! और उस उजाले में से, आग लगे हुए, एक आकृति दिखायी दी, बाबा ने अंगठे से थाप दी, तो आग बुझ गयी! कोई गिरा नीचे! "बाबा भैराल! उठो!" बोले बाबा दरम्!
और बाबा भैराल उठे! बाबा भैराल, काले केश वाले, आयु में छोटे लेकिन महाप्रबल साधक प्रतीत होते थे! वे उठे, हाथ जोड़े, और रो पड़े! आये बाबा खंज के पास, और पड़ गए पाँव उनके! बाबा खंज ने, लगा लिया गले! और तब, राजो के स्वर गूंजे! अलिया के स्वर गूंजे! वे सभी वहाँ प्रकट हुए!
बाबा भैराल दौड़ कर उन तक पहुंचे! चिपट गए सब!
मुझे बेहद प्रसन्नता हुई उन्हें देख कर, तब बाबा खंज ने, अपना त्रिशूल, ज़ोर से उठाकर, भूमि में गाड़ दिया! फूल ही फूल बिखरने लगे!
और हो गया वो तिलिस्म खत्म! वह, अब वे सभी प्रेत, देहधारी से बन गए थे! सभी के सभी, और दिन्ना, दिन्ना भी मुस्कुराते हुए, वहीं खड़ा था, सभी के सभी! सभी, जिन्हें मैंने देखा था, कैद किया था, वो छतर सिंह की भूमि वाले भी, सभी के अभी, सभी इस खताल पर आ जुटे थे, चंदगी, वो भी, मुझे बाबा दरम ने बताया था उसके बारे में, बस कोई नहीं था वहां, तो बस जैसल! वो आगे बढ़ चुकी थी, अब न जाने कहाँ, और किस रूप में होगी! "दरम्!" बोले बाबा खंज! बाबा आगे आये। झोले में से निकाला कुछ और लगा दिया हमारे माथे से, वो लगाया, और हमारी जान लौटी वापिस! स्फूर्ति लौट आई, ताज़गी लौट आई। ऊर्जा, जो व्यर्थ की थी, सभी लौट आई!
और वे, सभी, बाबा दरमू के अलावा, लोप हो गए! "आओ!" बोले वो,
और हम चल पड़े उनके पास! "धन्यवाद सहायक तुम्हारा!" बोले वो, गले से लगाकर, "कैसा धन्यवाद? बल्कि धन्यवाद तो आपका, जिसने मेरी ऐसी मदद की!" कहा
मैंने, "मदद की, लालच था!" बोले वो, "कैसा लालच?" पूछा मैंने, "बताता हूँ!" बोले वो,
और हमें बिठा लिया! हम बैठ लिए वहीं! उन्होंने उठायी मिट्टी, और धीरे धीरे निकालने लगे मुट्ठी से, "ये खताल है बाबा खंज की!" बोले वो, "जानता हूँ!" कहा मैंने, "बाबा खंज के पिता, बाबा सावणा, यहीं रहते थे, उन्होंने, यहां से तीस कोस दूर, समाधि ली थी!" बोले वो, "अच्छा बाबा!" कहा मैंने, "अब इस खताल का संचालन, बाबा खंज के हाथ में था" बोले वो, "जी बाबा" कहा मैंने, "बाबा खंज के एक ही पुत्र था, ये दिन्ना!" बोले वो, "अच्छा !" कहा मैंने, "दिन्ना को निपुण बनाना चाहते थे बाबा, लेकिन दिन्ना नौजवानी में भटक रहा था!" बोले वो, "भटक
मायने?" पूछा मैंने, "यही, कि बाबा खंज कि बात टाल जाता था!" कहा मैंने, "तो दिन्ना किया क्या करता था?" पूछा मैंने, "लोहड़ बंजारे से मित्रता थी उसकी! उसी के संग डूबा रहता!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "हाँ, लेकिन इस डेरे के लिए रसद या कुमुक, वही लाया करता था! अन्न आदि
आदि!" बोले वो, "अच्छा, कहाँ से?" पछा मैंने, "नीमड़े से!" बोले वो, "नीमड़ा?" कहा मैंने, अचरज से पूछा,
"हाँ, नीमड़े से! चंदगी से!" बोले वो, "अच्छा!!" कहा मैंने, "वहां, चंदगी के पुत्री जैसल से प्रेम-संबंध बन गए उसके!" बोले वो, "अच्छा !" कहा मैंने, "लेकिन बाबा को ये बात अँची नहीं, उन्होंने उसे दूर रहने को कहा, की पहले स्वयं
स्थापित हो जाए, तो विचार किया जाए!" बोले वो, "वो तो है ही!" कहा मैंने, "न माना!" बोले वो, "गलत किया!" कहा मैंने, वे चुप हुए, कुछ देर, "यहां से, बीस कोस पर, मेरा डेरा है! मेरा नाम धर्म है!" बोले वो, "अच्छा , धर्म से दरम्!" कहा मैंने, "हाँ, बाबा खंज यही पुकारते थे!" बोले वो, "अच्छा बाबा!" कहा मैंने, "उसको, बहुत समझाया की वो बाबा खंज कि बात पर तवज्जोह दे, लेकिन उसने कभ नहीं दी, हाँ एक बात और, बाबा भैराल की पुत्री अलिया भी प्रेम करती थी दिन्ना से! अटूट प्रेम! जैसल से उम में छोटी थी, लेकिन थी बहुत सुंदर!" कहा उन्होंने, "दिन्ना का बाबा भैराल का क्या रिश्ता?" पूछा मैंने, "बाबा भैराल और बाबा खंज, दोनों के ही गुरु थे बाबा सावणा, बाबा भैराल के पिता
और बाबा खंज के पिता, एक ही महागुरु बाबा रिद्धमा के परम शिष्य थे!" बोले वो, "ये तो बहुत पुराना संबंध है!" कहा मैंने, "हाँ! बहुत पुराना!" बोले वो, "तो ऐसा क्या हुआ था बाबा जो ऐसी भयांका मारकाट मची?" पूछा मैंने, "हुआ था, हुआ था कुछ ऐसा ही!" बोले वो, "क्या बाबा?" पूछ मैंने, "राजो, चंदगी की छोटी बहन थी, और जैसल उस चंदगी की पुत्री! जैसल, अक्सर अपनी बुआ के पास आया जाया करती थी, और अलिया को ये पसंद नहीं था!" बोली
"लेकिन दिन्ना क्या करने जाया करता था वहाँ राजो के पास?" पूछा मैंने, "लावटा की पत्नी, दूर के रिश्ते में, बहन थी दिन्ना की, और लोहड़ बंजारे से लावटा अक्सर कुछ सामान लाया करता था उसके लिए, दिन्ना से भी उसके अच्छे संबंध थे, अच्छे भले ही न सही, लेकिन बुरे भी नहीं थे!" बोले वो, "फिर?" पूछा मैंने, "लावटा, बाबा भैराल का भाई?" पूछा मैंने, "हाँ, वही था, यूँ कहो की रक्षक उस राजो के डेरे का!" बोले वो, "समझ गया!" बोला मैं, "वो अगहन का माह था!" बोले वो, "अच्छा, क्या हुआ था?" पूछा मैंने, "मैं किसी कार्य से, बाहर था, दूर, दूर गया था बहुत!" बोले वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "उज्जैन" कहा उन्होंने, "फिर हुआ क्या था?" पूछा मैंने, "दिन्ना, उस रोज, मदिर से ले आया था जैसल को अपने यहां!" बोले वो, "ले आया था?" पूछा मैंने, "हाँ! ले आया था!" बोले वो, "गैर-रजामंदी?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोले वो, "फिर?" पूछा मैंने, "वो स्वेच्छा से आई थी!" बोले वो, "और बाबा खंज?" पूछा मैंने, "हाँ! बहुत समझाया उसे! और बाबा खंज ने ये भी कहा, की अगले माह, वे इस विषय में, स्वयं बाबा भैराल से सम्पर्क
करेंगे!" बोले वो, "फिर?" पूछा मैंने, "फिर! बाबा खंज के कहने पर, वो उसको ससम्मान वापिस छोड़ने गया!" बोले वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "नीमड़ा!" बोले वो,
T
"ओह!" कहा मैंने, "वो दिन, बहुत काला दिन था!" बोले वो, "कैसे?" पूछा मैंने, "दिन्ना जानता था, की चंदगी को ये बेहद नागवार गुजरेगा, और वो फटकार लगाएगा, चंदगी खतरनाक इंसान था, ज़रायम-पेशा लोगों से संबंध थे उसके! इसीलिए दिन्ना अपने साथ लोहड़ बंजारे को ले गया था! उसको देखकर, शायद चंदगी कुछ ढीला पड़ता!" बोले वो, "अच्छा! फिर?" पूछा मैंने, "वे वहाँ पहंचे, जैसल को वहाँ न पाकर, चंदगी ने हर जगह उसकी खोज खबर लगवायी थी, और जब दिन्ना वहाँ पहंचा, तो वहां, बाबा भैराल, लावटा, चंदगी और खंडू!" बोले वो, "इसका अर्थ, इन सभी को खबर कर दी थी चंदगी ने?" कहा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "फिर?" पूछा मैंने, "जैसल को भेज दिया उसकी माँ के पास, लेकिन वहाँ, तनाव हो गया! लोहड़ के साथियो ने, वहाँ समझाया, बुझाया लेकिन बात बिगड़ गयी! लोहड़ और लावटा भिड़ गए आपस में, और उधर खंडू और दिन्ना! तलवारों से तलवार भिड़ गयीं, लोहड़ ने अपने साथियों को भगाया वहाँ से, कि सभी को बुला लिया जाए, दो भाग निकले, और इस तरह इसका बीज पड़ा! लावटा ने, एक ही वार से लोहड़ का सर काट गिराया, और वहां, खंडू के पेट से तलवार आरपार कर दी दिन्ना ने, पत्र को आहत देख, बाबा भैराल के सर पर चंडी नाच गयी, विद्या प्रयोग कर, बाबा भैराल, सबकुछ जानते हुए भी, उस से भिड़ने की सोची, दिन्ना तलवारबाज था, वो लावटा और बाबा भैराल से आ भिड़ा, लावटा को गिरा दिया, लेकिन तब, बाबा भैराल ने, एक ही वार से, सर के दो टुकड़े कर दिया दिन्ना के, और फिर बाबा भैराल ने, उसकी गरदन काट दी, दिन्ना मर गया, और फूट गया ज्वाला-मुखी! अब सब जानते थे कि बाबा खंज क्या करेंगे! फूंक देंगे सभी को खड़े खड़े! उनका इकलौता पुत्र जो हलाक़ कर दिया गया था!" बोले
"ओह, बहुत बुरा हुआ!" कहा मैंने,
"हाँ, बहुत ही बुरा!" कहा उन्होंने, "फिर?" पूछा मैंने, "अब चंदगी के आदमी भी तैयार हो गए, चंदगी ने अपनी पत्नी, और जैसल के भाई को, जैसल को, निकाल दिया वहां से, और बुला लिए अपने और संगी-साथी! एक सेना खड़ी हो गयी!" बोले वो, "बाबा भैराल और चंदगी के आदमी!" कहा मैंने, "हाँ! और उधर, लोहड़ का बड़ा भाई, बाखड़ आ धमका! लेकिन सीधा बाबा खंज के पास! बाबा खंज को यक़ीन ही नहीं हुआ, वे चले गए, एकांत में, और जब आये, तो तमतमाये थे। बदला तो लेना ही था! दे दिया आदेश,और स्वयं, उस टीले पर जा बैठे!" बोले वो, "और यहां से उस नरसंहार की नींव पड़ी!" कहा मैंने, "हाँ! अब बाखड़ और बाबा खंज के योद्धा चल पड़े, चंदगी के यहां! लेकिन चंदगी वहां नहीं था, लेकिन इसी बीच, अलिया का जैसे मस्तिष्क जड़ हो गया, वो किसी न किसी तरह जा पहुंची इस खताल यहां, अंगज और दूसरे साथियों ने, उसके साथ हैवानियत का खेल, खेलकर, उस बेचारी को काट दिया, और सर काट कर, उधर, लटका दिया!" बोले वो, "हे भग**!" कहा मैंने, "बाखड़ की टोली में हज़ारों लोग थे, क्रूरतम! और चंदगी के पास भी! दिन के दो बजे से भयानक मारकाट मची, जो अगले दिन तक चली! क्या शिशु,
क्या किशोर, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या प्रसूता, क्या वृद्ध किसी को भी नहीं छोड़ा गया! हज़ाररों कटे, हज़ारों मरे! कोई गिनती नहीं!" बोले वो, 'दोनों ही तरफ से?" पूछा मैंने, "हाँ, बाखड़ की टोली बहुत बड़ी थी!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "लेकिन चंदगी की टोली में लहल नाम का एक बंजारा था, वो आन मिला शाम तक उनसे, उसने, इस खताल पर, ऐसा खून खेला, कि ये ज़मीन भी काँप गयी! किसी को नहीं छोड़ा गया!" कहा मैंने, "और बाबा खंज?" पूछा मैंने,
"वे ध्यान में ही थे!" बोले वो, "और लहुल?" पूछा मैंने, "लहुल लौटा राजो के डेरे पर, और फिर वहीं खेत रहा!" बोले वो, "और, डेढ़ दिन का नरसंहार!" कहा मैंने, "हाँ! पूरे डेढ़ दिन!" कहा उन्होंने, "तो फिर दिन्ना वहाँ कैसे रहा?" पूछा मैंने, "दिन्ना को कैद कर, महक्ष से बाँध दिया गया!" बोले वो, "ओह! तो बाबा खंज?" बोला मैं, "वो नहीं खोल सकते थे वो, ये अपने गुरु का अपमान होता!" बोले वो, "तो इसीलिए ये तिलिस्म रचा उन्होंने?" पूछा मैंने, "हाँ! यही कारण है!" बोले वो, "और बाबा?" कहा मैंने, "पूछो?" बोले वो, "वो नरसिंह?" पूछा मैंने, "नरसिंह! बेचारा, शिक्षण करने आया था यहां!" बोले वो, "ओह, बहुत बुरा हुआ!" कहा मैंने, "वो सर कटने के बाद भी लड़ता रहा!" बोले वो, "अच्छा! इसीलिए उस जुझारुका कपाल काम आया!" कहा मैंने, "बिलकल यही!" बोले वो, "बेचारा नरसिंह!" कहा मैंने, "सब खत्म हो गया!" बोले वो, "हाँ बाबा!" कहा मैंने, "दिन्ना की एक गलती से, सब खत्म!" कहा मैंने, "सच में!" कहा मैंने, "बहुत वक़्त गुजर गया सेगुड!" बोले वो, "हाँ, बहुत वक्त!" कहा मैंने, "अब ज़ख्म भरे हैं!" बोले वो, मैं चुप रहा,
फिर से मिट्टी उठाई,
और गिरा दी वहीं, फिर मेरी तरफ घूमे! "हाँ, बहुत वक़्त गुजर गया, काल के गर्भ में ये सब दबा रह गया!" कहा मैंने, "हाँ, यही बात है!" बोले वो, "और बाबा? ये भैराल बाबा?" पूछा मैंने, "हाँ, बाबा भैराल! उनका द्वन्द हुआ था बाबा खंज से!" बोले वो, "द्वन्द?" कहा मैंने, "हाँ भीषण द्वन्द!" बोले वो, "फिर?" पूछा मैंने,
द्वन्द की उसी रात्रि को, बाबा खंज ने, शरीर के कई सौ टुकड़े बना डाले थे बाबा भैराल के! और फिर उन्होंने, इन अहम किरदारों को सजा देने की सोची! अनंतकाल तक! क़द कर लिया सभी को, वे रोज जीते और रोज मरते! हाँ, बाबा भैराल को, और राजो को, चंदगी को, सदा के लिए कैद कर दिया उन्होंने!" बोले वो, "हाँ, यही हुआ था!" कहा मैंने, "बाबा खंज ने तुममे पूछा होगा, वैवर्त साधा?" बोले वो, "हाँ!! पूछा था!" कहा मैंने, "उन्होंने , तुम्हारा सामर्थ्य जांचा, और यही बताया कि तुम अब वैवर्त साधो!" कहा उन्होंने! "जी बाबा! अभी दो वर्ष हैं!" कहा मैंने, "अवश्य ही साधना!" बोले वो, "जी बाबा! परन्तु आप?" मैंने पूछा, "मैं! बताता हूँ!" बोले वो, खड़े हुए वो, हम भी खड़े हुए, "नरसिंह! मेरा पुत्र, मेरा सहारा! मेरा उत्तराधिकारी! मेरी वंश-बेल! वही था! मुझे प्रेम था उस से बहुत! मैं तीन दिवस बाद लौटा! और मुझे कुछ जिंदा लोग मिले, बहुत से भाग गए थे, पता नहीं कहा, और ये उचित भी था, लाशों के अम्बार लगे थे, मेरा नरसिंह कहाँ था, कभी पता न चला! उचित ही हुआ था, वो मुक्त हो चला था! मैंने
