वर्ष २०१३ कोटा राजस...
 
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वर्ष २०१३ कोटा राजस्थान के समीप की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मत थीं सभी की सभी! शर्मा जी आये मेरे पास, उन्होंने भी देखा कुँए में, "ये ऐसे क्यों चीखीं? क्यों कूद गयीं?" बोले वो, "लगता है, कोई है यहां!" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, "आओ ज़रा मेरे साथ" कहा मैंने, और हम चल पड़े आगे के लिए, एक टूटी दीवार थी वहां, हम उसको लांघ कर आगे चले, 

आगे गए, तो फिर से वैसी ही एक टूटी दीवार! ठीक वैसी ही, वैसे ही पेड़-पौधे! वैसा ही भू-दृश्य! उस दीवार को पार किया, तो फिर वैसा ही सबकुछ! "ये क्या भूलभुलैय्या है?" बोले वो, "रुको! अब आगे नहीं जाना!" कहा मैंने, 

और आसपास देखा, एक जगह बड़े से पत्थर पड़े थे, मई ऐसे ही एक पत्थर पर चढ़ गया, आसपास देखा, एक जगह दिखी, लेकिन वो आगे थी, उतरा नीचे, "आओ" कहा मैंने, 

और उनको लेकर चला मैं, फिर वैसा ही भू-दृश्य! वैसी ही दीवार! 

ये था तिलिस्म! बाबा खंज का तिलिस्म! छह दीवार पार करने के बाद, एक जगह आई,अब वहाँ कक्ष बने थे, बुर्जी बनी थी, एक जगह सीढ़ियां दिखाई दीं, "वहाँ चलो" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और हम चल पड़े ऊपर की तरफ, ऊपर आये, तो वहाँ का जंगल दिखा! 

और वहाँ से दायें पर, एक और वैसी ही इमारत दिखी, टूटी फूटी, "वहाँ देखना?" बोले वो, मैंने देखा वहां, "वो कोई कक्ष सा लगता है!" बोले वो. "आओ!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े उधर के लिए, पहंचे कक्ष में, तो वहाँ हमें सूखे हुए फूल पड़े हुए मिले! असंख्य और मिश्रित फूल! 

और कुछ नहीं था उस कक्ष में, शर्मा जी बाहर गए मुआयना करने, 

और मैं कमरे में तलाश करता रहा, चमगादड़ लटके थे छत की कड़ियों से, मकड़ियाँ और दूसरे कीड़े-मकौड़े, एश कर रहे थे! मौज आई हुई थी उनकी! "ज़रा बाहर आइये!" बोले वो, मैं चला बाहर, आया उनके पास, "वो क्या है?" पूछा उन्होंने, "कोई कुआँ सा लगता है!" कहा मैंने, "आओ देखें" बोले वो, "चलो!" कहा मैंने, 

और हम चले अब नीचे, चले कुँए की तरफ,और दो सीढ़ियां चढ़, झाँका कुएं में! "हैं? कुँए में सीढ़ी?" बोले वो, "कमाल है!" कहा मैंने, "हाँ, मैंने तो नहीं देखीं कभी!" बोले वो, "तो ये कुआँ नहीं है!" कहा मैंने, 

"तो?" बोले वो, "आओ, देखते हैं!" कहा मैंने, 

और हम अब उन सीढ़ियों पर चल, उतरे नीचे, कम से कम बीस फीट नीचे आये थे! वो जगह साफ़ सुथरी थी! जैसे रोज साफ़-सफाई होती हो वहां की! मिट्टी का नामोनिशान नहीं! "सुनो ध्यान से!" बोले शर्मा जी, मैंने सुना ध्यान से, 

ये मंत्र-ध्वनि थी! कोई मंत्रोच्चार कर रहा था! "हाँ! कोई है इधर!" कहा मैंने, 

और तब मैंने, दैहिक-रक्षा मंत्र पढ़, दोनों की देह को पोषित कर लिया! छोटे बैग में से भस्म अभिमंत्रित कर, चाट ली, मल ली माथे पर, गले पर, उस उक्षवाक-मंत्र से रक्षित हो गए हम! "ये आवाज़ पीछे से आ रही है!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम मुड़े पीछे, वहां कक्ष से बने थे, अँधेरा भी था, लेकिन एक कक्ष के भीतर से, प्रकाश आ रहा था! "यहीं है कोई!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े! मैंने अपना अस्थि-शुल ले लिया था हाथों में! जैसे ही पहंचे उस कक्ष के पास, मंत्र-ध्वनि बंद हो गयी! हम चले अंदर कक्ष में! और क्या देखा! एक साधक था, कोई साठ बरस का, सफेद दाढ़ी और केश, भीमकाय शरीर, तंत्र-मुद्रा में बैठा था और सामग्री आदि रखी थीं, भेरी के पास, चार कटे सर रखे थे, धड़ों को एक दूसरे के ऊपर रख दिया था! वो हुआ खड़ा! क्रोध में! 

"कौन है तू?" बोला वो, 

और मैंने परिचय दिया उसको! "किसलिए आया यहां?" बोला वो, "बाबा भैराल ने भेजा है!" कहा मैंने, "भै........?" नाम भी पूरा न ले सका! 'तू कौन है?" पूछा मैंने, "कम्मा! ठाडू कम्मा!" दहाड़ा वो! "राजो कहाँ है?" पूछा मैंने, "क्या करेगा?"बोला वो, 

और तभी, एक सर मारा फेक कर हम पर, उक्षवाक के प्रभाव से फट पड़ावो! "कम्मा, तेरा नाश कर दूंगा मैं!" कहा मैंने, 

और चला उसकी तरफ! किया अस्थि-शूल आगे, "रुक! रुक जा! रुक जा!" बोला वो, मैं रुक गया, लेकिन पीछे हुए, निकाली भस्म, कुछ चाटी, और कुछ हाथ में ले ली, "बोल कम्मा?" कहा मैंने, "यहां से डोढ़ी तरफ जाना, वहाँ कोरानी में जाना, रूदी मिलेगी!" बोला वो, 

और लोप हुआ! सबकुछ लोप हो गया! न कटे सर, न वो सामग्री, न अलख, न वो धड़! कुछ नहीं! बस अँधेरा ही अँधेरा! और कुछ नहीं, "निकलो यहां से!" कहा मैंने, 

और हम, टोर्च की सहायता से निकले वहाँ से बाहर, जब बाहर आये, तो पसीने के कारण पूरा भीग चले थे! "वहाँ चलो" कहा मैंने, "एक मिनट" बोले वो, 

जूता खोला एक,तो कंकड़ी थी उसमे, निकाली बाहर, पहना जूता और पिया फिर पानी, मैंने भी पिया, और हम चल पड़े। "किस से मिलना है?" बोले वो, "कोई रुदी हैं!" कहा मैंने, "अरे हाँ!" बोले वो, 

और जब आये आगे, तो बाएं मुड़े, तो सामने, एक खंडहर सा दिखा! वहीं जाना था हमें! 

और हम उस खंडहर में प्रवेश कर गए! खंडहर तो बहुत बढ़िया सा था! अपने चालू समय में, शानदार इमारत रही होगी वो! काफी बड़ा सा खंडहर था वो! "वो क्या है?" पूछा उन्होंने, "अजीब सा है!" कहा मैंने, वो पत्थर थे, कुल चौंसठ, एक ही आकार के, लेकिन कई पर, सीधी रेखाएं खुदी थीं, और किस पर आड़ी-तिरछी, किसी पर चिन्ह बना था और कोई बिना निशान का था! सभी एक ही आकार के थे, करीब दस दस इंच के! ढेर बनाये पड़े थे! अब कोई ऐसे क्यों रखेगा पत्थरों को? "ये क्या पहेली है?" बोले वो, "रुको, इन पत्थरों को उठाते हैं, और इन्हीं निशानों के साथ जोड़ते हैं!" कहा मैंने, "अच्छा, तो बीजक है!" बोले वो, "खंडित बीजक लगता है!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हमने फिर वो उठाये, उलटे पुलटे लगाये, फिर रेखाओं से रेखाएं जोड़ी, चिन्ह से चिन्ह मिलाये, जहाँ गलत जुड़े थे, वहां से ठीक किये, और फिर एक चित्र सा उभरा! लिखा कुछ नहीं था! वो चित्र भी ऐसा था, जैसे एक बड़े से वृत्त के अंदर, चार वृत्त 

और हों, और फिर उनके मध्य, एक चतुर्भुज था! "अब इसका क्या अर्थ है?" बोले वो, "कोई चिन्ह है!" कहा मैंने, "तो होगा क्या इस चिन्ह से?" पूछा उन्होंने, "बस याद कर लो!" कहा मैंने, 

11 

"ये पांच हैं या छह?" बोले वो, "पांच वृत्त हैं!" कहा मैंने, "ठीक है" बोले वो, 

और उन्होंने अपनी जेब से एक कागज़ निकाला, और बना लिया ये चित्र! और हम फिर चले अंदर की तरफ! चढ़े ऊपर, फूल खिले थे! ऐसा लगता था कि ये स्थान भी अभी जीवित है! कोई अभी भी रखवाली कर रहा है यहां! सामने एक बड़ा सा कक्ष बना था, उसकी चौखट ही करीब पंद्रह फ़ीट की रही होगी! आसपास मुआयना किया, तो एक जगह बड़ा ही अटपटा सा दृश्य दिखा! "आना ज़रा?" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो, "अरे?" बोले वो, "ये है कमाल!" कहा मैंने, वहाँ ज़मीन में, घड़े, मध्यम आकार के गड़े थे! उनका पेंदा ही दीख रहा था, और होंगे कम से कम दो सौ! कई कतारों में! "ये सब किसलिए?" बोले वो, "होगी कोई बात!" कहा मैंने, "कमाल है!" बोले वो, तभी कान में बजी घंटी! सर में जैसे बजा हथौड़ा! मैं गया एक घड़े के पास, शर्मा जी आये, मैंने साफ़ किया वो पैंदा, तो उस पर निशान मिला कुछ अलग सा! "अब समझे आप?" कहा मैंने, "नहीं तो?"बोले वो, "ये सभी ऐसी ही रखे हैं, इनमे एक ही है, जिस पर पांच वृत्त और बीच में एक चतुर्भुज बना होगा!" कहा मैंने, "इतने सारे? ये तो दो सौ या ढाई सौ हैं?" बोले वो, "अब करें क्या!" कहा मैंने, और मैं साफ़ करने लगा, 

शर्मा जी भी साफ़ करते जाते! कोई डेढ़ घटे के बाद, मैसे एक को जैसे ही साफ़ किया, वो वही था! वैसे ही निशान वाला! "मिल गया!" कहा मैंने, वो आये भागते भागते! बैठे और निकालने लगे उसे! अब निकले ही न! "क्या हुआ?" कहा मैंने, "ये तो जैसे चिन रखा है नीचे!" कहा मैंने, 

अब मैं बैठा, और लगाया ज़ोर, थोड़ा सा हिला! "और ज़ोर लगाओ!" कहा मैंने, "पूरा ज़ोर लगा रखा है!" बोले वो, 

और वो नहीं निकला बाहर! "रुको!" कहा मैंने, "फोड़ दें क्या?" बोले वो, "अरे नहीं!" कहा मैंने, "अपना रुमाल दिखाओ!" कहा मैंने, उन्होंने दिया, मैंने अपने रुमाल से बाँध दिया उनका रुमाल, 

और फिर एक लपेटा मारा, एक छोर उन्हें पकड़ाया और एक मैंने पकड़ा, लगाया जोर, और वो निकला बाहर! मुंह उसका ठीकरे से ढका था, मिट्टी से बनाया गया, सकोरे का ढक्कन था वो, बड़ा सा! लेकिन था बहुत मज़बूत! जैसे पत्थर से बनाया गया था! उठाया उसे, और ले चले एक तरफ! "फोड़ दो साले को!" बोले वो, "देखते हैं, खुल जाए तो ठीक, नहीं तो तोड़ ही दूंगा!" कहा मैंने, लिया चाकू, 

और उस ढक्कन को हटाने की कोशिश की, चूने से चिना था, और अब वो चूना पत्थर बन गया था! नहीं बनी बात! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो अब फोड़ डाला! उसमे से, एक पोटली निकली, काले रंग की, लोहे की बारीक तार से बनी थी और बंधी थी वो, "लोहे की तार?" बोले वो, "खोलते हैं" कहा मैंने, 

और अब उस तार को उतारा मैंने, कम से कम तीन फ़ीट तार थी वो! 

और फिर खोली पोटली! इसमें, एक कपाल, एक कटा हाथ, जिसकी उंगलियां भी कटी थीं, हाथ सड़ गया था, अब मात्र हड्डियां ही थीं, कहीं कहीं खाल चिपकी थी, दो ताम्बे के सिक्के और एक माला थी, स्फटिक से बनी माला! बस यही थे! "इसका क्या मतलब हुआ?" बोले वो, "लगता है कि एक सिरा मिला है!" कहा मैंने, "कैसा सिरा?" बोले वो, "कुछ हिस्सा!" कहा मैंने, "नहीं समझ आ रहा!" बोले वो, "आ जाएगा!" कहा मैंने "आओ, चलें" बोले वो, हम उठे,और वो पोटली, डाली बैग में, 

और उस बड़े से कक्ष के लिए चले, कक्ष अब नाम मात्र का ही बचा था! दीवारें थीं, और स्तम्भ थे, छत टूट गयी थी! पत्थर पड़े थे नीचे, अचानक ही कुछ दिखा, एक स्त्री लेटी थी वहां, उसका पृष्ठ भाग दीख रहा था बस, वो उन पत्थरों से दूर, आगे लेटी हुई थी, कुछ मिट्टी के बर्तन थे उधर, मैंने एक पत्थर लिया, और फेंका उस तरफ, पत्थर टकराया! 

तो वो हिली, किया हमारी तरफ चेहरा! सफेद खड़िया लपेटी थी उसने बदन पर! स्तनों पर, उसके स्तन थे, अर्थात वो शिकार न हुई थी! वो खड़ी हुई, 

आई हमारी तरफ! "कौन हो तुम?" पूछा उसने, "कम्मा ने भेजा है!" कहा मैंने, "मैं रुदी हूँ!" हंस कर बोली वो, "अच्छा! रूदी! तुम्हीं से मिलने को कहा था कम्मा ने!" कहा मैंने, "वो देखो!" बोली वो, एक खुली जगह थी! "मरघट है वो!" बोली वो, "जाओ वहाँ!" बोली वो, "सोपण ढूंढो!" बोली वो, 

और पलटी, फिर दीवार में से सामने पार हो गयी! "सोपण?" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने, "वो क्या होता है?" बोले वो, "अस्थियों से बना दण्ड!" कहा मैंने, "अब इतनी बड़ी जगह में कैसे ढूंढेंगे?" बोले वो, "आओ, बताता हूँ!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े उधर! वहा पहुंचे, और मैंने भस्म निकाली, अभिमंत्रित की, और फेंक दी सामने, मिट्टी उडी, 

और एक चीर बन गयी! एक क्यारी सी! "ये मरघट ही है!" कहा मैंने, "ठीक, लेकिन ढूंटें कहाँ?" बोले वो, आसपास देखा मैंने, 

दो चबूतरे थे वहां, एल तो मृत-शरीर को रखे जाने वाला, 

और एक, जहां लोग बैठा करते होंगे, दाह-संस्कार समय! "उधर आओ!" कहा मैंने, 

और हम, उस छोटे चबूतरे के पास गए, चढ़े उस पर, पत्थरों की पटियायों से बना था वो, लाल पत्थरों से बना हुआ! बेहद मज़बूत और अटूट सा! नीचे उतरा मैं, आसपास देखा, और फिर उस चबूतरे को देखा, चारों दीवार देखीं, कुछ नहीं मिला! फिर बड़ा चबूतरा देखा, उसका मुआयना किया, कुछ नहीं! फिर एक पत्थर लिया बड़ा सा, 

और छोटे चबूतरे पर मारा, कई जगह, कोई ध्वनि-परिवर्तन नहीं! फिर बड़े पर गए, तो दो जगह ध्वनि-परिवर्तन हुआ! एक जगह, एक पत्थर धंस सा गया था नीचे! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आँखें चमक उठी हमारी तो! मैं पत्थर बजाते बजाते थक गया था! पसीने छुट चले थे! "शर्मा जी, ये लो, यहां मारो!" कहा मैंने, 

और मैं पसीना पोंछने लगा अपना! शर्मा जी ने तीन चार बार पत्थर बजाया, और एक पटिया टूट गयी! "बस बस!" कहा मैंने, 

और अब नीचे बैठा, उसके टुकड़ों को फेंका नीचे, और वो बड़ा सा पत्थर सरकाया, जैसे ही सरकाया, वैसे ही उसमे एक पोटली दिखी! ठीक ऐसी ही! 

उठा लिया शर्मा जी ने उसको, और वहीं खोलने लगे, ये भी, लोहे के तार से बंधी थी, जब खोली, तो उसमे वही सामान था जो पहली में था! हाँ, इसमें हाथ दाया था, उसमे बायां था! "सोपण कहाँ है?" पूछा मैंने, "इसमें तो है नहीं?" बोले वो, तब मैंने उस जगह में झाँका, एक पत्थर और उठाया, टूटा हुआ, तो कपड़े में लिपटा हुआ कुछ रखा था, अब उठाया मैंने, और जैसे ही खोला,अवाक रह गया मैं तो! "वाह! क्या कारीगरी है!" बोले वो, अपने हाथ में लेते हए उसको! ये जांघ की अस्थि से बना था, जगह जगह, हड्डी के गोल-गोल टुकड़े फंसाये गए थे! ऊपर से और हड्डियां जोड़, जो के शायद टखने की थीं, उसकी मूठ बना ली गयी थी! आज भी ऐसा ही चमचमा रहा था वो, जैसे कि पहले कभी रहा होगा! "रख लो इनको भी!" कहा मैंने, उन्होंने बैग में रख लिया उनको, अब पानी पिया हमने, और मैंने आसपास देखा, बस खंडहर ही खंडहर! "अब अगला सूत्र कहाँ से मिलेगा?" बोले वो, "यहीं से कहीं!" कहा मैंने, "इसमें तो समय लग जाएगा?" बोले वो, "हाँ, लगेगा तो!" कहा मैंने, "आओ ज़रा!" कहा मैंने, कुछ याद आया था मुझे! हम उसकी कमरे में गए, लेकिन रुदी वहां नहीं थी, मैंने कई आवाजें दी, लेकिन न लौटी वो! तभी कक्ष के बाहर कुछ आवाज़ हुई, हम भागे बाहर! सामने देखा, तो दूर एक जगह, कुछ औरतें खड़ी थीं, गले लग रो रही 

थीं जैसे! 

"आओ!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और हम दौड़ पड़े वहां के लिए! उन औरतों ने हमको देखा, ठिठक गयीं जैसे! 

आ गए हम उनके पास! "कौन हो तुम?" कहा मैंने, कोई जवाब नहीं, भय खाएं! एक दूसरे से चिपकें! "डरो नहीं, मुझे रुदी ने भेजा है!" कहा मैंने, 

जब रूदी का नाम सुना, तो थोड़ा राहत ली उन्होंने, "अब कहाँ जाना है मुझे?" पूछा मैंने, कोई न बोले कुछ भी! "बताओ?" बोला मैं, न बोलीं कुछ, और भाग खड़ी हुईं, झाड़ियों के बीच, गायब हो गयीं! "अब क्या करें?" बोले वो, "आओ उधर" कहा मैंने, 

और जैसे ही हमने दीवार पार की, हज़ारों कपाल पड़े मिले! हज़ारों! जहां देखो वहीं! झुण्ड के झुण्ड! पांच पांच फ़ीट के ढेर बने थे वहां! "अरे बाप रे! सारे शहर को ही काट दिया क्या?" बोले वो, "ये दिखाया जा रहा है शर्मा जी!" कहा मैंने, "क्या मतलब?" बोले वो, "बताता हूँ!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम उनके ऊपर से ही चलते हए आगे बढ़ चले! जब आगे गए, तो एक चबूतरा मिला, उस पर इक्कीस कंकाल सजे थे, लाल रंग के, लेकिन अठारहवां नहीं था, आसपास गिरा भी नहीं था! तभी ध्यान आया "वो बैग से कपाल निकालो!" कहा मैंने, 

उन्होंने निकाला, और मैंने वो कपाल उस जगह पर रख दिया! जैसे ही रखा, तेज हवा चली! शुन्ध सी छायी! और अगले ही पल, सारे कपाल गायब! बस रह गया एक! "वहाँ चलो!" कहा मैंने, हम दौड़े वाहन के लिए, उठाया वो कपाल, तो उसके जबड़े की एक हड्डी नहीं थी, काटी गयी थी वो, "अरे! वो जो दरम ने दी थी, वो दो!" कहा मैंने, "अरे हाँ!" बोले वो, 

और वो हड्डी निकाल कर दे दी उन्होंने मुझे, मैंने उस हड्डी को उस जबड़े मेलगाया, तो बैठ गया आराम से! तभी झर्र की सी आवाज़ हुई हमारे पीछे, देखा तो कोई चला आ रहा था, 

और पहचान लिया उसको! ये दरमू बाबा थे! चले आ रहे थे! 

आ गए पास में हमारे, मेरे कंधे पर हाथ रखा, "लाओ, मुझे दे दो इसे!" बोले वो, "मैंने दे दिया उन्हें, उन्होंने उसे चूमा और अपने झोले में डाल लिया! "ये मेरे पुत्र का कपाल है!" बोले वो, "पुत्र का?" मैंने हैरत से पूछा, "हाँ, उन्नीस बरस का था वो!" बोले वो, "क्या नाम था?" पूछा मैंने, "नर सिंह!" बोले वो, "और हुआ क्या था?" पूछा मैंने, "बाबा भैराल के संग लड़ा था, मारा गया!" बोले वो! "और आप कहाँ थे?" पूछा मैंने, "मैं यहां होता, तो ऐसा होता ही नहीं!" कहा उन्होंने, "मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है बाबा!" कहा मैंने, "समझ जाओगे!" बोले वो, 

"अब क्या करना है?" पूछा मैंने, "नीमड़ा जाओ अब!" बोले वो, "और यहां?" पूछा मैंने, "कुछ नहीं बचा यहां!" बोले वो, "लेकिन नीमड़ा तो दूर है?" कहा मैंने, "नहीं, एक कोस से भी कम! इधर!" बोले वो, "वहाँ क्या करना है?" पूछा मैंने, "वहां तुम्हें रज्जू मिलेगी! वो बता देगी!" कहा उन्होंने, 

और लौट चले, जैसे ही धूप में आये, लोप हुए। "चलो जी!" कहा मैंने, "चलो!" बोले वो, 

और हम चल पड़े, बैग मैंने ले लिया था, हम चले अब नीमड़े के लिए! 

आज पता नहीं क्या नाम हो उसका! लेकिन पुराना नाम नीमड़ा ही था! एक कोस में, हम तीन बार रुके, 

और फिर हमें नज़र आये खंडहर! ज़मीन पर गिरे बड़े बड़े पत्थर! ऊंची ऊंची घास! एक कुआँ, एक चबूतरा, और कुछ पिडियां! आये एक जगह, रखा सामान, चलाया मंत्र! जैसे ही चलाया, कुछ आवाजें आयीं! कुछ खुसफुसाने की! जैसे आपस में बतिया रहे हों कोई! मैंने वहीं देखा, वो एक टूटा सा कक्ष था! 

"आओ शर्मा जी, वहाँ चलते हैं!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े उधर के लिए! हम उस कक्ष में अंदर आये, टूटा-फूटा कक्ष था, अँधेरा था बहुत, चीं-चीं की आवाजें आ रही थीं, टोर्च निकाली, तो वहां पर नेवले ही नेवले थे! अब उन्ही का बसेरा था वो! और कुछ नहीं था वहां! हम आये बाहर, जैसे ही आभर आये, रोने की तेज तेज आवाजें आयीं, हम भागे उस तरफ ही, सामने देखा तो ठिठके! एक पेड़ पर, दो लाशें लटकी थीं, जैसे फांसी दी हो उन्हें, खोपड़ी से सारा मांस उतर गया, चील-कौवे सब नोंच चुके थे उनको!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब बस कंकाल मात्र बचे थे! एक भी वस्त्र नहीं था उनके शरीर पर! लेकिन रोने वाला तो कोई नहीं था वहां! आवाज़ फिर से आई! "वहाँ है!" बोले वो, 

और हम भाग लिए! सामने गए तो रुके! वो दो लड़कियां थीं, नग्न, उनको ज़मीन में गाड़ा गया था जाँघों तक, 

और आसपास, जली हुई लकड़ियाँ थीं, जैसे उनके चारों और आग जला कर, उनको धीरे धीरे फूंका हो! फिलहाल में आग नहीं थी, उनके हाथ, उनकी कमर से, पीछे कर बाँध दिए गए थे, सामने बस, स्तन ही नज़र आ रहे थे, वे भी काले पड़े हुए थे! किसी ने बहुत निर्दयता दिखाई थी यहां! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, एक कसमसाई, जैसे बाहर आना चाहती हो! मैंने चाक लिया, और उसकी रस्सी काट दी, उसने दोनों हाथ आगे बढ़ाये, तो मैंने उसको खींचा बाहर, उसने भी कोशिश की, और निकाल लिया बाहर उसे, और जैसे ही निकाला, वो अटकी वहाँ, मैंने ध्यान से देखा, उसके पाँव तो एक बड़े से पत्थर से बंधे थे, जो नीचे दबा था! 

पुख्ता इंतज़ाम किया गया था, की वो निकल ही न सकें! मैंने काट दी रस्सियाँ उसकी, 

और ऐसे ही, दूसरी भी निकाल ली, "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, "कनि" बोली एक, "कौन कनि?" पूछा मैंने, "रहमो की पुत्री" बोली वो, "कौन रहमो?" पूछा मैंने, "बिरसा वाले रहमो" बोली वो, मेरी समझ से बाहर! "तुम्हें किसने बाँधा?" कहा मैंने, "लावटा ने" बोली वो, "कौन लावटा?" पूछा मैंने, "लावटा नहीं जानो?" बोली वो, "न?" कहा मैंने, "बाबा भैराल का भाई" बोली वो, "बाबा भैराल?" पूछा मैंने, "हाँ, वही भैराल" बोली दूसरी वाली! अब दिमाग उलझा! लावटा ऐसा क्यों करेगा? किस वजह से? इनको वहाँ से लाया गया क्या? "तुम्हें यहां कौन लाया?" पूछा मैंने, "लावटा" बोली वो, "कहाँ से?" पूछा मैंने, "खताल से" बोली वो, अब तो सच में दिमाग के कई टुकड़े हो जाने वाले थे! कौन क्या है, और कौन क्या! कुछ समझ न आये! मैं तो बाबा भैराल की तरफ था, 

लेकि ये लावटा? इसको कैसे आदेश दिया होगा बाबा भैराल ने? "क्या ये बाबा भैराल जानते थे?" पूछा मैंने, "हाँ" बोली वो, अब क्या किया जाए? किसे सच माना जाए, और किसे झूठ? "सुनो, मुझे रज्जू से मिलना है, कहाँ है वो?" पूछा मैंने, "रज्जू? कामता की पत्नी?" पूछा उसने, 

अब कौन कामता? "हाँ" कहा मैंने, "वहां चले जाओ" बोली एक तरफ इशारा करके! "ठीक है!" कहा मैंने, 

और अब वे दोनों लड़कियां, संग-संग हाथ में हाथ डाल, चल दीं पीछे, और दीवार में घुस गयीं! "आओ!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और जैसे ही हम चले, किसी ने एक लकड़ी फेंक के मारी मुझे! मेरे पेट में लगी वो, तेज बहुत! मैं रुक गया वहीं, "कौन है?" कहा मैंने, हंसी आई बस एक! 

"सामने आ, हिम्मत है तो?" बोला मैं, और अपना कंठ-माल हाथ में ले लिया! अपने हाथों से ही गला दबा देता उसका! और तब, एक पहलवान सा प्रकट हुआ! गंजा! ताक़तवर! मेरे हाथ नहीं पहुँचते उसके गले तक! मैंने तभी बैग में से निकाली भस्म! 


   
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की अभिमंत्रित! और चला उसकी तरफ! "रुक जा!" बोला वो, मैं रुक गया! "कौन है तू?" पूछा मैंने, "कामड़!" बोला वो, जल्लाद! जल्लाद था वो! ठहाका लगाया उसने! जांघ पर हाथ पीटे! "क्या चाहता है?" बोला वो, "रज्जू से मिलना है!" कहा मैंने, "तु कौन है?" बोला वो, "मैं बाबा खंज के यहां से आया हूँ!" कहा मैंने, 

और जैसे ही कहा, वहां तो निकल निकल कर भीड़ खड़ी हो गयी! "क्या करने आया है?" बोला वो, "रज्जू से मिलने?" कहा मैंने, "क्यों?" पूछा उसने, "मुझे बाबा दरमू ने कहा है मिलने को!" बोला मैं, "वो दरम?" बोला वो, "हाँ, वही दरम्!" कहा मैंने, "वो बच गया!" बोला छाती में हाथ मारते हुए, "बता कहाँ है रज्जू?" कहा मैंने, "जा, लौट जा!" बोला वो, "मुझे बता?" बोला वो, उसने कहा कुछ किसी से, और दो पहलवान निकले भीड़ में से, चले मेरी तरफ, भागते हुए। मैंने किया महानाद! और फेंक दी भस्म सामने! ऐसे उड़े, ऐसे उड़े, की नज़र ही न आये! अब मची भगदड़ वहां! कुछ ठहरे, कुछ भाग लिए! 

और वो कामड़, वो वहाँ, जस का तस! 

तो अब कामड़ खड़ा था उधर! बता भी नहीं रहा था कुछ! डट और गया था सामने! अब इसको हटाना ही होगा! तभी कुछ बात बने! मैंने जपा एक महा-मंत्र, निकाला अस्थि दंड! उसे देख, रहै सहे भी निकल लिए! "कामड़! बता दे! अंतिम बार पूछ रहा हूँ!" कहा मैंने, "क्या कर लेगा?" बोला वो, बहत ज़िद्दी प्रेत था वो कामड़, मुझे आज भी याद है! बार बार जाँघों पर थाप देता था! "तू जानता नहीं कामड़! कैद हो जाएगा!" कहा मैंने, "लावटा का शिष्य हूँ!" बोला वो, "मिलंगा लावटा से भी!" कहा मैंने, "लौट जा! जा लौट जा!" बोला वो, नहीं माना वो, बिलकुल भी नहीं माना! मैंने पढ़ा फिर से एक मंत्र! और बैठा नीचे, 

और छुड़ा दिया भूमि से वो अस्थि-दंड! पछाड़ खा गया एक ही बार में! और चीखे ही चीखे! जल रहा हूँ, फंक गया, बचा ले,रहम कर दे, बता दूंगा सबक़छ! यही बोले जाए! मैं गया उसके पास तक, उसकी कमर देखी, ज़ख्म बने थे, करीब पांच! मैंने काट दिया मंत्र फिर, वो सामान्य हुआ, 

और तब उठा, मुझे देखा, गौर से, हाथ आगे किया, मैंने जैसे ही हाथ आगे किया, जैसे ही छआ उसे, उस हाथ नीचे गिरा कट कर! उसका दूसरा हाथ, टांगें, फिर पाँव, फिर कमर से कट कर गिरा, 

और फिर सर कट कर लुढ़क गया! लेकिन उसका सर, अभी भी पलकें मार रहा था! मैं गया उसके सर के पास, खुन के छोटे छोटे फव्वारे छट रहे थे गरदन से उसकी! "ये! ये हाल किया था मेरा! ये हाल, उस दिन्ना ने!" कहा उसने, 

"क्या कारण था?" पूछा मैंने, "जैसल!" बोला वो, "क्या जैसल? कौन जैसल?" पूछा मैंने, "रज्जू, उधर बावड़ी में है, जाओ पूछ लो!" बोला और आँखें बदन उसकी! फव्वारे भी 

बंद! 

मैं लौटा शर्मा जी के पास, "ये क्या हुआ इसे?" बोले वो, "ये उसका आखिरी समय का दृश्य है!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अब बताया उन्हें कि क्या कहा था उसने मुझसे, "जैसल?" बोले वो, "हाँ, पता नहीं कौन है?" कहा मैंने, "चल जाएगा पता भी' बोले वो, "आओ, बावड़ी में देखें!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े बावड़ी के लिए, वहाँ पहुंचे, बहुत बड़ी बावड़ी थी वो, पानी भी था, थोड़ा सा, हरे रंग का! दो चार पक्षी भी बैठे थे वहां, और फिर हम नीचे उतरे, आवाजें दी उसे, कई बार! लेकिन कोई न आया! "यहीं बोला था न?" बोले शर्मा जी, "हाँ, यहीं!" कहा मैंने, "यहाँ तो कोई नहीं?" बोले वो, "मैं देख लड़ाता हूँ!" कहा मैंने, बैठा गया, और जपा कुछ, लगा ध्यान! आई नज़र बावड़ी, और फिर वो जगह दिखी! "आओ!" कहा मैंने, उनका हाथ पकड़, ऊपर चढ़े हम, उधर एक दो कमरे से बने थे, 

एक जगह पर तो बड़े बड़े चाक रखे थे, यहीं आना था, मिल गया वो स्थान, एक कक्ष! 

अब आवाजें दी उसे! कमरे में पकड़-धकड़ सो मची, और, एक स्त्री नज़र आई अंदर, "कौन हो तुम?" चिल्ला के पूछा उसने, अब मैंने उसे बाबा दरम् के बारे में बताया, वो शांत हो गयी, आई बाहर, 

और दे दी एक पोटली, ठीक वैसी ही, "एक और मिलेगी, यहां नहीं, उधर, बेलिया मिलेगा वहाँ!" बोली वो, 

और चली गयी अँधेरे कमरे में! "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े उधर, यहां तो चबूतरे बने थे, बड़े बड़े! 

और कुछ नहीं था वहाँ, हम एक जगह बैठे, वो पोटली खोली, उसमे से भी वही सबकुछ निकला, 

और निकली एक पीतल की कील! "ये क्या है?" बोले वो, "शायद कील है" कहा मैंने, "या सुआँ?" बोले वो, "सुआँ तो नहीं लगता?" कहा मैंने, "ये देखो न? छेद?" बोले वो, मैंने ली वो कील सी, देखी, "हाँ, सुआँ ही है" कहा मैंने, 

और फिर पिया पानी, रख ली पोटली बैग में, 

और तभी आवाज़ आई हमें! जैसे कोई चिल्ला रहा हो! हम खड़े हए, देखा आसपास, कोई नहीं था, 

और तब शर्मा जी ने देखा एक जगह, "वो देखो" बोले वो, मैंने देखा, तो वहाँ एक व्यक्ति बैठा था उकडू, वही चिल्ला रहा था तेज तेज, हम चले उसके पास, 

आये उधर, वो बेचारा बहत पतला-दुबला था, उसके बदन की खाल उधड़ी पड़ी थी, जैसे कोड़ों से मारा गया हो उसको, उसके निशान पड़े थे लम्बे लम्बे! हम भी बैठ गए, उसके हाथ कॉप रहे थे, "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, "बेलिया" बोला वो, "तुम्हें किसने पीटा?" पूछा मैंने, "लावटा" बोला वो, हकलाते हुए, "क्यों?" पूछा मैंने, "मझे नहीं पता, मैं तो अभी आया था!" बोला वो, और रोने लगा, "तुम खताल के हो न?" पूछा मैंने, "हाँ" बताया उसने, "तो यहां कैसे?" पूछा मैंने, "पता नहीं" बोला वो, रोते रोते! वैसे एक बात तय थी, इस तिलिस्म में, इन प्रेतों को, जानबूझकर, पिरो दिया गया था, ऐसा तिलिस्म कि एक माहिर ही इसको जान सके, और सुलझा सके, मैं तो, जैसे सोच-समझा एक किरदार था, जो शायद भविष्य से आया था, बाबा


   
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श्रीशः उपदंडक
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दरमू ने मुझे आगे बढ़ाया था, मुझे अब यक़ीन हो चला था उन पर! वो मेरी मदद कर रहे थे, इसका अर्थ क्या था? यही कि कोई इस तिलिस्म को भेदे, मुक्त करे उन सबको! और ये बेलिया, 

कब से राह तक रहा था किसी की "सुनो?" वो बोला, 

और खड़े होने की कोशिश की उसने, मैंने मदद की, "वो, वहाँ, उस पेड़ के पास, है एक पोटली, ले जाओ, जाओ, छुड़ाओ हमें!" बोला वो, छुड़ाओ? सब जानते थे इसका अर्थ! एक थाल में भर दिया गया था उन्हें! न निकल ही रहे थे,न छूट ही रहे थे! "आओ बेलिया!" कहा मैंने, "आप जाओ, मैं नहीं जा सकता, खंडू से बचना" बोला वो, "ये खंडू कौन है?" पूछा मैंने, "बाबा भैराल का पुत्र" बोला वो, उस से बचना? 

क्या अर्थ हुआ इसका? "जाओ' बोला वो, 

और हम चल दिए वहा के लिए, पहंचे, उस पेड़ के पास, नीचे, एक पोटली थी, सबसे बड़ी, उन तीनों से से भी बड़ी,रखी थी वहीं! "शर्मा जी, उठाओ" कहा मैंने, "उठाता हूँ" बोले वो, और चले, उठायी और लाये मेरे पास, हमने खोली, इस बार उस पोटली में,जेवर मिले, सोने के जेवर, कम से कम एक किलो! 

बस और कुछ नहीं, जेवर स्त्रियों के थे, शिख से लेकर नख तक के जेवर! अब एक किलो जेवर कैसे पहनती होगी कोई औरत! कैसा शरीर होगा और कैसी जान! आज कल की किसी स्त्री को पहनवा दो, तो ज़ख्मी हो जाए! कान के झुमके ऐसे भारी थे कि कान ही खींच डाले! कमर की तगड़ी कम से कम छत्तीस इंच की रही होगी, चार इंच चौड़ी, अब आप सोचिये कैसा शरीर रहा होगा उस समय स्त्रियों का! और पुरुषों का तो पूछिए ही मत! आजकल के पहलवान जैसे तो मात्र किशोर ही रहे होंगे! शुद्ध भोजन 

था, श्रम का जीवन था, हाड़ तोड़ने वाली मेहनत थी, मांस-पेशियाँ कसने वाले कार्य 

खैर, हमने वो पोटली रख ली, अब हमारे पास चार पोटलियाँ थीं, मैंने पीछे मुड़के देखा, तो वो बेलिया नहीं था वहाँ! "अब यहां का काम पूरा हुआ न?" बोले शर्मा जी, "लगता तो है!" कहा मैंने, "चलो फिर!" बोले वो, "चलो!" कहा मैंने, "ठहर जा!" आई आवाज़! पीछे देखा, बायीं तरफ, एक पेड़ के नीचे एक खड़ा था, लबादा पहने, कमर में रस्सी बंधी थी, और उस से एक पोटली सी! जिस्म वही, पहलवान जैसा, 

चेहरा चौड़ा और सीना और कंधे विशाल! वो आया हमारे पास, कोई चार फ़ीट दूर रुका, "कौन है तु? क्या उठाया है?" बोला वो, "तू कौन है?" पूछा मैंने, "जवाब दे?" बोला वो, मैंने परिचय दे दिया उसको अपना! बता दिया, बाबा दरमू ने भेजा है! बाबा दरमू की सुनी, तो पीछे हटा! "रख! रख उसे!" बोला पोटली की तरफ इशारा करते हुए! "क्यों?" पूछा मैंने, "कहा न? रख दे?" बोला वो, "तू है कौन?" कहा मैंने, "मैं खंडू हूँ!" बोला वो, "अच्छा! बाबा भैराल का पुत्र!" कहा मैंने, "हाँ, ज्येष्ठ पुत्र!" कहा उसने, "तो पोटली तो मैं नहीं रखने वाला!" कहा मैंने, "रखनी पड़ेगी!" बोला वो, 

"क्यों?" पूछा मैंने, "ये, तेरा नहीं, अलिया का है!" बोला वो, अचानक से अलिया याद आ गयी मुझे। "अलिया तुम्हारी बहन है न?" पूछा मैंने, "तू कैसे जानता है?" बोला वो, "मिला था उस


   
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श्रीशः उपदंडक
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से!" कहा मैंने, अब आया निकट हमारे, छाती पर दोनों हाथ धरे, इसका अर्थ था, कि वो कोई नुक्सान नहीं पहुंचाएगा! "कहाँ मिला था उस से?" बोला वो, "बाबा खंज की खताल पर!" कहा मैंने, "अलिया, वहीं है?" बोला वो, "हाँ!" कहा मैंने, अब रोने लगा! आवाज़ के बिना! "मेरी बात मान लेती तो ऐसा नहीं होता!" बोला माथा पकड़ कर! "क्या नहीं होता?" पूछा मैंने, "हम सभी कैद न होते......" बोला वो, "लेकिन अलिया वहां कैसे पहुंची?" पूछा मैंने, "खुद गयी थी' बोला वो, खुद गयी थी? मुझे तो बताया वो दिन्ना से मिलने गयी थी? "लेकिन उसने कहा कि वो दिन्ना उठा लाया था उसे?" कहा मैंने, "नहीं, वो खुद गयी थी" बोला वो, 

अब पहेली और उलझी! "क्या यही कारण था इस नरसंहार का?" पूछा मैंने, "नहीं, ये सब जैसल ने करवाया!" बोला वो, "कौन जैसल?" पूछा मैंने, "चंदगी की पुत्री!" बला वो, "क्या करवाया उसने?" पूछा मैंने, 

अब चुप हआ! "बताओ?" कहा मैंने, चुप खड़ा रहा, कुछ न बोला! "बताओ?" बोला मैं, "जा, तुझे नहीं रोकूगा, तू जा अब!" बोला वो, 

और लौट पड़ा, मैं उसको जाते हुए देखता रहा, 

और वो ओझल हो गया! "ये क्या है?" बोले वो, "कुछ समझ में नहीं आ रहा!" कहा मैंने, "अब जाओ, बाबा दिन्ना के पास!" बोला कोई, 

आवाज़ पहचानी, तो दरमू बाबा थे! "वापिस वहीं?" कहा मैंने, "नहीं! उधर,बावड़ी के पार!" बोले वो, "वहां है दिन्ना?" पूछा मैंने, "हाँ, सुला दिया गया है उसको!" बोले वो, "किसने सुलाया?" पूछा मैंने, "बाबा भैराल ने!" बोले वो, "बाबा भैराल ने?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "कुछ समझ नहीं आ रहा मुझे बाबा?" कहा मैंने, "दिन्ना को जगाओ!" बोले वो, 

और लौट पड़े। और ओझल हुए! "अब दिन्ना यहां कैसे आया?" बोले शर्मा जी, "कौन कहाँ गया, आया, कुछ नहीं पता!" कहा मैंने, "बड़ा ही उलझा मसला है!" बोले वो, "हाँ, चलो उधर!" कहा मैंने, 

और हम वापिस हुए, उसी बावड़ी की ओर! जहां वो रज्जू मिली थी, आये उधर, तो खड़ी थी, एक तरफ इशारा करते हुए, हम वहीं चले, 

और वो लोप हुई! "किसने क्या किया, किसने नहीं, पता ही नहीं!" कहा मैंने, "सच है" कहा मैंने, 

और हमने पार की वो बावड़ी! जब पार की, तो सामने एक चबूतरा बना था! बड़ा था! काफी बड़ा! उसके कोनों पर, चार वर्गाकार पत्थर लगे थे! "यही होगा!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, अब चले वहाँ, 

और जैसे ही आये, एक सांप का जोड़ा दिखा हमें, प्रणयलीन था, रुकना पड़ा, वे भी असहज हुए, हमें देखा, 

और पीछे चले गए। "चले गए" बोले वो, "हाँ, हमने व्यवधान पैदा किया!" कहा मैंने, "अब क्या करें?" बोले वो, "लाओ, बैग रख दो" कहा मैंने, बैग रख दिया, और मैंने सामान निकाल लिया! अब हाज़िर करना था उस दिन्ना को, जो बहुत बड़ा इतिहास लिए, सो रहा था, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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या सुलाया गया था सदियों के लिए! सामान लगाया गया, भोग भी रख दिया गया, धूपबत्ती आदि लगा दी गयी, एक बड़ा दिया लगा दिया गया, और लकड़ियाँ ला, उठा दी अलख! 

और कर दी क्रिया शुरू! अभी कोई बीस मिनट ही हुए होंगे, कि सर कटे धड़ गिरने लगे वहां एक एक करके! मैंने रुका नहीं, कम से कम दस धड़ गिरे होंगे सामने, लगता था कि, जैसे अभी काटे गए हों! खून के फव्वारे फूट रहे थे गरदन से, ये क्रिया का ही प्रभाव था! मैं नहीं रुका, और फिर वो धड़ खड़े हुए, हमारे चारों ओर चक्कर काटने लगे, बेतरतीब से चलते हुए, जैसे बहुत थके-मांदे हों या धुत्त हों नशे में! फिर गिरते चले गए! और हो गए शांत! हमें तंग तो नहीं किया था उन्होंने, लेकिन अवरोध के रूप में दिखाए गए थे! और तभी हाज़िर हुए दो साधू से! हाथों में कपाल पकड़े! 

भस्म लपेटे! और त्रिशुल थामे! लम्बे-चौड़े और कद्दावर जिस्म वाले! "उठ?" बोला एक! मैं नहीं उठा! बैठा रहा! "नहीं उठता?" बोला वो, "कौन है तू?" पूछा मैंने, "उठ जा, और लौट जा वापिस!" बोला वो, 

और अब दोनों ही बैठ गए नीचे! कोई बारह फ़ीट दूर! "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, "हम तौहज हैं!" बोले वो, अर्थात साधक! "किसके?" पूछा मैंने, एक दूसरे को देखें वो! 

"किसके डेरे से हो?" बोला मैं, "बाबा भैराल!" बोला वो, "तो ये दिन्ना कैसे आया यहां?" पूछा मैंने, "हा! हा! हा!" बोला वो, "उसकी मौत लायी थी!" बोला वो, 

क्या? उसकी मौत लायी थी? अब कहानी में एक नया पेंच! "बाबा भैराल से टकराने चला था!" बोला वो, "किसलिए?" पूछा मैंने, "मौत का न्यौता मिला था उसे!" कहा उसने, "किसने दिया?" पूछा मैंने, "उसकी मौत ने!" कहा मैंने, "और उसको मारा किसने?" पूछ ही लिया मैंने, "बाबा भैराल ने!" बोला वो, अब समझा! इसका मतलब, बाबा भैराल ने ही शुरुआत की होगी! लेकिन वजह क्या थी? "क्या वजह थी?" पूछा मैंने, "जैसल!" बोले वो दोनों, "कौन जैसल?" पूछा मैंने, "चंदगी की बेटी' बोला वो, अब यहां ही मुसीबत थी सारी, दिन्ना यहां आया, किसलिए? 

और ये जैसल? इसका क्या किरदार? और ये चंदगी? इसका क्या किरदार? चंदगी साला था बाबा भैराल का, और जैसल उसकी बेटी, तो ऐसी वजह क्या हुई? "ये दिन्ना कहाँ है?" पूछा मैंने, "सो रहा है!" बोला वो, "किसने सुलाया?" पूछा मैंने, "बाबा भैराल ने!" कहा मैंने, 

"और बाबा खंज?" पूछा मैंने, "पता नहीं" बोला वो, "या बताना नहीं चाहते?" बोला मैं, "अब और सवाल नहीं, जा, अब जा!" बोला वो, हो गए खड़े वो, "मैं नहीं जाऊँगा!" कहा मैंने, "क्या करेगा?" पूछा उसने, "दिन्ना को जगाऊंगा!" बोला मैं, "अच्छा?" बोला वो, "हाँ!" कहा मैंने, "हमारे होते हुए?" बोले वो, "जो किया जा सके, कर लो!" कहा मैंने, 

और मैंने ली सामग्री, लगाया पलीता, और उठा अब! एक ने त्रिशूल ताना हवा में, कुछ पढ़ा, हाथ फेरा त्रिशूल पर, 

और कर दिया हमारी तरफ! हवा का बवंडर उठा, और हम पीछे घिसट गए! मैंने तभी एक विद्या का संधान किया, और हम रुक गए! कम से कम, आठ फ़ीट धकेल दिए गए थे पीछे। पाँव टिक ही नहीं रहे थे,संतुलन नहीं बन पा रहा था! शर्मा जी को वहीं रोक कर, मैं आया आगे, मंत्र


   
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श्रीशः उपदंडक
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पढ़ा और फेंक दी सामग्री आगे, पट-पट आग लगी घास में, और जैसे ही उन तक पहुंची, उसने त्रिशूल टिका दिया भूमि पर! आग बंद! मैंने तामूल-मंत्र पढ़ा, और थूका सामने! वो उठे हवा में, और खायी पछाड़! फिर से उठे, फिर से अभिमंत्रण किया त्रिशूल का, मैं तब तक, आरुक्ष पढ़ चुका था, थूका ज़मीन पर, त्रिशूल छूटा हाथ से उसके, और घूम गया वो! 

और लोप! वो दूसरा, भाग लिया और हवा में छलांग लगाते हुए, गायब हो गया! 

फिर से क्रिया आरम्भ की, 

और कोई दस मिनट के बाद ही, जलती हुई लकड़ियाँ गिरने लगी! मोटी-मोटी, सामने! आग लग रही थी उनमे! मांस के लोथड़े गिरने लगे! हड्डियां, राख, मनके, उपले! मैं खड़ा हुए, 

और भूमि पर खंजर से एक चतुर्भुज काढ़ा, हुआ उसमे खड़ा, 

और मारी थाप भूमि पर! धुंआ सा उठा, 

और सामने, एक सफेद लबादा पहने, पहलवान सा प्रकट हुआ! रूप में बेहद सुंदर था वो, मूंछे तर्रार वाली थीं, दाढ़ी करीने से सजी थीं, सर पर साफा बाँधा था उसने! धुंए में घिरा था वो, पाँव उसके धुंए में थे! लकड़ियाँ तेजी से जल रही थीं, चटक-चटक की आवाज़ करती हुई! "दिन्ना?" कहा मैंने, "हाँ!" बोला वो, "सामने आओ?" कहा मैंने, "महक्ष काटो, शीघ्र ही!" बोला वो, और लोप हो गया! वो लोप हुआ, तो घोड़े की टाप सुनाई दी, तहमद और बनियान सी में, उतरा एक पहलवान! भुजाओं में गंडे ही गंडे! गले में मालाएं! हाथ में एक तलवार लिए, हाथी-दांत की मूठ थी उसकी! 

"कौन है तू?" बोला वो, मैंने दिया अपना परिचय! "तू कौन है?" कहा मैंने, "लावटा!" बोला वो गुस्से से, "जा लावटा! जा!" कहा मैंने, "तेरी ये हिम्मत?" बोला वो, "जा, लौट जा!" कहा मैंने, वो बढ़ा आगे, तलवार ताने, और मैंने श्रीकण्टा मंत्र पढ़ा! वो वहीं जम गया! न हिल सका! इसे प्रेत स्तम्भन कहते हैं, ऐसे ही स्तम्भित कर, उसको बंद कर दिया जाता है कहीं पर भी श्रीकण्टा को, श्रीकण्टा मंत्र से ही खोला जा सकता है! मैं गया उसके पास, और ले ली तलवार! जैसे ही भूमि पर गिराई, वो लोप हुई! लावटा के केश तोड़ लिए मैंने, 

और झोंक दिए जलती हुई लकड़ी पर! लावटा ऐसा चीखा जैसे जीते जी,आंतें खींच ली हों उसकी! 

और लोप हो गया! उसका घोड़ा भी लोप हो गया! मैं आया वापिस, बैठा वहीं, शर्मा जी भी आ गए थे, 

अब मैंने पुनः क्रिया आरम्भ की, और उठकर, एक घेरा बनाया, उसको श्रीकण्टा से बाँध दिया! पांच मिनट ही बीते होंगे, कि वहाँ एक एक करके, करीब नौ प्रेत प्रकट हए! "नहीं! रुक जा!" बोला एक वृद्ध! 

मैंने नहीं रुका, "यदि दिन्ना आज़ाद हुआ, तो कहर टूट पड़ेगा!" बोला वो, मैं नहीं रुका. वे चिल्लाते जाते, 

और उस घेरे का चक्कर लगाए जाते! छू जाते, तो स्तम्भित हो, लोप हो जाते! मुझे कुछ उम्मीद थी, कि मुझे रोकने के लिए, आखिर में, स्वयं बाबा भैराल ही आएंगे! लेकिन अब तक, नहीं आये


   
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श्रीशः उपदंडक
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थे वो! ये भी समझ से बाहर था! महक्ष! महक्ष के आवरण में कैद किया गया था उसे! लेकिन तब, बाबा खंज कहाँ थे? यदि वे जीवित थे, तो दिन्ना को आजाद करा सकते थे? उनके लिए तो बाएं हाथ का काम था ये? तो फिर? और फिर महुक्ष ही क्यों? तेराक्ष, बहुमणिका, कादपप्या, सुलेणी आदि आवरण भी थे? तो फिर महुक्ष ही क्यों? दिमाग उलझा! कि महुक्ष ही क्यों? और कुछ आसरा सा मिला, कि बाबा खंज, न आ सकें, और उसके लिए..........और मैं तभी समझा! समझ गया! मिल गया सूत्र! दिन्ना को पहले मार दिया गया होगा, और महक्ष में बाँध दिया होगा! और उसके लिए बाबा खंज को, हटाना होगा रास्ते से! यही हुआ होगा! इसी वजह से वो नरसंहार हुआ, दोनों ही तरफ 

से। 

लेकिन फिर से एक प्रश्न! ऐसा क्या हुआ था कि दिन्ना यहां आया था, और ऐसा भी क्या हुआ था कि उसको जान गंवानी पड़ी? और बाबा भैराल ने कैसे मारा उसको? 

और एक सवाल! ये बाबा भैराल कहाँ है? वो राजो कहाँ है? अब दिन्ना को इस महक्ष से निकालना आवश्यक था! बहत आवश्यक! और फिर ये ऐसे क्यों चिल्ला रहे हैं कि वो अगर जागा, तो कहर ट्ट जाएगा? ऐसा किसलिए? तो मैंने अब महुक्ष को भंग करने के लिए, क्रिया करनी आरम्भ की, 

मैं क्रिया में आगे बढूँ, और वो चिल्लाएं! शोर मचाएं! कोई कोई तो छाती पीट पीट के रोये! 

और कोई एक घंटे के बाद, वे सब भाग निकले। भगदड़ मच गयी थी, जैसे मृगों के झुण्ड में सिंह घुस आया हो! उस समय साढ़े चार बज चले थे, अभी समय था हमारे पास, 

और कोई डेढ़ घंटे के बाद, वहां धुंध छाने लगी! मेरे मंत्र घोर से घोरतम होने लगे! कोई पच्चीस मिनट के बाद, एक चकाचौंध सी उठी! 

और हवा में खड़ा, वो दिन्ना दिखाई दिया! मुस्कुराता हुआ! अब महक्ष से मुक्त था वो! आया हमारे पास, प्रकट हुआ वो, झट से ही, "वो सामान दे दो मुझे!" कहा मैंने, मैंने वो सामान दे दिया उसको, सारे का सारा! उसने वो सामान रख लिया, और झट से लोप हो गया! मेरा तो किये कराये पर जैसे पानी फिर गया! कुछ पूछता उस से, कुछ जानता तो ये पहेली हल होती, लेकिन वो तो रुका ही नहीं, जागा, सामान लिया, और लोप! "बहुत अच्छा सेगुड!" आवाज़ आयी! 

ये बाबा दरमू थे! आये हमारे पास ही, "दिन्ना मुक्त हो गया, बाबा भैराल की कैद से!" बोले वो, "लेकिन वो गया कहाँ?" पूछा मैंने, "वो हाथ देखे थे?" पूछा उन्होंने, "हाँ, पोटली वाले?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "तो?" पूछा मैंने, "जैसल के पास गया है!" बोले वो, 

"ये जैसल की क्या कहानी है?" पूछा मैंने, "जैसल और दिन्ना, प्रेमी हैं!" बोले वो, एक झटका लगा! "और अलिया क्यों गयी थी उधर, खताल पर?" पूछा मैंने, "अलिया प्रेम करती थी दिन्ना से!" बोले वो, "क्या?" कहा मैंने, "तो वो क्यों गयी थी?" पूछा मैंने, "दिन्ना से मिलने, जिस रोज, दिन्ना को मार दिया गया था!" बोले वो, "और अलिया का हाल ऐसा किसने किया?" पूछा मैंने, "अंगज ने!" बोले वो, "किसके कहने पर?" पूछा मैंने, "अब वही मिलेगा तुम्हें! जाओ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वापिस खताल जाओ!" कहा मैंने, "लेकिन...सुनिए?" कहा मैंने, नहीं सुना, और लोप हुए! "ये तो और उलझ गयी कहानी?" बोले वो, "हाँ, सच में अब तो" कहा मैंने, सामान उठाते हुए, "अब खताल चलें?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, 

और हम चल दिए, जैसे ही बाहर निकले वहाँ से, रोने-पीटने की आवाजें आने लगीं! खैर हम वापिस हुए, और इस बार, जैसे रास्ता छोटा हो गया था! हम आ गए खताल, यहीं मेरे प्रेत-दाह किया था! अब यहां मुझे वो मिलने वाला था, जिसने आदेश दिया था अलिया को खत्म करने 

का! 

वो बाबा खंज तो हो नहीं सकते थे! तो फिर कौन था? 

हम बैठे एक जगह, थोड़ा आराम किया, पानी पिया, और हाथ-मुंह धोये, फिर सामान निकाला! "देख लो!" कहा उन्होंने, "क्या?" पूछा मैंने, "ये स्थान, ये स्थान कैसा राज छिपाए है!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "कौन जानता है इस बारे में?" बोले वो, "कोई नहीं!" कहा मैंने, "हमें ही आना था!" बोले वो, "हाँ! कहा मैंने, 

और तभी सामने, कुछ औरतें दिखीं! वे कुछ सामान सारख, सर पर, गीत गाये जा रही थीं! अपने आप में खोयी हुई! अन्य स्त्रियां भी उनके संग थीं, वेरुकी एक जगह, सामान रखा नीचे, और बैठ गयीं, कुल सत्रह थी वो, हमसे करीब सौ फीट दूर, गीत अब बंद हो गया था, और तभी वहाँ एक साधक आया, सामान उठवाया उनका, दे दिए हाथ में कुछ सिक्के, वे उठीं, सर झुकाया और चल दीं वापिस, हो गयी ओझल! वो साधक पलटा, हमें देखा, और बढ़ा आगे! रुका, हमें देखा, "बाबा दरमू ने बताया था तुम्हारे बारे में" बोला वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "मैं आजम हूँ" बोला वो, "अच्छा!" कहा मैंने, 

"खताल के पीछे जाओ, शीघ्र ही!" बोला वो, 

और हम चल पड़े पीछे की तरफ, पीछे देखा, तो लोप! हम आ गए पीछे, यहां तो पिडियां ही पिंडियां थीं! कुछ टूटी हुई भी, कुछ साबुत! 

और दिखा एक कुआँ! अब कुँए में झाँका, जैसे ही झाँका, होश उड़ गए! हमारी लाशें! कटी-फटी! तिलिस्म का केंद्र था ये! "ये.....?" बोले वो, "कुछ नहीं, देखो!" कहा मैंने, 

और उठायी मिट्टी, पढ़ी, और फेंक दी अंदर! लाशें गायब! अब कुछ नहीं, बस पीपल के पौधे, 

और हरी दूब घास, परिंदों के कोटर, बस! "ये माया है!" कहा मैंने, "ऐसी भयानक?" बोले वो, अभी भी, झाँक रहे थे कुँए में! "आओ" कहा मैंने, 

और दिखा सामने कुछ! "ये क्या?" बोले वो, "हाँ?" कहा मैंने, "वहाँ पानी है?" बोले वो, "लग रहा है!" कहा मैंने, "देखें?" बोले वो, दरअसल, हमारे सामने एक छोटा सा तालाब सा था! 


   
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