तब समझाया उसको, तो आई, डरते डरते! उसके कंधे से नीचे, छाती तक, एक बड़ा सा चिराव था, दिल को काटता हुआ, किसी बेरहम ने, चौर दिया था एक ही वार से। "रेजी, कौन है वो?" पूछा मैंने, उसने न में गर्दन हिलायी! "बताओ?" कहा मैंने, "नहीं, आज्ञा नहीं!" बोली वो, "लिख कर बता दो, तुम्हें तो लिखना आता है न?" बोला मैं, तेज ने भी समर्थन किया मेरा, अब वो बैठी, मैं भी बैठा,
और जो नाम उसने लिखा, वो था, बाबा खंज! तो ये सब, बाबा खंज ने किया था! लेकिन ये बाबा खंज आखिर हैं कौन? किसलिए ये नरसंहार?
क्यों डर रहे हैं अभी तक ये सब? ऐसा कौन सा कारण हुआ? "कहाँ मिलेंगे ये बाबा खंज?" पछा मैंने, "उधर, दो कोस पर,खताल है उनकी" बोला तेज, "अच्छा! मैं देखता हूँ!" कहा मैंने, तभी उस भीड़ में से, एक वृद्ध आया उठकर, हाथ जोड़, खड़ा हो गया, "क्या बात है बाबा?" पूछा मैंने, उसने मुंह खोला, जुबां खींच ली गयी थी उसकी, हलक में खून ही खून था, जैसे उखाड़ ली गयी हो! उस वृद्ध ने तेजू को देखा, "बाबा के दो पुत्र, दो पोते उधर ही हैं, राजो के स्थान पर" बोला तेज, "अच्छा! बाबा मैं देख लूँगा!" कहा मैंने,
और फिर मैं वापिस हुआ, आया शर्मा जी तक, तेजू को वहीं रोक दिया था मैंने, शर्मा जी वहीं बैठे थे, कोई दिक्कत नहीं पेश आई थी उन्हें, "कुछ पता चला?" उठते हुए पूछा,
अब मैंने सबकुछ बता दिया उनको, त्यौरियां चढ़ गयीं, गुस्सा भड़क आया! "दो कोस पर है?" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "चलो अभी फिर" बोले वो, "नहीं, ऐसे नहीं, सामान लाना होगा!" कहा मैंने, "ठीक है" बोले वो,
और हम वापिस हुए, छतर सिंह वहीं बैठे थे, हमें देखा तो उतर आये, ढेरों सवाल किया! उत्तर एक का भी नहीं दिया! गाड़ी में बैठे,
और जा पहुंचे वापिस, स्नान किया,
और अपना सामान लाद दिया, अब हमें जाना था बाबा खंज की खताल पर! छतर सिंह ने बताया कि वहाँ के लिए कोई रास्ता नहीं, पैदल ही जाना होगा, कोई बात नहीं, पैदल ही चल लेंगे! सामान लाद, हम चल दिए वहाँ के लिए, गाड़ी से उतरे, और उनको भेज दिया, जब फ़ोन करें, तो आ जाएँ!
और हम, अब चल पड़े उस पथरीले रास्ते पर! हमें ढाई घंटे लग गए, ऐसा खराब रास्ता था, पत्थर ही पत्थर, गड्ढे ही गड्ढे! जंगली कीड़े-मकौड़े और वाईपर सांप! दो जगह, मनियार भी दिखा! लाल रंग के! कोबरा से
पचास गुना ज़हरीला होता है, काट ले, तो दस मिनट में खून को पानी बना दे! ऐसा कोई छिद्र नहीं जहां से ये पानी न रिसे! जुबां सूज जाती है, आँखें बाहर आने लगती हैं! धड़कनें ऐसी तेज, कि दो सौ धड़कन के मिनट में! तो मनियार को पूरा समान देना चाहिए! गस्सैल सांप है,आपने देख लिया उसकी आँखों में तो समझो आमंत्रित कर दिया युद्ध के लिए! गुस्से में, अपनी पूंछ पटकता है ज़मीन पर, फट-फट की आवाज़ करता है! गोह भी नहीं आती सामने उसके! नहीं तो गोह, खा जाती है साँपों को! तो अब हम पहुंचे, चार बज चुके थे तब तक, जंगल का क्षेत्र था वो,
बड़े बड़े पत्थर थे वहां, पुराने खंडहर से! और वहां, पिंडियां बनी थीं, चबूतरे बने थे! लगता था, इतने बरसों के बाद, बस हम ही वो इंसान थे, जो यहां आये थे! "ये तो बड़ी डरावनी सी जगह है!" बोले वो, "हाँ, वो तो है" कहा मैंने, एक पेड़ के नीचे बैठे हम, सामान रखा, और पानी पिया फिर, मौत का सा सन्नाटा पसरा था वहाँ! न एक पक्षी, न एक पशु! तब मैंने कलुष चलाया, और नेत्र पोषित किये अपने और उनके, और भूमि पर, कुछ लिखा, ऊँगली से! फिर पाँव से मिटा दिया! "आओ, ज़रा मुआयना करें!" कहा मैंने, "चलिए!" वे बोले,
और वो जैसे ही खड़े हए, उनको किसी ने धक्का सा दिया हो, ऐसा लगा, वो नीचे गिरे, और खिचड़ते हुए चले पीछे! अब मैं भागा! पड़ा मंत्र हाथ फूंका, और उनका हाथ पकड़ा, रुक गए, करीब छह फीट घसीट दिया था उन्हें, पत्ते पड़े थे, इसीलिए बच गए थे, नहीं तो कमर छिल जाती मैंने हाथ पकड़ लिया उनका, कपड़े झाड़े उनके,
और तब ही, प्राण-रक्षा मन्त्र से आणि और उनकी देह पोषित कर ली, मैंने अपना एक रुद्र-माल, उतारा गले से, और उनके गले में, मंत्र पढ़ते हुए पहना दिया,
और तब मैंने लड़ाया एक भीषण मंत्र! खलबली मच जाती वहाँ उस मंत्र से!
मैंने एवांग लड़ाया और ज़मीन पर तीन बार थूका!
और थूकते ही! हर तरफ से चीख-पुकार मच गयी! "अब देखो आप शर्मा जी! आपको गिराया?" कहा मैंने,
आवाजें ही आवाजें! चीखें ही चीखें! पुकार ही पुकार! "आओ ज़रा!" कहा मैंने,
और हम चले फिर आगे, एक चबूतरे पर, पत्थर रखे थे, वो भी ऐसे, जैसे किसी ने जानबूझकर रखे हों! "आओ देखें" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और हम चले, पत्थरों से बने उस चतुर्भुज में, अस्थियां, दो कपाल पड़े थे, एक छोटा और बड़ा! "ये किसने रखा?" बोले शर्मा जी, "किसी ने तो रखा ही है!" कहा मैंने, तब मैंने वो बड़ा कपाल उठाया, उसको देखा, खोपड़ी की रेखाएं देखीं, पूर्ण विकसित रहा होगा, कोई तीस-पैंतीस की आयु का, कपाल का माथा, मज़बूत था, शर्म का कार्य करता होगा वो व्यक्ति, जबड़े की अस्थि चौड़ी थी, मांसाहार करता होगा, ठुड्डी भी चौड़ी थी, तो देह पहलवानी रही होगी उसकी! "सुनो? ध्यान से!" बोले वो, मैंने ध्यान से सुना, कपाल रखा वहीं, चीख-पुकार तो मची थी, लेकिन कोई नाम ले रहा था मेरा! ये किसी स्त्री की आवाज़ थी, रो रही थी, और रोते रोते, नाम पुकार रही थी मेरा, ऐसा होता है अक्सर, ये प्रेत आपको नाम लेकर पुकारते हैं, पूरा इतिहास बता देंगे आपका! आज क्या खाया, क्या पीया, क्या हुआ, सब! "चलो, वहाँ से आ रही है" कहा मैंने,
और हम चले वहाँ, सामने क्या देखा! देखा, एक पेड़ के शहतीर से,जो कि नीचे पड़ा था, एक स्त्री बंधी हुई थी, मोटी पूँज की सी रस्सी से बंधी थी!
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निर्वस्त्र थी, कोई वस्त्र न था, स्तन काट दिए गए थे उसके, उसका मुंह खोलकर, रस्सी डाल, शहतीर से बाँध दिया गया था, नाभि से नीचे का भाग खुला था, आंतें बाहर निकली हुई थी, बुलबुले बन रहे थे मेद और रक्त के उन आँतों में,
आँतों में, कीड़े लगे थे, जो खा रहे थे उसकी आँतों का मांस, योनि में एक बड़ा सा घाव था, अंदरजी अंग, बाहर खींच दिए गए थे, जांघे चीर दी गयी थीं उसकी, रक्त से लथपथ थी वो! पांवों की उंगलियां काट दी गयीं थी, उनमे भी कीड़े लगे थे। "ऐसी क्रूरता?" बोले शर्मा जी, मैंने उस औरत को देखता रहा, कोई पच्चीस बरस की रही होगी, वो अपने गले से, गर्र-गर्र की आवाज़ से, नाम पुकार रही थी मेरा! मैंने अपना खंजर निकाला बैग से, और उसकी रस्सियाँ काटने लगा, जब रस्सी काट दी, तो खड़ी न हो सकी वो, कोशिश करे, और गिर जाए, बार बार! मुझे दया आई, मैंने बिठा दिया उसे शहतीर पर, वो अपने हाथों से कीड़े हटाये, रोये, चीखे, हमें देखे! "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, "अलिया!" बोली रोते रोते, "यहीं की हो?" पछा मैंने, "नहीं" बोली वो,
आँतों को अंदर करने में लगी थी, हाथ चिपचिपा गए थे उसके, "कहाँ की हो?" पूछा मैंने, "मैं बाबा भैराल की बहन हूँ छोटी!" बोली वो, "ओह...अच्छा, यहां कौन लाया तुम्हें?" पूछा मैंने,
"दिन्ना, वो दिन्ना लाया था" बोली वो, "कौन दिन्ना?" पूछा मैंने, "बाबा खंज का पुत्र" बोली वो, इस से पहले मैं कुछ और पूछता, वो शहतीर ही हवा में उठ गए, हम झुक गए, और उस अलिया को फेंक मारा फिर,
पेड़ से टकराई, और फिर न उठी! वो शहतीर भी वहीं गिर गया! "कौन है?" बोला मैं, चीख कर, कोई उत्तर नहीं! बस वहाँ गिरे पत्ते उड़ें! मिट्टी उड़े! "आना ज़रा!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, मैंने अलिया को देखा, पेड़ पर खींच लिया गया था उसको! लिटा दिया गया था एक शाख पर!
और तभी एक गर्म हवा का झोंका आया! हम ठिठक कर खड़े हो गए! चीख-पुकार भी बंद हो गयी थी! किसी ने एवांग को काट दिया था!
"सम्भल कर!" कहा मैंने,
और हम, चले आगे, एक जगह रुके, एक कुआं था वो, उसमे झाँका, तो लाशें ही लाशें! सड़ी-गली, बस काले पड़े सरों से ही पता चले कि ये मनुष्य हैं!
और दुर्गन्ध ऐसी, कि, बेहोशी ही आ जाए! "बाप रे!" बोले शर्मा जी, नाक पर रुमाल रखे हुए,
"बहुत ही क्रूरता हुई है!" कहा मैंने, "हाँ, घोरतम" बोले वो, "आओ" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो, तो सामने एक खंडहर सा दिखा, उसमे रास्ता था अंदर जाने का, "आओ, चलें उधर" कहा मैंने, "वो!! ऊपर देखो?" बोले वो, मैंने ऊपर देखा! लाशें! पेड़ों पर लाशें! ऐसे रखी थीं, कि जैसे सजा के रखी हों!
और हाँ, सर किसी का भी नहीं था उनका! लाशें ऐसे सजाई हुई थीं कि जैसे नुमाइश लगी हो, एक बात और, सभी के हाथ काटकर, फेंक दिए गए थे, पाँव काट दिए गए थे! क्या हाल किया गया था उनका! अलिया के साथ ऐसी हैवानियत की गयी थी कि कलेजा मुंह को आ जाए! वो
बेचारी, खड़े होने लायक भी नहीं थी, बाबा भैराल अपने साले चंदगी के पास गए थे, तो उन्होंने क्या किया? कहाँ रहे? राजो का क्या हुआ? क्या उस राजो के डेरे से यहां पकड़ कर लाया गया था इन लोगों को? क्या वजह थी? और ये बाबा खंज, ऐसा क्या हुआ था जिस वजह से ऐसी हैवानियत पेश आई? बाब खंज अवश्य ही महाप्रबल, क्रूर और क्रोधी स्वभाव के होंगे, उनका क्या हुआ? और ये सब, ये सारे अभी तक, क्यों डरते हैं बाबा खंज से? दिन्ना कहाँ है? उसका क्या हुआ? राजो कहाँ गयी? सवाल बहत थे, और उत्तर एक भी नहीं, कोई बता भी नहीं रहा था, अँधेरे में ही चल रहे थे हम अभी तक, और तो और, हमें भी रोका जा रहा था! ये कौन था जो हमें रोक रहा था? दिन्ना? या स्वयं बाबा खंज? कौन था? दिमाग उलझा पड़ा था, और सामने कुछ नहीं था!
खैर, हम उस खंडहर के अंदर जाने वाले थे, देखें क्या है उधर! "इतनी लाशें?" बोले शर्मा जी, "हाँ, हैवानियत की हद है!" कहा मैंने, "सच में ही कोई हैवान है!" बोले वो,
"आओ, देखते हैं" कहा मैंने,
और हम, उस कक्ष में दाखिल हुए, टोर्च जला ली थी, कक्ष में पत्थर पड़े थे, और कुछ गोल गोल सी पिंडियां, जैसे उखाड़ के लायी गयी हों, या फिर कहीं लगानी हों, अचानक ही, सामने दीवार पर, रक्त उभरा, दरारों में! फव्वार से छूटने लगे छोटे छोटे! ये स्थान, अभी तक जीवित था! "ध्यान से!" कहा मैंने, "ये खून है न?" बोले वो, "हाँ, खून ही है" कहा मैंने, "तो इसका अर्थ?" बोले वो, "कुछ है दीवार के पीछे!" कहा मैंने, "लेकिन रास्ता नहीं है!" बोले वो,
और तभी बाहर ज़ोर की आवाज़ हुई, जैसे कोई दीवार गिरी हो! हम भागे बाहर, और जैसे ही बाहर भागे, और आये और जो देखा, उसे देख कर, हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी! बाहर, खून का दरिया सा बहा पड़ा था! इंसानी जिस्म के हज़ारों टुकड़े बिखरे पड़े थे! कटे सर, कटे हाथ, कटे पाँव, पसलियां, रीढ़ के हड्डियां, घुटने, आँखें, जो शायद निकाल ली गयी थीं जुबान, जो हलक से उखाड़ ली गयी थीं, और बदबू! ऐसी बदबू, कि आदमी को चक्कर आ जाएँ! "हे मेरे भग* * ! बोले वो, "हद हो गयी!" कहा मैंने,
और अचानक ही! अचानक ही, वे टुकड़े,आगे चले दिए! जैसे खून में आगे बहे जा रहे हों! हम आगे चले, और वो जगह देखी! वहाँ एक कमरा था, बहुत बड़ा, उसमे खों ही खून चिपका था! उसमे चलते तो फिसल जाते, इंसानी मांस पड़ा था, बहुत सारा, ढेर का ढेर! लगता था कि यहीं काटा गया हो उन इंसानों को, इंसानी कट्टीघर बना था वो!
अब तक साढ़े छह बज चुके थे, अभी अँधेरा नहीं घिरा था, लेकिन वहाँ का सन्नाटा ऐसा चुभ रहा था कि, जान ही ले
लें!
"वहाँ चलो ज़रा!" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो,
और जैसे ही चले, एक टांग, कटी हुई, आ कर, टकराई शर्मा जी से! वे गिरते गिरते बचे! मैंने हाथ पकड़ लिया था उनका! वो टांग, कुलबुला रही थी! फड़क रही थी! मैंने उसके पाँव पर अपना पाँव रखा, तो खड़ी ह गयी, मेरे पेट तक, मांस अभी तक लाल
था, हडियां अभी तक सफेद थीं, जैसे अभी अभी काटा गया हो उसको! दूसरी लात से मैंने उसको धक्का दिया, और वो गिर पड़ी, गिरते ही शांत! "मरने चला आया?" आई एक आवाज़, पीछे से आई थी, हमने पीछे देखा,
तो एक साधक सा खड़ा था, सिर्फ लंगोट पहने, गले में शिशु-कपाल धारण किये हुए था! "कौन है तू?" पूछा मैंने, मेरा पूछना था, कि उसने हाथ में रखा एक खंजर मार फेंक कर! निकला मेरे कंधे के पास से! मैं झुक गया था, बच गया था मैं! "तुझे भी यहीं कटना है!" बोला वो, और हँसे! मैं झुका, और उठायी मिट्टी, पढ़ा पलीता मंत्र,
और गाली देते हुए, फेंक दी ज़मीन पर! वो उछला और धड़ाम से नीचे गिरा! मैं भागा आगे,रखा छाती पर पाँव उसके, "कौन है तू?" पूछा मैंने, कुछ न बोले! कराहे बस! मेरा पाँव पकड़े, रोये! चिल्लाये! "कौन है तू?" पूछा मैंने, "बिस्वा! बिस्वा हूँ मैं!" बोला वो,
"कौन बिस्वा?" पोछा मैंने, "मुझे खड़ा करो! खड़ा करो!" बोला वो, "कौन बिस्वा?" पूछा मैंने, तभी मेरे पाँव को काटने को हुआ वो, मैंने तभी, दी एक लात उसके मुंह पर, कराह निकल गयी! "कौन बिस्वा?" पूछा मैंने, "यहां का हूँ! यहां का हूँ!" बोला वो, लात हटाई, "खड़ा हो?" कहा मैंने, हुआ खड़ा, आग में झुलस रहा था, फू-फू-कर रहा था! "बता?" बोला मैंने, "इस खताल का सेवक हूँ!" बोला कराहते हुए! तब उसको ठीक किया मैंने, वो ठीक हआ, "ये खताल किसकी है?" पूछा मैंने, "दिन्ना की!" बोला वो,
और उसी पल, दो-फाड़ हो गए उसके, चिर गया बीच में से! पेट में से, काला तरल बाहर आ गया उसका! कोई था वहां, कोई तो था अवश्य ही! मैंने हाथ थामा शर्मा जी का, "ऐसे ही खड़े रहो!" कहा मैंने, वे खड़े हो गए, सतर्क! "कौन है? सामने आ?" बोला मैं, दहाड़! हंसने की दहाड़! "सामने आ?" कहा मैंने,
और तब, एक बाबा प्रकट हुआ, लंगोट धारी, काला भक्क, भस्म लपेटे हुए, हाथ में चिमटा और, एक शिशु का हाथ लिए हुए!
"कौन है तू?" पूछा मैंने, "खज्जल!" बोला वो, "कौन खज्जल?" पूछा मैंने, "वापिस नहीं जाएगा तू अब!" बोला वो, "वो मैं जान, जो पूछा गया, वो बता?" कहा मैंने, फिर से हंसा, और उस हाथ से, मांस उलीच के खाने लगा वो! "बता?" कहा मैंने, "तू मरेगा अब!" बोला वो, "अच्छा?" कहा मैंने, "हाँ! मरेगा!" बोला वो, "है हिम्मत?" पूछा मैंने, "देखेगा?" बोला वो, "दिखा!" कहा मैंने,
और मन ही मन, महाधानुका का जाप कर लिया! उसने किया चिमटा आगे!
आग उठी! और चली हमारी तरफ! हमसे टकराते ही, भूमि में घुस गयी! "बस खज्जल?" कहा मैंने, उसने मारा चिमटा फेंक कर! हम तक न आ सका! बीच में ही गिर गया,
और तब, तब वो खुद भागा हमें मारने को! मैंने किया हाथ आगे, जैसे ही टकराया, पछाड़ खा गया! उसकी छाती पर रखा पाँव! उठाया चिमटा, और घुसेड़ दिया पेट में उसके! न रक्त! न मांस, ज़मीन में घुस गया था चिमटा! वो निकला, और हमें देखा, भाग लिया, दौड़ लिया! और हम, उसके पीछे!
वो एक कक्ष में जा घुसा, हम भी घुस गए!
और गायब हुआ वो! लेकिन उस कक्ष में,सामान रखा था! भस्म, लेप,त्योटन,रौमिश,तघाल आदि आदि! ये किसी साधक का कक्ष था! सुगंध आ रही थी, कुछ वस्त्र भी पड़े थे!
और बाहर से हो-हल्ला सुनाई पड़ा, बाहर आये, तो कि पचास साधक थे वहाँ!
और उनके बीच, एक विशेष सा साधक था! नग्न! नशे में उन्मत्त! वो साधक अवश्य ही विशेष था! गले में मुंड-माल, हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में अस्थियां! कापालिक सा प्रतीत होता था वो! बाकी उसके आसपास खड़े साध भी नग्न ही थे, नागाओं की तरह! भस्म लपेटे और सभी अस्थियां धारण किये हुए! बस एक ही था उनमे वो विशेष! "कौन है तू?" पूछा उसने, मैंने परिचय दिया अपना उसे! "क्या करने आया है?" बोला वो, "बाबा खंज से मिलने!" कहा मैंने, "किसलिए?" बोला वो, "बाबा भैराल ने भेजा है!" कहा मैंने, "तेरी ये हिम्मत?" बोला वो, "हिम्मत देखी नहीं तूने अभी!" कहा मैंने, "टुकड़े कर दूंगा तेरे भी!" बोला वो, "मैं ऐसा नहीं!" कहा मैंने! लगाया सभी ने ठहाका! "भैराल का जो हआ, तेरा भी वैसा ही होगा! कुत्तों को खिला दिया था उसको! चील कौवों ने खाया!" बोला वो, "अच्छा? तू कौन है?" पूछा मैंने, "जानना चाहता है?" बोला वो,
"हाँ, बता!" कहा मैंने, "बाबा रुद्रदेव की जय! बाबा रुद्रदेव की जय!" उसके चेले बोले एक संग! "रुद्रदेव!" कहा मैंने, "हाँ! रुद्रदेव!" बोला वो, "तो तूने ही हलाक़ किया इन्हें!" कहा मैंने, "ये इसी लायक थे!" बोला वो, "मासूमों को मारना, कायरता नहीं है क्या?" पूछा मैंने, "कोई कायरता नहीं, शत्रु का बीज नाश होना चाहिए!" बोला वो, "तेरा भी नाश होगा आज!" कहा मैंने, "अच्छा? जानता नहीं मैं हूँ कौन?" बोला वो, "बड़बोला! कायर! भीरु!" बोला मैंने, "जैखर? ले, और पिला दे इसका लहू!" बोला वो, एक पहलवान सा आया सामने, लिया रुद्रदेव का त्रिशूल!
और बढ़ा आगे, चामुण्डा का अलख नाद किया, और दौड़ पड़ा त्रिशूल ताने! मैंने मंत्र से अभिमंत्रित मिट्टी ले ही रखी थी, जैसे ही आया, मार फेंकी उस पर! त्रिशूल उड़ा हवा में, और उसमे लग गयी आग! चिल्लाते चिल्लाते भागा वापिस, और बीच रास्ते में ही, धंआ हो गया! शेष बचा, चूर्ण! अस्थियों का चूर्ण! "आ! तू आ!" कहा मैंने, अब तो सभी घबराएं! पीछे हटें! चूर्ण को देखें! और वो रुद्रदेव! हमें देखे टकटकी लगाये! अब चला मैं आगे, शेष पीछे हटें! आया उनके पास, उठायी मिट्टी, किया अभिमंत्रण! और आ गया पास उनके! "कहाँ है ये दिन्ना?" पूछा मैंने, आँखें फटी रह गयी थीं उसकी!
"बता?" पूछा मैंने, "खोइल में, यहां नहीं है!" बोला वो, "खोड़ल कहाँ है?" पूछा मैंने, "यहां पास में ही" बोला वो, "किधर?" पूछा मैंने, "वो, वहाँ" बोला इशारा करके, जहां इशारा किया था, वो भी ऐसी ही जगह लग रही थी, मैंने एक बार फिर से सभी को देखा, किया हाथ आगे, और इस से पहले कि वो भागते, फेंक दी मिट्टी!
आगे के शोले भड़क उठे। रुद्रदेव, शान्ति से खड़ा रहा, हाथ जोड़े,
और पल भर में ही, चूर्ण बने सब! खाक हो गए थे! मुर्दे जलने की गंध फैल गयी थी! सभी, कैद हो चले थे! मुक्त नहीं! इनको तो दंड देना था! भले ही जीते जी न मिला हो, लेकिन ऐसा ही
कष्ट, ऐसी ही पीड़ा, इनके भागी थे ये सब! अब लौटा मैं शर्मा जी के पास, "बहुत बढ़िया किया!" बोले वो, मेरे सर पर हाथ रखते हुए! "हाँ, अभी देखिये आप!" कहा मैंने, "अब खोड़ल?" बोले वो, "हाँ, आओ" कहा मैंने, सामान उठाया, और हम चल पड़े उधर ही! वो कोई,दो सौ मीटर दूर थी जगह, लेकिन यहां का माहौल बेहद अजीब था! सन्नाटा और भय सा व्याप्त था यहां! एक जगह सामान रखा, और पानी पिया, "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो,
"एक काम करो" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "कुछ लकड़ियाँ लाइए, और रखिये यहां!" कहा मैंने, "अभी लाया!" बोले वो, "ज्यादा दूर नहीं जाना!" कहा मैंने, "ठीक" बोले वो, मैं बैठा, और कुछ सामग्री निकाली बैग में से, की इकट्ठी, शर्मा जी, जलाने लायक लकड़ियाँ ले आये थे, "यही रख दो" कहा मैंने, रख दी वहीं, मैंने अब एक ढेरी बनायी उनकी, सामग्री डाली उसने, तवाकुक्ष-मंत्र से पोषित की,
और थोड़ा सा चमेली का तेल डाल, आग लगा दी उनमे! और बैठ गया, ध्यान लगाया, जपे मंत्र! और तब, वहाँ, चीख-पुकार हुई शुरू! जगह जगह कुछ न कुछ गिर रहा था! कटे हाथ, सर, पाँव आदि आदि। मैं जपता रहा! और ढप्प-ढप्प वो अंग गिरते रहे!
और फिर आँखें खोल दी मैंने, जैसे ही खोली, उन अंगों में आग लग गयी! वे अंग, उछलने लगे थे! चीख-पुकार ऐसी मची, कि कोना कोना जैसे रो रहा हो! अब हुआ मैं खड़ा! लिया उन्हें संग! "आओ!" कहा मैंने, "चलो!" बोले वो, "रुक जा?" आवाज़ आई! पीछे देखा, एक बाबा था। कोई तीस बरस का नग्न, हाथों में कुल्हाड़ा लिए! "कौन है तू?" पूछा मैंने,
"अंगज!" बोला वो, "कौन अंगज?" पूछा मैंने, "तू कौन है?" बोला वो, "जो पूछा, वो बता?" कहा मैंने, "काट दूंगा तुझे!"बोला वो, "यही बोला था रुद्रदेव ने! खुद ही कट गया!" कहा मैंने, अब कुल्हाड़ा नीचे! "क्या?" बोला वो, "देख ले! जा!" कहा मैंने, उसने फिर से कुल्हाड़ा उठाया,
आगे बढ़ा, "थम जा!" कहा मैंने, रुका वो,
आँखें फाड़ते हुए! "दिन्ना कहाँ है?" पूछा मैंने, "तेरी ये मजाल?" बोला वो, गाली-गलौज करते हुए! मैंने एक जलती हुई लकड़ी उठायी,
और चला उसके पास, वो हटा पीछे! "रुक! रुक!" बोला वो, मैंने मंत्र जपा! और उस लकड़ी की आग पर, मारी फूंक!
आग भड़की! और बढ़ा आगे! "रुक जा!" बोला वो, "दिन्ना कहाँ है?" पूछा मैंने, "इधर देख?" आई आवाज़! देखा बाएं, तो एक और भीमकाय बाबा खड़ा था! "तू है दिन्ना?" पूछा मैंने, "नहीं! मैं रेवज हूँ!" बोला वो,
"जा, दिन्ना को भेज! बोल, बाबा भैराल ने भिजवाया है!" कहा मैंने, जैसे ही नाम सुना बाबा भैराल का उसने, गले में पड़ा एक माल तोड़ डाला उसने! कवाच माल थे वो! प्रतिज्ञा-माल! वही तोड़ दिया था उसने अब वो ही जाने, क्या कारण था? "अब तू बच के नहीं जाएगा!" बोला वो, "अरे रेवज! प्रेत! तू कैसे टकराएगा मुझसे?" कहा मैंने, हँसते हुए, "तू जानता नहीं मुझे!" बोला वो, "जानना चाहंगा!" कहा मैंने, वो बैठा नीचे, और लगाया आसन उसने! अवश्य ही
जानता होगा कुछ! "शर्मा जी?" बोला मैं, "हाँ?" बोले वो, "मेरे पीछे खड़े हो जाओ आप!" कहा मैंने, वो हो गए पीछे,
और मैं भी बैठ गया, ली सामग्री हाथ में, और झोंक दी, उस आग में! तभी हवा का बवंडर सा चला! त्वेजक-क्रिया की थी उसने! मैंने अर्हत-मंत्र पढ़ते हुए, सामग्री झोंक दी! बवंडर शांत! कट गयी उसकी विदया! वो चौंका! खड़ा हुआ, त्रिशूल किया आगे, घूमा और चंडी-जाप करते हुए, फेंका त्रिशूल! मैंने उसी समय, महाभौर्य विद्या का संधान कर, फैकी सामग्री सामने! त्रिशूल वहीं गिर गया! और घिसट कर, एक तरफ जा लगा!
अब हुआ खड़ा, और चला उसकी ओर, सामग्री हाथ में ही थी मेरे! इस से पहले कुछ कहता वो, मैंने सामग्री फेंक दी सामने! भक्क से आग उठी! और वो चूर्ण! हो गया था कैद! अब देखा अंगज को मैंने, वो सिहरा! घबरा गया, पीछे हटने लगा! "रुक जा?" कहा मैंने, कांपते हुए, रुका वो! गया उसके पास मैं! "कहाँ है दिन्ना?" पूछा मैंने,
"सो रहे हैं!"बोला वो, "हरामजादा! सो रहा है! इतना बड़ा नरसंहार कर, सो रहा है!" कहा मैंने, "जा, जगा दे उसे!" कहा मैंने, "मैं नहीं कर सकता!" बोला वो, "नहीं कर सकता?" बोला मैं, अब पढ़ा मंत्र, और अपना हाथ छुआ दिया उसे, चिल्लाया, मुड़ा-तुड़ा, नीचे बैठते हुए, चूर्ण हुआ! "बहुत बढ़िया किया! ऐसी ही सजा के हक़दार हैं ये!" बोले शर्मा जी, "अभी देखो आप! कैसे बाहर आते हैं ये!" कहा मैंने,
और लकड़ियों में, और लकड़ियाँ लगाई! और पढ़ा, जौमिश! छिपे हुए प्रेतों को बाहर निकाल देता है! जैसे ही समाप्त हुआ, मैंने जैसे ही भम्म भम्म कहा, वे सब के सब नज़र आने लगे! कोई पेड़ पर, कोई गड्ढे पर, कोई पत्थरों पर और कोई भूमि पर! कम से कम डेढ़ सौ होंगे वो! अब हुए सारे इकट्ठे वो! मैं खड़ा हुआ, और ज़ोर से चिल्लाया! श्री महाऔघड़ का नाद किया! उठायी सामग्री, और अभिमंत्रित कर, फेंक दी सामने! भक्क! सब के सब भक्क! कैद हो गए! सब के सब! चले गए अँधेरे के पीछे। अब न ताक़त शेष थी,और न अन्य कोई विशेषता! सोख लिया था सबकुछ उस अँधेरे ने उनका! "अब जगाते हैं उस हरामजादे दिन्ना को!" कहा मैंने, "ठीक!" बोले वो, "मेरा बैग लाओ ज़रा!" बोला मैं, ले आये बैग, मैंने निकाला अब अपना सामान, रखा उधर ही,अब दिन ढलने लगा था। सूरज थे नहीं आकाश में अब! ईंधन झोंका, सामग्री झोंकी!
और आरम्भ की प्रत्यक्ष-क्रिया! आधा घंटा हुआ होगा, कि दूर अँधेरे में मुझे, कुछ दिखा, ध्यान से देखा, तो दो औरतें थीं वो!
नग्न, और अस्थियां पहने, कमर में भी अस्थियां थीं उनके! उन्होंने भरी हुंकार! और इगमगाती सी, आई हमारे ही पास! हाथों में खड्ग थी उनके! मैंने सामग्री फेंकी सामने! तो दूर जा छिटकी! पीछे ही पलट गयीं थीं! फिर हंसी वो! आयीं सामने! "कौन है तू?" बोली एक, "अंगज, रेवज से पूछ!" कहा मैंने, "मरने चला आया?" बोली वो, "जैसे रुद्रदेव?" कहा मैंने, ठहाका लगाया उसने! मैंने लिया अपना अस्थि-शूल! हुआ खड़ा! गया सामने, बैठा नीचे, और मंत्र पढ़ा! अस्थि-शूल छुआया भूमि से,
और वे दोनों, पछाड़ कहती हुईं, नीचे गिर पड़ीं! अब गया उनके पास, छाती फूल गयी थी दोनों की, प्रेत-शूल उठा था उन्हें!
अब मैं हंसा! वो कछ बोले के हालत में भी न रहीं! बैठा नीचे, और अस्थि-शूल छुआ दिया एक को! छाती फट गयी उसकी! सर फट गया, घुटने उखड़ गए! और चूर्ण! अब गया दूसरी के पास, वो हाथ जोड़े, पाँव पड़े! मंत्र पढ़ा, और छुआ दिया उसे, एक लम्बी सांस छोड़ी वो, और हुई सामान्य! बैठा अब मैं, उसके पास ही! "दिन्ना कहाँ है?" पूछा मैंने, "पता नहीं" बोली वो, "नहीं बताएगी?" पूछा मैंने, "नहीं पता" बोली वो,
और तभी मुझे किसी ने कंधों से पकड़ कर फेंका पीछे! मैं घिसता कोई चार मीटर, कोहनी छिल गयी! शर्मा जी भागे, तो शर्मा जी को धक्का दिया! मेरा अस्थि-शूल वहीं रह गया था, और जब मैंने होश संभाला,
तो वो एक साधक था, लम्बा-चौड़ा! खड़ा हुआ मैं! आगे गया, वो फिर से लपका मेरी ओर! मेरे करीब आया, और दिया छाती में एक मक्का मेरी! मझे गश सा आ गया, शर्मा जी भागे, तो मैंने मना किया उन्हें! वो फिर से लपका मेरी तरफ, मेरा एक पाँव पकड़ा, और घसीटने लगा! मैंने पढ़ा एवांग मंत्र! और थूक दिया उस पर, वो बिलबिलाते हुए, नीचे गिरा, अब मैंने दे लात और दे लात! वो नीचे गिरा तड़पता रहा, मैंने उठाया अस्थि-शूल,
और उसकी आँख में घुसेड़ दिया! धुंआ हो गया वो उसी पल! चूर्ण हो गया वो! और वो औरत, वो पहले ही भाग गयी थी! आये शर्मा जी, मैं खड़ा हुआ, "लगी तो नहीं?" बोले वो, "नहीं, कवक्ष है!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले वो, "आपको?" पूछा मैंने, "नहीं" बोले वो, "ये प्रेत मकरज हो चुके हैं, बल में भी और छल में भी।" कहा मैंने, "हाँ, अभी देखा न?"बोले वो, "हाँ, वही था ये भी, और औरत भी!" बोला मैं, "अब?" बोले वो, "देखो आप अब!" कहा मैंने,
और अब फिर से, उस अलख पर बैठा मैं!
शर्मा जी को संग लिया! उनको सामग्री पकड़ा दी, कि झोंकते रहें!
और बना दिया एक घेरा! ऑधिया मसान का घेरा! अब कोई छू कर दिखाए! "अब देखो आप!" कहा मैंने, फिर पढ़े मंत्र!
और फिर एक महामंत्र! जगह जगह से चीखें आने लगी सुनाई! कोई गिरे! कोई भागे! कोई सर पटके अपना! कोई पत्थर फेंके! "इसे पकड़ो!" कहा मैंने, वो एक अस्थि थी, उन्होंने ले ली, "इसको चाट लो!" कहा मैंने, उन्होंने चाट ली, "अब थूक, निगल जाओ!" बोला मैं, उन्होंने निगल लिया! "झोंको सामग्री!" कहा मैंने, उन्होंने सामग्री जैसे ही झोंकी! आग ही आग लग गयी उधर! सभी मकरज, कैद होते चले गए! चारों तरफ आग लगी थी! वो जगह रौशन हो उठी थी! इसको प्रेत-दाह कहा जाता है! दहन हो गया था उन सभी का, शेष जोरहे, तो अवश्य ही, अपनी शक्ति और सिद्धि के कारण बचे होंगे! "सभी समाप्त?" बोले वो, "नहीं!" कहा मैंने, "नहीं?" बोले वो,
"हाँ, दिन्ना यहीं है अभी!" कहा मैंने, "अरे हाँ!" बोले वो, अब मैंने प्रत्यक्ष-क्रिया पुनः आरम्भ की! मंत्र पढ़ता जाऊं, और सामग्री झोंके जाऊं! अभी बीस मिनट हए थे कि, "ठहर जा!" आवाज़ आई! ठीक दायें, एक वृद्ध सा साधू खड़ा था! उसी ने आवाज़ दी थी, मैं खड़ा हुआ, शर्मा जी भी,
मैंने अपना अस्थि-शूल उठा लिया था! "कौन है तू?" बोला वो, मैंने परिचय दिया अपना! "क्या चाहता है?" पूछा उसने, "दिन्ना कहाँ है?" पूछा मैंने, "क्यों?" पूछा उसने, "मुझे बाबा भैराल ने भेजा है!" कहा मैंने, "भैराल ने?" बोला असमंजस से वो! "हाँ, राजो के पति, बाबा भैराल ने!" कहा मैंने, "लेकिन भैराल कहाँ है?" बोला वो, "अपने डेरे पर!" कहा मैंने, "ये सम्भव नहीं!" बोला वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "भैराल को तो काट दिया गया था, एक एक को काट दिया गया था!"बोला वो, "किसने काटा था?" पूछा मैंने, "दिन्ना और बरछ ने!" बोला वो, "किसलिए?" पूछा मैंने, "शत्रता थी" बोला वो, "कैसी शत्रुता?" पूछा मैंने, "चंदगी ने नहीं बताया?" बोला वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने, "चंदगी से पूछ" बोला वो, "कहाँ है चंदगी?" पूछा मैंने, "नीमड़े में" बोला वो, "कहाँ है नीमड़ा?" पूछा मैंने, "तू नहीं जानता?" बोला वो, "नहीं!" बोला मैं, "तब तो परदेसी है,जो दाह कर रहा है!" बोला वो, "हाँ, परदेसी हूँ, दाह करने आया हूँ, बाबा भैराल का और उनके साथियों का प्रतिशोध लेने!" कहा मैंने, अब वो हंसा! बहुत तेज! "दिन्ना का नाम सुना ही होगा बस!" बोला वो, "नहीं तो?" बोला मैं, "तू अब तक जिंदा न होता!" बोला वो, "तो तू भी प्रयास कर ले!" कहा मैंने, फिर से हंसा! "बालक!" बोला वो, "बोल?" कहा मैंने, "मैं श्योरथ हूँ! तेरे जैसों के कलेजे खा चूका हूँ मैं!" बोला वो, "मेरे जैसों के! आ, कोशिश कर!" बोला मैं!
और थी, पलक झपके ही, मेरे सामने आ खड़ा हुआ वो! नग्न, कड़े पहने, मुंड-माल लटकाये! "सर झुका दे, और लौट जा!" कहा उसने! मैं हंसा! खिलखिलाकर! "श्योरथ! मैं चाहूँ तो तेरे ये आखिरी शब्द होंगे!" कहा मैंने,
और वो अस्थि-शूल, घुसेड़ दिया पेट में उसके! खच की आवाज़ हुई, और वो शूल, घुस गया अंदर!
अब चिलाया वो चीख चीख कर! बैठ गया नीचे! त्वचा उतरने लगी! उठा धुंआ!
और भक्क! हो गया दाह! शेष रहा, वो चूर्ण और मेरा अस्थि-शूल! उठाया मैंने उसे, रक्त था नहीं, इसीलिए, पकड़ लिया हाथ में!
और जा बैठा उस अलख के पास! "गया ये भी!" बोले वो, "हाँ, सर झुकाने को कह रहा था!" बोला मैं, "खुद ही झुक गया!" बोले वो,
और फिर से प्रत्यक्ष-क्रिया आरम्भ की! और तब, दो और प्रकट हुए! पहलवान जैसे! नग्न! भीमकाय! हाथों में, काष्ठ-दंड लिए! "ठहर?" बोला एक, मैं खड़ा हुआ, "कौन है तू?" पूछा एक ने, "अपना बता, तू कौन है?" बोला मैं, "क्या कर रहा है यहां?" बोला वो, "शिकार!" कहा मैंने, "कैसा शिकार?" बोला वो, "प्रेतों का!" कहा मैंने, "तेरी ये मजाल?" बोला वो,
और मारा काष्ठ-दंड फेंक कर! निकल गया बगल से! "जा! कायर इंसान! उस दिन्ना को भेज!" कहा मैंने, अब दूसरा आया सामने, "तू कैसे जानता है दिन्ना को?" बोला वो,
"मुझे बाबा भैराल ने भेजा है!" कहा मैंने, अब दोनों सकते में! एक दूसरे को देखें वो! "निकल जा यहां से?" बोला वो, मैंने ली सामग्री, अलख की भस्म ली, पढ़ा मंत्र,
और चल उनकी तरफ, वो हुए पीछे, मैं आगे बढ़ा, और पीछे हुए! "जाओ! भेजो दिन्ना को!" कहा मैंने, "नहीं!" बोला एक, "बोलो, हलकारा आया है बाबा भैराल का!" कहा मैंने, "ना!" बोला वो, "ना?" कहा मैंने, "ना!" बोला वो, मैंने ली सामग्री, गिराई ज़मीन पर, और दीं दो थाप पाँव की!
भरभरा कर गिरे! और हए ख़ाक़! चीखने का अवसर भी नहीं मिला! लौटा फिर से,
और इस बार, फिर से प्रत्यक्ष-क्रिया आरम्भ की! कोई पंद्रह मिनट के बाद, वहाँ के पेड़ हिलने लगे! पत्ते उड़ने लगे! धूल उठने लगी! अलख की लकड़ियाँ, भागने लगी! संभाली शर्मा जी ने! "ये क्या हो रहा है?" बोले वो, "ये आमद है किसी की!" बोला मैं, "क्या दिन्ना?" बोले वो, "हो सकता है!" कहा मैंने, हवा ऐसी चले, कि धक्का मारे! सामान सम्भालना मुश्किल हो गया!
और तभी, ठीक सामने, एक लम्ब-तइंग बाबा प्रकट हुआ! उन्मत्त सा! नशे में हो जैसे! पीली आँखें, केश रुक्ष! हाथों में कपाल, गले में, मानव अंग पहने, कमर में, मानव-चर्म लपेटे! अब आया था कोई धुरंधर! मैं खड़ा हुआ तब, शर्मा जी को बैठ रहने को कहा! "दिन्ना है तू?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोला हँसते हुए! "फिर कौन है?" पूछा मैंने, "मैं दरमू बाबा!" बोला वो, दरम् बाबा! आ गए थे बाबा जी, खेल खेलने! दरम्, सामने बैठ गया, मैं भी बैठ गया! दरमू ने ठहाका लगाया! और एक पत्थर फेंका मेरी तरफ! मैंने तभी उस अलख में सामग्री डाली और अपना अस्थि-शूल पुनः अभिमंत्रित कर लिया! उधर, उस दरमू ने कुछ पढ़ा, और एक पत्थर को दोनों आँखों से लगाया, और फेंक दिया मेरी तरफ! और आग, मचल गयी! बहुत ऊंची उठ गयी! फैल गयी! मुझे और शर्मा जी को हटना पड़ा वहाँ से! और वो ठडे लगाए! उसने फिर से
पत्थर लगाया, आँखों से छुआया और फेंक दिया आगे! आग और भड़क गयी! फ़ैल गयी! जैसे ज़मीन से निकल रही हो! ये कोई प्राचीन विद्या थी! घटाव-बढ़ाव वाली! अब मैंने भी एक विद्या लड़ाई! नीचे झुका, और उठायी मिट्टी, की अबिमंत्रित, सर से नौ बार उतारी और फेंक दी आग में! आग फिर से सामान्य हो गयी! दरमू ने मारा
ठट्ठा!
"रे वाह सेगुड!" बोला वो, और हम बैठ गए फिर! अब दरमू ने फिर से एक पत्थर फेंका! इस बार जहाँ पत्थर पड़ा, और ज़मीन फ़टी! धुंआ निकला, चला हमारी ओर! मुझे खांसी उठी, शर्मा जी हटे वहां से, मैं भी हटा!
अचानक से बदन भरी होने लगा, सारी जान जैसे निचुड़ने लगी बदन की! जैसे, वो धुआं हमारे अंदर घुस, मार ही देना चाहता था! मैंने तभी क्राविंच-मर्दनी विद्या का संधान किया, और हाथ पकड़ा शर्मा जी का, फूंक मारी मैंने उस धुंए को, वो फूंक टकराते ही, धुंआ वापिस हुआ! "रे वाह जलुआ!" बोला वो, "बस दरम्! बहत हआ! जा! भेज दिन्ना को!" कहा मैंने, "मैं हटूंगा तब!" बोला वो, "ठीक है!" कहा मैंने, उठायी मिट्टी, पढ़ा मंत्र, और चला उसके पास! वो हुआ खड़ा! सर झुका लिया, "ले, सर पर डाल!" बोला वो, मैं हैरान! जिस मिट्टी से रुद्रदेव भी भस्म हो चला था, ये दरमू कह रहा था सर पे डाल!
अवश्य ही खेला-खाया खिलाड़ी है ये दरम्! मैंने मिट्टी डाली! उसने झाड़ ली! "बस बच्चा?" बोला वो, कुछ न हुआ उसे! कुछ भी! "तेरी उत्वाक को पर्वाक से काट दिया मैंने!" बोला वो, मैं सच में हैरान था! सच में काट दी थी उसने वो लपट! "बच्चा! मैंने किसी को नहीं मारा आज तक! किसी को भी नहीं, उस मावस की रात मैं था ही नहीं यहां! मैं बाबा खंज का अनुज हूँ! तुझे छोड़ देता हूँ! नहीं लेता जान तेरी! और ले, ये ले, उधर, एक कोस पर एक बावड़ी है, वहाँ से शुरू होता है बाबा खंज का तिलिस्म! जा! अब जा!" बोला वो, उसने जो मुझे दिया था, वो एक जबड़े की हड्डी थी मानव की, तिलिस्म इस से ही बाँधा और नापा जाता है। इस तिलिस्म को खोलो, तो उद्देश्य पूर्ण! नहीं खुला और आप बीच में रहे, या रात्रि आ गयी, तो आपको कोई नहीं बचा सकता! कोई भी नहीं!
"ये तिलिस्म किसलिए?" पूछा मैंने, "बाबा भैराल नहीं चाहिये? राजो नहीं चाहिये?" बोला मुस्कुराते हुए! "और ये दिन्ना?" पूछा मैंने, "ओट में है!" बोला वो, "कैसी ओट?" पूछा मैंने, "तिलिस्म खोल और जान ले!" बोला वो, "और एक बात!" कहा मैंने, "पूछ!" बोला वो, "तुम मेरी मदद क्यों कर रहे हो?" पूछा मैंने, "एक तू ही आया है आज तक!" बोला वो, "फिर भी?" कहा मैंने, "मिलूंगा बाद में!" बोला वो, और लौट पड़ा, गुम अँधेरे में! मैं आ बैठा वापिस, सारी बात बताई उन्हें! "तिलिस्म?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "कैसा तिलिस्म?" पूछा उन्होंने, "पता नहीं!" कहा मैंने, "अब ये क्या मुसीबत है?"बोले वो, "पता नहीं!" कहा मैंने, वो रात हमने काट दी बातें करते करते! न वो सोये, न हम, आग जलती रही, लकड़ियाँ डालते रहे! उस रात फिर कोई खेल नहीं हुआ! सुबह हुई, तो छतर सिंह को फ़ोन मारा, बात हुई, बुला लिया सड़क तक,
और हम अपना सामान उठा, चले वापिस! जब आये उस खंडहर तक, तो मुझे एक बड़े से पत्थर पर,
हँसता हुआ, लेटा हआ वही दरम् दिखा! मुझे जाते हुए देख, हाथ से चलते रहने को कहा! मैं जब तक गाड़ी में बैठा, वो आता रहा पीछे,
और फिर लोप हो गया! हम पहुंचे वहाँ, नहाये-धोये, सोये, आराम किया, कोई चार बजे, फिर से चले, इस बार कुछ ताज़ा सामान ले लिया था मैंने,
और एक शराब की बोतल, कुछ अन्य सामग्री! हम सड़क तक पहुंचे, वापिस किया छतर सिंह को,
और चल पड़े हम वहीं के लिए! रास्ते में, फिर से, एक जगह दरमू मिला! हाथ जोड़कर, प्रणाम किया उसने!
और फेंक दिया कुछ मेरी तरफ! मैं रुका, उठाया वो, ये एक फूल था, गुलदाउदी का फूल! एकदम ताज़ा! शीतल! दरम् को देखा, तो गायब! मैंने बता दिया सब शर्मा जी को, वो भी हैरान! "क्यों मदद कर रहा है वो?" बोले वो, "पता नहीं!" कहा मैंने, "कहीं फंसा ने दे?" बोले वो, "ऐसा तो नहीं लगता!" कहा मैंने, "इतना विश्वास कैसे?" बोले वो, "उसकी बातों से!" कहा मैंने, "कुछ और भी कहा था क्या?" बोले वो, "कहा कि मिलूंगा बाद में!" कहा मैंने, "बाद में?" बोले वो,
"हाँ, यही बोला था!" कहा मैंने, हम आ गए थे खताल तक, और वहाँ से अब एक कोस और जाना था!
आराम किया थोड़ा, और फिर चले, अब जिस जगह हम आये, वो जगह भी ठीक वैसी ही थी जैसी कि खताल! बस, एक बड़ी सी बावड़ी थी वहाँ! चारों तरफ से पेड़ों सी घिरी हुई! हम उतरे नीचे सीढ़ियां, पानी नहीं था उसमे, बरसात में भरता तो भरता, काफी गहरी थी वो बावड़ी! "वो क्या चमक रहा है?" बोले वो, "पता नहीं क्या है?" कहा मैंने, "मैं देखता हूँ!" बोले वो,
और उठा लाये उसको, पोंछ रहे थे स्माल से! "सिक्का है!" बोले वो, मुझे दिया, मैंने लिया, ये सिक्का ही था, सोने का, मुग़ल-काल का,
औरंगजेब के राज का! करीब बारह-चौदह ग्राम का! "सोना है न?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, लौटा दिया सिक्का उन्हें! "यहां और भी होंगे?" बोले वो, "हाँ, होंगे!" कहा मैंने, "रहने दो, कहीं गड़बड़ ही न हो जाए!" बोले वो, अब एक सीढ़ी पर बैठ हम, पानी पिया! "पुरानी लगती है ये बावड़ी" बोले वो, "हाँ, काफी पुरानी है" कहा मैंने, "लेकिन है मज़बूत, आज भी!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने,
और तभी मेरी नज़र, एक कोटर में पड़ी, सामने, दीवार में, "वो क्या है?" पूछा मैंने,
"कोटर है कोई!" बोले वो, "आना ज़रा!" कहा मैंने, "चलो!" बोले वो, बारह इंच के करीब का, एक गोल छेद था वो, टोर्च निकाली, और मारी रौशनी, कुछ था उसके अंदर! कुछ कपड़ा सा! पता नहीं क्या था! "एक टहनी तोड़ो ज़रा!" कहा मैंने, वे गए, और एक मज़बूत सी टहनी तोड़ लाये! और दे दी मुझे! ले आये थे टहनी, बेहद मज़बूत थी, चाकू से काटनी पड़ी! रेशेदार पेड़ था, इसीलिए काफी मज़बूत थी वो! अब मैंने उसो थुडा सा घुमा दिया मोड़कर, और फिर अंदर डाली वो, कपड़े से टकराई वो, मैंने आहिस्ता से, और घुमाव, एक तरफ किया, और जब वस्त्र अटका, तो उसको खींचा बाहर! पोटली बाहर आई, तो पकड़ लिया! ये एक साटन का सा कपड़ा था, फिरोज़ीरंग का, मोटा सा, उस को, मज़बूत रस्सी से बाँधा गया था! अब लेकर आये उसको एक जगह! रखा उसे, और शर्मा जी ने काटनी शुरू की वो रस्सियाँ! उत्सुकता ने घेर लिया था, बल्लम घुसेड़े जा रही थी! वो खुली तो एक
और निकली! ख़ाकी रंग के कपड़े में, उसमे गांठे बंधी थीं! "खोलो इसे!" कहा मैंने, तो उन्होंने जान लगाई, लेकिन गाँठनखुली एक भी! ऐसी मज़बूती से बाँधी गयी थी वो गांठें! "काटनी पड़ेगी ये तो!" बोले वो, "काट दो!" कहा मैंने,
और अब चाकू से काटीं वो गांठे, और अंदर से, फिर एक फिरोज़ीरंग का कपड़ा निकला, उसके अंदर ही कुछ था, कपड़ा हटाया शर्मा जी ने, तो उसमे, कुछ दांत, कुल बारह, एक खोपड़ी का टुकड़ा, नौ सोने के सिक्के, चार चांदी के सिक्के, एक बालों की लट, बारह खजूर की गुठलियां और दो जायफल थे! "ये क्या है?" बोले वो, "कोई टोटका सा लगता है!" कहा मैंने,
"टोटका?" बोले वो, "हाँ, है तो कुछ ऐसा ही!" कहा मैंने, इतने में ही, वहां एक चील आई, चीखते हुए! और उड़ने लगी हमारे आसपास! "ये कहाँ से आ गयी?" बोले वो, उसने चीख चीख
कर कान बजा दिए थे हमारे! "इसका तो कोई घोंसला भी नहीं?" बोले वो, आसपास देखते हुए, "रुको! ये पोटली यहीं रखो!" कहा मैंने, उन्होंने रख दी वहीं! "अब हटो यहां से!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही हट गया! चले गए थे पीछे! वो चील उडी, और उतरी वहाँ, चोंच से, कपड़ा हटा दिया,
और कुछ ले उडी! "क्या ले गयी ये?" बोले वो, "आओ, देखते हैं!" कहा मैंने, हम दौड़ के आये वहां, सबकुछ जांचा, वो दांत ले गयी थी! एक दांत! "दांत ले गयी?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "दांत का क्या करेगी?" बोले वो, "हम तिलिस्म में फंस चुके हैं!" कहा मैंने! "क्या ऐसा ही होता है?" बोले वो, "नहीं तो, लेकिन मेरी नज़र कोटर पर पड़ना, उस पोटली को निकालना, इस चील का आना और एक दांत ले जाना, ये सब उसी तिलिस्म के अंश हैं!" कहा मैंने, "तो फिर कुछ ही देर बाद शाम होगी, फिर रात?" बोले वो, "ये तिलिस्म, हम कल सुलझाएंगे!" कहा मैंने,
और उस पोटली को रख लिया बैग में! "आज रात यही गुजारते हैं!" कहा मैंने, "ठीक है!" बोले वो, तो हमने अँधेरा होने से पहले ही एक जगह देख ली, एक बुर्जी थी वहां, उसमे ही चढ़
गए थे! जगह ठीक थी, पत्थर का फर्श था, लेट भी सकते थे कपड़ा बिछा कर, "वो सूखी घास तोड़ोज़रा!" कहा मैंने, "किसलिए?" बोले वो, "तोड़ो तो सही?" कहा मैंने, उन्होंने और मैंने घास तोड़ ली, काफी सारी, सूखी!
और जब ऊपर चढ़े हम, तो मैंने सीढ़ियों पर, वो घास डाल दी! "अब समझा!" बोले वो, "हाँ, कोई आया तो आवाज़ होगी!" कहा मैंने, "बहुत बढ़िया!" कहा उन्होंने, तो मित्रगण! रात हुई, कोई दस बजे से पहले, बैग में कुछ फल रखे थे, वही खाए हमने, और कोई ग्यारह बजे, चादर बिछा, लेट गए थे हम, बैग को तकिया बना लिया था दोनों ने ही! तो हमारी आँख लग गयी! अब कल सुबह से ही, जुट जाना था खोजबीन में! रात करीब तीन बजे, मुझे शर्मा जी ने जगाया! "श्हहहहहह!" बोले वो, धीरे से, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "बाहर देखो.." बोले वो, मैंने झाँका बाहर! तो होश उड़े। बाहर जिस बावड़ी में पानी नहीं था, अब उस बावड़ी में, लबालब पानी था!
औरतें बैठी थीं उसके पास! पानी भर रही थी, औरतें भी काफी सुंदर थीं! लम्बी-चौड़ी और देहायष्टि ऐसी, कि जैसे कोई राजसिक स्त्री हो! कुल बारह थीं वहां, बावड़ी के पानी में, चांदनी खिली थी, चाँद, झिलमिला रहे थे! ये चाँद जब उन औरतों के बदन पर चौंधते, तो रूप और निखर जाता उनका! "ये कौन है?" पूछा धीरे से,
"प्रेत हैं!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले वो,
और हम टकटकी लगाये उन्हें देखते रहे! वे हंसी-ठट्ठा करती तो आवाज़ गूंज उठती थी उनकी! कोई साढ़े चर बजे तक, ऐसा ही होता रहा,
और उसके बाद, वे बाहर चली गयीं! बावड़ी सूख गयी! पत्ते और कंकड़ रह गए बस! थोड़ा और सोये, छह बजे नींद खुली, नीचे आये, कुल्ला-दातुन किया, चेहरा धोया, पानी पिया,
और तब एक जगह आकर बैठ गए! "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "बर्जी से कुछ खंडहर दिखाई दिए थे पीछे" कहा मैंने, "हाँ, हैं" बोले वो, "वहीं चलते हैं" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो, तो अब सामान उठा, चले वहाँ के लिए! पहुंचे, और देखा हमने, ठीक खताल के जैसी इमारत थी वो,
वैसी ही, एक कुआं भी था वहां! "आना?" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और तब मैंने कलुष प्रयोग किया, खोले नेत्र और देखा आसपास हमने, कुछ नहीं था, कोई भी नहीं! मैंने उस कुँए की तरफ जाने की सोची, "आओ!" कहा मैंने,
वे आये,
और हम दोनों ने, नीचे झाँका कुँए में! ये क्या??? कुँए के तल में, पानी था,
और उसमे, छह औरतें खड़ी थीं, दीवार से चिपक कर, नग्न, भीगी हुईं, पानी उनके घुटनों तक था!
और अचानक ही! उन सभी ने एक साथ ऊपर देखा! और जैसे ही देखा, कुंए के दीवारें पीटने लगीं! पाँव फटकारने लगी! दोनों हाथ ऊपर उठा, हाथ हिलाती! लेकिन बोल नहीं रही थीं कुछ! मैंने देखा उन्हें, बैठा उस मुंडेर पर, "कौन हो तुम?" बोला मैं, "अरे उधर देखो?" बोले वो, मैंने झटके से देखा उधर, कोई रेंग कर आ रहा था हमारे पास! हम खड़े हए, देखने लगे उसे, मैं झूका, और उठायी मिट्टी! किया अभिमंत्रित! और हो गया तैयार!
जो रेंग कर आ रहा था, वो एक औरत थी, उसके पाँव काट दिए गए थे! रीढ़ की हड्डी के टुकड़े, पीठ से बाहर निकले थे, स्तन नहीं था उसके भी, वे भी काट दिए गए थे, हम गौर से देख रहे थे उसे, कि अचानक! अचानक से मेरी गर्दन के पीछे, पानी की बूंदें पड़ीं और फिर.
मैंने पीछे मुड़कर देखा तभी! वो औरतें बाहर आ गयी थीं! कुँए से बाहर! सभी की सभी! लेकिन याचना सी करती हुईं, जिसने मेरी गर्दन पर हाथ रखा था, वो भी अब हाथ जोड़े खड़ी थी, और वो, जो रेंग रही थी, वो भी आ पहुंची थी! "कौन हो तुम?" मैंने कुँए वाली से पूछा, "जजनी" बोली वो,
और तभी शर्मा जी की पैंट पकड़ ली उस रेंगने वाली ने, रोने लगी, अपने ज़ख्म दिखाने लगी, ऐसा रोये कि जैसे अभी हुआ ये सबकुछ! कब से ऐसी पीड़ा झेल रही थी
वो! और न जाने और कितनी थीं ऐसी है, कितने होंगे! बाबा खंज के तिलिस्म में कैद! बहुत तरस आया उनकी हालत पर! उसने कहा था जजनी, साधिका-सहायिका, उस पुराने समय में ये चलन में था, अब नहीं है, कहीं है तो, बहुत कम, "जजनी? बाबा भैराल कहाँ है?" पूछा मैंने, "नीमड़े में" बोली वो, "नीमड़ा?" कहा मैंने, "हाँ, वहीं हैं, राजो भी" बोली वो, "तुम किसकी जजनी हो?" पूछा मैंने, "राजो की" बोली वो, "तुम छह की छह?" पूछा मैंने, "हाँ" कहा उसने, "तो ये स्थान किसका है?" पूछा मैंने, "कम्मा का" बोली वो, "कम्मा कौन?" मैंने पूछा, "बाबा कम्मा!" बोली वो,
और एकाएक शेष पांच चीखने लगी! फिर वो भी, और कुँए में लगा दी छलांग! वो रेंगने वाली भी, चलती बनी वहाँ से, मैंने तभी कुँए में झाँका, वे अब तैर रही थीं पानी पर!
