साँझ हुई थी उस समय, गर्मी के मारे बेहद बुरा हाल था! इंसान तो इंसान, क्या पशु
और क्या परिंदे, सभी बेहाल थे, आकाश में, बगुलों के झुण्ड, धनुष सा आकार लिए, जा रहे थे वापिस अपने घरौंदों को, मेरे सामने, एक मेज़ रखी थी, मेज़ पर, दो खाली गिलास, जिनमे हमने अभी ठंडाई पी थी, सत्तू मिलाकर, रखे थे, चारपायी पर हम बैठे थे, हवा नाममात्र को नहीं थी, और जो टेबल-फैन था, वो अब अपनी उम्र के चौथे पड़ाव में आ चुका था, उसकी पंखुड़ियाँ, जो उसके जन्म, जवानी और अब बुढ़ापे में अब तक साथ थीं, कभी-कभी कर-कर सी आवाज़ करती थी। उस से अच्छी हवा तो
मेरा रुमाल ही कर रहा था! पीछे मवेशी बैठे थे, जुगाली करते हुए, एक महिला, और एक लड़की, चारा काट रहे थे मशीन में, उसकी भी आवाज़ खसर-खसर, आ रही थी! शर्मा जी आये थे हाथ मुंह धोकर, और बैठ गए थे चारपाई पर! "बहुत सड़ी गर्मी पड़ रही है!" बोले वो, "जेठ का महीना है!" कहा मैंने, "हाँ जी, ये तो है!" बोले वो,
और तभी शंकर लाल जी आ गए, मोटरसाइकिल खड़ी की उन्होंने, डिक्की से, कुछ सामान निकाला, आवाज़ दी किसी को, एक लड़की आई, और वो सामान उसे दिया, फिर हाथ मुंह धो, पानी पी, आये हमारे पास! "गाँव में धूम मच गयी जी!" बोले वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "वही, पूनम का?" बोले वो, "अरे वो, अच्छा!" कहा मैंने, "तीन माह से दुखी थे बेचारे, नौकरी करें, बीवी-बच्चे-पाले या छोरी को देखें!" बोले वो, "चलो अब ठीक है!" कहा मैंने, "इसीलिए आपको लाया था गुरु जी!" बोले वो, "ज़रूरत थी, और लड़की की हालत भी खराब थी, आना ही पड़ा!" कहा मैंने, "आपका बहुत बहुत एहसान है जी!" बोले हाथ जोड़कर, "अरे एहसान कैसा! मेरा फ़र्ज़ है!" कहा मैंने,
और तभी सुंदर लाल भी आ बैठे वहीं! नमस्कार हुई! अब बहुत खुश थे वो! चेहरे पर, प्रसन्नता झलक रही थी! मित्रगण! दिल्ली से सत्तर किलोमीटर पूर्व में एक गाँव है, वहीं आये थे हम, सुन्दर लाल जी, कचहरी में, नौकरी करते हैं, और शंकर लाल जी की अपनी दुकान है, कस्बे में, दोनों ही, बड़े अच्छे मित्र हैं, सहपाठी रहे हैं! एक ही गाँव में रहते हैं, सुंदर लाल जी की लड़की
को, प्रेत-बाधा थी, प्रेत भी बहुत ज़िद्दी था! पकड़ में ही नहीं आ रहा था! तांत्रिक, ओझा आते, पैसा बनाते और कुछ कर जाते! तक शंकर लाल जी आये थे मेरे पास, अपने मित्र को लेकर, हम आज सुबह ही पहुंचे थे, प्रेत बड़ा ही ताक़तवर था, बातों से न माना, पीड़ा दी, तो भी न माना! तब इबु को हाज़िर किया। इबु ने, सर से पकड़ कर उठा लिया उसे! और ले गया! अब लड़की ठीक! तभी से ये दोनों मित्र, एहसान एहसान, कहते कहते, थके नहीं! कुछ दान देने की भी कही, मैंने मना कर दिया, कह दिया, बिटिया के लिए दवा ले लें! सेहत सुधर जायेगी उसकी! बड़े खुश हुए! तो अब, सुन्दर लाल जी, दावतनामा लेकर आये थे! हमने तो वापिस जाने की कहि थी, न माने, तो रुकना पड़ा! "आइये गुरु जी!" बोले सुन्दर लाल, "चलिए!" कहा मैंने,
और हम, चारों उठ लिए! पहुंचे उनके घर, हाथ-मुंह धोये, पोंछे, जूते उतारे, और कमरे में गए, पंखा चल रहा था, हम बैठ गए वहाँ पलंग पर, ठेठ देहाती कमरा था, दीवार पर अलमारियां बनी थीं, वैसी ही खिड़की,
और दीवारों में बने, पीर साहब वाले आले! कुछ धार्मिक चित्र भी लगे थे दीवार पर, और कुछ किताबें भी रखी थीं एक मेज़ पर, कृषि-विज्ञान से संबंधित! अब खाने-पीने का सामान लगाया गया, कच्ची-बर्फ डाला हुआ पानी आया, और इस तरह, सलाद, आदि रख दिया गया! फिर कांच के गिलास, और संदूकची में से निकाली बोतल, अंग्रेजी! दे दी, हमें! ये डायरेक्टर स्पेशल ब्लैक थी! अब काम चलाना ही था! तो हम हो गए शुरू! हमने ढाई घंटे से अधिक का समय लगाया! देहाती खाना था, सिल पर पिसा मसाला, बिना क्लोरीन वाला पानी, तो कैसे न बने खाना लज़ीज़! हमने तो जीम लिया पेट भर कर! गले तक! दस बजे करीब वापिस हुए, बिस्तर लगा ही दिया गया था छत पर, अब मच्छर काटे या खटमल, नींद सुबह ही खुलनी थी! सो गए खराटे बजाते हुए! हुई सुबह, हुए फारिग! नहाये धोये, नाश्ता किया, दही-परांठे मिले थे! और देहाती
अचार, दोपहर के खाने की भी छुट्टी हो गयी! और कोई दस बजे, हम हुए वापिस! सुंदर लाल जी का पूरा परिवार, शंकर लाल जी का पूरा परिवार, सभी ने विदा दी! जब हम बीच रास्ते में थे, तो कोटा(राजस्थान) के पास रहने वाले, छतर सिंह का फ़ोन आया था शर्मा जी के पास, वे काफी घबराये हुए थे, और जल्दी से जल्दी मिलना चाहते थे, फ़ोन पर पूरी बात नहीं बताई, बस इतना ही, कि बहुत ही बड़ी मुसीबत है, तब शर्मा जी ने उन्हें आने के लिए बोल दिया था, "कैसी बड़ी मुसीबत?" कहा मैंने, "पता नहीं, बौखलाए से लग रहे थे" बोले वो, "चलो, आने दो" कहा मैंने, कुछ और बातें, और हम आ गए दिल्ली वापिस, अपने अपने घर चले गए फिर उसके बाद, और फिर उसी शाम फिर से मिले, हुड़क का वक़्त था, और हुड़क के वक़्त मैं और शर्मा जी ही हुआ करते हैं संग! तीसरा कोई नहीं! तो उस दिन हमने छतर सिंह से बातें की, छतर सिंह ने बताया कि उन्होंने कुछ ज़मीन खरीदी थी, खेती के लिए, जहां कुछ बड़ी ही समस्या खड़ी हो गयी थी, समस्या भी कुछ छोटी नहीं थी! और अलग ही थी! तो शर्मा जी ने, बुला लिया था उनको दिल्ली, और इस तरह वो अगले ही दिन आ गए थे दिल्ली, अब उनसे बातें हुईं हमारी, हाल-चाल पूछ ही लिया गया था, "अब बताएं, क्या समस्या है?" पूछा मैंने, "गुरु जी, यूँ कह लो कि ज़मीन जिस दिन मैंने ले ली थी, उसी दिन से जैसे मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर दी!" बोले वो, "ऐसा क्या हुआ?" पूछा मैंने, "मैंने ज़मीन ली थी, अपने बड़े भाई के संग, आधी उनकी और आधी मेरी, कोई हफ्ता हुआ था, वहाँ पानी की समस्या थी, तो हमने बोरिंग करवाने के लिए, कारीगर
बुलवाये, कारीगर आये, और बोरिंग का काम शुरू हुआ, पूरा दिन निकल गया, पानी नहीं मिला, अगले दिन दूसरी जगह की बोरिंग, वहाँ पानी मिला और काम हो गया, लेकिन उसी दिन, एक मज़दूर अचानक से चिल्लाया, कि जैसे उसके पाँव पर किसी
ने कुल्हाड़ा मार दिया हो, पाँव सूज गया था! और तो और, घंटे भर में ही, उसके नाखूनों से खून निकलने लगा था, बड़ी हैरत की बात थी! डॉक्टर के पास तक ले जाने तक, पाँव काला पड़ने लगा था, न सांप ने काटा था न किसी कीड़े-मकौड़े ने!" बोले वो, "कमाल है!" कहा मैंने, "और सुनिए, ज़ख्म ऐसा बिगड़ा, कि पाँव काटने की नौबत आ गयी, बेचारा क्या करता!" बोले वो, "फिर?" पूछा मैंने, "उसके बाद कोई महीने बाद............." बोले वो, "क्या हुआ था?" पूछ मैंने, "वहाँ, आठ मज़दूर हैं, परिवार सहित रहते हैं" बोले वो, "अच्छा" कहा मैंने, "एक औरत को, रात में वहाँ, एक जगह आग लगती दिखाई दी" बोले वो, "आग?" कहा मैंने, "हाँ जी, आग" बोले वो, "फिर?" कहा मैंने, "आग लगी थी, और आग का कोई कारण नज़र नहीं आया!" बोले वो, "मतलब, अपने आप लगी थी" मैंने पूछा, "हाँ जी" कहा उन्होंने, "अच्छा, उसके बाद?" पूछा मैंने, "अगली ही रात, एक मज़दूर है उधर, मेवा, मेवा को किसी ने लात मारी, सोते हुए, पेट में, इतनी तेज, कि चारपाई से गिर गया! और जब चिल्लाया वो वो कोई नहीं था!" बोले वो, "अरे?" कहा मैंने, "हाँ जी!" कहा उन्होंने, "फिर?" पूछा मैंने,
"मुझे बुलाया गया, तो उसी दिन, एक पेड़ गिर गया अपने आप! हरा-भरा पेड़!" बोले
वो,
"अपने आप?" पूछा मैंने, "हाँ!" कहा उन्होंने, "हैरत की बात है!" मैंने कहा, "ऐसी घटनाएं होती रही हैं उधर!" बोला उन्होंने, "और फिर?" पूछा मैंने, "आज से कोई दो दिन पहले, एक मज़दूर, राम चंदर को किसी ने पीछे से लात मारी, ऐसी मारी कि उसकी पसली टूट गयी, किसने मारी, कौन था, पता न चला!" बोले वो, "ये तो अजीब बात है!" कहा मैंने, "हाँ जी' बोले वो, "कुछ देखा-दिखाया नहीं?" पूछा शर्मा जी ने, "दिखाया, लेकिन सब भाग गए!" कहा उन्होंने, "भाग गए? क्या बोले?" पूछा उन्होंने, शर्मा जी ने, "हाँ जी, कुछ पता न चला!" बोले वो, "कमाल है!" कहा मैंने, "हाँ जी, हमारी जान मुसीबत में है!" कहा उन्होंने, "अरे ऐसा न कहो!" बोला मैं, "आप मानें, एक औरत मर गयी उधर" बोले वो, "मर गयी? कैसे?" पूछा मैंने, "उसका पेट फटा मिला, पुलिस भी आई लेकिन कुछ पता न चला" कहा उन्होंने, मर गयी थी एक औरत, ये गंभीर समस्या थी, "कब मरी थी?" पूछा मैंने, "कोई महीना बीता" बोले छतर सिंह,
बड़ी ही विचित्र बातें बता रहे थे छतर सिंह, ऐसा होना नहीं चाहिए था वैसे, अब वहां कुछ भी था, जो भी कुछ, वो भयानक था बहुत, जो नहीं चाहता था कि कोई और आये वहाँ! या रहे वहाँ! तो मैंने अब कुछ प्रश्न पूछने शुरू किये उनसे, "आपने ज़मीन किस से ली थी?" पूछा मैंने, "है जी एक, नारायण सिंह" बोले वो, "तो उनके साथ ऐसा नहीं हुआ कुछ?" पूछा मैंने, "उन्होंने कभी नहीं इस्तेमाल की वो ज़मीन, खेती के लिए" बोले वो, "अच्छा, बंजर ही पड़ी थी' कहा मैंने, "हाँ जी' बोले वो, "इसीलिए ऐसा नहीं हुआ कुछ भी" कहा मैंने, "हाँ जी" कहा उन्होंने, "अब समझ गया हूँ मैं!" कहा मैंने, "अब आप उद्धार करो गुरु जी, उधार लेकर पैसा लगाया है, और यहां अब जान सांसत में पड़ गयी है" बोले वो, मैंने कुछ सोचा, विचारा, "ठीक है, देख लेते हैं कल" कहा मैंने, "धन्य गुरु जी! धन्य!" बोले वो, "कोई बात नहीं, देखते हैं, है क्या!" कहा मैंने, "मैं आज ही टिकट करवा लेता हूँ!" बोले वो, "ठीक है" कहा मैंने, फिर कुछ और बातें और वो
चले गए वापिस, खुश होकर! "मामला कुछ गंभीर लगता है!" बोले शर्मा जी, "हाँ, है कुछ ऐसा ही" कहा मैंने, "कोई प्रेत आदि?" बोले वो, "अभी नहीं कहा जा सकता!"कहा मैंने,
"कल देख लेते हैं" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, उसी दिन, टिकट करवा लिए थे छतर सिंह ने, फोन कर दिया था, कल दस बजे की गाड़ी थी, मैंने उसी रात, कुछ तैयारियां कर ली थीं, कुछ विद्याएँ जागृत कर ली थीं, कुछ मंत्रादि भी! अगले दिन, हम गाड़ी में सवार हो गए, और पहुंचे रात को, करीब नौ बजे, हम उनके घर ही ठहरे, उनके बड़े भाई से भी मिले, वे भी चिंतित थे बहुत, बस निजात चाहते थे उस समस्या से! उस रात चैन की नींद सोये हम, और अगले दिन, जा पहुंचे उनके खेतों में, बहुत सुंदर जगह थी, थी तो पथरीली, लेकिन बेहद सुंदर! एक जगह, पेड़ के नीचे चारपाई बिछवाई उन्होंने, हम बैठे, पानी पिया और मैंने मुआयना किया, वहीं बैठे बैठे, सबकुछ सामान्य सा ही लगा मुझे तो, कुछ अटपटा नहीं! चाय आई, तो चाय पी, और उसके बाद, हमे अपने संग ले चले छतर सिंह! "वो जगह दिखाइए जहां वो औरत मरी थी" कहा मैंने, "आइये" बोले वो,
और ले चले हमें उधर ही, दूर थी वो जगह, लेकिन देखनी ज़रूर थी, "ये है जी वो जगह, यहां मिली थी, सर यहां था उसका, और आंतें वाहन उस पत्थर तक पड़ी थीं उसकी, देखा भी नहीं जा रहा था!" बोले वो, मैं बैठा वहाँ, जगह को गौर से देखा, यहां से, आबादी बहुत दूर थी, अगर किसी न मारा होगा, तो वो मात्र उस फाटक से ही आ सकता था अंदर, नहीं तो चारों तरफ, बाड़ लगी थी, नागफनी के पौधे लगे थे, उन्हें पार करना, इतना सरल नहीं था! पेट फटा मिला था, अगर मारा जाए, तो आंतें शरीर तक ही सीमित रहती हैं, वहां उस पत्थर तक नहीं जा
सकती थीं पत्थर कोई चार मीटर दूर था, इसका अर्थ था, कि पेट, अंदर से ही फटा था! लेकिन कैसे? मैंने तभी कलुष का प्रयोग किया, नेत्र खोले अपने,
और जैसे ही खोले, वहाँ का दृश्य ही बदल गया। जैसे मैं, किन्हीं खंडहरों के कीच खड़ा था, भूमि में दबे थे सब! "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोले वो, "आओ इधर" कहा मैंने,
आये, तो मैंने नेत्र पोषित किये उनके, और जब खोले, तो वे भी चकित! हैरान! "ये क्या है?" बोले वो, "खंडहर!" कहा मैंने, "इतने सारे?" बोले वो, "हाँ, दूर तक हैं ये!" कहा मैंने, "खंडहर?" बोले छतर सिंह, "हाँ, इस ज़मीन के नीचे!" कहा मैंने, अब वे घबराये! चेहरा उतर गया उनका! "कैसे खंडहर?" पूछा, "पुराने लगते हैं!" कहा मैंने, "अच्छा जी" बोले वो, "छतर सिंह, आप यहीं रुको" बोले शर्मा जी, "आओ शर्मा जी" कहा मैंने,
और अब हम दोनों चले एक तरफ, पत्थर ही पत्थर, स्तम्भ ही स्तम्भ! शेर बने थे स्तम्भों पर! उनका चेहरा! जैसे कोई महल या उसका प्रांगण रहा हो!
"वो देखें ज़रा' कहा मैंने, वहाँ ढलान थी, वहीं चले, "चलिए" बोले वो,
और जो देखा! जो देखा तो सांस अटक गयी! हज़ारों कपाल पड़े थे वहां! हज़ारों! उनकी अस्थियां, छोटे बड़े सब! जैसे दफनाया गया हो उनको वहाँ! "अरे बाप रे बाप!" बोले शर्मा जी, "इतने सारे?" बोला मैं, "यहां तो भयानक मारकाट हुई है, लगता है!" बोले वो, "पता नहीं,
लगता है, दफनाया गया है" कहा मैंने, "यही कह रहा था मैं" बोले वो, अब हम चले, उन कपालों के ऊपर से ही! हुए पार, 'वो क्या है?" बोले वो, "कोई हौज लगती है" कहा मैंने, "आओ देखें" बोले वो, "चलिए" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वहाँ के लिए! वो एक चौकोर हौज ही थी, कोई बीस गुणा दस की, ऐसी हौज, "पानी का प्रबंध होता होगा इस से" कहा मैंने, "हाँ" कहा उन्होंने, "और वो देखो?" बोले वो, "ये क्या है?" कहा मैंने,
और हम चले उधर, दोस्तम्भ गिरे पड़े थे वहाँ,
लेकिन उठे हुए थे, "अरे रे! इसके नीचे अस्थियां हैं" कहा मैंने, "हाँ, कुचल गया होगा वो" बोले वो, कपाल फूट गया था उसका, अस्थियां चकनाचूर हो गयी थीं, "कोई भूकम्प आया था क्या?" बोले वो, "पता नहीं" कहा मैंने, "जो भागने का, मौका भी न मिला?" बोले वो, "लगता तो यही है" कहा मैंने, "कुछ न कुछ तो हुआ था यहां!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "आगे चलें?" कहा उन्होंने, "चलो"बा मैं,
और हम चले आगे, आगे भी पत्थर ही पत्थर! जैसे भूकम्प ने मथ दिया हो उस स्थान को! एक भी स्तम्भ ऐसा नहीं था, कि जो टूटा न हो, जैसे धमाके में उड़ा दिया गया हो वो स्थान! हम अभी जा ही रहे थे कि एक जगह, दो कंकाल दिखे, एक स्त्री का था और एक पुरुष का, उनकी कमर में, एक रस्सा बंधा था, एक दूसरे से पीठ सटाये थे वो, स्त्री अधिक लबी रही होगी, और वो जो कंकाल था पुरुष का, वो उसकी गरदन तक ही पहुंच रहा था, उस पुरुष की एक भुजा, उस स्त्री के कूल्हे की अस्थि तक थी, जैसे, उसने हाथ रखा हो उसके ऊपर, लेकिन उनको, मारा निर्दयता से गया था, पसलियां टूट गयी थीं, पुरुष के टांग की और स्त्री की हाथों की हड्डिया टूटी हुई थीं! उनको बांधकर, मारा गया था, पीट पीट कर, ऐसा ही लगता था प्रथमदृष्टया तो! "बड़ी बेरहमी से क़त्ल किया गया है इनको?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, मारने वाले ने कोई कमी नहीं छोड़ी!" कहा मैंने, "लेकिन, किसलिए?" बोले वो, "अब ये नहीं पता" कहा मैंने, "ये कोई महल है या डेरा?" बोले वो, "डेरा तो नहीं लगता, कोई महल ही लगता है" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो, "आओ, आगे देखते हैं" कहा मैंने,
और हम आगे चले, कोई थोड़ा दूर ही, एक जगह, ठिठक के रुक गए! "अरे बाप रे!" बोले वो, मैं चुप था, ऐसी निर्ममता? ऐसी क्रूरता? शिशुओं, बालक-बालिकाओं के कंकाल पड़े थे! सभी के कपाल फूटे हुए थे, हड्डियां टूटी पड़ी थीं सबकी! "किस मादर** ने ऐसा किया होगा?" बोले वो, "होगा तो कोई न कोई!" कहा मैंने, "इन्हें भी नहीं छोड़ा?" बोले वो, "ये तो बीज थे, नाश कर दिया इनका भी" कहा मैंने, "सत्यानाश हो उसका!" बोले वो, "वो भी ऐसे ही मरा होगा!" कहा मैंने, "हाँ!" कहा उन्होंने, "आओ, आगे चलें" कहा मैंने,
और हम चले आगे, थोड़ी दूर ही गए थे, कि रुक गए! सामने एक लाश पड़ी थी, एक लड़की की लाश,
"आना ज़रा?" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो,
और हम चले उधर, उस लाश तक पहुंचे, निर्वस्त्र लाश थी उसकी, उसके गुप्तांगों को, जला दिया गया था, दाग दिया गया था, या तो लकड़ी से, या फिर सलाखों से, दोनों ही स्तन, काट दिए गए थे, पसलियां नज़र आ रही थीं, बायीं बगल में, दो गहरे जख्म थे, जैसे तलवार घोंपी गयी हो, सर फोड़ दिया गया था उसका, कपाल के टुकड़े निकले पड़े ये सर में से, "बाप रे!" बोले शर्मा जी, "शर्मा जी, प्रेत-माया आरम्भ हो गयी है! यहां अवश्य ही ऐसा कुछ घटा था!" कहा
मैंने,
"हाँ, यही लगता है" कहा मैंने,
और भी उस लाश को जैसे किसी ने घसीटा! बहुत तेजी से, और घसीटते हुए, उस लड़की का हाथ मेरे जूते से टकराया! वो लाश चलती गयी पीछे, और पीछे, और एक जगह जा, जैसे ज़मीन में घुस गयी! "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
और हम दौड़ कर वहाँ पहुंचे, जहां लाश गायब हुई थी, वहाँ मात्र झाड़ियाँ ही थीं, कुछ बड़े बड़े पत्थर, कोई गड्ढा नहीं और नीचे भी कुछ नहीं! "गायब हो गयी!" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, "तो दिखी ही क्यों थी?" बोले वो, "कोई न कोई प्रयोजन तो रहा ही होगा!" कहा मैंने, "कैसा प्रयोजन?"बोले वो, "कोई चाहता है कि हम देखें!" कहा मैंने,
इस से पहले कि वो कुछ प्रश्न करते, मैं और शर्मा जी, धकेल दिए गए! पीछे, जा गिरे हम, मेरी कोहनी छिल गयी, शर्मा जी की जांघ में चोट आई! खड़े हुए हम! मैंने शर्मा जी को रोका,
और खुद आगे आया, सुरक्षा मंत्र पढ़, शर्मा जी को और अपने को, सुरक्षित कर लिया! "कौन है?"बोला मैं, कोई उत्तर नहीं आया! "सामने आओ?" कहा मैंने, कोई नहीं!
और तभी किसी ने मिट्टी फेंकी हम दोनों के ऊपर, पीछे से, पूरी कमीज में मिट्टी ही मिट्टी हो गयी! पीछे मुड़े हम, "सामने आओ?" कहा मैंने, नहीं आया कोई! हाँ, ज़मीन से पत्थर ज़रूर खिसकने लगे! मैं भागकर गया शर्मा जी के पास, हाथ पकड़ा उनका, और देह-रक्षण मंत्र से पोषित करा लिए, उनको भी और अपने को
भी!
और तभी पत्थर बरसने लगे! हमसे टकराते लेकिन चोट न करते, फूट जाते थे, ऐसा करीब दो मिनट तक रहा! "है कौन?" शर्मा जी बोले, "कलुष से बाहर है" कहा मैंने,
और तब मैंने, कलुष वापिस लिया,
और चलाया अब दुहित्र! खोले नेत्र, तो सामने दो महिलायें खड़ी थीं, हाथों में, तलवार लिया! गुस्से में! हरे रंग के घाघरे में, और सफेद कमीज़ में, चांदी और सोने के आभूषण पहने थे उन्होंने, लम्बी, ऊंचे कद की, ठाड़ी थीं दोनों ही, अब मैं, बे-खौफ़ चला उनके पास, "ठहर जा?" एक बोली, नहीं रुका मैं,आगे बढ़ता रहा! "ठहर जा?" बोली एक, रुक गया मैं, "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, "पलट जा, यहां कदम न रखना!" बोली तलवार दिखा कर, "हो कौन तुम?" पूछा मैंने, "चला जा? ****?" बोली, गाली देकर, "सुन, ज़्यादा न बोल, यही लपेट दूंगा तुझे, जवाब दे?" कहा मैंने, "भाग जा!" अब दूसरी बोली, "नहीं मानेगी?" कहा मैंने,
और तब मैं झुका नीचे, उठायी मिट्टी और पढ़ा मंत्र! अब हुईं पीछे वे दोनों, तलवार झुका लीं उन्होंने, "जवाब दे मुझे?" कहा मैंने, न बोले कोई भी! "बोल?" मैंने चीख के कहा,
न बोलीं कुछ भी! पीछे हटी, और भाग चलीं! मैं भी भागा उनके पीछे, वो भागी,
और चढ़ गयीं छलांग मारकर, एक पेड़ पर, चढ़ती ही गयीं, छिपकली की तरह से ऊपर! ऊपर की डाल पर, और गरदन झुका, मुझे ही देखें! मैंने ऊपर देखा, वे दोनों, एक ही डाल पर बैठी थी, और मुझे ही घूर रही थीं। गरदन नीचे कर, मैं भी उनको देख रहा था, कुछ जानकारी मिल जाए तो अच्छा होता! "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, घूर घूर के, गरदन नीचे कर, दोनों ही देखें मुझे! "जवाब दो, नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होगा!" कहा मैंने, उन्होंने सुना, और एक औरत, नीचे सर कर, ऊपर पाँव कर, उतरने लगी नीचे, तने को दोनों हाथों से लपेट कर, आ रही थी नीचे, उसके बाल अब बिखर कर, चेहरे को ढक कर, नीचे लटक रहे थे, जब पहुंची तने के मध्य, तो सर उठाकर देखा मुझे, "हाँ, बता?" कहा मैंने, उसके होंठ फैले, और मुस्कुराई! "बता?" कहा मैंने, अब दूसरी वाली भी उतरने लगी नीचे! लेकिन वो, थोड़ा ऊपर ही रही! नीचे नहीं आई। "जल्दी बता? नहीं तो जानती है तू फिर?" कहा मैंने, मैंने यही कहा, और जैसे ही का, मारी छलांग उसने,
और मेरे बाएं कंधे पर पाँव रख, आगे कूद गयी! मैं पीछे पलटा, और देखा उसको, मिट्टी और खून से नहायी हुई थी वो,
और तभी, दूसरी वाली भी, कूद पड़ी, मेरे सर के ऊपर से जाते हुए। अब दोनों ही मिट्टी और खून से नहा गयीं थीं,
दूसरी वाली के गले में एक छेद था, काफी बड़ा! वो औरत, उस छेद में उंगलियां डाल कर, मांस के टुकड़े निकालती थी,
और गिरा देती थी नीचे, और पहले वाली, उसका तो माथा ही नहीं था, भौहें भी कट चुकी थीं! भेजा, आधा बचा था, कपाल के बाहर लटक रहा था! मुझे अब तरस आया उन पर, किसी नर-संहार का शिकार हुई थी वो! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, "कणी" बोली एक, कणी? ये क्या सुना मैंने, वो स्त्री, जो बलि-कर्म करती है, सेविका होती है वो, कणी प्रणय-निवेदन करती हैं, करती थीं, मेरे मतलब, अपने ईष्ट से, यही है जीवन उनका, यही था, मेरा मतलब,अब कणी नहीं रखी जाती, अब, ये कार्य, औघड़,स्वयं ही करते हैं, तो ये कणी थीं, लेकिन किसकी? "किसकी कणी हो तुम?" पूछा मैंने,
न बताया कुछ भी! चुप! वो पहले वाली, अपने भेजे से, मक्खियाँ उड़ा रही थी,
और दूसरे वाली,आने ज़ख्म में से,मांस के टुकड़े निकाल निकाल, नीचे फेंक रही थी! "बताओ?" कहा मैंने, मैंने कहा बताओ!
और वो, फूट फूट के रोने लगी! बैठ गयीं नीचे, टांगें फैला लें अपनी, और अपनी कमीजें उठायी, ऊपर, स्तन, नहीं थे उनके, काट दिए गए थे, पसलियां नज़र आ रही थीं, कितनी वीभस्तता हई होगी, स्तन काट दिए गए थे उनके,
और फिर, अपनी योनियाँ दिखायीं उन्होंने,
जली हई खाल लटक रही थी वहां, जांघ का मांस उलीच दिया गया था, पता नहीं, किस हरामजादे, कमीने ने ऐसा किया था, अरे, स्त्री, पुत्री, पुत्र, इनको भी नहीं मारा जाता शत्रुता में, मान दिया जाता है, पुत्र को पुत्र, पुत्री को पुत्री, और स्त्री को, माँ समझा जाता है, बड़ी, बहन समझा जाता है! लेकिन यहां तो, ऐसे मारा गया था उन्हें कि जैसे, एक एक शिशु भी, परम शत्रु रहा हो उस नाशक का! इसका एक उदाहरण है, जब रावण-पुत्र, मेघनाद ने, तीन दिनों तक, दशरथसुत की सेना के दांत खट्टे कर दिए थे, स्वयं दशरथसूत को उनके कनिष्ठ सहित, नागपाश से बाँध दिया था, मृत्युतुल्य कष्ट हुआ था उन्हें, तब श्री गरुड़ महाराज ने, ये संकट काटा था, स्वयं, महानागेश मूर्छित हुए थे, दशरथसुत के आंसू निकल आये थे, तब, संजीवनी लायी गयी थी, तो प्राण बचे,
और जब मेघनाद का वध हुआ, तो उसका मृत शरीर धरा पर गिरा, तब, जामवंत ने कहा था कि, इसके शरीर का वो हाल करो, कि समस्त संसार देखे! तब, दशरथसुत ने एक सीख दी! वो ये कि, भले ही वो शत्रु था, परन्तु युवराज था, वो अपना पित-कर्तव्य निभा रहा था, उसके आगे, हमारी सेना, ऐसी थी कि जैसे, मृगों में कोई सिंह! वो वीरवर था! जो करना चाहता था किया! यही एक वीर और पुत्र का कर्तव्य है! यदि, पुत्र के होते हुए, पिता को कष्ट हो, तो, ऐसा पुत्र, कुपुत्र कहा जाएगा! इसलिए, पूर्ण सम्मान के साथ, इस वीरवर योद्धा का शव, उसके, नगर भेज दिया जाए! जब तक जीवित था, शत्रु था, पर अब नहीं! इस वीर की गाथा, संसार अवश्य जानेगा!
ये थी उनकी सीख! मित्रगण! मैं यही सीखता हूँ!
यही!
ये मात्र शब्द नहीं, ये सार हैं! सार, जीवन का! यही उतारता हूँ जीवन में! धनय हैं श्री दशरथसुत! उनका ज्ञान! उनका, सांकेतिक ज्ञान! हाँ, तो वो दोनों रो रही थीं, बिलख बिलख कर!
और मैं, चुपचाप, उनकी ये व्यथा देख रहा था! ये तो मुझे कोई, सुनियोजित, पूर्व-नियोजित नर-संहार लगता था! "कणी?" कहा मैंने,
और उनका रोना बंद हुआ, उठ खड़ी हुई वो, "बताओ?" कहा मैंने, वो पीछे हुई, और लोप! लोप होने से पहले, रक्त की छीटें गिर गयी थीं वहाँ, उस ज़मीन पर, मैं आगे गया, बैठा, और वो, छींटें उस मिट्टी में, रच गयीं थीं, उठायीं,
मस्तिष्क, और उलझ गया! यहां कि बहुत बड़ा, बहुत ही बड़ा, रहस्य दफन था, मैं उठा, और चला आगे, कि..
अचानक से सामने नज़र पड़ी मेरी, कोई था वहां, लेकिन वो ज़मीन पर लेटा था, हाथों के सहारे, अपना सीना खड़े हुए, कमर से नीचे का भाग ज़मीन पर था उसका, मैं चल पड़ा उधर, वो भी चला, हाथों के सहारे, खुद को खींच कर, और मैं आया वहाँ! उसको देखा, कोई दो फ़ीट की दूरी से, दूर तलक खून के निशान बने थे, शायद रड़क के आया
था वो, वो एक मर्द था, कोई बीस-इक्कीस बरस का, लेकिन उसकी टाँगें, जाँघों के पास से काट दी गयी थीं! हइडियां दीख रही थीं, मांस के लोथड़े लटक रहे थे, खुन ही खून बह रहा था वहाँ, जिस्म बेहद मज़बूत रहा होगा उसका, गले में गंडे पहने थे उसने, बाजुओं पर भी भुज-बंध पहने था, हाँ, उसकी छाती में, नीचे, एक बड़ा सा घाव
था, जैसे खंजर या तलवार घुसेड़ दी गयी हो उधर, मेरी नज़रें मिली उस से, वो भावहीन था, जैसे किसी नरसंहार का साक्षी रहा हो वो! "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, "हाँ?" बोला वो, "कौन हो तुम?" मैंने फिर से दोहराया, "हाँ?" बोला वो, नज़रें हटाते हए मुझ से, "बताओ मुझे?" कहा मैंने, "हूँ?" बोला वो, नहीं बोला और कुछ, अब मैं बैठा नीचे, खून की गंध आई मुझे, "कौन हो तुम?" पूछा मैंने, "हाँ?" फिर से बोला वो, "किसने किया ये हाल तुम्हारा?" पूछा मैंने, "हाँ?" बोला वो, लेकिन मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया उसने,
या तो समझ नहीं रहा था, या फिर सकते में था!
उसने एक मुट्ठी मिट्टी उठायी, और किया हाथ आगे, मैंने हाथ आगे किया, तो मेरे हाथ में मिट्टी डाल दी उसने, मैंने मिट्टी देखी, पूरी लाल थी, खून से सनी, गीली और चिपचिपी! उसके बाद वो, बड़ी मुश्किल से घूमा, उसकी कटी टांगें, उठ जाती थीं ऊपर, फिर भी वो चला, मैं उसके साथ साथ चलने लगा था, वो मुझे बार बार देखता, दर्द से कराहता
और रुक जाता था! अचानक से उसने मेरी टांग पकड़ी, जैसे उठना चाहता हो, मैं बैठ गया, उसको देखा, उसकी आँखों पर, खून से सने बाल आ गए थे, मैंने हटाये वो, जैसे ही हटाये,रोपड़ा वो! फफक फफक के, मेरा भी दिल भारी हो आया, ऐसी हालत और ऐसा दुःख! "मुझे बताओ? कौन हो तुम?" बोला मैं, वो बस, रोता रहा, और अपनी गरदन न में हिलाता रहा, "बताओ तो?" कहा मैंने, नहीं बताया कुछ भी, और बढ़ा आगे, हुंह, करता था बार बार दर्द से, मैं रुक गया था, वो चलता रहा, और फिर रुका, मुझे देखा, और लोप हुआ, खून के बुलबुले फूट पड़े वहाँ की मिट्टी में! मैं हैरत में पड़ा था, यहां अभी भी प्रेतलीला जारी है, लेकिन इसका कारण क्या है? कौन हैं ये सब लोग? और तभी, मेरे पीछे कुछ आवाजें आयीं, मैंने पीछे देखा मुड़कर, तो ये कुछ बालक-बालिकाएं थीं, रस्सी ले, खेल रहे थे, कोई भाग रहा था, कोई बैठा हआ था, कोई हंस रहा था, अठखेलियों में व्यस्त थे सभी के सभी, लेकिन, सभी की
गरदन में रस्सी पड़ी थी, जैसे फन्दा डाला हो, अचानक से, वे एक साथ भाग निकले! भागते हुए, कोई कहाँ और कोई कहाँ, सब गायब, कोई नहीं मिला वहाँ! अब मैं पलटा, और चला शर्मा जी की ओर, उनके पास पहुंचा, तो वो गरदन टेढ़ी कर, देख रहे थे कुछ, मैंने भी वहीं देखा, एक औरत बैठी थी वहाँ, चुपचाप, "क्या हुआ शर्मा जी?" कहा मैंने, "देखते रहिये" वे बोले, मैं देखने लगा,
उस औरत ने, अपनी टांगें खोली, और उठाया कुछ, ये एक शिशु था, नाल से लिपटा हुआ, अभी प्रसव हुआ था उस स्त्री को, शिशु रो रहा था, और वो औरत, उसकी नाल
को, संभाल कर, अपनी गोद में, उस शिशु को रख रही थी, अचानक ही, स्त्री खड़ी हुई, उस शिशु को सीने से लगाया, और कूद गयी हवा में, गायब हो गयी! "यहां बहुत बड़ी घटना हुई है!"
कहा उन्होंने, "हाँ, सच है" कहा मैंने, "ये सब, वही हैं" बोले वो, "हाँ, सभी पीड़ित" कहा मैंने, "आओ शर्मा जी" कहा मैंने,
और अब हम चले, तभी मेरी कमर में आ कर कुछ लगा, तेज लगा था काफी, दर्द हुआ, शर्मा जी ने वो टुकड़ा उठाया, "ये तो हड्डी है शायद" बोले वो, मुझसे दिखाते हुए, मैंने हाथ में ली, और देखा, "हाँ, ये पाँव की हड्डी है" कहा मैंने,
और तभी फिर से एक और हड्डी गिरी वहां पर, और फिर से एक, मैंने आसपास देखा, कोई नहीं था! "ये आ कहाँ से रही हैं?" बोले वो,
और तभी एक और आई,शर्मा जी के कंधे से टकराई, "कौन है?" मैंने चिल्ला के पूछा, तो एक हंसी गूंजी! हल्की सी! "सामने आ?" कहा मैंने,
और तब, एक मर्द नज़र आया, उसके हाथ में हड्डियां थीं! "कौन है तू?" पूछा मैंने, "चला आया?" बोला वो, "नाम बता अपना?" कहा मैंने,
"छज्जू!" कहा उसने, "कौन छज्जू?" पूछा मैंने, तो वो हंसा! और हड्डियां वहीं गिरा दी! छज्जू कोई छह फ़ीट का रहा होगा, लुंगी सी पहनी थी, शेष शरीर नग्न था, गले में, मालाएं पहने था, और छाती पर, हल्दी सी मले था, "कौन है तू?" पूछा मैंने, "मरने आया है न?" बोला वो,
और हंसने लगा! मैं आगे चला उसके पास, "ठहर जा?" बोला वो. मैं नहीं रुका, चला उसके पास, तो उसने फिर से हड्डियां उठा लीं! "जान से मार दूंगा तुझे!" बोला वो, मैं रुक गया था, सोचा, इस से बात की जाए! "छज्जू?" कहा मैंने, "बोल?" बोला वो, "ये कौन सी जगह है?" पूछा मैंने, "तू नहीं जानता?" बोला गुस्से से, "नहीं" कहा मैंने, "तो क्यों मरने आया?" बोला वो, "मुझे जगह बता?" कहा मैंने, "ये राजो का इरुआ है!" बोला वो, "कौन राजो?" पूछा मैंने, "उसे भी नहीं जानता? कौन है तू फिर?" बोला वो, "नहीं जानता" कहा मैंने, "किसलिए आया यहां?" बोला वो, "जानने!" कहा मैंने, "क्या जानने?" बोला वो,
"कि यहां हुआ क्या?" बोला मिया, "तू क्या करेगा?" बोला वो, "मदद!" कहा मैंने, हंसा वो! बहुत तेज हंसा! "कोई मदद नहीं करता!" बोला वो, "ऐसा नहीं है!" कहा मैंने, "क्या बस्सु लोढ़ा आया? क्या हरपाल बंजारा आया?" बोला वो, नए नाम! दो नए नाम! "कौन है ये?" पूछा मैंने, थूका उसने, "गद्दार हैं!" बोला वो, "राजो का क्या संबंध उनसे?" पूछा मैंने, "राजो ही तो सबकुछ है!" बोला वो, "है कौन ये राजो?" पूछा मैंने, "बाबा हाड़ा की बेटी! नहीं जानता?" बोली वो, "जानता हूँ!" कहा मैंने, झूठ बोला उस से! बाबा हाड़ा! ये भी नया नाम था! "कहाँ है राजो?" पूछा मैंने, "दूर, बहुत दूर!" बोली वो, "कहाँ दूर?" कहा मैंने,
चुप हुआ वो, हड्डियां फेंक दी उसने, "जा अब, न, अब जा!" बोला वो,
और लौटने लगा पीछे! "छज्जू?" कहा मैंने, नहीं रुका, और उछला, लोप अगले ही पल! सबकुछ शर्मा जी ने भी सुना था,
"ये चार नाम मिले हैं नए!" कहा मैंने, "हाँ, सुना मैंने" बोले वो,
और हम लौटे फिर, "लगता है, बस्सु लोढ़ा और हरपाल बंजारा, इनको बुलाया गया होगा मदद के लिए!" बोले वो, "लेकिन गद्दार कैसे वो फिर?" पूछा मैंने, "इनके साथ ही होंगे वो" बोले वो, "सम्भव है" कहा मैंने,
और हम आ गए छतर जी के पास, और चले वापिस, "कुछ पता चला?" बोले वो, "हाँ, बहुत खतरनाक स्थान है ये!" बोले शर्मा जी,
अब तो वो घबराये! होंठ सूख गए उनके! हम बैठ गए वहीं, पानी पिया,
और चाय मंगवा ली फिर, "अब कैसे होगी?" पूछा उन्होंने, "आज रात यहीं रहेंगे हम! देखते हैं!" कहा मैंने, "जी" बोले वो, उनका मज़दूर, श्याम आया था, चाय लेकर, हमने चाय पी, और फिर आराम किया, साँझ हुई, तो जुगाड़ किया, आराम से खाया-पिया, आज रात जांच करनी थी उधर, एक बात तो पक्की थी, कि यहां कोई ऐसा कारण तो अवश्य था, जिसके, कारण, यहां ये जघन्य नरसंहार हुआ था! कुछ नाम तो आये थे सामने, लेकिन, उनमे क्या संबंध था, ये नहीं पता था,
छज्जू ने कुछ जानकारी तो दी थी, लेकिन वो पूर्ण नहीं थी,
और आगे बढ़ना था हमें! "लगता है, ये जगह, जैसे श्रापित सी है" बोले शर्मा जी, "कैसे?" पूछा मैंने, "यहां, कोई मुक्त नहीं हुआ" बोले वो, "हाँ, ये तो है" कहा मैंने, "कोई रहस्य है" बोले वो, "हाँ, ये तो है ही!" कहा मैंने, "वो अगर पता चल जाए, तो बात बने" बोले वो, "हाँ, आज कोशिश करते हैं" कहा मैंने,
और, लेट गया मैं, चारपाई पर, थोड़ा आराम करने को, न जाने क्या हो रात को! "उठे हो?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "चलना नहीं है?" बोले वो, "चलते हैं" कहा मैंने, हवा बढ़िया चल रही थी, नींद लग गयी थी मेरी! आलस भर रहा था देह में! "दस बज गए हैं!" बोले वो, "अच्छा, पानी पिलवा दो" कहा मैंने, "अभी कहता हूँ" बोले वो,
और मैं उठ बैठा, शर्मा जी ने आवाज़ दे, पानी मंगवा लिया था! पानी पिया मैंने, कपड़े ठीक किये, छतर सिंह भी उठ गए थे, साथ चलने को बोले वो,
तो मना कर दिया था उनको, हाँ, एक टोर्च ज़रूर मंगा ली थी, अँधेरे में वही रास्ता दिखाती! "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और हम चल पड़े,
एक जगह रुक कर, मैंने कलुष चलाया, और नेत्र पोषित कर लिए, अपने भी और शर्मा
जी के भी! "आओ, वहाँ देखते हैं" कहा मैंने, "चलो" कहा मैंने,
और हम चले आगे, चलते गए, पेड़ और झाड़ियाँ लगी थीं वहाँ! कुछ हंसने की आवाजें आयीं सुनाई, रुक गए हम, और उस तरफ ही बढ़े! पहुंचे, कुछ नहीं था वहाँ, बस पेड़ ही पेड़, तभी आवाजें आयीं, ऊपर से, ऊपर टोर्च मारी तो, औरतें बैठी थीं पेड़ों पर, उसकी शाखाओं पर चढ़ी हुई! हमें देख, हंस रही थीं! "नीचे आओ?" कहा मैंने, तो सभी चुप! सहम सी गयीं! "नीचे आओ?" कहा मैंने, तो एक औरत कूद आई! लम्बी-ठाड़ी औरत! ठेठ देहाती! घाघरा पहने, कमीज़ सी पहने, "क्या नाम है तेरा?" पूछा मैंने, "मेहा" बोली वो, "मेहा, यहां और कौन को
हैं?" पूछा मैंने, "बहुत हैं" बोली वो, "कहाँ हैं?" पूछा मैंने, "वहाँ" बोली वो, उसने इशारा करके बताया था एक तरफ, दिन में नहीं गए थे हम उधर, "ठीक है मेहा" कहा मैंने,
और हम चल पड़े उधर ही,
घुप्प अँधेरे को, टोर्च की रौशनी चीरे जा रही थी! पत्थर पड़े थे यहां, काफी बड़े बड़े! "अरे वहाँ देखो?" बोले वो, "हाँ, चलो" कहा मैंने,
और हम चले, एक बड़े से पत्थर पर, और प्रौढ़ महिला बैठी थी, कुछ खा रही थी, शायद रोटी थी उसके पास,
और जैसे ही उसने हमें देखा, रोटी कर ली पीछे, छिपा ली! "सुरजन आ गया?" पूछा उसने, "कौन सुरजन?" पूछा मैंने, "मेरा बेटा? सुरजन, आ गया?" पूछा उसने, "कहाँ गया है?" पूछा मैंने, "रवात में, आने वाला होगा, तीमन भी खत्म होने को है" बोली वो, "ये रवात कहाँ है?" पूछा मैंने, "एक कोस है यहां से" बोली वो, "अच्छा" कहा मैंने, "हाँ, बहुत लोग हैं वहाँ" कहा मैंने, "अच्छा! और कौन कौन हैं यहां?" पूछा मैंने, "बहत हैं" बोली वो, "कहाँ हैं?" पूछा मैंने, "हर तरफ" बोली वो, "ज़रा बताओ मुझे?" कहा मैंने, "वहाँ, वहाँ, वहां, वहां, हर तरफ" बोली वो, लेकिन वहाँ तो जंगल था! और ऐसे में कौन जाए जंगल? "रवात कहाँ लगी है?" पूछा मैंने, "उधर, एक कोस पर" बोली वो, "अच्छा !" कहा मैंने, "सुरजन को ढूंढ लाना, भली?" बोली वो,
"हाँ, ढूंढ लाएंगे" कहा मैंने, तो वो, फिर से खाना खाने लगी, सूखी रोटी, बाजरे की थी शायद,
और हम बढ़ गए आगे, आगे चले, तो पानी लगा था उधर, शायद नराई चल रही होगी खेतों में, "पीछे चलो" कहा मैंने, "आओ" बोले वो,
और हम पलट चले, आये एक जगह, यहां भी पत्थर पड़े थे, और तभी उस बड़े पत्थर पर, कुछ टकराया! मैंने टोर्च मारी उस पर,
तो ये एक टुकड़ा था, लकड़ी का, "कौन है?" पूछा मैंने, तो कोई नहीं आया उधर, हम आगे चले, जैसे ही चले, एक पत्थर लगा शर्मा जी को कमर में, तेज लगा था बहत! "सामने आ?" बोला में, तो तीन दिखे मुझे वो, बीच वाला हंस रहा था, पत्थर लिए खड़ा था हाथों में, मैंने झुका नीचे, और उठायी मिट्टी, अभिमंत्रित की और बढ़ गया आगे, अब वे हुए चौकस! दो तो हटे ज़रा, और वो ही रह गया, "रुक जा?" बोला वो, नहीं रुका मैं,और बढ़ता गया आगे, "रुक जा, कहता हूँ!" बोला वो,
और निकाल लिया एक चाकू, म्यान फेंक दी उसकी, और लहराता हुआ चला आगे, मैंने जैसे ही तीन फ़ीट पर आया, मारी मिट्टी फेंक कर उस पर!
चीख-पुकार मचा दी उसने! ज़मीन पर लोट-पोट हो गया, मर गया, जल गया! यही चिल्लाता रहा! पलीता लगाया था मैंने उस मंत्र में, कैसा भी प्रेत हो, जलने लगता है अंदर ही अंदर! "माफ़ कर दो! माफ़ कर दो!" बोला वो, उसकी हालत खराब हो चली थी! मैंने फिर से मिट्टी उठायी, वो बैठा घुटनों पर,
और छिड़की मिट्टी उसके ऊपर, हो गया खड़ा वो! "क्या नाम है तेरा?" पूछा मैंने, "कुंदन" बोला वो, "और कौन कौन हैं यहां?" पूछा मैंने, "बहुत सारे हैं" बोला वो, "कौन कौन हैं?" कहा मैंने, "हर तरफ हैं" बोला वो, "ये जगह किसकी है?" कहा मैंने, "बाबा भैराल की!" बोला वो, "कौन हैं ये बाबा भैराल?" कहा मैंने, "वो तो गए हुए हैं" बोला वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "नीमड़ा" बोला वो, "क्या करने?" पूछा मैंने, "मिलने" बोला वो, "किस से मिलने?" पछा मैंने, "चंदगी से" बोला वो, "कौन चंदगी?" पूछा मैंने,
"चंदगी साला है बाबा का" बोला वो, राजो का भाई! उस से मिलने गए थे! "ये रवात क्या है?" पूछा मैंने, "बाबा भैराल का इरुआ है" बोला वो, "और ये?" पूछा मैंने, "राजो का आवास है" बोला वो, "अच्छा! और तुम लोग कौन हो?" पूछा मैंने, "सेवक हैं राजो के" कहा उसने, "और ये राजो कहाँ है?" पूछा मैंने, "रवात में" बोला वो, "तो रवात में बाबा भैराल नहीं हैं?" कहा मैंने, "नहीं, वो चंदगी के पास हैं" बोला वो, "ठीक!" कहा मैंने,
और हटा पीछे, "आओ शर्मा जी," कहा मैंने,
और हम चले वापिस तब, "जो कुछ है, वो उस रवात में ही है" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो, "तो कल वहीं चलते हैं" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो, जैसे ही मैंने ऐसा कहा, मेरा पाँव किसी के ऊपर पड़ गया, टोर्च मारी उधर, तो लाशें ही लाशें! हर तरफ लाशें। जहां देखो, वहाँ! मेरा पाँव, किसी के हाथ पर पड़ा था, इसीलिए चौंक गया था मैं, "ये क्या है?" बोले शर्मा जी, "लाशें!" कहा मैंने, "हे भग** !" बोले वो, "ये है नरसंहार!" बोले वो,
लाशों के ढेर पड़े थे वहाँ, पटा पड़ा था सारा मैदान वो! क्या छोटे क्या बड़े, क्या वृद्ध और क्या स्त्रियां! "आओ" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और तभी रोने की आवाज़ आई किसी महिला की, हमने पीछे मुड़कर देखा, एक महिला बैठी थी नीचे, हम चले उस तरफ, उसके हाथों में, एक शिशु का धड़ रखा था, सर नहीं था! वोरो रही थी बुरी तरह, उसने अपना स्तन निकाल रखा था, शायद दूध पिलाने को उसे, बार-बार धड़ को हिलाती थी, और स्तन आगे करती थी, बहुत ही हृदयविदारक दृश्य था वो! दिल भारी हो उठा था! "बेचारी!" कहा मैंने, "ओह.........बहुत बुरा हुआ" कहा उन्होंने, "ये.....ये!" बोली हमें देते हुए उस धड़ को, मैंने पकड़ लिया वो धड़, गरदन से रक्त टपक रहा था अभी भी, दोनों मुट्ठियाँ बंद थीं, कड़े पहने थे हाथ और पाँव में, ".........." बोली वो, मांग लिया था वो धड़ उसने, मैंने दे दिया, वो उसको, सीने से लगा, चली गयी, दूर अँधेरे में! "कौन वहशी था वो, जिसने इन दुधमुंहों को भी नहीं बख्शा?" बोले गुस्से से, "सच में, ये तो घृणित और परम नीच काम किया उस हरामज़ादे ने!" कहा मैंने,
और तभी मुझे उन लाशों के बीच किसी शिशु की किलकारियाँ सी सुनाई दीं, "आना" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और हम, लाशों से बचते-बचाते, उन्हें फलाँगते हुए, आगे बढ़े, वो वहीं बैठा था, हाथ में, एक ऊँगली दबाये एक कटे हाथ की, उसी से खेल रहा था, जब वो झुका,
तो देखा, पीछे एक बड़ा सा गड्ढा था! उसे भी बेरहमी से मार दिया गया था! अब प्रेत बन कर भी, किलकारियाँ मारना नहीं भूला था वो! "इनका क्या कुसूर था?" बोले वो, "बस इतना, कि यहीं रहते थे ये!" कहा मैंने,
और हम चले फिर, लौटे वहाँ से, और वो, लेट गया था, खेलते खेलते ही! हम आ गए वापिस, हाथ-मुंह धोये,
और बैठे फिर, छतर सिंह ने बहुत पूछा, कुछ न बताया! उस रात सो गए हम, सुबह जब उठे, तो हमारी चारपाई के आसपास, पत्तों का ढेर लगा था!
और तो सभी घबराही गए थे, मैंने समझा दिया था उन्हें, कि घबराने की बात नहीं है! बस फलां फलां जगह न जाएँ, बस! दिन में, कोई ग्यारह बजे, हम उस रवात के लिए निकले,
कोई बीस मिनट में हम, एक टूटे-फूटे खंडहर के पास खड़े थे, सड़क से बहुत दूर था वो खंडहर, "यही है क्या?" पूछा शर्मा जी ने, "यही लगता है" कहा मैंने, "चलो फिर" बोले वो,
और हम चल दिए उसकी तरफ, काफी लम्बा चौड़ा था वो स्थान तो, पीछे की तरफ तो विशाल मैदान था! पत्थर ही पत्थर पड़े थे! अपना इतिहास बताते हए! एक जगह रुके हम,
और कलुष का प्रयोग किया, जैसे ही नेत्र खोले,
कुछ पत्थर, रक्त से नहा गए थे! रक्त ही रक्त! ज़मीन पर, खंडहर पर, गड्ढों में, हर जगह, जहां देखो वहाँ! "ये क्या माजरा है?"बोले वो, "लगता है, यहीं हुआ था वो नरसंहार!" कहा मैंने, "हो सकता है" बोले वो, तभी कुछ अजीब सी गंध आई नथुनों में, "ये कैसी गंध है?" बोले वो, "मढे के सी लगती है" कहा मैंने, "आ कहाँ से रही है?" बोले वो, "इधर से, लगता है" कहा मैंने,
और हम चले उधर ही! वहां एक गड्ढा था, कोई छह इंच का, उसमे मट्ठा सा उबल रहा था! "ये क्या है?" बोले वो, "पीछे हटो!" कहा मैंने,
और हम पीछे हटे! मेरे पाँव अंदर धंसने लगा था उस ज़मीन में, इसीलिए हटे पीछे,
और गंध ऐसी तेज, जैसे मट्ठा ही मट्ठा हो नीचे ज़मीन में! "अरे वो देखो?" बोले वो, मैंने देखा, "कहाँ?" पूछा मैंने, "वो, वहां" बोले वो, "आओ ज़रा" कहा मैंने,
और हम भाग कर, पहुंचे वहाँ, "ये तो कक्ष सा है?" बोले वो, "आओ" कहा मैंने,
और हम अंदर चले, पत्थरों की सीलन की सी गंध आई, बहुत तेज!
और तभी, एक पत्थर गिरा दीवार का नीचे, पत्थर अधिक बड़ा नहीं था, कोई बारह इंच का, पतला सा, फिर एक और, फिर एक और! "ये क्या हो रहा है?" बोले वो, "विरोध!" कहा मैंने, "कैसा विरोध?" बोले वो, "कोई नहीं चाहता हम रहें यहां!" कहा मैंने,
और तभी बाहर से, गड्ड्-गड्ड की सी आवाज़ आई, जैसे कोई ज़मीन में, पत्थर फेंक रहा हो, वो भी ऊंचाई से! हम बाहर चले तभी के तभी, वहाँ तो कोई पत्थर नहीं गिर रहे थे, हाँ, वो आवाज़ के जगह के नीचे से आ रही थी, जैसे कोई अंदर से हथौड़े बजा रहा हो! आवाज़ बेहद स्पष्ट और तेज थी! "ये क्या हो रहा है?" बोले वो, "बताता हूँ, आप देखिये, यहां कलुष भेद नहीं रहा है ज़मीन को!" कहा मैंने, "हाँ, वो क्यों?" पूछा उन्होंने, "मैंने बताया न, कोई रोक रहा है!" कहा मैंने, "लेकिन कौन?" बोले वो, "यही तो नहीं पता!" कहा मैंने,
और तभी, सर्र से कोई वस्तु गुजरी मेरे कान से होती हुई! हम हट गए पीछे, वो वस्तु देखी, तो हाथ की हड्डी थी, कलाई की! "रुको! आप यहीं रुको!" कहा मैंने,
और तब मैंने दुहित्र मंत्र को साधा, और पोषित किये नेत्र! और खोले नेत्र, जैसे ही खोले, सामने एक व्यक्ति खड़ा था, हाथ में कुल्हाड़ा लिए, टहल रहा था, इधर से उधर, उधर से इधर! "आप यहीं रहना!" कहा मैंने,
और मैं चल पड़ा उसकी तरफ, एक मुट्ठी मिट्टी उठा, अभिमंत्रित कर ली थी!
अब देखा उसने मुझे, और कंधे से कुल्हाड़ी उतार, मेरी तरफ कर दी, मैं रुका, उसको देखा, चालीस वर्ष का सा लगता था, पहलवान सा, लम्बी दाढ़ी और नीचे घुटने तक धोती पहने था, गले में, तंत्राभूषण धारण किये थे, कच्ची मिट्टी को तपा कर, गले में आभूषण बना, पहने थे! "चला जा!" बोला वो, दांत भींचे, "न जाऊं तो?" कहा मैंने, "काट दूंगा यहीं, दफना दूंगा!" बोला वो, "है हिम्मत?" बोला मैं, "देखना चाहता है?" बोला वो, "हाँ, दिखा हिम्मत!" कहा मैंने, वो अब भागकर बढ़ा आगे! मैंने मिट्टी मारी फेंक कर! हवा में उछला, और कुल्हाड़ी गिर गयी,
और खुद भी गला पकड़ लेट गया, और अब तड़पे ही तड़पे! ऐसा तड़पे, जैसे आग लगी हो उसकी देह में! प्रेत-पलीता मंत्र था, ऐसी दाह देता है, जैसे बदन में आग लगी हो! "छोड़ दो! छोड़ दो! मैं मर गया! जल रहा हूँ!" बोले वो, "चाहँ तो ले जाऊं साथ तुझे! बाँध दूँ कहीं, गाइ,, सालों तक!" कहा मैंने, "माफ़ कर दो! छोड़ दो! मुझे बचाओ!" बोला वो,
और तब, मिट्टी अभिमंत्रित कर, फेंकी उस पर, खसर-खसर के आवाज़ करे! घुटने मोड़े, और हाथ जोड़े, "खड़ा हो?" कहा मैंने,
वो हो गया खड़ा, "कौन है तू?" पूछा मैंने, "तेजू नाम है मेरा!" बोला वो, "यहां क्या करता है?" पूछा मैंने, "मेरी चलाता हूँ" बोला वो, "अच्छा! और कितने हैं यहां?" पूछा मैंने, "बहुत हैं" बोला वो,
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"ऐसा क्या हुआ था?" पूछा मैंने, "नही बता सकता!" बोला वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "भस्म कर देंगे वो' वो बोला, "कौन वो?" पूछा मैंने, "वही, जिनके सब गुलाम हैं!" बोला वो, "क्या नाम है?" पूछा मैंने, "नहीं बता सकता!" बोला वो, "क्यों नहीं बता सकता?" कहा मैंने, "आप नहीं जानते, उनका नाम लिया, तो भस्म हो जाऊँगा!" बोला वो, "कौन है वो?" पूछा मैंने, "नही बता सकता!" बोला वो,
और रोने लगा, बैठ गया घुटनों पर, हाथ जोड़े, "बचा लो! हमें बचा लो!" बोला वो, करुणा थी स्वर में, बेहद करुणा! मेरा मन, पिघलने लगा था! "मुझे कौन बताएगा उसके बारे में?" पूछा मैंने, "वहाँ, वहाँ, रेजी है, वो बता देगी, लिखना जानती है" बोला वो, "मझे कैसे मिलेगी ये रेजी?" कहा मैंने, "आओ! आओ! मेरे साथ आओ!" बोला, मेरा हाथ पकड़ कर वो,
और ले जाने लगा एक तरफ, ढलान से उतरे, और जब ले गया, तो वहां करीब सौ से अधिक थे वो, मुझे देख, सभी खड़े हो गए! बालक-बालिकाएं, औरतें, मर्द, वृद्ध, कुछ औघड़ से! "वो रही रेजी!" बोला वो, और बुलाया रेजी को, अब रेजी डरे! न आये पास,
