वर्ष २०१३ काशी के प...
 
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वर्ष २०१३ काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और फिर सभी ने देखा! "चला गया!" बोले बाबा! "हाँ, लेकिन उसका घर तो दिख गया!" बोले शर्मा जी! "अरे शर्मा जी! कैसा घर?" बोला मैं! "क्यों? ये रहा न?" बोले वो। "सांप कभी बिल खोदता है?" मैंने पूछा, "नहीं!" बोले वो! "तो कैसे घर बनाता है अपना?" पूछा मैंने, "चूहों के बिल पर कब्ज़ा कर!" बोले वो! 'और जो बिल चूहे बनाते हैं, वो बहुत युक्तिपूर्ण बनाते हैं!" मैंने कहा, "वो कैसे?" पूछा उन्होंने! बताता हूँ, सुनो, बताओ मुझे, चूहों के सबसे बड़े शत्रु कौन हैं?" पूछा मैंने, "सांप, और उल्लू!" बोले वो! "हाँ, सांप! उल्लू कब्ज़ा नहीं करता उनके घर पर! सांप करता है! अब चूहे अपने बिल को, घुमाव-फिराव वाले बनाते हैं! वो जानते हैं कि सांप अंदर आ सकता है, तो पहली सुरक्षा ये कि वो घुमाव-फिराव वाले बनाएंगे! दूसरी सुरक्षा ये, कि बिल का एक मुंह नहीं होता! वे भागने के लिए, अपने बच्चों को बचाने के लिए पांच-पांच, छह-छह, आठ-आठ मुहाने बनाते हैं। अब ये घुसा तो यहां से है, लेकिन निकलेगा कहाँ से, ये नहीं पता!" मैंने कहा! "ओहो! ये तो मुसीबत हो गयी। अब?" बोले वो! "अब यही कि क़िस्मत के भरोसे रहा जाए!" मैंने कहा, "कैसे?" पूछा उन्होंने! "इंतज़ार करते हैं" बोला मैं! "कब तक?" बोले वो! "पता नहीं!" कहा मैंने! 

और तभी पौ फटी! "लो! हो गया काम!" मैंने कहा, "अरे!" बोले शर्मा जी! "अब ये भी नहीं पता कि तालाब से कितना दूर हैं हम। तालाब तो दीख ही नहीं रहा! सामान भी रखा है वहाँ!" मैंने कहा, "अब क्या करें?" बोले बाबा! 

"अब वापिस चलो" मैंने कहा, "फिर?" पूछा उन्होंने! "यहां निशानी लगा दो, झाड़ियाँ उखाड़ कर, ढेरी बना दो!" मैंने कहा, "फिर?" शर्मा जी बोले! "आते हैं फिर रात को! यहीं" मैंने कहा! तो हमने झाड़ियाँ उखाड़ उखाड़ कर, बना दीं ढेरियां! ये थी निशानी हमारी! 

और चले हम फिर वापिस! तालाब की ओर! रात भर, हमारा खूब डमरू बजाया था इस सर्प ने! और अब, सुबह ढोलक बज रही थी! क्या करते! लोभ-संवर्धन के मारे, कुछ कह भी नहीं सकते थे! 

और जब तालाब पर आये, तो हालत ऐसी थी जैसे हल जोत के आये हों खेत में! मैं तो लेट गया था! लेटे लेटे ही पानी पिया! "अब दर्द तो नहीं?" पूछा शर्मा जी ने, मैंने हाथ लगाया! सुई सी चुभी! "है, छूने पर हो रहा है!" मैंने कहा, "घर चलकर दवा ले लेंगे!"बोले वो! "हाँ, घर में आमचूर होगा, वो लगा लूँगा!" मैंने कहा, (अगर मकड़ी काट ले, या फिर किसी कारणवश मर जाए शरीर पर, या तो हाथ से, या कैसे भी, 

तो आप आमचूर लगा लीजिये वहां, वो फलेगा नहीं, नहीं तो ज़ख्म बन जाएगा) "हाँ ठीक है" वे बोले, "बाबा?" कहा मैंने! "हाँ?" बोले मुंह पोंछते हुए! "रास्ता याद है?" पूछा मैंने! "हाँ, याद है!" बोले वो। 

आराम कर लिया था मैंने, और सभी ने, पानी भी पी लिया था! कपड़ों से, काटें भी निकाल लिए थे हमने! "चलें?" पूछा मैंने, 

"चलो" बोले वो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब हम चले! टांगें जवाब दे रही थीं! घुटने चटक चटक कर रहे थे! "मर गए भई!" बोले बाबा! "और ले लो वेलिका!" मैंने कहा, "मुझे क्या पता था!" बोले वो! "न मझे दिखाते, और न मेरे दिमाग में अजगर मुंह फाड़ता!" कहा मैंने! हंस पड़े सभी! मैं भी! "हालत देखी है हमारी?" बोले शर्मा जी! "हाँ! कहा मैंने! "पढ़े-लिखे भिखारी लग रहे हैं!" बोले वो! मैं हंसा! "गाँव में कोई रोटी या पैसा ही न पकड़ा दे!" बोले वो! 

अब सब हँसे। और इस तरह, हम आ गए वापिस घर! घर पर, सब ऐसे देखें जैसे रात भर हम किसी छलावे से दंगल करके अाये हैं! मैं नहाने चला गया था! बाद में शर्मा जी भी! 

आँखें डबराने लगी थीं। लाल हो चली थीं! तब मैंने आमचूर मंगाया, 

और शर्मा जी ने लगा दिया वहाँ! "नीला पड़ गया है!" बोले वो! "हाँ, हो गया होगा!" मैंने कहा, फिर मंगवाई चाय! और चाय पी! 

और फिर मारी लेट! दोपहर से पहले भोजन कर लिया था! 

और फिर से आराम किया! बदन कटे पेड़ सा हो रखा था! जहां पड़ जाए, वहीं सो जाओ! ऐसी हालत थी हमारी! मैं सो गया, 

और फिर सभी आराम करने के लिए, सोही गए! और फिर बजे कोई छह, हम हए तैयार, अभी 

उजाला था, हमने सारी तैयारियां कर ली थीं,जो चाहिए था ले लिया था, पानी, और कुछ 

औषधियां भी, कल मकड़ी ने काट लिया था, सूजन तो नहीं थी अब, लेकिन दर्द हो जाता था कभी कभी! सुई सी चुभ जाती कभी कभी! हालांकि अब नीला भी नहीं था वो काटे का निशान, अब ठीक हो रहा था! इसीलिए औषधियां ज़रूरी थीं! तो हम कोई छह बजे सामान लेकर चले गए और चलते बने। पहले तालाब पहंचे और वहाँ से उस स्थान की ओर जहां हमने ढेरियां बनाई थीं झाड़ियों से, ये जगह इस तालाब से कोई दो-ढाई किलोमीटर दूर था, अब वहीं के लिए चले, रास्ता मुश्किल भरा था, लेकिन अब मुश्किलों की जैसे आदत पड़ चुकी थी, तो हम जा पहुंचे उस बियाबान में चढ़े ऊपर, झाड़ियों से बचते-बचाते! ज़मीन पर लाल रंग की बड़ी बड़ी चीटियाँ रेंग रही थीं, बहुत ज़हरीली हआ करती हैं ये! उनसे बचते बचाते आगे बढ़े, फिर एक जगह मधु-मक्खियों का छत्ता था, कई सारे थे यहाँ तो,अब सर ढका रुमाल से, और निकले आराम से, कहीं हमला कर दें तो समझो जान के लाले ही पड़ जाएँ! वहाँ से निकले, तो आगे जा पहुंचे, यहां भी एक दरार सी थी, दरार में झाँका, तो कुछ न था वहां, हाँ, किसी बड़े से जानवर के अवशेष थे,खोपड़ी से तो कोई सियार आदि नहीं लगता था, वैसे भी खोपड़ी का नीचे का हिस्सा नहीं था, समझ नहीं आ सका कौन सा जानवर था ये, खैर, हम आगे बढ़े, दरार पार की, और इस तरह हम जा पहुंचे उधर उस ढेरियों वाली जगह पर! ढेरियां अभी भी बनी थी, और वो बिल भी वहीं था, लेकिन आज देखा तो पता चला वहाँ करीब, आसपास में, दस-बारह बिल थे! होगा तो इन्ही में से किसी में! बस, यही सोच, किसी ऐसी जगह का इंतज़ाम करना था, ढूंढनी थी ऐसी जगह, जहां से ये बिल हमें दिखाई देते रहे। उधर कुछ पत्थर पड़े थे, बड़े तो नहीं थे, लेकिन ओट का काम


   
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श्रीशः उपदंडक
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कर सकते थे। हमने अपना डेरा यहीं डालने का निश्चय किया! और फिर जगह साफ़ की, अब तलक अँधेरा छाने लगा था, दिन भर सूरज की रोधनी से तपे पत्थर, गर्मी बाहर फेंक रहे थे! जगह साफ़ की तो चटाई और दरियां बिछायीं, फिर पानी पिया, और फिर रात के लिए, 

आग जलाने के लिए, लकड़ियाँ ढूंढी! लकड़ियों की कोई कमी नहीं थी यहां! बहुत थीं लकड़ियाँ! लकड़ियाँ इकट्ठी कर ली और अब ज़रा आराम किया, लेकिन नज़र बराबर बनी हुई थी उन बिलों पर! "हो गयी शाम" बोले शर्मा जी, "हाँ जी" कहा मैंने, "ये जला दूँ?" बोला सिद्धा, नहीं, अभी नहीं" मैंने कहा, एक इमरजेंसी लाइट थी उसके पास, उसी के लिए पूछा था उसने, "एक काम कर" मैंने कहा, "बोलिए?" बोला सिद्धा, 

"आग जला ले" कहा मैंने, "जलाता हूँ" बोला वो, 

और चला एक शीशी लेकर आग जलाने के लिए, लकड़ियाँ सही से रखीं उसने, मोटी मोटी नीचे, 

और फिर उनके ऊपर, छोटी छोटी! और फिर इस तरह, आग जला ली उसने, ईंधन के लिए उसने शायद मिट्टी का तेल डाला था, "आ जा! जल गयी" कहा मैंने, वो उठा, और आँखें मलता हआ आया, पानी की बोतल ली, 

और हाथ साफ़ कर लिए, चेहरा भी! "अब यार, ज़रा चाय पिला दे!" कहा मैंने, "अभी लो" बोला वो, 

और चाय डालकर दे दी सबको! हम आराम से चुस्कियां भर, चाय पीते रहे! रात गहराई अब, बजे नौ! 

और अब जंगल जागा! अजीब अजीब सी आवाजें आएं! पक्षी जो रात में सक्रिय होते हैं, अजीब अजीब सी आवाज़ निकालें! उल्लू, डराने वाली आवाजें निकालें! एक आवाज़ विशेष थी, चिहुत-चिहुत जैसी, ये सुनहरा उल्लू होता है। बड़ा भी होता है, और सुंदर भी, तंत्र में इसी का प्रयोग किया जाता है, लेकिन लोग, जो नहीं जानते, हर प्रजाति के उल्लू के पीछे पड़े रहते हैं। "सुरना है न ये?" पूछा मैंने बाबा से! "हाँ, आवाज़ तो वहीं है" बोले वो, "बाज़ार में क्या कीमत होगी इसकी?" पूछा मैंने, "कच्चे में बीस, पक्के में एक लाख तक!" बोले वो! "हाँ, और शहरों तक पहुंचते पहुंचे दोगुनी!" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो! 

और फिर, बड़ा सा चमगादड़ उड़ा वहां से! "ये देखो! हैन पूरा लोमड़ी जैसा!" शर्मा जी बोले! "हाँ! बहुत बड़ा है!" कहा मैंने! "ये तो खरगोश भी मार ले!" बोले वो! 

.. 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ यार!" मैंने कहा, "ये देखो! एक और!" बोले वो! सच में, काफी बड़े चमगादड़ थे वहां! मैंने नहीं देखे थे ऐसे चमगादड़ आज तक! 

और फिर हम बातें करते रहे! कोई ग्यारह बजे.......... अब तक तो कोई हरकत नहीं हुई थी वहाँ! सब शांत था! सांप तो क्या, सांप का संपोला भी नहीं दिखा था! "बहुत छका दिया इसने तो!" बोले शर्मा जी! "हाँ, बहुत छकाया!" मैंने कहा, "अब बस हो जाएँ दर्शन तो हो मनोरथ पूरा!" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने। इस तरह से एक घंटा और बीत गया! बारह बजे............ मैं तो लेट गया था! आकाश में चाँद थे। चांदनी खिली थी! और इस चांदनी में, ठंडक थी! मैंने तो खेस निकाल लिया था! तपते हुए पत्थर अब चांदनी की शीतलता सोखने लगे थे! सर्दी सी होने लगी थी। रात कोई एक बजे.. "सिद्धा?" बोले बाबा! "हाँ जी?" बोला वो! "चाय ले आ" बोले वो! "लाता हूँ" बोला सिद्धा! 

और चाय ले आया! दे दी हमें! हमने चाय पीनी शुरू की! 

और अचानक ही! अचानक ही एक बिल में, जैसे मोमबत्ती सी जल रही हो, ऐसी रौशनी हुई। हम सभी थे मुस्तैद! गड़ा दी नज़रें! जल्दी जल्दी चाय हलक में उतारी! 

और हम ज़मीन पर लेट गए! नज़रें बांधे हुए, उसी बिल से! जहां से रौशनी आ रही थी! पांच मिनट! दस मिनट! पंद्रह मिनट। हमारे दिल धड़कें। उत्सुकता चरम पर पहुंची! कांटे से चुभने लगे हलक़ में! 

और फिर अचानक ही, रौशनी बंद! लौट गया था पीछे शायद वो! नहीं आया था बाहर! हमें तो जैसे यकीन ही नहीं हुआ! "कहाँ गया?" पूछा मैंने, "लौट गया शायद" बोले बाबा! नज़रें, वहीं बांधे हम लोग, अब उठ बैठे थे! "आएगा! ज़रूर आएगा!" बोले बाबा! एक घंटा और बीत गया! हमारी साँसें अटकी हुई थीं! रात में जैसे हमारे कान श्वान जैसी प्रतिक्रिया कर रहे थे, ज़रा सी आहट होती, तो वहीं लग जाते! जबकि बिल सामने ही था। अब आई कण से बिल से थी वो रौशनी, ये भी नहीं मालूम था, हम उस बिल से कोई पैंतीस फीट दूर थे, ताकि उसके विष के संत्रास से दूर ही रहें! कहीं वो उग्र हुआ तो लेने के देने न पड़ जाएँ! हालांकि मुझे विद्याओं पर पूर्ण भरोसा था लेकिन फिर भी, इस सर्प कोई कोई कष्ट न पहुंचे, यही प्रयास था हमारा, बस! "आया नहीं?" बोले बाबा! "पता नहीं" मैंने कहा, 

और तब सिद्धा खड़ा हुआ! आगे जाने लगा! धीरे धीरे! उन बिलों की तरफ! "सिद्धाः सिद्धा?" पुकारा मैंने! लेकिन सिद्धा न सुने! बढ़े ही जाए वो! "सिद्धा? पीछे लौट?" कहा मैंने! नहीं लौटा! बढ़ता ही गया! जैसे मंत्रमुग्ध हो गया हो! "सिद्धा? वापिस लौट?" बाबा ने पुकारा! 

नहीं माना! नहीं लौटा! 

और सिद्धा जा पहुंचा उन बिलों के पास! टोर्च जलायी उसने! और उन बिलों पर मारी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हम खड़े हो गए थे, देख रहे थे, क्या कर रहा है ये सिद्धा? "इधर आओ?" चिल्लाया सिद्धा! हम सभी भाग छूटे ये सुन! गए उसके पास! टोर्च हमारी तरफ थी, तो देख नहीं पा रहे थे उसको हम! उसने टोर्च नीचे की, अब दिखाई दिया वो हमें! "वो देखो वहां!" बोला वो! हमने सामने देखा, बिलों से दूर, पीछे की तरफ! 

तो वहां दो रोशनियाँ थीं! एक बड़ी और एक छोटी! जैसे, एक नर हो, और एक मादा! "अरे! ये तो जोड़ा है!" बोले बाबा! "हाँ! जोडा है!" शर्मा जी बोले! 

और जैसे ही सिद्धा और बाबा चलने लगे आगे वहाँ की तरफ, "रुको!" कहा मैंने! "क्या हुआ?" बोले बाबा! "यदि वो जोड़ा है, तो ये मामला बहुत खतरनाक है! और अगर मादा नहीं भी है, तो भी खतरनाक है, वहाँ जाने से पहले, सब इधर आओ' मैंने कहा, वे आगे मेरे पास, "सिद्धा पानी ला" मैंने कहा, सिद्धा भागा और ले आया पानी! मुझे दिया, मैंने अंजुल में पानी लिया, और अब बाबा जागड़ की बतायी बहुमंडिका-विद्या का संधान किया! और जल को अभिमंत्रित कर, सभी को चटा दिया! और खुद ने भी चाट लिया! चाटते ही, शरीर में जैसे सूजन सी आ गयी! गर्मी लगने लगी! लेकिन अब हम किसी भी विष से प्रभावित नहीं हो सकते थे! कोई भी विष अब असर नहीं करता! हाँ, ये विद्या दो घटी तक ही कार्य करती है, अर्थात अड़तालीस मिनट तक ही। "अब चलो!" कहा मैंने! 

और हम अब चल पड़े! नीचे ढलान थी, शुक्र था झाड़ियाँ नहीं थीं! पत्थर थे, 

हम उनको लांघ कर, उन्ही दो रोधनियों की तरफ बढ़ते जा रहे थे! 

वो हमसे करीब डेढ़ सौ फीट दूर होंगे! हम बढ़ते चले आगे! 

सौ फीट! अस्सी फ़ीट! साठ फ़ीट और फिर चालीस फीट! अब वे सामने थे हमारे! वे दोनों आसपास ही बैठे थे, एक ने आधी कुंडली मारी थी, और एक ने पूरी कुंडली, बड़ा वाला आधा ऊपर था और आधा नीचे एक पत्थर के! "आओ!" मैंने कहा, 

और जैसे ही हम आगे बढ़े, दबे पाँव, उस मादा ने देख लिया हमें! झट से कुंडली कसी, और की गर्दन ऊपर! हम अब कोई तीस फ़ीट करीब थे। "एक साथ न रहो, फैल जाओ!" मैंने कहा, 

और हम सब फैल गए! अभी कोई पंद्रह बीस मिनट ही बीते होंगे, अभी समय था हमारे पास! अब वो मादा, और वो नर, एक साथ उस पत्थर पर हो गए! गर्दन घुमा हम सभी को देखें! उनका प्रकाश तेज था, किसी चमकदार बल्ब की तरह, पीला, सुनहरा प्रकाश! वो चमक को दीख रही थी, लेकिन उनका मुंह, और बाकी शरीर नहीं दिख रहा था उस चमक के कारण! "आगे चलो!" मैंने कहा, एयर हम आगे चले। कोई पच्चीस फ़ीट! अब वे सर्प परेशान! बारी बारी से हम सबको देखें! 

और तब के करारी सी फुफकार! बहुत थी हमें रोकने के लिए! हम खड़े हो गए वहीं, जहां थे! "रुको!" कहा मैंने! सब जस के तस! "मैं आगे बढ़ता हूँ!" कहा मैंने! 

और मैं आगे बढ़ा! 


   
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बीस फीट पर रुका! एक और करारी सी फुकार! इस बार बहुत तेज! जैसे पूरे फेंफड़ों की हवा बाहर निकाल दी हो! वो मादा, लिपटने लगी उस नर से! और नर, उसको सिमटाने लग अपने अंदर! मैं जानता था ये गलत है। सरासर गलत है! हमने ही तंग किया है उन्हें! लेकिन, फिर न जाने कभी ऐसा अवसर मिले न मिले! धुर्जटाक्ष हमारे सामने थे। किवदंती के सर्प! 

बौद्ध-चिकित्सा की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक पर अंकीर्ण सर्प! दुःसाध्य रोगों को साध्य बनाने वाले सर्प! मणिपुर की लोक-गाथाओं के महान सर्प! हमारी आँखों के सामने थे! कम्बोडिया, मलेशिया, आदि देशों के प्राचीन मंदिरों में बने, पहरेदार देव-द्वार के ये सर्प! चोल राजाओं के रक्षक ये सर्प! हमारे सामने थे। दुर्लभ! चमत्कारी! ये सर्प! हमारे सामने ही थे! सुलोचना यक्षिणी के वक्ष-स्थल से लिप्त वो, धुर्जटाक्ष, हमारे सामने था! "बाबा! आगे आओ!" कहा मैंने! बाबा आगे बढ़े! "आओ सभी!" बोला मैं। 

और सब आगे बढ़े! और तभी फिर से दोनों ने मारी फुकार! फुकार के वायु से आँखें भी बंद हो गयीं थी! 

ऐसी भयानक फुकार थी! ऐसी भयानक! हम अब रुके! अब स्पष्ट रूप से देख सकते थे हम उन्हें! सफेद रंग की चमकती हुई वो आँखें, वो 

चार आँखें आज भी याद हैं मुझे! वे घूर रही थीं हमें! एक एक करके सभी को देखे जा रही थीं! और फिर जैसे उस मादा में अपना आपा खो दिया! मादा सैदेव, इस संसार में, सभी जीवों में सबसे अधिक आक्रामक हुआ करती है। सों में तो विशेष तौर पर! तो उसने अपना आपा खोया, और जैसे ही आगे बढ़ी, नर ने अपना सर उसके शरीर से टकराया! रोकना चाहा उसको! लेकिन वो नहीं रुकी! वो सीधा भागी मेरी ओर! मैं जस का तस खड़ा था! जैसे ही आई कोई आधा फ़ीट पास, रुक गयी! झटके से पीछे हटी! बहुमंडिका की गंध आई होगी उसको! वो कुंडली मार, बैठ गयी! उसने गर्दन तान ली अपनी और देखे मुझे घूरते हुए, मेरे पेट तक आ रही थी वो! शरीर बहुत ही चमकदार था, शल्क नीले रंग जैसे चमक रहे थे उसने! जीभ लपलपा रही थी वो! और तभी, तभी वो नर भी आ धमका! उसको भी गंध आई.और रुक गया मादा के पास ही! कितने खूबसूरत थे वो! दिव्य लग रहे थे! अब सभी आ जुटे थे मेरे समीप ही! नर, बार बार उन सभी को फुकार मारता! अपनी पूंछ पटकता! मेरी नाक से पानी बहने लगा थोड़ी देर बाद ही, इसका अर्थ था, कि बहुमंडिका अपना प्रभाव छोड़ने लगी है, और ये संकेत है, अब हटने का वहां से! वे दोनों वहीं, परेशान से, क्रोध में, हमें देख रहे थे! विद्या से संचरण न हुआ होता तो शरीर सूख जाता! ऐसी फंकार होती है उसकी! "आओ सभी, वापिस चलो!" कहा मैंने! 

अब हम पीछे हटने लगे! "कमर मत दिखाना इन्हे!" कहा मैंने! कमर दिखाते तो अर्थ था कि हम भाग रहे हैं उनसे डरके और फिर वो हमला भी कर देते! इसीलिए मैंने सभी को यही कहा था कि पीछे हटो लेकिन कमर नहीं दिखाना! हम सब ऐसे ही पीछे हटने लगे! हम हटे तो वे दोनों आये लपक के हमारे पीछ! "रुको!" मैंने सभी को कहा! सभी रुक गए! अब वे दोनों भी रुके! कुछ पल! ऐसे ही! "अब हटो पीछे!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम हटने लगे! वे दोनों वहीं रुके रहे! हमें टकटकी लगाए देखते रहे! 

और फिर एक झटके में ही दोनों आगे बढ़े हमारे लिए! "रुक जाओ!" मैंने कहा! 

और सभी रुके! वे भी रुक गए! कुछ पल और ऐसे ही! वे हमें खदेड़ना चाहते थे अपने क्षेत्र से। "चलो, हटो!" मैंने कहा, 

और हम हटने लगे! आहिस्ता आहिस्ता! अब थोड़ी दूरी बनी हमारे बीच! 

और तभी! तभी वो, मादा, आई भागते हुए, तेजी से रेंगते हुए, और रुकी! "रुक जाओ!" मैंने कहा, 

और हम रुके! फिर नर भी आ गया उधर! क्रोध में फुफकारें! गर्दन को झटके दे! ज़मीन में फुकार मारे! 

आ गए थे हम उन बिलों तक! "चलो पीछे!" मैंने कहा, 

और हम चले अब! अब बनी दूरी हमारे बीच! "भागो!" मैंने कहा, और हम ऐसे भागे कि, अपनी उसी जगह आ कर ठहरे! साँसें बटोरीं अपनी और बैठे। पानी पिया! मैं लेट गया फिर, फिर सभी लेट गए! पर सिद्धा बैठा रहा। "हो गए दर्शन!" बोले शर्मा जी! "हाँ! हो ही गए! सफल हुई मेहनत!" कहा मैंने! मित्रगण! उस शेष रात हम वहीं ठहरे! रात भर वे सर्प उन बिलों तक नहीं लौटे! हम अगली सुबह तक वहीं रहे! वे नहीं लौटे, हमने फिर से उनको देखने के लिए सोचा, और चले फिर से आगे! दूर पत्थर पर, दोनों सर्प अपनी अपनी गर्दन लपेटे, कभी कलाबाजियां करते, कभी गरदन उठा लेते! कभी जैसे लड़ रहे हों, ऐसा करते! हमने दूरी बनाये रखी! अब उनका रूप देखा हमने! श्याम-नील आभा थी उनकी! याक्षणिक-सर्प हैं ये! कोई संदेह नहीं! हम लौट पड़े! उद्देश्य पूर्ण हो चला था! मित्रगण! इस संसार में ऐसे न जाने कितने रहस्य हैं जो दबे पड़े हैं। दूर-दराज में! हमने आज तक अपनी पृथ्वी पर ही पूर्ण खोज नहीं की है! न जाने क्या क्या भरा पड़ा हो! हमने सागर में 

खोज की, आकाश में की, अंतरिक्ष में की, ब्रह्माण्ड में भी कर रहे हैं। लेकिन अभी तक, अपनी पृथ्वी ही पूर्ण नहीं कर पाये! हमने तो रास्ते बना दिए हैं, मार्ग! बस, उन्ही से गुजरते चले जाते हैं! दायें-बाएं क्या है, नहीं भान हमें! ऐसे ही है ये धुर्जटाक्ष! इसी संसार में है! औरों का तो पता नहीं! लेकिन ये, एक जोड़ा, अभी भी है उन जंगलों में! मनुष्यों से अलग! और अलग ही रहें तो उत्तम है। मानव-प्रवृति सदैव संशय में ही रही है। ऐसे ही एक ऐसा बिच्छू है, कौड़म। कहते हैं, यदि इस से कटवाया जाए, तो मनुष्य की आयु लौटने लगती है। मृत कोशिकाएं हट जाती हैं, 

और नव-कोशिकाओं का निर्माण होने लगता है। और ये, क्षय भी बहुत देर से हुआ करती हैं। इस से वृद्धावस्था पीछे छूटने लगती है। एक दंश से, दस वर्ष तक की आयु घटने लगती है वृद्धावस्था की! और तो और, इस बिच्छू के कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती! मुझे किसी ने दिखाया था ऐसा ही एक कौड़म बिच्छू! सारा शरीर काला था उसका, लेकिन पाँव पीले थे, वो व्यक्ति कहता था कि उसके चौथे परदादा ने पाला था उसको! कौन जाने! नकार नहीं सकता था! यदि स्वीकार नहीं भी करता तो!

------------------------साधुवाद!--------------------


   
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