से गीत-गान में व्यस्त थे! मेरी आवाजों से, बाबा भी जाग गए थे! वे उठे, पानी लिया और कुल्ला आदि कर, पानी पिया! आये फिर हमारे पास ही! बैठे! सामने
आग में से अब धुंआ उठ रहा था, आग सुलग रही थी अभी भी, मैंने पानी लिया और छिड़क दिया उस पर, और लकड़ी से, खिंडा दिया उसके, ताकि आग शेष न रहे! और आया वापिस, बैठा, "हाँ बाबा!" बोला मैं! मुझे देखा उन्होंने! ज़रा संकोच से! "आप सही थे" बोले वो! "नहीं आया न?" पूछा मैंने! "हाँ, नहीं आया" बोले वो, "आएगा भी नहीं!" बोला मैं! "हाँ, समझ में आ गया!" बोले वो! "ये नाग-स्थल है, यहां वो नहीं आएगा!" बोला मैं! "हाँ, यही बात है" बोले वो! "मैं रात को ही समझ गया था!" कहा मैंने! "तो अब क्या करें?" बोले वो! "देखो, इतना हमारे बस में नहीं कि सारा ये स्थान छान मारें! इसमें तो सालों लग जाएंगे! हवा में उड़कर हम देख नहीं सकते! अब एक ही विकल्प है!" मैंने कहा, "और वो क्या?" पूछा उन्होंने! "यही कि अब पूनम की रात को यहां आया जाए दुबारा!" बोला मैं! "यानि कि फिर से तालाब पर?" बोले वो! "नहीं, वहीं उसी पानी वाले गड्ढे के पास!" कहा मैंने "अच्छा! समझा!" वो बोले! । "हाँ, अब समझे आप!" कहा मैंने! "तो अब चलो यहां से! आज हम निकल जाते है दिल्ली, मैं चौदस को आ जाऊँगा यहां दुबारा,
आप यहीं मिलना हमें!" बोला मैं! "मैं यहीं मिलूंगा!" बोले वो! "सिद्धा? तू क्या करेगा?" पूछा मैंने, "इसको मैं ले आऊंगा!" बोले बाबा! "हाँ ये ठीक है!" मैंने कहा! "चलें?" बोले वो! "हाँ, अब चलो" मैंने कहा,
और इसके बाद हम वापिस हुए! हैरानी ये, कि इस बार एक भी सर्प नहीं मिला! न रास्ते में, और न ही उस दरार में! कहीं नहीं था! हम घर लौटे! नहाये-धोये, खाना आदि खाया, और उसके बाद मैं और शर्मा जी, बाबा के साथ,
और सिद्धा के साथ पहंचे रेलवे-स्टेशन, गाड़ी आती कोई घंटे भर में, हमने टिकट ली, बाबा और सिद्धा से विदा ली, और हुए गाड़ी पकड़ वापिस फिर! हम आ गए वापिस दिल्ली! लेकिन समय काटे नहीं कटा हमारा! हम बस वहीं के बातें करते रहते! मुझे एक दो जगह जाना भी था, लेकिन नहीं गया मैं, कहीं
और कहीं न फंस जाऊं, इसीलिए नहीं गया था मैं कहीं! हाँ, इस समय में, जो मेरे पास था, मैंने बाबा जागड़ से सम्पर्क साध लिया था, बाबा जागड़ ने मुझे उस धुर्जटाक्ष के बारे एम विस्तृत जानकारी दे दी थी, कौन सी विद्या कहाँ चलानी है, ये भी बता दिया था, कनकी ने विद्या क्यों नाश की, इसका भी उत्तर दे दिया था मझे! कनकी रात्रिकाल-बली है, मुझे ऐसी विदया। दिवाःकाल में उपयोग में लानी चाहिए थी! अब समझ में आ गया था मेरी! और जैसा उन्होंने कहा, मैंने वही विद्याएँ अब जागृत की! जाने से एक दिन पहले, शर्मा जी और मैं आये हुए थे कहीं! किसी उपलक्ष्य में, वहीं फ़ोन आया बाबा चंदन का! बताया उन्होंने कि वो पहुँच जाएंगे कल वहां! और उनके साथ एक और बाबा है, बाबा शालनाथ, शालनाथ सर्प विद्या के माहिर हैं ऐसा बताया उन्होंने मुझे!
और आया वो दिन, जब हम चले चुनार के लिए! सफर तो ठीक-ठाक ही रहा! पहुँच गए वहाँ! बाबा लेने आये थे! घर पहुंचे हम! आराम किया! और बाबा शालनाथ से परिचय हुआ! बाबा कोई सत्तर वर्ष के थे! असम के रहने वाले। "मुझे बताया जो हुआ था!" बोले बाबा! 'हाँ जी' कहा मैंने, "आपने गलती की' बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने! "कनकी को पकड़ लेना था!" बोले वो!
ओह! मुझे तो बाबा के बौद्धिक-स्तर से आघात पहंचा! "उस से क्या होता?" कहा मैंने! "वो खुद ले जाती!" बोले वो! "ऐसा सम्भव है?" पूछा मैंने! "क्या सम्भव नहीं है?" बोले वो! "लेकिन कनकी का क्या दोष?" कहा मैंने, "दोष-वोष छोड़ो!" बोले वो! "तो फिर?" पूछा मैंने, "जब वो पकड़ में आती, तो ले जाती!" बोले वो! मैं हंस पड़ा! "मैं बच गया ये कम है क्या?" पूछा मैंने! "कुछ नहीं करती वो!" बोले वो! मैं मुस्कुराया! "आज देखिये आप!" बोले वो! अब मुझे नागवार सा गुजरा ये सब! बाबा चंदन से बात करनी चाहिए थी मुझे पहले ही! मैंने उनको बुलाया,
और ले गया ज़रा बाहर, बात करने! "क्या हुआ?" बाबा ने पूछा, "ये क्या सुन रहा हूँ मैं?" पूछा मैंने, "क्या?" बोले वो, "क्या होना है आज?" पूछा मैंने, "आज चलेंगे तो देख लेना?" बोले वो, "आज चौदस है, हमें कल जाना है?" बोला मैं, "देखो, एक बात बताओ?" बोले वो, "पूछो?" कहा मैंने, "आपको पता है कि वो जगह बहुत बड़ी है, है न?" बोले वो, "हाँ, तो?" कहा मैंने,
"और हम सालों घूम लें तो भी नहीं ढूंढ पाएंगे?" बोले वो, "हाँ, मुमकिन है" मैंने कहा, "तो अगर, कनकी को पकड़ लिया जाए, सम्मोहित कर लिया जाए, तो वो हमें वहाँ तक ले जा
सकती है या नहीं?" बोले वो, "ले जा सकती है, लेकिन ऐसा करना नियम के विरुद्ध है" कहा मैंने, "वो कैसे?" पूछा उन्होंने! "वो ऐसे, कि हमें धुर्जटाक्ष ने अपना अतिथि तो बनाया नहीं है कि आ जाओ मैं तैयार बैठा हूँ तुमसे मिलने के लिए, भले ही कनकी को पकड़ लो तुम, क्या धुर्जटाक्ष को क्रोध आएगा या नहीं?' पूछा मैंने, "क्यों आएगा? हम कनकी को मार थोड़े ही रहे हैं?" बोले वो! "आप दिमाग खराब है क्या?" मैंने गुस्से से पूछा, "क्यों?" बोले वो, "और अगर कनकी ने विद्या काट दी, तो क्या होगा?" पूछा मैंने, "क्या होगा?" कंधे उचका कर पूछा उन्होंने, "तो आप दो के शत्रु हो गए, कनकी के, और इस सर्प के भी, आई समझ?" बोला मैं! "उस से क्या?" बोले वो! "अब सुनो?" बोला मैं, "क्या?" बोले वो! "कोई नहीं जाएगा कनकी को पकड़ने!" बोला मैंने, "बाबा शालनाथ नहीं मानेंगे!" बोले वो, "आप मनाओ उन्हें फिर?" कहा मैंने, "नहीं मानेंगे" बोले वो, "आपका दिमाग घास चरने गया था? क्यों बताया आपने बाबा शालनाथ को?" बोला मैं, "आपको कनकी ने गिरा दिया था, मार भी सकती थी, इसलिए!" बोले वो, "ये क्या बेवकूफी है?" कहा मैंने, "मैंने यही बताया था, बोले जान बच गयी उसकी, नहीं तो वहीं जान निकल जाती!" बोले बाबा! "हाँ, यही कहा था मैंने!" आ गए थे शालनाथ!
आ गए थे कमरे से बाहर, सुन ली थी बातें हमारी उन्होंने! "आप आज जा रहे हैं?" पूछा मैंने, "हाँ" बोले वो,
"क्या करने?" पूछा मैंने, "कनकी को पकड़ने" बोले वो, "बाबा शालनाथ, मैं आपके संग नहीं फिर" मैंने कह दिया, "वो आपकी मर्जी!" बोले वो! अर्थात, कुछ अनहोनी इन्होने करवानी ही थी! अपने सर पर कफ़न लपेट के आये थे बाबा शालनाथ! "कभी कनकी से सामना हुआ है?" पूछा मैंने, वे चुप हुए, मुझे घूरा! "यात्व के विषय में जानते हो?" बोले वो! "हाँ, जानता हूँ!" कहा मैंने, "कनकी से परे है या उरे?" पूछा उन्होंने! "अब इसमें इसका क्या अर्थ?" पूछा मैंने, "बताओ तो?" बोले शालनाथ, "हाँ, परे है" मैंने कहा, "जब उसको खींच सकता हूँ, तो कनकी क्या करेगी?" बोले वो, हाथ मटकाते हए! "कनकी और यात्व में अंतर है!" मैंने कहा, "अंत अपने पास ही रखो!" बोले शालनाथ, और चले गए कमरे में वापिस! मुझे बहुत गुस्सा आया! मन किया, इस शालनाथ को पकड़ कर, बाहर का रास्ता दिखा दूँ! लेकिन वृद्ध थे,
और हो सकता था, मैं ही गलत होऊ! लेकिन मैं तो उसके प्रति अन्याय के विरुद्ध था! कनकी और अन्य नागों का इस से क्या लेना-देना? "मैं नहीं जाऊँगा" कहा मैंने, "जाना तो होगा" बोले वो, "नहीं" मैंने कहा, "बालकों की तरह से न सोचो!" बोले वो, "आप बड़े होते हए भी बड़ों की तरह नहीं सोच रहे!" मैंने कहा, "जाना है, समझे?" बोले वो! मेरे कंधे पर हाथ रखते हए! "बाबा?" बोला मैं,
"आप गलत कर रहे हो" मैंने कहा, "कुछ गलत नहीं" बोले वो, अब मेरे मन में दो-फाड़ हुए! जाऊं? या न जाऊं? जाऊं तो किसलिए?
और न जाऊं तो किसलिए? बहुत सोचा एक ही पल में! "ठीक है, चलूँगा, लेकिन मुझसे कोई अपेक्षा न रखें" मैंने कहा, "मंजूर!" बोले वो!
और चले गए फिर बाबा शालनाथ के पास! शर्मा जी उठ आये मेरे पास! "क्या बहस हो रही है?" पूछा उन्होंने, अब सारी बात बतायी मैंने उन्हें! गौर से सुनी, सोच में डूबे! मुझे और दूर ले गए वो, मेरी बाजू पकड़ी, "इस बहन के ** का दिमाग चल गया है क्या?" गुस्से से बोले वो, "हाँ, चल ही गया है" मैंने कहा, "तो हमें मरवाने पर क्यों तुला है?" बोले वो! "हम नहीं मरेंगे। इत्मीनान रखिये!" कहा मैंने! "साले ये तो मरेंगे?" बोले वो, "हाँ, हो सकता है" बोले वो,
और तभी सिद्धा भी चला आया, मैंने कंधे पर हाथ रखा उसके, वो समझ तो गया ही था, "इनकी लाशों को हम ढोएंगे क्या?" पूछा उन्होंने! "नहीं! ये इस लायक भी नहीं बचेंगे!" कहा मैंने! "इनको समझाया आपने?" पूछा उन्होंने, "बहुत" कहा मैंने, "तो हम जा रहे हैं" बोले वो, "हाँ" कहा मैंने, अब गालियों की हुई बौछार!
"इस शालनाथ की * में इस त्रिशूल डालकर, वहीं लटका दो साले का!" बोले वो! मैं हंस पड़ा! सिद्धा भी! "चलो, देखते हैं!" कहा मैंने, और मैं अंदर की ओर चला! आया अंदर, बैठा! शालनाथ गांजा भरी सिगरेट पी रहे थे! "लो?" बोले वो, "नहीं!" कहा मैंने, "पीते नहीं हो?" पूछा, "पीता हूँ, कभी कभी कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो! पानी आया, पानी पिया! "कनकी
से डर गए थे? उलटी आ गयी थी?" बोले वो! "डर के कारण नहीं" कहा मैंने, "फिर?" पूछा, "विष की गंध के कारण" बोला मैं, "आज देखना, कैसे नाचेगी!" बोले वो! "देखते हैं" कहा मैंने "सामान बांधो" बोले शालनाथ, "बंधा हुआ है" कहा मैंने, "तो शाम को निकलते हैं" बोले वो, "ठीक" कहा मैंने, "आज कनकी नहीं या हम नहीं" बोले वौ! मन तो किया कि, ऐसा जवाब दूं कि पलंग तोड़, नीचे गिरे जाए ये शालनाथ! लेकिन चुप रहा!
आज शालनाथ का मदारीपन भी देखना था! "और कितने हैं वहां?" बोले वो, "बहुत सारे" बोले बाबा चंदन, "कोई सुरख दिखी?" बोले वो! कमीना आदमी!
सुरख ढूंढने आया है। सुरख अर्थात कोई नाग-कन्या! कैसे कैसे लोग भरे पड़े हैं संसार में! गुस्सा तो बहुत आया! लेकिन पीना पडा! "तो छह बजे!" बोले वो "ठीक है" कहा बाबा चंदन ने! "और तुम भी" बोले वो! "हाँ, उचित है" कहा मैंने, उठा और गया बाहर फिर! तो हम सब छह बजे अपना अपना सामान लेकर, चल दिए! सिद्धा ने हमारा सामान उठाया हुआ था, बाकी सामान बाबा चंदन ने, बाबा शालनाथ लम्बे लम्बे डिग भर, बढ़े चले जा हे थे बाबा चंदन के साथ हमारी मंज़िल वही थी, वहीं जगह जहां हम उस रात ठहरे थे। हम चले, चलते रहे, उस तालाब तक पहुंचे, और फिर उस पहाड़ तक आये, वहाँ से वो दरार पार की, कोई सर्प नहीं था वहाँ आज भी! जैसे सारे कहीं छिप गए हों! "चंदन?" बोले बाबा, "हाँ जी?" बोले वो, "तू तो कह रहा था यहां सैंकड़ों सांप हैं?" बोले बाबा! "हाँ, थे, आज एक भी नहीं है" बोले बाबा चंदन! बाबा शालनाथ रुके, "नहीं, एक तो है!" बोले वो! "कहाँ?" बोले बाबा! "वो सामने देख" बोले वौ! मैंने भी देखा! पस्त था वो, एक छोटा पस्त! "छोटा ही है!" मैंने कहा, "हाँ, चलो आगे फिर' बोले वो! हम चले, आगे बढ़े, और आ गए उस गड्ढे तक! रुके सब! "तो ये है वो गड्ढा जहां वो सर्प आता है!" बोले शालनाथ, "हाँ जी" बाबा बोले,
"अच्छा!" बोले वो,
और ज़रा नीचे की ओर चले! गड्ढे तक! पानी में हाथ डाला, सूंघ और पानी छोड़ दिया नीचे! "सुरख तो हैं यहां चंदन! क्या जगह लाया है तू!" बोला वो! धृष्ट आदमी! निःकृष्ट सोच वाला आदमी! सत्तर की उम में भी सुरख! क्या करेगा ये! "चल आगे अब" बोले शालनाथ, "चलो" बोले बाबा!
और हम चढ़ते गए ऊपर! आ पहुंचे उसी जगह जहां हमने एक रात बितायी थी! रखा सामान वहाँ! जली हुई लकड़ियाँ अभी भी पड़ी थीं वहाँ! "तो यहाँ रुके थे आप सभी?" बोले वो! "हाँ!"बाबा ने कहा, "और वो कनकी कहाँ से आई थी?" पूछा बाबा से, "वो, वहाँ से" बोले बाबा! "अच्छा!" बोले वो! "चंदन, घेरा डाल!" बोले बाबा! "अभी डालता हूँ!" बोले बाबा!
और सिद्धा से साफ़-सफाई के लिए कहा उन्होंने! सिद्धा ने नाक-भौंह सिकोड़े अपने। लेकिन फिर भी, मेरे कहने पर, कर दी साफ-सफाई!
और बाबा चंदन ने घेरा खींच दिया! काफी बड़ा घेरा था! "लकड़ियाँ ले आओ आप!" बोले बाबा शालनाथ, हक्म सा चला रहे थे! कोई बात नहीं, देखें कितनी देर! मैं और शर्मा जी, सिद्धा के संग, ले आये लकड़ियाँ तोड़ तोड़ कर!
और फिर पी हमने चाय! "भिलक कनकी है?" मुझसे पूछा बाबा ने, "हाँ वही है" कहा मैंने। "वाह!" बोले!
और जांघ पर हाथ मारा अपनी! फिर हुई रात!
और तब मेरा दिल धड़का तेज! मैं तो शर्मा जी और सिद्धा के संग, एक कोने में ही बैठ गया था जैसे दुबक कर! और शालनाथ! मदिरा का आनंद लेने लगे! यहां थूक नहीं गटका जा रहा था अंदर, वहां मदिरा! मित्रगण!
कोई नौ बजे रात में! आई आवाजें हिस्स! हिस्स! हिस्स! अब हलक सूखे हमारे! हमारे मतलब हम तीनों के ही! "आ गए?" चिल्ला कर बोले बाबा शालनाथ!
और तब! तभी उस आग की रौशनी में, और टोर्च की रौशनी में, मैंने उसी कनकी को देखा! चमकदार काला चौड़ा फन! दहकती हुई पीली गंधक जैसी आँखें! सुतवां और मज़बूत सा शरीर! कंडली मारे तो करीब छह फ़ीट की हो! मेरे हाथ-पाँव फूले! पसीना छलछलाया! आँखें हुई चौडी! और बाबा शालनाथ! हुए सबसे आगे! "कनकी!" बोले बाबा! मारी फुकार! "आ! आ!" बोले वो! फुकार!
और तेज फुकार! चौदस का चाँद, मुस्कुराये! तमाशा देखे!
और कनकी, क्रोध में भुनी जाए!
कैसे आये दुबारा? कैसे हिम्मत हुई?
और शालनाथ! विद्याओं के दम्भ में चूर!
और अगले ही पल! सैंकड़ों सर्प आगे बढ़े। बाबा में एक मंत्र पढ़ा! और टिका दिया त्रिशूल ज़मीन पर! वे सभी हवा में खिलौनों की तरह से उछल पड़े। कोई कहाँ और कोई कहाँ! सब घेरे के आसपास! "आ! कनकी आ! तू आ!" बोले बाबा!
और फिर क्या था! प्रबल वेग के साथ कनकी आगे बढ़ी! सुरक्षा-चक्र बींधा! बाबा चंदन हए बाबा शालनाथ के पीछे!
और हम! हम पत्थरों की ओट से सब देखें! कनकी आगे बढ़ी!
और बाबा ने मंत्र पढ़ते हुए त्रिशूल लहराया! त्रिशूल टकराया कनकी से!
और कनकी उड़ चली हवा में! एक पेड़ पर गिरी! पेड़ झूला!
और कड़ाक! टूट गया! हमारे तो होंठ सिल गए। दिल जैसे पसलियां छोड़, हलक में आ बैठा! "आ? आ कनकी आ?" बोले बाबा! कनकी फिर से बढ़ी आगे! और जैसे छलांग मारी हो उसने बाबा पर! बाबा की गर्दन आई लपेटे में! त्रिशूल छूटा हाथों से! नीचे गिरा!
और बाबा भी नीचे गिरे! चंदन बाबा बने मूर्तिः बाबा ने एक मंत्र पढ़ा, और कनकी में जैसे विद्युत दौड़ी! फ़ड़फड़ा गया उसका शरीर! खुले मुंह से झाग निकलने लगे! बुलबुले! पीले रंग के!
अब बाबा ने अपनी गर्दनछुड़ाई! त्रिशूल उठाया!
और टिका दिया उसके फन पर! जमीन पर! मंत्र पढ़ते रहे! तेज तेज! बहुत तेज! वो तड़प उठी! बेचारी! शरीर किसी केंचुएं के समान तड़पने लगा! कुंडली मारे! खोले! तड़पे! मेरी दिल में कूक उठी! बुरी तरह! जी किया, अभी भाग चलूँ और काट दूं ये पलुषिका-विद्या!
और तभी! तभी जैसे चाँद स्वयं ज़मीन पर आये! सफेद सा प्रकाश कौंध पड़ा!
और वहाँ, एक श्वेत रंग का महापस्त आ धमका था! कनकी, कनकी बेचारी तड़प तड़प के शांत हो चुकी थी! नहीं काट पायी थी वो विद्या बाबा की! "पौक्षा? बोले बाबा चिल्ला कर।
और फिर हँसे ज़ोर से! "आजा! तू भी आजा!" बोले बाबा! महापरुत आगे बढ़ा! कैसा विशाल! कैसा रौद्र! कैसा भयानक! कैसा विकराल! कोई देख ले तो प्राण हवा में उड़ जाएँ! देह, हवा में उड़ चले! पत्ते की तरह लहराती हुई नीचे गिरै!
"पौक्षा? चिल्लाये बाबा! हवा शांत! सन्नाटा! मात्र हिस्स! वो भी अति-प्रबल हिस्स!
वो कनकी, बेकारी। शांत! निढाल! मुझे बहुत बुरा लगा! बहुत बुरा! बाबा शालनाथ! सच में बहुत बुरा! "पौक्षा!" बोले वो!
और पस्त समक्ष आया! कोई, आठ फीट पास! अब बाबा ने अपना त्रिशूल हटाया उस कनकी से! कनकी बेहोश! उफ्फ्फ ! मुझे एक फन के वार से उछालने वाली कनकी आज बेहोश! कितना दुःख हुआ! कितना दुःख!
मैं अंदर ही अंदर, उबले जा रहा था! गुस्सा ऐसा, कि गंडासे से सर अलग कर दूँ इस शाल नाथ का! अब बाबा ने अपना झोला उठाया! "चंदन?" बोले वो! "हाँ..हाँ जी?" बोले वो! "केमक निकाल ज़रा!" बोले वो!
और बाबा ने केमुक की पोटली निकाल दी! केमुक! कुछ टुकड़े! अस्थियों के टुकड़े
ये क्या? सौदेबाजी? कैसी? अब मुझै दुविधा में डाला!
डाला इस केमुक ने!
और तब! तब बाबा ने फेंक दिए वो टुकड़े उस पस्त के सामने! सौदेबाजी! या तो कनकी! या फिर कुछ नाग-कन्याएं। जलील! कमीना! ज़ाहिल! वाहियात आदमी! "पौक्ष! ले चुन!" बोले बाबा! बस! बस! अब टूटा धैर्य का बाँध! "पौक्षा! बुला! बुला उन्हें! ले जाऊँगा! कभी नहीं आऊंगा! और ये, कनकी, यहीं रहेगी!" बोले बाबा! पौक्ष ने फूंकार भरी,आगे बढ़ा! बाबा ने त्रिशूल टिका दिया कनकी के मस्तक से! शरीर, फड़क उठा! तड़प उठा! "पौक्षा! मेरा उद्देश्य यही है। कुछ नाग-कन्यायें और मैं गया यहां से!" बोले वो! बस! बस! अब नरहा गया! मैं बढ़ा आगे!
और बाबा के हाथ का त्रिशूल, छीन लिया! फेंक दिया दूर!
"शालनाथ, तू हरामजादाहै! तू, किसलिए आया, जान गया मैं!" बोला मै! बस फिर क्या था! हाथापाई शुरू! मैंने हालत खराब कर दी उसकी! छातो पर चढ़, दाढ़ी पकड़, देचूंसे और दे चूंसे! चंदन आये बीच में, सीधा ने भी लातें जमाईं!
शर्मा जी ने चेहरे पर उसके दे लातें और दे लातें! बाबा की हालत खराब! अब, गिरेबान से पकड़ कर उठाया उसे! "बाबा?" मैंने गुस्से से कहा!
और बाबा चंदन! वो कांपें! इरें! "पौक्षा?" कहा मैंने! फुकार मारे! "रुक जाओ!" कहा मैंने! "शर्मा जी, सिद्धा! इसको इधर करो!" कहा मैंने! उन्होंने खींच लिया उसे!
और फिर मैंने, तमक-विद्या से पलुषिक-विद्या का संधान कर, काट दिया! झाग बंद! श्वास खुली!
और तभी! कनकी उठ खड़ी हुई। कम से कम आठ फ़ीट!
और! मारे दंश! दंश बाबा शालनाथ को! ऐसे दंश मारा बाबा शालनाथ को कि जैसे चाकू घोंप दिए गए हों बाबा शालनाथ को, उनके पेट मैं! मैं, शर्मा जी और सिद्धा, हालत न देख सके थे कनकी की, वो पस्त, सब देखे जा रहा था!
और कनकी,आँखें लाल किये, हमें देखे जा रही थी! कनकी, मेरे समीप ही थी, उसका ठंडा शरीर कभी कभी छू जाता था मुझे! मैंने उसको मुक्त कर दिया था किसी भी क्रिया से! अब बाबा शालनाथ की कोई भी विद्या त्रस्त न कर सकती थी उसे! मैंने विद्या काट दी थी उसकी सारी! बाबा शालनाथ अचेत होने लगे थे, हाथ और पाँव कांपने लगे थे, जैसे मृत्यु के समक्ष कोई तड़पता है, ऐसे! बाबा चंदन! जैसे काठ मार गया था उनको तो! घुटनों पर बैठ, बस चिल्लाये जा रहे थे, कि हम नहीं मारें बाबा शालनाथ को! बाबा शालनाथ के पेट के बाए हिस्से में दंश लगा था, रक्त बह चला था, कुछ न किया जाता तो अवश्य ही बाबा शालनाथ मृत्यु को प्राप्त हो जाते! तब तक कनकी और वो पस्त, एक साथ हो, चलते बने थे वहाँ से, हमें देखते हुए! हमें
कुछ न कहा था उन्होंने! मैं देख रहा था उनको जाते हुए! तभी जैसे मेरी मैं भाग कर बाबा चंदन के पास गया! चंदन बाबा को उठाया, खड़ा किया! और बताया कि कुछ करें वो अब! चाहता तो मैं भी कर सकता था, लेकिन मेरे मन में कोई दया नहीं थी बाबा शालनाथ के लिए! वो मर भी जाते तो कोई पछतावा नहीं होता मुझे! बाबा चंदन निकले अपने 'पर्दे से बाहर! "बाबा! जाओ! जल्दी करो! बचाओ शालनाथ को!" कहा मैंने! चंदन बाबा अपना सामान लेकर भाग उठे बाबा शालनाथ के पास! और हम तीनों, वहीं खड़े रहे! बाबा चंदन ने शीघ्र ही सर्प-मोचिनी विदया का संधान किया, और कुछ औषधि को अभिमंत्रित किया, एक खंजर लिए और उनके दंश के निशानों को चीरा उस खंजर से, औषधि लगाई। जैसे ही विद्या जागृत हुई. पीले रंग का मवाद जैसा फूट पड़ा दंश के निशानों से! बहुत सारा! और दुर्गन्ध फैल उठी! जैसे सारा शरीर सड़ रहा हो शालनाथ का! और जब मवाद बंद हुई, शालनाथ का काँपता शरीर शांत हो गया! वो अब अचेत अवस्था में थे! जब होश आता, तो ठीक हो जाते! शेष रह जाते ज़ख्म, उसका इलाज करते रहते वो! बाबा चंदन, सर पकड़े, बैठे रहे वहीं! रात के ग्यारह बज चुके थे। आग में और लकड़ियाँ डाली हमने! और आग जलाये रखी!
और तब, तब मैं गया बाबा चंदन के पास बैठा पास में, हाथ पकड़ा उनका, और ध्यान उनका, अपनी तरफ लगाया! "इसलिए लाये थे इसको?" पूछा मैंने!
अवाक रह गए थे वो! "ये यहां सरख पकड़ने आया था?" बोला मैं! बाबा ने कुछ न कहा! "बताया था आपको सुरख के बारे में?" पूछा मैंने। बाबा चुप! "बताओ? जवाब दो?" मैंने कहा, कुछ न बोले! "ये तो मरता ही, साथ में हमें भी मरवा देता! मैं काट न करता तो महापस्त न जाने क्या करता, कनकी नहीं आती इसकी पकड़ में, वो लड़ती, शत्रु होते हम,समझे?" बोला मैं! मैंने बहुत लताड़ा बाबा को!
क्या करने आये थे, और क्या करने बैठ गए थे! हमें धुर्जटाक्ष को ढूंढना था, पकड़ना भी नहीं था, बस दर्शन ही तो करने थे, और कुछ नहीं! लेकिन ये तो, शालनाथ, नाग-कन्या पकड़ने आया था। लेकिन अब तो मृत्यु ने ही पकड़ लिया था उसको! सर्प-मोचिनी न होती, तो निःसंदेह सुबह तक सारा जीव-द्रव्य बह जाता शरीर से, सड़ जाता शरीर, चील और कौवे भी न खाते ज़हरीला मांस! कंकाल ही रह जाता बस!
वोरात हमारी, फिर से काली हो गयी! एक बजे करीब हम सो गए थे! बाबा चंदन, बाबा शालनाथ के संग बैठे रहे, बाबा शालनाथ, ज़मीन पर अचेत पड़े थे! कब होश आता, पता नहीं! हमें कोई मतलब नहीं था, मरें या जीयें! करनी का फल था, भोग रहे थे! मरना ही है, तो मरें, जीना ही है, तो कभी न सोचें पकड़ने की किसी नाग-कन्या को! सुबह हुई! करीब छह बजे मेरी आँख खुली! शर्मा जी भी जाग कर बैठे हुए थे, सिद्धा अभी सोया हुआ था, शर्मा जी, उस बाबा शालनाथ को देख रहे थे, जोरात को जैसे लेटे थे अभी तक वैसे ही थे, बाबा चंदन, एक तरफ पसरे हए थे, नींद आ गयी थी बाबा चंदन को! "क्या हआ?" पूछा मैंने, शर्मा जी ने मुझे देखा, "कहीं मर तो नहीं गया?" कहा उन्होंने, मैं उठा, गया शालनाथ के पास, हाथ की नाड़ी देखी, चल रही थी, लेकिन बहुत धीरे, शायद रक्तचाप बहत गिर गया था नीचे, बदन भी ठंडा ही था, आया वापिस, बैठा वहीं, "जीवित है" कहा मैंने, "अब चलो" बोले वो, 'चलते हैं, इसको भी ले जाना पड़ेगा" कहा मैंने, "ले चलते हैं, यहां तो मर जाएगा ये" बोले वो,
अब जगाया सिद्धा को, सिद्धा जागा, आँखें मलते हए, उठा और चला बाबा शालनाथ के पास, नाक के आगे, हाथ रखा अपना, जब सांस आ रही थी, तो आया वापिस, बैठा हमारे साथ ही, बोतल निकाली पानी की, मुझे दी, मैंने अब कुल्ला किया और मुंह धो लिया, फिर शर्मा जी को दे दी बोतल, और तभी कराह सी निकली बाबा शालनाथ की! आ गया था होश! मैंने तभी जगाया बब चंदन को! वे जागे और कराहते हए बाबा शालनाथ से बात करने लगे! शालनाथ का बुरा हाल था, कमर से नीचे का भाग जैसे काम नहीं कर रहा था! मैं तो गया नहीं बाबा शालनाथ के पास! अपनी करनी का फल था, भोगो अब! बाबा चंद और शालनाथ बातें करते थे! क्या बातें, पता नहीं, करीब बीस मिनट बीत गए होंगे! अब धूप चढ़ने लगी थी, मैं गया अब उनके पास! शर्मा जी भी आ गए थे संग मेरे! "क्या देरी है?" पूछा मैंने, "ये, उठ नहीं पा रहे" बोले बाबा! "छोड़ चलो, मरने दो इसको!" शर्मा जी ने कहा! बाबा चंदन जैसे सिहर उठे! "और क्या, आज सुबह सबकी ऐसी हालत होती तो क्या होता? सब इसके कारण" बोले वो!
और शालनाथ, हाय! हाय! चिल्लाये! "उठाओ इसको!" कहा मैंने!
और फिर मैंने और शर्मा जी ने उठाया उसको! उसके ज़ख्मों से खून रिसने लगा था खड़े होते ही! कभी मैंने, कभी शर्मा जी ने, कभी सिद्धाने, और कभी बाबा चंदन ने, मदद की उसकी! चल नहीं पा रहा था! हमारी भी हालत खराब कर दी थी उसने तो! आखिर में, कोई चार घंटे के बाद, तालाब के पास से, एक बुग्घी रुकवाई, उसको डाला उसमे, और फिर चले हम वहाँ से! घर पहुंचे, उसको भेजा अस्पताल, बाबा चंदन और जीतेन्द्र ही गए, हम नहीं गए! हम नहाये-धोये और चाय नाश्ता किया! करीब एक बजे बाबा और जीतेन्द्र वापिस आये उसको लेकर, दवा दे दी गयी थी, कुछ इंजेक्शन दिए गए थे, अब ये चंदन बाबा का काम था, हमारा नहीं, वो बच गया था, यही बहत था! हाँ, नीम-बेहोशी छायी हुई थी! बाबा चंदन तीमारदारी में लगे हुए थे, मैंने बुलाया उन्हें। वे आये और बैठे! "क्या कहा डॉक्टर ने?" पूछा मैंने, "हो जाएंगे ठीक" बोले वो! मैं मुस्कुराया! बाबा ने आँखें नीचे की! "ले ली न मसीबत?" कहा मैंने! बाबा चुप! कुछ न बोलें! "सुनो, किसी को बुलाओ इसके यहां से, और भेज दो आज ही वापिस!" कहा मैंने, हाँ में कई बार गर्दन हिलायी बाबा ने! "आज पूनम है, चलोगे?" पूछा मैंने! अब बाबा शालनाथ को देखें! "इसको लेने आ जाएगा कोई न कोई, अभी फ़ोन कर दो" बोला मैं, बाबा उठे,और फ़ोन निकाला अपना, नंबर ढूँढा, और चले बाहर, थोड़ी देर बाद आये अंदर, बैठे! "कह दिया?" पूछा मैंने, "हाँ" बोले वो, "कौन मिला?" पूछा मैंने, "इनके भाई थे" बोला मैं, "आ रहे हैं?" पूछा मैंने, "हाँ, निकल रहे हैं गाड़ी लेकर" बोले वो,
12
"ठीक है" मैंने कहा, उसके बाद आराम किया हमने! कोई डेढ़ घंटे बाद शालनाथ के भाई आ गए थे, और ले गए थे संग अपने! ये बढ़िया हुआ था, कहीं यहीं मर जाता तो मुसीबत हो जाती और! कम से कम बाबा चंदन के चचेरे भाई साहब की! "हाँ बाबा!" कहा मैंने!
चुप! "आज पूनम है! चलना है?" पूछा मैंने! "जैसा आप कहो' बोले वो! "चलेंगे हम!" मैंने कहा, "ठीक है" बोले वो! "इस बुढ़ापे में, नाग-कन्या लेगा ये बहन का **, साले से खड़ा तो हुआ जा नहीं रहा, माँ का * * !!" बोले शर्मा जी! "अब जाने दो यार!" मैंने कहा, "आप देखो तो?" बोले वो! "हाँ,मानता हूँ" कहा मैंने, "कुत्ते की जात, हमें भी मरवाता साथ साथ!" बोले वो! "अब भाड़ में जाने दो!" कहा मैंने! "नाग-कन्या पकड़ने आया है, वो क्या? हाँ सरख!" बोले वो! मैं हंस पड़ा! बाबा चंदन भी मुस्कुरा ही पड़े! "इसकी माँ का ** ! ऐसे मुझे गुस्सा आता है बहुत!" बोले वो! "गुस्से के तो बात ही है!" बोला मैं! "और आप, किस फूहड़ की बातों में आ गए!" बोले बाबा चंदन से! "मुझे नहीं पता था!" बोले बाबा! "तुम्हारी भी जब गां* से रस्सी निकलतीन, तब पता चलता!" बोले वो! मैं हंस पड़ा! बहुत तेज! बाबा चंदन भी हंस पड़े। "फिर सुरख ही निकालती!"बोले वो! मैं फिर हंसा! "साले से अपनी गोलियों' का बोझ संभाला नहीं जा रहा! सुरख पकड़ने आये थे!" बोले वो!
अब तो मैं खुल के हंसा! पेट पकड़ कर! बाबा चंद भी हंस पड़े! सिद्धा लेट गया हँसते हँसते! शर्मा जी भी हँसते रहे। "आया था साला इंडी पर झंडी बाँधने!" बोले वो! "अब बस यार!" मैंने कहा, उनके कंधे पर हाथ मारते हुए! "ले ले झंडा! कैसा झंडा लिया है अपनी गां में! अब फहराता रह इसे!" बोले वो! हंस हंस के पेट दुखने लगा सभी का! सभी बिस्तर पर चित हो गए! लेकिन वो न रुके! खांसी
उठ गयी मझे तो! लेकिन वो शालनाथ की धज्जियां उड़ाते रहे! "हाँ! अब फहरा रहा होगा झंडा अपने स्थान पर! सुरख न पकड़ियो! सुरख न पकड़ियो रे कोई। ऐसे फहरा रहा होगा झंडा!" बोले वो! मैं तो हंस हंस के चौहल्लर हो गया। पेट में दर्द और हाथ-पाँव बिखर से गए! बाबा चंदन ही-ही करते हए हँसते रहे! सिद्धा खांस खांस के बेहाल हुआ। "अब बस करो यार!" मैंने कहा!
वे भी हंस रहे थे। लेकिन काब में थे वो! "नहीं! कल देखा था उसे? कैसे त्रिशूल लहरा रहा था! अब गां* में घुस गया त्रिशूल! गोलियां फाड़, बाहर आ गया!" बोले वो! अब न रहा गया! मैं तो बाहर चला आया उठकर! हाँ, बाबा चंदन और सिद्धा, दोनों ही बेहाल थे। मैं फिर से अंदर आया, तो सिद्धा बैठा हुआ था पेट पकड़ कर! और बाबा चंद लेटे हुए थे, ही-ही करते हुए! "क्यों भाई सिद्धा?" बोले वो, सिद्धा से न बोला गया कुछ भी! "साले की गोलियां लटक के आ रही हैं घुटने से नीचे, सुरख पकड़ने चले हैं!" बोले वो! अबकी तो पेट ही फट जाता! अब तो हंसने के साथ आवाज़ भी नहीं आ रही थी! "अरे बस करो यार अब!" मैंने कहा। लेकिन आज धोने में लगे थे वो शालनाथ को! बहुत खरी-खोटी सुनाई। बखिया उधेड़ दी उसकी!
"अब बस! बस! रहम कर दो अब!" बोला मैं!
और तब जाकर माने वो! लेकिन बीच बीच में चुटकुला सुना ही देते थे बाबा शालनाथ का, कोई न कोई! खाना अादि हमारा हो गया था। सामान मैंने जांच ही लिया था अपना! सबकुछ ठीक ही था! बाबा चंदन ने भी अपना सामान जांच लिया था, हम कोई सात बजे निकलने वाले थे उस तालाब के लिए! हम पहाड़ पर नहीं जाने वाले थे आज, हम उसको देखते, और कोशिश थी की उसके पास तक चला जाए फिर! टोर्च ले ली थी हमने, मैं दिल्ली से एक बड़ी टोर्च ले गया था साथ में, दूधिया रौशनी वाली, ये काम करती बहुत अच्छा! खाना बंधवाया हमने, पानी ले लिया पूरा! और ठीक सात बजे हम निकल पड़े थे वहाँ के लिए! तालाब किनारे मच्छर बहुत थे, इसीलिए ओडोमोस भी ले ली थी, मज़बूरी थी, नहीं तो मच्छर काट काट कर ददौड़े बना देते शरीर पर और चेहरे पर! हम चलते रहे और फिर जा पहुंचे तालाब पर! हल्का सा अँधेरा होने वाला था, आज हमने जगह बदल ली थी अपनी, हम एक साफ़ सी जगह आ गए थे, उस तालाब के किनारे ही, जगह सूखी थी, समतल भी थी, तो हमने यहीं ठहरने का मंसूबा बना लिया था! जगह साफ़ की, और उस रात मैंने सुरक्षा-घेरा खींचा, ये घेरा मैंने पहली बार खींचा था इस घटना में! पहले चटाई बिछाई गयीं और फिर ऊपर से चादर, अब ओडोमोस मली शरीर के खुले हिस्सों पर और हो गए मुस्तैद!
रात के बजे नौ! आज चाँद भरपूर यौवन में थे! खूब श्रृंगार हुआ था उनका आज! उनकी सहचरियों ने दुग्ध स्नान करवाया था आज उनको! जल में पड़ी कुमुदनी भी अपने प्रिय को देख, साज-श्रृंगार किया, निहारे जा रही थी उन्हें ही! काश चन्द्र जान पाते उस कुमुदनी की काम-पिपासा! पूनम के बाद कैसे पीली पड़ने लगती है कुमुदनी! जहां भी चलते हैं आकाश में चन्द्र, कुमुदनी वहीं खिसक जाती है। तालाब में छोटी छटी मछलियाँ फुदकती थीं कुमुदनी के बीच! कभी कभी, फूल के ऊपर ही आ गिरती! लेकिन नज़र नहीं हटाती कुमुदनी! कुमुदनी का प्रेम शाश्वत है! मैं बहुत मान करता हैं कुमुदनी का! नीरजा! अपने प्रेम के लिए, रात भर श्रृंगारलीन रहा करती है! लेकिन चन्द्र! कभी ध्यान नहीं देते उस पर! मंजलूषा की बेल पर लदे सफ़ेद फूल भी ऐसे ही निहारा करते हैं चन्द्र को! वो बेल, नित्य ही तरसती है चन्द्र से प्रणय-मिलन हेतु! और जब पूनम के चन्द्र छिप जाते हैं, तो फूल शंखिका से झड़, नीचे आ गिरते हैं। जहां कूकम, खंजन
और कशम पक्षी, चुन चुन के खा जाते हैं उन्हें! एक और है, जंगल में होती है वो झाडी, रूपालिका नाम की, पीले फूल खिलाती है! चन्द्र को देख, घूमते रहते हैं फूल उसके! रात भर
रोती है रुपालिका! उसके नीचे आंसू गिरते हैं फूलों से! मिट्टी गीली हो जाती है वहाँ की! केवड़े जैसी सुगंध हुआ करती है फूलों की! और जब चन्द्र छिप जाते हैं, तो फूल भी झड़ जाते हैं।
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सदियों से चलता आ रहा ये एकतरफा प्रेम, आज तक जारी है! मैं इन्हे प्रणाम किया करता हूँ। ये श्रापित अप्सरा हैं! जिन्होंने चन्द्र देव की पत्नी रोहिणी से सौतिया डाह रखा! सो श्रापग्रस्त हुई। बाद में रोहिणी भी श्रापग्रस्त हो गयी, और पृथ्वी की मुख्य मुख्य वनस्पतियाँ भी नष्ट हो गयीं। बाद में, समुद्र-मंथन के समय,रोहिणी का श्राप क्षय हआ, वनस्पतियाँ तो नहीं लौटी लेकिन ये तीन आज भी अपने प्रेमी चन्द्र की राह तकती हैं।
और राह तक रहे थे हम भी! कुमुदनी की तरह! उस दुर्लभ सर्प को देखने के लिए! "सिद्धा?" कहा मैंने! "हाँ जी?" बोला वो! "चाय ले आ यार!" कहा मैंने! "लाता हूँ" बोला वो!
और ले आया चाय! हम चाय पीने लगे आराम से! ग्यारह बजे.......... हम टकटकी लगाए देख रहे थे सामने! घुप्प अँधेरा था! रौशनी जलाते ही, कीट-पतंगे आ धमकते थे! बस चांदनी का सहारा था वहाँ! रात्रिकाल के जल-पक्षी, क्रीड़ा कर रहे थे। मछलियाँ आदि एक शिकार कर रहे थे। "आज दिख ही जाए!" बोले वो! "हाँ, नहीं तो फिर से चौदह दिन!" बोला मैं, "हाँ" बोले वो! बातें करते रहे हम!
और फिर खाना भी खाया! थोड़ा सा! भूख लग आई थी! बारह बजे, नहीं आया था अभी तक वो! हम किसी शिकारी बाज की तरह अपना ध्यान वहीं, लगाए हुए थे! कब दिखे और कुछ करें! मेरी हुई आँखें भारी! शर्मा जी जागे ही हुए थे!
बाबा चंदन भी मेरी तरह उबासियां ले रहे थे! एक बार फिर से ओडोमोस लगाई हमने! मच्छर पिन्न-पिन्न करते और भाग जाते! "सिद्धा?" मैंने कहा, "हाँ जी?" बोला वो! "तू जाग रहा है?" पूछा मैंने, "हाँ जी" बोला वो, "मैं ज़रा झपकी ले लूँ" पूछा मैंने, "ले लो आराम से' बोला वो!
अब मैं लेट गया! ज़मीन गर्म थी अभी भी! मैं लेटा तो शर्मा जी भी लेट गए! "ले लो एक आद झपकी!" मैंने कहा, "हाँ, सही बात है!" बोले वो,
और मैंने की बंद आँखें। आँखें बंद, तो नींद आई! और सो गया मैं फिर! शर्म अजी भी करवट ले, सो गए आराम से! सिद्धा जागा रहा!
कोई ढाई बजे, मुझे हिलाया सिद्धा ने। "क्या हुआ?" बोला मैं, ऊंघता हुआ! "वो, सामने!" बोला वो! मैं उल्लू की तरह से गर्दन घुमाकर देख रहा था इधर-उधर! "वो, वहाँ देखो!" बोला सिद्धा! बाबा चंदन खड़े थे! देख रहे थे सामने ही! एक पतली सी रेखा थी वहाँ पीले प्रकाश की! "शर्मा जी?" मैंने कहा, "हाँ?" बोले वो, "उठो!" कहा मैंने! "क्या हुआ?" बोले वो, "अरे सामने देखो!" मैंने कहा!
अब समझे वो!
हुए खड़े! "अरे वाह! वही है!" बोले वो! "चलें?" बोला मैं! "चलो!" कहा उन्होंने! "बाबा?" कहा मैंने! "हाँ जी?" बोले वो! "टोर्च उठाओ!" मैंने कहा, उठायी उन्होंने, मैंने बड़ी टोर्च उठायी, सामान वहीं रहने दिया! "सिद्धा, वो छोटा बैग ले ले!" मैंने कहा, उसने उठा लिया!
और हम कुलांच भरते हए दौड़ पड़े! बाबा आगे थे, और हम पीछे! उन्ही के पीछे हम थे! पत्थर, झाड़ियाँ पेड़, सभी पार करते जा रहे थे हम आया पहाड़! आई चढ़ाई, वो दिख रहा था हमें! अभी भी!
और हम चले अब ऊपर! "हाँ! अब फहरा रहा होगा झंडा अपने स्थान पर। सुरख न पकड़ियो! सुरख न पकड़ियो रे कोई! ऐसे फहरा रहा होगा झंडा!" बोले वो! मैं तो हंस हंस के चौहल्लर हो गया। पेट में दर्द और हाथ-पाँव बिखर से गए! बाबा चंदन ही-ही करते हुए हंसते रहे! सिद्धा खांस खांस के बेहाल हुआ! "अब बस करो यार!" मैंने कहा! वे भी हंस रहे थे। लेकिन काबू में थे वो! "नहीं! कल देखा था उसे? कैसे त्रिशूल लहरा रहा था! अब गां* में घुस गया त्रिशूल! गोलियां फाड़, बाहर आ गया!" बोले वो! अब न रहा गया! मैं तो बाहर चला
आया उठकर! हाँ, बाबा चंदन और सिद्धा, दोनों ही बेहाल थे! मैं फिर से अंदर आया, तो सिद्धा बैठा हुआ था पेट पकड़ कर! और बाबा चंद लेटे हुए थे, ही-ही करते हुए!
"क्यों भाई सिद्धा?" बोले वो, सिद्धा से न बोला गया कुछ भी!
"साले की गोलियां लटक के आ रही हैं घुटने से नीचे, सुरख पकड़ने चले हैं!"बोले वो! अबकी तो पेट ही फट जाता! अब तो हंसने के साथ आवाज़ भी नहीं आ रही थी! "अरे बस करो यार अब!" मैंने कहा! लेकिन आज धोने में लगे थे वो शालनाथ को। बहत खरी-खोटी सुनाई। बखिया उधेड़ दी उसकी! "अब बस! बस! रहम कर दो अब!" बोला मैं!
और तब जाकर माने बो! लेकिन बीच बीच में चुटकुला सूना ही देते थे बाबा शालनाथ का, कोई न कोई! खाना अादि हमारा हो गया था। सामान मैंने जांच ही लिया था अपना! सबकुछ ठीक ही था! बाबा चंदन ने भी अपना सामान जांच लिया था, हम कोई सात बजे निकलने वाले थे उस तालाब के लिए! हम पहाड़ पर नहीं जाने वाले थे आज, हम उसको देखते, और कोशिश थी की उसके पास तक चला जाए फिर! टोर्च ले ली थीं हमने, मैं दिल्ली से एक बड़ी टोर्च ले गया था साथ में,दूधिया रौशनी वाली, ये काम करती बहुत अच्छा! खाना बंधवाया हमने, पानीले लिया पूरा! और ठीक सात बजे हम निकल पड़े थे वहाँ के लिए! तालाब किनारे मच्छर बहुत थे, इसीलिए ओडोमोस भी ले ली थी, मज़बूरी थी, नहीं तो मच्छर काट काट कर ददौड़े बना देते शरीर पर और चेहरे पर! हम चलते रहे और फिर जा पहंचे तालाब पर। हल्का सा अँधेरा होने वाला था, आज हमने जगह बदल ली थी अपनी, हम एक साफ़ सी जगह आ गए थे, उस तालाब के किनारे ही, जगह सूखी थी, समतल भी थी, तो हमने यहीं ठहरने का मंसूबा बना लिया था! जगह साफ़ की, और उस रात मैंने सुरक्षा घेरा खींचा, ये घेरा मैंने पहली बार खींचा था इस घटना में पहले चटाई बिछाई गयीं और फिर ऊपर से चादर,अब ओडोमोस मली शरीर के खुले हिस्सों पर और हो गए मुस्तैद!
रात के बजे नौ! आज चाँद भरपूर यौवन में थे! खूब श्रृंगार हुआ था उनका आज! उनकी सहचरियों ने दुग्ध स्नान करवाया था आज उनको! जल में पड़ी कुमुदनी भी अपने प्रिय को देख, साज-श्रृंगार किया, निहारे जा रही थी उन्हें ही! काश चन्द्र जान पाते उस कुमुदनी की काम-पिपासा! पूनम के बाद कैसे पीली पड़ने लगती है कुमुदनी! जहां भी चलते हैं आकाश में चन्द्र, कुमुदनी वहीं खिसक जाती है। तालाब में छोटी छटी मछलियाँ फुदकती थीं कुमुदनी के बीच! कभी कभी, फूल के ऊपर ही आ गिरती! लेकिन नज़र नहीं हटाती कुमुदनी! कुमुदनी का प्रेम शाश्वत है! मैं
बहत मान करता हूँ कमदनी का! नीरजा! अपने प्रेम के लिए, रात भर भंगारलीन रहा करती है! लेकिन चन्द्र! कभी ध्यान नहीं देते उस पर! मंजलूषा की बेल पर लदे सफ़ेद फूल भी ऐसे ही निहारा करते हैं चन्द्र को! वो बेल, नित्य ही तरसती है चन्द्र से प्रणय-मिलन हेतु! और जब पूनम के चन्द्र छिप जाते हैं, तो फूल शंखिका से झड़, नीचे आ गिरते हैं। जहां कुकम, खंजन
और कशम पक्षी, चुन चुन के खा जाते हैं उन्हें! एक और है, जंगल में होती है वो झाडी, रुपालिका नाम की, पीले फूल खिलाती है! चन्द्र को देख, घूमते रहते हैं फूल उसके! रात भर
रोती है रुपालिका! उसके नीचे आंसू गिरते हैं फूलों से मिट्टी गीली हो जाती है वहाँ की! केवड़े जैसी सुगंध हुआ करती है फूलों की! और जब चन्द्र छिप जाते हैं, तो फूल भी झड़ जाते हैं। सदियों से चलता आ रहा ये एकतरफा प्रेम, आज तक ज़ारी है! मैं इन्हे प्रणाम किया करता हूँ! ये श्रापित अप्सरा हैं। जिन्होंने चन्द्र देव की पत्नी रोहिणी से सौतिया डाह रखा! सो श्रापग्रस्त हुईं। बाद में रोहिणी भी श्रापग्रस्त हो गयीं, और पृथ्वी की मुख्य मुख्य वनस्पतियाँ भी नष्ट हो गयीं। बाद में, समुद्र-मंथन के समय, रोहिणी का श्राप क्षय हुआ, वनस्पतियाँ तो नहीं लौटी लेकिन ये तीन आज भी अपने प्रेमी चन्द्र की राह तकती हैं।
और राह तक रहे थे हम भी। कुमुदनी की तरह! उस दुर्लभ सर्प को देखने के लिए! "सिद्धा?" कहा मैंने! "हाँ जी?" बोला वो! "चाय ले आ यार!" कहा मैंने! "लाता हूँ" बोला वो!
और ले आया चाय! हम चाय पीने लगे आराम से! ग्यारह बजे........... हम टकटकी लगाए देख रहे थे सामने! घुप्प अँधेरा था! रौशनी जलाते ही, कीट-पतंगे आ धमकते थे! बस चांदनी का सहारा था वहाँ! रात्रिकाल के जल-पक्षी, क्रीड़ा कर रहे थे! मछलियाँ आदि एक शिकार कर रहे थे। "आज दिख ही जाए!" बोले वो! "हाँ, नहीं तो फिर से चौदह दिन!"बोला मैं, "हाँ" बोले वो!
बातें करते रहे हम!
और फिर खाना भी खाया! थोड़ा सा! भूख लग आई थी! बारह बजे, नहीं आया था अभी तक वो! हम किसी शिकारी बाज की तरह, अपना ध्यान वहीं,
लगाए हए थे! कब दिखे और कुछ करें! मेरी हईं आँखें भारी! शर्मा जी जागे ही हए थे! बाबा चंदन भी मेरी तरह उबासियां ले रहे थे! एक बार फिर से ओडोमोस लगाई हमने! मच्छर पिन्न-पिन्न करते और भाग जाते! "सिद्धा?" मैंने कहा, "हाँ जी?" बोला वो! "तू जाग रहा है?" पूछा मैंने, "हाँ जी" बोला वो, "मैं ज़रा झपकी ले लूँ?" पूछा मैंने, "ले लो आराम से' बोला वो!
अब मैं लेट गया! ज़मीन गर्म थी अभी भी! मैं लेटा तो शर्मा जी भी लेट गए! "ले लो एक आद झपकी!" मैंने कहा, "हाँ, सही बात है!" बोले वो,
और मैंने की बंद आँखें! आँखें बंद, तो नींद आई! और सो गया मैं फिर! शर्म अजी भी करवट ले, सो गए आराम से! सिद्धा जागा रहा! कोई ढाई बजे, मुझे हिलाया सिद्धा ने! "क्या हुआ?" बोला मैं, ऊंघता हुआ! "वो, सामने!" बोला वो! मैं उल्लू की तरह से गर्दन घुमाकर देख रहा था इधर-उधर! "वो, वहाँ देखो!" बोला सिद्धा!
बाबा चंदन खड़े थे! देख रहे थे सामने ही! एक पतली सी रेखा थी वहाँ पीले प्रकाश की! "शर्मा जी?" मैंने कहा, "हाँ?" बोले वो, "उठो!" कहा मैंने! "क्या हुआ?" बोले वो, "अरे सामने देखो!" मैंने कहा! अब समझे वो! हुए खड़े! "अरे वाह! वही है!" बोले वो! "चलें?" बोला मैं! "चलो!" कहा उन्होंने! "बाबा?" कहा मैंने। "हाँ जी?" बोले वो! "टोर्च उठाओ!" मैंने कहा,
उठायी उन्होंने, मैंने बड़ी टोर्च उठायी, सामान वहीं रहने दिया! "सिद्धा, वो छोटा बैग ले ले!" मैंने कहा, उसने उठा लिया!
और हम कुलांच भरते हुए दौड़ पड़े! बाबा आगे थे, और हम पीछे। उन्ही के पीछे हम थे! पत्थर, झाड़ियाँ पेड़, सभी पार करते जा रहे थे हम आया पहाड़! आई चढ़ाई, वो दिख रहा था हमें! अभी भी!
और हम चले अब ऊपर! बड़ी मुश्किल से हम वहाँ पहुंचे! और जब पहुंचे तो रौशनी बंद! फिर से चकमा दे गया था हमको वो। हद ही कर दी थी उसने तो! या तो हमारी किस्मत ही खराब थी, या फिर उसने दर्शन न देने की ठान रखी थी! लेकीन हम भी कमर कस के आये थे! दर्शन तो करेंगे ही! हम उस पत्थर तक आ गए थे। लेकिन वहां भी कुछ नहीं था! तभी मेरी गर्दन पर किसी ने काटा, मैंने झट से देखा, तो ये एक मकड़ी थी, छोटी सी मकड़ी, ये जंगली बिल्वर मकड़ी थी, काली-सफेद, पाँव छोटे
और शरीर बड़ा! मकड़ी को छोड़ दिया था मैंने, वो तो बेचारी फंस गयी थी मेरी कमीज़ के कॉलर और मेरी गर्दन के बीच, उसने वही किया जो उसकी सहज-प्रवृति है! काट लिया तंग हो कर उसने! गाली-गलौज या चीख-पुकार थोड़े ही करती! ये काफी ज़हरीली होती है, दर्द ऐसा हआ कि जैसे मेरी गरदन में गर्म गर्म सलाख घुसेड़ दी हो! मैं बिलबिला गया था! सिद्धा से छोटा बैग लिया, और संग-ए-मरियम से बनी भस्म लगा दी वहाँ! शर्मा जी ने ही लगाई थी भस्म! ठंडक पहुंची, और दर्द कम होने लगा! अब सूजन भी नहीं होनी थी। लेकिन इसमें करीब बीस मिनट जाया हो गए थे! "अब कहाँ गया?" पूछा मैंने! "पता नहीं" बोले बाबा! "ढूंढो" कहा मैंने! हम सभी अलग अलग दिशा में देखने लगे।
लेकिन कोई प्रकाश नहीं! अब घड़ी देखी, पौने पांच का समय हो चला था! लगता था कि ये रात भी काली चली गयी हमारी! काली और खाली। मुझे अफ़सोस हुआ, पौने घंटे में सूर्योदय हो जाने थे। और फिर सब
मटियामेट! "लगता है नसीब ही खोटा है हमारा!" बोले बाबा! "हाँ बाबा! यही लगता है!" मैंने कहा, "आँखों देखा, निकल गया, बताओ!" बोले वो! "अब क्या करें!" मैंने कहा, "वो! वहां!" सिद्धा चिल्लाया! हमने देखा, और हम भागे उसके पीछे फिर! भागे तो इस बार छिलछिला गए झाड़ियों से! कांटे चुभ गए! "भागो?" बोले बाबा! हम सभी भागे! वो सामने ही था हमारे! कोई साठ फीट दूर, उसकी दुम नज़र आ रही थी! चमकती हुई! शरीर नहीं दिख रहा था! और जैसे ही आये, उसकी दुम दिखाई दी, एक पत्थरों की बनी दरार में! और फिर वो भी अंदर चली गयी! मैं नीचे बैठा, और टोर्च की रौशनी मारी! अंदर तो रास्ता जैसा था!
जैसे कोई सुरंग हो! लेकिन बस एक हाथ ही जा सकता था अंदर और हाथ डालना बहुत खतरनाक था! मैं उठ गया फिर! "क्या हुआ?" पूछा बाबा ने! "सुरंग सा बिल हे ये!" मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने देखा,
