''और उनके पति महोदय?" मैंने पूछा,
"वो लखनऊ में हैं" वो बोली,
"नौकरी?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"और बालक आदि?" मैंने पूछा,
"कोई नहीं है, शादी को दो वर्ष हुए हैं अभी" वो बोली,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"भोजन यहीं करोगे न?" उसने पूछा,
"हाँ, कर लूँगा" मैंने कहा,
"जब भूख लगे तो बता देना" वो बोली,
भूख!
भूख तो लगी ही थी!
खाने की तो नहीं,
हाँ, दूसरी भूख!
खैर,
जाने दिया मैंने!
सोच को हावी नहीं होने दिया,
"हाँ, बता दूंगा" मैंने कहा,
और फिर मैं पीठ टिका कर सोफे पर बैठ गया,
और अंगड़ाई ली,
"आप लेट जाइये" वो बोली,
"हाँ" मैंने कहा,
और मैं उठा,
जूते खोले और लेट गया,
वो दूसरे कमरे में गयी,
और एक कंबल ले आयी,
कंबल डाल दिया मेरे पांवों पर,
और जैसे ही चली,
मैंने उसका हाथ पकड़ लिया,
मेरे हाथ में, उसका एक कड़ा आ गया,
मेरी ऊँगली फंस गयी उसमे,
उसने मुझे देखा,
मैंने उसे,
"आओ, लेटो!" मैंने कहा,
उसने कुछ सोचा,
विचार किया,
और फिर, लेट गयी!
ज़रा सा फांसला बना कर!
मैंने सरक कर वो फांसला ख़तम कर दिया!
वो वैसे ही लेती रही,
और फिर,
मेरी ओर करवट बदल ली,
अपनी मोटी मोटी आँखों से,
मुझ पर, नश्तर चलाती रही!
मैं घायल होता रहा!
होता रहा!
मैंने अब कंबल खोला,
औ ओढ़ लिया,
उसको भी उढ़ा दिया,
और मैंने फिर,
धीरे से उसकी कमर में हाथ डाला,
उसने भी मेरी कर के गिर्द अपना हाथ डाला,
अब मैंने,
पता नहीं कैसे,
उसको,
उसके नितम्बों से खींच कर,
और अधिक अपने करीब ले आया,
फांसला बहुत कम था अब,
उसकी आँखें मुझसे मिलीं,
और मेरी उस से,
"आद्रा!" मैंने कहा,
उसने कुछ नहीं कहा मुंह से,
बस आँखों से ही कहा,
"मुझे तड़पा रही हो न?" मैंने कहा,
उसने आँखें चलायीं अपनी,
कभी मेरी बाईं आँख को देखे,
कभी दायीं,
"उकसा रही हो न?" मैंने पूछा,
उसने फिर से ऐसा ही किया,
एक स्वीकृति सी मिली मुझे,
एक खामोश हाँ!
मैंने तो नहीं सुना,
पर मेरे दिल ने सुन लिया!
और फिर मैंने ,
उसके,
पपोटेदार होंटों पर,
अपने होतन्त,
रख दिए,
उसकी आँखें बंद हो गयीं, और मेरी खुल गयीं!
मैंने रसपान कर लिया,
आखिर भौंरा,
बाज आया ही नहीं!
चक्कर लगाता ही रहा,
उस कली के!
और सब्र टूट गया उसका!
कर लिया रसपान!
उसके होंठों का रसपान!
मैं हिल गया अंदर तक!
सिहरन उठ गयी,
कनपटियाँ गरम हो गयीं,
कान गरम हो उठे,
गला सूख गया!
थूक निगला ही न जाए!
बस उसकी गंध!
उसकी वो मदहोश करने वाली खुश्बू,
उसके नरम होंठों का स्पर्श,
बस यही!
यही बस!
इसीमे खो गया था मैं!
आद्रा के होंठों के स्पर्श ने तो मेरी जान ही निकाल दी थी!
कांटे की टक्कर होती मेरी उस से,
यदि होती तो!
पस्त ही होना था मुझे,
ये तो मैं जानता था!
वो बहुत 'कड़ी' है, मेरा ताप आहत तो करेगा,
पर वो पिघले न पिघले,
ये नहीं मालूम था!
क़तई भी!
सच में,
बहुत 'कड़ी' है वो!
मैं अपने आप को बहत,
कुशल सा मान रहा था,
इस से पहले,
लेकिन अब पता चला था,
कि केले के पेड़ का तना भले ही कितना बड़ा और मज़बूत हो,
होता कच्चा ही है!
शाख कितनी ही मज़बूत हो,
तूफ़ान में टूटने का डर,
हमेशा लगा ही रहता है!
यही हो रहा था मेरे साथ!
जहां दिल में ख़ुशी थी,
कि जैसे मेरे साथ कोई अप्सरा लेटी है,
फख्र था,
गुमान था!
पर डर भी था!
मैंने उसको चूमा था,
और जो चूमा,
तो मैं घूमा!
विवेक को ढूँढा,
कहीं नहीं था!
ये क्या हुआ?
कहाँ गया?
अब ज़रूरत है तो,'
नदारद?
ये कैसी बग़ावत?
मंझधार में छोड़ गया!
और मैं,
मंझधार में बनी एक भंवर में,
अपनी नैय्या पार लगाने के लिए जूझ रहा था!
जितना प्रयास करता पार लगने की,
उतना और उतर जाता गहरे पानी में!
और पानी!
पानी तो अपनी असंख्य बाहें फैलाये हुए,
मुझे डुबोने को तत्पर था!
मैं ही हिचकोले खा रहा था!
कभी इधर,
कभी उधर!
अभी आगे,
और कभी पीछे!
अब उसने अपना हाथ मेरी गर्दन पर रखा,
उसके नाख़ून चुभे तो काम ने मारा ज़ोर!
मेरी तो साँसे उखड़ गयीं!
दिन में,
उमड़-घुमड़ मच गयी!
दो दिल हो गए!
एक कहे,
आगे जा,
एक कहे,
वहीँ रुक!
फंस गया मैं!
उसने अपनी एक ऊँगली,
अनामिका ऊँगली,
मेरे होंठों पर रखी,
तो मैंने चूम लिया उसे!
और कुछ समझ ही नहीं आया!
मैं पलटा,
और फिर से उसके करीब हो गया,
और फिर..
मेरे सूखे होंठ,
उसके होंठों से छू गए,
गीले हो गये!
मेरे होंठों पर जैसे,
मधुरस चिपक गया!
मैं जीभ फेर,
उसका रसपान करता रहा!
"आद्रा!" मैंने कहा,
दबी सी आवाज़ में,
फुसफुसाहट सी आवाज़ में,
उसने आँखों से उत्तर दिया,
"यदि मैं विवशतावश कुछ कर बैठूं तो?" मैंने पूछा,
वो मुस्कुरायी!
ये तो आमंत्रण था!
आग में और घी झोंक दिया उसकी इस मुस्कुराहट ने!
और मेरे दिल ने अब मारी चीत्कार!
"बताओ?" मैंने पूछा,
आँखें बंद!
और मेरी खुली!
दिमाग में बजे हथौड़ा!
दिल में मचे हलचल!
हाथ-पाँव नियंत्रण से बाहर हों!
मैंने फिर से कसा उसे,
उसके मांसल नितम्बों से और आगे खिसकाया,
जगह थी नहीं,
पर न जाने क्यों खिसकाया!
मैंने कहा न,
हाथ-पाँव नियंत्रण से बाहर थे अब!
मैंने और कसा,
पता नहीं क्यों कसा!
सच में ही नहीं पता क्यों कसा!
बस कसा!
और फिर से उसके होंठों पर अपने होंठ रखे,
अबकी साँसें उखड़ गयीं उसकी,
उसके नथुनो से दहकती हुई साँसें,
मेरी नाक पर पड़ीं!
मुझे संचार हो गया!
भड़क गया मैं!
मैंने और चूमा उसके होंठों को!
दांत से दांत टकरा गए!
उसकी गंध से मैं सराबोर हो गया!
और अब काम अपने उच्चत्म शिखर पर आ पहुंचा!
मैंने खींच कर,
उसको अपने ऊपर ले लिया,
और फिर चूमा,
उसकी चिबुक की उस फलक को,
जिसने मुझे पीड़ित कर रखा था,
पहले ही दिन से,
उसकी मोटी मोटी आँखों को,
उसके माथे को,
गालों को,
उसकी लोहरों को,
उसकी गर्दन को!
मैं चूमता जाता,
और तड़पता जाता!
वो चिंहुकती जाती!
मुझे समर्थन देती,
मेरा काम और भड़काती,
मैं अब झुलस नहीं,
जल रहा था!
मेरे हाथ उसके बदन का खुलकर मरदन कर रहे थे!
विवेक पता नहीं कहाँ जा कर सो गया था!
अब चिंता ही नहीं थी उसकी मुझे!
और अब मैं आगे बढ़ा,
और जैसे ही बढ़ा,
विवेक आ गया बीच में!
कूद पड़ा!
जैसे किसी प्राध्यापक के कक्ष में आते ही,
सभी बालक चुप हो जाया करते हैं,
ऐसे, सब भावनाएं चुप हो गयीं!
अब मारा विवेक ने कोड़ा!
और मैं रुक गया!
पीछे हट गया!
मेरे हाथ थम गए,
मैंने सुनी तो बस,
उसकी एक छोटी सी आह,
थी तो छोटी,
लेकिन मुझे खाक़ करने के लिए बहुत थी!
मैं हट गया पीछे!
उसे अपने दायें उतार दिया,
उसने मुझे देखा,
एक अजीब सी नज़र से,
बहुत अजीब सी नज़र से,
मैं देख न सका,
नज़रें हटा लीं मैंने,
उसने अपना हाथ मेरी छाती पर रखा,
और मैं,
छत को देखता रहा!
मैंने फिर देखा उसको,
वो मुझे ही देख रही थी,
उसके वपभाव,
मुझे छलनी किये जा रहे थे!
"नहीं आद्रा! अभी नहीं!" मैंने कहा,
समझ गयी!
वो! समझ गयी!
उठी और बैठ गयी,
फिर मुस्कुरायी,
मैं भी उठा,
और बैठ गया,
मैंने उसको अपने करीब खींचा,
और उसके माथे पर चूमा,
उसने भी ऐसा ही किया!
"आद्रा! एक बार वो स्थान तुम्हारा हो जाए! बस, उस दिन मैं तुम्हारा, और तुम मेरी!" मैंने कहा,
वो मुस्कुरायी!
और मेरा हाथ थाम उसने!
अपने सर पर रखा,
"सच में आद्रा!" मैंने कहा,
वो मुस्कुरा गयी!
जान गयी मेरा आशय!
और अब मैं खड़ा हुआ,
कपड़े सही किये,
"भोजन किया जाए?" मैंने कहा,
उसने सर हिलाया हाँ में,
और उतर गयी पलंग से,
वस्त्र ठीक किये,
और फिर रसोईघर में चली गयी,
और मैं फिर से सोफे पर आ गया!
बैठ गया!
भोजन ले आयी वो,
और फिर साथ ही बैठ गयी!
"आओ, साथ खाओ" मैंने कहा,
और फिर हम भोजन करने लगे,
अब भोजन कर लिया,
हाथ-मुंह धोये,
"अब मैं चलूँगा" मैंने कहा,
वो मुस्कुरायी,
और फिर मैं बाहर चला,
वो पीछे ही खड़ी थी,
मैं मुस्कुराया,
दरवाज़ा खोला,
और बाहर आ गया,
पीछे देखा,
वो खड़ी थी,
मुस्कुरायी,
और फिर मैं चल पड़ा वापिस,
गली में मुड़ा,
और फिर सीधा सड़क के लिए चल पड़ा,
वहाँ पहुंचा,
और सवारी ले ली,
और अब चल पड़ा अपने स्थान की ओर,
दो बजे थे तब,
जब मैं वहाँ पहुंचा,
अपने स्थान पर,
सीधा अपने कमरे में पहुंचा,
शर्मा जी सोये हुए थे,
जाग गए थे,
और उठ बैठे,
"खाना खा लिया?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"मैंने भी खा लिया, कोई आया तो नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं, कोई नहीं" वे बोले,
अब मैंने जूते खोले,
और लेट गया बिस्तर पर,
कंबल ओढ़ा,
और सोने का प्रयास करने लगा,
लेकिन नींद नहीं अ रही थी!
वो लम्हे याद आ रहे थे मुझे,
उसका लरजना!
उसके नेत्र,