मैंने उठाया उसको,
और अपने बाएं घुटने पर बिठा लिया!
मेरी तरफ पीठ थी उसकी!
वजन था उसमे!
तंदुरुस्त है वो!
मैं तो उसको लेकर लेट गया!
और वो मेरे ऊपर ही थी!
मेरा तो रोम रोम सिहर उठा!
हड़कम्प मच गया!
दिल धड़क उठा!
बहुत तेज!
फिर वो बैठ गयी, हट गयी!
मैं उठा,
और बैठा,
उसके दिल पर हाथ रखा!
धक्! धक्! धक्! धक्!
मेरे तो हाथ पाँव ठंडे पड़ गए!
बदन ही ठंडा हो गया मेरा!
हाँ!
काम-ज्वाला धधक उठी!
भड़क उठी!
मैंने उसको देखा,
उसने मुझे,
नज़रें टकरायीं,
उलझ गयीं आपस में,
मैं कभी उसकी चिबुक की लक देखूं,
कभी होंठ,
कभी आँखें,
अभी उसके गालों की लहरें!
कभी उसका कंठ,
कभी वक्ष,
कभी जंघाएँ!
फिर नज़रें हटा लूँ!
अंदर से चोर धिक्कारे मुझे!
लानत भेजे!
पर ये ठीक नहीं था!
गलत ही था!
अब विवेक जाग उठा!
और विवेक ने शीतलता से,
मेरी कामाग्नि को,
शांत करना शुरू कर दिया!
यही सही था!
विवेकपूर्ण था!
तो, हाल बहुत खराब था!
यूँ कहो, कि एक मेंढ पर चल रहा था मैं,
एक पतली से मेंढ,
कदम चूके, या बहके,
तो साथ चलते उस,
काम-कूप में गिरना तय था!
और यही नही चाहता था मैं,
पर स्थति ऐसी थी कि,
कदम चूकने में कोई कसार ही,
बाकी नहीं थी,
कहीं वो मेंढ और संकरी हो जाती,
और कभी एकदम से नदारद!
अब तुक्के से ही कदम रखना पड़ता था!
और उसका रूप,
जिस प्रकार सूर्य का ताप सर्दियों में,
सुख देता है,
ऐसे ही मुझे भी उसके रूप का ताप सुख दे रहा था,
मैं बार बार सोखने का प्रयास कर रहा था!
ताप अधिक होता,
तो झुलस जाता,
अब झुलसता,
तो पीछे हट जाता!
उसको जो मैंने स्पर्श किया था,
तो उसकी अगन और बढ़ गयी थी!
कुल मिलकर,
बड़ी ही विकट सी परिस्थिति थी वो!
निकलूं, तो निकला न जाए,
डूबूं तो डूबा न जाए!
साँसे, लगाम तोड़ रही थीं,
काम-ज्वाला, फूंके जा रही थी!
उस सर्दी में भी,
गर्मी लगे जा रही थी,
माथे पर जैसे,
पसीना सा छलछला सा गया था!
अब,
बात वही है न,
कि ऐसा कौन सा भौंरा होगा,
कि जिसके सामने,
एक रसपूर्ण कली हो,
और वो उसका आस्वादन न करे!
है कोई ऐसा भौंरा!
हाँ!
मैं था ऐसा वो भौंरा!
और वो कली भी,
लगातार निमंत्रण दे,
प्यास को और बढाए,
प्यास ऐसी, कि जान ही ले ले!
तो,
ऐसी स्थिति थी वो!
आद्रा वो कली,
और वो प्यास भौंरा मैं!
चोर कहे कि निचोड़ लूँ उसे,
भुजाओं में भर लूँ उसे,
स्पर्श, स्पर्श न रहकर,
आलिंगन हो जाए,
रसपान कर लूँ मैं!
और विवेक,
विवेक मेरी नंगी पीठ पर कोड़ा मारे!
बार बार पीछे खींचे!
बहुत बुरा फंसा मैं!
क्या करूँ?
तो आया ही क्यों था मैं यहाँ?
मना नहीं कर सकता था?
चोर तो है न!
तो अब चोरी से क्या डर!
तभी एक और कोड़ा पड़े,
फटकार लगे!
खैर!
मैं बैठा तो उसको देखा,
उसको झुकी हुई पलकों को देखा,
पलकें उठें,
तो मेरी पलकें झुकें,
वो झुकाये,
तो मैं उठाऊं!
और फिर,
आँखें मिलीं,
अब आंकेहन मिलीं,
तो उफान आ गया!
जैसे दूध में आ जाता है!
फिर वो सीमाएं भूल जाता है!
तो,
फिर से ताप कम किया,
कम करना पड़ा,
हाँ, करना पड़ा!
"आद्रा!" मैंने कहा,
"हाँ?" वो बोली,
"तुम बहुत खूबसूरत हो!" मैंने कहा,
और उसने कुछ न कहा!
और मेरा उफान अब बढ़ा!
कुछ कह देती तो,
उफान नहीं चढ़ता,
स्थिति में खोट लग जाता,
न बोली कुछ तो,
मतलब उसने गौर नहीं किया,
मेरे शब्दों पर गौर ही नहीं किया,
दरकिनार कर दिए उसने,
किसलिए?
क्योंकि, जो ज्वर मुझे पीड़ित कर रहा था,
वो स्व्यं पीड़ित थी उस से!
बस,
जैसे चकमक पत्थर रगड़ दिए हों,
तो चिंगारी भड़क गयी हो!
मैंने झट से खींच लिया उसको,
और भींच लिया अपनी बाजुओं में!
उसका स्पर्श हुआ,
तो मेरे काम भड़का,
लपटें उठ गयीं!
और मैं झुलस उठा!
उसी साँसें,
गरम साँसें,
मेरे बाएं गाल पर लगी,
तो समझो कामाग्नि में ईंधन झोंक दिया हो!
मैं तो वैसे ही पीड़ित था,
अब और पीड़ित हो गया!
मित्रगण!
उस कमावेश में,
मैंने उसके बदन को टटोल मारा!
अपने हाथों से!
अब नहीं रुका गया था!
सब्र टूट चुका था,
विवेक को,
डांट-डपट कट कर,
एक अँधेरे कोने में खड़ा कर दिया था!
ताकि,
दिखे भी न!
उसके मांसल,
और गुदाज़ बदन ने,
अजिसे आग में घी का काम किया!
अब तो चटक चटक की आवाज़ हुई,
कामाग्नि में!
धड़कनें ऐसी तेज,
कि मेरा तो रक्तचाप बढ़ गया!
शरीर में रासायनिक क्रियाएं होने लगीं!
उसके शरीर की गंध,
जैसे मेरे नथुनों में समायी,
मैंने सुध-बुध खोयी!
मैंने और कस कर पकड़ लिया उसे!
और कस कर!
मेरी भुजाएं वैसे तो मज़बूत हैं,
पर उस दिन कमी रह गयी थोड़ी,
ये स्वाभाविक प्रक्रिया है शरीर की,
यही हुआ!
मैंने कसा,
तो वो नहीं कसमसाई,
उसके शरीर ने और मांग की,
मैंने और कसा,
अपनी भुजा,
उसकी कमर के गिर्द कस दी,
स्निग्ध त्वचा से स्पर्श हुआ,
तो मैं हुआ बेहाल!
मेरी जैकेट जैसे कवच सी लगने लगी मुझे!
और शेष कपड़े,
जैसे कोई बख्तरबंद!
वो खड़ी हो गयी,
वो भी कामाग्नि में झुलस गयी थी!
मेरे हाथ उसके कमर पर घूमते रहे!
और तभी!
मेरा विवेक अँधेरे से भाग छूटा!
और कस के एक तमाचा मारा मुझे!
मैं जागा,
जैसे सोये से जागा,
होश काबिज़ हो गए,
और वो रासायनिक क्रियाएँ बंद हो गयीं!
विवेक ने बंद कर दीं!
मैंने छोड़ दिया उसको!
और एक लम्बी सांस!
और वो तड़प उठी!
पता था मुझे!
अगन,
कहीं भी हो,
जला तो देती ही है!
और यहाँ तो मैंने ही भड़काई थी!
जलना स्वाभाविक ही था!
तभी तो बुलाया था मुझे उसने!
पता था,
मुझे पता था!
परन्तु,
मेरे बस में नहीं था ये सब,
माँ नहीं बढ़ सकता था आगे,
गलत होता ये,
बहुत गलत!
वो बैठ गयी,
मेरे साथ ही,
और मैं अपने सामने पड़े उस सोफे,
के कपडे में बने,
एक रेखांकन की,
बारीकियां ढूंढने लगा!
सामने दीवार पर,
माखनचोर,
और उनके ज्येस्ठ,
बलदाऊ महाराज को देखने लगा!
लग,
वे भी देख रहे हैं मुझे,
नज़रें हटा लीं मैंने,
डर सा लगा बहुत उनसे,
चोरी पकड़ ली थी उन्होंने मेरी!
मेरे साथ ही बैठी थी वो!
अपना आँचल सम्भालते हुए,
"चाय ही बना लो?" मैंने कहा,
उसने सुना,
और बिना कुछ कहे,
उठ गयी,
और चली गयी रसोई में!
और मुझे चैन आया!
अब ताज़ा हवा मिली!
जलता हुआ कोयला,
अब शांत हुआ!
होने लगा, मेरा मतलब!
मैं उठा,
जैकेट सही की,
और चला मैं भी, रसोई की तरफ!
मैं रसोईघर में जैसे ही पहुंचा,
वो चाय बना रही थी,
मैं रुक गया,
निहारने लगा उसको,
उस काली मदमाती साड़ी में,
उसके बदन का कसाव मुक्त होने को,
लालायित था!
उसकी साड़ी में,
उसका बदन कस कर जकड़ा हुआ था!
उसके उभार साफ़ दीख रहे थे!
और मैं वहीँ निहार रहा था,
वो पलटी,
मुझे देखा,
और मुस्कुरायी,
मैं भी मुस्कुराया,
और चला गया उसके पास,
पानी खौल रहा था,
और उसमे डूबी चाय-पत्ती भी खौल रही थी,
खौल तो मैं भी रहा था,
पर अंदर से,
पानी की तरह नहीं,
हाँ, अगन समान थी!
वो फिर से चाय बनाने में जुट गयी,
अब दूध डाला उसने,
और खौलता पानी शांत हो गया!
पर मैं नहीं हुआ,
मैं आगे बढ़ा,
और लिपट गया उस से,
कैसी अजीब बात है!
एक पल कुछ,
और एक पल ऐसा!
खुद डमझ नहीं आया मुझे!
सम्भवतः ये पुरुष की प्रवृति ही है!
यही कहूंगा मैं इसको!
वो भी,
निर्विरोध, मेरा साथ देती रही,
खड़ी रही वैसे ही!
और मैं,
वो असीम सुख भोगता रहा!
असीम!
हाँ, असीम!
आद्रा बहुत सुंदर है मित्रगण!
और उसका बदन,
उसके लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास!
हर पुरुष की एक स्वप्न-सुंदरी होती है,
उसके अंग-प्रत्यंग वैसे ही होते हैं,
जैसा उस पुरुष ने सोचा है,
कल्पना की है,
और आद्रा ऐसी ही है!
मेरी स्वप्न-सुंदरी जैसी!
वैसी ही!
तो मेरा रीझना स्वाभाविक ही था!
अब मैं हटा,
हटा इसलिए,
कि अब,
सहन करना मुश्किल था,
और वैसे भी,
वो चाय अब बन गयी थी,
उसमे उबाल आ चुके थे,
सामान्य से अधिक,
जानती तो आद्रा भी थी,
बस, उबालो को कम करती रही!
जानबूझकर!
अब चाय डाली उसने,
दो कप चाय,
और एक कप मुझे दे दिया,
मैं अपना कप ले, कमरे में आ गया,
बैठा, और पीने लगा,
आद्रा भी आ गयी,
कुछ नमकीन लेकर,
मैंने कुछ नमकीन ली,
और चाय के साथ खाता रहा!
चाय ख़तम हुई!
और मैंने कप रखा एक तरफ,
"क्या करती हैं आपकी ये सहेली?" मैंने पूछा,
"अध्यापिका हैं" वो बोली,