और उसे भय भी नहीं था!
यही तो है विश्वास!
विश्वास दिखाने से नहीं,
जताने से होता है!
परखने से होता है!
नहीं तो आँखें सारा कपट पकड़वा देती हैं!
और स्त्रियां!
उनकी आँखें,
उनकी आँखों में तो ऐसी शक्ति दी है उस रचियता ने,
कि एक ही पल में सब छान देती हैं उनकी आँखें!
हम, पुरुष उस शक्ति से वंचित हैं!
हम तो अपने दम्भ में रहते हैं!
पुरुषत्व के दम्भ में!
पर हैं उनसे भी कायर!
बस अपनी पौरुष-शक्ति से दबाते रहते हैं उन्हें!
और उनकी सहन-शक्ति को हम अपनी विजय मान लेते हैं!
हम करें तो सब ठीक!
वो करें तो कहर टूटा फिर!
ये है हम पुरुषों का व्यक्तित्व!
खैर,
अब समय हो चला था,
करीब दो घंटे रही मेरे साथ वो,
फिर उसने जाने को कहा,
और मैं उसको बाहर तक छोड़ आया!
मुकुराते हुए,
वो सवारी पकड़, चली गयी!
और मैं वापिस हुआ!
घड़ी देखी तो पांच बजे थे!
मैं कमरे में आया,
आधे घंटे के बाद शर्मा जी भी आ गए,
माल-टाल लेते आये थे,
अँधेरा हो ही गया था!
तो फिर वही बात!
हुई शाम!
लगी हुड़क!
अब लगी हुड़क,
तो गला सूखा,
अब गला सूखा जब तो,
मैं गया सहायक के पास!
और सहायक से कुछ खाने के लिए लाने को कहा,
पानी और गिलास, मैं खुद ही ले आया था!
मैं कमरे में पहुंचा!
और शर्मा जी ने दो बोतलें निकालीं बाहर एक झोले से!
ये तो रम थीं!
वाह!
सर्दी में रम! इस से बढ़िया और क्या!
और फिर सहायक भी आ गया!
खूब सारा सामान ले आया था!
बढ़िया! सलाद! और फल भी काट कर लाया था!
और फिर 'प्रसाद' तो था ही!
तो हम तो अब भौंरे की तरह,
उनको देखते रहे!
"बनाइये?" मैंने कहा,
और संतरे की एक फांक खायी!
"बनाता हूँ" वे बोले,
और दो गिलास बना लिए!
हम दोनों ने ही,
भूमि-भोग दिया,
फिर ईष्ट-भोग,
और फिर अब आज्ञा ले उनसे,
उनका सरंक्षण मांगते हुए,
गिलास उठाया,
और सीधा,
कंठ के नीचे!
तर हो गया जी गला!
और फिर हम खाते पीते रहे!
अद्धा ख़तम कर दिया!
तभी फ़ोन बजा,
ये आद्रा ही ही,
अब मैं चौंक पड़ा,
कहीं कुछ अंट-शंट ने कह दूँ!
जो सुबह याद ही न रहे!
कहीं कोई मुसीबत ही खड़ी हो जाए!
इन्ही विचारों की उहापोह में,
फ़ोन में मिस्ड-कॉल हो गयी!
मैंने फ़ोन उठाया,
फ़ोन फिर से बजा!
अब उठा लिया!
"हाँ आद्रा!" मैंने कहा,
"क्या कर रहे हो?" उसने पूछा,
"अब ये न पूछो!" मैंने कहा,
"बताओ तो सही?" उसने पूछा,
"अब शाम हो गयी है, समझ जाओ!" मैंने कहा,
'अच्छा! लेकिन नशे में तो नहीं लग रहे?" उसने कहा,
"पांच मिनट और बात करोगी ऐसे ही तो लुढ़क जाऊँगा, पक्का!" मैंने कहा,
वो हंस पड़ी!
खिलखिलाकर!
मैं भी हंस पड़ा!
"आराम से पहुँच गयीं?" मैंने पूछा,
"हाँ, आराम से" वो बोली,
"चलो ठीक है" मैंने कहा,
"बात करने का मन नहीं है?" उसने पूछा,
"मन तो बहुत है!" मैंने कहा,
"तो करो?" वो बोली,
"अभी नहीं आद्रा!" मैंने कहा,
"फिर कब?" उसने पूछा,
"जब वो स्थान आपका हो जाएगा तब!" मैंने कहा,
'अच्छा" वो बोली,
और फिर फ़ोन काट दिया!
समझ गयी थी!
खलल डाल रही थी वो!
मैंने हाथ जोड़े!
सब सही निबट गया!
और मैं फिर से हुआ शुरू!
खाते रहे,
और पीते रहे!
कोई आधा घंटा बीता!
औ फिर से फ़ोन बजा!
अब डर गया मैं!
फ़ोन देखा,
ये आद्रा ही थी!
"हाँ?" मैंने कहा,
"अभी ख़तम नहीं हुई?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"नशा भी नहीं लगा रहा आपको तो?" उसने पूछा,
यहाँ मुझे अब दो के चार दिखायी देने वाले थे,
और बात करता तो चार की जगह आठ दीखते!
"खाना खा लिया?" मैंने पूछा,
"हाँ! और आपने?" उसने पूछा,
"खा ही रहा हूँ" मैंने कहा,
"अच्छा, चलो सुबह करती हूँ बात!" वो बोली,
"ज़रूर!" मैंने कहा,
और फ़ोन कट गया!
शर्मा जी हँसे!
मैं भी हंसा!
"चला दी मोहिनी?" वे बोले,
और अब मैं हंसा!
"कैसी मोहिनी?" मैंने कहा,
"और क्या! आद्रा पर चल गयी मोहिनी!" वे बोले,
"मैंने कोई मोहिनी-प्रयोग नहीं किया!" मैंने कहा,
"मैं सब जानता हूँ!" वे बोले,
और अब हम दोनों ही,
ज़ोर से हँसे!
फिर से एक और गिलास!
"अब फ़ोन कर दो बंद, नहीं तो मोहिनी ऐसे नहीं मानने वाली!" वे बोले,
"सही कहा!" मैंने कहा,
और अब मैंने अपना फ़ोन बंद कर दिया!
रात में फिर से अपने अपने कंबल ओढ़,
कानों में मफलर बाँध.
हम तो सो गए!
थोड़ी देर में ही,
हमारा वो कमरा, खर्राटाघर बन गया!
इत्मीनान से सो रहे थे!
और सोते ही रहे!
सुबह हुई,
मेरी खुली नींद!
रात में रम की गर्मी ने,
बहुत आनंद दिया था!
मैं अब निवृत होने गया,
और आ गया, स्नानादि से फारिग होकर!
पानी तो जान लेने पर आमादा था!
फुरफुरी ऐसे छूट रही थी कि जैसे,
विद्युत् की नंगी तार पकड़ ली हो!
रोयें खड़े हो गए थे!
और सर जैसे जम गया था!
ऐसा भयानक पानी था वो!
फिर गए शर्मा जी,
और फिर से अंदर से भजन के सवार आये!
कोई ताल नहीं, कोई मेल नहीं!
बस गाये जा रहे थे!
और फिर वे भी आ गए,
बाल आदि बना, वस्त्र पहन,
मेरी तरह ही कंबल में घुस गए!
थोड़ी देर बाद जब गर्मी आयी,
तो कंबल उतार दिया,
"चाय ले आऊँ ज़रा!" वे बोले,
"हाँ ले आओ" मैंने कहा,
और वे चले गए!
थोड़ी देर बाद आ गए,
दो कप चाय और साथ में ब्रेड ले आये थे,
मैंने ली और ब्रेड भी खायी चाय में डुबो डुबो कर!
कुछ गरम गरम हलज में उतरा,
तो गर्मी सी आयी!
अब मैंने अपना फ़ोन खोल लिया!
और खोलते ही,
फोन बजा!
ये आद्रा ही थी!
मैंने बात की,
"हाँ आद्रा! कैसी हो?" मैंने पूछा,
"ठीक हूँ, अभी उठे हो?" उसने पूछा,
"नहीं तो, क्यों?" मैंने पूछा,
"पांच बजे से फ़ोन लगा रही हूँ, बंद था फ़ोन" वो बोली,
"हाँ, बंद था, अभी खोला" मैंने कहा,
"इतनी देर तक सोते हैं आप?" उसने पूछा,
"अरे नहीं! एक तो सर्दी, ऊपर से खुमारी, फिर स्नानादि! इसीमे ही समय लग गया!" मैंने कहा,
"मेरे से तंग तो नहीं आ गए?" उसने कहा,
"आद्रा, मैंने सुना है, कि मेरा चांटा बहुत तेज लगता है!" मैंने कहा!
और वो हंसी!
बहुत हंसी!
मुझे भी हंसी आ गयी!
"आप मुझे मारोगे भी?" उसने पूछा,
"अब जिस से प्यार किया जाता है, उसको कभी-कभार, मारा भी जाता है! पराये से क्या मतलब?" मैंने कहा,
मित्रगण!
कह तो दिया,
लेकिन सांप को जगा दिया!
अब तो बीन बजानी ही पड़ेगी!
"प्यार? आप प्यार करते हो मुझसे?" उसने पूछा,
"हाँ, क्यों नहीं, करता हूँ मैं प्यार!" मैंने कहा,
"कब से?" उसने पूछा,
"जब मुझे भगाया था तुमने वहाँ से, तब से!" मैंने कहा,
और वो हंसी!
खिलखिलाकर हंसी!
फिर गम्भीर हो गयी!
"प्यार करने लगे हो मुझे?" उसने पूछा,
"अब तुम्हारा तुम जानो, अपना मैंने बता ही दिया!" मैंने कहा,
"मेरे सामने कहोगे?" उसने पूछा,
बीन छूट गयी मुंह से!
फंदा लग गया!
खांसी उठ गयी!
कैसे कहूंगा?
फिर से बीन लगायी मुंह में!
और बजाने लगा!
"इतनी बड़ी बड़ी बातें करती हो तुम फ़ोन पर, और मेरे सामने आते ही तुम्हे सांप सूंघ जाता है! तब तो आँखें ऐसे गाड़ लेती हो ज़मीन में कि जैसे सर बाँध दिया गया हो!" मैंने कहा,
अब ये वही पौरुष वाली बात थी!
वही कही!
उसने सुना,
और सुनते ही हंसी!
बहुत तेज!
"सर बंध जाता है! नहीं, ऐसा नहीं है!" वो बोली,
"तो फिर?" मैंने पूछा,
"पता नहीं! पता नहीं मुझे!" उसने कहा,
अब मैंने बात घुमानी ही ठीक समझा!
"चाय पी ली?" मैंने पूछा,
"पी रही हूँ" वो बोली,
"मैं भी" मैंने कहा,
"आज कहीं जाना है?" उसने पूछा,
"नहीं तो, कहीं नहीं" मैंने कहा,
"तो आ जाइये वहीँ" वो बोली,
"कहाँ?" मैंने पूछा,
"जहां कल आये थे" वो बोली,
"वहाँ?" मैंने कहा,
"क्यों? डर लगता है?" उसने कहा और हंसी!
"डर कैसा? आ जाऊँगा! कितने बजे?" मैंने पूछा,
"ग्यारह बजे आ जाओ" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
और बात ख़तम!
कट गया फ़ोन!
और मैंने अब चाय पी बची हुई!
और शर्मा जी को बता दिया सबकुछ!
"चले जाओ!" वे बोले,
"हाँ, जाऊँगा" मैंने कहा,
और फिर आराम किया,
अब बजे ग्यारह!
और मैं निकला अब!
बाहर पहुंचा,
सवारी पकड़ी,
और चल दिया!
बीस मिनट में पहुँच गया!
और अब पैदल चला,
गली में मुड़ा और फिर उस घर के सामने पहुंचा,
घंटी बजायी,
और दरवाज़ा खुला!
और जो मैंने देखा उसे,
दिल में मची हलचल!
बला की खूबसूरत लगी आज तो!
उसके पपोटेदार होंठ चमक रहे थे!
अंगार सा था उनमे!
और यहाँ मेरे अंदर अब भड़की चिंगारी!
काली साड़ी, कसी हुई, काला ही ब्लाउज आस्तीन तक,
गोरा रंग खिल के निकला था आज तो!
आँहों का काजल,
आज पाश की तरह से लगा मुझे तो!
"अंदर तो आइये?" उसने कहा,
और मैं अंदर आ गया,
वो दरवाज़ा बंद कर रही थी,
और मैं उसके बदन को निहार रहा था पीछे से,
दिल में बढ़ी धड़कन!
उस चिलचिलाती ठंड में भी,
मेरी तो साँसें गरम हो गयीं!
मेरी साँसे, मेरे ऊपर के होंठ से टकराती तो,
मेरी दिल का चोर बार बार उठकर ताँका-झाकी करता!
"आज तो बहुत सुंदर लग रही हो!" मैंने कहा,
"अच्छा?" उसने कहा,
"हाँ, सच में!" मैंने कहा,
"मान लिया!" वो बोली,
उसने बोला,
और मैंने उसको और गौर से देखा,
मैं इसको,
गिद्ध-दृष्टि कहूंगा!
ये सही रहेगा कहना!
नाम लिया मैंने उसके बदन का एक एक सेंटीमीटर,
अपनी नज़रों के फीते से!
अब नाप तो लिया,
लेकिन फिर से फंसा मैं!
"चाय पियोगे?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"फिर क्या?" उसने पूछा,
अब दिल बल्लियों उछला!
कह दूँ?
अरे नहीं!
कह देता हूँ न?
अरे नहीं!!
जाने दो!
जाने दिया!
"मैं पी रहा हूँ!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा, अचरज से!
"रूप! तुम्हारा रूप!" मैंने कहा,
अब शरमा गयी!
नज़रें नीचे कर लीं उसने!
"किसलिए बुलाया?" मैंने पूछा,
"ऐसे ही" वो बोली,
"ऐसे तो नहीं!" मैंने मुस्कुराया!
एक कुटिल से हंसी हंसा!
"तो किसलिए?" उसने पूछा,
"बताता हूँ!" मैंने कहा,
और मैं उठा,
और उसके पास जा बैठा,
उसको देखा,
उसका हाथ थामा,
आगे खींचा,
वो आगे हुई,
आँखें बंद किये हुए!
"आँखें खोलो" मैंने कहा,
उनसे बंद मुंह से ही जिव्हा हिला कर 'कच' कहा,
अर्थात न!
"खोलो?" मैंने कहा,
'कच' फिर से!
मैं उठ गया,
और जैसे ही जाने लगा,
मेरी जैकेट पकड़ ली उसने!
मैं फिर से बैठ गया!
"मेरे करीब आओ!" मैंने कहा,
वो आयी!
"और करीब!" मैंने कहा,
वो आयी!
"और करीब!" मैंने कहा,
अब तो जगह ही न बची थी!
कितना करीब?