मेरे सवाल उसके अंतर्मन को बींधे जा रहे थे!
"बताओ?" मैंने कहा,
वो खड़ी हो गयी!
और मैंने तब,
उसका हाथ पकड़ कर,
नीचे बिठा दिया!
वो बैठ गयी!
सर नीचे कर लिया उसने!
"कुछ खाओगी?" मैंने पूछा,
थोड़ा माहौल बदलने की सोची!
"नहीं" वो बोली,
"साथ दोगी?" मैंने पूछा,
चुप!
कुछ न कहे!
मैं चाहता था कि कुछ कहे!
लेकिन एक शब्द भी नहीं!
फिर से खड़ी होने लगी,
मैंने उसके घुटने पर हाथ रखकर बिठा दिया!
फिर से खड़ी हो गयी वो,
"फ़ोन पर बताउंगी" वो बोली,
और लड़की को साथ ले,
चली गयी बाहर!
चाल तो मैंने चल दी थी!
अब तीर निशाने पर लगा या नहीं,
एक आद घंटे बाद, पता,
चल ही जाना था!
वो चली गयी!
और मैं कमरे में बैठा रहा,
अब इंतज़ार था मुझे,
बेसब्री से,
देखें,
क्या होता है!
आद्रा, मेरा सुझाव मानती है या नहीं!
नहीं मानी, तो,
फिर उसकी और मेरी ये,
आखिरी मुलाक़ात ही होती!
इसीलिए,
बेसब्र हो उठा था मैं,
अब शर्मा जी आ गए अंदर,
और मैंने बता दिया उनको सबकुछ,
उन्होंने भी मेरे इस सुझाव को,
उचित ही ठहराया,
चारा डाल दिया था,
अब चारा चुगने वाले पर ही निर्भर करता था सबकुछ!
फिर एक घंटा बीता,
फिर दो,
और फिर तीसरा भी बीत गया!
मैं बार बार,
अपना फ़ोन उठाकर देखता!
आर नहीं आया फ़ोन कोई भी!
हताशा सी हो गयी!
और तभी,
फ़ोन बजा!
मैंने झट से उठाया,
ये आद्रा ही थी!
मैंने अब बात की,
उसने मुझसे मिलने को कहा था,
अकेले ही,
और मैंने स्वीकार कर लिया,
अब उसने मुझे एक जगह बतायी,
ये एक रिहाइशी क्षेत्र था,
और जो जगह या घर उसने मुझे बतायी थी,
वो उसकी किसी परिचित सहेली का था,
यहाँ थी मेरी मुलाक़ात उस से!
ये मुलाक़ात कल सुबह दस बजे होनी थी,
ये क्षेत्र उस स्थान से, मात्र दो किलोमीटर ही होगा,
अब सोच ये,
कि क्या बात करेगी वो?
मानेगी या नहीं?
क्या कोई शर्त भी होगी?
या फिर जैसा मैं कहूं,
वैसा ही करेगी!
ऐसे ऐसे कई ख़याल,
दिमाग में आसन बिछा बैठते गए!
रात को हमने मदिरापान किया,
भोजन किया और सो गए!
और फिर अगला दिन,
और बजे नौ,
मैं निकल पड़ा वहाँ के लिए,
पैदल ही गया,
समय भी कट जाता,
और रास्ता भी पार हो जाता,
कोई पौने दस बजे,
मेरा फ़ोन बजा,
आद्रा का ही फ़ोन था ये,
उसने बताया कि वो पहुँच चुकी है,
और मैं आ जाऊं वहाँ,
अब मैंने वो घर ढूँढा,
मिल गया,
और फिर सीधा उसी घर के सामने पहुंचा,
श्रीवास्तव साहब का घर था ये,
मैंने घंटी बजायी,
दरवाज़ा खुला,
ये आद्रा थी!
प्रणाम हुआ,
और मैं अंदर आ गया,
उसने मुझे बिठाया,
और पानी दिया,
मैंने पानी पिया,
घर में और कोई नहीं था,
ऐसा ही लगा मुझे तो!
"कोई नहीं है घर में क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ, कोई नहीं है" वो बोली,
"किसका घर है ये?" मैंने पूछा,
"मेरी सहेली का" उसने कहा,
"और अब कहाँ है वो?" मैंने पूछा,
"नौकरी पर" वो बोली,
"अच्छा!" मैंने कहा,
फिर वो उठी,
और बाहर चली कमरे से,
शायद रसोई में गयी थी,
वहाँ से, कुछ खाने का सामान ले आयी,
और रख दिया सामने,
"कुछ विचार किया?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"क्या?" मैंने पूछा,
मैं बेचैन था बहुत!
"आपने कहा कि मैं साथ दूँ आपका, लेकिन कैसे?" उसने पूछा,
"तुम उसकी साध्वी तो नहीं हो न?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"अच्छा! वो पात्र कहाँ है?" मैंने पूछा,
"गौरांग के पास" वो बोली,
"कैसा है वो?" मैंने पूछा,
"कांसे का है, छोटा सा, बड़ा नहीं" उसने हाथ की उँगलियों से इशारा कर के बताया!
कुछ और विवरण दिया उसने!
ये काम का विवरण था!
"गौरांग का उच्च क्या है?" मैंने पूछा,
अब उसने मुझे बताया, विस्तार से, कि कैसे,
उसने आजतक सभी द्वन्द जीते हैं!
और यही उसके दम्भ का मुख्य कारण है!
गौरांग, कोई छोटा खिलाड़ी नहीं था,
मंझा हुआ था, चालीस वर्षों का अनुभव था उसको!
और अब सबसे अहम् सवाल!
"आद्रा? तुम्हारा भाई किस ओर रहेगा?" मैंने पूछा,
वो हलकी सी हंसी, हंसी!
"यक़ीनन, गौरांग की ओर!" वो बोली,
ये तो मैं भी जानता था!
इसका अर्थ,
आद्रा अकेली ही थी!
इसी कारण से वो गौरांग के खिलाफ जाने से डरती थी!
समझ रहा था मैं!
"एक बात बताओ, जब गौरांग चित हो जाएगा, तो क्या मैं तुम्हारे स्थान पर आ सकता हूँ? बिना पूछ-ताछ के?'' मैंने सवाल किया!
वो मुस्कुरायी!
उत्तर मिल गया था!
हाँ! कभी भी!
"तो मेरा साथ दोगी न?" मैंने पूछा,
उसने सर हिलाया,
हाँ में!
और मुझे सुकून आया!
"ठीक है आद्रा! धन्यवाद! अब मैं संदेसा पहुँच दूंगा उसको! चुनौती का!" मैंने कहा,
गम्भीर हो गयी वो!
उसे यक़ीन नहीं था कि मैं उस प्रबल औघड़,
गौरांग से भिड़ सकता हूँ!
ठीक है!
कोई बात नहीं!
"अब चलूँगा मैं आद्रा!" मैंने कहा,
"अरे? भोजन नहीं करोगे?" उसने पूछा,
"भोजन? समय लगेगा" मैंने कहा,
बनने में समय लगेगा,
"बना हुआ है!" वो बोली,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"लाती हूँ" वो बोली,
और फिर भोजन ले आयी वो!
"तुम भी खाओ?" मैंने कहा,
"खा लूंगी, पहले आप कीजिये" वो बोली,
"नहीं, साथ खाओ मेरे" मैंने कहा,
और फिर मैंने ज़ोर-ज़बरदस्ती करके खाना खिला ही दिया उसको!
मैंने भी खाया,
भोजन कर लिया था!
हाथ-मुंह धोये,
और बैठा फिर,
वो भी बैठ गयी!
"कभी दिल्ली गयी हो?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"कभी नहीं?" मैंने पूछा,
"हाँ, कभी नहीं" वो बोली,
"कमाल है!" मैंने कहा,
"कैसे कमाल?" उसने पूछा,
"सारा समय यहीं रहती हो क्या?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"अच्छा!" मैंने कहा,
वो मुस्कुरा गयी!
"एक बात बताओ, उस देव-कन्या को देखा है तुमने?" मैंने पूछा,
"हाँ, देखा है" वो बोली,
"तुम्हारे जैसी ही रूपवान है?" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा,
"मैं रूपवान हूँ?" उसने पूछा,
"सच कहूं?" मैंने पूछा,
"हाँ, कहिये" वो बोली,
"जब पहली बार देखा था तुमको तो, तभी रीझ गया था मैं!!" मैंने कहा,
अब वो हंसी!
खुश हो गयी!
"सच में!" मैंने कहा,
"कैसे रूपवान हूँ मैं?" उसने पूछा, अपने घुटने पर कोहनी टिकाते हुए, और हाथ में चेहरा थामे हुए!
"होंठ! तुम्हारे होंठ बहुत कामुक हैं! तुम्हारी चिबुक में पड़ी ये फलक और बढ़ाती है रूप को तुम्हारे! तुम्हारी आँखें, बहुत सुंदर हैं! और बदन! वो नहीं बता सकता, शब्द ही नहीं हैं!" मैंने कह दिया!
अब कह ही दिया!
शरमा सी गयी!
नज़रें बचा लीं उसने!
मुझे नहीं देखा उसने!
क्योंकि,
मैंने उसके एक एक अंग को,
अपनी नज़रों से घायल तो कर ही दिया था!
चुप बैठी रही!
कुछ न बोली!
"अब चलता हूँ मैं आद्रा!" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा,
जैसे मना कर रही हो!
"अभी रुकिए? जल्दी है क्या?" उसने पूछा,
"नहीं कोई जल्दी नहीं" मैंने कहा,
सच पूछो तो,
मैं रुकना ही तो चाहता था!
रुक गया!
"यहाँ बैठो" मैंने अपने साथ बैठने के लिए कहा,
वो चौंक पड़ी!
नहीं आयी!
"बैठो?" मैंने कहा,
नहीं उठी!
"अरे बैठो तो सही?" मैंने कहा,
नहीं उठी!
अब मैं चुप हो गया!
अब अधिक कहना, गलत था!
मैं उठ गया!
"अब चलूँगा मैं आद्रा!" मैंने कहा,
और अपना रुमाल अपनी जेब में रखा,
अनुभव क्र. ७८ भाग २
By Suhas Matondkar on Wednesday, October 8, 2014 at 6:32pm
तह बना कर, ताकि समय मिले उसके साथ रहने का, थोड़ा ही सही!
वो भी उठ गयी,
और मैं मुड़ा!
मेरे पीछे आयी,
और मैं फिर मुड़ा!
उसको देखा!
और मित्रगण!
माइन उसका कन्धा पकड़ कर,
खींच लिया उसको अपने करीब!
कोई विरोध नहीं!
बस!
यही चाहिए था!
अब हटाया उसको!
दरवाज़ा खोला,
बाहर आया,
और प्रणाम कह कर,
निकल पड़ा वापिस जाने के लिए!
मैं बाहर आ गया था,
पीछे मुड़कर भी नहीं देखा,
सीधा चलता गया और फिर एक गली में मुड़ गया,
अब पीछे देखा,
कोई नहीं था,
अब मैं सड़क तक जाने के लिए,
तेज तेज चलने लगा,
तभी फ़ोन बजा,
ये आद्रा का था,
मैं रुका,
और फ़ोन सुना,
"हां?" मैंने कहा,
"कहाँ पहुंचे?" उसने पूछा,
"बस आ गया हूँ सड़क तक" मैंने कहा,
"बड़ी जल्दी?" वो बोली,
"हाँ, थोड़ा तेज चलता हूँ मैं" मैंने कहा,
"वापिस नहीं आ सकते?" उसने पूछा,
और जिस लहजे से पूछा, मैं ऊपर से नीचे तक,
काँप सा उठा!
बहुत जल्दी जल्दी हो रहा था सबकुछ!
मेरी आशा के विपरीत!
"आ सकता हूँ!" मैंने कहा,
"तो आ जाओ?" उसने कहा,
फिर ऐसे लहजे में बोला,
कि मैंने पीछे मुड़के देखा!
देखना पड़ा!
"अच्छा, आता हूँ" मैंने कहा,
और फ़ोन बंद कर दिया,
जेब में रखा,
और अब धीरे धीरे वापिस चलने लगा!
और फिर से उसी गली में मुड़ा,
और उस घर के सामने आ गया,
अब मेरे दिल की धड़कन बढ़ गयी,
हाथ-पाँव में पसीना सा आ गया,
ठंड में भी!
मैंने घंटी बजायी,
दरवाज़ा खुला,
सामने ही खड़ी थी वो!
शर्म की चादर ओढ़ रखी थी उसने!
चेहरा लाल हो रहा था!
आँखें पलकों से ढकीं थीं,
होठ, सूखे थे!
मैं अंदर आया, और उसने दरवाज़ा बंद कर दिया!
मैं अंदर वहीँ बैठा, सोफे पर,
और वो मेरे सामने बिस्तर पर,
"यहाँ बैठो!" मैंने कहा,
उसको झटका सा लगा!
उठी,
खड़ी हुई,
अपना स्वेटर ठीक किया,
और धीरे धीरे चलती हुई,
एक फांसला रख कर, बैठ गयी!
"थोड़ा और आगे!" मैंने कहा,
दरअसल जांचा!
न हुई!
"आओ?" मैंने कहा,
नहीं आयी!
उसकी तो जान सूख गयी थी!
जैसे बहेलिये को देखकर गौरैय्या सहम जाती है!
मैंने आगे झुक कर उसका हाथ पकड़ा,
उसकी कलाई से,
और आगे खींच लिया,
उसने विरोध किया!
लेकिन मैंने नहीं छोड़ा!
और खींच लिया!
अपने से सटा लिया!
धक् धक्!
और सच पूछो तो,
मेरा भी दिल उस से अधिक धक् धक्!
"ऊपर देखो?" मैंने कहा,
न देखा उसने!
सच कहता हूँ,
वो सच में ही बहुत सुंदर है,
गठीला मांसल बदन, गोरा-चिट्टा रंग!
सुर्ख होंठ और लालिमा लिए हुए उसका चेहरा!
लेकिन मैं तो यहाँ जांच रहा था!
कि वो मेरा साथ देगी या नहीं!
अब तक तो सही था,
वो विरोध नहीं कर रही थी!
लेकिन अब आगे बढ़ना था मुझे,
योजनागत रूप से!
मैंने अब उसकी गर्दन के पीछे हाथ लगाते हुए,
उसको आगे अपनी ओर धकेला!
वो झुक गयी,
लेकिन आँखें बंद किये हुए!