अब मैंने,
इस आद्रा से पींगें बढ़ानी की शुरू!
करनी पड़ीं!
उसो मैंने उस दिन, कोई सत्रह बार फ़ोन किया!
भोली आद्रा मेरा आशय किसी दूसरी ओर ही पकड़ी रही!
खैर,
उद्देश्य पूर्ण होना चाहिए थे!
वो देव-कन्या मुक्त हो बस!
किसी भी तरह!
यही था उद्देश्य!
अब हुई शाम!
याद आये जाम!
देह अलसायी,
मदिरा इठलाई!
करने को पूर्ण अपनी इच्छा-भरण,
करना होगा अब इसका चीर-हरण!
फिर क्या था!
इठलाती,
इतराती,
मदमाती,
मदिरा निकाल ली बैग से!
और सामान मंगवा लिया!
सज गयी महफिल!
और हम हुए शुरू!
फिर फ़ोन बजा!
आद्रा थी ये!
मैंने बात की,
यहाँ वहाँ की बातें बस!
और फिर फ़ोन रख दिया!
मैं अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हुआ जा रहा था!
तो हमने अब खूब चीर-हरण किया मदिरा का!
क़तरा क़तरा खींच मारा!
और वो ढीठ!
हमे देखे जाए,देखे जाए!
अपने शीशे के चिलमन से,
कनखियों से!
मुसकराये!
इतराये!
और हमारी प्यास,
बढ़ती ही जाए!
हम बार बार,
उसके हुस्न का जाम पियें!
और बार बार हम प्यासे ही,
रह जाएँ!
खैर साहब!
हम ही हारे!
घुटने टेक लिए हमने तो!
वो जीत गयी!
और हम हार गए!
ढेर हो गए!
हारे हुए सिपाही!
थके हुए सिपाही!
ढेर सिपाही!
वो अब भी,
अपने चिलमन से मुंह चिढ़ाये!
मैंने बोतल उठायी,
और अपने पलंग के नीचे सरका दी!
और लेट गया!
भोजन कर ही लिया था!
बस अब लेटना ही था!
लेटे, तो निंदिया रानी ने बहुत दया दिखायी!
लेटते ही आँखें बंद!
और हम अब गोते खाएं!
ठंड!
अब कैसी ठंड!
हुस्न के मारे थे हम अब!
हुस्न की गर्मी चढ़ी थी!
कम से कम सुबह तक तो!
तो अब,
सुबह हुई!
नशा टूटा!
बाहर झाँका तो,
धुंध थी!
ठंड अब जलवा दिखा रही थी!
रात को काफी हो गयी थी,
और अब स्नान से ही ये,
खुमारी ख़तम होती,
मैं गया निवृत होने,
और किसी तरह से स्नान किया!
ठंडा पानी बदन पर पड़ा,
तो आँखें भट्टा सी खुल गयीं!
साँसें आधी हो,
पसलियों में ही क़ैद हो गयीं!
जल्दी जल्दी स्नान किया!
और फिर वस्त्र पहन,
सीधा अपने कंबल में घुस गया!
अब उठे शर्मा जी,
अपना सर पकड़े हुए!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"हथौड़ा बज रहा है!" वे बोले,
हंसते हुए!
मुझे भी हंसी आयी!
सर पर बंधा मफलर उतारा उन्होंने!
और गुसलखाने में घुस गए!
और फिर से भजन के स्वर गूंजे!
स्वरों में ताल बिगड़ी हुई थी!
कभी ॐ बड़ा हो जाता, तो कभी नमो!
मतलब कि,
पानी से दो दो हाथ चल रहे थे उनके!
और फिर कोई दस मिनट के बाद,
चेहरे पर मफलर बांधे और वस्त्र पहने,
वे बाहर आये!
और घुस गए कंबल में!
और किया थोड़ा ध्यान अपने ईष्ट का!
और तभी चाय लेकर एक सहायक आ गया!
मैंने झट से चाय का कप ले लिया!
और पीने लगा!
गरम चाय हलक में उतरी,
तो चैन आया!
शर्मा जी ने भी अब चाय पीनी शुरू की!
चाय पी ली,
और तभी बजा फ़ोन!
मैंने देखा,
ये आद्रा थी!
हाल-चाल पूछा गया,
और फिर,
कुछ नयी जानकारी!
कि गौरांग तैयारी में लग गया है!
और स्व्यं आद्रा, कल काशी आ रही है!
एक पल के लिए मुझे भय सा लगा,
अपने आप से,
फिर संयत हुआ मैं,
अब जब,
सर दिया ओखली में तो मूसल से क्या डर!
बस जी!
यही सोचा मैंने!
वो दिन भी काटा हमने!
अपने कमरे में!
हवा चली तेज!
बहुत तेज!
ठूंठ पड़े पेड़,
जिनको पतझड़ ने नंगा करके छोड़ दिया था,
वे भी हिल पड़े!
बसंत की प्रतीक्षा में खड़े थे सभी के सभी!
हाँ,
जो छोटे पौधे थे,
जो अवयस्क होने से बच गए थे,
अब खिल्ली उड़ा रहे थे उनकी!
वहाँ लगा एक नीम्बू का पेड़,
अपनी इज्ज़त बचा गया था!
अब तो फूलों से लदा था!
साथ में, अनार और ग्वार-पाठे की झाड़ियाँ,
सबी बची हुई थीं!
कुछ जंगली फूल भी खिले थे!
प्याजी रंग के!
अब गुलदाउदी, गुलाब, गुडहल आदि को,
मुंह चिढ़ा रहे थे!
खैर,
वनसप्ती की दुनिया से अब बाहर निकलते हैं!
अगला दिन आया!
बाबा पांडु भी आये!
आज जाना था बाबा दादू से मिलने!
दादू बाबा सिद्धहस्त हैं!
पारंगत हैं!
उनकी मदद आवश्यक थी उस समय!
और फिर हम निकल पड़े उनसे मिलने के लिए!
एक घंटे में वहाँ पहुंचे,
और अब दादू बाबा से मिले,
दादू वृद्ध हैं बहुत,
जब हम गए थे तो बीमार थे,
आँखों की शल्य-क्रिया हुई थी उनकी,
अब उनसे कैसे मदद प्राप्त हो?
अब पांडु बाबा ने उनसे बात की,
काला चश्मा लगाए बैठे थे वो,
तब बाबा ने मुझे बताया कुछ!
मेरी आँखें चमक उठीं!
बहुत पते की बात बतायी थी उन्होंने!
इसीलिए कहते हैं,
किताब से बड़ा तज़ुर्बा!
और सांप से बड़ा भय!
समझ आ गया था मुझे!
इस से मैं उस गौरांग को छठी का दूध याद दिल सकता था!
कम से कम वो पात्र मेरे हाथ लग ही जाता!
और यही था मेरा एकमात्र उद्देश्य!
उसको प्राप्त करना,
और फिर पांडु बाबा के हाथों से उसको मुक्त करना!
यही इच्छा थी पांडु बाबा के गुरु की,
उनकी अंतिम इच्छा!
और देखिये,
फंस मैं गया था!
लेकिन एक,
बात और भी थी,
बुज़ुर्गों का आशीर्वाद कभी खाली नहीं जाता!
उनके चरण स्पर्श से विश्वास बढ़ता है!
उनके आदर से सुख मिलता है!
उनको सुख मिलेगा,
तो आपको आशीर्वाद मिलेगा!
और आशीर्वाद से बड़ा क्या?
कुछ नहीं!
ये सिद्धियाँ क्या हैं?
मात्र आशीर्वाद!
मात्र आशीर्वाद!
हम अब वापिस आ गए वहाँ से,
दो बज चुके थे,
तभी फ़ोन बजा,
मैंने देखा,
ये आद्रा थी!
वो अपने भाई के स्थान पर रुकी थी,
और वो स्थान यहाँ से कोई बीस किलोमीटर दूर था,
अब मैंने पांडु बाबा को भेज दिया वापिस,
और उनके एक और साथी को, और मैं स्व्यं चल पड़ा शर्मा जी को लेकर,
वहाँ के लिए,
मुझे वहाँ नहीं जाना था,
मैं उसो कहीं बाहर बुला रहा था,
उसका भाई, गौरांग का विश्वस्त था,
इसी कारण से,
और मैं अभी तक, उस से मिला भी नहीं था,
पता नहीं क्या कहानी बनती!
इसलिए मैंने आद्रा को कहीं और बुलाया था,
बाहर कहीं,
वो तैयार थी,
अब हमने सवारी पकड़ी,
और चल पड़े वहाँ के लिए,
आधा घंटा बीत गया,
तभी फिर से फ़ोन बजा,
ये आद्रा थी,
पूछा कि कहाँ हो?
तो मैंने बता दिया अभी कोई पंद्रह मिनट लग जायेंगे,
और फिर कोई पंद्रह मिनट के बाद,
हम वहाँ पहुँच गए,
और मैं सीधा उस जगह पहुंचा,
आद्रा वहीँ खड़ी थी,
साथ में एक लड़की भी थी उसके,
मुझे देखा,
तो मुस्कुरायी!
हरे रंग की साड़ी में तो कहर ढा रही थी,
ऊपर एक स्वेटर,
आधी बाजू का,
और गले में मफलर था, पीले रंग का!
या तोतई सा रहा होगा,
प्रणाम हुआ!
उस लड़की ने भी प्रणाम किया,
और फिर मैंने बात की उस से,
"जल्दी आ गयीं?" मैंने पूछा,
"हाँ, यहाँ से पास में ही है भाई" वो बोली,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब वहाँ न तो कोई बैठने की जगह थी,
और न ही आराम से खड़े होने की जगह,
इसका मुझे भी एहसास हुआ,
और उसको भी!
"मेरे साथ चल सकती हो?" मैंने पूछा,
"कहाँ?" उसने पूछा,
"मेरे स्थान पर" मैंने कहा,
"कहाँ है यहाँ?" उसने पूछा,
"है कोई पांच किलोमीटर" मैंने बताया,
"चलिए" वो बोली,
और अब मैंने सवारी पकड़ी,
और हम चारों बैठ गए उसमे,
और पहुँच गए अपने स्थान पर,
मैं उसको ले आया अपने कक्ष में,
शर्मा जी बाहर ही बैठ गए,
कुर्सी लेकर,
"ये कौन है?" मैंने पूछा,
"मेरी भतीजी है" वो बोली,
"अच्छा! आपके भाई की लड़की!" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोली,
"पानी पियोगी?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"और तुम?" मैंने उस लड़की से पूछा,
"नहीं" वो बोली,
अब मैंने उठ कर,
जग में से पानी दिया उसको,
उसने पानी पिया,
मैंने गिलास लिया,
और रख दिया वापिस,
:ये आपका स्थान है?" उसने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"बहुत सुंदर है, पुराना लगता है" वो बोली,
"हाँ बहुत पुराना है" मैंने कहा,
फिर हम दोनों चुप!
"आद्रा, तुम समझदार हो! इस गौरांग के साथ क्या कर रही हो?" मैंने पूछ लिया,
वो गम्भीर हो गयी,
"मेरे पिता की इच्छा थी कि मैं बाबा गौरांग के पुत्र से विवाह कर लूँ, परन्तु मैंने मना किया, इस से गौरांग चकित तो हुए, हुआ, (उसने पहली बार ये दिखाया कि मेरा प्रभाव पड़ा है उस पर!) पर मेरे पिता जी की सहानुभूति लेता गया, अब आप समझ सकते हैं" वो बोली,
हाँ!
समझ गया मैं!
"डरती हो गौरांग से?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
लाजमी था!
ये लाजमी ही था!
गौरांग प्रबल था!
सबकुछ करने में समर्थ था!
"उसका बेटा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"उसका बेटा, मुम्बई में रहता है, नौकरी करता है वहाँ" वो बोली,
"वो औघड़ नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
आश्चर्य!
कैसे सम्भव!
"तब तो गलती की तुमने!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने चौंक कर पूछा,
"विवाह कर लेना चाहिए था उसके साथ तुम्हे, कम से कम साध्वी तो नहीं रहती तुम?" मैंने कहा,
"वो शादी-शुदा था" वो बोली,
अब मैं घूमा!
"अच्छा! फिर तो ठीक है" मैंने कहा,
और क्या कहता, यही कहना पड़ा!
"तो ये गौरांग, तुम्हारे स्थान का मालिक है!" मैंने कहा,
"हाँ, भाई की वजह से" वो बोली,
अब और समझ गया में!
अक्ल के बोर में और ठुंस गयी ये बात भी!
इसका मतलब,
आद्रा फंसी हुई थी!
"मेरे साथ आ जाओ!" मैंने कहा,
वो चौंकी!
समझ न सकी!
मैंने कहा ही था ऐसे द्विअर्थी शब्द में!
"नहीं समझीं?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"आज़ाद हो जाओ!" मैंने कहा,
अब भी न समझी!
मुझे अपने दीदों से देखती रही!
कैसा आदमी है ये?
साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहता?
क्या पहेलियाँ?
मैं मुस्कुराया,
"मेरा साथ दोगी?" मैंने पूछा,
"साथ?" वो बोली,
"हाँ!" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने पूछा,
"गौरांग के खिलाफ!" मैंने कहा,
अब तो सहम गयी वो!
गौरांग के खिलाफ?
"हां?" मैंने कहा,
आँखें खोल मुझे देखे!
विचार में खो गयी!
"दोगी?" मैंने पूछा,
नहीं समझी अभी भी!
"आद्रा? मेरा साथ दोगी?" मैंने पूछा,
कुछ न बोली वो!
उलझ गयी थी!