बैठ गए!
तभी सहायक आ गया!
लबादा सा ओढ़े!
सर पर मफलर कसे!
साथ में एक जग,
जग में चाय और दो कप!
और कुछ नमकीन!
मैंने झट से कप पकड़ा!
और जब चाय पड़ी उसमे तो,
उसकी गर्माइश ने जान में संजीविनी सी फूंक दी!
अब ली नमकीन,
चटपटी थी!
चाय का मजा दोगुना कर दिया उसने तो!
जल्दी जल्दी चाय के घूँट भरे हमने!
और अब कुछ राहत सी हुई!
उसके बाद,
स्नान!
सबसे बड़ा इम्तिहान!
रीढ़ की हड्डी, बन गयी तीर-कमान!
सर घूम गया!
ठंडे पानी ने ऐसा किया कि जैसे,
सारा खून जम गया हो खोपड़ी के अंदर!
दांत किटकिटा गए!
जो मेरा हाल हुआ,
वही शर्मा जी का हुआ!
एक एक मग पर,
एक एक भजन-स्वर गूँज रहा था!
ठंड थी ही ऐसी!
वे भी आये!
और फिर वस्त्र पहन,
झट से कंबल में घुस गए!
फिर उठे!
"कहाँ चले?'' मैंने पूछा,
"खोपड़ी से लेकर एड़ी तक, सारा खून जम गया है, चाय के लिए कहता हूँ!" वे बोले,
और चले गए!
और जब आये,
तो दो, स्टील के गिलासों में,
चाय ले आये थे!
मैंने झट से लपक लिया एक गिलास!
और चुस्कियां लेते लेते,
चाय पीता रहा!
चाय ने राहत दी फिर से!
और मैं तो लेट गया फिर से!
बाहर झाँका,
तो सूर्य महाराज आज भी विलम्ब से चल रहे थे!
शीत-देवी ने आज भी मार्ग अवरुद्ध कर रखा था उनका!
सूर्य!
क्या आपको सूर्य के विषय में कुछ ज्ञात है?
या फिर वही सात्विकों की किवदंतियां?
कैसे उत्पन्न हुए सूर्य?
कुछ ज्ञात है?
हो सकता है कि ज्ञात हो,
जो नहीं जानते, उनको बताना चाहूंगा!
महर्षि कश्यप लोक पिता हैं। उनकी पत्नी देवमाता अदिति के गर्भ से भo विराट के नेत्रों से व्यक्त सूर्यदेव जगत में प्रकट हुए। सूर्य मण्डल का दृश्य रूप भौतिक जगत में उनकी देह है। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से उनका परिणय हुआ। संज्ञा के दो पुत्र और एक कन्या हुई- श्राद्धदेव वैवस्वतमनु और यमराज तथा यमुना जी। संज्ञा भo सूर्य के तेज़ को सहन नहीं कर पाती थी। उसने अपनी छाया उनके पास छोड़ दी और स्वयं घोड़ी का रूप धारण करके तप करने लगी। उस छाया से शनैश्चर, सावर्णि मनु और तपती नामक कन्या हुई। भo सूर्य ने जब संज्ञा को तप करते देखा तो उसे तुष्ट करके अपने यहाँ ले आये। संज्ञा के बड़वा (घोड़ी) रूप से अश्विनीकुमार हुए। त्रेता में कपिराज सुग्रीव और द्वापर में महारथी कर्ण भगवान सूर्य के अंश से ही उत्पन्न हुए।
इस अचेतन में विराजने के कारण इसे 'मार्तण्ड' भी कहा जाता है। यह ज्योतिर्मय(हिरण्यमय) ब्रह्मांड से प्रकट हुए हैं इसलिए इन्हें 'हिरण्यगर्भा' भी कहते हैं। सूर्य ही दिशा, आकाश, द्युलोक (अंतरिक्ष) भूलोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश , नरक, और रसातल और अन्य भागों के विभागों का कारण है। सूर्य ही समस्त देवता, तिर्यक, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीव समूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं, अर्थात सूर्य से ही जीवन है।
ये है एक विवरण!
हाँ, तो अब हुई दोपहर!
आभारहित दोपहर थी वो!
सूर्य का प्रकाश तो था,
पर पीड़ित प्रकाश था!
अब आया भोजन!
तो अब भोजन किया हमने!
फिर हाथ-मुंह धो,
घुस गए अपने अपने कंबल में!
तभी कोई चार बजे,
योगेश आया,
फ़ोन लिए हुए,
फ़ोन मुझे दिया,
मैंने लिया,
ये आद्रा थी!
बात हुई,
बाबा गौरांग कल आने वाला था!
कल दोपहर तक!
और अब!
यही था इंतज़ार!
तो उस रात भी हमारी महफ़िल सजी!
आज विशेष भोजन बनाया था योगेश ने,
वही खाया और हमने मदिरा का आनद उठाया,
सर्दी में जब मदिरा से कान गरम हो जाते हैं,
तो एक अलग ही आनंद आता है!
उस रात हम देर से सोये!
योगेश ने कुछ और बातें भी बतायीं मुझे,
जो काम आ सकती थीं मेरे,
मेरा उद्देश्य मात्र यही था,
आगे तो उस गौरांग ने तय करना था कि,
क्या करना है!
उसके निर्णय के बाद ही मुझे कुछ निर्णय लेना था!
तो फिर हुई सुबह!
सर्दी का आज आतंक व्याप्त था बहुत ही!
घुटने कंपा देने वाली सर्दी थी आज!
हम किसी तरह से निवृत हुए,
और फिर चाय भी आ गई,
अब चाय पी,
और फिर उसके बाद दोपहर में,
भोजन भी कर लिया!
हम उस समय आराम कर रहे थे,
तभी योगेश आया,
फ़ोन मुझे दिया,
मैंने बात की,
ये आद्रा थी,
आद्रा ने बताया कि बाबा गौरांग आ चुके हैं,
और उसने गौरांग को हमारे आने के बारे में सूचना दे दी है,
और मुख्य बात ये,
कि उद्देश्य भी बता दिया है!
बस अब से कोई एक घंटे के बाद,
हम मिलने वाले थे बाबा गौरांग से!
फ़ोन कट गया,
मैंने फ़ोन वापिस दिया योगेश को,
और वो चला गया!
फिर मैंने घड़ी देखी,
दो बजे थे,
दो के आसपास का ही वक़्त था,
तीन बजे हमको वहाँ जाना था,
देखने,
कि क्या निर्णय लेता है वो बाबा गौरांग!
और फिर बजे तीन!
और अब हम निकले वहाँ से,
योगेश को बता दिया सबकुछ,
सामान योगेश के यहीं छोड़ा,
और चल दिए,
पैदल पैदल चलते चलते हम,
पहुँच गए वहाँ!
फाटक पर पहुंचे,
उस लड़के ने, झट से दरवाज़ा खोल दिया,
जैसे खबर थी उसको हमारे आने की,
उसने प्रणाम कहा,
हमने भी कहा,
"आइये" वो बोला,
और हम चल पड़े उसके साथ!
तभी वहीँ खड़ी वो आद्रा दिखायी दी,
नज़रें मिली, तो वो चली आयी हमारे पास,
वो लड़का, वापिस हो गया,
प्रणाम हुआ!
हाल-चाल पूछा,
और फिर अपने साथ आने को कहा,
हम चल दिए!
वो हमको घुमाते घुमाते एक स्थान पर ले आयी,
यहाँ एक मंदिर बना था,
कुछ पिंडियां भी थीं,
दीपक जल रहे थे वहाँ,
पक्षी आकर, अपना चारा आदि खा रहे थे,
कुछ गिलहरियां भी खेल रही थीं वहाँ,
कौवे भी अपना हिस्सा चिल्ला चिल्ला कर मांग रहे थे!
अब वो हमको,
एक बड़े से कक्ष के सामने ले आयी,
उसने चप्प्ल उतारे,
तो हमने अपने जूते उतारे,
और अंदर ले गयी,
अंदर,
कंबल लपेटे,
एक बाबा बैठा हुआ था,
सर पर साफ़ा सा बांधे,
सफ़ेद दाढ़ी मूंछें,
मालाएं धारण किये हुए,
भारी-भरकम शरीर उसका,
धूनी वहीँ जमी थी उसकी!
क्रिया का सामान रखा था वहाँ!
आद्रा ने प्रणाम किया!
तो हमको भी करना पड़ा!
"बैठो" वो बोला,
हम बैठ गए,
"बाबा पांडु ने भेजा है?" वो बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"वो पात्र वापिस चाहिए उनको" मैंने कहा,
"कौन सा पात्र?" वो बोला,
"जो आप चुरा के लाये थे" मैंने कह दिया,
अब भड़क उठा!
दांत टकरा गए आपस में उसके!
जबड़ों की मांस-पेशियाँ सख्त हो गयीं!
उसने आद्रा को देखा,
फिर मुझे!
"किसने कहा कि मैंने चुराया?" वो बोला,
"बाबा ने" मैंने कहा,
"झूठ बोलता है साला!" वो बोला,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"मैंने जीता था उसको!" वो बोला,
"किस से?" मैंने पूछा,
"उस पांडु से" वो बोला,
"लेकिन पांडु ने तो नहीं कहा ऐसा?" मैंने पूछा,
"तो मैं कह रहा हूँ न ऐसा?" वो बोला,
"आपका कहना नहीं मानता मैं!" मैंने कहा,
अब तो जैसे बवाल हुआ खड़ा!
उसने आद्रा को देखा!
आद्रा खामोश!
"खड़ा हो जा यहाँ से!" वो बोला,
मैं खड़ा हो गया,
"अब निकल जा यहाँ से!" वो बोला,
"जा रहा हूँ गौरांग! और मुझे उत्तर मिल गया है! तू चोर है!" वो बोला,
अब आद्रा बरस पड़ी मुझ पर!
और निकल जाने को कहा उसने!
हम निकल आये बाहर!
जूते पहने,
और चल पड़े वापिस!
तभी भागी भागी आयी आद्रा!
"रुको?" वो बोली,
मैं रुक गया,
शर्मा जी आगे चले गए,
"हाँ?" मैंने पूछा,
"मैंने क्या कहा था?" वो बोली,
"क्या?" मैंने पूछा,
"वो जीता है बाबा ने" वो बोली,
मैं मुस्कुराया!
"नहीं! चुराया है!" मैंने कहा,
"ठीक है! अब जाओ यहाँ से" वो बोली,
"जा रहा हूँ! आद्रा! सुन लो! बाबा को खबर कर दो! अब वो जितना देख सकता है उस पात्र को देख ले! अब वो खुद देने आएगा या फिर.....!!!" मैंने इतना कह, बात पूरी कर दी!
और चलता बना वापिस!
वो रुकी रही!
और फिर भागी मेरी तरफ!
"तुम? हो कौन?" उसने पूछा,
अब मैंने उसको अपना परिचय दिया!
और उस स्थान के बारे में बताया,
जहां से मैं जुड़ा हुआ हूँ!
वो जान गयी!
और जैसे ही मैं पीछे पलटा,
वो फिर से बोली,"रुको!"
मैं रुक गया,
"कहाँ जाओगे?" उसने पूछा,
"काशी" मैंने कहा,
"वहीँ?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
और मुस्कुराया!
"आद्रा! एक बात कहूं?" मैंने पूछा,
"हाँ?" वो बोली,
"ये तो तुम भी जानती हो कि वो पात्र गौरांग ने नहीं जीता! चुराया है! इसीलिए मुझे रोका तुमने! यही न?" मैंने पूछा,
वो अवाक!
सन्न!
सच्चाई यही थी!
जो वो,
अब सुन रही थी!
और अब मैं,
वापिस लौट पड़ा!
अपना सामान उठाने के लिए!
सीधा पांडु बाबा के पास जाने के लिए!
हम वहाँ से बाहर निकल गए,
फाटक बंद हो गया!
और हम गुस्से में, चलते चलते,
आ गए योगेश के पास,
वो हंस रहा था, जानता था,
"वही हुआ न?" वो बोला,
"हाँ!" मैंने कहा,
"मुझे पता था, उसने बाबा पांडु को भी ऐसे ही झिड़का था!" वो बोला,
वाह!
अब समझ आया!
कोई हार जीत नहीं थी!
ये गौरांग ही चोर था!
बस दुःख था तो उस आद्रा का,
सब जानते हुए भी चुप ही थी!
पता नहीं क्यों!
शायद, डरती थी वो!
हम अपने कमरे में गए,
सामान उठाया,
और फिर योगेश से मिले,
"चल दिए?" उसने पूछा,
"हाँ योगेश" मैंने कहा,
"कहाँ? दिल्ली या फिर काशी?" उसने पूछा,
"काशी" मैंने कहा,
"चलो ठीक है, कभी आओ दुबारा, तो आ जाना!" वो गले लगते हुए बोला!
"ज़रूर!" मैंने कहा,
अब उसने हमारा फ़ोन नंबर ले लिया,
हमने उसका नंबर ले लिया!
और वहाँ से चलते बने!
बाहर आये,
और पैदल पैदल चल पड़े!
फिर सड़क पर आये,
और इंतज़ार किया सवारी का,
फिर एक सवारी मिल गयी,
बैठ गए,
और पहुँच गए वहाँ,
जहां से बस लेनी थी,
बस भी मिल गयी,
और अब बस में बैठ,
हुए वापिस,
पहुँच गए वापिस काशी!
यहाँ से मैं सीधा बाबा पांडु के पास गये,
बाबा पांडु नहीं मिले वहाँ,
खैर,
हम अपने कक्ष में चले गए!
चाय मंगवा ली और अब चाय पी,
और फिर आराम,
आँख लगी, तो सो गए हम!
कोई छह बजे,
बाबा पांडु आ गए,
उदास से,
नमस्कार हुई,
और वे बैठे वहाँ,
मैंने अब तक जो हुआ, सब बता दिया उनको!
"अब बताओ बाबा, क्या करें?" मैंने कहा,
"लड़ाई! अब लड़ाई ही बची है बस!" वे बोले,
मैं समझ गया!
समझ गया उनका आशय,
मुझे ही भिड़ना था!
"दादू बाबा के पास जाना होगा!" मैंने कहा,
"कब चलें?" वे बोले,
"कल चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है, चलते हैं" वे बोले,
और फिर वे चले गए,
तभी मेरा फ़ोन बजा,
अपरिचित सा नंबर था,
मैंने उठाया,
आवाज़ सुनी तो पहचान गया,
ये आद्रा थी!
उस से बात हुई,
वो परेशान सी थी,
जैसे अंतर्द्वंद में फंसी हो!
तभी मेरे दिमाग में एक प्रकाश सा कौंधा!
ये आद्रा!
आद्रा!
काम आ सकती है मेरे!
निःसंदेह!
बस कुछ.......
हाँ!
अब मैंने उसे आत्मीयता जतायी!
मैंने उस से उस पात्र के बारे में पूछा,
तो उसने बताया कि वो पात्र,
आज ही, हमारे जाते ही,
बाबा गौरांग ने ले लिया था!
वो भांप गया था!
जान गया था!
अब वैसा ही हो रहा था जैसा मैं चाहता था!