मुझे भी भावुक कर दिया उसने!
"आद्रा! अब मुक्त हुईं तुम!" मैंने कहा,
वो रो पड़ी!
मैंने बहुत समझाया उसको!
बहुत सी बातें कीं उसने!
"अब अपने स्थान चलो!" मैंने मुस्कुरा के कहा,
वो अब मुस्कुरायी!
"मेरे पास कुछ है, आपके लिए" उसने कहा,
"क्या?" मैंने पूछा,
"ये" उसने मुझे कपड़े में लिपटा,
एक पात्र दे दिया,
यही था वो पात्र,
जिसके लिए ये द्वन्द हुआ था!
मैंने वो पात्र लिया,
"आओ मेरे साथ" मैंने कहा,
और मैं उसको लेकर,
चल दिया,
पहुंचा सीधा पांडु बाबा के पास,
प्रणाम हुआ,
और वो पात्र मैंने उनको दे दिया,
उन्होंने अपने बुज़ुर्ग हाथों से,
वो पात्र पकड़ा!
और अपने गुरु का ध्यान किया,
और आद्रा को बहुत बहुत,
आशीर्वाद दिया,
झड़ी लगा दी उन्होंने!
अब उसको मुक्त करना,
बाबा की ज़िम्मेवारी थी!
मित्रगण! सबकुछ निबट गया,
मैं उसी दिन,
आद्रा के साथ उसके स्थान गया,
पांच दिन वहीँ रहा!
उसके प्रेम की बरसात में भीगता रहा!
शर्मा जी,
यहीं रह गए थे!
पांच दिन बाद मैंने जाने की इच्छा व्यक्त की,
आद्रा बहुत दुखी हुई!
रोती रही!
आखिर में,
वो मेरे साथ मेरे स्थान दिल्ली आ गयी,
यहाँ वो एक माह रही,
मेरी भार्या की तरह!
फिर मैं,
उसको छोड़ने गया,
अब तक वो मेरे संपर्क में है,
बातें तो रोज ही होती हैं!
माह में एक बार, मुझसे मिलने भी आती है!
वो खुश है!
और मैं भी!
बाबा पांडु ने,
गंगा माँ के किनारे जाकर,
एक अनुष्ठान कर,
उस देव-कन्या को,
हमेशा के लिए मुक्त कर दिया!
अब वो गौरांग,
गौरांग बच गया था,
पर अब नेत्रहीन हो चुका था,
चला नहीं जाता था उस से,
आज भी काशी के एक घाट के पास,
बने स्थान में, वो मेघा, मेघा कहता रहता है,
विक्षिप्त हो चुका है,
कभी कभी,
जैसे द्वन्द में ही हो,
ऐसा बर्ताव करता है!
मैंने तीन महीने पहले उसको देखा था,
पर कर कुछ नहीं सकता था!
इस माह आद्रा फिर आ रही है दिल्ली,
हमेशा की तरह!
मित्रगण!
सत्य की राह नहीं छोड़िये!
चाहे प्राण ही चले जाएँ!
असत्य के सिंहासन से अच्छा है,
सत्य की कठिन डगर!
कोई देखे न देखे,
वो तो देखता है!
बस,
और क्या चाहिए!
इस बहाने, उसकी नज़रों में तो आ ही जाओगे!
------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------