पीछे मुड़ा वो!
और लपक कर, एक पात्र उठाया,
सोने का पात्र,
और फिर,
आव देखा न ताव!
खोल दिया वो पात्र!
तभी!
वहाँ सुनहरा प्रकाश कौंध उठा!
औडिम्बा ने भांपा!
और तुरंत लोप हुई,
मेरे समक्ष आयी,
और फिर लोप!
देव-कन्या!
उसका पात्र खोल दिया था उसने!
वो प्रकाश उन दोनों के ऊपर पड़ा!
और गौरांग मद में झूमा!
उसने औडिम्बा को भगा दिया था!
उस देव-कन्या को प्रकट कर के!
"औघड़? अब तेरा काल आ पहुंचा है! बच सके, तो बच ले!" वो चिल्लाया!
मैं घबरा गया!
कैसे लडूंगा उस से?
तभी याद आया मुझे दादू बाबा का बताया उपाय!
मैं उठा,
और फिर,
त्रिशूल लिया!
एक घेरा खींचा,
और कंपक-मुद्रा में बैठ गया!
ये एक विशेष मुद्रा होती है!
इसमें श्री वपुधारक के चौंसठ वीरों का आह्वान किया जाता है!
श्री वपुधारक को वैसे भी आद्य-शक्ति और अघोर-पुरुष का सरंक्षण प्राप्त है!
इसी कारण से मैंने अब उनके महावीरों की स्तुति आरम्भ की!
वहाँ!
अब चूंकि,
वो देव-कन्या बंधी हुई थी,
क़ैद थी,
अपने वचन पर क़ायम थी,
अतः उसे वो सब करना था,
जैसा वो औघड़, गौरांग चाहता था!
ये देव-कन्या,
उसका ब्रह्मास्त्र था!
जो कभी निष्फल नहीं होता!
प्रबल संहारक होता है!
अट्ठहास किया गौरांग ने!
उस दूसरे औघड़ ने भी!
दिव्य-प्रकाश से नहाये हुए थे वो!
परन्तु,
वो देव-कन्या प्रकट नहीं हुई थी!
मात्र प्रकाश रूप में ही,
प्रकट हुई थी!
अट्ठहास कर रहे थे,
वे दोनों!
छाती पर हाथ मारते हुए!
भूमि में पाँव मारते हुए!
"जा! भाग जा!" वो गौरांग!
मैं शांत!
स्तुति करता रहा!
करता रहा!
मैंने इस प्रकार,
अष्टांगना पूर्ण कर लिया,
अब शेष बचा हुआ था!
मुद्रा बदली,
और फिर से अगला अष्टांगना पूर्ण करने हेतु,
स्तुति करने लगा!
"आ! पड़ जा इन पांवों में! क्षमा कर दूंगा मैं!" वो चिल्लाया!
उसका दम्भ!
सर चढ़ के बोला!
मैं शांत!
और स्तुति करते करते,
मैंने सभी अष्टांगनाएं पूर्ण कर लिए!
कर लिए महावीर जागृत!
श्री वपुधारक को शीश नवाया मैंने!
और भूमि की मिट्टी से,
माथे पर,
तिलक बनाया,
व्याल काढ़े भुजाओं पर!
और अब मैं तैयार था!
गौरांग झूमते झूमते रुका!
"ले! आया तेरा काल!" वो बोला,
और फिर उसने,
अपना उद्देश्य,
उस प्रकाश-पुंज से कह दिया,
ज्यों ही कहा,
त्यों ही वो प्रकाश-पुंज,
एक क्षण के दसवें खंड में,
मेरे सामने प्रकट हो गया,
और झटके से,
पीछे हुआ,
वृत्त के चक्कर काटने लगा!
अर्थात!
मेरी सुन ली थी श्री वपुधारक ने!
मैंने मन ही मन,
उनको नमन किया!
वो प्रकाश-पुंज,
इतनी तीव्र गति से घूमा मेरे चारों ओर,
कि प्रकाश की एक रेखा सी खिंच गयी!
ऐसा बहुत देर तक रहा!
और फिर,
शांत!
लौट गया वो!
चौंसठ के सरंक्षण ने,
मेरे प्राण बचा लिए थे!
मैं लेट गया भूमि पर!
और वृत्त में ही खड़ा रहा!
अब मैं चिल्लाया!
मद चढ़ गया!
और उस गौरांग को,
मैंने,
जितनी गालियां मैं जानता था,
कह सुनायीं!
मैं भूमि पर त्रिशूल मारता!
उछलता!
कूदता!
और ललकारता उसको!
गालियां देते जाता,
और हँसता जाता!
हँसता जाता!
वहाँ!
वहाँ तो श्मशान भी काँप उठा!
वो प्रकाश-पुंज,
अपनी कांति खो चुका था!
और फिर लोप हुआ!
टूट गया सरंक्षण!
ख़तम हो गया खेल!
विक्षिप्त सा हो गया गौरांग!
रो पड़ा!
बुरी तरह से!
बालकों की तरह से!
दूसरा औघड़!
भाग गया!
अपने प्राण बचा लिए उसने!
और तब मैं,
खड़ा हुआ,
एक आह्वान किया!
और अब,
अलख पर आ बैठा!
अब बाजी मेरे हाथ में थी!
पर वो गौरांग!
ये जानते हुए भी,
कि बाजी पलट चुकी है,
नहीं माना!
सब भाग गए थे!
लेकिन उसका दम्भ!
उसमे हवा भरे जा रहा था,
वो फूले जा रहा था!
अँधा हो गया था!
बुद्धि और विवेक पर,
दम्भ का आवरण पड़ गया था!
"गौरांग? अभी भी समय है! लौटा दे वो पात्र!" मैंने चेताया उसको!
"हुंह?" वो बोला,
हार नहीं माना!
मैंने फिर से चेताया उसको!
नहीं माना फिर भी!
मुझे एक बार को दया आयी!
मैंने फिर से कहा,
नहीं माना फिर भी!
बस!
अब उसको सीख देना लाजमी था!
अब मैंने भोग-थाल व्यवस्थित किये,
दो दीप आसपास जलाये,
और फिर अपने रक्त का प्याला उठाया,
एक भोग थाल पर,
एक चिन्ह बनाया,
और माथे पर भी!
और अब आह्वान किया मैंने दुःवज्र का!
एक असुर कुमार!
इसको भी सिद्ध किया जाता है!
ये प्रबल तामसिक होता है!
असुर कुमार कहते हैं इसको!
ऐसा कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं,
जिसमे ये पारंगत न हो!
हमारे आधुनिक हथियार तो,
इसके सामने लकड़ी के खिलौने जैसे हैं!
दुःवज्र को सरंक्षण प्राप्त है,
श्री महाऔघड़ का!
मैंने उसी का आह्वान किया!
क्लिष्ट मंत्र पढता गया!
देख लड़ी!
जान गया था गौरांग!
और अब विक्षिप्तता के लक्षण दिखा रहा था!
उसेन वहीँ मूत्र-त्याग किया,
और फिर मदिरापान!
कोई बचाव-क्रिया नहीं!
बस हँसे जाए!
हँसे जाए!
इस बीच,
मैंने सावधान भी किया उसे,
कोई ध्यान नहीं दिया उसने!
रात्रि के ढाई बज चुके थे!
चंद्रमा को गहन काले बादलों ने ढक लिया था!
हवा चल रही थी!
शीतल हवा!
और अलख की लौ उसके साथ साथ नृत्य करती!
वहाँ,
वो हंस रहा था,
अलख में ईंधन झोंक रहा था!
पता नहीं क्या बड़बड़ाये जा रहा था,
शायद कुछ पुरानी यादें थीं,
जिन्हे वो याद कर रहा था,
बार बार, मेघा, मेघा, चिल्ला रहा था!
मैंने फिर से सावधान किया उसे!
उसने फिर से झिड़का!
और हंस पड़ा!
और खड़ा हुआ!
गालियां दीं उसने मुझे!
और फिर हंसा!
"हाँ! चुराया मैंने! चुराया! कौन रोकेगा? कौन रोकेगा?" वो बोले जा रहा था,
आंसू बहाये जा रहा था!
ये हार,
और विक्षिप्तता के लक्षण थे!
कभी अलख में,
मिट्टी फेंकता,
कभी मदिरा डाल, भड़का देता उसे!
और यहाँ!
यहाँ आग का गोला प्रकट हुआ!
शून्य में से!
और धीरे धीरे एक भीमकाय पुरुष की,
आकृति लेने लगा!
आह्वान पूर्ण हुआ था!
मैं खड़ा हुआ,
और भोग अर्पित किया,
और बाद,
अब मैंने उद्देश्य बता दिया उसको!
वो क्षण में ही लोप हुआ!
और वहाँ प्रकट हुआ!
दुःवज्र प्रकट हुआ!
भीषण आग के ताप हुआ वहाँ!
घास जलने लगी!
और अलख की अग्नि,
सोख ली उसने!
अलख शांत हो गयी!
उठा गौरांग!
अपना त्रिशूल उठाया,
अपने गुरु का नाम लिया,
महानाद किया,
और त्रिशूल का फाल उसकी तरफ कर दिया!
ये देख,
दुःवज्र भड़क गया!
और पूर्ण आकृति होते ही,
उसके उसके कंधे से उठाकर,
फेंक दिया सामने,
करीब तीस मीटर,
कराह पड़ा वो!
चिल्लाया,
और फिर से वो अपनी अलख के पास आ गिरा!
अब अचेत था वो!
फिर से उठा वो हवा में,
और ऊपर उड़ा, नीचे गिरा,
पेट के बल!
जबड़ा टूटा,
कंधे टूटे,
पसलियां टूट गयीं,
कूल्हों की हड्डियां बाहर आ गईं,
लहू-लुहान हो गया वो!
सफ़ेद केश,
सफ़ेद दाढ़ी-मूंछें,खून से लाल हो गयीं,
"बस! बस! हे दुःवज्र बस!" मैंने कहा,
अगले ही क्षण,
दुह्वज्र मेरे सम्मुख आया,
और मैं लेट गया नीचे!
मेरा उद्देश्य पूर्ण किया था उसने!
गौरांग अब चित पड़ा था!
अब मैंने दुःवज्र को वापिस किया!
और वो लोप हुआ!
देख लड़ाई!
वाचाल का अट्ठहास हुआ!
वाचाल के अट्ठहास ने द्वन्द-विजय का नाद बजा दिया!
मैंने गौरांग को देखा,
चार लोग उठाये ले जा रहे थे उसको,
भाग भाग कर!
अब मैंने वाचाल को वापिस किया,
और करण-पिशाचिनी को भी!
और लेट गया मैं वहीँ!
और मैं भी थक-हार कर चैन से आँखें बंद कर,
इसी द्वन्द के बारे में सोचता रहा!
मेरी आँख खुली,
शर्मा जी और पांडु बाबा बैठे हुए थे सामने,
मैंने आँख खोली,
तो सभी मुझे उठाने आये,
शर्मा जी ने उठाया,
मैंने सोचा,
कि मैं तो द्वन्द में था,
यहाँ कैसे आ गया?
तभी मुझे एक एक करके,
सबकुछ याद आता गया!
मुझे दुःवज्र का स्मरण हुआ,
और मैं सबकुछ समझता चला गया!
बब पांडु,
अपनी भीगी आँखों से मुझे देख रहे थे,
वो उठे,
और मेरे पास चले आये,
मुझे गले से लगा लिया!
और उनकी रुलाई फूट पड़ी!
उन्होंने कुछ नहीं कहा,
बस, गले लगाए,
मुझे जकड़े रहे,
रोते रहे!
फिर हटे!
मेरे सर पर हाथ रखा!
और माथा चूमा!
और फिर बैठ गए कुर्सी पर,
मैं उठा,
और स्नान करने गया,
बदन में अभी भी दर्द था,
स्नान किया,
और फिर वापिस आया,
शर्मा जी ने मेरे वस्त्र निकाल दिए थे,
मेरे बैग से,
मैंने अब वस्त्र पहने,
और फिर चाय मंगवा ली उन्होंने,
चाय पी,
"अंत हुआ गौरांग का" वे बोले,
प्याला छूट जाता मेरे हाथों से उस समय,
"बचा नहीं?" मैंने पूछा,
"बच तो गया, अब अस्पताल में है" वे बोले,
मुझे तसल्ली हुई,
"आद्रा का फ़ोन आया था, सुबह से न जाने कितनी बार फ़ोन कर चुकी है, उस से बात कर लीजिये" वे बोले,
और मैंने तभी फ़ोन लगाया,
उसने उठाया,
और इस से पहले मैं कुछ कहूं,
वो सुबक उठी!
रो पड़ी!
बहुत देर के बाद,
मैंने उसको यहाँ आने को कह दिया,
मैं अब संतुलित हो चुका था!
ठीक साढ़े बारह बजे,
आद्रा आ गयी,
मुझे देखते ही,
मेरे से चिपट गयी!
आंसू बह निकले उसके!