गौरांग भी आगे बढ़े जा रहा था!
मैं उसको और भड़का रहा था,
ताकि वो सब प्रयोग कर सके,
जो है उसके पास!
फिर,
मैं करूँगा वार!
तभी चिल्लाया गौरांग!
और अलख में भोग दिया!
त्रिशूल लहराया!
और आगे आकर, अपनी साध्वी को,
त्रिशूल से छुआ,
साध्वी मूर्छित हुई!
और उसका शरीर किसी विशेष मुद्रा में,
आकर, कड़ा हो गया!
अब!
अब वीरावती का आगमन था!
भोग थाल सजा दिए गए,
दोनों कपाल उठा लिए गए,
उन पर,
मदिरा के छींटे डाले गए!
और चारों दिशाओं में,
उनको उनके नेत्रों,
गड्ढों से दिखाया गया!
ये स्थान-शोभन क्रिया थी!
मैं अपने चक्र में बैठ हुआ,
जाप कर रहा था,
आह्वान किया जा रहा था!
और तभी मेरे यहाँ,
अंगार से भड़कने लगे!
अंगार कभी लाल,
कभी पीले,
कभी नीले,
ऐसे होते!
चूड़ियों की खनक आने लगी!
जिसे कई सारी स्त्रियां,
समीप आये जा रही हों!
मेरे जाप तीव्र हुए!
और मेरे ऊपर,
रक्त के ठंडे छींटे टपकने लगे!
परन्तु,
एक तीक्ष्ण सुगंध फैलने लगी!
केवड़े जैसी सुगंध!
मेरी आराध्या,
रोड़का का आगमन होने को ही था अब!
और वहाँ,
वहाँ गौरांग हांफ रहा था,
जाप करते करते,
अलख में ईंधन झोंके जा रहा था!
मदिरापान करता,
और फिर से ईंधन झोंकता!
और तभी वहाँ श्वेत प्रकाश,
झलक उठा!
नहा गए सभी वहाँ!
हाँ, उनकी परछाईयाँ नहीं बनी!
ये नहीं बनती कभी भी!
यही ख़ास होता है,
इन शक्तियों के प्रकाश में!
एक घूमते हुए पहियों जैसा,
वहाँ रथ सा प्रकट हुआ!
चमकदार!
उस पर पताकाएं लगी थीं!
फड़फड़ाती हुईं!
और इस रथ के चारों ओर,
चक्कर लगाती हुईं उसके सेविकाएं!
गिर पड़ा नीचे गौरांग!
और भोग थाल थाम लिए,
सेविकाएं नीचे उतरीं,
और अब उद्देश्य बता दिया उसने!
"नाश हो!" वो बोला,
और!
पल में ही वे सभी लोप!
और मेरे यहाँ वो सेविकाएं प्रकट हुईं!
दो सेविकाएं,
सरंक्षण प्राप्त सेविकाएं,
क्रोधित,
हिंसक रूप में!
और तभी!
तभी भूमि में से जैसे आग निकली!
ऐसा ताप, ऐसा ताप कि लौह को भी भस्म कर दे!
वो तो मैंने,
देह-पुष्टि कर रखी थी,
अन्यथा,
मैं भी राख हो जाता नहीं तो!
अब मैं खड़ा हुआ,
नहीं देखा उन सेविकाओं की तरफ!
रोड़का प्रकट हो गयी!
और उसके प्रकट होते ही,
वे सेविकाएं झम्म से लोप हो गयीं!
मैं गिर पड़ा नीचे,
भोग-थाल समर्पित किये!
और फिर मन्त्र पढ़,
उसकी प्रशंसा कर,
उसको लोप किया!
तीसरा वार भी खोखला गया!
चलाया बांस था,
निकला सरकंडा!
वो भी खोखला!
अब तो वहाँ कोहराम सा मच गया!
वीरावती भी छूट गयी उसके वर्चस्व से!
अब क्या हो?
ये क्या हुआ?
कैसे सम्भव है?
ये कौन औघड़ है?
जो काट कर देता है?
कौन है इसका गुरु?
कौन?
कैसे किया?
क्यों?
ऐसे सवा नाचने लगे उसके सामने!
उसको जीभ चिढ़ाते हुए!
उपहास करते हुए!
आँखें फटी रह गयीं उन दोनों की!
सन्न!
त्रिशूल छूट गया हाथ से,
अलख शांत पड़ने लगी!
ईंधन मांगने लगी!
और वो साध्वी,
उठ कर,
पागलों की तरह से भागी वहाँ से!
विक्षिप्त सी!
गौरांग बैठ गया!
"गौरांग!" मेरा स्वर गूंजा!
उसने चरों ओर देखा!
हा! हा! हा! हा!
जबकि,
मैंने कुछ कहा भी नहीं!
उसका अवचेतन मस्तिष्क,
खेल खेल रहा था उस से!
उसने गालियां दीं मुझे!
त्रिशूल उठाया,
और फेंक के मार सामने!
भूमि में गड़ गया वो त्रिशूल!
अब वो दूसरा औघड़,
खाया भय!
दिमाग चलने लगा था उसके गुरु का अब!
अब वो स्व्यं दुविधा में पड़ा!
क्या करे?
भाग जाए?
बचा ले प्राण?
या खड़ा रहे?
वो खड़ा रहा!
और जाकर,
त्रिशूल, भूमि में से,
निकाल लाया!
और दे दिया गौरांग को!
गौरांग ने उसको ही झिड़क दिया!
और त्रिशूल,
ले लिया उसके हाथों से!
अब उनसे अपना चाक़ू उठाया,
और अपनी बायीं कलाई चीर डाली!
और रक्त हाथ में इकठ्ठा कर लिया!
अलख तक गया!
और एक आन लगायी!
आन!
अब था भीषण द्वन्द!
आन का द्वन्द!
अलख तक गया वो!
और फिर एक नाद किया!
और वो रक्त,
अलख में झोंक मारा!
दूसरे औघड़ ने उसमे ईंधन झोंका!
अलख भड़की!
और फिर वो गौरांग खड़ा हुआ!
भूमि पर अपने त्रिशूल से,
एक आकृति बनायी!
और फिर मांस के टुकड़े सजाये वहाँ!
और अब उसके मध्य बैठ गया वो!
तभी कर्कश सा स्वर गूंजा!
स्वर कर्ण-पिशाचिनी का!
"ब्रह्माणी"
ब्रह्माणी!
तो अब दांव पर लगा दी थी उसने ये ब्रह्माणी भी!
इसी को आन लगायी थी उसने!
अर्थात, इस ब्रह्माणी ने अपना लक्ष्य भेदन करना ही था!
ब्रह्माणी!
एक यक्षिणी की उच्च-सहोदरी है!
चौंसठ अन्य उप-सहोदरियों द्वारा सेवित है!
रौद्र है!
भयानक है!
एक सौ एक रात्रि की साधना ही इसकी!
अत्यंत क्लिष्ट साधनाओं में से एक है!
वट-वृक्ष के नीचे,
कस्तूरी मृग के चर्म से बने,
आसान पर साधक बैठकर,
इसकी साधना करता है!
इसकी सामग्रियां भी बहुत दुर्लभ हुआ करती हैं!
गुरु का वहाँ उपस्थित होना,
अत्यंत आवश्यक है!
अन्यथा,
प्राण तो हर ही लेती है ये!
तो अब उसने ये भीषण चाल चली थी!
एक अमोघ वार!
गौरांग प्रबल था,
बहुत प्रबल!
ये मुझे दिख रहा था!
वो दूसरा औघड़,
जाप किये जा रहा था!
और ईंधन झोंके जा रहा था,
अलख में!
अब मैंने मोर्चा सम्भाला,
औडिम्बा!
हाँ, औडिम्बा!
ये भी एक प्रमुख सहोदरी है,
एक दश महा-विद्या में से एक महा-विद्या की!
इसको कमलाक्षी भी कहा जाता है,
मुख्यतः बंगाल और असम में,
नेपाल,
और इस तरफ का भारत इसको,
औडिम्बा नाम से ही जानता है!
मैंने अब अपना खंजर उठाया,
और एक कलाई को चीर लिया,
रक्त बह निकला,
और अब मैंने रक्त को एक छोटे पात्र में इकठ्ठा कर लिया,
और अलख की भस्म से, वो चीरा मल लिया!
रक्त बंद हो गया!
अब मैंने वहाँ मिटटी ली,
और मदिरा मिलायी उसमे,
अब एक आकृति बनायी,
एक स्त्री-आकृति,
फिर उसके आसपास मांस के टुकड़े रखे,
और अब मैंने उसको अभिमंत्रित किया,
आधी को बीच में से काला डोरा रख कर,
भस्म से लीप दिया!
और किया अट्ठहास!
मेरी देख लड़ी उस से,
वो ब्रह्माणी के जाप में आँखें मूँद,
मंत्रोच्चार किये जा रहा था!
यहाँ मैं,
और वहाँ वो!
तभी वहाँ, एक अट्ठहास सा गूंजा!
खड़ा हो गया वो औघड़!
और आकाश को देखा,
मंत्रोच्चार क्लिष्ट हुए अब!
और वो आकाश को देखते हुए,
मन्त्र पढ़ता रहा!
दूसरा औघड़,
ईंधन फूंकता रहा!
और वो भी मंत्र पढ़ता रहा!
मंत्रोच्चार वहाँ भी थे,
और यहाँ भी!
तभी वहाँ,
लोथड़े गिरने लगे!
फूल भी गिरे!
काले से फूल!
बैंगनी से फूल!
ये ब्रह्माणी का आगमन का सूचक था!
वो किसी भी क्षण वहाँ आने ही वाली थी!
और यहाँ मैं अब खड़ा हुआ,
मैंने तब, मांस का भोग दिया अलख में,
और भस्म मल ली अपने वक्ष पर!
और फिर से मंत्रोच्चार में डूब गया!
ढप्प! ढप्प! ढप्प! ढप्प!
कपाल गिरने लगे मेरे यहाँ!
वे गिरते,
और लोप हो जाते!
मैं समझ गया,
औडिम्बा का आगमन हो गया है!
और फिर अट्ठहास गूंजा!
आकाश को फाड़ देने वाला अट्ठहास!
वहाँ उड़ते कीट-पतंगे,
उस अट्ठहास से निष्प्राण होकर गिरने लगे!
फिर केश गिरे!
गुच्छे के गुच्छे!
वे गिरते,
और आग लग कर,
स्वतः ही भस्म हो जाते!
और तब,
जैसे आकाश फाड़ती हुई कोई आकृति,
वहाँ प्रकट हो गयी!
मैं दौड़ पड़ा!
अपने केश कंधे पर किये,
माथे से हटाये,
और भोग-थाल उठा लिया,
इसमें तीन पात्र थे,
एक में मदिरा,
एक में मांस,
और एक में मेरा रक्त!
ये थी भोग-सामग्री!
औडिम्बा,
धुंधली सी आकृति में प्रकट हुई थी!
ऐसा ही होता है!
उसके प्रकट होते ही,
आसपास का माहौल शांत हो जाता है,
जो जहाँ है,
वहीँ ठहर जाता है,
क्या पक्षी,
क्या पशु,
और क्या कीट,
क्या जलचर!
सभी को जड़ मार जाता है!
वहाँ, वहाँ ब्रह्माणी प्रकट हुई!
रौशनी बिखेरती हुई!
गले में पुष्प-माल धारण किये हुए!
और उसकी सेविकाएं, मुंह फाड़े,
जिव्हा बाहर निकाले,
बस उद्देश्य जानना चाहती थीं वो!
अब वो औघड़ रोया!
याचना की,
और उद्देश्य बता दिया!
हुंकार मारती हुई वे सेविकाएं दौड़ पड़ीं आकाश में!
और मेरे यहाँ, मेरे पास,
वायु में कोई तीस फीट ऊपर,
चक्कर लगाती हुई,
प्रकट हो गयीं!
तभी!
औडिम्बा को क्रोध आया,
जिव्हा निकाल कर,
उसने हुंकार भरी!
और भागी उनके पीछे,
वे सीधे अपनी सरंक्षिका,
ब्रह्माणी के समख प्रकट हुईं!
तभी प्रकट हुई वहाँ औडिम्बा!
औडिम्बा को देख,
सभी वहाँ से लोप!
औघड़ गिर पड़ा नीचे!
अब मेरा वार था!
अब मुझे वार करना था!
मित्रगण!
सामने मृत्यु साक्षात खड़ी थी उनके!
वे दोनों साध्वियां,
भाग पड़ीं वहाँ से!
दूसरा औघड़,
गौरांग के पीछे आ खड़ा हुआ!
गौरांग की आँखें फट गयीं!
जड़ मार गया उन दोनों को!
साँसें रुक गयीं!
गला रुंध गया पीड़ा से!
कलेजा,
मुंह को आ गया!
औडिम्बा ने अट्ठहास किया!