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वर्ष २०१३ काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 और फिर महानाद किया उसने!

 और फिर सामने मदिरा उड़ेली,

 मिट्टी उठायी,

 मन्त्र पढ़ा,

 और अपनी एक साध्वी के वक्ष पर फेंक मारा!

 वो खड़ी हुई!

 चीख मारी उसने,

 और पीछे लेट गयी!

 अब चढ़ गया वो उस पर,

 और बैठ गया,

 यामिक-मंत्र पढ़े उसने!

 अर्थात अब वो आसन थी उसका!

 अब उसने मंत्र पढ़ने शुरू किये!

 तभी कर्ण-पिशाचिनी का कर्कश स्वर गूंजा!

 "धूमाक्षी!"

 धूमाक्षी?

 इस औघड़ से सिद्ध?

 कमाल है!

 तभी वो लटें मेरे पास भिजवायी थीं इसने!

 सभी धूमाक्षी के आखेट हुए थे!

 इसी औघड़ ने मारा था उनको!

 इसी धूमाक्षी से संहार किया था उन सब का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब समझ आया मुझे!

 धूमाक्षी!

 मदनी यक्षिणी की प्रधान सहोदरी!

 इस से भिड़ना,

 इतना सरल नहीं!

 प्राण कभी भी उड़ सकते हैं,

 देह से!

 एक वार और 'उस' से साक्षात्कार!

 मदनी स्व्यं बहुत क्रूर, रौद्र, भयानक होती है!

 प्रबल संहारक होती है!

 बहुत खतरनाक और विनाशिनी हुआ करती है!

 एक सौ ग्यारह दिनों की,

 श्मशान में सिद्ध होती है,

 बारह साध्वियों की आवश्यकता होती है!

 इक्यावन बलि-कर्म से जागृत हुआ करती है!

 तब जाकर ये प्रसन्न होती है!

 अब मुझे,

 इसकी काट करनी थी,

 और इसके लिए,

 मुझे कुछ विकल्प अवश्य ही ढूंढना था!

 और ये विकल्प था,

 कंक-मालिनी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ये भी एक महाशक्ति की,

 प्रधान सहोदरी है!

 प्रबल तामसिक है!

 बहुत क्रूर है!

 रसातल में वास करती है!

 एक सौ तेईस दिनों की साधना है,

 चौंसठ बलि-कर्म से जागृत होती है!

 तदोपरांत,

 साधक के साथ वास करती है,

 साध उस समय के लिए,

 इस संसार से कट जाता है,

 उसके न दिन का पता होता और न रात का!

 ऐसा प्रभाव है इस सहोदरी का!

 अब मैंने उसी का आह्वान किया,

 एक घेरा खींचा,

 सात टुकड़े मांस के रखे वहाँ,

 और परिधि का माप किया,

 मैं इस वृत्त में पश्चिम की ओर खड़ा हुआ,

 और अब, अपने खंजर से,

 मैंने अपना अंगूठा चीरा!

 और रक्त की बूँदें बिखेर दीं

 वृत्त, पोषित हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अब मैं बैठ गया इसमें, और किया घोर मंत्रोच्चार!

 देख लड़ी!

 वो जान गया मेरा क्या बचाव होगा!

 उसका चेहरा देखा!

 अवाक था वो!

 रंगत दाढ़ी समान ही हो चुकी थी उसकी!

 फक्क पड़ चुका था वो!

 उसने धूमाक्षी का संधान किया और मैंने,

 यहाँ कंक-मालिनी का आह्वान किया!

 मैंने अट्ठहास किया!

 प्रबल अट्ठहास!

 और हंसा!

 बहुत हंसा!

 खांसी आ गयी!

 और मैं खड़ा हो गया!

 महानाद किया!

 चिल्लाया!

 और वे डरे!

 डरना ही था!

 दो वार तो ऐसी ही खाली हो गए थे!

 अथक तपस्या,

 धूल में मिल गयी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 सहसा!

 गौरांग खड़ा हुआ!

 और साध्वी से उतरा!

 और फिर एक मंत्र पढ़ा,

 साध्वी के सर पर हाथ रखा,

 लेटी साध्वी,

 खड़ी हो गयी!

 पर,

 वो काँप रही थी!

 हाथ-पाँव चला रही थी!

 अपने ही केशों को मुंह में भर,

 चबा रही थी!

 आँखें फूल आयी थीं उसकी!

 देह, और सुगठित सी हो गयी थी उसकी!

 "जाग! जाग! जाग धूमाक्षी जाग!" वो चिल्लाया,

 चिमटा खड़खड़ाया उसने!

 और साध्वी के चककर काटे अब!

 दूसरा औघड़,

 कपाल कटोरे में भर भर के,

 मदिरा पी रहा था!

 कलेजी के टुकड़े, निगले जा रहा था!

 कभी चिल्लाता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कभी अट्ठहास करता!

 तभी वो कांपती सी साध्वी,

 चिल्ला पड़ी!

 कानों पर हाथ रखे,

 जैसे फूंक मारती रही!

 कभी हाथ काटती अपना,

 कभी केश!

 कभी गौरांग को पकड़ती!

 और गौरांग!

 दम्भ में,

 गाल बजाता!!

 द्वन्द चरम पर था!

वो साध्वी हंसी!

 और फिर चिल्लाई,

 अनाप-शनाप सा बका उसने!

 और हम दोनों डटे रहे!

 गौरांग बैठ गया आसन पर,

 और अब कपाल लिए उसने,

 गोद में रखे,

 उनके ऊपर,

 रक्त से चिन्ह बनाये!

 और फिर महानाद किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 बहुत तेज!

 औघड़ अब क्रोध में था!

 भयानक क्रोध में!

 "धूमाक्षी! प्रकट हो!"

 वो बोला,

 भूमि पर पड़े पत्ते,

 घास, सभी उड़ चले,

 तेज वायु चली!

 और मांस-रक्त की गंध वहाँ बह चली!

 तीन ज्योतियां प्रकट हुईं वहाँ!

 और फिर एक हुईं!

 एक स्त्री के रूप में,

 भयानक रूप उसका,

 रौद्र!

 भीषण!

 अब भाग गौरांग उसकी ओर,

 रो रो कर,

 गिड़गिड़ाते हुए, अपना उद्देश्य बता दिया,

 भोग अर्पित किया उसने,

 और धूमाक्षी,

 चक्रिका का सा रूप लेकर,

 वहाँ से लोप हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 यहाँ मैंने,

 पूर्ण आह्वान कर लिया था,

 अंतिम आहूत करने पर,

 भयानक शोर गूंजा!

 अस्थियां गिरने लगीं आकाश से!

 और कंक-मालिनी अवतरित हुई वहाँ!

 मैं झुक गया!

 घुटनों पर बैठ गया!

 मैं अपना उद्देश्य कहता,

 इस से पहले ही,

 धूमाक्षी प्रकट हो चुकी थी वहाँ!

 कंक-मालिनी के नेत्र उस पर पड़े,

 और वो,

 तभी अवशोषित हुई!

 चक्रिका से छोटी होती गयी,

 होती गयी,

 और फिर लोप हुई!

 लौट गयी धूमाक्षी!

 अब मैंने भोग अर्पित किया!

 और अब, वो लोप हुई!

 चली गयी धूमाक्षी!

 जीत गया मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कंक-मालिनी ने प्राण बचा लिए मेरे!

 मैं प्रणाम करता रहा उसको!

 ये देखा उस गौरांग ने,

 धक्क!

 धम्म!

 बैठ गया नीचे,

 थोड़ी देर तक तो ऐसे ही बैठा रहा,

 और फिर,

 मदिरा ली,

 बिखेर दी, अलख के चारों ओर,

 और अब बढ़ा अपनी साध्वी की तरफ!

 वो साध्वी अब चिल्लाई!

 बहुत बुरी तरह से!

 और ठहाके लगाए उस गौरांग ने!

 मदिरा के छींटे दिए उसको!

 वो अब नाचने लगी!

 कूदने लगी!

 लेटने लगी!

 मिट्टी में सन गयी!

 और फिर आसन लगा बैठ गयी!

 और फिर चिल्लाया गौरांग!

 वो औघड़ भी चिल्लाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 तब, खड्ग उठाया गौरांग ने,

 और वो दूसरा औघड़,

 एक मेढ़े को ले आया,

 मन्त्र पढ़,

 उसकी गर्दन उसने भेरी पर फँसायी,

 और फिर अपनी अधिष्ठात्री का नाम लेकर,

 एक ही वार में उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी,

 और थाम लिया उसके धड़ को!

 पात्र भर लिए रक्त से,

 उस धड़ से बहते हुए फव्वारे से,

 बहुत रक्त उस फव्वारे में बहा!

 भर लिए पात्र!

 और अब अपनी अधिष्ठात्री को नमन कर,

 एक पात्र को उठाया,

 उस गौरांग ने,

 और एक प्याला डुबोकर,

 पी गया!

 फिर से मन्त्र पढ़े,

 उस साध्वी पर, रक्त से चिन्ह बनाये,

 और फिर गर्रा पड़ा!

 बैठ गया वहीँ!

 और तभी मेरे कानों में,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वाचाल के भारी शब्द पड़े,

 "वीरवती!"

 वीरावती!

 वाह!

 ये सच में बहुत प्रबल औघड़ था!

 उसके गुरु ने,

 बहुत श्रम किया था उसके साथ,

 ये वीरावती,

 दश-महाविद्या में से एक महा-विद्या की,

 सहोदरी है!

 सर्व-कालबली है,

 इसकी साधना क्लिष्ट न होकर,

 साधारण ही है!

 मात्र ग्यारह रात्रि की साधना है,

 इसका जप नहीं किया जाता,

 इसकी अधिष्ठात्री का जप होता है,

 और फिर ठीक ग्यारहवें दिन,

 यही वीरावती प्रकट होती है!

 एक दैविक-स्त्री का सा रूप होता है इसका,

 एक ही वस्त्र से,

 समस्त शरीर ढका रहता है,

 साधक से तीन प्रश्न किया करती है,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 कोई उच्चतम गुरु ही उसके उत्तर जाना होता है,

 वही मदद करता है साधक की,

 अन्यथा,

 प्राण संकट में पड़ सकते हैं!

 ये वीरावती दैविक-रूप तो रखती है,

 पर, है घोर तामसिक!

 साधक का रक्त धुआं हो,

 उड़ने लगता है!

 दिन प्रतिदिन,

 साधक,

 असफल होने पर,

 मृत्यु की ओर,

 बढ़ता चला जाता है!

 ये सहोदरी,

 चौरासी उप-सहोदरियों द्वारा सेवित है,

 इसमें डाकिनी और शाकिनी सम्मिलित हुआ करती हैं!

 अब मुझे भी कुछ करना था!

 गौरांग ने ऊंचे स्तर का वार खेला था अब!

 तभी मेरे दिमाग में,

 एक विचार कौंधा!

 रोड़का!

 हाँ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 रोड़का!

 प्रबल महाशक्ति की प्रधान सहोदरी!

 उसके केश-सज्जा का कार्यभार संभालती है ये!

 अत्यंत क्रूर,

 क्षण में भस्म कर देने वाली है,

 स्थूल तत्व तो जैसे मोम की तरह,

 पिघलने लग जाते हैं!

 जहाँ प्रकट हुआ करती है,

 वहाँ अग्नि स्वतः ही जल जाती है!

 ऐसा है इसका तेज!

 इसका प्रभाव!

 एक सौ इक्कीस गणिकाओं द्वारा सेवित है!

 त्वभद्रा इसकी सबसे अमोघ गणिका है,

 पल में नाश करती है!

 आसुरिक शक्तियों की अधिष्ठात्री है!

 और असुरों में पूज्य देवी!

 अब मैं बैठा,

 और अब एक चक्र खींचा,

 भूमि पर,

 एक यन्त्र बनाया,

 और फिर उसके अंदर,

 मांस रखा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ग्यारह टुकड़े,

 और कुछ और सामग्री,

 अंगूठा चीर,

 इस चक्र के मध्य में,

 रक्त टपकाया,

 और फिर जाप किया!

 क्लिष्ट और महाप्राण मन्त्रों के उच्चारण ने,

 उस श्मशान का,

 सीना बींध दिया!

 उल्लू कर्राने लगे!

 चमगादड़, फड़फड़ाने लगे!

 उल्लुओं ने तो,

 कोहराम सा मचा दिया!

 और मेरे मंत्र भीषण हो चले अब!

 अलख में भोग देता जाऊं,

 और अलख मुंह फाड़े,

 और मैं उसका पेट भरे जाऊं!

 जलते मांस की गंध फ़ैल रही थी!

 दूर श्मशान के बाहर,

 श्वान कुलबुला रहे थे!

 कोई भौंक रहा था,

 कोई रो रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और श्मशान,

 अपने यौवन पर था!

 गौरांग और मैं,

 एक दूसरे के शत्रु,

 डटे हुए थे!

 एक के गुरु की लाज लगी थी,

 और एक के गुरु के सिखाये ज्ञान की साख लगी थी!

 मैं सत्य की राह पर था,

 सत्य की राह पर चलने से,

 मन में आत्मविश्वास बना रहता है!

 विवेक, सदैव साथ रहता है!

 और असत्य के मार्ग पर,

 पल पल उसको छिपाना पड़ता है!

 अपने खोखले दम्भ से!

 मन में कहीं न कहीं इसका आभास रहा ही करता है,

 कि मैं असत्य के मार्ग पर हूँ!

 और यहीं,

 विवेक साथ छोड़ जाता है!

 यही मूल अंतर है,

 सत्य और असत्य की राह का!

 मैं आगे बढ़ रहा था!

 द्रुत गति से,


   
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