अभी भी गीला ही था,
"ये जैकेट ही पहन जाओ" मैंने कहा,
थोड़ी न -नुकुर के पश्चात,
वो मान गयी,
उसके लटें उसके माथे से झूल रही थीं नीचे,
उसने अपने हाथ से उनको,
कान पर शरण दी,
बला की सुंदर है वो!
मैं तो भेड़िया सा बन चुका था,
पर क्या करता,
अब अपने दांत भोथरे ही रखने थे,
विवशता थी!
मैं बाहर तक आया उसके साथ,
और फिर वो चली गयी,
मैं देखता रहा उसको जाते हुए!
और मैं फिर वापिस हुआ,
अब मेरे पास चार दिन शेष थे,
इन चार दिनों में,
मुझे सभी तैयारियां करनी थीं,
शक्ति-उत्थान,
शक्ति-संचरण,
मंत्र और विद्या जागरण इत्यादि,
मैंने यही किया,
उस दिन शाम पांच बजे,
मैं स्नानादि से निवृत होकर,
क्रिया-स्थल में पहुंचा,
वहाँ अब अलख उठायी,
गुरु-नमन और अघोर-पुरुष नमन किया,
और अब शक्ति-उत्थान क्रिया आरम्भ की,
मुझे तीन घंटे लगे,
और फिर मैं वापिस हुआ,
उस दिन शाम को भी आद्रा का फ़ोन आया,
उसने मुझे बताया कि गौरांग वहाँ आ पहुंचा है, और अब,
अपनी क्रियायों में तत्पर है,
और फिर कुछ और बातें बतायीं,
जो मेरे बहुत काम आ सकती थीं,
दूसरे दिन भी मैंने शक्ति-संचरण किया,
और अन्य कई मंत्र आदि भी जागृत किये,
इन मन्त्रों की,
अत्यंत आवश्यकता होती है,
किसी बी शक्ति का आह्वान करने हेतु,
प्राण-रक्षा हेतु,
क्रिया-चलायमान रखने हेतु!
यही सब किया,
और फिर से शाम को बात हुई आद्रा से,
आद्रा ने बताया, कि गौरांग ने,
मेरे बारे में जानकारी प्राप्त की है,
और वो अपनी जीत के लिए आश्वस्त है,
मैंने उसको समझाया,
हिम्म्त बंधाई,
और फिर उस रात भी मैं,
क्रिया-स्थल में ही रहा,
यहाँ मैंने अब अन्य औघड़-शक्तियां जागृत की,
दो दिन बीत चुके थे,
मैं अपनी तैयारियों में व्यस्त था,
अब बस,
मेरे सामने मेरा शत्रु ही दिखायी दे रहा था,
वो गौरांग!
प्रबल औघड़ गौरांग!
तीसरा दिन भी आ गया,
और इस दिन मैंने कई भीषण शक्तियां साधी,
अत्यंत भीषण,
और उनका आह्वान भी किया,
उस शाम भी आद्रा ने मुझे फ़ोन किया,
और ये बताया कि गौरांग ने,
आद्रा को भी क्रिया का हिस्सा बनने के लिए,
आमंत्रण दिया है,
जिसे उसने नकार दिया था!
मुझे बहुत ख़ुशी हुई!
बहुत ख़ुशी!
उस रात भी मैंने क्रिया-स्थल में ही शयन किया!
कोई क़सर नहीं छोड़ी!
फिर आया चौथा दिन,
उस दिन आद्रा मुझ से मिलने आयी,
मैं मिला उस से,
उसने मुझे एक एक गतिविधि के जानकारी दी!
इस से मुझे बहुत सहायता मिली!
और फिर कुछ देर रुकने के पश्चात,
आद्रा वापिस चली गयी!
अब मिलन कब होगा.
ये पता नहीं था!
अब तो जीवित रहेगा,
वही विजयी होगा!
अब संग्राम था!
भीषण-संग्राम!
मित्रगण!
उस रात्रि मैंने महा-क्रिया की,
और एक भोग चढ़ाया तंत्र-अधिष्ठात्री को!
भोग स्वीकार हो गया!
और मैं,
फूल कर कुप्पा हो चला अब!
अब तो मैं किसी से भी भिड़ने को तैयार था!
किसी से भी!
अब भले ही मेरे,
सामने कोई देव-कन्या से सरंक्षित,
औघड़ ही हो!
उस रात्रि मैं वहीँ सोया!
और फिर पांचवा दिन भी आ गया!
मैं स्नानादि से निवृत हुआ,
और तभी फ़ोन बजा,
ये आद्रा ही थी,
उसने सूचित किया मुझे कि,
उसका भाई भी उस गौरांग के साथ ही है,
एक सहायक औघड़ के रूप में,
गौरांग ने चार साध्वी भी ले ली हैं!
चार साध्वियां!
सोलह योगिनियां!
योगिनी-चक्र!
देव-कन्या का सरंक्षण!
सध के खेल खेलने वाला था गौरांग!
लेकिन!
मैं भी तत्पर था!
मैंने आद्रा का धन्यवाद किया,
और सीधा क्रिया-स्थल में कूच कर गया!
वहाँ पहुंचा,
देह-पुष्टिकरण किया,
उच्चारण-शुद्धि की!
शक्ति-उत्थान पुनः किया!
और अब मौन-व्रत धारण कर लिया!
अब आज रात्रि, ग्यारह बजे से,
दोनों भिड़ने वाले थे!
मैंने संध्या समय,
सात बजे अपना मौन-व्रत तोड़ा!
और फिर क्रिया-स्थल में गया,
वहाँ मैंने अब अपने सभी तंत्राभूषण को पोषित किया,
और फिर पूजन!
चार साध्वियां लाया था वो!
सोलह चौक चौंसठ!
चौंसठ योगिनियां!
पर,
उसको सम्भवतः,
ये मालूम नहीं था,
अनभिज्ञ था कि,
मैं जिसके सरंक्षण में हूँ,
उसके सामने ये चौंसठ योगिनियां,
नृत्य करती हैं!
उसके डमरू की आवाज़ से,
श्मशान ठहर जाता है!
वेताल, योगिनियां, महाप्रेत और अन्य,
सुरक्षित शरण ले लेते हैं जाकर!
अनभिज्ञ था वो इस से!
करीब आठ बजे,
मेरे पास फ़ोन आया,
आद्रा का,
वो कुछ घबरायी हुई,
कुछ विश्वस्त सी,
मिश्रित भाव में बात कर रही थी!
मैंने उसको हिम्म्त बंधाई,
और चिंतामुक्त होने को कहा!
उसने मेरे लिए पूजा-अर्चना आरम्भ कर दी थी!
ये मेरे लिए बल था!
एक मानसिक बल!
जिसकी मुझे बहुत आवश्यकता थी!
मैं क्रिया-स्थल पहुंचा,
तभी बाबा पांडु आ गये,
मैंने पाँव पड़े उनके,
उन्होंने गले से लगाया मुझे,
मेरी कमर पर थाप दी,
माथे को चूमा!
"दादा श्री जैसा ललाट है तुम्हारा!" वो बोले,
अब दादा श्री का ज़िक्र आया, तो,
आँखें नम सी हो गयीं मेरी,
"विजयी होंगे तुम!" बाबा ने कहा,
और मैं जैसे विजय गंध से झूम पड़ा!
"सारा सामान, सामग्री, भोग, वस्तुएं, सभी लगा दी गयी हैं! वहाँ उस श्मशान में!" वे बोले,
मैंने फिर से चरण छुए उनके!
और फिर से आशीर्वाद!
मित्रगण!
मैं शर्मा जी से मिला,
वो चिंतित थे,
हमेशा की तरह,
पर भय नहीं दिखाया उन्होंने!
मुझे गले से लगाया,
और कमर ठोकी मेरी!
"जाइये गुरु जी! मेरी नज़रें इसी दरवाज़े पर टिकी रहेंगी!" वे बोले,
और मैंने गले से लगा लिया उनको!
मैं ठीक दस बजे,
वहाँ पहुँच गया,
सारा सामान सुव्यवस्थित था वहाँ,
भोग-थाल,
दीप-माल,
भेरी,
खडग,
और एक मेढ़ा!
स्थान स्वच्छ था!
आसपास पेड़ लगे थे,
बटगढ़ और पीपल के,
पत्ते खड़खड़ा रहे थे उनके!
जैसे,
मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे हों!
अब मिअने घेरा खींचा,
एक बड़ा घेरा,
अपने त्रिशूल से!
और फिर अपना बैग खोल,
सारा सामान निकाल लिया!
चिमटा,
कपाल,
हस्त-अस्थियां,
अस्थि-दंड!
सब!
दीप जलाये,
और फिर मदिरा रख दी निकाल कर वहाँ,
कपाल सम्मुख रखा!
वो कपाल मुझे ही देख रहा था!
आँखें फाड़ फाड़ कर!
अब मैंने अलख उठायी!
अलखनाद किया!
ईंधन झोंका!
और कपाल कटोरे में,
मदिरा परोसी!
श्री महाऔघड़ का नाम लिया!
और फिर चिमटा खड़खड़ा दिया!
और कपाल कटोरा होंठों को लगाया,
और पी गया वो मदिरा!
अभिमंत्रित मदिरा!
अब भस्म-स्नान किया,
माथे पर,
त्रिपुंड काढ़ा,
रक्त से,
और फिर अब!
खड़ा हुआ,
महानाद किया!
वक्ष पर,
एक तांत्रिक-चिन्ह काढ़ा!
सम्मुख एक शक्ति-चतुर्भुज बनाया,
और फिर से कपाल कटोरे में,
मदिरा परोस,
पी गया!
और श्री-महाऔघड़ का नाम लिया!
वपुधारक का नाम लिया,
और अलख में भोग दिया!
और अब!
अब मैंने अपने खबरी,
वाचाल महाप्रेत का आह्वान किया!
भयानक अट्ठहास करता हुआ,
गले, भुजाओं और पांवों में पड़े,
कड़ों की खंकार करता हुआ,
वो प्रकट हुआ!
अट्ठहास!
और अब मैंने भोग समर्पित किया!
भोग पश्चात,
वो लोप हुआ,
और फिर मुस्तैद!
अब रह गयी कर्ण-पिशाचिनी!
अब उसका आह्वान किया!
इंसानी कलेजे को जैसे भून दिया गया हो,
ऐसी गंध फ़ैल गयी!
श्मशान के भूत-प्रेत छिटक गए वहाँ से!
ऑंधिया आ डटा!
और फिर सर के बल खड़ा होकर,
अट्ठहास किया उनसे!
और फिर लोप!
मिल गयी उसकी अनुमति!
रक्त की बौछार करती हुई,
भयानक अट्ठहास करती हुई,
कर्ण-पिशाचिनी,
प्रकट हो गयी!
भोग पश्चात,
लोप हुई!
और फिर मुस्तैद!
हो गया औघड़ तैयार!
अब सामने कोई भी हो!
कोई भी!
औघड़ तैयार था!
अलख भड़क उठी!
और मैंने और ईंधन झोंका!
और अब लगायी देख!
वहाँ का दृश्य देखा,
अलख भड़क रही थी!
चारों साध्वियां,
अलख के चारों ओर झूम रही थीं!
चार कपाल लेकर,
बाबा गौरांग,
सर पर काला कपड़ा बांधे,
किसी मंत्रोच्चार में लीन था!
मेरी देख पकड़ी उसने!
और वो हंसा!
अट्ठहास लगाया,
उसने लगाया तो उसके सहायक ने भी अट्ठहास लगाया,
अपनी जांघे पीटते हुए,
अट्ठहास पर अट्ठहास!
गौरांग खड़ा हुआ,
चौड़े फाल वाला त्रिशूल,
उखाड़ा उसने भूमि से!
और मेरी ओर किया!
फिर तीन बार लहराया!
और फिर से गाड़ दिया!
ये चेतावनी थी!
"थू!" मैंने थूका सामने!
ये मेरा उत्तर था!
गौरांग ने अपना पाँव तीन बार भूमि पर मारा,
और फिर अपना घुटना छुआ!
अर्थात,
एमी क्षमा मांग लूँ उस से!
अनुभव क्र.७८ भाग ४
By Suhas Matondkar on Wednesday, October 8, 2014 at 6:36pm
नहीं तो मेरी मृत्यु तीन बार होगी!
ऐसा घमंड!
ऐसा व्यवहार!
मैं खड़ा हुआ!
पाँव से,
भूमि पर, पांच बार थाप मारी,
और फिर थूक दिया!
अर्थात,
जैसा मैं चाहता हूँ,
वैसा ही होगा,
तुझे हटना है तो हट जा!
वो हंसा!
अट्ठहास किया!
और बैठ गया नीचे!
कपाल कटोरे में,
मदिरा परोसी और गटक गया!
उसने तभी,
अपनी एक नग्न साध्वी को उठाया,
उसके केश पकड़े,
और नीचे फेंक मारा!
साध्वी चक्कर लगाने लगी,
गोल गोल!
कोई मंत्र प्रहार किया था उसने शायद!
कभी बैठ जाती,
हंसती,
कभी रोती,
कभी टांगें फैलाये,
कामुक मुद्रा में साधक को बुलाती!
स्पष्ट शब्दों में!
गौरांग आगे बढ़ा!
और अपना त्रिशूल उसके योनि-प्रदेश से छुआ दिया!
उसकी योनि से,
रक्त का फव्वारा फूट निकला!
और वो हँसे जाए!